दशरथमहाराजकृतं श्री शनैश्चर स्तोत्र
पुरुषार्थ-सिद्धयर्थे जपे विनियोगः II
कर-न्यासः-
शनैश्चराय अंगुष्ठाभ्यां नमः। मन्दगतये तर्जनीभ्यां नमः।
अधोक्षजाय मध्यमाभ्यां नमः। कृष्णांगाय अनामिकाभ्यां नमः। शुष्कोदराय कनिष्ठिकाभ्यां नमः। छायात्मजाय करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः।
हृदयादि-न्यासः-
शनैश्चराय हृदयाय नमः। मन्दगतये शिरसे स्वाहा।
अधोक्षजाय शिखायै वषट्। कृष्णांगाय कवचाय हुम्।
शुष्कोदराय नेत्र-त्रयाय वौषट्। छायात्मजाय अस्त्राय फट्। दिग्बन्धनः- “ॐ भूर्भुवः स्वः” पढ़ते हुए चारों दिशाओं में चुटकी बजाएं।
ध्यानः-
नीलद्युतिं शूलधरं किरीटिनं गृध्रस्थितं त्रासकरं धनुर्धरम्।
चतुर्भुजं सूर्यसुतं प्रशान्तं वन्दे सदाभीष्टकरं वरेण्यम्।।
अर्थात् :- नीलम के समान कान्तिमान, हाथों में धनुष और शूल धारण करने वाले, मुकुटधारी, गिद्ध पर विराजमान, शत्रुओं को भयभीत करने वाले, चार भुजाधारी, शान्त, वर को देने वाले, सदा भक्तों के हितकारक, सूर्य-पुत्र को मैं प्रणाम करता हूँ।
चापासनो गृध्ररथस्तु नीलः प्रत्यङ्मुखः काश्यपगोत्रजातः ।
सशूलचापेषुगदाधरोऽव्यात् सौराष्ट्रदेशप्रभवश्च सौरिः ॥
नीलाम्बरो नीलवपुः किरीटी गृध्रासनस्थो विकृताननश्च ।
केयूरहारादिविभूषिताङ्गः सदास्तु मे मन्दगतिः प्रसन्नः ॥
शनैश्चराय शान्ताय सर्वाभीष्टप्रदायिने ।
नमः सर्वात्मने तुभ्यं नमो नीलाम्बराय च ॥
द्वादशाष्टमजन्मानि द्वितीयान्तेषु राशिषु ।
ये ये मे सङ्गता दोषाः सर्वे नश्यन्तु वै प्रभो ॥
रघुवंशेषु विख्यातो राजा दशरथः पुरा।
चक्रवर्ती स विज्ञेयः सप्तदीपाधिपोऽभवत्।।१
कृत्तिकान्ते शनिंज्ञात्वा दैवज्ञैर्ज्ञापितो हि सः।
रोहिणीं भेदयित्वातु शनिर्यास्यति साम्प्रतं।।२
शकटं भेद्यमित्युक्तं सुराऽसुरभयंकरम्।
द्वासधाब्दं तु भविष्यति सुदारुणम्।।३
एतच्छ्रुत्वा तु तद्वाक्यं मन्त्रिभिः सह पार्थिवः।
व्याकुलं च जगद्दृष्टवा पौर-जानपदादिकम्।।४
ब्रुवन्ति सर्वलोकाश्च भयमेतत्समागतम्।
देशाश्च नगर ग्रामा भयभीतः समागताः।।५
पप्रच्छ प्रयतोराजा वसिष्ठ प्रमुखान् द्विजान्।
समाधानं किमत्राऽस्ति ब्रूहि मे द्विजसत्तमः।।६
अर्थात् :- प्राचीन काल में रघुवंश में दशरथ नामक प्रसिद्ध चक्रवती राजा हुए, जो सातों द्वीपों के स्वामी थे। उनके राज्यकाल में एक दिन ज्योतिषियों ने शनि को कृत्तिका के अन्तिम चरण में देखकर राजा से कहा कि अब यह शनि रोहिणी का भेदन कर जायेगा। इसको ‘रोहिणी-शकट-भेदन’ कहते हैं। यह योग देवता और असुर दोनों ही के लिये भयप्रद होता है तथा इसके पश्चात् बारह वर्ष का घोर दुःखदायी अकाल पड़ता है। ज्योतिषियों की यह बात मन्त्रियों के साथ राजा ने सुनी, इसके साथ ही नगर और जनपद-वासियों को बहुत व्याकुल देखा। उस समय नगर और ग्रामों के निवासी भयभीत होकर राजा से इस विपत्ति से रक्षा की प्रार्थना करने लगे। अपने प्रजाजनों की व्याकुलता को देखकर राजा दशरथ वशिष्ठ ऋषि तथा प्रमुख ब्राह्मणों से कहने लगे- ‘हे ब्राह्मणों ! इस समस्या का कोई समाधान मुझे बताइए।’।।१-६
प्राजापत्ये तु नक्षत्रे तस्मिन् भिन्नेकुतः प्रजाः।
अयं योगोह्यसाध्यश्च ब्रह्म-शक्रादिभिः सुरैः।।७
अर्थात् :- इस पर वशिष्ठ जी कहने लगे- ‘प्रजापति के इस नक्षत्र (रोहिणी) में यदि शनि भेदन होता है तो प्रजाजन सुखी कैसे रह सकते हें। इस योग के दुष्प्रभाव से तो ब्रह्मा एवं इन्द्रादिक देवता भी रक्षा करने में असमर्थ हैं।।७।।
तदा सञ्चिन्त्य मनसा साहसं परमं ययौ।
समाधाय धनुर्दिव्यं दिव्यायुधसमन्वितम्।।८
रथमारुह्य वेगेन गतो नक्षत्रमण्डलम्।
त्रिलक्षयोजनं स्थानं चन्द्रस्योपरिसंस्थिताम्।।९
रोहिणीपृष्ठमासाद्य स्थितो राजा महाबलः।
रथेतुकाञ्चने दिव्ये मणिरत्नविभूषिते।।१०
हंसवर्नहयैर्युक्ते महाकेतु समुच्छिते।
दीप्यमानो महारत्नैः किरीटमुकुटोज्वलैः।।११
ब्यराजत तदाकाशे द्वितीये इव भास्करः।
आकर्णचापमाकृष्य सहस्त्रं नियोजितम्।।१२
कृत्तिकान्तं शनिर्ज्ञात्वा प्रदिशतांच रोहिणीम्।
दृष्टवा दशरथं चाग्रेतस्थौतु भृकुटीमुखः।।१३
संहारास्त्रं शनिर्दृष्टवा सुराऽसुरनिषूदनम्।
प्रहस्य च भयात् सौरिरिदं वचनमब्रवीत्।।१४
अर्थात् :- विद्वानों के यह वचन सुनकर राजा को ऐसा प्रतीत हुआ कि यदि वे इस संकट की घड़ी को न टाल सके तो उन्हें कायर कहा जाएगा। अतः राजा विचार करके साहस बटोरकर दिव्य धनुष तथा दिव्य आयुधों से युक्त होकर रथ को तीव्र गति से चलाते हुए चन्द्रमा से भी तीन लाख योजन ऊपर नक्षत्र मण्डल में ले गए। मणियों तथा रत्नों से सुशोभित स्वर्ण-निर्मित रथ में बैठे हुए महाबली राजा ने रोहिणी के पीछे आकर रथ को रोक दिया। सफेद घोड़ों से युक्त और ऊँची-ऊँची ध्वजाओं से सुशोभित मुकुट में जड़े हुए बहुमुल्य रत्नों से प्रकाशमान राजा दशरथ उस समय आकाश में दूसरे सूर्य की भांति चमक रहे थे। शनि को कृत्तिका नक्षत्र के पश्चात् रोहिनी नक्षत्र में प्रवेश का इच्छुक देखकर राजा दशरथ बाण युक्त धनुष कानों तक खींचकर भृकुटियां तानकर शनि के सामने डटकर खड़े हो गए। अपने सामने देव-असुरों के संहारक अस्त्रों से युक्त दशरथ को खड़ा देखकर शनि थोड़ा डर गया और हंसते हुए राजा से कहने लगा।।८-१४
शनि उवाच -
पौरुषं तव राजेन्द्र ! मया दृष्टं न कस्यचित्।
देवासुरामनुष्याशऽच सिद्ध-विद्याधरोरगाः।।१५
मयाविलोकिताः सर्वेभयं गच्छन्ति तत्क्षणात्।
तुष्टोऽहं तव राजेन्द्र ! तपसापौरुषेण च।।१६
वरं ब्रूहि प्रदास्यामि स्वेच्छया रघुनन्दनः !
अर्थात् :- शनि कहने लगा- ‘ हे राजेन्द्र ! तुम्हारे जैसा पुरुषार्थ मैंने किसी में नहीं देखा, क्योंकि देवता, असुर, मनुष्य, सिद्ध, विद्याधर और सर्प जाति के जीव मेरे देखने मात्र से ही भय-ग्रस्त हो जाते हैं। हे राजेन्द्र ! मैं तुम्हारी तपस्या और पुरुषार्थ से अत्यन्त प्रसन्न हूँ। अतः हे रघुनन्दन ! जो तुम्हारी इच्छा हो वर मां लो, मैं तुम्हें दूंगा।।१५-१६।।
दशरथ उवाच -
प्रसन्नोयदि मे सौरे ! एकश्चास्तु वरः परः।।१७
रोहिणीं भेदयित्वा तु न गन्तव्यं कदाचन्।
सरितः सागरा यावद्यावच्चन्द्रार्कमेदिनी।।१८
याचितं तु महासौरे ! नऽन्यमिच्छाम्यहं।
एवमस्तुशनिप्रोक्तं वरलब्ध्वा तु शाश्वतम्।।१९
प्राप्यैवं तु वरं राजा कृतकृत्योऽभवत्तदा।
पुनरेवाऽब्रवीत्तुष्टो वरं वरम् सुव्रत ! ।।२०
अर्थात् :- दशरथ ने कहा- हे सूर्य-पुत्र शनि-देव ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मैं केवल एक ही वर मांगता हूँ कि जब तक नदियां, सागर, चन्द्रमा, सूर्य और पृथ्वी इस संसार में है, तब तक आप रोहिणी शकट भेदन कदापि न करें। मैं केवल यही वर मांगता हूँ और मेरी कोई इच्छा नहीं है।’ तब शनि ने ‘एवमस्तु’ कहकर वर दे दिया। इस प्रकार शनि से वर प्राप्त करके राजा अपने को धन्य समझने लगा। तब शनि ने कहा- ‘मैं पुमसे परम प्रसन्न हूँ, तुम और भी वर मांग लो।।१७-२०
प्रार्थयामास हृष्टात्मा वरमन्यं शनिं तदा।
नभेत्तव्यं न भेत्तव्यं त्वया भास्करनन्दन।।२१
द्वादशाब्दं तु दुर्भिक्षं न कर्तव्यं कदाचन।
कीर्तिरषामदीया च त्रैलोक्ये तु भविष्यति।।२२
एवं वरं तु सम्प्राप्य हृष्टरोमा स पार्थिवः।
रथोपरिधनुः स्थाप्यभूत्वा चैव कृताञ्जलिः।।२३
ध्यात्वा सरस्वती देवीं गणनाथं विनायकम्।
राजा दशरथः स्तोत्रं सौरेरिदमथाऽकरोत्।।२४
अर्थात् :- तब राजा ने प्रसन्न होकर शनि से दूसरा वर मांगा। तब शनि कहने लगे- ‘हे सूर्य वंशियो के पुत्र तुम निर्भय रहो, निर्भय रहो। बारह वर्ष तक तुम्हारे राज्य में अकाल नहीं पड़ेगा। तुम्हारी यश-कीर्ति तीनों लोकों में फैलेगी। ऐसा वर पाकर राजा प्रसन्न होकर धनुष-बाण रथ में रखकर सरस्वती देवी तथा गणपति का ध्यान करके शनि की स्तुति इस प्रकार करने लगा।।२१-२४
दशरथकृत शनि स्तोत्र :
नम: कृष्णाय नीलाय शितिकण्ठ निभाय च।
नम: कालाग्निरूपाय कृतान्ताय च वै नम: ।।२५।। अर्थात् :- जिनके शरीर का वर्ण कृष्ण नील तथा भगवान् शंकर के समान है, उन शनि देव को नमस्कार है। जो जगत् के लिए कालाग्नि एवं कृतान्त रुप हैं, उन शनैश्चर को बार-बार नमस्कार है।।२५
