मां सरस्वती देवी की उपासना
या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।
या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा ॥
भावार्थ :- जो कुन्द के फूल, चन्द्रमा, बर्फ और हार के समान श्वेत हैं, जो शुभ्र वस्त्र धारण करती हैं, जिनके हाथ उत्तम वीणा से सुशोभित हैं, जो श्वेत कमलासन पर बैठती हैं, ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देव जिनकी सदा स्तुति करते हैं और जो सब प्रकार की जड़ता हर लेती हैं, वे भगवती सरस्वती मेरा पालन करें ।
शुक्लां ब्रह्मविचार सार परमामाद्यां जगद्व्यापिनीं
वीणा-पुस्तक-धारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम्।
हस्ते स्फटिकमालिकां विदधतीं पद्मासने संस्थिताम्
वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम्॥
भावार्थ :- जिनका रूप श्वेत है, जो ब्रह्मविचार की परम तत्व हैं, जो सब संसार में फैले रही हैं, जो हाथों में वीणा और पुस्तक धारण किये रहती हैं, अभय देती हैं, मूर्खतारूपी अन्धकार को दूर करती हैं, हाथ में स्फटिकमणि की माला लिए रहती हैं, कमल के आसन पर विराजमान होती हैं और बुद्धि देनेवाली हैं, उन आद्या परमेश्वरी भगवती सरस्वती की मैं वन्दना करता हूँ ।
सिद्धवरसासणाणं, सिद्धाणं कम्मम्चक्कमुक्काणं।
कादूण णमोक्कारं, भक्तीए णमामि अंगादिं।।
भावार्थ :- जिनका अहिंसामय उत्कृष्ट जैनशासन लोक में प्रसिद्ध है तथा जो (घातिया और अघातिया रूप अष्ट) कर्मों के चक्र से मुक्त हो चुके हैं, ऐसे सिद्धों को नमस्कार कर भक्तिपूर्वक द्वादशांग रूप सरस्वती (बारह अंगों को मैं आचार्य कुन्दकुन्द नमस्कार करता हूँ।
आशासु राशी भवदंगवल्लि भासैव दासीकृत-दुग्धसिन्धुम् ।
मन्दस्मितैर्निन्दित-शारदेन्दुं वन्देऽरविन्दासन-सुन्दरि त्वाम् ॥
भावार्थ :- हे कमल पर बैठनेवाली सुन्दरी सरस्वती ! तुम सब दिशाओं में पुंजीभूत हुई अपनी देहलता की आभा से ही क्षीर-समुद्र को दास बनानेवाली और मन्द मुसकान से शरद् ऋतु के चन्द्रमा को तिरस्कृत करनेवाली हो, आपको मैं प्रणाम करता हूँ ।
शारदा शारदाम्बोजवदना वदनाम्बुजे ।
सर्वदा सर्वदास्माकं सन्निधिं सन्निधिं क्रियात् ॥
भावार्थ :- शरत्काल में उत्पन्न कमल के समान मुखवाली और सब मनोरथों को देनेवाली शारदा सब सम्पत्तियों के साथ मेरे मुख में सदा निवास करें ।
सरस्वति नमौ नित्यं भद्रकाल्यै नमो नम: ।
वेदवेदान्तवेदाङ्गविद्यास्थानेभ्य एव च ॥
भावार्थ :- सरस्वती को नित्य नमस्कार है, भद्रकाली को नमस्कार है और वेद, वेदान्त, वेदांग तथा विद्याओं के स्थानों को प्रणाम है ।
सरस्वतीं च तां नौमि वागधिष्ठातृ-देवताम् ।
देवत्वं प्रतिपद्यन्ते यदनुग्रहतो जनाः ॥
भावार्थ :- वाणी की अधिष्ठात्री उन देवी सरस्वती को प्रणाम करता हूँ, जिनकी कृपा से मनुष्य देवता बन जाता है ।
पातु नो निकषग्रावा मतिहेम्नः सरस्वती ।
प्राज्ञेतरपरिच्छेदं वचसैव करोति या ॥
भावार्थ :- बुद्धिरूपी सोने के लिए कसौटी के समान सरस्वती जी, जो केवल वचन से ही विद्धान् और मूर्खों की परीक्षा कर देती है, हमलोगों का पालन करें ।
सरस्वति महाभागे विद्ये कमललोचने ।
विद्यारूपे विशालाक्षि विद्यां देहि नमोस्तु ते ॥
भावार्थ :- हे महाभाग्यवती ज्ञानरूपा कमल के समान विशाल नेत्र वाली, ज्ञानदात्री सरस्वती ! मुझको विद्या दो, मैं आपको प्रणाम करता हूँ ।
लक्ष्मिर्मेधा धरा पुष्टिर्गौरी तृष्टिः प्रभा धृतिः ।
एताभिः पाहि तनुभिरष्टभिर्मां सरस्वती ॥
