Friday, November 22, 2024

आदित्यहृदयम् वाल्मिकीरामायणान्तर्गतम्

आदित्यहृदयम् वाल्मिकीरामायणान्तर्गतम् 


आदित्यहृदयम् सूर्य की स्तुति के मंत्र हैं। ये मंत्र वाल्मीकि रामायण के युद्ध काण्ड (काण्ड - ६) में आये हैं। जब राम, रावण से युद्ध के लिये रणक्षेत्र में खड़े हैं उस समय अगस्त्य ऋषि ने राम को सूर्य की स्तुति करने की सलाह देते हुए ये मंत्र कहे हैं। रावण के विभिन्न योद्धाओं से लड़ते हुए राम थके हुए हैं और फिर रावण के सम्मुख युद्ध के लिये उद्यत हैं तब अगस्त्य ऋषि उन्हें सूर्य की उपासना करने की शिक्षा देते हैं और कहते हैं कि आप सूर्य की उपासना करें जिससे आप सभी शत्रुओं का नाश कर पायेंगे और सभी प्रकार का मंगल होगा।


संरचना : आदित्यहृदयम् में कुल ३० श्लोक हैं जिनको ६ भागों में बांत सकते हैं -
1-2 : अगस्त्य ऋषि का राम के पास आना
3-5 : अगस्त्य ऋषि आदित्यहृदयम् की महानता तथा इसके पाठ का महात्म्य बताते हैं।
6-15 : आदित्य को 'सर्वदेवात्मक' बताना। इनको सविता (जगत को उत्पन्न करने वाला), सूर्य (सर्वव्यापक), पूषा (पोषण करने वाले), भानु (प्रकाशक), हिरण्यरेता (ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के बीज), शम्भू (कल्याण के उदगमस्थान), शिशिर (स्वभाव से ही सुख देने वाले), तपन (गर्मी पैदा करने वाले), घनवृष्टि (घन वृष्टि के कारण), अपां मित्र (जल को उत्पन्न करने वाले), आतपी (घाम उत्पन्न करने वाले), सर्वतापन (सबको ताप देने वाले), सर्वभवोदभव (सबकी उत्पत्ति के कारण), विश्वभावन (जगत की रक्षा करने वाले) आदि बताकर उनको नमस्कार किया गया है।
16-20 : मन्त्र जप
21-24 : आदित्य का नमन
25-30 : इस स्तोत्र के फलों का वर्णन, पाठ करने की विधि, राम द्वारा रणक्षेत्र में विजय प्राप्ति के आशीर्वाद के लिए आदित्य के आवाहन की विधि II

II आदित्यहृदय स्तोत्रपाठ II

विनियोग :- ॐ अस्य श्रीआदित्यहृदयस्तोत्रमन्त्रस्य श्रीअगस्त्यऋषिः ।
अनुष्टुप्छन्दः । श्रीआदित्यहृदयभूतो भगवान् ब्रह्मा देवताः ।
ॐ बीजम् । रश्मिमतेरिति शक्तिः । ॐ तत्सवितुरित्यादिगायत्री कीलकम् ।
निरस्ताशेषविघ्नतया ब्रह्मविद्यासिद्धौ सर्वत्र जयसिद्धौ च विनियोगः II

अथ ऋष्यादिन्यासः ॥
ॐ अगस्त्यऋषये नमः शिरसि ।
अनुष्टुप्छन्दसे नमः मुखे ।
आदित्यहृदयभूतब्रह्मदेवतायै नमः। हृदि ।
ॐ बीजाय नमः गुह्ये ।
ॐ रश्मिमते शक्तये नमः पादयोः ।
ॐ तत्सवितुरित्यादिगायत्री कीलकाय नमः नाभौ ।
विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे ।
इति ऋष्यादिन्यासः ॥

अथ करन्यासः ॥
ॐ रश्मिमते अङ्गुष्ठाभ्यां नमः ।
ॐ समुद्यते तर्जनीभ्यां नमः ।
ॐ देवासुरनमस्कृताय मध्यमाभ्यां नमः ।
ॐ विवस्वते अनामिकाभ्यां नमः ।
ॐ भास्कराय कनिष्ठिकाभ्यां नमः ।
ॐ भुवनेश्वराय करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।
इति करन्यासः ॥

अथ हृदयादिषडङ्ग न्यासः ॥
ॐ रश्मिमते हृदयाय नमः ।
ॐ समुद्यते शिरसे स्वाहा ।
ॐ देवासुरनमस्कृताय शिखायै वषट् ।
ॐ विवस्वते कवचाय हुम् ।
ॐ भास्कराय नेत्रत्रयाय वौषट् ।
ॐ भुवनेश्वराय अस्त्राय फट् ।
इति हृदयादिषडङ्ग न्यासः ॥

