Friday, November 22, 2024

देवी अथर्वशीर्षं

 

देवी अथर्वशीर्षं 

 

सर्वे वै देवा देवीमुपतस्थुः कासि त्वं महादेवीति || ||  

 

साब्रवीत् - अहं ब्रह्मस्वरूपिणी | मत्तः प्रकृतिपुरुषात्मकं जगत्

शून्यं चाशून्यं || || 

 

अहमानन्दानन्दौ | अहं विज्ञानाविज्ञाने | अहं ब्रह्मब्रह्मणी वेदितव्ये | अहं पञ्चभूतान्यपंचभूतानि  | अहमखिलं जगत् || || 

 

वेदोऽहम वेदोऽहम्विद्याहम विद्याहम् | अजाहमनजाहम्

अधश्चोर्ध्वं तिर्यक्चाहम् || || 

 

अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चरामि | अहमादित्यैरुत विश्वदेवैः | अहं मित्रावरुणावुभौ बिभर्मि | अहमिन्द्राग्नि अहमश्विनावुभौ || || 

 

अहं सोमं त्वष्टारं पूषणं भगं दधामि

अहं विष्णुमुरुक्रमं ब्रह्माणमुत प्रजापतिं दधामि || ||

 

अहं दधामि द्रविणं हविष्मते सुप्राव्ये यजमानाय सुन्वते | अहं राष्ट्री सङ्गमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम् | अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन्मम योनिरप्स्वन्तः समुद्रे | एवं वेद दैवीं सम्पदमाप्नोति || || 

 

ते देवा अब्रुवन् - नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः |

 नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम् || || 

 

तामग्निवर्णां तपसा ज्वलन्तीं वैरोचनीं कर्मफलेषु जुष्टाम्

दुर्गां देवीं शरणं प्रपद्येमहेऽसुरान्नाशयित्र्यै ते नमः || || 

 

देवीं वाचमजनयन्त देवास्तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति

सा नो मन्द्रेमूर्जं दुहाना धेनुर्वागस्मानुप सुष्टुतैतु || १० ||

 

कालरात्रीं ब्रह्मस्तुतां वैष्णवीं स्कन्दमातरम्

सरस्वतीमदितिं  दक्षदुहितरं नमामः पावनां शिवाम् || ११ ||

 

महालक्ष्म्यै विद्महे सर्वशक्त्यै धीमहि 

तन्नो देवी प्रचोदयात् || १२ ||

 

अदितिर्ह्यजनिष्ट दक्ष या दुहिता तव

तां देवा अन्वजायन्त भद्रा अमृतबन्धवः || १३ ||

 

कामो योनिः कमला वज्रपाणिर्गुहा हसा मातरिश्वाभ्रमिन्द्रः

पुनर्गुहा सकला मायया पुरुच्यैषा विश्वमातादिविध्योम् || १४ ||

 

एषाऽऽत्मशक्तिः | एषा विश्वमोहिनी | पाशांकुशधनुर्बाणधरा | एषा श्रीमहाविद्या | एवं वेद शोकं तरति || १५ ||

 

नमस्ते अस्तु भगवती मातरस्मान् पाहि सर्वतः || १६ || 

सैषाष्टौ वसवः | सैषैकादश रुद्राः | सैषा द्वादशादित्याः | सैषा विश्वेदेवाः सोमपा असोमपाश्च | सैषा यातुधाना असुरा रक्षांसि पिशाचा यक्षाः सिद्धाः | सैषा सत्वरजस्तमांसि | सैषा ब्रह्मविष्णुरुद्ररूपिणी | सैषा प्रजापतीन्द्रमनवः | सैषा ग्रहनक्षत्रज्योतिषिं | कलाकाष्ठादिकालरूपिणी | तामहं प्रणौमि नित्यम्

पापापहारिणीं देवीं भुक्तिमुक्तिप्रदायिनिम्

अनन्तां विजयां शुद्धां शरण्यां शिवदां शिवाम् || १७ ||

 