नमो निर्मांस देहाय दीर्घश्मश्रुजटाय च ।
नमो विशालनेत्राय शुष्कोदर भयाकृते।।२६
अर्थात् :- जिनका शरीर कंकाल जैसा मांस-हीन तथा जिनकी दाढ़ी-मूंछ और जटा बढ़ी हुई है, उन शनिदेव को नमस्कार है। जिनके बड़े-बड़े नेत्र, पीठ में सटा हुआ पेट और भयानक आकार है, उन शनैश्चर देव को नमस्कार है।।२६
नम: पुष्कलगात्राय स्थूलरोम्णेऽथ वै नम:।
नमो दीर्घाय शुष्काय कालदंष्ट्र नमोऽस्तु ते।।२७
अर्थात् :- जिनके शरीर का ढांचा फैला हुआ है, जिनके रोएं बहुत मोटे हैं, जो लम्बे-चौड़े किन्तु सूके शरीर वाले हैं तथा जिनकी दाढ़ें कालरुप हैं, उन शनिदेव को बार-बार प्रणाम है।।२७
नमस्ते कोटराक्षाय दुर्नरीक्ष्याय वै नम: ।
नमो घोराय रौद्राय भीषणाय कपालिने।।२८
अर्थात् :- हे शने ! आपके नेत्र कोटर के समान गहरे हैं, आपकी ओर देखना कठिन है, आप घोर रौद्र, भीषण और विकराल हैं, आपको नमस्कार है।।२८
नमस्ते सर्वभक्षाय बलीमुख नमोऽस्तु ते।
सूर्यपुत्र नमस्तेऽस्तु भास्करेऽभयदाय च ।।२९
अर्थात् :- वलीमूख ! आप सब कुछ भक्षण करने वाले हैं, आपको नमस्कार है। सूर्यनन्दन ! भास्कर-पुत्र ! अभय देने वाले देवता ! आपको प्रणाम है।।२९
अधोदृष्टे: नमस्तेऽस्तु संवर्तक नमोऽस्तु ते।
नमो मन्दगते तुभ्यं निस्त्रिंशाय नमोऽस्तुते ।।३०
अर्थात् :- नीचे की ओर दृष्टि रखने वाले शनिदेव ! आपको नमस्कार है। संवर्तक ! आपको प्रणाम है। मन्दगति से चलने वाले शनैश्चर ! आपका प्रतीक तलवार के समान है, आपको पुनः-पुनः प्रणाम है।।३०
तपसा दग्ध-देहाय नित्यं योगरताय च ।
नमो नित्यं क्षुधार्ताय अतृप्ताय च वै नम: ।।३१
अर्थात् :- आपने तपस्या से अपनी देह को दग्ध कर लिया है, आप सदा योगाभ्यास में तत्पर, भूख से आतुर और अतृप्त रहते हैं। आपको सदा सर्वदा नमस्कार है।।३१
ज्ञानचक्षुर्नमस्तेऽस्तु कश्यपात्मज-सूनवे ।
तुष्टो ददासि वै राज्यं रुष्टो हरसि तत्क्षणात् ।।३२
अर्थात् :- ज्ञाननेत्र ! आपको प्रणाम है। काश्यपनन्दन सूर्यपुत्र शनिदेव आपको नमस्कार है। आप सन्तुष्ट होने पर राज्य दे देते हैं और रुष्ट होने पर उसे तत्क्षण हर लेते हैं।।३२
देवासुरमनुष्याश्च सिद्ध-विद्याधरोरगा:।
त्वया विलोकिता: सर्वे नाशं यान्ति समूलत:।।३३ अर्थात् :- देवता, असुर, मनुष्य, सिद्ध, विद्याधर और नाग- ये सब आपकी दृष्टि पड़ने पर समूल नष्ट हो जाते हैं।।३३
प्रसाद कुरु मे सौरे ! वारदो भव भास्करे।
एवं स्तुतस्तदा सौरिर्ग्रहराजो महाबल: ।।३४
अर्थात् :- देव मुझ पर प्रसन्न होइए। मैं वर पाने के योग्य हूँ और आपकी शरण में आया हूँ।।३४
एवं स्तुतस्तदा सौरिर्ग्रहराजो महाबलः।
अब्रवीच्च शनिर्वाक्यं हृष्टरोमा च पार्थिवः।।३५
तुष्टोऽहं तव राजेन्द्र ! स्तोत्रेणाऽनेन सुव्रत।
एवं वरं प्रदास्यामि यत्ते मनसि वर्तते।।३६
अर्थात् :- राजा दशरथ के इस प्रकार प्रार्थना करने पर ग्रहों के राजा महाबलवान् सूर्य-पुत्र शनैश्चर बोले- ‘उत्तम व्रत के पालक राजा दशरथ ! तुम्हारी इस स्तुति से मैं अत्यन्त सन्तुष्ट हूँ। रघुनन्दन ! तुम इच्छानुसार वर मांगो, मैं अवश्य दूंगा।।३५-३६
दशरथ उवाच-
प्रसादं कुरु मे सौरे ! वरोऽयं मे महेप्सितः।
प्रसन्नो यदि मे सौरे ! वरं देहि ममेप्सितम्।
अद्य प्रभृति-पिंगाक्ष ! पीडा देया न कस्यचित्।।३७ अर्थात् :- राजा दशरथ बोले- ‘प्रभु ! आज से आप देवता, असुर, मनुष्य, पशु, पक्षी तथा नाग-किसी भी प्राणी को पीड़ा न दें। बस यही मेरा प्रिय वर है।।३७
शनि उवाच -
अदेयस्तु वरौऽस्माकं तुष्टोऽहं च ददामि ते।।३८
त्वयाप्रोक्तं च मे स्तोत्रं ये पठिष्यन्ति मानवाः।
देवऽसुर-मनुष्याश्च सिद्ध विद्याधरोरगा।।३९
न तेषां बाधते पीडा मत्कृता वै कदाचन।
मृत्युस्थाने चतुर्थे वा जन्म-व्यय-द्वितीयगे।।४०
गोचरे जन्मकाले वा दशास्वन्तर्दशासु च।
यः पठेद् द्वि-त्रिसन्ध्यं वा शुचिर्भूत्वा समाहितः।।४१ अर्थात् :- शनि ने कहा- ‘हे राजन् ! यद्यपि ऐसा वर मैं किसी को देता नहीं हूँ, किन्तु सन्तुष्ट होने के कारण तुमको दे रहा हूँ। तुम्हारे द्वारा कहे गये इस स्तोत्र को जो मनुष्य, देव अथवा असुर, सिद्ध तथा विद्वान आदि पढ़ेंगे, उन्हें शनि बाधा नहीं होगी। जिनके गोचर में महादशा या अन्तर्दशा में अथवा लग्न स्थान, द्वितीय, चतुर्थ, अष्टम या द्वादश स्थान में शनि हो वे व्यक्ति यदि पवित्र होकर प्रातः, मध्याह्न और सायंकाल के समय इस स्तोत्र को ध्यान देकर पढ़ेंगे, उनको निश्चित रुप से मैं पीड़ित नहीं करुंगा।।३८-४१
न तस्य जायते पीडा कृता वै ममनिश्चितम्।
प्रतिमा लोहजां कृत्वा मम राजन् चतुर्भुजाम्।।४२
वरदां च धनुः-शूल-बाणांकितकरां शुभाम्।
आयुतमेकजप्यं च तद्दशांशेन होमतः।।४३
कृष्णैस्तिलैः शमीपत्रैर्धृत्वाक्तैर्नीलपंकजैः।
पायससंशर्करायुक्तं घृतमिश्रं च होमयेत्।।४४
ब्राह्मणान्भोजयेत्तत्र स्वशक्तया घृत-पायसैः।
तैले वा तेलराशौ वा प्रत्यक्ष व यथाविधिः।।४५
पूजनं चैव मन्त्रेण कुंकुमाद्यं च लेपयेत्।
नील्या वा कृष्णतुलसी शमीपत्रादिभिः शुभैः।।४६
दद्यान्मे प्रीतये यस्तु कृष्णवस्त्रादिकं शुभम्।
धेनुं वा वृषभं चापि सवत्सां च पयस्विनीम्।।४७
एवं विशेषपूजां च मद्वारे कुरुते नृप !
मन्त्रोद्धारविशेषेण स्तोत्रेणऽनेन पूजयेत्।।४८
पूजयित्वा जपेत्स्तोत्रं भूत्वा चैव कृताञ्जलिः।
तस्य पीडां न चैवऽहं करिष्यामि कदाचन्।।४९
रक्षामि सततं तस्य पीडां चान्यग्रहस्य च।
अनेनैव प्रकारेण पीडामुक्तं जगद्भवेत्।।५०
अर्थात् :- हे राजन ! जिनको मेरी कृपा प्राप्त करनी है, उन्हें चाहिए कि वे मेरी एक लोहे की प्रतिमा बनाएं, जिसकी चार भुजाएं हो और उनमें धनुष, भाला और बाण धारण किए हुए हो। इसके पश्चात् दस हजार की संख्या में इस स्तोत्र का जप करें, जप का दशांश हवन करे, जिसकी सामग्री काले तिल, शमी-पत्र, घी, नील कमल, खीर, चीनी मिलाकर बनाई जाए। इसके पश्चात् घी तथा दूध से निर्मित पदार्थों से ब्राह्मणों को भोजन कराएं। उपरोक्त शनि की प्रतिमा को तिल के तेल या तिलों के ढेर में रखकर विधि-विधान-पूर्वक मन्त्र द्वारा पूजन करें, कुंकुम इत्यादि चढ़ाएं, नीली तथा काली तुलसी, शमी-पत्र मुझे प्रसन्न करने के लिए अर्पित करें। काले रंग के वस्त्र, बैल, दूध देने वाली गाय- बछड़े सहित दान में दें। हे राजन ! जो मन्त्रोद्धारपूर्वक इस स्तोत्र से मेरी पूजा करता है, पूजा करके हाथ जोड़कर इस स्तोत्र का पाठ करता है, उसको मैं किसी प्रकार की पीड़ा नहीं होने दूंगा। इतना ही नहीं, अन्य ग्रहों की पीड़ा से भी मैं उसकी रक्षा करुंगा। इस तरह अनेकों प्रकार से मैं जगत को पीड़ा से मुक्त करता हूँ।।।४२-५०
II इति श्री दशरथमहाराजकृतं शनैश्चरस्तोत्रं सम्पूर्णम् II
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II श्रीब्रह्माण्डपुराणे श्रीशनैश्चरस्तोत्रम् II
श्रीगणेशाय नमः ॥
अस्य श्रीशनैश्चरस्तोत्रस्य । दशरथ ऋषिः ।
शनैश्चरो देवता । त्रिष्टुप् छन्दः ॥
शनैश्चरप्रीत्यर्थ जपे विनियोगः II
दशरथ उवाच ॥
कोणोऽन्तको रौद्रयमोऽथ बभ्रुः
कृष्णः शनिः पिंगलमन्दसौरिः ।
नित्यं स्मृतो यो हरते च पीडां
तस्मै नमः श्रीरविनन्दनाय ॥ १॥
सुरासुराः किंपुरुषोरगेन्द्रा गन्धर्वविद्याधरपन्नगाश्च ।
पीड्यन्ति सर्वे विषमस्थितेन तस्मै नमः श्रीरविनन्दनाय ॥ २॥
नरा नरेन्द्राः पशवो मृगेन्द्रा वन्याश्च ये कीटपतंगभृङ्गाः ।
पीड्यन्ति सर्वे विषमस्थितेन तस्मै नमः श्रीरविनन्दनाय ॥ ३॥
देशाश्च दुर्गाणि वनानि यत्र सेनानिवेशाः पुरपत्तनानि ।
पीड्यन्ति सर्वे विषमस्थितेन तस्मै नमः श्रीरविनन्दनाय ॥ ४॥
तिलैर्यवैर्माषगुडान्नदानैर्लोहेन नीलाम्बरदानतो वा ।
प्रीणाति मन्त्रैर्निजवासरे च तस्मै नमः श्रीरविनन्दनाय ॥ ५॥
प्रयागकूले यमुनातटे च सरस्वतीपुण्यजले गुहायाम् ।
यो योगिनां ध्यानगतोऽपि सूक्ष्मस्तस्मै नमः श्रीरविनन्दनाय ॥ ६॥
अन्यप्रदेशात्स्वगृहं प्रविष्टस्तदीयवारे स नरः सुखी स्यात् ।
गृहाद् गतो यो न पुनः प्रयाति तस्मै नमः श्रीरविनन्दनाय ॥ ७॥
स्रष्टा स्वयंभूर्भुवनत्रयस्य त्राता हरीशो हरते पिनाकी ।
एकस्त्रिधा ऋग्यजुःसाममूर्तिस्तस्मै नमः श्रीरविनन्दनाय ॥ ८॥