॥ अथ आदित्यहृदयम् ॥
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ततो युद्धपरिश्रान्तं समरे चिन्तया स्थितम्।
रावणं चाग्रतो दृष्ट्वा युद्धाय समुपस्थितम्॥१॥
दैवतैश्च समागम्य द्रष्टुमभ्यागतो रणम्।
उपागम्याब्रवीद्राममगस्त्यो भगवानृषिः॥२॥
अर्थ:- उधर श्रीरामचन्द्रजी युद्ध से थककर चिन्ता करते हुए रणभूमि में खड़े हुए थे। इतने में रावण भी युद्ध के लिए उनके सामने उपस्थित हो गया। यह देख भगवान् अगस्त्य मुनि, जो देवताओं के साथ युद्ध देखने के लिए आये थे, श्रीराम के पास जाकर बोले~

राम राम महाबाहो शृणु गुह्यं सनातनम्।
येन सर्वानरीन् वत्स समरे विजयिष्यसि॥३॥
अर्थ:- सबके हृदय में रमण करने वाले महाबाहो राम ! यह सनातन गोपनीय स्तोत्र सुनो! वत्स! इसके जप से तुम युद्ध में अपने समस्त शत्रुओं पर विजय पा जाओगे।

आदियहृदयं पुण्यं सर्वशत्रुविनाशनम्।
जयावहं जपेन्नित्यमक्षय्यं परमं शिवम्॥४॥
सर्वमंगलमांगल्यं सर्वपापप्रणाशनम्।
चिन्ताशोकप्रशमनमायुर्वर्धनमुत्तमम्॥५॥
अर्थ:- इस गोपनीय स्तोत्र का नाम है ‘आदित्यहृदय’। यह परम पवित्र और सम्पूर्ण शत्रुओं का नाश करने वाला है। इसके जप से सदा विजय कि प्राप्ति होती है। यह नित्य अक्षय और परम कल्याणमय स्तोत्र है। सम्पूर्ण मंगलों का भी मंगल है। इससे सब पापों का नाश हो जाता है। यह चिंता और शोक को मिटाने तथा आयु का बढ़ाने वाला उत्तम साधन है।

रश्मिमन्तं समुद्यन्तं देवासुरनमस्कृतम्।
पूजयस्व विवस्वन्तं भास्करं भुवनेश्वरम्॥६॥
अर्थ:- भगवान् सूर्य अपनी अनन्त किरणों से सुशोभित हैं। ये नित्य उदय होने वाले, देवता और असुरों से नमस्कृत, विवस्वान नाम से प्रसिद्ध, प्रभा का विस्तार करने वाले और संसार के स्वामी हैं। तुम इनका रश्मिमन्ते नमः, समुद्यन्ते नमः, देवासुरनमस्कृताये नमः, विवस्वते नमः, भास्कराय नमः, भुवनेश्वराये नमः इन मन्त्रों के द्वारा पूजन करो।

सर्वदेवात्मको ह्येष तेजस्वी रश्मिभावनः।
एष देवासुरगणाँल्लोकान् पाति गभस्तिभिः॥७॥
अर्थ:- सम्पूर्ण देवता इन्ही के स्वरुप हैं। ये तेज की राशि तथा अपनी किरणों से जगत को सत्ता एवं स्फूर्ति प्रदान करने वाले हैं। ये अपनी रश्मियों का प्रसार करके देवता और असुरों सहित समस्त लोकों का पालन करने वाले हैं।

एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिवः स्कन्दः प्रजापतिः।
महेन्द्रो धनदः कालो यमः सोमो ह्यपां पतिः॥८॥
पितरो वसवः साध्या ह्यश्विनौ मरुतो मनुः।
वायुर्वह्निः प्रजा प्राण ऋतुकर्ता प्रभाकरः॥९॥
अर्थ:- ये ही ब्रह्मा, विष्णु शिव, स्कन्द, प्रजापति, इन्द्र, कुबेर, काल, यम, चन्द्रमा, वरुण, पितर , वसु, साध्य, अश्विनीकुमार, मरुदगण, मनु, वायु, अग्नि, प्रजा, प्राण, ऋतुओं को प्रकट करने वाले तथा प्रकाश के पुंज हैं।

