श्री सूक्त रहस्य
श्री सूक्त ऋग्वेदोक्त सिद्ध मंत्र हैं। श्री सूक्त में सोलह मंत्र है , इसके प्रत्येक सूक्त या मन्त्र में कुछ ऐसा गूढ़ रहस्य , चमत्कार है जिनसे अथाह धन-सम्पत्ति की प्राप्ति संभव है। यदि माँ का भक्त इसे पूर्ण श्राद्ध एवं विधि पूर्वक नित्य प्रात: पढे तो उसका भाग्य चमकने लगता है, शुभ समाचारो की प्राप्ति होती है, समस्त कार्यो में श्रेष्ठ सफलता मिलने लगती है, अकस्मात् धन लाभ के भी योग बनते है। श्री सूक्तम् के शुभ फलो में जरा भी संदेह की गुंजाइस नहीं है ।
मान्यता है कि लक्ष्मी माता की कृपा प्राप्त करने का इससे अमोघ और सरल उपाय कोई भी नहीं है। चाहे कुंडली में कैसे भी ग्रह बैठे हो , कितनी भी विपरीत परिस्थितियां क्योँ ना हो , पिछले कई जन्मो के कैसे भी पाप हो सब कट जाते है , ना केवल इस जन्म में वरन आने वाले जन्मो में भी सुख-समृद्धि प्राप्त होती है । जातक की आने वाली पीढ़ियाँ भी सुख समृद्धि को प्राप्त करती है ।
श्री सूक्तम् का पाठ पूर्व अथवा उत्तर दिशा में मुख करके सफ़ेद / गुलाबी आसान पर बैठकर करना चाहये । श्री सूक्तम् पढ़ने से पहले माँ लक्ष्मी के सामने घी का दीपक जलाकर, रोली / कुमकुम का तिलक करके कमल / लाल गुलाब / लाल गुड़हल का पुष्प अर्पित करें एवं प्रशाद चढ़ाएं ।
श्री सूक्तम् देवी लक्ष्मी की आराधना करने हेतु उनको समर्पित मंत्र हैं। इसे 'लक्ष्मी सूक्तम्' भी कहते हैं। यह सूक्त ऋग्वेद से लिया गया है। इस सूक्त का पाठ धन-धान्य की अधिष्ठात्री, देवी लक्ष्मी की कृपा प्राप्ति के लिए किया जाता है।
II श्रीसूक्त पाठ विधि II
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( श्रीसूक्त के इस प्रयोग को हृदय अथवा आज्ञा चक्र में करने से सर्वोत्तम लाभ होगा, अन्यथा सामान्य पूजा प्रकरण से ही संपन्न करें I )
प्राणायाम आचमन आदि कर आसन पूजन करें :-
विनियोग:- ॐ अस्य श्री आसन पूजन महामन्त्रस्य कूर्मो देवता मेरूपृष्ठ ऋषि पृथ्वी सुतलं छंद: आसन पूजने विनियोग: । ( विनियोग हेतु जल भूमि पर गिरा दें I)
पृथ्वी पर रोली से त्रिकोण का निर्माण कर इस मन्त्र से पंचोपचार पूजन करें –
ॐ पृथ्वी त्वया धृता लोका देवी त्वं विष्णुनां धृता I
त्वां च धारय मां देवी पवित्रां कुरू च आसनं II
ॐ आधारशक्तये नम: । ॐ कूर्मासनायै नम: ।
ॐ पद्मासनायै नम: । ॐ सिद्धासनाय नम: ।
ॐ साध्य सिद्धसिद्धासनाय नम: ।- तदुपरांत गुरू गणपति गौरी पित्र व स्थान देवता आदि का स्मरण व पंचोपचार पूजन कर श्री चक्र के सम्मुख पुरुष सूक्त का एक बार पाठ करें ।
निम्न मन्त्रों से करन्यास करें :-
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं ऐं क ए ई ल ह्रीं अंगुष्ठाभ्याम नमः ।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं ह स क ह ल ह्रीं तर्जनीभ्यां स्वाहा ।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं सौं स क ल ह्रीं मध्यमाभ्यां वष्ट ।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं ऐं क ए ई ल ह्रीं अनामिकाभ्यां हुम् ।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं ह स क ह ल ह्रीं कनिष्ठिकाभ्यां वौषट ।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं सौं स क ल ह्रीं करतल करपृष्ठाभ्यां फट् ।
निम्न मन्त्रों से षड़ांग न्यास करें :-
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं ऐं क ए ई ल ह्रीं हृदयाय नमः ।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं ह स क ह ल ह्रीं शिरसे स्वाहा ।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं सौं स क ल ह्रीं शिखायै वष्ट ।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं ऐं क ए ई ल ह्रीं कवचायै हुम् ।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं ह स क ह ल ह्रीं नेत्रत्रयाय वौषट ।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं सौं स क ल ह्रीं अस्त्राय फट् ।
श्री पादुकां पूजयामि नमः बोलकर शंख के जल से अर्घ्य प्रदान करते रहें ।
श्री चक्र के बिन्दु चक्र में निम्न मन्त्रों से गुरू पूजन करें :-
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री गुरू पादुकां पूजयामि नमः ।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री परम गुरू पादुकां पूजयामि नमः ।
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री परात्पर गुरू पादुकां पूजयामि नमः ।
श्री चक्र महात्रिपुरसुन्दरी का ध्यान करके योनि मुद्रा का प्रदर्शन करते हुए पुन: इस मन्त्र से तीन बार पूजन करें :- ॐ श्री ललिता महात्रिपुर सुन्दरी श्री विद्या राज राजेश्वरी श्री पादुकां पूजयामि नमः ।
।। अथ श्रीसूक्तम् ।। श्रीसूक्त का विधिवत पाठ करें :
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हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्णरजतस्रजाम् ।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह ॥१॥
भाबार्थ :- हे जातवेदा (सर्वज्ञ) अग्निदेव! सुवर्ण के समान पीले रंगवाली, किंचित हरितवर्ण वाली, सोने और चांदी के हार पहनने वाली, चांदी के समान धवल पुष्पों की माला धारण करने वाली, चन्द्र के समान प्रसन्नकान्ति, स्वर्णमयी लक्ष्मीदेवी को मेरे लिए आवाहन करो (बुलाइए)।
तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम् ।
यस्यां हिरण्यं विन्देयं गामश्वं पुरुषानहम् ॥२॥
भाबार्थ :- हे अग्निदेव! आप उन जगत प्रसिद्ध लक्ष्मीजी को, जिनका कभी विनाश नहीं होता तथा जिनके आगमन से मैं सोना, गौ, घोड़े तथा पुत्रादि को प्राप्त करुंगा, मेरे लिए आवाहन करो।
अश्वपूर्वां रथमध्यां हस्तिनादप्रबोधिनीम् ।
श्रियं देवीमुपह्वये श्रीर्मा देवी जुषताम् ॥३॥
भाबार्थ :- जिन देवी के आगे घोड़े तथा उनके पीछे रथ रहते हैं अथवा जिनके सम्मुख घोड़े रथ में जुते हुए हैं, ऐसे रथ में बैठी हुई, हाथियों के निनाद से प्रमुदित होने वाली, देदीप्यमान एवं समस्तजनों को आश्रय देने वाली लक्ष्मीजी को मैं अपने सम्मुख बुलाता हूँ। दीप्यमान व सबकी आश्रयदाता वह लक्ष्मी मेरे घर में सर्वदा निवास करें।
कां सोस्मितां हिरण्यप्राकारामार्द्रां ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम् ।
पद्मे स्थितां पद्मवर्णां तामिहोपह्वये श्रियम् ॥४॥
भाबार्थ :- जो साक्षात् ब्रह्मरूपा, मन्द-मन्द मुसकराने वाली, जो चारों ओर सुवर्ण से ओत-प्रोत हैं, दया से आर्द्र हृदय वाली या समुद्र से प्रादुर्भूत (प्रकट) होने के कारण आर्द्र शरीर होती हुई भी तेजोमयी हैं, स्वयं पूर्णकामा होने के कारण भक्तों के नाना प्रकार के मनोरथों को पूर्ण करने वाली, भक्तानुग्रहकारिणी, कमल के आसन पर विराजमान तथा पद्मवर्णा हैं, उन लक्ष्मीदेवी का मैं यहां आवाहन करता हूँ।
चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देवजुष्टामुदाराम् ।
तां पद्मिनीमीं शरणमहं प्रपद्येऽलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणे ॥५॥
भाबार्थ :- मैं चन्द्र के समान शुभ्र कान्तिवाली, सुन्दर, द्युतिशालिनी, यश से दीप्तिमती, स्वर्गलोक में देवगणों के द्वारा पूजिता, उदारशीला, पद्महस्ता, सभी की रक्षा करने वाली एवं आश्रयदात्री लक्ष्मीदेवी की शरण ग्रहण करता हूँ। मेरा दारिद्रय दूर हो जाय। मैं आपको शरण्य के रूप में वरण करता हूँ अर्थात् आपका आश्रय लेता हूँ।
आदित्यवर्णे तपसोऽधिजातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽथ बिल्वः ।
तस्य फलानि तपसानुदन्तु मायान्तरायाश्च बाह्या अलक्ष्मीः ॥६॥
भाबार्थ :- हे सूर्य के समान कान्ति वाली! तुम्हारे ही तप से वृक्षों में श्रेष्ठ मंगलमय बिना फूल के फल देने वाला बिल्ववृक्ष उत्पन्न हुआ। उस बिल्व वृक्ष के फल हमारे बाहरी और भीतरी (मन व संसार के) दारिद्रय को दूर करें।
