घातक, दुष्ट और अशुभ योग ‘यमघंटक योग
ज्योतिष के सबसे अशुभ योगों की गिनती में " यमघंटक योग " का नाम प्रमुख रुप से आता है, जो अच्छे कार्यों में त्याज्य होता है; इस योग में शुभ एवं मांगलिक कामों को न करने की बात कही गई है I
वसिष्ठ ऋषि द्वारा दिवसकाल में यदि यमघंटक नामक दुष्ट योग हो तो मृत्युतुल्य कष्ट हो सकता है, परंतु साथ ही रात्रिकाल में इसका फल इतना अशुभ नहीं माना जाता है। यमघंटक योग के नियम :-
[1] रविवार के दिन जब मघा नक्षत्र का संयोग बनता है तो यमघंटक योग का निर्माण होता है जो कि अच्छा नहीं होता है I
]2] सोमवार का दिन हो और उस दिन विशाखा नक्षत्र होने पर इस योग से यमघंटक योग का निर्माण होता है I
[3] मंगलवार के दिन आर्द्रा नक्षत्र का संयोग होने पर यमघंटक योग की स्थिति उत्पन्न होती है I
[4] बुधवार के दिन जब मूल नक्षत्र का संयोग होने पर इस योग का निर्माण माना जाता है I
[5] बृहस्पतिवार के दिन यदि कृतिका नक्षत्र का मिलान हो जाने पर यमघंटक नक्षत्र बनता है I
[6] शुक्रवार के दिन अगर रोहिणी नक्षत्र का उदय होता है तो यह भी यमघंटक की स्थिति होती है I
[7] शनिवार के दिन अगर हस्त नक्षत्र की स्थिति बनती है तो यह स्थिति भी इसी योग का निर्माण करती है I
किसी भी कार्य को करने हेतु एक अच्छे समय की आवश्यकता होती है. हर शुभ समय का आधार तिथि, नक्षत्र, चंद्र स्थिति, योगिनी दशा और ग्रह स्थिति के आधार पर किया जाता है. शुभ कार्यों के प्रारंभ में भद्राकाल से बचना चाहिये. चर, स्थिर लग्नों का ध्यान रखना चाहिए. जिस कार्य के लिए जो समय निर्धारित किया गया है यदि उस समय पर उक्त कार्य किया जाए तो मुहूर्त्त के अनुरूप कार्य सफलता को प्राप्त करता है I
II भद्रा काल विचार II
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[ तिथि के पहले अर्ध भाग को प्रथम “करण” तथा तिथि के दूसरे अर्ध भाग को द्वितीय करण कहते हैं। इस प्रकार स्पष्ट है की एक तिथि में दो करण होते हैं। जब भी तिथि विचार में विष्टि नामक करण आता है तब उस काल विशेष को “भद्रा” कहते हैं। शुक्ल पक्ष की अष्टमी, पूर्णिमा के पूर्वार्ध, चतुर्थी एवं एकादशी के उत्तरार्ध में तथा कृष्ण पक्ष की तृतीया, दशमी के उत्तराद्र्ध, सप्तमी और चतुर्थी के पूर्वार्ध में भद्रा का वास रहता है। ]
भद्रा भगवान सूर्य देव की पुत्री और शनिदेव की बहन है।शनि की तरह ही इसका स्वभाव भी क्रूर बताया गया है। इस उग्र स्वभाव को नियंत्रित करने के लिए ही भगवान ब्रह्मा ने उसे कालगणना या पंचाग के एक प्रमुख अंग करण में स्थान दिया। जहां उसका नाम विष्टी करण रखा गया। भद्रा की स्थिति में कुछ शुभ कार्यों, यात्रा और उत्पादन आदि कार्यों को निषेध माना गया। किंतु भद्रा काल में तंत्र कार्य, अदालती और राजनैतिक चुनाव कार्य सुफल देने वाले माने गए हैं।
पंचक (तिथि, वार, योग, नक्षत्र और करण) की तरह ही भद्रा योग को भी देखा जाता है। तिथि के आधे भाग को करण कहते हैं. इस तरह एक तिथि के दो करण होते हैं. कुल 11 करण माने गए हैं जिनमें बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज और विष्टि चर करण और शकुनि, चतुष्पद, नाग और किस्तुघ्न अचर करण होते हैं. विष्टि करण को ही भद्रा भी कहा जाता है. कृष्णपक्ष की तृतीया, दशमी और शुक्लपक्ष की चतुर्थी, एकादशी के उत्तरार्ध में एवं कृष्णपक्ष की सप्तमी, चतुर्दशी, शुक्लपक्ष की अष्टमी और पूर्णिमा के पूर्वार्ध में भद्रा रहती है I
कृष्णपक्ष की तृतीया, दशमी और शुक्लपक्ष की चतुर्थी, एकादशी के उत्तरार्ध में एवं कृष्णपक्ष की सप्तमी, चतुर्दशी, शुक्लपक्ष की अष्टमी और पूर्णिमा के पूर्वार्ध में भद्रा रहती है. यदि दिन की भद्रा रात्री के समय और रात्री की भद्रा दिन के समय आ जाए तो उसे शुभ माना जाता है I
भद्राकाल में विवाह, मुंडन, गृहप्रवेश, यज्ञोपवित, रक्षाबंधन या कोई भी नया काम शुरू करना वर्जित माना गया है. लेकिन भद्राकाल में ऑपरेशन करना, मुकदमा करना, किसी वस्तु का कटना, यज्ञ करना, वाहन खरीदना स्त्री प्रसंग संबंधी कर्म शुभ माने गए हैं I
सोमवार व शुक्रवार की भद्रा कल्याणी, शनिवार की भद्रा वृश्चिकी, गुरुवार की भद्रा पुण्यैवती, रविवार, बुधवार व मंगलवार की भद्रा भद्रिका कहलाती है I शनिवार की भद्रा अशुभ मानी जाती है II
भद्रा परिहार :- कुछ और आवश्यक परिस्थितियों में भद्रा दोष का परिहार हो जाता है I
[1] “तिथि पूर्वार्धजा भद्रा दिवा भद्रा प्रकीर्तिता ।
तिथिरूत्तरजा भद्रा रात्रिभद्रेति कथ्यते ।।
दिवा भद्रा रात्रौ रात्रिभद्रा यदा दिवा ।
तदाविष्टिकृतो-दोषो न, भवेत्सर्वं सौख्यद: ।।”
उपरोक्त कथन का अर्थ है कि :- तिथि के पूर्वार्द्ध भाग में प्रारंभ भद्रा अर्थात तिथि दिवस के पूर्वार्ध भाग में प्रारंभ भद्रायादि तिथ्यंत में रात्रिव्यापिनी हो जाए तो यह भद्रा दोषरहित हो जाती है अर्थात ऎसी भद्रा में कोई दोष नहीं होता है और यह सुखदायिनी हो जाती है I
[2] पीयूषधारा के मतानुसार दिन की भद्रा रात में और रात की भद्रा दिन में आ जाए तो भद्रा दोषरहित हो जाती है और उसमें किसी तरह की अशुभता नहीं रहती है I
[3] एक अन्य मतानुसार उत्तरार्ध की भद्रा दिन में और पूर्वार्द्ध की भद्रा रात्रि में शुभ होती है और ऎसी भद्रा का विचार विवाहादि शुभ कामों में किया जा सकता है
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