भावार्थ :- हे सरस्वती ! लक्ष्मी, मेघा, धरा, पुष्टि, गौरी, तुष्टि, प्रभा, धृति - इन आठ मूर्तियों से मेरी रक्षा करो ।
वीणाधरे विपुलमङ्गलदानशीले
भक्तार्तिनाशिनि विरिञ्चिहरीशवन्द्ये ।
कीर्तिप्रदेऽखिलमनोरथदे महार्हे
विद्याप्रदायिनि सरस्वतिनौमि नित्यम् ॥
भावार्थ :- हे वीणा धारण करनेवाली, अपार मंगल देनेवाली, भक्तों के दुःख छुड़ाने वाली, ब्रह्मा, विष्णु और शिव से वन्दित होनेवाली कीर्ति तथा मनोरथ देनेवाली, पूज्यवरा और विद्या देनेवाली सरस्वती ! आपको नित्य प्रणाम करता हूँ ।
श्वेताब्जपूर्ण-विमलासन-संस्थिते हे
श्वेताम्बरावृतमनोहरमंजुगात्रे ।
उद्यन्मनोज्ञ-सितपंकजमंजुलास्ये
विद्याप्रदायिनि सरस्वति नौमि नित्यम् ॥
भावार्थ :- हे श्वेत कमलों से भरे हुए निर्मल आसन पर विराजनेवाली, श्वेत वस्त्रों से ढके सुन्दर शरीरवाली, खिले हुए सुन्दर श्वेत कमल के समान मंजुल मुखवाली और विद्या देनेवाली सरस्वती ! आपको नित्य प्रणाम करता हूँ ।
मोहान्धकार-भरिते हृदये मदीये
मातः सदैव कुरु वासमुदारभावे ।
स्वीयाखिलावयव-निर्मलसुप्रभाभिः
शीघ्रं विनाशय मनोगतमन्धकारम् ॥
भावार्थ :- हे उदार बुद्धिवाली माँ ! मोहरूपी अन्धकार से भरे मेरे हृदय में सदा निवास करो और अपने सब अंगो की निर्मल कान्ति से मेरे मन के अन्धकार का शीघ्र नाश करो ।
मातस्त्वदीय-पदपंकज-भक्तियुक्ता
ये त्वां भजन्ति निखिलानपरान्विहाय ।
ते निर्जरत्वमिह यान्ति कलेवरेण
भूवह्नि-वायु-गगनाम्बु-विनिर्मितेन ॥
ब्रह्मा जगत् सृजति पालयतीन्दिरेशः
शम्भुर्विनाशयति देवि तव प्रभावैः ।
न स्यात्कृपा यदि तव प्रकटप्रभावे
न स्युः कथंचिदपि ते निजकार्यदक्षाः ॥
दोर्भिर्युक्ता चतुर्भिः स्फटिकमणिमयीमक्षमालां दधाना
हस्तेनैकेन पद्मं सितमपि च शुकं पुस्तकं चापरेण ।
भासा कुन्देन्दु-शंखस्फटिकमणिनिभा भासमानाऽसमाना
सा मे वाग्देवतेयं निवसतु वदने सर्वदा सुप्रसन्ना ॥
यदक्षर-पदभ्रष्टं मात्राहीनं च यद्भवेत् ।
तत्सर्वं क्षम्यतां देवि प्रसीद परमेश्वरि ॥
॥ इति श्रीसरस्वती स्तुती सम्पूर्णं॥
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।
या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा ॥
भावार्थ :- जो कुन्द के फूल, चन्द्रमा, बर्फ और हार के समान श्वेत हैं, जो शुभ्र वस्त्र धारण करती हैं, जिनके हाथ उत्तम वीणा से सुशोभित हैं, जो श्वेत कमलासन पर बैठती हैं, ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देव जिनकी सदा स्तुति करते हैं और जो सब प्रकार की जड़ता हर लेती हैं, वे भगवती सरस्वती मेरा पालन करें ।
शुक्लां ब्रह्मविचार सार परमामाद्यां जगद्व्यापिनीं
वीणा-पुस्तक-धारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम्।
हस्ते स्फटिकमालिकां विदधतीं पद्मासने संस्थिताम्
वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम्॥
भावार्थ :- जिनका रूप श्वेत है, जो ब्रह्मविचार की परम तत्व हैं, जो सब संसार में फैले रही हैं, जो हाथों में वीणा और पुस्तक धारण किये रहती हैं, अभय देती हैं, मूर्खतारूपी अन्धकार को दूर करती हैं, हाथ में स्फटिकमणि की माला लिए रहती हैं, कमल के आसन पर विराजमान होती हैं और बुद्धि देनेवाली हैं, उन आद्या परमेश्वरी भगवती सरस्वती की मैं वन्दना करता हूँ ।
सिद्धवरसासणाणं, सिद्धाणं कम्मम्चक्कमुक्काणं।
कादूण णमोक्कारं, भक्तीए णमामि अंगादिं।।
भावार्थ :- जिनका अहिंसामय उत्कृष्ट जैनशासन लोक में प्रसिद्ध है तथा जो (घातिया और अघातिया रूप अष्ट) कर्मों के चक्र से मुक्त हो चुके हैं, ऐसे सिद्धों को नमस्कार कर भक्तिपूर्वक द्वादशांग रूप सरस्वती (बारह अंगों को मैं आचार्य कुन्दकुन्द नमस्कार करता हूँ।