आदित्यः सविता सूर्यः खगः पूषा गभस्तिमान्।
सुवर्णसदृशो भानुर्हिरण्यरेता दिवाकरः॥१०॥
हरिदश्वः सहस्रार्चिः सप्तसप्तिर्मरीचिमान्।
तिमिरोन्मथनः शम्भुस्त्वष्टा मार्तान्ड अम्शुमान्॥११॥
हिरण्यगर्भः शिशिरस्तपनो भास्करो रविः।
अग्निगर्भोऽदितेः पुत्रः शंखः शिशिरनाशनः॥१२॥
व्योमनाथस्तमोभेदी ऋग्यजुस्सामपारगः।
घनवृष्टिरपां मित्रो विन्ध्यवीथीप्लवंगमः॥१३॥
आतपी मण्डली मृत्युः पिंगलः सर्वतापनः।
कविर्विश्वो महातेजा रक्तः सर्वभवोद्भवः॥१४॥
नक्षत्रग्रहताराणामधिपो विश्वभावनः।
तेजसामपि तेजस्वी द्वादशात्मन्नमोऽस्तु ते॥१५॥
अर्थ:- इनके नाम हैं आदित्य (अदितिपुत्र), सविता(जगत को उत्पन्न करने वाले), सूर्य (सर्वव्यापक), खग, पूषा(पोषण करने वाले), गभस्तिमान (प्रकाशमान), सुवर्णसदृश्य, भानु (प्रकाशक), हिरण्यरेता (ब्रह्मांड कि उत्पत्ति के बीज), दिवाकर (रात्रि का अन्धकार दूर करके दिन का प्रकाश फैलाने वाले), हरिदश्व, सहस्रार्चि (हजारों किरणों से सुशोभित), सप्तसप्ति (सात घोड़ों वाले), मरीचिमान (किरणों से सुशोभित), तिमिरोमंथन (अन्धकार का नाश करने वाले), शम्भू, त्वष्टा, मार्तण्डक (ब्रह्माण्ड को जीवन प्रदान करने वाले), अंशुमान, हिरण्यगर्भ (ब्रह्मा), शिशिर(स्वभाव से ही सुख प्रदान करने वाले), तपन(गर्मी पैदा करने वाले), अहस्कर, रवि, अग्निगर्भ(अग्नि को गर्भ में धारण करने वाले), अदितिपुत्र, शंख, शिशिरनाशन(शीत का नाश करने वाले), व्योमनाथ (आकाश के स्वामी), तमभेदी, ऋग, यजु और सामवेद के पारगामी, धनवृष्टि, अपाम मित्र (जल को उत्पन्न करने वाले), विंध्यवीथिप्लवंगम (आकाश में तीव्र वेग से चलने वाले), आतपी, मंडली, मृत्यु, पिंगल(भूरे रंग वाले), सर्वतापन (सबको ताप देने वाले), कवि, विश्व, महातेजस्वी, रक्त, सर्वभवोद्भव (सबकी उत्पत्ति के कारण), नक्षत्र, ग्रह और तारों के स्वामी, विश्वभावन (जगत कि रक्षा करने वाले), तेजस्वियों में भी अति तेजस्वी और द्वादशात्मा हैं। इन सभी नामो से प्रसिद्ध सूर्यदेव! आपको नमस्कार है।

नमः पूर्वाय गिरये पश्चिमायाद्रये नमः।
ज्योतिर्गणानां पतये दिनाधिपतये नमः॥१६॥
अर्थ:- पूर्वगिरि उदयाचल तथा पश्चिमगिरि अस्ताचल के रूप में आपको नमस्कार है। ज्योतिर्गणों (ग्रहों और तारों) के स्वामी तथा दिन के अधिपति आपको प्रणाम है।

जयाय जयभद्राय हर्यश्वाय नमो नमः।
नमो नमः सहस्राम्शो आदित्याय नमो नमः॥१७॥
अर्थ:- आप जयस्वरूप तथा विजय और कल्याण के दाता हैं। आपके रथ में हरे रंग के घोड़े जुते रहते हैं। आपको बारबार नमस्कार है। सहस्रों किरणों से सुशोभित भगवान् सूर्य ! आपको बारम्बार प्रणाम है। आप अदिति के पुत्र होने के कारण आदित्य नाम से भी प्रसिद्ध हैं, आपको नमस्कार है।

नम उग्राय वीराय सारंगाय नमो नमः।
नमः पद्मप्रबोधाय मार्ताण्डाय नमो नमः॥१८॥
अर्थ:- उग्र, वीर, और सारङ्ग सूर्यदेव को नमस्कार है। कमलों को विकसित करने वाले प्रचण्ड तेजधारी मार्तण्ड को प्रणाम है।

ब्रह्मेशानाच्युतेशाय सूर्यायादित्यवर्चसे।
भास्वते सर्वभक्षाय रौद्राय वपुषे नमः॥१९॥
अर्थ:- आप ब्रह्मा, शिव और विष्णु के भी स्वामी है। सूर आपकी संज्ञा है, यह सूर्यमंडल आपका ही तेज है, आप प्रकाश से परिपूर्ण हैं, सबको स्वाहा कर देने वाली अग्नि आपका ही स्वरुप है, आप रौद्ररूप धारण करने वाले हैं, आपको नमस्कार है।