शन्यष्टकं यः प्रयतः प्रभाते नित्यं सुपुत्रैः पशुबान्धवैश्च ।
पठेत्तु सौख्यं भुवि भोगयुक्तः प्राप्नोति निर्वाणपदं तदन्ते ॥ ९॥
कोणस्थः पिङ्गलो बभ्रुः कृष्णो रौद्रोऽन्तको यमः ।
सौरिः शनैश्चरो मन्दः पिप्पलादेन संस्तुतः ॥ १०॥
एतानि दश नामानि प्रातरुत्थाय यः पठेत् ।
शनैश्चरकृता पीडा न कदाचिद्भविष्यति ॥ ११॥
॥ इति श्रीब्रह्माण्डपुराणे श्रीशनैश्चरस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
अस्य श्रीशनैश्चरस्तोत्रस्य । दशरथ ऋषिः ।
शनैश्चरो देवता । त्रिष्टुप् छन्दः ॥
शनैश्चरप्रीत्यर्थ जपे विनियोगः II
दशरथ उवाच ॥
कोणोऽन्तको रौद्रयमोऽथ बभ्रुः
कृष्णः शनिः पिंगलमन्दसौरिः ।
नित्यं स्मृतो यो हरते च पीडां
तस्मै नमः श्रीरविनन्दनाय ॥ १॥
सुरासुराः किंपुरुषोरगेन्द्रा गन्धर्वविद्याधरपन्नगाश्च ।
पीड्यन्ति सर्वे विषमस्थितेन तस्मै नमः श्रीरविनन्दनाय ॥ २॥
नरा नरेन्द्राः पशवो मृगेन्द्रा वन्याश्च ये कीटपतंगभृङ्गाः ।
पीड्यन्ति सर्वे विषमस्थितेन तस्मै नमः श्रीरविनन्दनाय ॥ ३॥
देशाश्च दुर्गाणि वनानि यत्र सेनानिवेशाः पुरपत्तनानि ।
पीड्यन्ति सर्वे विषमस्थितेन तस्मै नमः श्रीरविनन्दनाय ॥ ४॥
तिलैर्यवैर्माषगुडान्नदानैर्लोहेन नीलाम्बरदानतो वा ।
प्रीणाति मन्त्रैर्निजवासरे च तस्मै नमः श्रीरविनन्दनाय ॥ ५॥
प्रयागकूले यमुनातटे च सरस्वतीपुण्यजले गुहायाम् ।
यो योगिनां ध्यानगतोऽपि सूक्ष्मस्तस्मै नमः श्रीरविनन्दनाय ॥ ६॥
अन्यप्रदेशात्स्वगृहं प्रविष्टस्तदीयवारे स नरः सुखी स्यात् ।
गृहाद् गतो यो न पुनः प्रयाति तस्मै नमः श्रीरविनन्दनाय ॥ ७॥
स्रष्टा स्वयंभूर्भुवनत्रयस्य त्राता हरीशो हरते पिनाकी ।
एकस्त्रिधा ऋग्यजुःसाममूर्तिस्तस्मै नमः श्रीरविनन्दनाय ॥ ८॥
शन्यष्टकं यः प्रयतः प्रभाते नित्यं सुपुत्रैः पशुबान्धवैश्च ।
पठेत्तु सौख्यं भुवि भोगयुक्तः प्राप्नोति निर्वाणपदं तदन्ते ॥ ९॥
कोणस्थः पिङ्गलो बभ्रुः कृष्णो रौद्रोऽन्तको यमः ।
सौरिः शनैश्चरो मन्दः पिप्पलादेन संस्तुतः ॥ १०॥
एतानि दश नामानि प्रातरुत्थाय यः पठेत् ।
शनैश्चरकृता पीडा न कदाचिद्भविष्यति ॥ ११॥
॥ इति श्रीब्रह्माण्डपुराणे श्रीशनैश्चरस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
II महाकाल शनि मृत्युंजय स्तोत्र II
विनियोगः- ॐ अस्य श्री महाकाल शनि मृत्युञ्जय स्तोत्र मन्त्रस्य पिप्लाद ऋषिरनुष्टुप्छन्दो महाकाल शनिर्देवता शं बीजं मायसी शक्तिः काल पुरुषायेति कीलकं मम अकाल अपमृत्यु निवारणार्थे पाठे विनियोगः।
II श्री गणेशाय नमः II
II ॐ महाकाल शनि मृत्युञ्जायाय नमः II
नीलाद्रीशोभाञ्चितदिव्यमूर्तिः
खड्गो त्रिदण्डी शरचापहस्तः ।
शम्भुर्महाकालशनिः
पुरारिर्जयत्यशेषासुरनाशकारी ।।१
मेरुपृष्ठे समासीनं सामरस्ये स्थितं शिवम् ।
प्रणम्य शिरसा गौरी पृच्छतिस्म जगद्धितम् ।।२
।।पार्वत्युवाच।।
भगवन् ! देवदेवेश ! भक्तानुग्रहकारक ! ।
अल्पमृत्युविनाशाय यत्त्वया पूर्व सूचितम् ।।३।।
तदेवत्वं महाबाहो ! लोकानां हितकारकम् ।
तव मूर्ति प्रभेदस्य महाकालस्य साम्प्रतम् ।।४
शनेर्मृत्युञ्जयस्तोत्रं ब्रूहि मे नेत्रजन्मनः ।
अकाल मृत्युहरणमपमृत्यु निवारणम् ।।५
शनिमन्त्रप्रभेदा ये तैर्युक्तं यत्स्तवं शुभम् ।
प्रतिनाम चथुर्यन्तं नमोन्तं मनुनायुतम् ।।६
।।श्रीशंकर उवाच।।
नित्ये प्रियतमे गौरि सर्वलोक-हितेरते ।
गुह्याद्गुह्यतमं दिव्यं सर्वलोकोपकारकम् ।।७
शनिमृत्युञ्जयस्तोत्रं प्रवक्ष्यामि तवऽधुना ।
सर्वमंगलमांगल्यं सर्वशत्रु विमर्दनम् ।।८
सर्वरोगप्रशमनं सर्वापद्विनिवारणम् ।
शरीरारोग्यकरणमायुर्वृद्धिकरं नृणाम् ।।९
यदि भक्तासि मे गौरी गोपनीयं प्रयत्नतः ।
गोपितं सर्वतन्त्रेषु तच्छ्रणुष्व महेश्वरी ! ।।१०
ऋषिन्यासं करन्यासं देहन्यासं समाचरेत् ।
महोग्रं मूर्घ्नि विन्यस्य मुखे वैवस्वतं न्यसेत् ।।११
गले तु विन्यसेन्मन्दं बाह्वोर्महाग्रहं न्यसेत् ।
हृदि न्यसेन्महाकालं गुह्ये कृशतनुं न्यसेत् ।।१२
जान्वोम्तूडुचरं न्यस्य पादयोस्तु शनैश्चरम्।
एवं न्यासविधि कृत्वा पश्चात् कालात्मनः शनेः ।।१३
न्यासं ध्यानं प्रवक्ष्यामि तनौ श्यार्वा पठेन्नरः ।
कल्पादियुगभेदांश्च करांगन्यासरुपिणः ।।१४
कालात्मनो न्यसेद् गात्रे मृत्युञ्जय ! नमोऽस्तु ते ।
मन्वन्तराणि सर्वाणि महाकालस्वरुपिणः ।।१५
भावयेत्प्रति प्रत्यंगे महाकालाय ते नमः ।
भावयेत्प्रभवाद्यब्दान् शीर्षे कालजिते नमः ।।१६
नमस्ते नित्यसेव्याय विन्यसेदयने भ्रुवोः ।
सौरये च नमस्तेऽतु गण्डयोर्विन्यसेदृतून् ।।१७
श्रावणं भावयेदक्ष्णोर्नमः कृष्णनिभाय च ।
महोग्राय नमो भार्दं तथा श्रवणयोर्न्यसेत् ।।१८
नमो वै दुर्निरीक्ष्याय चाश्विनं विन्यसेन्मुखे ।
नमो नीलमयूखाय ग्रीवायां कार्तिकं न्यसेत् ।।१९
मार्गशीर्ष न्यसेद्-बाह्वोर्महारौद्राय ते नमः ।
ऊर्द्वलोक-निवासाय पौषं तु हृदये न्यसेत् ।।२०
नमः कालप्रबोधाय माघं वै चोदरेन्यसेत् ।
मन्दगाय नमो मेढ्रे न्यसेर्द्वफाल्गुनं तथा ।।२१
ऊर्वोर्न्यसेच्चैत्रमासं नमः शिवोस्भवाय च ।
वैशाखं विन्यसेज्जान्वोर्नमः संवर्त्तकाय च ।।२२
जंघयोर्भावयेज्ज्येष्ठं भैरवाय नमस्तथा ।
आषाढ़ं पाद्योश्चैव शनये च नमस्तथा ।।२३
कृष्णपक्षं च क्रूराय नमः आपादमस्तके ।
न्यसेदाशीर्षपादान्ते शुक्लपक्षं ग्रहाय च ।।२४
नयसेन्मूलं पादयोश्च ग्रहाय शनये नमः ।
नमः सर्वजिते चैव तोयं सर्वांगुलौ न्यसेत् ।।२५
न्यसेद्-गुल्फ-द्वये विश्वं नमः शुष्कतराय च ।
विष्णुभं भावयेज्जंघोभये शिष्टतमाय ते ।।२६
जानुद्वये धनिष्ठां च न्यसेत् कृष्णरुचे नमः ।
ऊरुद्वये वारुर्णांन्यसेत्कालभृते नमः ।।२७
पूर्वभाद्रं न्यसेन्मेढ्रे जटाजूटधराय च । पृ
ष्ठउत्तरभाद्रं च करालाय नमस्तथा ।।२८
रेवतीं च न्यसेन्नाभो नमो मन्दचराय च ।
गर्भदेशे न्यसेद्दस्त्रं नमः श्यामतराय च ।।२९
नमो भोगिस्त्रजे नित्यं यमं स्तनयुगे न्यसेत् ।
न्येसत्कृत्तिकां हृदये नमस्तैलप्रियाय च ।।३०
रोहिणीं भावयेद्धस्ते नमस्ते खड्गधारीणे ।
मृगं न्येसतद्वाम हस्ते त्रिदण्डोल्लसिताय च ।।३१
दक्षोर्द्ध्व भावयेद्रौद्रं नमो वै बाणधारिणे ।
पुनर्वसुमूर्द्ध्व नमो वै चापधारिणे ।।३२
तिष्यं न्यसेद्दक्षबाहौ नमस्ते हर मन्यवे ।
सार्पं न्यसेद्वामबाहौ चोग्रचापाय ते नमः ।।३३
मघां विभावयेत्कण्ठे नमस्ते भस्मधारिणे ।
मुखे न्यसेद्-भगर्क्ष च नमः क्रूरग्रहाय च ।।३४
भावयेद्दक्षनासायामर्यमाणश्व योगिने ।
भावयेद्वामनासायां हस्तर्क्षं धारिणे नमः ।।३५
त्वाष्ट्रं न्यसेद्दक्षकर्णे कृसरान्न प्रियाय ते ।
स्वातीं न्येसद्वामकर्णे नमो बृह्ममयाय ते ।।३६
विशाखां च दक्षनेत्रे नमस्ते ज्ञानदृष्टये ।
विष्कुम्भं भावयेच्छीर्षेसन्धौ कालाय ते नमः ।।३७
प्रीतियोगं भ्रुवोः सन्धौ महामन्दं ! नमोऽस्तु ते ।
नेत्रयोः सन्धावायुष्मद्योगं भीष्माय ते नमः ।।३८
सौभाग्यं भावयेन्नासासन्धौ फलाशनाय च ।
शोभनं भावयेत्कर्णे सन्धौ पिण्यात्मने नमः ।।३९
नमः कृष्णयातिगण्डं हनुसन्धौ विभावयेत् ।
नमो निर्मांसदेहाय सुकर्माणं शिरोधरे ।।४०
धृतिं न्यसेद्दक्षवाहौ पृष्ठे छायासुताय च ।
तन्मूलसन्धौ शूलं च न्यसेदुग्राय ते नमः ।।४१
तत्कूर्परे न्यसेदगण्डे नित्यानन्दाय ते नमः ।
वृद्धिं तन्मणिबन्धे च कालज्ञाय नमो न्यसेत् ।।४२
ध्रुवं तद्ङ्गुली-मूलसन्धौ कृष्णाय ते नमः ।
व्याघातं भावयेद्वामबाहुपृष्ठे कृशाय च ।।४३
हर्षणं तन्मूलसन्धौ भुतसन्तापिने नमः ।
तत्कूर्परे न्यसेद्वज्रं सानन्दाय नमोऽस्तु ते ।।४४
सिद्धिं तन्मणिबन्धे च न्यसेत् कालाग्नये नमः ।
व्यतीपातं कराग्रेषु न्यसेत्कालकृते नमः ।।४५
वरीयांसं दक्षपार्श्वसन्धौ कालात्मने नमः ।
परिघं भावयेद्वामपार्श्वसन्धौ नमोऽस्तु ते ।।४६
न्यसेद्दक्षोरुसन्धौ च शिवं वै कालसाक्षिणे ।
तज्जानौ भावयेत्सिद्धिं महादेहाय ते नमः ।।४७
साध्यं न्यसेच्च तद्-गुल्फसन्धौ घोराय ते नमः ।
न्यसेत्तदंगुलीसन्धौ शुभं रौद्राय ते नमः ।।४८
न्यसेद्वामारुसन्धौ च शुक्लकालविदे नमः ।
ब्रह्मयोगं च तज्जानो न्यसेत्सद्योगिने नमः ।।४९
ऐन्द्रं तद्-गुल्फसन्धौ च योगाऽधीशाय ते नमः ।
न्यसेत्तदंगुलीसन्धौ नमो भव्याय वैधृतिम् ।।५०
चर्मणि बवकरणं भावयेद्यज्वने नमः ।