आशासु राशी भवदंगवल्लि भासैव दासीकृत-दुग्धसिन्धुम् ।
मन्दस्मितैर्निन्दित-शारदेन्दुं वन्देऽरविन्दासन-सुन्दरि त्वाम् ॥
भावार्थ :- हे कमल पर बैठनेवाली सुन्दरी सरस्वती ! तुम सब दिशाओं में पुंजीभूत हुई अपनी देहलता की आभा से ही क्षीर-समुद्र को दास बनानेवाली और मन्द मुसकान से शरद् ऋतु के चन्द्रमा को तिरस्कृत करनेवाली हो, आपको मैं प्रणाम करता हूँ ।
शारदा शारदाम्बोजवदना वदनाम्बुजे ।
सर्वदा सर्वदास्माकं सन्निधिं सन्निधिं क्रियात् ॥
भावार्थ :- शरत्काल में उत्पन्न कमल के समान मुखवाली और सब मनोरथों को देनेवाली शारदा सब सम्पत्तियों के साथ मेरे मुख में सदा निवास करें ।
सरस्वति नमौ नित्यं भद्रकाल्यै नमो नम: ।
वेदवेदान्तवेदाङ्गविद्यास्थानेभ्य एव च ॥
भावार्थ :- सरस्वती को नित्य नमस्कार है, भद्रकाली को नमस्कार है और वेद, वेदान्त, वेदांग तथा विद्याओं के स्थानों को प्रणाम है ।
सरस्वतीं च तां नौमि वागधिष्ठातृ-देवताम् ।
देवत्वं प्रतिपद्यन्ते यदनुग्रहतो जनाः ॥
भावार्थ :- वाणी की अधिष्ठात्री उन देवी सरस्वती को प्रणाम करता हूँ, जिनकी कृपा से मनुष्य देवता बन जाता है ।
पातु नो निकषग्रावा मतिहेम्नः सरस्वती ।
प्राज्ञेतरपरिच्छेदं वचसैव करोति या ॥
भावार्थ :- बुद्धिरूपी सोने के लिए कसौटी के समान सरस्वती जी, जो केवल वचन से ही विद्धान् और मूर्खों की परीक्षा कर देती है, हमलोगों का पालन करें ।
सरस्वति महाभागे विद्ये कमललोचने ।
विद्यारूपे विशालाक्षि विद्यां देहि नमोस्तु ते ॥
भावार्थ :- हे महाभाग्यवती ज्ञानरूपा कमल के समान विशाल नेत्र वाली, ज्ञानदात्री सरस्वती ! मुझको विद्या दो, मैं आपको प्रणाम करता हूँ ।
लक्ष्मिर्मेधा धरा पुष्टिर्गौरी तृष्टिः प्रभा धृतिः ।
एताभिः पाहि तनुभिरष्टभिर्मां सरस्वती ॥
भावार्थ :- हे सरस्वती ! लक्ष्मी, मेघा, धरा, पुष्टि, गौरी, तुष्टि, प्रभा, धृति - इन आठ मूर्तियों से मेरी रक्षा करो ।
वीणाधरे विपुलमङ्गलदानशीले
भक्तार्तिनाशिनि विरिञ्चिहरीशवन्द्ये ।
कीर्तिप्रदेऽखिलमनोरथदे महार्हे
विद्याप्रदायिनि सरस्वतिनौमि नित्यम् ॥
भावार्थ :- हे वीणा धारण करनेवाली, अपार मंगल देनेवाली, भक्तों के दुःख छुड़ाने वाली, ब्रह्मा, विष्णु और शिव से वन्दित होनेवाली कीर्ति तथा मनोरथ देनेवाली, पूज्यवरा और विद्या देनेवाली सरस्वती ! आपको नित्य प्रणाम करता हूँ ।
श्वेताब्जपूर्ण-विमलासन-संस्थिते हे
श्वेताम्बरावृतमनोहरमंजुगात्रे ।
उद्यन्मनोज्ञ-सितपंकजमंजुलास्ये
विद्याप्रदायिनि सरस्वति नौमि नित्यम् ॥
भावार्थ :- हे श्वेत कमलों से भरे हुए निर्मल आसन पर विराजनेवाली, श्वेत वस्त्रों से ढके सुन्दर शरीरवाली, खिले हुए सुन्दर श्वेत कमल के समान मंजुल मुखवाली और विद्या देनेवाली सरस्वती ! आपको नित्य प्रणाम करता हूँ ।
मोहान्धकार-भरिते हृदये मदीये
मातः सदैव कुरु वासमुदारभावे ।
स्वीयाखिलावयव-निर्मलसुप्रभाभिः
शीघ्रं विनाशय मनोगतमन्धकारम् ॥
भावार्थ :- हे उदार बुद्धिवाली माँ ! मोहरूपी अन्धकार से भरे मेरे हृदय में सदा निवास करो और अपने सब अंगो की निर्मल कान्ति से मेरे मन के अन्धकार का शीघ्र नाश करो ।
मातस्त्वदीय-पदपंकज-भक्तियुक्ता
ये त्वां भजन्ति निखिलानपरान्विहाय ।
ते निर्जरत्वमिह यान्ति कलेवरेण
भूवह्नि-वायु-गगनाम्बु-विनिर्मितेन ॥
ब्रह्मा जगत् सृजति पालयतीन्दिरेशः
शम्भुर्विनाशयति देवि तव प्रभावैः ।