तमोघ्नाय हिमघ्नाय शत्रुघ्नायामितात्मने।
कृतघ्नघ्नाय देवाय ज्योतिषां पतये नमः॥२०॥
अर्थ:- आप अज्ञान और अन्धकार के नाशक, जड़ता एवं शीत के निवारक तथा शत्रु का नाश करने वाले हैं। आपका स्वरुप अप्रमेय है। आप कृतघ्नों का नाश करने वाले, सम्पूर्ण ज्योतियों के स्वामी और देवस्वरूप हैं, आपको नमस्कार है।

तप्तचामीकराभाय वह्नये विश्वकर्मणे।
नमस्तमोऽभिनिघ्नाय रवये लोकसाक्षिणे॥२१॥
अर्थ:- आपकी प्रभा तपाये हुए सुवर्ण के समान है, आप हरि और विश्वकर्मा हैं, तम के नाशक, प्रकाशस्वरूप और जगत के साक्षी हैं, आपको नमस्कार है I

नाशयत्येष वै भूतं तदेव सृजति प्रभुः।
पायत्येष तपत्येष वर्षत्येष गभस्तिभिः॥२२॥
अर्थ:- रघुनन्दन! ये भगवान् सूर्य ही सम्पूर्ण भूतों का संहार, सृष्टि और पालन करते हैं। ये अपनी किरणों से गर्मी पहुंचाते और वर्षा करते हैं।

एष सुप्तेषु जागर्ति भूतेषु परिनिष्ठितः।
एष एवाग्निहोत्रं च फलं चैवाग्निहोत्रिणाम्॥२३॥
अर्थ:- ये सब भूतों में अन्तर्यामी रूप से स्थित होकर उनके सो जाने पर भी जागते रहते हैं। ये ही अग्निहोत्र तथा अग्निहोत्री पुरुषों को मिलने वाले फल हैं।

वेदाश्च क्रतवश्चैव क्रतूनां फलमेव च।
यानि कृत्यानि लोकेषु सर्व एष रविः प्रभुः॥२४॥
अर्थ:- देवता, यज्ञ और यज्ञों के फल भी ये ही हैं। संपूर्ण लोकों में जितनी क्रियाएँ होती हैं उन सबका फल देने में ये ही पूर्ण समर्थ हैं।

एनमापत्सु कृच्छ्रेषु कान्तारेषु भयेषु च।
कीर्तयन् पुरुषः कश्चिन्नावसीदति राघव॥२५॥
अर्थ:- राघव ! विपत्ति में, कष्ट में, दुर्गम मार्ग में तथा और किसी भय के अवसर पर जो कोई पुरुष इन सूर्यदेव का कीर्तन करता है, उसे दुःख नहीं भोगना पड़ता।

पूजसस्वैनमेकाग्रो देवदेवं जगत्पतिम्।
एतत्त्रिगुणितं जप्त्वा युद्धेषु विजयिष्यसि॥२६॥
अर्थ:- इसलिए तुम एकाग्रचित होकर इन देवाधिदेव जगदीश्वर कि पूजा करो। इस आदित्यहृदय का तीन बार जप करने से तुम युद्ध में विजय पाओगे।

अस्मिन् क्षणे महाबाहो रावणं त्वं वधिष्यसि।
एवमुक्त्वा तदाऽगस्त्यो जगाम च यथागतम्॥२७॥
अर्थ:- महाबाहो ! तुम इसी क्षण रावण का वध कर सकोगे। यह कहकर अगस्त्यजी जैसे आये थे वैसे ही चले गए।

एतच्छ्रुत्वा महातेजा नष्टशोकोऽभवत् तदा।
धारयामास सुप्रीतो राघवः प्रयतात्मवान्॥२८॥
आदित्यं प्रेक्ष्य जप्त्वा तु परं हर्षमवाप्तवान्।
त्रिराचम्य शुचिर्भूत्वा धनुरादाय वीर्यवान्॥२९॥
रावणं प्रेक्ष्य हृष्टात्मा युद्धाय समुपागमत्।
सर्वयत्नेन महता वधे तस्य धृतोऽभवत्॥३०॥
अर्थ:- उनका उपदेश सुनकर महातेजस्वी श्रीरामचन्द्रजी का शोक दूर हो गया। उन्होंने प्रसन्न होकर शुद्धचित्त से आदित्यहृदय को धारण किया और तीन बार आचमन करके शुद्ध हो भगवान् सूर्य की और देखते हुए इसका तीन बार जप किया। इससे उन्हें बड़ा हर्ष हुआ। फिर परम पराक्रमी रघुनाथ जी ने धनुष उठाकर रावण की और देखा और उत्साहपूर्वक विजय पाने के लिए वे आगे बढे। उन्होंने पूरा प्रयत्न करके रावण के वध का निश्चय किया।