उपैतु मां देवसखः कीर्तिश्च मणिना सह ।
प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन् कीर्तिमृद्धिं ददातु मे ॥७॥
भाबार्थ :- हे लक्ष्मी! देवसखा (महादेव के सखा) कुबेर और उनके मित्र मणिभद्र अर्थात् चिन्तामणि तथा दक्ष प्रजापति की कन्या कीर्ति मुझे प्राप्त हों। अर्थात् मुझे धन और यश की प्राप्ति हो। मैं इस राष्ट्र में–देश में उत्पन्न हुआ हूँ, मुझे कीर्ति और ऋद्धि प्रदान करें।
क्षुत्पिपासामलां ज्येष्ठामलक्ष्मीं नाशयाम्यहम् ।
अभूतिमसमृद्धिं च सर्वां निर्णुद मे गृहात् ॥८॥
भाबार्थ :- लक्ष्मी की ज्येष्ठ बहिन अलक्ष्मी (दरिद्रता की अधिष्ठात्री देवी) का, जो क्षुधा और पिपासा से मलिन–क्षीणकाय रहती हैं, मैं नाश चाहता हूँ। देवि! मेरे घर से सब प्रकार के दारिद्रय और अमंगल को दूर करो।
गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम् ।
ईश्वरींग् सर्वभूतानां तामिहोपह्वये श्रियम् ॥९॥
भाबार्थ :- सुगन्धित पुष्प के समर्पण करने से प्राप्त करने योग्य, किसी से भी दबने योग्य नहीं, धन-धान्य से सर्वदा पूर्ण, गौ-अश्वादि पशुओं की समृद्धि देने वाली, समस्त प्राणियों की स्वामिनी तथा संसार प्रसिद्ध लक्ष्मीदेवी का मैं यहां–अपने घर में आवाहन करता हूँ।
मनसः काममाकूतिं वाचः सत्यमशीमहि ।
पशूनां रूपमन्नस्य मयि श्रीः श्रयतां यशः ॥१०॥
भाबार्थ :- हे लक्ष्मी देवी! आपके प्रभाव से मन की कामनाएं और संकल्प की सिद्धि एवं वाणी की सत्यता मुझे प्राप्त हों; मैं गौ आदि पशुओं के दूध, दही, यव आदि एवं विभिन्न अन्नों के रूप (भक्ष्य, भोज्य, चोष्य, लेह्य, चतुर्विध भोज्य पदार्थों) को प्राप्त करुँ। सम्पत्ति और यश मुझमें आश्रय लें अर्थात् मैं लक्ष्मीवान एवं कीर्तिमान बनूँ।
कर्दमेन प्रजाभूता मयि सम्भव कर्दम ।
श्रियं वासय मे कुले मातरं पद्ममालिनीम् ॥११॥
भाबार्थ :- लक्ष्मी के पुत्र कर्दम की हम संतान हैं। कर्दम ऋषि! आप हमारे यहां उत्पन्न हों (अर्थात् कर्दम ऋषि की कृपा होने पर लक्ष्मी को मेरे यहां रहना ही होगा) मेरे घर में लक्ष्मी निवास करें। पद्मों की माला धारण करने वाली सम्पूर्ण संसार की माता लक्ष्मीदेवी को हमारे कुल में स्थापित कराओ।
आपः सृजन्तु स्निग्धानि चिक्लीत वस मे गृहे ।
नि च देवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले ॥१२॥
भाबार्थ :- समुद्र-मन्थन द्वारा चौदह रत्नों के साथ लक्ष्मी का भी आविर्भाव हुआ है। इसी अभिप्राय में कहा गया है कि वरुण देवता स्निग्ध पदार्थों की सृष्टि करें। पदार्थों में सुन्दरता ही लक्ष्मी है। लक्ष्मी के आनन्द, कर्दम, चिक्लीत और श्रीत–ये चार पुत्र हैं। इनमें चिक्लीत से प्रार्थना की गयी है। हे लक्ष्मीपुत्र चिक्लीत! आप भी मेरे घर में वास करें और दिव्यगुणयुक्ता तथा सर्वाश्रयभूता अपनी माता लक्ष्मी को भी मेरे कुल में निवास करायें।
आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं पिङ्गलां पद्ममालिनीम् ।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह ॥१३॥
भाबार्थ :- हे अग्निदेव! हाथियों के शुण्डाग्र से अभिषिक्त अतएव आर्द्र शरीर वाली, पुष्टि को देने वाली अर्थात् पुष्टिरूपा, पीतवर्णा, पद्मों (कमल) की माला धारण करने वाली, चन्द्रमा के समान शुभ्र कान्ति से युक्त, स्वर्णमयी लक्ष्मीदेवी का मेरे घर में आवाहन करें।
आर्द्रां यः करिणीं यष्टिं सुवर्णां हेममालिनीम् ।
सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह ॥१४॥
भाबार्थ :- हे अग्निदेव! जो दुष्टों का निग्रह करने वाली होने पर भी कोमल स्वभाव की हैं, जो मंगलदायिनी, अवलम्बन प्रदान करने वाली यष्टिरूपा हैं (जिस प्रकार लकड़ी के बिना असमर्थ पुरुष चल नहीं सकता, उसी प्रकार लक्ष्मी के बिना संसार का कोई भी कार्य ठीक प्रकार नहीं हो पाता), सुन्दर वर्णवाली, सुवर्णमालाधारिणी, सूर्यस्वरूपा तथा हिरण्यमयी हैं (जिस प्रकार सूर्य प्रकाश और वृष्टि द्वारा जगत का पालन-पोषण करता है, उसी प्रकार लक्ष्मी ज्ञान और धन के द्वारा संसार का पालन-पोषण करती है), उन प्रकाशस्वरूपा लक्ष्मी का मेरे लिए आवाहन करें।
तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम् ।
यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्वान् विन्देयं पूरुषानहम् ॥१५॥
भाबार्थ :- हे अग्निदेव! कभी नष्ट न होने वाली उन स्थिर लक्ष्मी का मेरे लिए आवाहन करें जो मुझे छोड़कर अन्यत्र नहीं जाने वाली हों, जिनके आगमन से बहुत-सा धन, उत्तम ऐश्वर्य, गौएं, दासियां, अश्व और पुत्रादि को हम प्राप्त करें।
यः शुचिः प्रयतो भूत्वा जुहुयादाज्यमन्वहम् ।
सूक्तं पञ्चदशर्चं च श्रीकामः सततं जपेत् ॥१६॥
भाबार्थ :- जिसे लक्ष्मी की कामना हो, वह प्रतिदिन पवित्र और संयमशील होकर अग्नि में घी की आहुतियां दे तथा इन पंद्रह ऋचाओं वाले–’श्री-सूक्त’ का निरन्तर पाठ करे।
(श्री-सूक्त में पन्द्रह ऋचाएं हैं। माहात्म्य सहित सोलह ऋचाएं मानी गयी हैं क्योंकि किसी भी स्तोत्र का बिना माहात्म्य के पाठ करने से फल प्राप्ति नहीं होती। अत: सोलह ऋचाओं का पाठ करना चाहिए। ऋग्वेद में वर्णित श्री-सूक्त के द्वारा जो भी श्रद्धापूर्वक लक्ष्मी का पूजन करता है, वह सात जन्मों तक निर्धन नहीं होता।)
II श्री लक्ष्मी सूक्त II
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II श्री लक्ष्मीसूक्तम् पाठ II
पद्मानने पद्मिनि पद्मपत्रे पद्मप्रिये पद्मदलायताक्षि।
विश्वप्रिये विश्वमनोऽनुकूले त्वत्पादपद्मं मयि सन्निधत्स्व॥
- हे लक्ष्मी देवी! आप कमलमुखी, कमल पुष्प पर विराजमान, कमल-दल के समान नेत्रों वाली, कमल पुष्पों को पसंद करने वाली हैं। सृष्टि के सभी जीव आपकी कृपा की कामना करते हैं। आप सबको मनोनुकूल फल देने वाली हैं। हे देवी! आपके चरण-कमल सदैव मेरे हृदय में स्थित हों।
पद्मानने पद्मऊरू पद्माक्षी पद्मसम्भवे।
तन्मे भजसिं पद्माक्षि येन सौख्यं लभाम्यहम्॥
- हे लक्ष्मी देवी! आपका श्रीमुख, ऊरु भाग, नेत्र आदि कमल के समान हैं। आपकी उत्पत्ति कमल से हुई है। हे कमलनयनी! मैं आपका स्मरण करता हूँ, आप मुझ पर कृपा करें।
अश्वदायी गोदायी धनदायी महाधने।
धनं मे जुष तां देवि सर्वांकामांश्च देहि मे॥
- हे देवी! अश्व, गौ, धन आदि देने में आप समर्थ हैं। आप मुझे धन प्रदान करें। हे माता! मेरी सभी कामनाओं को आप पूर्ण करें।
पुत्र पौत्र धनं धान्यं हस्त्यश्वादिगवेरथम्।
प्रजानां भवसी माता आयुष्मंतं करोतु मे॥
- हे देवी! आप सृष्टि के समस्त जीवों की माता हैं। आप मुझे पुत्र-पौत्र, धन-धान्य, हाथी-घोड़े, गौ, बैल, रथ आदि प्रदान करें। आप मुझे दीर्घ-आयुष्य बनाएँ।
धनमाग्नि धनं वायुर्धनं सूर्यो धनं वसु।
धन मिंद्रो बृहस्पतिर्वरुणां धनमस्तु मे॥
- हे लक्ष्मी! आप मुझे अग्नि, धन, वायु, सूर्य, जल, बृहस्पति, वरुण आदि की कृपा द्वारा धन की प्राप्ति कराएँ।
वैनतेय सोमं पिव सोमं पिवतु वृत्रहा।
सोमं धनस्य सोमिनो मह्यं ददातु सोमिनः॥
- हे वैनतेय पुत्र गरुड़! वृत्रासुर के वधकर्ता, इंद्र, आदि समस्त देव जो अमृत पीने वाले हैं, मुझे अमृतयुक्त धन प्रदान करें।
न क्रोधो न च मात्सर्यं न लोभो नाशुभामतिः।
भवन्ति कृतपुण्यानां भक्तानां सूक्त जापिनाम्॥
- इस सूक्त का पाठ करने वाले की क्रोध, मत्सर, लोभ व अन्य अशुभ कर्मों में वृत्ति नहीं रहती, वे सत्कर्म की ओर प्रेरित होते हैं।
सरसिजनिलये सरोजहस्ते धवलतरांशुक गंधमाल्यशोभे।
भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे त्रिभुवनभूतिकरी प्रसीद मह्यम्॥
- हे त्रिभुवनेश्वरी! हे कमलनिवासिनी! आप हाथ में कमल धारण किए रहती हैं। श्वेत, स्वच्छ वस्त्र, चंदन व माला से युक्त हे विष्णुप्रिया देवी! आप सबके मन की जानने वाली हैं। आप मुझ दीन पर कृपा करें।