न स्यात्कृपा यदि तव प्रकटप्रभावे
न स्युः कथंचिदपि ते निजकार्यदक्षाः ॥
दोर्भिर्युक्ता चतुर्भिः स्फटिकमणिमयीमक्षमालां दधाना
हस्तेनैकेन पद्मं सितमपि च शुकं पुस्तकं चापरेण ।
भासा कुन्देन्दु-शंखस्फटिकमणिनिभा भासमानाऽसमाना
सा मे वाग्देवतेयं निवसतु वदने सर्वदा सुप्रसन्ना ॥
यदक्षर-पदभ्रष्टं मात्राहीनं च यद्भवेत् ।
तत्सर्वं क्षम्यतां देवि प्रसीद परमेश्वरि ॥
॥ इति श्रीसरस्वती स्तुती सम्पूर्णं॥
II श्रीसरस्वती द्वादशनाम स्तोत्रम् II
`````````````````````````````````````````````````````````
सरस्वतीमहं वन्दे वीणापुस्तकधारिणीम् ।
हंसवाहसमायुक्तां विद्यादानकरीं मम ॥ १॥
प्रथमं भारती नाम द्वितीयं च सरस्वती ।
तृतीयं शारदा देवी चतुर्थं हंसवाहिनी ॥ २॥
पश्चमं जगति ख्याता षष्ठं वाणीश्वरी तथा ।
कौमारी सप्तमं प्रोक्ता अष्टमं ब्रह्मचारिणी ॥ ३॥
नवमं बुद्धिदात्री च दशमं वरदायिनी ।
एकादशं क्षुद्रघण्टा द्वादशं भुवनेश्वरी ॥ ४॥
ब्राह्मी द्वादशनामानि त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नरः ।
सर्वसिद्धिकरी तस्य प्रसन्ना परमेश्वरी ।
सा मे वसतु जिह्वाग्रे ब्रह्मरूपा सरस्वती ॥ ५॥
इति श्री सरस्वती द्वादशनाम स्तोत्रं सम्पूर्णम् ।
II श्रीसरस्वती द्वादश नामावलिः II
````````````````````````````````````````````````````
ॐ ऐं भारत्यै नमः । ॐ सरस्वत्यै नमः ।
ॐ शारदायै नमः । ॐ हंसवाहिन्यै नमः ।
ॐ जगतिख्यातायै नमः । ॐ वाणीश्वर्यै नमः ।
ॐ कौमार्यै नमः । ॐ ब्रह्मचारिण्यै नमः ।
ॐ बुद्धिदात्र्यै नमः । ॐ वरदायिन्यै नमः ।
ॐ क्षुद्रघण्टायै नमः । ॐ भुवनेश्वर्यै नमः । १२
II इति श्रीसरस्वतीद्वादशनामावलिः समाप्ता II
II श्रीब्रह्मा विरचित : श्रीसरस्वतीस्तोत्रम् II
``````````````````````````````````````````````````````````
ॐ अस्य श्रीसरस्वतीस्तोत्रमन्त्रस्य । ब्रह्मा ऋषिः । गायत्री छन्दः ।
श्रीसरस्वती देवता । धर्मार्थकाममोक्षार्थे जपे विनियोगः ।
आरूढा श्वेतहंसे भ्रमति च गगने दक्षिणे चाक्षसूत्रं
वामे हस्ते च दिव्याम्बरकनकमयं पुस्तकं ज्ञानगम्या ।
सा वीणां वादयन्ती स्वकरकरजपैः शास्त्रविज्ञानशब्दैः
क्रीडन्ती दिव्यरूपा करकमलधरा भारती सुप्रसन्ना ॥ १॥
श्वेतपद्मासना देवी श्वेतगन्धानुलेपना ।
अर्चिता मुनिभिः सर्वैः ऋर्षिभिः स्तूयते सदा ।
एवं ध्यात्वा सदा देवीं वाञ्छितं लभते नरः ॥ २॥
शुक्लां ब्रह्मविचारसारपरमामाद्यां जगद्व्यापिनीं
वीणापुस्तकधारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम् ।
हस्ते स्फाटिकमालिकां विदधतीं पद्मासने संस्थितां
वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम् ॥ ३॥
या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना ।
या ब्रह्माच्युतशङ्करप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा ॥ ४॥
ह्रीं ह्रीं हृद्यैकबीजे शशिरुचिकमले कल्पविस्पष्टशोभे
भव्ये भव्यानुकूले कुमतिवनदवे विश्ववन्द्यांघ्रिपद्मे ।
पद्मे पद्मोपविष्टे प्रणतजनमनोमोदसम्पादयित्रि
प्रोत्फुल्लज्ञानकूटे हरिनिजदयिते देवि संसारसारे ॥ ५॥
ऐं ऐं ऐं दृष्टमन्त्रे कमलभवमुखाम्भोजभूतस्वरूपे
रूपारूपप्रकाशे सकलगुणमये निर्गुणे निर्विकारे ।
न स्थूले नैव सूक्ष्मेऽप्यविदितविभवे नापि विज्ञानतत्त्वे
विश्वे विश्वान्तरात्मे सुरवरनमिते निष्कले नित्यशुद्धे ॥ ६॥
ह्रीं ह्रीं ह्रीं जाप्यतुष्टे हिमरुचिमुकुटे वल्लकीव्यग्रहस्ते
मातर्मातर्नमस्ते दह दह जडतां देहि बुद्धिं प्रशस्ताम् ।