बालवं भावयेद्रक्ते संहारक ! नमोऽस्तु ते ।।५१
कौलवं भावयेदस्थ्नि नमस्ते सर्वभक्षिणे ।
तैत्तिलं भावयेन्मसि आममांसप्रियाय ते ।।५२
गरं न्यसेद्वपायां च सर्वग्रासाय ते नमः ।
न्यसेद्वणिजं मज्जायां सर्वान्तक ! नमोऽस्तु ते ।।५३
विर्येविभावयेद्विष्टिं नमो मन्यूग्रतेजसे ।
रुद्रमित्र ! पितृवसुवारीण्येतांश्च पञ्च च ।।५४
मुहूर्तांश्च दक्षपादनखेषु भावयेन्नमः ।
खगेशाय च खस्थाय खेचराय स्वरुपिणे ।।५५
पुरुहूतशतमखे विश्ववेधो-विधूंस्तथा ।
मुहूर्तांश्च वामपादनखेषु भावयेन्नमः ।।५६
सत्यव्रताय सत्याय नित्यसत्याय ते नमः ।
सिद्धेश्वर ! नमस्तुभ्यं योगेश्वर ! नमोऽस्तु ते ।।५७
वह्निनक्तंचरांश्चैव वरुणार्यमयोनकान् ।
मुहूर्तांश्च दक्षहस्तनखेषु भावयेन्नमः ।।५८
लग्नोदयाय दीर्घाय मार्गिणे दक्षदृष्टये ।
वक्राय चातिक्रूराय नमस्ते वामदृष्टये ।।५९
वामहस्तनखेष्वन्त्यवर्णेशाय नमोऽस्तु ते ।
गिरिशाहिर्बुध्न्यपूषाजपष्द्दस्त्रांश्च भावयेत् ।।६०
राशिभोक्त्रे राशिगाय राशिभ्रमणकारिणे ।
राशिनाथाय राशीनां फलदात्रे नमोऽस्तु ते ।।६१
यमाग्नि-चन्द्रादितिजविधातृंश्च विभावयेत् ।
ऊर्द्ध्व-हस्त-दक्षनखेष्वत्यकालाय ते नमः ।।६२
तुलोच्चस्थाय सौम्याय नक्रकुम्भगृहाय च ।
समीरत्वष्टजीवांश्च विष्णु तिग्म द्युतीन्नयसेत् ।।६३
ऊर्ध्व-वामहस्त-नखेष्वन्यग्रह निवारिणे ।
तुष्टाय च वरिष्ठाय नमो राहुसखाय च ।।६४
रविवारं ललाटे च न्यसेद्-भीमदृशे नमः ।
सोमवारं न्यसेदास्ये नमो मृतप्रियाय च ।।६५
भौमवारं न्यसेत्स्वान्ते नमो ब्रह्म-स्वरुपिणे ।
मेढ्रं न्यसेत्सौम्यवारं नमो जीव-स्वरुपिणे ।।६६
वृषणे गुरुवारं च नमो मन्त्र-स्वरुपिणे ।
भृगुवारं मलद्वारे नमः प्रलयकारिणे ।।६७
पादयोः शनिवारं च निर्मांसाय नमोऽस्तु ते ।
घटिका न्यसेत्केशेषु नमस्ते सूक्ष्मरुपिणे ।।६८
कालरुपिन्नमस्तेऽस्तु सर्वपापप्रणाशकः !।
त्रिपुरस्य वधार्थांय शम्भुजाताय ते नमः ।।६९
नमः कालशरीराय कालनुन्नाय ते नमः ।
कालहेतो ! नमस्तुभ्यं कालनन्दाय वै नमः ।।७०
अखण्डदण्डमानाय त्वनाद्यन्ताय वै नमः ।
कालदेवाय कालाय कालकालाय ते नमः ।।७१
निमेषादिमहाकल्पकालरुपं च भैरवम् ।
मृत्युञ्जयं महाकालं नमस्यामि शनैश्चरम् ।।७२
दातारं सर्वभव्यानां भक्तानामभयंकरम् ।
मृत्युञ्जयं महाकालं नमस्यामि शनैश्चरम् ।।७३
कर्त्तारं सर्वदुःखानां दुष्टानां भयवर्धनम् ।
मृत्युञ्जयं महाकालं नमस्यामि शनैश्चरम् ।।७४
हर्त्तारं ग्रहजातानां फलानामघकारिणाम् ।
मृत्युञ्जयं महाकालं नमस्यामि शनैश्चरम् ।।७५
सर्वेषामेव भूतानां सुखदं शान्तमव्ययम् ।
मृत्युञ्जयं महाकालं नमस्यामि शनैश्चरम् ।।७६
कारणं सुखदुःखानां भावाऽभाव-स्वरुपिणम् ।
मृत्युञ्जयं महाकालं नमस्यामि शनैश्चरम् ।।७७
अकाल-मृत्यु-हरणऽमपमृत्यु निवारणम् ।
मृत्युञ्जयं महाकालं नमस्यामि शनैश्चरम् ।।७८
कालरुपेण संसार भक्षयन्तं महाग्रहम् ।
मृत्युञ्जयं महाकालं नमस्यामि शनैश्चरम् ।।७९
दुर्निरीक्ष्यं स्थूलरोमं भीषणं दीर्घ-लोचनम् ।
मृत्युञ्जयं महाकालं नमस्यामि शनैश्चरम् ।।८०
ग्रहाणां ग्रहभूतं च सर्वग्रह-निवारणम् ।
मृत्युञ्जयं महाकालं नमस्यामि शनैश्चरम् ।।८१
कालस्य वशगाः सर्वे न कालः कस्यचिद्वशः ।
तस्मात्त्वां कालपुरुषं प्रणतोऽस्मि शनैश्चरम् ।।८२
कालदेव जगत्सर्वं काल एव विलीयते ।
कालरुपं स्वयं शम्भुः कालात्मा ग्रहदेवता ।।८३
चण्डीशो रुद्रडाकिन्याक्रान्तश्चण्डीश उच्यते ।
विद्युदाकलितो नद्यां समारुढो रसाधिपः ।।८४
चण्डीशः शुकसंयुक्तो जिह्वया ललितः पुनः ।
क्षतजस्तामसी शोभी स्थिरात्मा विद्युता युतः ।।८५
नमोऽन्तो मनुरित्येष शनितुष्टिकरः शिवे ।
आद्यन्तेऽष्टोत्तरशतं मनुमेनं जपेन्नरः ।।८६
यः पठेच्छ्रणुयाद्वापि ध्यात्त्वा सम्पूज्य भक्तितः ।
त्रस्य मृत्योर्भयं नैव शतवर्षावधिप्रिये !।।८७
ज्वराः सर्वे विनश्यन्ति दद्रु-विस्फोटकच्छुकाः ।
दिवा सौरिं स्मरेत् रात्रौ महाकालं यजन् पठेत ।।८८
जन्मर्क्षे च यदा सौरिर्जपेदेतत्सहस्त्रकम् ।
वेधगे वामवेधे वा जपेदर्द्धसहस्त्रकम् ।।८९
द्वितीये द्वादशे मन्दे तनौ वा चाष्टमेऽपि वा ।
तत्तद्राशौ भवेद्यावत् पठेत्तावद्दिनावधि ।।९०
चतुर्थे दशमे वाऽपि सप्तमे नवपञ्चमे ।
गोचरे जन्मलग्नेशे दशास्वन्तर्दशासु च ।।९१
गुरुलाघवज्ञानेन पठेदावृत्तिसंख्यया ।
शतमेकं त्रयं वाथ शतयुग्मं कदाचन ।।९२
आपदस्तस्य नश्यन्ति पापानि च जयं भवेत् ।
महाकालालये पीठे ह्यथवा जलसन्निधौ ।।९३
पुण्यक्षेत्रेऽश्वत्थमूले तैलकुम्भाग्रतो गृहे ।
नियमेनैकभक्तेन ब्रह्मचर्येण मौनिना ।।९४
श्रोतव्यं पठितव्यं च साधकानां सुखावहम् ।
परं स्वस्त्ययनं पुण्यं स्तोत्रं मृत्युञ्जयाभिधम् ।।९५
कालक्रमेण कथितं न्यासक्रम समन्वितम् ।
प्रातःकाले शुचिर्भूत्वा पूजायां च निशामुखे ।।९६
पठतां नैव दुष्टेभ्यो व्याघ्रसर्पादितो भयम् ।
नाग्नितो न जलाद्वायोर्देशे देशान्तरेऽथवा ।।९७
नाऽकाले मरणं तेषां नाऽपमृत्युभयं भवेत् ।
आयुर्वर्षशतं साग्रं भवन्ति चिरजीविनः ।।९८
नाऽतः परतरं स्तोत्रं शनितुष्टिकरं महत् ।
शान्तिकं शीघ्रफलदं स्तोत्रमेतन्मयोदितम् ।।९९
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन यदीच्छेदात्मनो हितम् ।
कथनीयं महादेवि ! नैवाभक्तस्य कस्यचित् ।।१०० ।
II इति मार्तण्ड-भैरव-तन्त्रे महाकाल-शनि-मृत्युञ्जय-स्तोत्रं सम्पूर्णम् II
II श्री गणेशाय नमः II
II ॐ महाकाल शनि मृत्युञ्जायाय नमः II
नीलाद्रीशोभाञ्चितदिव्यमूर्तिः
खड्गो त्रिदण्डी शरचापहस्तः ।
शम्भुर्महाकालशनिः
पुरारिर्जयत्यशेषासुरनाशकारी ।।१
मेरुपृष्ठे समासीनं सामरस्ये स्थितं शिवम् ।
प्रणम्य शिरसा गौरी पृच्छतिस्म जगद्धितम् ।।२
।।पार्वत्युवाच।।
भगवन् ! देवदेवेश ! भक्तानुग्रहकारक ! ।
अल्पमृत्युविनाशाय यत्त्वया पूर्व सूचितम् ।।३।।
तदेवत्वं महाबाहो ! लोकानां हितकारकम् ।
तव मूर्ति प्रभेदस्य महाकालस्य साम्प्रतम् ।।४
शनेर्मृत्युञ्जयस्तोत्रं ब्रूहि मे नेत्रजन्मनः ।
अकाल मृत्युहरणमपमृत्यु निवारणम् ।।५
शनिमन्त्रप्रभेदा ये तैर्युक्तं यत्स्तवं शुभम् ।
प्रतिनाम चथुर्यन्तं नमोन्तं मनुनायुतम् ।।६
।।श्रीशंकर उवाच।।
नित्ये प्रियतमे गौरि सर्वलोक-हितेरते ।
गुह्याद्गुह्यतमं दिव्यं सर्वलोकोपकारकम् ।।७
शनिमृत्युञ्जयस्तोत्रं प्रवक्ष्यामि तवऽधुना ।
सर्वमंगलमांगल्यं सर्वशत्रु विमर्दनम् ।।८
सर्वरोगप्रशमनं सर्वापद्विनिवारणम् ।
शरीरारोग्यकरणमायुर्वृद्धिकरं नृणाम् ।।९
यदि भक्तासि मे गौरी गोपनीयं प्रयत्नतः ।
गोपितं सर्वतन्त्रेषु तच्छ्रणुष्व महेश्वरी ! ।।१०
ऋषिन्यासं करन्यासं देहन्यासं समाचरेत् ।
महोग्रं मूर्घ्नि विन्यस्य मुखे वैवस्वतं न्यसेत् ।।११
गले तु विन्यसेन्मन्दं बाह्वोर्महाग्रहं न्यसेत् ।
हृदि न्यसेन्महाकालं गुह्ये कृशतनुं न्यसेत् ।।१२
जान्वोम्तूडुचरं न्यस्य पादयोस्तु शनैश्चरम्।
एवं न्यासविधि कृत्वा पश्चात् कालात्मनः शनेः ।।१३
न्यासं ध्यानं प्रवक्ष्यामि तनौ श्यार्वा पठेन्नरः ।
कल्पादियुगभेदांश्च करांगन्यासरुपिणः ।।१४
कालात्मनो न्यसेद् गात्रे मृत्युञ्जय ! नमोऽस्तु ते ।
मन्वन्तराणि सर्वाणि महाकालस्वरुपिणः ।।१५
भावयेत्प्रति प्रत्यंगे महाकालाय ते नमः ।
भावयेत्प्रभवाद्यब्दान् शीर्षे कालजिते नमः ।।१६
नमस्ते नित्यसेव्याय विन्यसेदयने भ्रुवोः ।
सौरये च नमस्तेऽतु गण्डयोर्विन्यसेदृतून् ।।१७
श्रावणं भावयेदक्ष्णोर्नमः कृष्णनिभाय च ।
महोग्राय नमो भार्दं तथा श्रवणयोर्न्यसेत् ।।१८
नमो वै दुर्निरीक्ष्याय चाश्विनं विन्यसेन्मुखे ।
नमो नीलमयूखाय ग्रीवायां कार्तिकं न्यसेत् ।।१९
मार्गशीर्ष न्यसेद्-बाह्वोर्महारौद्राय ते नमः ।
ऊर्द्वलोक-निवासाय पौषं तु हृदये न्यसेत् ।।२०
नमः कालप्रबोधाय माघं वै चोदरेन्यसेत् ।
मन्दगाय नमो मेढ्रे न्यसेर्द्वफाल्गुनं तथा ।।२१
ऊर्वोर्न्यसेच्चैत्रमासं नमः शिवोस्भवाय च ।
वैशाखं विन्यसेज्जान्वोर्नमः संवर्त्तकाय च ।।२२
जंघयोर्भावयेज्ज्येष्ठं भैरवाय नमस्तथा ।
आषाढ़ं पाद्योश्चैव शनये च नमस्तथा ।।२३
कृष्णपक्षं च क्रूराय नमः आपादमस्तके ।
न्यसेदाशीर्षपादान्ते शुक्लपक्षं ग्रहाय च ।।२४
नयसेन्मूलं पादयोश्च ग्रहाय शनये नमः ।
