Friday, November 22, 2024

AARTI आरती, स्त्रोत्र विशेष

आरती, स्त्रोत्र विशेष

*स्कन्द पुराण में कहा गया है*


*मन्त्रहीनं क्रियाहीनं यत् कृतं पूजनं हरे:।*
*सर्वं सम्पूर्णतामेति कृते निराजने शिवे।।*

*अर्थात - पूजन मंत्रहीन तथा क्रियाहीन होने पर भी नीराजन (आरती) कर लेने से उसमे सारी पूर्णता आ जाती है।*

*आरती करने का ही नहीं, देखने का भी बड़ा पूण्य फल प्राप्त होता है। हरि भक्ति विलास में एक श्लोक है*


*नीराजनं च यः पश्येद् देवदेवस्य चक्रिण:।*
*सप्तजन्मनि विप्र: स्यादन्ते च परमं पदम।।*


*अर्थात - जो भी देवदेव चक्रधारी श्रीविष्णु भगवान की आरती देखता है, वह सातों जन्म में ब्राह्मण होकर अंत में परम् पद को प्राप्त होता है।*

*श्री विष्णु धर्मोत्तर में कहा गया है*

*धूपं चरात्रिकं पश्येत काराभ्यां च प्रवन्देत।*
*कुलकोटीं समुद्धृत्य याति विष्णो: परं पदम्।।*


*अर्थात - जो धुप और आरती को देखता है और दोनों हाथों से आरती लेता है, वह करोड़ पीढ़ियों का उद्धार करता है और भगवान विष्णु के परम पद को प्राप्त होता है।*

*आरती में पहले मूल मंत्र (जिस देवता का, जिस मंत्र से पूजन किया गया हो, उस मंत्र) के द्वारा तीन बार पुष्पांजलि देनी चाहिये और ढोल, नगाड़े, शख्ङ, घड़ियाल आदि महावाद्यो के तथा जय-जयकार के शब्दों के साथ शुभ पात्र में घृत से या कर्पूर से विषम संख्या में अनेक बत्तियाँ जलाकर आरती करनी चाहिए।*


*ततश्च मुलमन्त्रेण दत्त्वा पुष्पाञ्जलित्रयम्।*
*महानिराजनं* *कुर्यान्महावाद्यजयस्वनैः।।*
*प्रज्वलेत् तदर्थं च कर्पूरेण घृतेन वा।*
*आरार्तिकं शुभे पात्रे* *विषमानेकवर्दिकम्।।*


*अर्थात - साधारणतः पाँच बत्तियों से आरती की जाती है, इसे 'पञ्चप्रदीप' भी कहते है। एक, सात या उससे भी अधिक बत्तियों से आरती की जाती है। कर्पूर से भी आरती होती है।*

*पद्मपुराण में कहा है*

*कुङ्कुमागुरुकर्पुरघृतचंदननिर्मिता:।*
*वर्तिका: सप्त वा पञ्च कृत्वा वा दीपवर्तिकाम्।।*
*कुर्यात् सप्तप्रदीपेन* *शङ्खघण्टादिवाद्यकै:।*

*अर्थात - कुङ्कुम, अगर, कर्पूर, घृत और चंदन की पाँच या सात बत्तियां बनाकर शङ्ख, घण्टा आदि बाजे बजाते हुवे आरती करनी चाहिए।*

*आरती के पाँच अंग होते है।*

*पञ्च नीराजनं कुर्यात प्रथमं दीपमालया।*
*द्वितीयं सोदकाब्जेन तृतीयं धौतवाससा।।*
*चूताश्वत्थादिपत्रैश्च चतुर्थं परिकीर्तितम्।*
*पञ्चमं प्रणिपातेन साष्टाङ्गेन यथाविधि।।*

*अर्थात - प्रथम दीपमाला के द्वारा, दूसरे जलयुक्त शङ्ख से, तीसरे धुले हुए वस्त्र से, आम व् पीपल अदि के पत्तों से और पाँचवे साष्टांग दण्डवत से आरती करें।*