विद्ये वेदान्तवेद्ये परिणतपठिते मोक्षदे मुक्तिमार्गे ।
मार्गातीतस्वरूपे भव मम वरदा शारदे शुभ्रहारे ॥ ७॥
धीं धीं धीं धारणाख्ये धृतिमतिनतिभिर्नामभिः कीर्तनीये
नित्येऽनित्ये निमित्ते मुनिगणनमिते नूतने वै पुराणे ।
पुण्ये पुण्यप्रवाहे हरिहरनमिते नित्यशुद्धे सुवर्णे
मातर्मात्रार्धतत्त्वे मतिमति मतिदे माधवप्रीतिमोदे ॥ ८॥
ह्रूं ह्रूं ह्रूं स्वस्वरूपे दह दह दुरितं पुस्तकव्यग्रहस्ते
सन्तुष्टाकारचित्ते स्मितमुखि सुभगे जृम्भिणि स्तम्भविद्ये ।
मोहे मुग्धप्रवाहे कुरु मम विमतिध्वान्तविध्वंसमीडे
गीर्गौर्वाग्भारति त्वं कविवररसनासिद्धिदे सिद्धिसाध्ये ॥ ९॥
स्तौमि त्वां त्वां च वन्दे मम खलु रसनां नो कदाचित्त्यजेथा
मा मे बुद्धिर्विरुद्धा भवतु न च मनो देवि मे यातु पापम् ।
मा मे दुःखं कदाचित्क्वचिदपि विषयेऽप्यस्तु मे नाकुलत्वं
शास्त्रे वादे कवित्वे प्रसरतु मम धीर्मास्तु कुण्ठा कदापि ॥ १०॥
इत्येतैः श्लोकमुख्यैः प्रतिदिनमुषसि स्तौति यो भक्तिनम्रो
वाणी वाचस्पतेरप्यविदितविभवो वाक्पटुर्मृष्टकण्ठः ।
सः स्यादिष्टाद्यर्थलाभैः सुतमिव सततं पातितं सा च देवी
सौभाग्यं तस्य लोके प्रभवति कविता विघ्नमस्तं व्रयाति ॥ ११॥
र्निविघ्नं तस्य विद्या प्रभवति सततं चाश्रुतग्रन्थबोधः
कीर्तिस्रैलोक्यमध्ये निवसति वदने शारदा तस्य साक्षात् ।
दीर्घायुर्लोकपूज्यः सकलगुणनिधिः सन्ततं राजमान्यो
वाग्देव्याः सम्प्रसादात्त्रिजगति विजयी जायते सत्सभासु ॥ १२॥
ब्रह्मचारी व्रती मौनी त्रयोदश्यां निरामिषः ।
सारस्वतो जनः पाठात्सकृदिष्टार्थलाभवान् ॥ १३॥
पक्षद्वये त्रयोदश्यामेकविंशतिसंख्यया ।
अविच्छिन्नः पठेद्धीमान्ध्यात्वा देवीं सरस्वतीम् ॥ १४॥
सर्वपापविनिर्मुक्तः सुभगो लोकविश्रुतः ।
वाञ्छितं फलमाप्नोति लोकेऽस्मिन्नात्र संशयः ॥ १५॥
ब्रह्मणेति स्वयं प्रोक्तं सरस्वत्याः स्तवं शुभम् ।
प्रयत्नेन पठेन्नित्यं सोऽमृतत्त्वाय कल्पते ॥ १६॥
॥ इति श्रीमद्ब्रह्मणा विरचितं सरस्वतीस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
II श्रीइन्द्रकृत : श्रीसरस्वतीस्तोत्रम् II
``````````````````````````````````````````````````````````````````````````
भृङ्गनील-नीलाञ्जनालका, पद्मराग-गाङ्गेय-मौलिका ।
पूर्णचन्द्र-बिम्बोज्ज्वलानना, श्रीसरस्वती मे प्रसीदतु ॥ १॥
फुल्लनेत्र-पङ्केरुहान्विता, रत्नकॢप्त-ताटङ्क-भूषिता ।
चम्पक-प्रसूनाभ-नासिका, श्रीसरस्वती मे प्रसीदतु ॥ २॥
दर्पण-प्रभा-गण्ड-मण्डला, पल्लवाधरा दन्त-कुट्मला ।
मन्दहासिनी कम्बु-कन्धरा, श्रीसरस्वती मे प्रसीदतु ॥ ३॥
दीर्घ-बाहुका चातिकोमला, रत्न-कञ्चुका पीवर-स्तना ।
स्वर्ण-मौक्तिका कर्ण-भूषणा, श्रीसरस्वती मे प्रसीदतु ॥ ४॥
मञ्जु-भाषणा चार्वलित्रयी, सुन्दरोदरा निम्ननाभिका ।
लम्बितोदराधार-मेखला, श्रीसरस्वती मे प्रसीदतु ॥ ५॥
सूक्ष्म-मध्यमा भूनितम्बिनी, रत्नदन्ति-तुण्डोरु-मण्डिता ।
ब्रह्मदण्ड-जानु-द्वयान्विता, श्रीसरस्वती मे प्रसीदतु ॥ ६॥
मारतूणि-काकार-जङ्घिका, रत्न-किङ्किणी पादनूपुरा ।
कूर्मपृष्ठ-देशाङ्घ्रि-पृष्ठका, श्रीसरस्वती मे प्रसीदतु ॥ ७॥
गूढगुल्फ-लावण्य-रञ्जिता, चन्द्रिकांशुका श्वेतवर्णिनी ।
बिन्दुवासिनी बैन्दव-प्रिया, श्रीसरस्वती मे प्रसीदतु ॥ ८॥
कालिका-रमा-पार्श्व-सेविता, वेदवेदिता भेदनाशिनी ।
निर्मलात्मिकाद्वैतरूपिणी, श्रीसरस्वती मे प्रसीदतु ॥ ९॥
वासरालया भूसुरार्चिता, गौतमी-नदी तीरवासिनी ।
ब्राह्मण-प्रियापार-वैभवा, श्रीसरस्वती मे प्रसीदतु ॥ १०॥
इन्द्रेणैवं कृतं स्तोत्रं ये पठन्त्यनिशं तु ते ।