वियदीकारसंयुक्तं वीतीहोत्रसमन्वितम्  | 

 अर्धेन्दुलसितं देव्या बीजं सर्वार्थसाधकम् || १८ || 

 

एवमेकाक्षरं ब्रह्म यतयः शुद्धचेतसः

ध्यायन्ति परमानन्दमया ज्ञानाम्बुराशयः || १९ || 

 

वाङ्गमाया ब्रह्मसूस्तस्मात् षष्ठं वक्त्रसमन्वितम्

सूर्योऽवामश्रोत्रबिंदुसंयुक्तअष्टात्तृतीयकः |

नारायणेन सम्मिश्रो वायुश्चाधरयुक्ततः

विच्चे नवार्णकोऽर्णः स्यान्महदानन्ददायकः || २० ||

 

 हृत्पुण्डरीकमध्यस्थां प्रातःसूर्यसमप्रभाम्

पाशांकुशधरां सौम्यां वरदाभयहस्तकाम् |

त्रिनेत्रां रक्तवसनां भक्तकामदुघां भजे || २१ ||

 

नमामि त्वां महादेवीं महाभयविनाशिनीम्

महादुर्ग प्रशमनीं महाकारुण्यरूपिणीम् || २२ ||

 

यस्याः स्वरूपं ब्रह्मादयो जानन्ति तस्मादुच्यते अज्ञेया | यस्या अन्तो लभ्यते तस्मादुच्यते अनन्ता | यस्या लक्ष्यं नोपलक्ष्यते तस्मादुच्यते अलक्ष्या | यस्या जननं नोपलभ्यते तस्मादुच्यते अजा

एकैक विश्वरूपिणी तस्मादुच्यते नैका

अत एवोच्यते अज्ञेयानन्तालक्ष्याजैका नैकेति || २३ ||

 

मंत्राणां मातृका देवी शब्दानां  ज्ञानरूपिणी

ज्ञानानां चिन्मयातीता शून्यानां शून्यसाक्षिणी

यस्याः परतरं नास्ति सैषा दुर्गा प्रकीर्तिता || २४ ||

 

तां दुर्गां दुर्गमां देवीं दुराचारविघातीनीम्

नमामि भवभीतोऽहं संसारार्णवतारिणीम् || २५ ||

 

इदमथर्वशीर्षं योऽधीते पञ्चाथर्वशीर्षजपफलमाप्नोति

इदमथर्वशीर्षमज्ञात्वा योऽचाँ स्थापयति शतलक्षं प्रजप्त्वापि सोऽर्चासिद्धिं विन्दति

शतमष्टोत्तरं चास्य पुरश्चर्याविधिः स्मृतः

दशवारं पठेद यस्तु सद्यः पापैः प्रमुच्यते

महादुर्गाणि तरति महादेव्याः प्रसादतः || २६ ||

 

सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति | प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति | सायं प्रातः प्रयुञ्जानो अपापो भवति | निशीथे तुरीयसंध्यानां जप्त्वा वाक् सिद्धिर्भवति

नूतनायां प्रतिमायां जप्त्वा देवतासान्निध्यं भवति |

 प्राणप्रतिष्ठायां जप्त्वां प्राणानां प्रतिष्ठा भवति

भौमाश्विन्यां महादेवी सन्निधौ जप्त्वा महामृत्युं तरति | महामृत्युं तरति एवं वेद |

 

|| इत्युपनिषत् || 

 

 

सभी देवता देवी के समीप गये और नम्रता से पूछने लगेहे महादेवि तुम कौन हो ? 1

 

उसने कहामैं ब्रह्मस्वरूप हूँ मुझसे प्रकृतिपुरुषात्मक सद्रूप और असद्रूप जगत् उत्पन्न हुआ है 2

 

मैं आनन्द और अनानन्दरूपा हूँ मैं विज्ञान और अविज्ञानरूपा हूँ अवश्य जाननेयोग्य ब्रह्म और अब्रह्म भी मैं ही हूँ पंचीकृत और अपंचीकृत महाभूत भी मैं ही हूँ यह सारा दृश्यजगत् मैं ही हूँ 3