नमः सर्वजिते चैव तोयं सर्वांगुलौ न्यसेत् ।।२५
न्यसेद्-गुल्फ-द्वये विश्वं नमः शुष्कतराय च ।
विष्णुभं भावयेज्जंघोभये शिष्टतमाय ते ।।२६
जानुद्वये धनिष्ठां च न्यसेत् कृष्णरुचे नमः ।
ऊरुद्वये वारुर्णांन्यसेत्कालभृते नमः ।।२७
पूर्वभाद्रं न्यसेन्मेढ्रे जटाजूटधराय च । पृ
ष्ठउत्तरभाद्रं च करालाय नमस्तथा ।।२८
रेवतीं च न्यसेन्नाभो नमो मन्दचराय च ।
गर्भदेशे न्यसेद्दस्त्रं नमः श्यामतराय च ।।२९
नमो भोगिस्त्रजे नित्यं यमं स्तनयुगे न्यसेत् ।
न्येसत्कृत्तिकां हृदये नमस्तैलप्रियाय च ।।३०
रोहिणीं भावयेद्धस्ते नमस्ते खड्गधारीणे ।
मृगं न्येसतद्वाम हस्ते त्रिदण्डोल्लसिताय च ।।३१
दक्षोर्द्ध्व भावयेद्रौद्रं नमो वै बाणधारिणे ।
पुनर्वसुमूर्द्ध्व नमो वै चापधारिणे ।।३२
तिष्यं न्यसेद्दक्षबाहौ नमस्ते हर मन्यवे ।
सार्पं न्यसेद्वामबाहौ चोग्रचापाय ते नमः ।।३३
मघां विभावयेत्कण्ठे नमस्ते भस्मधारिणे ।
मुखे न्यसेद्-भगर्क्ष च नमः क्रूरग्रहाय च ।।३४
भावयेद्दक्षनासायामर्यमाणश्व योगिने ।
भावयेद्वामनासायां हस्तर्क्षं धारिणे नमः ।।३५
त्वाष्ट्रं न्यसेद्दक्षकर्णे कृसरान्न प्रियाय ते ।
स्वातीं न्येसद्वामकर्णे नमो बृह्ममयाय ते ।।३६
विशाखां च दक्षनेत्रे नमस्ते ज्ञानदृष्टये ।
विष्कुम्भं भावयेच्छीर्षेसन्धौ कालाय ते नमः ।।३७
प्रीतियोगं भ्रुवोः सन्धौ महामन्दं ! नमोऽस्तु ते ।
नेत्रयोः सन्धावायुष्मद्योगं भीष्माय ते नमः ।।३८
सौभाग्यं भावयेन्नासासन्धौ फलाशनाय च ।
शोभनं भावयेत्कर्णे सन्धौ पिण्यात्मने नमः ।।३९
नमः कृष्णयातिगण्डं हनुसन्धौ विभावयेत् ।
नमो निर्मांसदेहाय सुकर्माणं शिरोधरे ।।४०
धृतिं न्यसेद्दक्षवाहौ पृष्ठे छायासुताय च ।
तन्मूलसन्धौ शूलं च न्यसेदुग्राय ते नमः ।।४१
तत्कूर्परे न्यसेदगण्डे नित्यानन्दाय ते नमः ।
वृद्धिं तन्मणिबन्धे च कालज्ञाय नमो न्यसेत् ।।४२
ध्रुवं तद्ङ्गुली-मूलसन्धौ कृष्णाय ते नमः ।
व्याघातं भावयेद्वामबाहुपृष्ठे कृशाय च ।।४३
हर्षणं तन्मूलसन्धौ भुतसन्तापिने नमः ।
तत्कूर्परे न्यसेद्वज्रं सानन्दाय नमोऽस्तु ते ।।४४
सिद्धिं तन्मणिबन्धे च न्यसेत् कालाग्नये नमः ।
व्यतीपातं कराग्रेषु न्यसेत्कालकृते नमः ।।४५
वरीयांसं दक्षपार्श्वसन्धौ कालात्मने नमः ।
परिघं भावयेद्वामपार्श्वसन्धौ नमोऽस्तु ते ।।४६
न्यसेद्दक्षोरुसन्धौ च शिवं वै कालसाक्षिणे ।
तज्जानौ भावयेत्सिद्धिं महादेहाय ते नमः ।।४७
साध्यं न्यसेच्च तद्-गुल्फसन्धौ घोराय ते नमः ।
न्यसेत्तदंगुलीसन्धौ शुभं रौद्राय ते नमः ।।४८
न्यसेद्वामारुसन्धौ च शुक्लकालविदे नमः ।
ब्रह्मयोगं च तज्जानो न्यसेत्सद्योगिने नमः ।।४९
ऐन्द्रं तद्-गुल्फसन्धौ च योगाऽधीशाय ते नमः ।
न्यसेत्तदंगुलीसन्धौ नमो भव्याय वैधृतिम् ।।५०
चर्मणि बवकरणं भावयेद्यज्वने नमः ।
बालवं भावयेद्रक्ते संहारक ! नमोऽस्तु ते ।।५१
कौलवं भावयेदस्थ्नि नमस्ते सर्वभक्षिणे ।
तैत्तिलं भावयेन्मसि आममांसप्रियाय ते ।।५२
गरं न्यसेद्वपायां च सर्वग्रासाय ते नमः ।
न्यसेद्वणिजं मज्जायां सर्वान्तक ! नमोऽस्तु ते ।।५३
विर्येविभावयेद्विष्टिं नमो मन्यूग्रतेजसे ।
रुद्रमित्र ! पितृवसुवारीण्येतांश्च पञ्च च ।।५४
मुहूर्तांश्च दक्षपादनखेषु भावयेन्नमः ।
खगेशाय च खस्थाय खेचराय स्वरुपिणे ।।५५
पुरुहूतशतमखे विश्ववेधो-विधूंस्तथा ।
मुहूर्तांश्च वामपादनखेषु भावयेन्नमः ।।५६
सत्यव्रताय सत्याय नित्यसत्याय ते नमः ।
सिद्धेश्वर ! नमस्तुभ्यं योगेश्वर ! नमोऽस्तु ते ।।५७
वह्निनक्तंचरांश्चैव वरुणार्यमयोनकान् ।
मुहूर्तांश्च दक्षहस्तनखेषु भावयेन्नमः ।।५८
लग्नोदयाय दीर्घाय मार्गिणे दक्षदृष्टये ।
वक्राय चातिक्रूराय नमस्ते वामदृष्टये ।।५९
वामहस्तनखेष्वन्त्यवर्णेशाय नमोऽस्तु ते ।
गिरिशाहिर्बुध्न्यपूषाजपष्द्दस्त्रांश्च भावयेत् ।।६०
राशिभोक्त्रे राशिगाय राशिभ्रमणकारिणे ।
राशिनाथाय राशीनां फलदात्रे नमोऽस्तु ते ।।६१
यमाग्नि-चन्द्रादितिजविधातृंश्च विभावयेत् ।
ऊर्द्ध्व-हस्त-दक्षनखेष्वत्यकालाय ते नमः ।।६२
तुलोच्चस्थाय सौम्याय नक्रकुम्भगृहाय च ।
समीरत्वष्टजीवांश्च विष्णु तिग्म द्युतीन्नयसेत् ।।६३
ऊर्ध्व-वामहस्त-नखेष्वन्यग्रह निवारिणे ।
तुष्टाय च वरिष्ठाय नमो राहुसखाय च ।।६४
रविवारं ललाटे च न्यसेद्-भीमदृशे नमः ।
सोमवारं न्यसेदास्ये नमो मृतप्रियाय च ।।६५
भौमवारं न्यसेत्स्वान्ते नमो ब्रह्म-स्वरुपिणे ।
मेढ्रं न्यसेत्सौम्यवारं नमो जीव-स्वरुपिणे ।।६६
वृषणे गुरुवारं च नमो मन्त्र-स्वरुपिणे ।
भृगुवारं मलद्वारे नमः प्रलयकारिणे ।।६७
पादयोः शनिवारं च निर्मांसाय नमोऽस्तु ते ।
घटिका न्यसेत्केशेषु नमस्ते सूक्ष्मरुपिणे ।।६८
कालरुपिन्नमस्तेऽस्तु सर्वपापप्रणाशकः !।
त्रिपुरस्य वधार्थांय शम्भुजाताय ते नमः ।।६९
नमः कालशरीराय कालनुन्नाय ते नमः ।
कालहेतो ! नमस्तुभ्यं कालनन्दाय वै नमः ।।७०
अखण्डदण्डमानाय त्वनाद्यन्ताय वै नमः ।
कालदेवाय कालाय कालकालाय ते नमः ।।७१
निमेषादिमहाकल्पकालरुपं च भैरवम् ।
मृत्युञ्जयं महाकालं नमस्यामि शनैश्चरम् ।।७२
दातारं सर्वभव्यानां भक्तानामभयंकरम् ।
मृत्युञ्जयं महाकालं नमस्यामि शनैश्चरम् ।।७३
कर्त्तारं सर्वदुःखानां दुष्टानां भयवर्धनम् ।
मृत्युञ्जयं महाकालं नमस्यामि शनैश्चरम् ।।७४
हर्त्तारं ग्रहजातानां फलानामघकारिणाम् ।
मृत्युञ्जयं महाकालं नमस्यामि शनैश्चरम् ।।७५
सर्वेषामेव भूतानां सुखदं शान्तमव्ययम् ।
मृत्युञ्जयं महाकालं नमस्यामि शनैश्चरम् ।।७६
कारणं सुखदुःखानां भावाऽभाव-स्वरुपिणम् ।
मृत्युञ्जयं महाकालं नमस्यामि शनैश्चरम् ।।७७
अकाल-मृत्यु-हरणऽमपमृत्यु निवारणम् ।
मृत्युञ्जयं महाकालं नमस्यामि शनैश्चरम् ।।७८
कालरुपेण संसार भक्षयन्तं महाग्रहम् ।
मृत्युञ्जयं महाकालं नमस्यामि शनैश्चरम् ।।७९
दुर्निरीक्ष्यं स्थूलरोमं भीषणं दीर्घ-लोचनम् ।
मृत्युञ्जयं महाकालं नमस्यामि शनैश्चरम् ।।८०
ग्रहाणां ग्रहभूतं च सर्वग्रह-निवारणम् ।
मृत्युञ्जयं महाकालं नमस्यामि शनैश्चरम् ।।८१
कालस्य वशगाः सर्वे न कालः कस्यचिद्वशः ।
तस्मात्त्वां कालपुरुषं प्रणतोऽस्मि शनैश्चरम् ।।८२
कालदेव जगत्सर्वं काल एव विलीयते ।
कालरुपं स्वयं शम्भुः कालात्मा ग्रहदेवता ।।८३
चण्डीशो रुद्रडाकिन्याक्रान्तश्चण्डीश उच्यते ।
विद्युदाकलितो नद्यां समारुढो रसाधिपः ।।८४
चण्डीशः शुकसंयुक्तो जिह्वया ललितः पुनः ।
क्षतजस्तामसी शोभी स्थिरात्मा विद्युता युतः ।।८५
नमोऽन्तो मनुरित्येष शनितुष्टिकरः शिवे ।
आद्यन्तेऽष्टोत्तरशतं मनुमेनं जपेन्नरः ।।८६
यः पठेच्छ्रणुयाद्वापि ध्यात्त्वा सम्पूज्य भक्तितः ।
त्रस्य मृत्योर्भयं नैव शतवर्षावधिप्रिये !।।८७
ज्वराः सर्वे विनश्यन्ति दद्रु-विस्फोटकच्छुकाः ।
दिवा सौरिं स्मरेत् रात्रौ महाकालं यजन् पठेत ।।८८
जन्मर्क्षे च यदा सौरिर्जपेदेतत्सहस्त्रकम् ।
वेधगे वामवेधे वा जपेदर्द्धसहस्त्रकम् ।।८९
द्वितीये द्वादशे मन्दे तनौ वा चाष्टमेऽपि वा ।
तत्तद्राशौ भवेद्यावत् पठेत्तावद्दिनावधि ।।९०
चतुर्थे दशमे वाऽपि सप्तमे नवपञ्चमे ।
गोचरे जन्मलग्नेशे दशास्वन्तर्दशासु च ।।९१
गुरुलाघवज्ञानेन पठेदावृत्तिसंख्यया ।
शतमेकं त्रयं वाथ शतयुग्मं कदाचन ।।९२
आपदस्तस्य नश्यन्ति पापानि च जयं भवेत् ।
महाकालालये पीठे ह्यथवा जलसन्निधौ ।।९३
पुण्यक्षेत्रेऽश्वत्थमूले तैलकुम्भाग्रतो गृहे ।
नियमेनैकभक्तेन ब्रह्मचर्येण मौनिना ।।९४
श्रोतव्यं पठितव्यं च साधकानां सुखावहम् ।
परं स्वस्त्ययनं पुण्यं स्तोत्रं मृत्युञ्जयाभिधम् ।।९५
कालक्रमेण कथितं न्यासक्रम समन्वितम् ।
प्रातःकाले शुचिर्भूत्वा पूजायां च निशामुखे ।।९६
पठतां नैव दुष्टेभ्यो व्याघ्रसर्पादितो भयम् ।
नाग्नितो न जलाद्वायोर्देशे देशान्तरेऽथवा ।।९७
नाऽकाले मरणं तेषां नाऽपमृत्युभयं भवेत् ।
आयुर्वर्षशतं साग्रं भवन्ति चिरजीविनः ।।९८
नाऽतः परतरं स्तोत्रं शनितुष्टिकरं महत् ।
शान्तिकं शीघ्रफलदं स्तोत्रमेतन्मयोदितम् ।।९९
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन यदीच्छेदात्मनो हितम् ।
कथनीयं महादेवि ! नैवाभक्तस्य कस्यचित् ।।१०० ।
II इति मार्तण्ड-भैरव-तन्त्रे महाकाल-शनि-मृत्युञ्जय-स्तोत्रं सम्पूर्णम् II