सरस्वती-प्रसादेन प्रपद्यन्तेऽष्टसिद्धिकाः ॥
॥ इति श्री-इन्द्रकृत-सरस्वती-स्तोत्रम् ॥
``````````````````````````````````````````````````````````````````````````
भृङ्गनील-नीलाञ्जनालका, पद्मराग-गाङ्गेय-मौलिका ।
पूर्णचन्द्र-बिम्बोज्ज्वलानना, श्रीसरस्वती मे प्रसीदतु ॥ १॥
फुल्लनेत्र-पङ्केरुहान्विता, रत्नकॢप्त-ताटङ्क-भूषिता ।
चम्पक-प्रसूनाभ-नासिका, श्रीसरस्वती मे प्रसीदतु ॥ २॥
दर्पण-प्रभा-गण्ड-मण्डला, पल्लवाधरा दन्त-कुट्मला ।
मन्दहासिनी कम्बु-कन्धरा, श्रीसरस्वती मे प्रसीदतु ॥ ३॥
दीर्घ-बाहुका चातिकोमला, रत्न-कञ्चुका पीवर-स्तना ।
स्वर्ण-मौक्तिका कर्ण-भूषणा, श्रीसरस्वती मे प्रसीदतु ॥ ४॥
मञ्जु-भाषणा चार्वलित्रयी, सुन्दरोदरा निम्ननाभिका ।
लम्बितोदराधार-मेखला, श्रीसरस्वती मे प्रसीदतु ॥ ५॥
सूक्ष्म-मध्यमा भूनितम्बिनी, रत्नदन्ति-तुण्डोरु-मण्डिता ।
ब्रह्मदण्ड-जानु-द्वयान्विता, श्रीसरस्वती मे प्रसीदतु ॥ ६॥
मारतूणि-काकार-जङ्घिका, रत्न-किङ्किणी पादनूपुरा ।
कूर्मपृष्ठ-देशाङ्घ्रि-पृष्ठका, श्रीसरस्वती मे प्रसीदतु ॥ ७॥
गूढगुल्फ-लावण्य-रञ्जिता, चन्द्रिकांशुका श्वेतवर्णिनी ।
बिन्दुवासिनी बैन्दव-प्रिया, श्रीसरस्वती मे प्रसीदतु ॥ ८॥
कालिका-रमा-पार्श्व-सेविता, वेदवेदिता भेदनाशिनी ।
निर्मलात्मिकाद्वैतरूपिणी, श्रीसरस्वती मे प्रसीदतु ॥ ९॥
वासरालया भूसुरार्चिता, गौतमी-नदी तीरवासिनी ।
ब्राह्मण-प्रियापार-वैभवा, श्रीसरस्वती मे प्रसीदतु ॥ १०॥
इन्द्रेणैवं कृतं स्तोत्रं ये पठन्त्यनिशं तु ते ।
सरस्वती-प्रसादेन प्रपद्यन्तेऽष्टसिद्धिकाः ॥
॥ इति श्री-इन्द्रकृत-सरस्वती-स्तोत्रम् ॥
II याज्ञ्यवल्क्योक्त श्रीसरस्वतीस्तोत्रम् अथवा वाणीस्तवनम् II
``````````````````````````````````````````````````````````````````````````````````
अथ पञ्चमोऽध्यायः । नारायण उवाच ।
वाग्देवतायाः स्तवनं श्रूयतां सर्वकामदम् ।
महामुनिर्याज्ञवल्क्यो येन तुष्टाव तां पुरा ॥ १॥
गुरुशापाच्च स मुनिर्हतविद्यो बभूव ह ।
तदा जगाम दुह्खार्तो रविस्थानं च पुण्यदम् ॥ २॥
सम्प्राप्यतपसा सूर्यं कोणार्के दृष्टिगोचरे ।
तुष्टाव सूर्यं शोकेन रुरोद स पुनः पुनः ॥ ३॥
सूर्यस्तं पाठयामास वेदवेदाङ्गमीश्वरः ।
उवाच स्तुहि वाग्देवीं भक्त्या च श्रुतिहेतवे ॥ ४॥
तमित्युक्त्वा दीननाथो ह्यन्तर्धानं जगाम सः ।
मुनिस्नात्वा च तुष्टाव भक्तिनम्रात्मकन्धरः ॥ ५॥
याज्ञवल्क्य उवाच ।
कृपां कुरु जगन्मातर्मामेवं हततेजसम् ।
गुरुशापात्स्मृतिभ्रष्टं विद्याहीनं च दुःखितम् ॥ ६॥
ज्ञानं देहि स्मृतिं देहि विद्यां देहि देवते ।
प्रतिष्ठां कवितां देहि शाक्तं शिष्यप्रबोधिकाम् ॥ ७॥
ग्रन्थनिर्मितिशक्तिं च सच्छिष्यं सुप्रतिष्ठितम् ।
प्रतिभां सत्सभायां च विचारक्षमतां शुभाम् ॥ ८॥
लुप्तां सर्वां दैववशान्नवं कुरु पुनः पुनः ।
यथाऽङ्कुरं जनयति भगवान्योगमायया ॥ ९॥
ब्रह्मस्वरूपा परमा ज्योतिरूपा सनातनी ।
सर्वविद्याधिदेवी या तस्यै वाण्यै नमो नमः ॥ १०॥
यया विना जगत्सर्वं शश्वज्जीवन्मृतं सदा ।
ज्ञानाधिदेवी या तस्यै सरस्वत्यै नमो नमः ॥ ११॥
यया विना जगत्सर्वं मूकमुन्मत्तवत्सदा ।
वागधिष्ठातृदेवी या तस्यै वाण्यै नमो नमः ॥ १२॥
हिमचन्दनकुन्देन्दुकुमुदाम्भोजसंनिभा ।
वर्णाधिदेवी या तस्यै चाक्षरायै नमो नमः ॥ १३॥
विसर्ग बिन्दुमात्राणां यदधिष्ठानमेव च ।
इत्थं त्वं गीयसे सद्भिर्भारत्यै ते नमो नमः ॥ १४॥
यया विनाऽत्र संख्याकृत्संख्यां कर्तुं न शक्नुते ।
काल संख्यास्वरूपा या तस्यै देव्यै नमो नमः ॥ १५॥