अथ रविरवदन्निरीक्ष्य रामं मुदितमनाः परमं प्रहृष्यमाणः।
निशिचरपतिसम्क्षयं विदित्वा सुरगणमध्यगतो वचस्त्वरेति॥३१॥
अर्थ:- उस समय देवताओं के मध्य में खड़े हुए भगवान् सूर्य ने प्रसन्न होकर श्रीरामचन्द्रजी की और देखा और निशाचरराज रावण के विनाश का समय निकट जानकर हर्षपूर्वक कहा – ‘रघुनन्दन! अब जल्दी करो’।

॥ इति आदित्यहृदयं मन्त्रम् ॥



II निरोग-कारी आदित्य-हृदय II [ पद्मपुराणान्तर्गतम् ]

‘आदित्य-हृदय’ का प्रयोग करने की विधि यह है की प्रातः-काल नींद खुलते ही शैय्या पर बैठे-बैठे ही भगवान् सूर्य के बारह नामों का पाठ करे। यथा -

आदित्यः प्रथमं नाम, द्वितीयं तु दिवाकरः।
तृतीयं भास्करः प्रोक्तं, चतुर्थं च प्रभा-करः।।
पञ्चममं च सहस्रांशुः, षष्ठं चैव त्रि-लोचनः।
सप्तमं हरिदश्वं च, अष्टमं तु अहर्पतिः।।
नवमं दिन-करः प्रोक्तं दशमं द्वादशात्मकः।
एकादशं त्रि-मूर्तिश्च, द्वादशं सूर्य एव तु।।

।।फल-श्रुति।।
द्वादशादित्य-नामानि, प्रातः-काले पठेन्नरः।
दुःस्वप्नो नश्यते तस्य, सर्व-दुःखं च नश्यति।।
दद्रु-कुष्ठं-हरं चैव, दारिद्रयं हरते ध्रुवम्।
सर्व-तीर्थ-करं चैव, सर्व-काम-फल-प्रदम।।
यः पठेत् प्रातरुत्थाय, भक्त्या स्तोत्रमिदं नरः।
सौख्यमायुस्तथारोग्यं, लभते मोक्षमेव च।।
- इस प्रकार स्तोत्र पाठ कर पूर्व दिशा की ओर हाथ जोड़कर १२ नामों से भगवान् सूर्य को नमस्कार करे। यथा - १ ॐ आदित्याय नमः, २ ॐ दिवाकराय नमः, ३ ॐ भास्कराय नमः, ४ प्रभाकराय नमः, ५ सहस्रांशवे नमः, ६ ॐ त्रिलोचनाय नमः, ७ ॐ हरिदश्वाय नमः, ८ विभावसवे नमः, ९ ॐ दिनकराय नमः, १० ॐ द्वादशात्मकाय नमः, ११ ॐ त्रिमूर्तये नमः, १२ ॐ सूर्याय नमः।

इसके बाद पृथ्वी को नमस्कार कर शैय्या से नीचे उतरे और नित्य कर्म से निवृत्त होकर प्रातः-काल अपनी नित्योपासना के बाद निम्न प्रकार ‘आदित्य-हृदय’ के न्यास-प्रयोग को करे। पहले हाथ जोड़कर विनियोग पढ़े।

विनियोग- ॐ अस्य श्री आदित्य-हृदय-स्तोत्र-मन्त्रस्य श्रीकृष्ण ऋषिः, अनुष्टुप छन्दः, श्री सूर्य-नारायणो देवता, हरित-हय-रथं दिवाकरं घृणिरिति बीजं, नमो भगवते जित-वैश्वानर जात-वेदसे नमः इति शक्तिः, अंशुमानिति कीलकं, अग्नि कर्म इति मन्त्रः। सर्व-रोग-निवारणाय श्री सूर्यनारायण-प्रीत्यर्थे जपे विनियोगः II

॥ स्तवः ॥
अर्कं तु मूर्ध्नि विन्यस्य ललाटे तु रविं न्यसेत् ।
विन्यसेत् करयोः सूर्यं कर्णयोश्च दिवाकरम् ॥

नासिकायां न्यसेत् भानुं मुखे वै भास्करं न्यसेत् ।
पर्जन्यमोष्ठयोश्चैव तीक्ष्णं जिह्वान्तरे न्यसेत् ॥

सुवर्णरेतसं कण्ठे स्कन्धयोस्तिग्मतेजसम् ।
बाह्वोस्तु पूषणं चैव मित्रं वै पृष्ठतो न्यसेत् ॥

वरुणं दक्षिणे हस्ते त्वष्टारं वामतः करे ।
हस्तावुष्णकरः पातु हृदयं पातु भानुमान् ॥

स्तनभारं महातेजा आदित्यमुदरे न्यसेत् ।
पृष्ठे त्वर्घमणं विद्यादादित्यं नाभिमण्डले ॥