विष्णुपत्नीं क्षमां देवीं माधवीं माधवप्रियाम्।
लक्ष्मीं प्रियसखीं देवीं नमाम्यच्युतवल्लभाम॥
- भगवान विष्णु की प्रिय पत्नी, माधवप्रिया, भगवान अच्युत की प्रेयसी, क्षमा की मूर्ति, लक्ष्मी देवी मैं आपको बारंबार नमन करता हूँ।
महादेव्यै च विद्महे विष्णुपत्न्यै च धीमहि। तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात्॥
- हम महादेवी लक्ष्मी का स्मरण करते हैं। विष्णुपत्नी लक्ष्मी हम पर कृपा करें, वे देवी हमें सत्कार्यों की ओर प्रवृत्त करें।
चंद्रप्रभां लक्ष्मीमेशानीं सूर्याभांलक्ष्मीमेश्वरीम्।
चंद्र सूर्याग्निसंकाशां श्रिय देवीमुपास्महे॥
- जो चंद्रमा की आभा के समान शीतल और सूर्य के समान परम तेजोमय हैं उन परमेश्वरी लक्ष्मीजी की हम आराधना करते हैं।
श्रीर्वर्चस्वमायुष्यमारोग्यमाभिधाच्छ्रोभमानं महीयते।
धान्य धनं पशु बहु पुत्रलाभम् सत्संवत्सरं दीर्घमायुः॥
- इस लक्ष्मी सूक्त का पाठ करने से व्यक्ति श्री, तेज, आयु, स्वास्थ्य से युक्त होकर शोभायमान रहता है। वह धन-धान्य व पशु धन सम्पन्न, पुत्रवान होकर दीर्घायु होता है।
॥ इति श्रीलक्ष्मी सूक्तम् संपूर्णम् ॥
II श्रीसूक्तः साधना के आयाम II
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‘श्री-सूक्त’ में 15 ऋचाएँ है । यह सूक्त ऋग्वेद संहिता के अष्टक 4, अध्याय 4, वर्ण के अन्तिम मण्डल 5 के अन्त में ‘परिशिष्ट’ के रुप में आया है । इसी को ‘खिल-सूक्त’ भी कहते हैं । निरुक्त एवं शौनक आदि ने भी इसका उल्लेख किया है । ‘खिल’ शब्द का अर्थ है – ‘अन्य शाखा में अपेक्षावश पढ़े जाने वाला पाठ’ । कहीं इस सूक्त को पदशिष्ट भी कहा गया है, जिसका तात्पर्य है – शौनक ने जिन मन्त्रों का पदपाठ नहीं किया है वह नीलकण्ठ ने अपनी व्याख्या में इस सूक्त के बारे में इसके वेद-मूलक होने का विचार किया है । सर्वानुक्रम और ऋक्संहिता – स्वाहाकार में इस सूक्त का ग्रहण नहीं हुआ है, किन्तु वैदिक कर्मकाण्ड में इसके विनियोगादि सर्वत्र मिलते हैं । वेद भाष्यकारों ने इस सूक्त के भाष्य किये हैं, अतः यह वैदिक है, यही सर्व-मान्य है। इस सूक्त पर श्रीविद्यारण्य, पृथ्वीधराचार्य, श्रीकण्ठ आदि के भाष्य हैं तथा शतानन्द वृत्ति, चिद्विलास वृत्ति, श्रीवैद्यनाथ दायगुण्डे आदि ने विधान सहित टीकाएँ लिखी है।
इस सूक्त की सोलहवीं ऋचा फलश्रुति स्वरुप है । भाष्यकारों ने इसका भी भाष्यों में विवेचन किया है। इसके पश्चात् 17 से 25 वीं ऋचाएँ, जो फल-स्तुति रुप ही हैं, किन्तु उन्हें कुछ आचार्य ‘लक्ष्मी-सूक्त’ भी कहते हैं । सोलहवीं ऋचा के अनुसार श्रीसूक्त की प्रारम्भिक 15 ऋचाएँ कर्म-काण्ड-उपासना के लिए प्रयोज्य है ।
अतः इन 15 ऋचाओं के द्वारा ही लक्ष्मी-प्राप्ति के लिए अनेक प्रकार के आगम-तन्त्रानुसार साधना में प्रयुक्त होती है। ‘सौभाग्य-तन्त्र‘ में / ‘लक्ष्मी-तन्त्र’ में इन्हीं सूक्त की 15 ऋचाओं के अलग-अलग मन्त्र, यन्त्र और तन्त्र बतलाये हैं । यन्त्रों में एक-एक ऋचा को विभिन्न आकृतियों में लिखकर दिखाया है। अन्य आचार्यों ने समस्त श्रीसूक्त की 15 ऋचाओं को ही १५ यन्त्रों में लिखकर कतिपय बीज-मन्त्रों के साथ यन्त्र बनाने का निर्देश दिया है ।
श्री-सूक्त की प्रत्येक ऋचा को पाठात्मक, अभिषेकात्मक, जपात्मक और हवनात्मक प्रयोग भी आगमों में निर्दिष्ट है। – श्रीसूक्तानुष्ठान पद्धति अनेक आचार्यों ने श्रीसूक्त के नित्य 28,108 अथवा 1000 पाठ के विधान बतलाये हैं। एक दिन में एक हजार पाठ करने से संकल्प-सिद्धि होती है। प्रातः-काल स्नान सन्ध्या आदि करके पवित्रता पूर्वक महालक्ष्मी जी की प्रतिमा अथवा चित्र के सामने पूर्व की ओर मुंह करके आचमन, प्राणायाम और संकल्प करे। फिर चित्र में विराजमान महालक्ष्मी का ध्यान करके षोडशोपचार पूजा करे। धूप-दीप करें, खोये की मिठाई का नैवेद्य लगाये। नमस्कार और प्रदक्षिणा समर्पण करे। यह नित्य-पूजा का क्रम है। इसमें आवाहन और विसर्जन की आवश्यकता नहीं है।
नित्य पूजा में ‘ॐ श्रीं महालक्ष्म्यै नमः’ इस मन्त्र से पूजा करें। तदनन्तर संकल्प से अनुसार श्रीसूक्त की आवृति करें। श्रीसूक्त वेदोक्त है। अतः इसे शुद्ध पाठ के रुप में सीख लेना चाहिए। पुरश्चरण विधानः- श्रीसूक्त के पाठ विधान में मुख्यतः एक-एक ऋचा का जप अथवा पूरे सूक्त के पाठों का जप होता है। किसी भी मन्त्र की सिद्धि के लिए पहले मन्त्र का पुरश्चरण अवश्य करना चाहिए। श्रीसूक्त के बारह हजार पाठ का पुरश्चरण सर्वोत्तम माना गया है।
IIश्रीसूक्त के प्रयोग II
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[१] “श्रीं ह्रीं क्लीं।। हिरण्य-वर्णा हरिणीं, सुवर्ण रजत स्रजाम्।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो म आवह।। श्रीं ह्रीं क्लीं”
सुवर्ण से लक्ष्मी की मूर्ति बनाकर उस मूर्ति का पूजन हल्दी और सुवर्ण-चाँदी के कमल-पुष्पों से करें। फिर सुवासिनी-सौभाग्यवती स्त्री और गाय का पूजन कर, पूर्णिमा के चन्द्र में अथवा पानी से भरे हुए कुम्भ में श्रीपरा-नारायणी का ध्यान कर, सोने की माला से कमल-पत्र के आसन पर बैठकर, ‘श्रीसूक्त’ की उक्त ‘हिरण्य-वर्णा॰॰’ ऋचा में ‘श्रीं ह्रीं क्लीं’ बीज जोड़कर प्रातः, दोपहर और सांय एक-एक हजार (१० माला) जप करे। इस प्रकार सवा लाख जप होने पर मधु और कमल-पुष्प से दशांश हवन करे और तर्पण, मार्जन तथा ब्राह्मण-भोजन नियम से करे। इस प्रयोग का पुरश्चरण ३२ लाख जप का है। सवा लाख का जप, होम आदि हो जाने पर दूसरे सवा लाख का जप प्रारम्भ करे। ऐसे कुल २६ प्रयोग करने पर ३२ लाख का प्रयोग सम्पूर्ण होता है। इस प्रयोग का फल राज-वैभव, सुवर्ण, रत्न, वैभव, वाहन, स्त्री, सन्तान और सब प्रकार का सांसारिक सुख की प्राप्ति है।
[२] “ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं महा-लक्ष्म्यै नमः।। दुर्गे! स्मृता हरसि भीतिमशेष-जन्तोः, स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव-शुभां ददासि। ॐ ऐं हिरण्य-वर्णां हरिणीं, सुवर्ण-रजत-स्रजाम्। चन्द्रां हिरण्यमयीं लक्ष्मीं, जातवेदो म आवह।। दारिद्रय-दुःख-भय-हारिणि का त्वदन्या, सर्वोपकार-करणाय सदाऽर्द्र-चित्ता।। ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं महा-लक्ष्म्यै नमः।।” यह ‘श्रीसूक्त का एक मन्त्र सम्पुटित हुआ। इस प्रकार ‘तां म आवह’ से लेकर ‘यः शुचिः’ तक के १६ मन्त्रों को सम्पुटित कर पाठ करने से १ पाठ हुआ। ऐसे १२ हजार पाठ करे। चम्पा के फूल, शहद, घृत, गुड़ का दशांश हवन तद्दशांश तर्पण, मार्जन तथा ब्रह्म-भोजन करे। इस प्रयोग से धन-धान्य, ऐश्वर्य, समृद्धि, वचन-सिद्धि प्राप्त होती है।
[३] “ॐ ऐं ॐ ह्रीं।। तां म आवह जात-वेदो लक्ष्मीमनप-गामिनीम्। यस्यां हिरण्यं विन्देयं, गामश्वं पुरुषानहम्।। ॐ ऐं ॐ ह्रीं” सुवर्ण से लक्ष्मी की मूर्ति बनाकर उस मूर्ति का पूजन हल्दी और सुवर्ण-चाँदी के कमल-पुष्पों से करें। फिर सुवासिनी-सौभाग्यवती स्त्री और गाय का पूजन कर, पूर्णिमा के चन्द्र में अथवा पानी से भरे हुए कुम्भ में श्रीपरा-नारायणी का ध्यान कर, सोने की माला से कमल-पत्र के आसन पर बैठकर, नित्य सांय-काल एक हजार (१० माला) जप करे। कुल ३२ दिन का प्रयोग है। दशांश हवन, तर्पण, मार्जन तथा ब्रह्म-भोजन करे। माँ लक्ष्मी स्वप्न में आकर धन के स्थान या धन-प्राप्ति के जो साधन अपने चित्त में होंगे, उनकी सफलता का मार्ग बताएँगी। धन-समृद्धि स्थिर रहेगी। प्रत्येक तीन वर्ष के अन्तराल में यह प्रयोग करे।
[४] “ॐ ह्रीं ॐ श्रीं।। अश्व-पूर्वां रथ-मध्यां, हस्ति-नाद-प्रबोधिनीम्। श्रियं देवीमुपह्वये, श्रीर्मा देवी जुषताम्।। ॐ ह्रीं ॐ श्रीं” उक्त मन्त्र का प्रातः, मध्याह्न और सांय प्रत्येक काल १०-१० माला जप करे। संकल्प, न्यास, ध्यान कर जप प्रारम्भ करे। इस प्रकार ४ वर्ष करने से मन्त्र सिद्ध होता है। प्रयोग का पुरश्चरण ३६ लाख मन्त्र-जप का है। स्वयं न कर सके, तो विद्वान ब्राह्मणों द्वारा कराया जा सकता है। खोया हुआ या शत्रुओं द्वारा छिना हुआ धन प्राप्त होता है।