व्याख्यास्वरूपा या देवी व्याख्याधिष्ठातृदेवता ।
भ्रमसिद्धान्तरूपा या तस्यै देव्यै नमो नमः ॥ १६॥
स्मृतिशक्तिर्ज्ञानशक्तिर्बुद्धिशक्तिस्वरूपिणी ।
प्रतिभा कल्पना शक्तिर्या च तस्यै नमो नमः ॥ १७॥
सनत्कुमारो ब्रह्माणं ज्ञानं पप्रच्छ यत्र वै ।
बभूव जडवत्सोऽपि सिद्धान्तं कर्तुमक्षमः ॥ १८॥
तदाऽऽजगाम भगवानात्मा श्रीकृष्ण ईश्वरः ।
उवाच स च तं स्तौहि वाणीमिति प्रजापते ॥ १९॥
स च तुष्टाव तां ब्रह्मा चाऽऽज्ञया परमात्मनः ।
चकार तत्प्रसादेन तदा सिद्धान्तमुत्तमम् ॥ २०॥
यदाप्यनन्तं पप्रच्छ ज्ञानमेकं वसुन्धरा ।
बभूव मूकवत्सोऽपि सिद्धान्तं कर्तुमक्षमः ॥ २१॥
तदा त्वां च स तुष्टाव सन्त्रस्तः कश्यपाज्ञया ।
ततश्चकार सिद्धान्तं निर्मलं भ्रमभञ्जनम् ॥ २२॥
व्यासः पुराणसूत्रं समपृच्छद्वाल्मिकिं यदा ।
var व्यासः पुराणसूत्रश्च समपृच्छतवाल्मिकिम् ।
मौनीभूतः स सस्मार त्वामेव जगदम्बिकाम् ॥ २३॥
तदा चकार सिद्धान्तं त्वद्वरेण मुनीश्वरः ।
स प्राप निर्मलं ज्ञानं प्रमादध्वंसकारणम् ॥ २४॥
पुराण सूत्रं श्रुत्वा स व्यासः कृष्णकलोद्भवः ।
त्वां सिषेवे च दध्यौ तं शतवर्षं च पुष्क्करे ॥ २५॥
तदा त्वत्तो वरं प्राप्य स कवीन्द्रो बभूव ह ।
तदा वेदविभागं च पुराणानि चकार ह ॥ २६॥
यदा महेन्द्रे पप्रच्छ तत्वज्ञानं शिवा शिवम् ।
क्षणं त्वामेव सञ्चिन्त्य तस्यै ज्ञानं दधौ विभुः ॥ २७॥
पप्रच्छ शब्दशास्त्रं च महेन्द्रस्च बृहस्पतिम् ।
दिव्यं वर्षसहस्रं च स त्वां दध्यौ च पुष्करे ॥ २८॥
तदा त्वत्तो वरं प्राप्य दिव्यं वर्षसहस्रकम् ।
उवाच शब्दशास्त्रं च तदर्थं च सुरेश्वरम् ॥ २९॥
अध्यापिताश्च यैः शिष्याः यैरधीतं मुनीश्वरैः ।
ते च त्वां परिसञ्चिन्त्य प्रवर्तन्ते सुरेश्वरि ॥ ३०॥
त्वं संस्तुता पूजिता च मुनीन्द्रमनुमानवैः ।
दैत्यैश्च सुरैश्चापि ब्रह्मविष्णुशिवादिभिः ॥ ३१॥
जडीभूतः सहस्रास्यः पञ्चवक्त्रश्चतुर्मुखः ।
यां स्तोतुं किमहं स्तौमि तामेकास्येन मानवः ॥ ३२॥
इत्युक्त्वा याज्ञवल्क्यश्च भक्तिनम्रात्मकन्धरः ।
प्रणनाम निराहारो रुरोद च मुहुर्मुहुः ॥ ३३॥
तदा ज्योतिः स्वरूपा सा तेनाऽदृष्टाऽप्युवाच तम् ।
सुकवीन्द्रो भवेत्युक्त्वा वैकुण्ठं च जगाम ह ॥ ३४॥
महामूर्खश्च दुर्मेधा वर्षमेकं च यः पठेत् ।
स पण्डितश्च मेधावी सुकविश्च भवेद्ध्रुवम् ॥ ३५॥
II इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे
याज्ञवल्क्योक्त वाणीस्तवनं नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥
II इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणे नवमस्कन्धे
याज्ञवल्क्यकृतं सरस्वतीस्तोत्रवर्णनं नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥
II ‘सरस्वती महा-स्तोत्र II
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सरस्वती महा-स्तोत्र प्रस्तुत ‘सरस्वती महा-स्तोत्र’ का एक वर्ष तक पाठ करने से मूर्ख व्यक्ति की भी मूर्खता दूर हो जाती है । नित्य-पाठ करने से पाठ-कर्त्ता मेधावी हो जाता है । यह महर्षि याज्ञवल्क्य का अनुभूत प्रयोग है ।
॥ याज्ञवल्क्य उवाच ॥
कृपां कुरु जगन्मातर्मामेवं हत-तेजसम् ।
गुरु-शापात् स्मृति-भ्रष्टं, विद्या-हीनं च दुःखितम् ।।१
ज्ञानं देहि स्मृतिं विद्याम्, शक्तिं शिष्य-प्रबोधिनीम् ।
ग्रन्थ-कर्तृत्व-शक्तिं च, सु-शिष्यं सु-प्रतिष्ठितम् ।।२
प्रतिभां सत्-सभायां च, विचार-क्षमतां शुभाम् ।
लुप्तं सर्वं दैव-योगात्, नवी-भूतम् पुनः कुरु ।।३
यथांकुरं भस्मनि च, करोति देवता पुनः ।
ब्रह्म-स्वरुपा परमा, ज्योति-रुपा-सनातनी ।।४