 

वेद और अवेद मैं हूँ विद्या और अविद्या भी मैं, अज्ञा और अनजा ( प्रकृति और उससे भिन्न ) भी मैं, नीचेऊपर, अगलबगल भी मैं ही हूँ 4

 

मैं रुद्रों और वसुओं के रूप में संचार करती हूँ मैं आदित्यों और विश्वदेवों के रूपों में फिरा करती हूँ मैं मित्र और वरुण दोनों का, इन्द्र एवं अग्निका और दोनों अश्विनीकुमारों का भरणपोषण करती हूँ 5

 

मैं सोम, त्वष्टा, पूषा और भग को धारण करती हूँ त्रैलोक्य को आक्रान्त करने के लिये विस्तीर्ण पादक्षेप करनेवाले विष्णु, ब्रह्मदेव और प्रजापति को मैं ही धारण करती हूँ 6

 

देवों को उत्तम हवि पहुँचानेवाले और सोमरस निकालनेवाले यजमान के लिये हविर्द्रव्योंसे युक्त धन धारण करती हूँ मैं सम्पूर्ण जगत् की ईश्वरी, उपासकों को धन देनेवाली, ब्रह्मरूप और यज्ञार्हों में ( यजन करने योग्य देवों में) मुख्य हूँ मैं आत्मस्वरूप पर आकाशादि निर्माण करती हूँ मेरा स्थान आत्मस्वरूप को धारण करनेवाली बुद्धिवृति में है। जो इस प्रकार जानता है, वह दैवी सम्पत्ति लाभ करता है 7

 

तब उन देवों ने कहा- देवी को नमस्कार है बड़े- बड़ों को अपने- अपने कर्तव्य में प्रवृत करनेवाली कल्याणकर्त्री को सदा नमस्कार है गुणासाम्यावस्थारूपिणी मंगलमयी देवी को नमस्कार है नियमयुक्त होकर हम उन्हें प्रणाम करते हैं॥8

 

उस अग्नि के-से वर्णवाली, ज्ञान से जगमगानेवाली दीप्तिमती, कर्म फल प्राप्ति के हेतु सेवन की जानेवाली दुर्गादेवी की हम शरण में हैं। असुरों का नाश करनेवाली देवि ! तुम्हें नमस्कार है 9

 

प्राणरूप देवों ने जिस प्रकाशमान वैखरी वाणी को उत्पन्न किया, उसे अनेक प्रकार के प्राणी बोलते है वह कामधेनुतुल्य आनन्दायक और अन्न तथा बल देनेवाली वाग् रूपिणी भगवती उत्तम स्तुति से संतुष्ट होकर हमारे समीप आये 10

 

कालका भी नाश करनेवाली, वेदों द्वारा स्तुत हुई विष्णुशक्ति, स्कन्दमाता (शिवशक्ति), सरस्वती (ब्रह्मशक्ति), देवमाता अदिति और दक्षकन्या (सती), पापनाशिनी कल्याणकारिणी भगवती को हम प्रणाम करते हैं 11

 

हम महालक्ष्मी को जानते हैं और उन सर्वशक्तिरूपिणी का ही ध्यान करते है वह देवी हमें उस विषय में ( ज्ञान-ध्यान में ) प्रवृत करें 12

 

हे दक्ष ! आपकी जो कन्या अदिति हैं, वे प्रसूता हुई और उनके मृत्युरहित कल्याणमय देव उत्पन्न हुए 13

 

काम (), योनि (), कमला (), वज्रपाणिइन्द्र (), गुहा (ह्रीं), , वर्ण, मातरिश्वावायु (), अभ्र (), इन्द्र ( ), पुन: गुहा (ह्रीं), , , वर्ण और माया (ह्रीं ) – यह सर्वात्मिका जगन्माताकी मूल विद्या है और वह ब्रह्मरूपिणी है 14