[५] “करोतु सा नः शुभ हेतुरीश्वरी, शुभानि भद्राण्यभिहन्तु चापदः। अश्व-पूर्वां रथ-मध्यां, हस्ति-नाद-प्रबोधिनीम्। श्रियं देवीमुपह्वये, श्रीर्मा देवी जुषताम्।। करोतु सा नः शुभ हेतुरीश्वरी, शुभानि भद्राण्यभिहन्तु चापदः।।” उक्त आधे मन्त्र का सम्पुट कर १२ हजार जप करे। दशांश हवन, तर्पण, मार्जन तथा ब्रह्म-भोजन करे। इससे धन, ऐश्वर्य, यश बढ़ता है। शत्रु वश में होते हैं। खोई हुई लक्ष्मी, सम्पत्ति पुनः प्राप्त होती है।
[६] “ॐ श्रीं ॐ क्लीं।। कांसोऽस्मि तां हिरण्य-प्राकारामार्द्रा ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम्। पद्मे स्थितां पद्म-वर्णां तामिहोपह्वये श्रियम्।। ॐ श्रीं ॐ क्लीं” उक्त मन्त्र का पुरश्चरण आठ लाख जप का है। जप पूर्ण होने पर पलाश, ढाक की समिधा, दूध और गाय के घी से हवन तद्दशांश तर्पण, मार्जन, ब्रह्म-भोज करे। इस प्रयोग से सभी प्रकार की समृद्धि और श्रेय मिलता है। शत्रुओं का क्षय होता है।
[७] “सर्वा-बाधा-प्रशमनं, त्रैलोक्याखिलेश्वरि! एवमेव त्वया कार्यमस्मद्-वैरि-विनाशनम्।। कांसोऽस्मि तां हिरण्य-प्राकारामार्द्रा ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम्। पद्मे स्थितां पद्म-वर्णां तामिहोपह्वये श्रियम्।। सर्वा-बाधा-प्रशमनं, त्रैलोक्याखिलेश्वरि! एवमेव त्वया कार्यमस्मद्-वैरि-विनाशनम्।।” उक्त सम्पुट मन्त्र का १२ लाख जप करे। ब्राह्मण द्वारा भी कराया जा सकता है। इससे गत वैभव पुनः प्राप्त होता है और धन-धान्य-समृद्धि और श्रेय मिलता है। शत्रुओं का क्षय होता है।
[८] “ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं।।कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद महा-लक्ष्म्यै नमः।। दुर्गे! स्मृता हरसि भीतिमशेष-जन्तोः, स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव-शुभां ददासि। कांसोऽस्मि तां हिरण्य-प्राकारामार्द्रा ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम्। पद्मे स्थितां पद्म-वर्णां तामिहोपह्वये श्रियम्।। दारिद्रय-दुःख-भय-हारिणि का त्वदन्या, सर्वोपकार-करणाय सदाऽर्द्र-चित्ता।। ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं।।कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद महा-लक्ष्म्यै नमः।।” उक्त प्रकार से सम्पुटित मन्त्र का १२ हजार जप करे। इस प्रयोग से वैभव, लक्ष्मी, सम्पत्ति, वाहन, घर, स्त्री, सन्तान का लाभ मिलता है।
[९] “ॐ क्लीं ॐ वद-वद।। चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देव-जुष्टामुदाराम्। तां पद्म-नेमिं शरणमहं प्रपद्ये अलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणे।। ॐ क्लीं ॐ वद-वद।।” उक्त मन्त्र का संकल्प, न्यास, ध्यान कर एक लाख पैंतीस हजार जप करना चाहिए। गाय के गोबर से लिपे हुए स्थान पर बैठकर नित्य १००० जप करना चाहिए। यदि शीघ्र सिद्धि प्राप्त करना हो, तो तीनों काल एक-एक हजार जप करे या ब्राह्मणों से करावे। ४५ हजार पूर्ण होने पर दशांश हवन तद्दशांश तर्पण, मार्जन तथा ब्रह्म-भोजन करे। ध्यान इस प्रकार है- “अक्षीण-भासां चन्द्राखयां, ज्वलन्तीं यशसा श्रियम्। देव-जुष्टामुदारां च, पद्मिनीमीं भजाम्यहम्।।” इस प्रयोग से मनुष्य धनवान होता है।
[१०] “ॐ वद वद वाग्वादिनि।। आदित्य-वर्णे! तपसोऽधिजातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽथ बिल्वः। तस्य फलानि तपसा नुदन्तु मायान्तरायाश्च बाह्या अलक्ष्मीः।। ॐ वद वद वाग्वादिनि” देवी की स्वर्ण की प्रतिमा बनवाए। चन्दन, पुष्प, बिल्व-पत्र, हल्दी, कुमकुम से उसका पूजन कर एक से तीन हजार तक उक्त मन्त्र का जप करे। कुल ग्यारह लाख का प्रयोग है। जप पूर्ण होने पर बिल्व-पत्र, घी, खीर से दशांश होम, तर्पण, मार्जन, ब्रह्म-भोजन करे। यह प्रयोग ब्राह्मणों द्वारा भी कराया जा सकता है। ‘ऐं क्लीं सौः ऐं श्रीं’– इन बीजों से कर-न्यास और हृदयादि-न्यास करे। ध्यान इस प्रकार करे- “उदयादित्य-संकाशां, बिल्व-कानन-मध्यगाम्। तनु-मध्यां श्रियं ध्यायेदलक्ष्मी-परिहारिणीम्।।” प्रयोग-काल में फल और दूध का आहार करे। पकाया हुआ पदार्थ न खाए। पके हुए बिल्व-फल फलाहार में काए जा सकते हैं। यदि सम्भव हो तो बिल्व-वृक्ष के नीचे बैठकर जप करे। इस प्रयोग से वाक्-सिद्धि मिलती है और लक्ष्मी स्थिर रहती है।
[११] “ज्ञानिनामपि चेतांसि, देवी भगवती हि सा। बलादाकृष्य मोहाय, महा-माया प्रयच्छति।। आदित्य-वर्णे तपसोऽधिजाते, वनस्पतिस्तव वृक्षोऽथ बिल्वः। तस्य फलानि तपसा नुदन्तु, मायान्तरा ताश्च बाह्या अलक्ष्मीः।। ज्ञानिनामपि चेतांसि, देवी भगवती हि सा। बलादाकृष्य मोहाय, महा-माया प्रयच्छति।।” उक्त मन्त्र का १२००० जप कर दशांश होम, तर्पण करे। इस प्रयोग से जिस वस्तु की या जिस मनुष्य की इच्छा हो, उसका आकर्षण होता है और वह अपने वश में रहता है। राजा या राज्य-कर्ताओं को वश करने के लिए ४८००० जप करना चाहिए।
[१२] “ॐ वाग्वादिनी ॐ ऐं। उपैतु मां देवसखः, कीर्तिश्च मणिना सह। प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन्, कीर्ति वृद्धिं ददातु मे। ॐ वाग्वादिनी ॐ ऐं।।” उक्त मन्त्र का बत्तीस लाख बीस हजार जप करे। “ॐ अस्य श्रीसूक्तस्य ‘उपैतु मां॰’ मन्त्रस्य कुबेर ऋषिः, मणि-मालिनी लक्ष्मीः देवता, अनुष्टुप् छन्दः, श्रीं ब्लूं क्लीं बीजानि ममाभीष्ट-कामना-सिद्धयर्थे जपे विनियोगः।’ इस प्रकार ‘विनियोग’, ऋष्यादि-न्यास’ कर ‘आं ह्रीं क्रों ऐं श्रीं आं ह्रं क्रौं ऐं’ इन ९ बीजों से कर-न्यास एवं ‘हृदयादि-न्यास’ करे। ध्यान- “राज-राजेश्वरीं लक्ष्मीं, वरदां मणि-मालिनीं। देवीं देव-प्रियां कीर्ति, वन्दे काम्यार्थ-सिद्धये।।” मणि-मालिनी लक्ष्मी देवी की स्वर्ण की मूर्ति बनाकर, बिल्व-पत्र, दूर्वा, हल्दी, अक्षत, मोती, केवड़ा, चन्दन, पुष्प आदि से पूजन करे। ‘श्री-ललिता-सहस्त्रनाम-स्तोत्र’ के प्रत्येक नाम के साथ ‘श्रीं’ बीज लगाकर पूजन करे। सन्ध्यादि नित्य कर्म कर प्रयोग का प्रारम्भ करे। घी का दीप और गूगल का धूप करे। द्राक्षा, खजूर, केले, ईख, शहद, घी, दाड़िम, केरी, नारियल आदि जो प्राप्त हो, नैवेद्य में दे। प्रातः और मध्याह्न में १००० और रात्रि में २००० नित्य जप करे। ढाई साल में एक व्यक्ति बत्तीस लाख बीस हजार का जप पूर्ण कर सकता है। जप करने के लिए प्रवाल की माला ले। जप पूर्ण होने पर अपामार्ग की समिधा, धृत, खीर से दशांश होम कर मार्जन और ब्रह्म-भोज करे। इस प्रयोग से कुबेर आदि देव साक्षात् या स्वप्न में दर्शन देते हैं और धन, सुवर्ण, रत्न, रसायन, औषधि, दिव्याञ्जन आदि देते हैं।
[१३] “ॐ ऐं ॐ सौः। क्षुत्-पिपासामला ज्येष्ठा, अलक्ष्मीर्नाशयाम्यहम्। अभूतिमसमृद्धिं च, सर्वान् निर्णुद मे गृहात्। ॐ ऐं ॐ सौः” उक्त मन्त्र का ३२,००० जप करे। प्रतिदिन रात्रि में वीरासन में बैठकर ३००० जप करे। ‘अग्नि-होत्र-कुण्ड’ के सम्मुख बैठकर ‘जप’ करने से विशेष फल मिलता है। रुद्राक्ष की माला से जप करे। तिल, गुड़ और घी से दशांश होम तथा तर्पण, मार्जन, ब्रह्म-भोजन करावे। ध्यान- “खड्गं स-वात-चक्रं च, कमलं वरमेव च। करैश्चतुर्भिर्विभ्राणां, ध्याये चंद्राननां श्रियम्।।” एक अनुष्ठान दस दिन में पूर्ण होगा। इस प्रकार चार अनुष्ठान पूरे करें। इस प्रयोग से शत्रु का या बिना कारण हानि पहुँचानेवाले का नाश होगा और दरिद्रता, निर्धनता, रोग, भय आदि नष्ट होकर प्रयोग करने वाला अपने कुटुम्ब के साथ दीर्घायुषी और ऐश्वर्यवान् होता है। ग्रह-दोषों का अनिष्ट फल, कारण और क्षुद्र तत्वों की पीड़ा आदि नष्ट होकर भाग्योदय होता है।