II श्रीशनि चालीसा II
I दोहा I
जय गणेश गिरिजा सुवन मंगल करण कृपाल ।
दीनन के दुख दूर करि कीजै नाथ निहाल ॥
जय जय श्री शनिदेव प्रभु सुनहु विनय महाराज ।
करहु कृपा हे रवि तनय राखहु जनकी लाज ॥
जयति जयति शनिदेव दयाला । करत सदा भक्तन प्रतिपाला ॥
चारि भुजा तनु श्याम विराजै । माथे रतन मुकुट छबि छाजै ॥
परम विशाल मनोहर भाला । टेढ़ी दृष्टि भृकुटि विकराला ॥
कुण्डल श्रवण चमाचम चमके । हिये माल मुक्तन मणि दमकै ॥
कर में गदा त्रिशूल कुठारा । पल बिच करैं अरिहिं संहारा ॥
पिंगल कृष्णो छाया नन्दन । यम कोणस्थ रौद्र दुख भंजन ॥
सौरी मन्द शनी दश नामा । भानु पुत्र पूजहिं सब कामा ॥
जापर प्रभु प्रसन्न हवैं जाहीं । रंकहुँ राव करैं क्शण माहीं ॥
पर्वतहू तृण होइ निहारत । तृणहू को पर्वत करि डारत ॥
राज मिलत बन रामहिं दीन्हयो । कैकेइहुँ की मति हरि लीन्हयो ॥
बनहूँ में मृग कपट दिखाई । मातु जानकी गई चुराई ॥
लषणहिं शक्ति विकल करिडारा । मचिगा दल में हाहाकारा ॥
रावण की गति-मति बौराई । रामचन्द्र सों बैर बढ़ाई ॥
दियो कीट करि कंचन लंका । बजि बजरंग बीर की डंका ॥
नृप विक्रम पर तुहिं पगु धारा । चित्र मयूर निगलि गै हारा ॥
हार नौंलखा लाग्यो चोरी । हाथ पैर डरवायो तोरी ॥
भारी दशा निकृष्ट दिखायो । तेलहिं घर कोल्हू चलवायो ॥
विनय राग दीपक महँ कीन्हयों । तब प्रसन्न प्रभु ह्वै सुख दीन्हयों ॥
हरिश्चंद्र नृप नारि बिकानी । आपहुं भरें डोम घर पानी ॥
तैसे नल पर दशा सिरानी । भूंजी-मीन कूद गई पानी ॥
श्री शंकरहिं गह्यो जब जाई । पारवती को सती कराई ॥
तनिक वोलोकत ही करि रीसा । नभ उड़ि गयो गौरिसुत सीसा ॥
पाण्डव पर भै दशा तुम्हारी । बची द्रौपदी होति उघारी ॥
कौरव के भी गति मति मारयो । युद्ध महाभारत करि डारयो ॥
रवि कहँ मुख महँ धरि तत्काला । लेकर कूदि परयो पाताला ॥
शेष देव-लखि विनति लाई । रवि को मुख ते दियो छुड़ाई ॥
वाहन प्रभु के सात सुजाना । जग दिग्गज गर्दभ मृग स्वाना ॥
जम्बुक सिंह आदि नख धारी । सो फल ज्योतिष कहत पुकारी ॥
गज वाहन लक्श्मी गृह आवैं । हय ते सुख सम्पत्ति उपजावैं ॥
गर्दभ हानि करै बहु काजा । सिंह सिद्धकर राज समाजा ॥
जम्बुक बुद्धि नष्ट कर डारै । मृग दे कष्ट प्राण संहारै ॥
जब आवहिं प्रभु स्वान सवारी । चोरी आदि होय डर भारी ॥
तैसहि चारी चरण यह नामा । स्वर्ण लौह चाँदि अरु तामा ॥
लौह चरण पर जब प्रभु आवैं । धन जन सम्पत्ति नष्ट करावैं ॥
समता ताम्र रजत शुभकारी । स्वर्ण सर्व सुख मंगल भारी ॥
जो यह शनि चरित्र नित गावै । कबहुं न दशा निकृष्ट सतावै ॥
अद्भूत नाथ दिखावैं लीला । करैं शत्रु के नशिब बलि ढीला ॥
जो पण्डित सुयोग्य बुलवाई । विधिवत शनि ग्रह शांति कराई ॥
पीपल जल शनि दिवस चढ़ावत । दीप दान दै बहु सुख पावत ॥
कहत राम सुन्दर प्रभु दासा । शनि सुमिरत सुख होत प्रकाशा ॥
I दोहा I
पाठ शनीश्चर देव को कीन्हों oक़् विमल cक़् तय्यार ।
करत पाठ चालीस दिन हो भवसागर पार ॥
जो स्तुति दशरथ जी कियो सम्मुख शनि निहार ।
सरस सुभाष में वही ललिता लिखें सुधार ।
जय गणेश गिरिजा सुवन मंगल करण कृपाल ।
दीनन के दुख दूर करि कीजै नाथ निहाल ॥
जय जय श्री शनिदेव प्रभु सुनहु विनय महाराज ।
करहु कृपा हे रवि तनय राखहु जनकी लाज ॥
जयति जयति शनिदेव दयाला । करत सदा भक्तन प्रतिपाला ॥
चारि भुजा तनु श्याम विराजै । माथे रतन मुकुट छबि छाजै ॥
परम विशाल मनोहर भाला । टेढ़ी दृष्टि भृकुटि विकराला ॥
कुण्डल श्रवण चमाचम चमके । हिये माल मुक्तन मणि दमकै ॥
कर में गदा त्रिशूल कुठारा । पल बिच करैं अरिहिं संहारा ॥
पिंगल कृष्णो छाया नन्दन । यम कोणस्थ रौद्र दुख भंजन ॥
सौरी मन्द शनी दश नामा । भानु पुत्र पूजहिं सब कामा ॥
जापर प्रभु प्रसन्न हवैं जाहीं । रंकहुँ राव करैं क्शण माहीं ॥
पर्वतहू तृण होइ निहारत । तृणहू को पर्वत करि डारत ॥
राज मिलत बन रामहिं दीन्हयो । कैकेइहुँ की मति हरि लीन्हयो ॥
बनहूँ में मृग कपट दिखाई । मातु जानकी गई चुराई ॥
लषणहिं शक्ति विकल करिडारा । मचिगा दल में हाहाकारा ॥
रावण की गति-मति बौराई । रामचन्द्र सों बैर बढ़ाई ॥
दियो कीट करि कंचन लंका । बजि बजरंग बीर की डंका ॥
नृप विक्रम पर तुहिं पगु धारा । चित्र मयूर निगलि गै हारा ॥
हार नौंलखा लाग्यो चोरी । हाथ पैर डरवायो तोरी ॥
भारी दशा निकृष्ट दिखायो । तेलहिं घर कोल्हू चलवायो ॥
विनय राग दीपक महँ कीन्हयों । तब प्रसन्न प्रभु ह्वै सुख दीन्हयों ॥
हरिश्चंद्र नृप नारि बिकानी । आपहुं भरें डोम घर पानी ॥
तैसे नल पर दशा सिरानी । भूंजी-मीन कूद गई पानी ॥
श्री शंकरहिं गह्यो जब जाई । पारवती को सती कराई ॥
तनिक वोलोकत ही करि रीसा । नभ उड़ि गयो गौरिसुत सीसा ॥
पाण्डव पर भै दशा तुम्हारी । बची द्रौपदी होति उघारी ॥
कौरव के भी गति मति मारयो । युद्ध महाभारत करि डारयो ॥
रवि कहँ मुख महँ धरि तत्काला । लेकर कूदि परयो पाताला ॥
शेष देव-लखि विनति लाई । रवि को मुख ते दियो छुड़ाई ॥
वाहन प्रभु के सात सुजाना । जग दिग्गज गर्दभ मृग स्वाना ॥
जम्बुक सिंह आदि नख धारी । सो फल ज्योतिष कहत पुकारी ॥
गज वाहन लक्श्मी गृह आवैं । हय ते सुख सम्पत्ति उपजावैं ॥
गर्दभ हानि करै बहु काजा । सिंह सिद्धकर राज समाजा ॥
जम्बुक बुद्धि नष्ट कर डारै । मृग दे कष्ट प्राण संहारै ॥
जब आवहिं प्रभु स्वान सवारी । चोरी आदि होय डर भारी ॥
तैसहि चारी चरण यह नामा । स्वर्ण लौह चाँदि अरु तामा ॥
लौह चरण पर जब प्रभु आवैं । धन जन सम्पत्ति नष्ट करावैं ॥
समता ताम्र रजत शुभकारी । स्वर्ण सर्व सुख मंगल भारी ॥
जो यह शनि चरित्र नित गावै । कबहुं न दशा निकृष्ट सतावै ॥
अद्भूत नाथ दिखावैं लीला । करैं शत्रु के नशिब बलि ढीला ॥
जो पण्डित सुयोग्य बुलवाई । विधिवत शनि ग्रह शांति कराई ॥
पीपल जल शनि दिवस चढ़ावत । दीप दान दै बहु सुख पावत ॥
कहत राम सुन्दर प्रभु दासा । शनि सुमिरत सुख होत प्रकाशा ॥
I दोहा I
पाठ शनीश्चर देव को कीन्हों oक़् विमल cक़् तय्यार ।
करत पाठ चालीस दिन हो भवसागर पार ॥
जो स्तुति दशरथ जी कियो सम्मुख शनि निहार ।
सरस सुभाष में वही ललिता लिखें सुधार ।
II श्री शनिदेवजी की आरती II
जय जय श्री शनिदेव भक्तन हितकारी ।
सूरज के पुत्र प्रभू छाया महतारी ॥ जय॥
श्याम अंक वक्र दृष्ट चतुर्भुजा धारी ।
नीलाम्बर धार नाथ गज की असवारी ॥ जय॥
किरिट मुकुट शीश रजित दिपत है लिलारी ।
मुक्तन की माला गले शोभित बलिहारी ॥ जय॥
मोदक मिष्ठान पान चढ़त हैं सुपारी ।
लोहा तिल तेल उड़द महिषी अति प्यारी ॥ जय॥
देव दनुज ऋषी मुनी सुमरिन नर नारी ।
विश्वनाथ धरत ध्यान शरण हैं तुम्हारी ॥ जय॥
सूरज के पुत्र प्रभू छाया महतारी ॥ जय॥
श्याम अंक वक्र दृष्ट चतुर्भुजा धारी ।
नीलाम्बर धार नाथ गज की असवारी ॥ जय॥
किरिट मुकुट शीश रजित दिपत है लिलारी ।
मुक्तन की माला गले शोभित बलिहारी ॥ जय॥
मोदक मिष्ठान पान चढ़त हैं सुपारी ।
लोहा तिल तेल उड़द महिषी अति प्यारी ॥ जय॥
देव दनुज ऋषी मुनी सुमरिन नर नारी ।
विश्वनाथ धरत ध्यान शरण हैं तुम्हारी ॥ जय॥
श्री शनिदेव का परिचय :
``````````````````````````````````````
पौराणिक साहित्य में नवग्रहों के नाम एवं
उनके महात्म्य का विशद प्रतिपादन हुआ है :
ब्रह्मामुरारित्रिपुरान्तकारीभानुशशिभूमिसुतो बुधश्च।
गुरुश्चशुक्रशनिराहुकेतव: सर्वेग्रहा शांतिकरा भवन्तु।।
अर्थात :- ब्रह्मा, विष्णु, महेश, सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु एवं केतु ये ग्रह सब शांतिप्रद एवं मंगलकारी हैं। ज्योतिष शास्त्र में नवग्रहों का इस कारण बड़ा महत्व प्रतिपादित किया गया है। इस कारण समस्त मांगलिक कार्यों में इन नवग्रहों की ऐश्वर्य, सुख-समृद्धि एवं शांति हेतु पूजा-उपासना की जाती है। विभिन्न हिन्दू मंदिरों के प्रवेश द्वारों के शीर्ष पर इसी कारण नवग्रहों का अंकन मिलता है।