*आदौ चतुः पादतले च विष्णो द्वौं नाभिदेशे मुखबिम्ब एकम्।*
*सर्वेषु चाङ्गेषु च सप्तवारा नारात्रिकं भक्तजनस्तु कुर्यात्।।*

*अर्थात - आरती उतारते समय सर्वप्रथम भगवान की प्रतिमा के चरणों में उसे चार बार घुमाए, दो बार* *नाभिदेश में, एक बार मुखमण्डल पर और सात बार समस्त अंङ्गो पर घुमाए।*

*यथार्थ में आरती पूजन के अंत में इष्टदेवता की प्रसन्नता के हेतु की जाती है। इसमें इष्टदेव को दीपक दिखाने के साथ ही उनका स्तवन तथा गुणगान किया जाता है। आरती के दो भाव है जो क्रमशः 'नीराजन' और 'आरती' शब्द से व्यक्त हुए है। नीराजन* *(निःशेषण राजनम् प्रकाशनम्) का अर्थ है* *विशेषरूप से, निःशेषरूप से* *प्रकाशित करना। अनेक दिप-बत्तियां जलाकर विग्रह के चारों ओर घुमाने का यही अभिप्राय है कि पूरा-का-पूरा* *विग्रह एड़ी से चोटी तक प्रकाशित हो उठे- चमक उठे, अंङ्ग-प्रत्यङ्ग स्पष्ट रूप से* *उद्भासित हो जाये, जिसमें दर्शक या उपासक भलिभांति देवता की* *रूप-छटा को निहार सके, हृदयंगम कर सके। दूसरा 'आरती' शब्द (जो संस्कृत के आर्ति का प्राकृत रूप है* *और जिसका अर्थ है अरिष्ट) विशेषतः माधुर्य-उपासना से सम्बंधित है।*

*आरती-वारना का अर्थ है* *आर्ति-निवारण, अनिष्ट से अपने प्रियतम प्रभु को बचाना।*
*पंच-प्राणों की प्रतीक आरती मानव शरीर के पंच-प्राणों की प्रतीक मानी जाती है।*
*आरती होने के बाद पंडित या आरती करने वाला, आरती के दीपक को उपस्थित भक्त-समूह में घुमाता है, व लोग अपने दोनों हाथों को नीचे को उलटा कर जोड़ लेते हैं व आरती पर घुमा कर अपने मस्तक को लगाते हैं। इसके दो कारण बताये जाते हैं। एक मान्यता अनुसार ईश्वर की शक्ति उस आरती में समा जाती है, जिसका अंश भक्त मिल कर अपने अपने मस्तक पर ले लेते हैं। इस रूप में यह एक तांत्रिक क्रिया है, जिसमे प्रज्वलित दीपक अपने इष्टदेव के चारों ओर घुमाकर उनकी सारी विघ्न बधाये टाली जाती है। आरती लेने से भी यही तात्पर्य है कि उनकी आर्ति (कष्ट) को अपने ऊपर लेना। बलैया लेना, बलिहारी जाना, बली जाना, वारी जाना न्यौछावर होना आदि प्रयोग इसी भाव के द्योतक है। इसी रूप में छोटे बच्चों की माताए तथा बहिने लोक में भी आरती उतारती है। यह आरती मूल रूप में कुछ मंत्रोच्चारण के साथ केवल कष्ट-निवारण के लिए उसी भाव से उतारी जाती रही है।*

*आज कल वैदिक उपासना में उसके साथ-साथ वैदिक मंत्रों का उच्चारण भी होता है तथा पौराणिक एवं तांत्रिक उपासना में उसके साथ सुंदर-सुंदर भावपूर्ण पद्य रचनाएँ भी गायी जाती है। ऋतू, पर्व पूजा के समय आदि भेदों से भी आरती गायी जाती है।*

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