[१४] “रोगानशेषानपहंसि तुष्टा, रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान्। त्वामाश्रितानां न विपन्नराणाम्, त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति।। क्षुत्-पिपासामला ज्येष्ठा, अलक्ष्मीर्नाशयाम्यहं। अभूतिमसमृद्धिं च, सर्वान् निर्णुद मे गृहात्। रोगानशेषानपहंसि तुष्टा, रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान्। त्वामाश्रितानां न विपन्नराणाम्, त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति।।” उक्त मन्त्र का १००० जप रात्रि में करे। २०००० जप होने पर दशांश होम-काले तिल, सुपाड़ी, राई से करे। दशांश तर्पण, मार्जन आदि करे। शत्रु के विनाश के लिए, रोगों की शान्ति के लिए और विपत्तियों के निवारण के लिए यह उत्तम प्रयोग है। शत्रु-नाश के लिए रीठे के बीज की माला से काले ऊन के आसन पर वीरासन-मुद्रा से बैठकर क्रोध-मुद्रा में जप करे।
[१५] “ॐ सौः ॐ हंसः। गन्ध-द्वारां दुराधर्षां, नित्य-पुष्टां करीषिणीम्। ईश्वरीं सर्व-भूतानां, तामिहोपह्वये श्रियम्। ॐ सौः ॐ हंसः।।” उक्त मन्त्र का एक लाख साठ हजार जप करे। कमल-गट्टे की माला से कमल के आसन पर या कौशेय वस्त्र के आसन पर बैठकर जप करे। ‘स्थण्डिल’ पर केसर, कस्तुरी, चन्दन, कपूर आदि सुगन्धित द्रव्य रखकर श्रीलक्ष्मी देवी की मूर्ति की पूजा करे। जप पूर्ण होने पर खीर, कमल-पुष्प और तील से दशांश होम कर तर्पण, मार्जन आदि करे। इस प्रयोग से धन-धान्य, समृद्धि, सोना-चाँदी, रत्न आदि मिलते हैं और सम्पन्न महानुभावों से बड़ा मान मिलता है।
[१६] “ॐ हंसः ॐ आं। मनसः काममाकूतिं, वाचः सत्यमशीमहि। पशूनां रुपममन्नस्य, मयि श्रीः श्रयतां यशः। ॐ हंसः ॐ आं।।” उक्त मन्त्र ८ लाख जपे। ‘ऐं-लं-वं-श्रीं’- को मन्त्र के साथ जोड़कर न्यास करे। यथा- कर-न्यासः- ऐं-लं-वं-श्रीं मनसः अंगुष्ठाभ्यां नमः। ऐं-लं-वं-श्रीं काममाकूतिं तर्जनीभ्यां स्वाहा। ऐं-लं-वं-श्रीं वाचः सत्यमशीमहि मध्यमाभ्यां वषट्। ऐं-लं-वं-श्रीं पशूनां अनामिकाभ्यां हुं। ऐं-लं-वं-श्रीं रुपममन्नस्य मयि कनिष्ठिकाभ्यां वौषट्। ऐं-लं-वं-श्रीं श्रीः श्रयतां यशः करतल-कर-पृष्ठाभ्यां फट्। अंग-न्यासः- ऐं-लं-वं-श्रीं मनसः हृदयाय नमः। ऐं-लं-वं-श्रीं काममाकूतिं शिरसे स्वाहा। ऐं-लं-वं-श्रीं वाचः सत्यमशीमहि शिखायै वषट्। ऐं-लं-वं-श्रीं पशूनां कवचाय हुं। ऐं-लं-वं-श्रीं रुपममन्नस्य मयि नेत्र-त्रयाय वौषट्। ऐं-लं-वं-श्रीं श्रीः श्रयतां यशः अस्त्राय फट्। ध्यानः- तां ध्यायेत् सत्य-संकल्पां, लक्ष्मीं क्षीरोदन-प्रियाम्। ख्यातां सर्वेषु भूतेषु, तत्तद् ज्ञान-बल-प्रदाम्।। उक्त धऽयतान करे। बिल्व फल, बिल्व-काष्ठ, पलाश की समिधा, घृत, तिल, शक्कर आदि से दशांश हवन कर तर्पण, मार्जन आदि करे। इस प्रयोग से इच्छित वस्तु प्राप्त होती है और धन-धान्य, समृद्धि, वैभव-विलास बढ़ते हैं।
[१७] “ॐ आं ॐ ह्रीं। कर्दमेन प्रजा-भूता, मयि सम्भ्रम-कर्दम। श्रियं वासय मे कुले, मातरं पद्म-मालिनीम्।। ॐ आं ॐ ह्रीं।” उक्त मन्त्र का ३२ लाख जप करे। मन्त्र के साथ ‘वं श्रीं’ बीज जोड़कर न्यास करे। “स-वत्सा गौरिव प्रीता, कर्दमेन यथेन्दिरा। कल्याणी मद्-गृहे नित्यं, निवसेत् पद्म-मालिनी।।” उक्त ध्यान करे। जीवित बछड़ेवाली गाय का और पुत्रवती, सौभाग्यवती स्त्रियों का पूजन करे। गो-शाला में बैठकर कमल-गट्टे की माला से जप करे। प्रतिदिन छोटे बच्चों को दूध पिलाए। जप पूर्ण होने पर दशांश होम, मार्जन, ब्रह्म-भोजन आदि करे। इस प्रयोग से वन्ध्या स्त्री को भाग्य-शाली पुत्र होता है। वंश-वृद्धि होती है। होम शिव-लिंगी के बीज, खीर, श्वेत तिल, दूर्वा, घी से करे। तर्पण व मार्जन दूध से करे।
[१८] “ॐ क्रौं ॐ क्लीं। आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं पिंगलाङ पद्म-मालिनीम्। चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो म आवहम्।। ॐ क्रौं ॐ क्लीं” उक्त मन्त्र प्रतिदिन ३००० जप करे। शुक्ल-पक्ष की पञ्चमी से प्रारम्भ कर पूर्णिमा तक जप करे। फिर दूसरे मास में शुक्ल पञ्चमी से पूर्णिमा तक जप करे। सम्भव हो, तो चन्द्र-मण्डल के सामने दृष्टि स्थिर रखकर जप करे। अथवा चन्द्रमा का प्रकाश अपने शरीर पर पड़ सके इस प्रकार बैठकर जप करे। रुद्राक्ष, कमल-गट्टे की माला से कौशेय वस्त्र या कमल-पुष्प-गर्भित आसन पर बैठकर जप करे। प्रयोग सोलह मास का है। ध्यान इस प्रकार करे- “तां स्मरेदभिषेकार्द्रां, पुष्टिदां पुष्टि-रुपिणिम्। मैत्यादि-वृत्तिभिश्चार्द्रां, विराजत्-करुणा श्रियम्।। दयार्द्रां वेत्र-हस्तां च, व्रत-दण्ड-स्वरुपिणिम्। पिंगलाभां प्रसन्नास्यां पद्म-माला-धरां तथा।। चन्द्रास्यां चन्द्र-रुपां च, चन्द्रां चन्द्रधरां तथा। हिरन्मयीं महा-लक्ष्मीमृचभेतां जपेन्निशि।। मन्त्र के अक्षर से विनियोग, ऋष्यादि-न्यास कर चन्द्र-मण्डल में भगवती का उक्त ध्यान कर सोलह मास का प्रयोग करना हो, तो शुक्ल पञ्चमी से प्रारम्भ करे। होम खीर, समिधा, कमल पुष्प, सफेद तिल, घृत, शहद आदि से करे। दशांश तर्पण, मार्जन आदि करे। इस प्रयोग से वचन-सिद्धि, प्रतिष्ठा, वैभव की प्राप्ति होती है।
[१९] “ॐ क्लीं ॐ। श्रीं आर्द्रां यः करिणीं यष्टि-सुवर्णां हेम-मालिनीम्। सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो न आवह।। ॐ क्लीं ॐ” उक्त मन्त्र के अनुष्ठान में तीन लाख साठ हजार जप करना होता है। तालाब के किनारे अथवा कमल पुष्पों के आसन पर बैठकर, कमल-गट्टे या स्वर्ण की माला में प्रति-दिन तीन हजार जप है। १२० दिन में प्रयोग पूर्ण होगा। खीर, कमल-पुष्प या घी आदि से दशांश होम करे। १०० सुवासिनी स्त्रियों को भोजन कराए और वस्त्र-भूषण, दक्षिणा दे। ध्यान निम्न प्रकार करे- तां स्मरेदभिषेकार्द्रां, पुष्टिदां पुष्टि-रुपिणीं। रुक्माभां स्वप्न-धी-गम्यां, सुवर्णां स्वर्ण-मालिनी।। सूर्यामैश्वर्य-रुपां च, सावित्रीं सूर्य-रुपिणीम्। आत्म-संज्ञां च चिद्रुपां, ज्ञान-दृष्टि-स्वरुपिणीं। चक्षुः-प्राशदां चैव, हिरण्य-प्रचुरां तथा। स्वर्णात्मनाऽऽविर्भूतां च, जातवेदो म आवह।। इस प्रयोग से ग्रहों की पीड़ा, ग्रह-बाधा-निवृत्ति होकर भाग्य का उदय होता है। अपना और अपने कुटुम्बियों के शरीर नीरोगी, दीर्घायुषी और प्रभावशाली होते हैं। जिससे मिलने की इच्छा हो, वह मनुष्य आ मिलता है।
[२०] “ॐ श्रीं ॐ हूं। तां म आवह जातवेदो, लक्ष्मीमनपगामिनीम्। यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो, दास्योऽश्वान् विन्देयं पुरुषानहं।। ॐ श्रीं ॐ हूं” ‘ॐ अस्य श्री-पञ्च-दश-मन्त्र ऋचः कुबेरो ऋषिः, भूत-धात्री लक्ष्मी देवता, प्रस्तार-पंक्तिश्छन्दः, ह्रीं श्रीं ह्रीं इति बीजानि, ममाभीष्ट-फल-प्राप्त्यर्थे जपे विनियोगः।’ इस प्रकार विनियोग कर ऋष्यादि-न्यास करे। ‘ह्रीं श्रीं ह्रीं’ यर बीज लगाकर अंग-न्यास तथा हृदयादि-न्यास करे। ध्यान इस प्रकार करें- ध्याये लक्ष्मीं प्रहसित-मुखीं राज-सिंहासनस्थां। मुद्रा-शक्ति-सकल-विनुतां सर्व-संसेव्यनाम्। अग्नौ पूज्यामखिल-जननीं हेम-वर्णां हिरण्यां। भाग्योपेतां भुवन-सुखदां भार्गवीं भुत-धात्रीम्।। ज्वारी अथवा गेहूँ की राशि के ऊपर रतेशमी आसन बिछाकर, कमल-बीज की माला से नित्य तीन हजार जप करे। कुल सवा लाख जप करे। जप पूर्ण होने पर दूर्वा, खीर, मधु, घृत आदि से दशांश होम, तर्पण, मार्जन आदि करे। इस प्रयोग से लक्ष्मी स्थिर रहती है।
सामान्य अनुष्ठान विधि :-
१॰ संकल्पः- ‘॰॰॰मम दुःख-दारिद्रय-भय-शोकादि-अलक्ष्मी-विनिवृत्ति-पूर्वक सुख-सौभाग्य-सम्पत्ति-विधिधैश्वर्य-प्राप्त्यर्थं ऋग्वेदान्तर्गत पञ्च-दशर्चस्य श्रीसूक्तस्य अमुक श्लोकस्य अमुक संख्यावृत्ति जपाख्यं कर्म करिष्ये।’