कट्यां तु विन्यसेद्धंसं रुद्रमूर्वो विन्यसेत् ।
जान्होस्तु गोपतिं न्यस्य सवितारं तु जङ्घयोः ॥

पादयोस्तु विवस्वन्तं गुल्फयोश्च प्रभाकरम् ।
सर्वाङ्गेषु सहस्रांशु दिग्विदिक्षु भगं न्यसेत् ॥

बाह्यतस्तु तमोघ्नंसं भगमभ्यन्तरे न्यसेत् ।
एष आदित्यविन्यासो देवानामपि दुर्लभः ॥

॥ न्यासम् ॥ अब निम्न प्रकार ‘न्यास’ करे -
मूर्घ्नि अर्काय नमः। ललाटे रवये नमः।
करयोः सूर्याय नमः। कर्णयो दिवाकराय नमः।
नासिकायां भानवे नमः। मुखे भास्कराय नमः।
ओष्ठयोः पर्जन्याय नमः। जिह्वायां तीक्ष्णाय नमः।
कण्ठे सुवर्ण-रेतसे नमः। स्कन्धयोः तिग्म-तेजसे नमः।
बाह्वोः पूषणाय नमः। पृष्ठे मित्राय नमः।
दक्ष-हस्ते वरुणाय नमः। वाम-हस्ते त्वष्टारं नमः।
हस्तौ उष्ण-कराय नमः। हृदये भानुमते नमः।
स्तनयोः महा-तेजसे नमः। उदरे आदित्याय नमः।
पृष्ठे अर्घमणाय नमः। नाभौ आदित्याय नमः।
कटयां हंसाय नमः। ऊर्वोः रुद्राय नमः।
जाह्नोः गोपतये नमः। जंघयोः सवित्रे नमः।
पादयोः चिचस्वते नमः। गुल्फयोः प्रभाकराय नमः।
सर्वांगे सहस्रांशवे नमः। दिग्-विदिक्षु भगाय नमः।
बाह्ये तमोघ्नंसाय नमः। अभ्यन्तरे भगाय नमः।

॥ ध्यानम् ॥ - इस प्रकार न्यास कर हाथ जोड़कर सूर्य भगवान् का ध्यान करे।

भास्वद्-रत्नाढय-मौलिः स्फुरदधर-रुचा-रञ्जितश्चारु-केशो,
भास्वान् यो दिव्य-तेजाः कर-कमल-युतः स्वर्ण-वर्णः प्रभाभिः।
विश्वाकाशावकाशो ग्रह-ग्रहण-सहितो भाति यश्चोदयाद्रौ,
सर्वानन्द-प्रदाता हरि-हर-नमितः पातु मां विश्व-चक्षुः।।

॥ अर्घ्यम् ॥ - इस प्रकार ध्यान कर निम्न मन्त्र से सूर्य भगवान् के प्रति तीन अञ्जलि जल किसी पात्र में अर्घ्य-रुप प्रदान करे।
एहि सूर्य सहस्रांशो, तेजो-राशिः जगत्-पते!
अनुकम्पय मां भक्त्या, गृहाणार्घ्यं दिवाकर!
फिर भगवान् सूर्य के मन्त्र का कम से कम ११ बार जप करे।
यथा- “ॐ घृणिः सूर्य आदित्य।” मन्त्र का जप कर चुकने पर ----

॥ सूर्यस्तुतिः ॥ - निम्न ‘सूर्य-स्तुति’ का पाठ हाथ जोड़कर करे -

अग्निमीले नमस्तुभ्यमीषत्-तूर्य-स्वरुपिणे।
अग्न आयाहि वीतये त्वं नमस्ते ज्योतिषां पते।।
शन्नो देवो नमस्तुभ्यं, जगच्चक्षुर्नमोऽस्तु ते।
धवलाम्भोरुहणं डाकिनीं श्यामल-प्रभाम्।।
विश्व-दीप! नमस्तुभ्यं, नमस्ते जगदात्मने।
पद्मासनः पद्म-करः, पद्म-गर्भ-सम-द्युतिः।।
सप्ताश्व-रथ-संयुक्तो, द्वि-भुजो भास्करो रविः।
आदित्यस्य नमस्कारं, ये कुर्वन्ति दिने दिने।।
जन्मान्तर-सहस्रेषु, दारिद्रयं नोपजायते।
नमो धर्म-विपाकाय, नमः सुकृत-साक्षिणे।।
नमः प्रत्यक्ष-देवाय, भास्कराय नमो नमः।
उदय-गिरिमुपेतं, भास्करं पद्म-हस्तं।
सकल-भुवन-रत्नं, रत्न-रत्नाभिधेयम्।
तिमिर-करि-मृगेन्द्रं, बोधकं पद्मिनीनां।
सुर-वरमभि-वन्दे, सुन्दरं विश्व-रुपम्।।
अन्यथा शरणं नास्त, त्वमेव शरणं मम।
तस्मात् कारुण्य-भावेन, रक्षस्व परमेश्वर!।।