 

ये परमात्मा की शक्ति हैं ये विश्वमोहिनी हैं पाश, अंकुश, धनुष और बाण धारण करनेवाली हैं। येश्रीमहाविद्याहैं जो ऐसा जानता है, वह शोक को पार कर जाता है 15

 

भगवती ! तुम्हें नमस्कार है माता ! सब प्रकार से हमारी रक्षा करो 16

 

( मन्त्रद्रष्टा ऋषि कहते हैं – ‌) वही ये अष्ट वसु है; वही ये एकादश रुद्र हैं; वही ये द्वादश आदित्य हैं; वही ये सोमपान करनेवाले और सोमपान करनेवाले विश्वदेव हैं; वही ये यातुधान ( एक प्रकार के राक्षस ), असुर, राक्षस, पिशाच, यक्ष और सिद्धि हैं; वही ये सत्वरजतम हैं; वही ये ब्रह्म-विष्णुरूद्ररूपिणी हैं; वही ये प्रजापतिइंद्र-मनु हैं; वही ये ग्रह, नक्षत्र और तारे हैं; वही कला- काष्ठादि कालरूपिणी हैं; उन पाप नाश करनेवाली, भोग-मोक्ष देनेवाली, अंतरहित, विजयाधिष्ठात्री, निर्दोष, शरण लेनेयोग्य, कल्याणदात्री और मंगलरूपिणी देवी को हम सदा प्रणाम करते हैं 17

 

वियत्आकाश () तथाकारसे युक्त, वीतिहोत्रअग्नि ( ) – सहित , अर्धचंद्र ( ) – से अलंकृत जो देवीका बीज है, वह सब मनोरथ पूर्ण करनेवाला है 18

 

इस प्रकार इस एकाक्षर ब्रह्म (ह्रीं) – का ऐसे यति ध्यान करते हैं, जिनका चित्त शुद्ध है, जो निरतिशयानंदपूर्ण और ज्ञानके सागर हैं ( यह मंत्र देवीप्रणव माना जाता है ऊँकार के समान ही यह प्रणव भी व्यापक अर्थसे भरा हुआ है संक्षेप में इसका अर्थ इच्छाज्ञानक्रियाधार, अद्वैत, अखण्ड, सच्चिदानन्द, समरसीभूत, शिवशक्तिस्फुरण है ) 18 – 19

 

वाणी ( ऐं ) , माया (ह्रीं) , ब्रह्मसूकाम (क्लीं ) , इसके आगे छठा व्यंजन अर्थात् , वही वक्त्र अर्थात् आकारसे युक्त ( चा) , सूर्य ( ) , ‘ अवाम क्षेत्र ’ – दक्षिण कर्ण ( ) और बिन्दु अर्थात् अनुस्वार से युक्त (मुं) , टकारसे तीसरा , वही नारायण अर्थात्से मिश्र ( डा) , वायु ( ) . वही अधर अर्थात्से युक्त ( यै ) औरविच्चेयह नवार्णमंत्र उपासकों को आनन्द और ब्रह्मसायुज्य देनेवाला है 20

 

[ इस मंत्र का अर्थ हैहे चित्स्वरूपिणी महासरस्वती ! हे सद्रूपिणी महालक्ष्मी ! हे आनन्दरूपिणी महाकाली ! ब्रह्मविद्या पाने के लिये हम सब समय तुम्हारा ध्यान करते हैं हे महाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वती- स्वरूपिणी चण्डिके ! तुम्हें नमस्कार है अविद्यारूप रज्जुकी दृढ़ ग्रंथि को खोलकर मुझे मुक्त करो ]

 

हृत्कमल के मध्य में रहनेवाली, प्रात:कालीन सूर्यके समान प्रभावाली , पाश और अंकुश धारण करनेवाली, मनोहर रूपवाली , वरद और अभयमुद्रा धारण किये हुए हाथोंवाली , तीन नेत्रोंसे युक्त , रक्तवस्त्र परिधान करनेवाली और कामधेनु के समान भक्तों के मनोरथ पूर्ण करनेवाली देवीको मैं भजता हूँ 21