२॰ विनियोगः- ॐ हिरण्य-वर्णामिति पञ्च-दशर्चस्य श्रीसूक्तस्य अमुक-मन्त्रस्य श्रीरानन्दकर्दम-चिक्लीतेन्दिरा-सुता ऋषयः, श्रीः देवता, अमुक छन्दः, श्रीं बीज, श्रीं शक्तिः, ह्रीं कीलकं, अलक्ष्मी-परिहारार्थं लक्ष्मी-प्राप्त्यै च विनियोगः।
३॰ ऋष्यादि-न्यासः- श्रीरानन्दकर्दम-चिक्लीतेन्दिरा-सुता ऋषिभ्यो नमः शिरसि। श्री-देवतायै नमः हृदि। अमुक छन्दसे नमः मुखे। श्रीः शक्त्यै नमः नाभौ। ह्रीं-कीलकाय नमः पादयोः। अलक्ष्मी-परिहारार्थं लक्ष्मी-प्राप्त्यै च विनियोगाय नमः सर्वांगे।
‘श्रीसूक्त’ के छन्द के विषय में उल्लेखनीय है कि प्रथम तीन ऋचाओं तथा सातवीं से १४वीं ऋचाओं का छन्द अनुष्टुप् है। चौथी ऋचा का छन्द ‘त्रिष्टुप’ है। ५वीं ऋचा का छन्द ‘प्रस्तार-पंक्ति’ है।
४॰ कर-न्यासः-
ॐ हिरण्य-वर्णा अंगुष्ठाभ्यां नमः।
ॐ हरिणी तर्जनीभ्यां स्वाहा।
ॐ सुवर्ण-रजत-स्रजां मध्यमाभ्यां वषट्।
ॐ चन्द्रां हिरण्मयीं अनामिकाभ्यां हुं।
ॐ लक्ष्मीं कनिष्ठिकाभ्यां वौषट्।
ॐ जातवेदो म आवह करतल-करपृष्ठाभ्यां फट्।
५॰ अंग-न्यासः-
ॐ हिरण्य-वर्णा हृदयाय नमः।
ॐ हरिणी शिरसे स्वाहा।
ॐ सुवर्ण-रजत-स्रजां शिखायै वषट्।
ॐ चन्द्रां हिरण्मयीं कवचाय हुं।
ॐ लक्ष्मीं नेत्र-त्रयाय वौषट्।
ॐ जातवेदो म आवह अस्त्राय फट्।
६॰ ध्यानः-
“अरुण-कमल-संस्था, तद्रजः-पुञ्ज-वर्णा,
कर-कमल-धृतेष्टा, भीति-युग्माम्बुजा च।
मणि-मुकुट-विचित्रालंकृता कल्प-जालैर्भवतु
भुवन-माता सततं श्रीः श्रियै नः।।
७॰ मानस-पूजन, ८॰ जप, ९॰ हवन, १०॰ क्षमा-प्रार्थना और विसर्जन।
II“श्रीसूक्त”-विधान" II
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विनियोगः- ॐ हिरण्य – वर्णामित्यादि-पञ्चदशर्चस्य श्रीसूक्तस्याद्यायाः ऋचः श्री ऋषिः तां म आवहेति चतुर्दशानामृचां आनन्द-कर्दम-चिक्लीत-इन्दिरा-सुताश्चत्वारः ऋचयः, आद्य-मन्त्र-त्रयाणां अनुष्टुप् छन्दः, कांसोऽस्मीत्यस्याः चतुर्थ्या वृहती छन्दः, पञ्चम-षष्ठयोः त्रिष्टुप् छन्दः, ततोऽष्टावनुष्टुभः, अन्त्या प्रस्तार-पंक्तिः छन्दः । श्रीरग्निश्च देवते । हिरण्य-वर्णां बीजं । “तां म आवह जातवेद” शक्तिः । कीर्तिसमृद्धिं ददातु मे” कीलकम् । मम श्रीमहालक्ष्मी-प्रसाद-सिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
ऋष्यादि-न्यासः-
श्री-आनन्द-कर्दम-चिक्लीत-इन्दिरा-सुतेभ्यः ऋषिभ्यो नमः-शिरसि ।
अनुष्टुप्-बृहती-त्रिष्टुप्-प्रस्तार-पंक्ति-छन्दोभ्यो नमः-मुखे ।
श्रीरग्निश्च देवताभ्यां नमः – हृदि । हिरण्य-वर्णां बीजाय नमः गुह्ये ।
“तां म आवह जातवेद” शक्तये नमः – पादयो ।
कीर्तिसमृद्धिं ददातु मे” कीलकाय नमः नाभौ ।
मम श्रीमहालक्ष्मी-प्रसाद-सिद्धयर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे ।
अंग-न्यासः- ‘श्री-सूक्त’ के मन्त्रों में से एक-एक मन्त्र का उच्चारण करते हुए दाहिने हाथ की अँगुलियों से क्रमशः सिर, नेत्र, कान, नासिका, मुख, कण्ठ, दोनों बाहु, हृदय, नाभि, लिंग, पायु (गुदा), उरु (जाँघ), जानु (घुटना), जँघा और पैरों में न्यास करें । यथा –
१॰ ॐ हिरण्य-वर्णां हरिणीं, सुवर्ण-रजत-स्त्रजाम् ।
चन्द्रां हिरण्यमयीं लक्ष्मीं, जातवेदो म आवह ।। – शिरसि
२॰ ॐ तां म आवह जात-वेदो, लक्ष्मीमनप-गामिनीम् ।
यस्यां हिरण्यं विन्देयं, गामश्वं पुरूषानहम् ।। – नेत्रयोः
३॰ ॐ अश्वपूर्वां रथ-मध्यां, हस्ति-नाद-प्रबोधिनीम् ।
श्रियं देवीमुपह्वये, श्रीर्मा देवी जुषताम् ।। – कर्णयोः
४॰ ॐ कांसोऽस्मि तां हिरण्य-प्राकारामार्द्रां ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीं ।
पद्मे स्थितां पद्म-वर्णां तामिहोपह्वये श्रियम् ।। – नासिकायाम्
५॰ ॐ चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देव-जुष्टामुदाराम् ।
तां पद्म-नेमिं शरणमहं प्रपद्ये अलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणोमि ।। – मुखे
६॰ ॐ आदित्य-वर्णे तपसोऽधिजातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽक्ष बिल्वः ।
तस्य फलानि तपसा नुदन्तु मायान्तरायाश्च बाह्या अलक्ष्मीः ।। – कण्ठे
७॰ ॐ उपैतु मां दैव-सखः, कीर्तिश्च मणिना सह ।
प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन्, कीर्तिं वृद्धिं ददातु मे ।। – बाह्वोः
८॰ ॐ क्षुत्-पिपासाऽमला ज्येष्ठा, अलक्ष्मीर्नाशयाम्यहम् ।
अभूतिमसमृद्धिं च, सर्वान् निर्णुद मे गृहात् ।। – हृदये
९॰ ॐ गन्ध-द्वारां दुराधर्षां, नित्य-पुष्टां करीषिणीम् ।
ईश्वरीं सर्व-भूतानां, तामिहोपह्वये श्रियम् ।। – नाभौ
१०॰ ॐ मनसः काममाकूतिं, वाचः सत्यमशीमहि ।
पशूनां रूपमन्नस्य, मयि श्रीः श्रयतां यशः ।। – लिंगे
११॰ ॐ कर्दमेन प्रजा-भूता, मयि सम्भव-कर्दम ।
श्रियं वासय मे कुले, मातरं पद्म-मालिनीम् ।। – पायौ
१२॰ ॐ आपः सृजन्तु स्निग्धानि, चिक्लीत वस मे गृहे ।
नि च देवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले ।। – उर्वोः
१३॰ ॐ आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं, पिंगलां पद्म-मालिनीम् ।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो म आवह ।। – जान्वोः
१४॰ ॐ आर्द्रां यः करिणीं यष्टिं, सुवर्णां हेम-मालिनीम् ।
सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो ममावह ।। – जंघयोः
१५॰ ॐ तां म आवह जात-वेदो लक्ष्मीमनप-गामिनीम् ।
यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्वान् विन्देयं पुरूषानहम् ।। – पादयोः
षडङ्ग-न्यास – कर-न्यास – अंग-न्यास –
ॐ हिरण्य-मय्यै नमः अंगुष्ठाभ्यां नमः हृदयाय नमः
ॐ चन्द्रायै नमः तर्जनीभ्यां नमः शिरसे स्वाहा
ॐ रजत-स्रजायै नमः मध्यमाभ्यां नमः शिखायै वषट्
ॐ हिरण्य-स्रजायै नमः अनामिकाभ्यां नमः कवचाय हुम्
ॐ हिरण्यायै नमः कनिष्ठिकाभ्यां नमः नेत्र-त्रयाय वौषट्
ॐ हिरण्य-वर्णायै नमः करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः अस्त्राय फट्
दिग्-बन्धनः- “ॐ भूर्भुवः स्वरोम्” से दिग्-बन्धन करें ।
ध्यानः-
या सा पद्मासनस्था विपुल-कटि-तटी पद्म-पत्रायताक्षी,
गम्भीरावर्त्त-नाभि-स्तन-भार-नमिता शुभ्र-वस्त्रोत्तरीया ।
लक्ष्मीर्दिव्यैर्गन्ध-मणि-गण-खचितैः स्नापिता हेम-कुम्भैः,
नित्यं सा पद्म-हस्ता मम वसतु गृहे सर्व-मांगल्य-युक्ता ।।
अरुण-कमल-संस्था, तद्रजः-पुञ्ज-वर्णा,
कर-कमल-धृतेष्टा, भीति-युग्माम्बुजा च।
मणि-मुकुट-विचित्रालंकृता कल्प-जालैः
सकल-भुवन-माता ,सन्ततं श्रीः श्रियै नः।।
मानस-पूजनः- इस प्रकार ध्यान करके भगवती लक्ष्मी का मानस पूजन करें –
ॐ लं पृथ्वी-तत्त्वात्मकं गन्धं श्रीमहा-लक्ष्मी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (अधोमुख-कनिष्ठांगुष्ठ-मुद्रा) ।
ॐ हं आकाश-तत्त्वात्मकं पुष्पं श्रीमहा-लक्ष्मी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (अधोमुख-तर्जनी-अंगुष्ठ-मुद्रा) ।
ॐ यं वायु-तत्त्वात्मकं धूपं श्रीमहा-लक्ष्मी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (ऊर्ध्व-मुख-तर्जनी-अंगुष्ठ-मुद्रा) । ॐ रं वह्नयात्मकं दीपं श्रीमहा-लक्ष्मी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि । (ऊर्ध्व-मुख-मध्यमा-अंगुष्ठ-मुद्रा) ।
ॐ वं जल-तत्त्वात्मकं नैवेद्यं श्रीमहा-लक्ष्मी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (ऊर्ध्व-मुख-अनामिका-अंगुष्ठ-मुद्रा) ।
ॐ शं सर्व-तत्त्वात्मकं ताम्बूलं श्रीमहा-लक्ष्मी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (ऊर्ध्व-मुख-सर्वांगुलि-मुद्रा) ।
अब सर्व-देवोपयोगी पद्धति से अर्घ्य एवं पाद्य-आचमनीय आदि पात्रों की स्थापना करके पीठ-पूजन करें । ‘सर्वतोभद्र-मण्डल’ आदि पर निम्न ‘पूजन-यन्त्र’ की स्थापना करके मण्डूकादि-पर-तत्त्वान्त देवताओं की पूजा करें । तत्पश्चात् पूर्वादि-क्रम से भगवती लक्ष्मी की पीठ-शक्तियों की अर्चना करें ।