।।श्रीपद्म-पुराणे श्रीकृष्णार्जुन-सम्वादे आदित्य-हृदय-स्तोत्रम् ।।

आदित्यहृदयम्

भविष्योत्तरपुराणान्तर्गतम्

श्रीगणेशाय नमः ।

अथ आदित्यहृदयम् ।
शतानीक उवाच ।
कथमादित्यमुद्यन्तमुपतिष्ठेद्विजोत्तमः ।
एतन्मेब्रूहि विप्रेन्द्र प्रपद्ये शरणं तव ॥ १॥

सुमन्तुरुवाच ।
इदमेव पुरा पृष्टः शङ्खचक्रगदाधरः ।
प्रणम्य शिरसा देवमर्जुनेन महात्मना ॥ २॥

कुरुक्षेत्रे महाराजप्रवृत्ते भारते रणे ।
कृष्णनाथं समासाद्य प्रार्थयित्वाब्रवीदिदम् ॥ ३॥

अर्जुन उवाच ।
ज्ञानं च धर्मशास्त्राणां गुह्याद्गुह्यतरं तथा ।
मम कृष्ण परिज्ञातं वाङ्मयं सचराचरम् ॥ ४॥

सूर्यस्तुतिमयं न्यासं वक्तुमर्हसि माधव ।
भक्त्या पृच्छामि देवेश कथयस्व प्रसादतः ॥ ५॥

सूर्यभक्तिं करिष्यामि कथं सूर्यं प्रपूजयेत् ।
तदहं श्रोतुमिच्छामि त्वत्प्रसादेन यादव ॥ ६॥

श्रीभगवानुवाच ।
रुद्रादिदैवतैः सर्वैः पृष्टेन कथितं मया ।
वक्ष्येऽहं सूर्यविन्यासं शृणु पाण्डव यत्नतः ॥ ७॥

अस्माकं यत्त्वया पृष्टमेकचित्तो भवार्जुन ।
तदहं सम्प्रवक्ष्यामि आदिमध्यावसानकम् ॥ ८॥

अर्जुन उवाच ।
नारायण सुरश्रेष्ठ पृच्छामि त्वां महायशः ।
कथमादित्यमुद्यन्तमुपतिष्ठेत्सनातनम् ॥ ९॥

श्रीभगवानुवाच ।
साधु पार्थ महाबाहो बुद्धिमानसि पाण्डव ।
यन्मां पृच्छस्युपस्थानं तत्पवित्रं विभावसोः ॥ १०॥

सर्वमङ्गलमाङ्गल्यं सर्वपापप्रणाशनम् ।
सर्वरोगप्रशमनमायुर्वर्धनमुत्तमम् ॥ ११॥

अमित्रदमनं पार्थ सङ्ग्रामे जयवर्धनम् ।
वर्धनं धनपुत्राणामादित्यहृदयं शृणु ॥ १२॥

यच्छ्रुत्वा सर्वपापेभ्यो मुच्यते नात्र संशयः ।
त्रिषु लोकेषु विख्यातं निःश्रेयसकरं परम् ॥ १३॥

देवदेवं नमस्कृत्य प्रातरुत्थाय चार्जुन ।
विघ्नान्यनेकरूपाणि नश्यन्ति स्मरणादपि ॥ १४॥

तस्मात्सर्वप्रयत्नेन सूर्यमावाहयेत् सदा ।
आदित्यहृदयं नित्यं जाप्यं तच्छृणु पाण्डव ॥ १५॥

यज्जपान्मुच्यते जन्तुर्दारिद्र्यादाशु दुस्तरात् ।
लभते च महासिद्धिं कुष्ठव्याधिविनाशिनीम् ॥ १६॥

अस्मिन्मन्त्रे ऋषिश्छन्दो देवताशक्तिरेव च ।
सर्वमेव महाबाहो कथयामि तवाग्रतः ॥ १७॥

मया ते गोपितं न्यासं सर्वशास्त्रप्रबोधितम् ।
अथ ते कथयिष्यामि उत्तमं मन्त्रमेव च ॥ १८॥