 

महाभय का नाश करनेवाली , महासंकट को शांत करनेवाली और महान् करूणाकी साक्षात् मूर्ति तुम महादेवी को मैं नमस्कार करता हूँ 22

 

जिसका स्वरूप ब्रह्मादिक नहीं जानतेइसलिये जिसे अज्ञेया कहते हैं , जिसका अंत नहीं मिलताइसलिये जिसे अनंता कहते हैं , जिसका लक्ष्य दीख नहीं पड़ता- इसलिये जिसे अलक्ष्या कहते हैं , जिसका जन्म समझ में नहीं आताइसलिये जिसे अजा कहते हैं , जो अकेली सर्वत्र हैइसलिये जिसे एका कहते हैं , जो अकेली ही विश्वरूप में सजी हुई हैइसलिये जिसे नैका कहते हैं , वह इसीलियी अज्ञेया , अनंता , अलक्ष्या , अजा , एका और नैका कहाती हैं 23

 

सब मंत्रों मेंमातृका ’ – मूलाक्षररूपसे रहनेवाली , शब्दों में ज्ञान ( अर्थ ) – रूप से रहनेवाली , ज्ञानों मेंचिन्मयातीता , शून्यों मेंशून्यसाक्षिणीतथा जिनसे और कुछ भी श्रेष्ठ नहीं है , वे दुर्गा के नाम से प्रसिद्ध है 24

 

उन दुर्विज्ञेय , दुराचारनाशक और संसारसागर सए तारनेवाली दुर्गादेवी को संसार से डरा हुआ मैं नमस्कार करता हूँ 25

 

इस अथर्वशीर्ष का जो अध्ययन करता है , उसे पाँचों अथर्वशीर्षों के जपका फल प्राप्त होता है इस अथर्वशीर्ष को जानकर जो प्रतिमास्थापन करता है , वह सैंकड़ों लाख जप करके भी अर्चासिद्धि नहीं प्राप्त करता अष्टोत्तरशत ( १०८) जप ( इत्यादि) इसकी पुरश्चरणविधि है जो इसका दस बार पाठ करता है , वह उसी क्षण पापोंसे मुक्त हो जाता है और महादेवी के प्रसाद से बड़े दुस्तर संकटों को पार कर जाता है 26

 

इसका सायंकाल में अध्ययन करनेवाला दिनमें किये हुए पापों का नाश करता है , प्रात:काल अध्ययन करनेवाला रात्रिमें किये हुए पापों का नाश करता है दोनों समय अध्ययन करनेवाला निष्पाप होता है मध्यरात्रि में तुरीय संध्या ( जो की मध्यरात्रि में होती है ) के समय जप करने से वाक् सिद्धि प्राप्त होती है नयी प्रतिमा पर जप करने से देवतासान्निध्य प्राप्त होता है प्राणप्रतिष्ठा के समय जप करने से प्राणोंकी प्रतिष्ठा होती है। भौमाश्विनी योग में महादेवी की सन्निधि में जप करने से महामृत्यु से तर जाता है जो इस प्रकार जानता है , वह महामृत्यु से तर जाता है इस प्रकार यह अविद्या नाशिनी ब्रह्मविद्या है।

 

इस प्रकार श्रीदेव्यथर्वशीर्षम् उपनिषद् पूर्ण हुआ।

 

इति श्रीदेव्यथर्वशीर्षम् सम्पूर्णम्।

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विशेष सुचना

( जो भी मंत्र तंत्र टोटका इत्यादि ब्लॉग में दिए गए है वे केवल सूचनार्थ ही है, अगर साधना करनी है तो वो पूर्ण जानकार गुरु के निर्देशन में ही करने से लाभदायक होंगे, किसी भी नुक्सान हानि के लिए प्रकाशक व लेखक जिम्मेदार नहीं होगा। )