यथा – श्री विभूत्यै नमः, श्री उन्नत्यै नमः, श्री कान्त्यै नमः, श्री सृष्ट्यै नमः, श्री कीर्त्यै नमः, श्री सन्नत्यै नमः, श्री व्युष्ट्यै नमः, श्री उत्कृष्ट्यै नमः । मध्य में – ‘श्री ऋद्धयै नमः ।’ पुष्पाञ्जलि समर्पित कर मध्य में प्रसून-तूलिका की कल्पना करके – “श्री सर्व-शक्ति-कमलासनाय नमः” इस मन्त्र से समग्र ‘पीठ’ का पूजन करे । ‘सहस्रार’ में गुरुदेव का पूजन कर एवं उनसे आज्ञा लेकर पूर्व-वत् पुनः ‘षडंग-न्यास’ करे । भगवती लक्ष्मी का ध्यान कर पर-संवित्-स्वरुपिणी तेजो-मयी देवी लक्ष्मी को नासा-पुट से पुष्पाञ्जलि में लाकर आह्वान करे । यथा –
ॐ देवेशि ! भक्ति-सुलभे, परिवार-समन्विते !
तावत् त्वां पूजयिष्यामि, तावत् त्वं स्थिरा भव !
हिरण्य-वर्णां हरिणीं, सुवर्ण-रजत-स्रजाम् ।
चन्द्रां हिरण्य-मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो ममावह ।।
श्री महा-लक्ष्मि ! इहागच्छ, इहागच्छ, इह सन्तिष्ठ, इह सन्तिष्ठ, इह सन्निधेहि,
इह सन्निधेहि, इह सन्निरुध्वस्व, इह सन्निरुध्वस्व, इह सम्मुखी भव, इह अवगुण्ठिता भव ! आवाहनादि नव मुद्राएँ दिखाकर ‘अमृतीकरण’ एवं ‘परमीकरण’ करके –
“ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हौं हंसः श्रीमहा-लक्ष्मी-देवतायाः प्राणाः ।
ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हौं हंसः श्रीमहा-लक्ष्मी-देवतायाः जीव इह स्थितः । ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हौं हंसः श्रीमहा-लक्ष्मी-देवतायाः सर्वेन्द्रियाणि । ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हौं हंसः श्रीमहा-लक्ष्मी-देवतायाः वाङ्-मनो-चक्षु-श्रोत्र-घ्राण-प्राण-पदानि इहैवागत्य सुखं चिर तिष्ठन्तु स्वाहा ।।”
इस प्राण-प्रतिष्ठा-मन्त्र से लेलिहान-मुद्रा-पूर्वक प्राण-प्रतिष्ठा करे । उक्त प्रकार आवाहनादि करके यथोपलब्ध द्रव्यों से भगवती की राजसी पूजा करे । यथा –
१॰ आसन – ॐ तां म आवह जात-वेदो, लक्ष्मीमनप-गामिनीम् । यस्यां हिरण्यं विन्देयं, गामश्वं पुरूषानहम् ।। ।। हे महा-लक्ष्मि ! तुभ्यं पद्मासनं कल्पयामि नमः ।। देवी के वाम भाग में कमल-पुष्प स्थापित करके ‘सिंहासन-मुद्रा’ और ‘पद्म-मुद्रा’ दिखाए ।
२॰ अर्घ्य-दान – ॐ अश्वपूर्वां रथ-मध्यां, हस्ति-नाद-प्रबोधिनीम् । श्रियं देवीमुपह्वये, श्रीर्मा देवी जुषताम् ।। ।। हे महा-लक्ष्मि ! एतत् ते अर्घ्यं कल्पयामि स्वाहा ।। ‘कमल-मुद्रा’ से भगवती के शिर पर अर्घ्य प्रदान करे ।
३॰ पाद्य – ॐ कांसोऽस्मि तां हिरण्य-प्राकारामार्द्रां ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीं । पद्मे स्थितां पद्म-वर्णां तामिहोपह्वये श्रियम् ।। ।। हे महा-लक्ष्मि ! पाद्यं कल्पयामि नमः ।। चरण-कमलों में ‘पाद्य’ समर्पित करके प्रणाम करे ।
४॰ आचमनीय – ॐ चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देव-जुष्टामुदाराम् । तां पद्म-नेमिं शरणमहं प्रपद्ये अलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणोमि ।। ।। श्री महा-लक्ष्म्यै आचमनीयं कल्पयामि नमः ।। मुख में आचमन प्रदान करके प्रणाम करे ।
५॰ मधु-पर्क – ॐ आदित्य-वर्णे तपसोऽधिजातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽक्ष बिल्वः । तस्य फलानि तपसा नुदन्तु मायान्तरायाश्च बाह्या अलक्ष्मीः ।। ।। श्री महालक्ष्म्यै मधु-पर्क कल्पयामि स्वधा । पुनराचमनीयम् कल्पयामि ।। पुनः आचमन समर्पित करें ।
६॰ स्नान (सुगन्धित द्रव्यों से उद्वर्तन करके स्नान कराए) – ॐ उपैतु मां दैव-सखः, कीर्तिश्च मणिना सह । प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन्, कीर्तिं वृद्धिं ददातु मे ।। ।। श्री महा-लक्ष्म्यै स्नानं कल्पयामि नमः ।। ‘स्नान’ कराकर केशादि मार्जन करने के बाद वस्त्र प्रदान करे । इसके पूर्व पुनः आचमन कराए ।
७॰ वस्त्र – ॐ क्षुत्-पिपासाऽमला ज्येष्ठा, अलक्ष्मीर्नाशयाम्यहम् । अभूतिमसमृद्धिं च, सर्वान् निर्णुद मे गृहात् ।। ।। श्री महा-लक्ष्म्यै वाससी परिकल्पयामि नमः ।। पुनः आचमन कराए ।
८॰ आभूषण – ॐ गन्ध-द्वारां दुराधर्षां, नित्य-पुष्टां करीषिणीम् । ईश्वरीं सर्व-भूतानां, तामिहोपह्वये श्रियम् ।। ।। श्री महा-लक्ष्म्यै सुवर्णानि भूषणानि कल्पयामि ।।
९॰ गन्ध – ॐ मनसः काममाकूतिं, वाचः सत्यमशीमहि । पशूनां रूपमन्नस्य, मयि श्रीः श्रयतां यशः ।। ।। श्री महा-लक्ष्म्यै गन्धं समर्पयामि नमः ।।
१०॰ पुष्प – ॐ कर्दमेन प्रजा-भूता, मयि सम्भव-कर्दम । श्रियं वासय मे कुले, मातरं पद्म-मालिनीम् ।। ।। श्री महा-लक्ष्म्यै एतानि पुष्पाणि वौषट् ।। ११॰ धूप – ॐ आपः सृजन्तु स्निग्धानि, चिक्लीत वस मे गृहे । नि च देवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले ।। ॐ वनस्पति-रसोद्-भूतः, गन्धाढ्यो गन्धः उत्तमः । आघ्रेयः सर्व-देवानां, धूपोऽयं प्रतिगृह्यताम् ।। ।। श्री महा-लक्ष्म्यै धूपं आघ्रापयामि नमः ।।
१२॰ दीप – ॐ आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं, पिंगलां पद्म-मालिनीम् । चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो म आवह ।। ॐ सुप्रकाशो महा-दीपः, सर्वतः तिमिरापहः । स बाह्यान्तर-ज्योतिः, दीपोऽयं प्रति-गृह्यताम् ।। ।। श्री महा-लक्ष्म्यै प्रदीपं दर्शयामि नमः ।। दीपक दिखाकर प्रणाम करे । पुनः आचमन कराए ।
१३॰ नैवेद्य – देवी के समक्ष ‘चतुरस्र-मण्डल’ बनाकर उस पर ‘त्रिपादिका-आधार’ स्थापित करे । षट्-रस व्यञ्जन-युक्त ‘नैवेद्य-पात्र’ उस आधार पर रखें । ‘वायु-बीज’ (यं) नैवेद्य के दोषों को सुखाकर, ‘अग्नि-बीज’ (रं) से उसका दहन करे । ‘सुधा-बीज’ (वं) से नैवेद्य का ‘अमृतीकरण’ करें । बाँएँ हाथ के अँगूठे से नैवेद्य-पात्र को स्पर्श करते हुए दाहिने हाथ में सुसंस्कृत अमृत-मय जल-पात्र लेकर ‘नैवेद्य’ समर्पित करें – ॐ आर्द्रां यः करिणीं यष्टिं, सुवर्णां हेम-मालिनीम् । सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो ममावह ।। ॐ सत्पात्र-सिद्धं सुहविः, विविधानेक-भक्षणम् । नैवेद्यं निवेदयामि, सानुगाय गृहाण तत् ।। ।। श्री महा-लक्ष्म्यै नैवेद्यं निवेदयामि नमः ।। चुलूकोदक (दाईं हथेली में जल) से ‘नैवेद्य’ समर्पित करें । दूसरे पात्र में अमृतीकरण जल लेकर “ॐ हिरण्य-वर्णाम्” – इस प्रथम ऋचा का पाठ करके – “श्री महा-लक्ष्म्यै अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा” । श्री महा-लक्ष्मि ! अपोशनं कल्पयामि स्वाहा । तत्पश्चात् “प्राणाय स्वाहा” आदि का उच्चारण करते हुए ‘पञ्च प्राण-मुद्राएँ’ दिखाएँ । “हिरण्य-वर्णाम्” – इस प्रथम ऋचा का दस बार पाठ करके समर्पित करें । फिर ‘उत्तरापोशन’ कराएँ । ‘नैवेद्य-मुद्रा’ दिखाकर प्रणाम करें । ‘नैवेद्य-पात्र’ को ईशान या उत्तर दिशा में रखें । नैवेद्य-स्थान को जल से साफ कर ताम्बूल प्रदान करें ।
१४॰ ताम्बूल – ॐ तां म आवह जात-वेदो लक्ष्मीमनप-गामिनीम् । यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्वान् विन्देयं पुरूषानहम् ।। ।। श्री महा-लक्ष्मि ! ऐं हं हं हं इदम् ताम्बूलं गृहाण, स्वाहा ।। ‘ताम्बूल’ देकर प्रणाम करें । आवरण-पूजा भगवती से उनके परिवार की अर्चना हेतु अनुमति माँग कर ‘आवरण-पूजा’ करे । यथा – ॐ संविन्मयि ! परे देवि ! परामृत-रस-प्रिये ! अनुज्ञां देहि मे मातः ! परिवारार्चनाय ते ।।
प्रथम आवरण – केसरों में ‘षडंग-शक्तियों’ का पूजन करे –
१॰ हिरण्य-मय्यै नमः हृदयाय नमः । हृदय-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
२॰ चन्द्रायै नमः शिरसे स्वाहा । शिरः-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
३॰ रजत-स्रजायै नमः शिखायै वषट् । शिखा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः । ४॰ हिरण्य-स्रजायै नमः कवचाय हुम् । कवच-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः । ५॰ हिरण्यायै नमः नेत्र-त्रयाय वौषट् । नेत्र-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