ॐ अस्य श्रीआदित्यहृदयस्तोत्रमन्त्रस्य श्रीकृष्ण ऋषिः ।
श्रीसूर्यात्मा त्रिभुवनेश्वरो देवता अनुष्टुप्छन्दः ।
हरितहयरथं दिवाकरं घृणिरिति बीजम् ।
ॐ नमो भगवते जितवैश्वानरजातवेदसे इति शक्तिः ।
ॐ नमो भगवते आदित्याय नमः इति कीलकम् ।
ॐ अग्निगर्भदेवता इति मन्त्रः ।
ॐ नमो भगवते तुभ्यमादित्याय नमोनमः ।
श्रीसूर्यनारायणप्रीप्यथं जपे विनियोगः ।
अथ न्यासः ।
ॐ ह्रां अङ्गुष्ठाभ्यां नमः ।
ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः ।
ॐ ह्रूं मध्यमाभ्यां नमः ।
ॐ ह्रैं अनामिकाभ्यां नमः ।
ॐ ह्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः ।
ॐ ह्रः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।
ॐ ह्रां हृदयाय नमः ।
ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा ।
ॐ ह्रूं शिखाय वषट् ।
ॐ ह्रैं कवचाय हुम्
ॐ ह्रौं नेत्रत्रयाय वौषट् ।
ॐ ह्रः अस्त्राय फट् ।
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्रः इति दिग्बन्धः ॥

अथ ध्यानम् ॥

भास्वद्रत्नाढ्यमौलिः स्फुरदधररुचा रञ्जितश्चारुकेशो
भास्वान्यो दिव्यतेजाः करकमलयुतः स्वर्णवर्णः प्रभाभिः ।
विश्वाकाशावकाशग्रहपतिशिखरे भाति यश्चोदयाद्रौ
सर्वानन्दप्रदाता हरिहरनमितः पातु मां विश्वचक्षुः ॥ १॥

पूर्वमष्टदलं पद्मं प्रणवादिप्रतिष्ठितम् ।
मायाबीजं दलाष्टाग्रे यन्त्रमुद्धारयेदिति ॥ २॥

आदित्यं भास्करं भानुं रविं सूर्यं दिवाकरम् ।
मार्तण्डं तपनं चेति दलेष्वष्टसु योजयेत् ॥ ३॥

दीप्ता सूक्ष्मा जया भद्रा विभूतिर्विमला तथा ।
अमोघा विद्युता चेति मध्ये श्रीः सर्वतो मुखी ॥ ४॥

सर्वज्ञः सर्वगश्चैव सर्वकारणदेवता ।
सर्वेशं सर्वहृदयं नमामि सर्वसाक्षिणम् ॥ ५॥

सर्वात्मा सर्वकर्ता च सृष्टिजीवनपालकः ।
हितः स्वर्गापवर्गश्च भास्करेश नमोऽस्तु ते ॥ ६॥

इति प्रार्थना ॥

नमो नमस्तेऽस्तु सदा विभावसो सर्वात्मने सप्तहयाय भानवे ।
अनन्तशक्तिर्मणिभूषणेन ददस्व भुक्तिं मम मुक्तिमव्ययाम् ॥ ७॥

अर्कं तु मूर्ध्नि विन्यस्य ललाटे तु रविं न्यसेत् ।
विन्यसेन्नेत्रयोः सूर्यं कर्णयोश्च दिवाकरम् ॥ ८॥

नासिकायां न्यसेद्भानुं मुखे वै भास्करं न्यसेत् ।
पर्जन्यमोष्ठयोश्चैव तीक्ष्णं जिह्वान्तरे न्यसेत् ॥ ९॥

सुवर्णरेतसं कण्ठे स्कन्धयोनितग्मतेजसम् ।
बाह्वोस्तु पूषणं चैव मित्रं वै पृष्ठतो न्यसेत् ॥ १०॥

वरुणं दक्षिणे हस्ते त्वष्टारं वामतः करे ।
हस्तावुष्णकरः पातु हृदयं पातु भानुमान् ॥ ११॥

उदरे तु यमं विद्यादादित्यं नाभिमण्डले ।
कट्यां तु विन्यसेद्धंसं रुद्रमूर्वोस्तु विन्यसेत् ॥ १२॥

जान्वोस्तु गोपतिं न्यस्य सवितारं जङ्घयोः ।
पादयोश्च विवस्वन्तं गुल्फयोश्च दिवाकरम् ॥ १३॥

बाह्यतस्तु तमोध्वंस भगमभ्यन्तरे न्यसेत् ।
सर्वाङ्गेषु सहस्रांशुं दिग्विदिक्षु भग न्यसेत् ॥ १४॥

इति दिग्बन्धः ।
एष आदित्यविन्यासो देवानामपिदुर्लभः ।
इमं भक्त्या न्यसेत्पार्थ स याति परमां गतिम् ॥ १५॥

कामक्रोधकृतात्पापान्मुच्यते नात्र संशयः ।
सर्पादपि भयं नैव सङ्ग्रामेषु पथिष्वपि ॥ १६॥

रिपुसङ्घट्टकालेषु तथा चोरसमागमे ।
त्रिसन्ध्यं जपतो न्यास म

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विशेष सुचना

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