प्राचीन भारतीय प्रतिमा विज्ञान में शनि का अंकन पौराणिक विवरण के आधार पर होता है। उनके अनुसार शनि काले वर्ण के कहे गए हैं। आगम ग्रंथ में ऐसा उल्लेख है कि शनि श्वेत वस्त्रों को धारण करते हैं। अपनी दोनों भुजाओं में से एक में वे गदा धारण करते हैं तथा दूसरा वरद मुद्रा में रहता है। मत्स्य पुराण इन्हें लोहे से निर्मित रथ पर आरूढ़ बतलाता है। विष्णु पुराण में ऐसा कहा गया है कि शनि मंदगामी हैं और अपने रथ पर आरूढ़ होकर शनै:-शनै: चलते हैं। इनके रथ में आकाश में उत्पन्न हुए विचित्र वर्ण के घोड़े जुते हैं :
आकाशसम्भवैरश्वै: शबलै: स्यन्दनं पुतम्।
तमारूह्य शनैर्याति मंदगामी शनैश्चर:।।
विष्णुधर्मोत्तर पुराण शनि के रूप में अधिक स्पष्ट उल्लेख करता है। उसके अनुसार शनि को काले वर्ण का होना चाहिए और उन्हें वस्त्र भी काले वर्ण के ही पहनाने चाहिए। उनके दोनों हाथों में दंड तथा अक्षमाला रहती है। उनका संपूर्ण शरीर नसों से ढंका रहता है। शनि का रथ लोहे का बना रहता है और 8 सर्प मिलकर उस रथ को चलाते हैं।
कृष्णवासास्तथाकृष्ण: शनि: कार्यस्सिरातत:।।
दण्डाक्षमालासंयुक्त करद्वितयभूषित:।
कार्ष्णायसे रथे कार्यस्तथौवाष्टभुंगमे।।
स्पष्ट है कि शनि विषयक पौराणिक मान्यताओं के आधार पर शनि की प्रतिमाएं निर्मित हुई थीं और आगम ग्रंथों और विविध पंचांगों के आधार पर उनकी पूजा-उपासना का क्रम चल निकला। आधुनिक काल में भी शनि ग्रह को एक देवता का स्वरूप प्रदान किया गया। कई पारंपरिक पोथियों में उनके माहात्म्य के बारे में की मिथकीय कहानियां उपलब्ध हैं।
आजकल तो कई छोटे-मोटे नगरों व कस्बों में शनि देवता के पृथक देवालयों के निर्माण की परंपरा चल निकली है। पूजा-उपासना की विभिन्न विधियों के माध्यम से भयग्रस्त अथवा श्रद्धावान भक्तों की भारी भीड़ इन मंदिरों में शनिवार के दिन विशेष रूप से लगने लगी है। आकाशीय ग्रह किस प्रकार लोक-जीवन में प्रविष्ट एवं प्रतिष्ठ होता है, यह उसका प्रमाण है।
1. श्री शनिदेव के पिताश्री : श्री सूर्यनारायण
2. मातोश्री : छायादेवी-सुवर्णा
3. भाई : यमराज
4. बहन : यमुनादेवी
5. गुरु : शिवशंकर
6. जन्मस्थल : सौराष्ट्र, गुजरात
7. गौत्र : कश्यप
8. रंग : सांवला
9. स्वभाव : त्यागी, तपस्वी, दृष्टि, गुस्सैल गंभीर, स्पष्टभावी, एकांत, न्यायप्रिय आदि।
10. दोस्त- हनुमान, कालभैरव, बालाजी।
11. विपुल नाम : छायासुत, सूर्यपुत्र, कोणस्थ, पिंगलो, बभ्रू़, रौद्रांतक, सौरि, शनैश्चर, कृष्णमंद, कृष्णो आदि।
12. दोस्त ग्रह : गुरु, बुध, शुक्र, राहु
13. प्रिय नक्षत्र : पुष्य, अनुराधा, उत्तरा भाद्रपद
14. दोस्त राशि : वृषभ, मिथुन, कन्या, तुला
15. प्रिय राशि : मकर, कुंभ
16. शनि की उच्च राशि : तुला राशि
17. शनि की नीच राशि : मेष राशि
18. शनि का क्षेत्र : पेट्रोलियम, लौह, इस्पात, उद्योग, प्रेस, मेडिकल, कारखाना, कोयला, चमड़ा, न्यायालय, ट्रांसपोर्ट आदि।
शनि के मंत्र :
```````````````````
सामान्य मंत्र : ॐ शं शनैश्चराय नम:
बीज मंत्र : ॐ प्रां प्रीं प्रौं स: शनैश्चराय नम:
वैदिक मंत्र :
ॐ शं नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये। शंयोरभि स्रवन्तु न:।।
पौराणिक मंत्र :
नीलांजनसमाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम् I
छायामार्तण्डसम्भूतं तं नमामी शनैश्चरम्।।
`````````````````````````````````````````````````````````
शनैश्चर नमस्तुभ्यं नमस्ते त्वथ राहवे।
केतवेअथ नमस्तुभ्यं सर्वशांतिप्रदो भव॥
``````````````````````````````````````
पौराणिक साहित्य में नवग्रहों के नाम एवं
उनके महात्म्य का विशद प्रतिपादन हुआ है :
ब्रह्मामुरारित्रिपुरान्तकारीभानुशशिभूमिसुतो बुधश्च।
गुरुश्चशुक्रशनिराहुकेतव: सर्वेग्रहा शांतिकरा भवन्तु।।
अर्थात :- ब्रह्मा, विष्णु, महेश, सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु एवं केतु ये ग्रह सब शांतिप्रद एवं मंगलकारी हैं। ज्योतिष शास्त्र में नवग्रहों का इस कारण बड़ा महत्व प्रतिपादित किया गया है। इस कारण समस्त मांगलिक कार्यों में इन नवग्रहों की ऐश्वर्य, सुख-समृद्धि एवं शांति हेतु पूजा-उपासना की जाती है। विभिन्न हिन्दू मंदिरों के प्रवेश द्वारों के शीर्ष पर इसी कारण नवग्रहों का अंकन मिलता है।
प्राचीन भारतीय प्रतिमा विज्ञान में शनि का अंकन पौराणिक विवरण के आधार पर होता है। उनके अनुसार शनि काले वर्ण के कहे गए हैं। आगम ग्रंथ में ऐसा उल्लेख है कि शनि श्वेत वस्त्रों को धारण करते हैं। अपनी दोनों भुजाओं में से एक में वे गदा धारण करते हैं तथा दूसरा वरद मुद्रा में रहता है। मत्स्य पुराण इन्हें लोहे से निर्मित रथ पर आरूढ़ बतलाता है। विष्णु पुराण में ऐसा कहा गया है कि शनि मंदगामी हैं और अपने रथ पर आरूढ़ होकर शनै:-शनै: चलते हैं। इनके रथ में आकाश में उत्पन्न हुए विचित्र वर्ण के घोड़े जुते हैं :
आकाशसम्भवैरश्वै: शबलै: स्यन्दनं पुतम्।
तमारूह्य शनैर्याति मंदगामी शनैश्चर:।।
विष्णुधर्मोत्तर पुराण शनि के रूप में अधिक स्पष्ट उल्लेख करता है। उसके अनुसार शनि को काले वर्ण का होना चाहिए और उन्हें वस्त्र भी काले वर्ण के ही पहनाने चाहिए। उनके दोनों हाथों में दंड तथा अक्षमाला रहती है। उनका संपूर्ण शरीर नसों से ढंका रहता है। शनि का रथ लोहे का बना रहता है और 8 सर्प मिलकर उस रथ को चलाते हैं।
कृष्णवासास्तथाकृष्ण: शनि: कार्यस्सिरातत:।।
दण्डाक्षमालासंयुक्त करद्वितयभूषित:।
कार्ष्णायसे रथे कार्यस्तथौवाष्टभुंगमे।।
स्पष्ट है कि शनि विषयक पौराणिक मान्यताओं के आधार पर शनि की प्रतिमाएं निर्मित हुई थीं और आगम ग्रंथों और विविध पंचांगों के आधार पर उनकी पूजा-उपासना का क्रम चल निकला। आधुनिक काल में भी शनि ग्रह को एक देवता का स्वरूप प्रदान किया गया। कई पारंपरिक पोथियों में उनके माहात्म्य के बारे में की मिथकीय कहानियां उपलब्ध हैं।
आजकल तो कई छोटे-मोटे नगरों व कस्बों में शनि देवता के पृथक देवालयों के निर्माण की परंपरा चल निकली है। पूजा-उपासना की विभिन्न विधियों के माध्यम से भयग्रस्त अथवा श्रद्धावान भक्तों की भारी भीड़ इन मंदिरों में शनिवार के दिन विशेष रूप से लगने लगी है। आकाशीय ग्रह किस प्रकार लोक-जीवन में प्रविष्ट एवं प्रतिष्ठ होता है, यह उसका प्रमाण है।
1. श्री शनिदेव के पिताश्री : श्री सूर्यनारायण
2. मातोश्री : छायादेवी-सुवर्णा
3. भाई : यमराज
4. बहन : यमुनादेवी
5. गुरु : शिवशंकर
6. जन्मस्थल : सौराष्ट्र, गुजरात
7. गौत्र : कश्यप
8. रंग : सांवला
9. स्वभाव : त्यागी, तपस्वी, दृष्टि, गुस्सैल गंभीर, स्पष्टभावी, एकांत, न्यायप्रिय आदि।
10. दोस्त- हनुमान, कालभैरव, बालाजी।
11. विपुल नाम : छायासुत, सूर्यपुत्र, कोणस्थ, पिंगलो, बभ्रू़, रौद्रांतक, सौरि, शनैश्चर, कृष्णमंद, कृष्णो आदि।
12. दोस्त ग्रह : गुरु, बुध, शुक्र, राहु
13. प्रिय नक्षत्र : पुष्य, अनुराधा, उत्तरा भाद्रपद
14. दोस्त राशि : वृषभ, मिथुन, कन्या, तुला
15. प्रिय राशि : मकर, कुंभ
16. शनि की उच्च राशि : तुला राशि
17. शनि की नीच राशि : मेष राशि
18. शनि का क्षेत्र : पेट्रोलियम, लौह, इस्पात, उद्योग, प्रेस, मेडिकल, कारखाना, कोयला, चमड़ा, न्यायालय, ट्रांसपोर्ट आदि।
शनि के मंत्र :
```````````````````
सामान्य मंत्र : ॐ शं शनैश्चराय नम:
बीज मंत्र : ॐ प्रां प्रीं प्रौं स: शनैश्चराय नम:
वैदिक मंत्र :
ॐ शं नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये। शंयोरभि स्रवन्तु न:।।
पौराणिक मंत्र :
नीलांजनसमाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम् I
छायामार्तण्डसम्भूतं तं नमामी शनैश्चरम्।।
`````````````````````````````````````````````````````````
शनैश्चर नमस्तुभ्यं नमस्ते त्वथ राहवे।
केतवेअथ नमस्तुभ्यं सर्वशांतिप्रदो भव॥
II शनिवार व्रत कथा II
एक समय स्वर्गलोक में 'सबसे बड़ा कौन?' के प्रश्न पर नौ ग्रहों में वाद-विवाद हो गया। विवाद इतना बढ़ा कि परस्पर भयंकर युद्ध की स्थिति बन गई। निर्णय के लिए सभी देवता देवराज इंद्र के पास पहुंचे और बोले- 'हे देवराज! आपको निर्णय करना होगा कि हममें से सबसे बड़ा कौन है?' देवताओं का प्रश्न सुनकर देवराज इंद्र उलझन में पड़ गए।