६॰ हिरण्य-वर्णायै नमः अस्त्राय फट् । अस्त्र-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
प्रथम आवरण की पूजा कर फल भगवती को समर्पित करें । यथा –
ॐ अभीष्ट-सिद्धिं मे देहि, शरणागत-वत्सले !
भक्तया समर्पये तुभ्यं, प्रथमावरणार्चनम् ।।
पूजिताः तर्पिताः सन्तु महा-लक्ष्म्यै नमः ।। पुष्पाञ्जलि प्रदान करे ।
द्वितीय आवरण – पत्रों में पूर्व से प्रारम्भ करके वामावर्त-क्रम से ‘पद्मा, पद्म-वर्णा, पद्मस्था, आर्द्रा, तर्पयन्ती, तृप्ता, ज्वलन्ती’ एवं ‘स्वर्ण-प्राकारा’ का पूजन-तर्पण करे । यथा –
१॰ पद्मायै नमः । पद्मा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
२॰ पद्म-वर्णायै नमः । पद्म-वर्णा–श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
३॰ पद्मस्थायै नमः । पद्मस्था-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
४॰ आर्द्रायै नमः । आर्द्रा–श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
५॰ तर्पयन्त्यै नमः । तर्पयन्ती-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
६॰ तृप्तायै नमः । तृप्ता-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
७॰ ज्वलन्त्यै नमः । ज्वलन्ती-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
८॰ स्वर्ण-प्राकारायै नमः । स्वर्ण-प्राकारा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः । द्वितीय आवरण की पूजा कर फल भगवती को समर्पित करें ।
यथा – ॐ अभीष्ट-सिद्धिं मे देहि, शरणागत-वत्सले ! भक्तया समर्पये तुभ्यं, द्वितीयावरणार्चनम् ।। पूजिताः तर्पिताः सन्तु महा-लक्ष्म्यै नमः ।।
तृतीय आवरण – भू-पुर में इन्द्र आदि दिक्-पालों का पूजन-तर्पण करे ।
यथा – लं इन्द्राय नमः – पूर्वे । रं अग्न्ये नमः – अग्नि कोणे । यं यमाय नमः – दक्षिणे । क्षं निऋतये नमः – नैऋत-कोणे । वं वरुणाय नमः – पश्चिमे । यं वायवे नमः – वायु-कोणे । सं सोमाय नमः – उत्तरे । हां ईशानाय नमः – ईशान-कोणे । आं ब्रह्मणे नमः – इन्द्र और ईशान के बीच । ह्रीं अनन्ताय नमः – वरुण और निऋति के बीच । तृतीय आवरण की पूजा कर फल भगवती को समर्पित करें । यथा – ॐ अभीष्ट-सिद्धिं मे देहि, शरणागत-वत्सले ! भक्तया समर्पये तुभ्यं, तृतीयावरणार्चनम् ।। पूजिताः तर्पिताः सन्तु महा-लक्ष्म्यै नमः ।।
चतुर्थ आवरण – इन्द्रादि दिक्पालों के समीप ही उनके ‘वज्र’ आदि आयुधों का अर्चन करें । यथा – ॐ वं वज्राय नमः, ॐ वज्र-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः। ॐ शं शक्तये नमः, ॐ शक्ति-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः। ॐ दं दण्डाय नमः, ॐ दण्ड-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः। ॐ खं खड्गाय नमः, ॐ खड्ग-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः। ॐ पां पाशाय नमः, ॐ पाश-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः। ॐ अं अंकुशाय नमः, ॐ अंकुश-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः। ॐ गं गदायै नमः, ॐ गदा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः। ॐ त्रिं त्रिशूलाय नमः, ॐ त्रिशूल-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः। ॐ पं पद्माय नमः, ॐ पद्म-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः। ॐ चं चक्राय नमः, ॐ चक्र-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः। चतुर्थ आवरण की पूजा कर फल भगवती को समर्पित करें । यथा – ॐ अभीष्ट-सिद्धिं मे देहि, शरणागत-वत्सले ! भक्तया समर्पये तुभ्यं, चतुर्थावरणार्चनम् ।। पूजिताः तर्पिताः सन्तु महा-लक्ष्म्यै नमः ।।
प्रथम ऋचा से कर्णिका में महा-देवी महा-लक्ष्मी का पुष्प-धूप-गन्ध, दीप और नैवेद्य आदि उपचारों से पुनः पूजन करें । तत्पश्वात् पूजा-यन्त्र में देवी के समक्ष गन्ध-पुष्प-अक्षत से भगवती के ३२ नामों से पूजन-तर्पण करें ।
१॰ ॐ श्रियै नमः । श्री-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
२॰ ॐ लक्ष्म्यै नमः । लक्ष्मी-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
३॰ ॐ वरदायै नमः । वरदा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
४॰ ॐ विष्णु-पत्न्यै नमः । विष्णु-पत्नी-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
५॰ ॐ वसु-प्रदायै नमः । वसु-प्रदा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
६॰ ॐ हिरण्य-रुपिण्यै नमः । हिरण्य-रुपिणी-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
७॰ ॐ स्वर्ण-मालिन्यै नमः । स्वर्ण-मालिनी-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
८॰ ॐ रजत-स्रजायै नमः । रजत-स्रजा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
९॰ ॐ स्वर्ण-गृहायै नमः । स्वर्ण-गृहा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
१०॰ ॐ स्वर्ण-प्राकारायै नमः । स्वर्ण-प्राकारा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
११॰ ॐ पद्म-वासिन्यै नमः । पद्म-वासिनी-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
१२॰ ॐ पद्म-हस्तायै नमः । पद्म-हस्ता-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
१३॰ ॐ पद्म-प्रियायै नमः । पद्म-प्रिया-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
१४॰ ॐ मुक्तालंकारायै नमः । मुक्तालंकारा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
१५॰ ॐ सूर्यायै नमः । सूर्या-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
१६॰ ॐ चन्द्रायै नमः । चन्द्रा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
१७॰ ॐ बिल्व-प्रियायै नमः । बिल्व-प्रिया-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
१८॰ ॐ ईश्वर्यै नमः । ईश्वरी-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
१९॰ ॐ भुक्तयै नमः । भुक्ति-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
२०॰ ॐ प्रभुक्तयै नमः । प्रभुक्ति-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
२१॰ ॐ विभूत्यै नमः । विभूति-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
२२॰ ॐ ऋद्धयै नमः । ऋद्धि-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
२३॰ ॐ समृद्धयै नमः । समृद्धि-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
२४॰ ॐ तुष्टयै नमः । तुष्टि-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
२५॰ ॐ पुष्टयै नमः । पुष्टि-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
२६॰ ॐ धनदायै नमः । धनदा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
२७॰ ॐ धनेश्वर्यै नमः । धनेश्वरी-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
२८॰ ॐ श्रद्धायै नमः । श्रद्धा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
२९॰ ॐ भोगिन्यै नमः । भोगिनी-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
३०॰ ॐ भोगदायै नमः । भोगिनी-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
३१॰ ॐ धात्र्यै नमः । धात्री-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
३२॰ ॐ विधात्र्यै नमः । विधात्री-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
उपर्युक्त ३२ नामों से भगवती के निमित्त हविष्य ‘बलि’ प्रदान करने का भी विधान है । श्री-सूक्त की पन्द्रह ऋचाओं से नीराजन और प्रदक्षिणा करके पुष्पाञ्जलि प्रदान करे । तदुपरान्त पुनः न्यास करके श्री-सूक्त का पाठ करे । ‘क्षमापन-स्तोत्र’ का पाठ करके पूजन और पाठ का फल भगवती को समर्पित करके विसर्जन करे
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