इंद्र बोले- 'मैं इस प्रश्न का उत्तर देने में असमर्थ हूं। हम सभी पृथ्वीलोक में उज्जयिनी नगरी में राजा विक्रमादित्य के पास चलते हैं।
देवराज इंद्र सहित सभी ग्रह (देवता) उज्जयिनी नगरी पहुंचे। महल में पहुंचकर जब देवताओं ने उनसे अपना प्रश्न पूछा तो राजा विक्रमादित्य भी कुछ देर के लिए परेशान हो उठे क्योंकि सभी देवता अपनी-अपनी शक्तियों के कारण महान थे। किसी को भी छोटा या बड़ा कह देने से उनके क्रोध के प्रकोप से भयंकर हानि पहुंच सकती थी।
अचानक राजा विक्रमादित्य को एक उपाय सूझा और उन्होंने विभिन्न धातुओं- स्वर्ण, रजत (चांदी), कांसा, ताम्र (तांबा), सीसा, रांगा, जस्ता, अभ्रक व लोहे के नौ आसन बनवाए। धातुओं के गुणों के अनुसार सभी आसनों को एक-दूसरे के पीछे रखवाकर उन्होंने देवताओं को अपने-अपने सिंहासन पर बैठने को कहा।
देवताओं के बैठने के बाद राजा विक्रमादित्य ने कहा- 'आपका निर्णय तो स्वयं हो गया। जो सबसे पहले सिंहासन पर विराजमान है, वहीं सबसे बड़ा है।'
राजा विक्रमादित्य के निर्णय को सुनकर शनि देवता ने सबसे पीछे आसन पर बैठने के कारण अपने को छोटा जानकर क्रोधित होकर कहा- 'राजा विक्रमादित्य! तुमने मुझे सबसे पीछे बैठाकर मेरा अपमान किया है। तुम मेरी शक्तियों से परिचित नहीं हो। मैं तुम्हारा सर्वनाश कर दूंगा।'
शनि ने कहा- 'सूर्य एक राशि पर एक महीने, चंद्रमा सवा दो दिन, मंगल डेढ़ महीने, बुध और शुक्र एक महीने, वृहस्पति तेरह महीने रहते हैं, लेकिन मैं किसी राशि पर साढ़े सात वर्ष (साढ़े साती) तक रहता हूँ। बड़े-बड़े देवताओं को मैंने अपने प्रकोप से पीड़ित किया है।
राम को साढ़े साती के कारण ही वन में जाकर रहना पड़ा और रावण को साढ़े साती के कारण ही युद्ध में मृत्यु का शिकार बनना पड़ा। राजा! अब तू भी मेरे प्रकोप से नहीं बच सकेगा।' इसके बाद अन्य ग्रहों के देवता तो प्रसन्नता के साथ चले गए, परंतु शनि देव बड़े क्रोध के साथ वहां से विदा हुए।
राजा विक्रमादित्य पहले की तरह ही न्याय करते रहे। उनके राज्य में सभी स्त्री-पुरुष बहुत आनंद से जीवन-यापन कर रहे थे। कुछ दिन ऐसे ही बीत गए। उधर शनि देवता अपने अपमान को भूले नहीं थे।
विक्रमादित्य से बदला लेने के लिए एक दिन शनि देव ने घोड़े के व्यापारी का रूप धारण किया और बहुत से घोड़ों के साथ उज्जयिनी नगरी पहुंचे। राजा विक्रमादित्य ने राज्य में किसी घोड़े के व्यापारी के आने का समाचार सुना तो अपने अश्वपाल को कुछ घोड़े खरीदने के लिए भेजा।
घोड़े बहुत कीमती थे। अश्वपाल ने जब वापस लौटकर इस संबंध में बताया तो राजा विक्रमादित्य ने स्वयं आकर एक सुंदर व शक्तिशाली घोड़े को पसंद किया।
घोड़े की चाल देखने के लिए राजा उस घोड़े पर सवार हुए तो वह घोड़ा बिजली की गति से दौड़ पड़ा।
तेजी से दौड़ता घोड़ा राजा को दूर एक जंगल में ले गया और फिर राजा को वहां गिराकर जंगल में कहीं गायब हो गया। राजा अपने नगर को लौटने के लिए जंगल में भटकने लगा। लेकिन उन्हें लौटने का कोई रास्ता नहीं मिला। राजा को भूख-प्यास लग आई। बहुत घूमने पर उसे एक चरवाहा मिला।
राजा ने उससे पानी मांगा। पानी पीकर राजा ने उस चरवाहे को अपनी अंगूठी दे दी। फिर उससे रास्ता पूछकर वह जंगल से निकलकर पास के नगर में पहुंचा।
राजा ने एक सेठ की दुकान पर बैठकर कुछ देर आराम किया। उस सेठ ने राजा से बातचीत की तो राजा ने उसे बताया कि मैं उज्जयिनी नगरी से आया हूँ। राजा के कुछ देर दुकान पर बैठने से सेठ जी की बहुत बिक्री हुई।
सेठ ने राजा को बहुत भाग्यवान समझा और खुश होकर उसे अपने घर भोजन के लिए ले गया। सेठ के घर में सोने का एक हार खूंटी पर लटका हुआ था। राजा को उस कमरे में छोड़कर सेठ कुछ देर के लिए बाहर गया।
तभी एक आश्चर्यजनक घटना घटी। राजा के देखते-देखते सोने के उस हार को खूंटी निगल गई।
सेठ ने कमरे में लौटकर हार को गायब देखा तो चोरी का संदेह राजा पर ही किया क्योंकि उस कमरे में राजा ही अकेला बैठा था। सेठ ने अपने नौकरों से कहा कि इस परदेसी को रस्सियों से बांधकर नगर के राजा के पास ले चलो।
राजा ने विक्रमादित्य से हार के बारे में पूछा तो उसने बताया कि उसके देखते ही देखते खूंटी ने हार को निगल लिया था। इस पर राजा ने क्रोधित होकर चोरी करने के अपराध में विक्रमादित्य के हाथ-पांव काटने का आदेश दे दिया। राजा विक्रमादित्य के हाथ-पांव काटकर उसे नगर की सड़क पर छोड़ दिया गया।
कुछ दिन बाद एक तेली उसे उठाकर अपने घर ले गया और उसे अपने कोल्हू पर बैठा दिया। राजा आवाज देकर बैलों को हांकता रहता। इस तरह तेली का बैल चलता रहा और राजा को भोजन मिलता रहा। शनि के प्रकोप की साढ़े साती पूरी होने पर वर्षा ऋतु प्रारंभ हुई।
राजा विक्रमादित्य एक रात मेघ मल्हार गा रहा था कि तभी नगर के राजा की लड़की राजकुमारी मोहिनी रथ पर सवार उस तेली के घर के पास से गुजरी। उसने मेघ मल्हार सुना तो उसे बहुत अच्छा लगा और दासी को भेजकर गाने वाले को बुला लाने को कहा।
दासी ने लौटकर राजकुमारी को अपंग राजा के बारे में सब कुछ बता दिया। राजकुमारी उसके मेघ मल्हार से बहुत मोहित हुई। अतः उसने सब कुछ जानकर भी अपंग राजा से विवाह करने का निश्चय कर लिया।
राजकुमारी ने अपने माता-पिता से जब यह बात कही तो वे हैरान रह गए। रानी ने मोहिनी को समझाया- 'बेटी! तेरे भाग्य में तो किसी राजा की रानी होना लिखा है। फिर तू उस अपंग से विवाह करके अपने पांव पर कुल्हाड़ी क्यों मार रही है?'
राजकुमारी ने अपनी जिद नहीं छोड़ी। अपनी जिद पूरी कराने के लिए उसने भोजन करना छोड़ दिया और प्राण त्याग देने का निश्चय कर लिया।
आखिर राजा-रानी को विवश होकर अपंग विक्रमादित्य से राजकुमारी का विवाह करना पड़ा। विवाह के बाद राजा विक्रमादित्य और राजकुमारी तेली के घर में रहने लगे। उसी रात स्वप्न में शनि देव ने राजा से कहा- 'राजा तुमने मेरा प्रकोप देख लिया।
मैंने तुम्हें अपने अपमान का दंड दिया है।' राजा ने शनि देव से क्षमा करने को कहा और प्रार्थना की- 'हे शनि देव! आपने जितना दुःख मुझे दिया है, अन्य किसी को न देना।'
शनि देव ने कुछ सोचकर कहा- 'राजा! मैं तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार करता हूँ। जो कोई स्त्री-पुरुष मेरी पूजा करेगा, शनिवार को व्रत करके मेरी व्रतकथा सुनेगा, उस पर मेरी अनुकंपा बनी रहेगी।
प्रातःकाल राजा विक्रमादित्य की नींद खुली तो अपने हाथ-पांव देखकर राजा को बहुत खुशी हुई। उसने मन ही मन शनि देव को प्रणाम किया। राजकुमारी भी राजा के हाथ-पांव सही-सलामत देखकर आश्चर्य में डूब गई। तब राजा विक्रमादित्य ने अपना परिचय देते हुए शनि देव के प्रकोप की सारी कहानी सुनाई।
सेठ को जब इस बात का पता चला तो दौड़ता हुआ तेली के घर पहुंचा और राजा के चरणों में गिरकर क्षमा मांगने लगा। राजा ने उसे क्षमा कर दिया क्योंकि यह सब तो शनि देव के प्रकोप के कारण हुआ था।
सेठ राजा को अपने घर ले गया और उसे भोजन कराया। भोजन करते समय वहां एक आश्चर्यजनक घटना घटी। सबके देखते-देखते उस खूंटी ने हार उगल दिया। सेठ जी ने अपनी बेटी का विवाह भी राजा के साथ कर दिया और बहुत से स्वर्ण-आभूषण, धन आदि देकर राजा को विदा किया।
राजा विक्रमादित्य राजकुमारी मोहिनी और सेठ की बेटी के साथ उज्जयिनी पहुंचे तो नगरवासियों ने हर्ष से उनका स्वागत किया। अगले दिन राजा विक्रमादित्य ने पूरे राज्य में घोषणा कराई कि शनि देव सब देवों में सर्वश्रेष्ठ हैं। प्रत्येक स्त्री-पुरुष शनिवार को उनका व्रत करें और व्रतकथा अवश्य सुनें।
राजा विक्रमादित्य की घोषणा से शनि देव बहुत प्रसन्न हुए। शनिवार का व्रत करने और व्रत कथा सुनने के कारण सभी लोगों की मनोकामनाएं शनि देव की अनुकंपा से पूरी होने लगीं। सभी लोग आनंदपूर्वक रहने लगे।
नीलांजनं समाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम्।
छायामार्तण्ड संभूतं तं नमामि शनैश्चरम्॥
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