सर्व-विद्याधि-देवी या, तस्यै वाण्यै नमो नमः ।
विसर्ग-विन्दु-मात्रासु, यदधिष्ठानमेव च ।।५
तदधिष्ठात्री या देवी, तस्यै नीत्यै नमो नमः ।
व्याख्या-स्वरुपा सा देवी, व्याख्याऽधिष्ठात्री रुपिणी ।।६
यया विना प्रसंख्या-वान्, संख्यां कर्तुं न शक्यते ।
काल-संख्या-स्वरुपा या, तस्यै देव्यै नमो नमः ।।७
भ्रम-सिद्धान्त-रुपा या, तस्यै देव्यै नमो नमः ।
स्मृति-शक्ति-ज्ञान-शक्ति-बुद्धि-शक्ति-स्वरुपिणी ।।८
प्रतिभा-कल्पना-शक्तिः, या च तस्यै नमो नमः ।
सनत्कुमारो ब्रह्माणम्, ज्ञानं पप्रच्छ यत्र वै ।।९
बभूव मूक-वत्सोऽपि, सिद्धान्तम् कर्तुमक्षमः ।
तदा जगाम भगवान्, आत्मा श्रीकृष्ण ईश्वरः ।।१०
उवाच स च तां स्तौहि, वाणीमिष्टां प्रजा-पते ! ।
स च तुष्टाव तां ब्रह्मा, चाज्ञया परमात्मनः ।।११
चकार तत्-प्रसादेन, तदा सिद्धान्तमुत्तमम् ।
यदाऽप्यनन्तं पप्रच्छ, ज्ञानमेकं वसुन्धरा ।।१२
बभूव मूक-वत्सोऽपि, सिद्धान्तम् कर्तुमक्षमः ।
तदा तां स च तुष्टाव, सन्त्रस्त कश्यपाज्ञया ।।१३
ततश्चकार सिद्धान्तम्, निर्मलं भ्रम-भञ्जनम् ।
व्यासः पुराण-सूत्रं च, पप्रच्छ वाल्मीकिं यदा ।।१४
मौनी-भूतश्च संस्मार, तामेव जगदम्बिकाम् ।
तदा चकार सिद्धान्तम्, तद् वरेण मुनीश्वरः ।।१५
सम्प्राप्य निर्मलं ज्ञानं, भ्रमान्ध्य-ध्वंस-दीपकम् ।
पुराण-सूत्रं श्रुत्वा च, व्यासः कृष्ण-कुलोद्भवः ।।१६
तां शिवां वेददध्यौ च, शत-वर्षं च पुष्करे ।
तदा त्वत्तो वरं प्राप्य, सत्कवीन्द्रो बभूव ह ।।१७
तदा वेद-विभागं च, पुराणं च चकार सः ।
यदा महेन्द्रः पप्रच्छ, तत्त्व-ज्ञानं सदा-शिवम् ।।१८
क्षणं तामेव सञ्चिन्त्य, तस्मै ज्ञानं ददौ विभुः ।
पप्रच्छ शब्द-शास्त्रं च, महेन्द्रश्च वृहस्पतिम् ।।१९
दिव्यं वर्ष-सहस्रं च, स त्वां दध्यौ च पुष्करे ।
तदा त्वत्तो वरम् प्राप्य, दिव्य-वर्ष-सहस्रकम् ।।२०
उवाच शब्द-शास्त्रं च, तदर्थं च सुरेश्वरम् ।
अध्यापिताश्च ये शिष्याः, यैरधीतं मुनीश्वरैः ।।२१
ते च तां परि-सञ्चिन्त्य, प्रवर्तन्ते सुरेश्वरिम् ।
त्वं संस्तुता पूजिता च, मुनीन्द्रैः मनु-मानवैः ।।२२
दैत्येन्द्रैश्च सुरैश्चापि, ब्रह्म-विष्णु-शिवादिभिः ।
जडी-भूतः सहस्रास्यः, पञ्च-वक्त्रश्चतुर्मुखः ।।२३
यां स्तोतुं किमहं स्तौमि, तामेकास्येन मानवः ।
इत्युक्त्वा याज्ञवल्क्यश्च, भक्ति-नम्रात्म-कन्धरः ।।२४
प्रणनाम निराहारो, रुरोद च मुहुर्मुहुः ।
ज्योति-रुपा महा-माया, तेन दृष्टाऽप्युवाच तम् ।।२५
स कवीन्द्रो भवेत्युक्त्वा, वैकुण्ठं च जगाम ह ।
याज्ञवल्क्य-कृतम् वाणी, स्तोत्रमेतत् तु यः पठेत् ।।२६
स कवीन्द्रो महा-वाग्मी, वृहस्पति-समो भवेत् ।
महा-मूर्खश्च दुर्बुद्धिः, वर्षमेकं यदा पठेत् ।।२७
सपण्डितश्च मेधावी, सु-कवीन्द्रो भवेद् ध्रुवम् ।।२८
।।श्रीमद्-देवी-भागवत, अ॰९-५।।
॥ श्रीसरस्वत्यष्टकम् ॥
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अमला विश्ववन्द्या सा कमलाकरमालिनी ।
विमलाभ्रनिभा वोऽव्यात्कमला या सरस्वती ॥ १॥
वार्णसंस्थाङ्गरूपा या स्वर्णरत्नविभूषिता ।
निर्णया भारति श्वेतवर्णा वोऽव्यात्सरस्वती ॥ २॥
वरदाभयरुद्राक्षवरपुस्तकधारिणी ।
सरसा सा सरोजस्था सारा वोऽव्यात्सरास्वती ॥ ३॥
सुन्दरी सुमुखी पद्ममन्दिरा मधुरा च सा ।
कुन्दभासा सदा वोऽव्याद्वन्दिता या सरस्वती ॥ ४॥
रुद्राक्षलिपिता कुम्भमुद्राधृतकराम्बुजा ।
भद्रार्थदायिनी साव्याद्भद्राब्जाक्षी सरस्वती ॥ ५॥
रक्तकौशेयरत्नाढ्या व्यक्तभाषणभूषणा ।
भक्तहृत्पद्मसंस्था सा शक्ता वोऽव्यात्सरस्वती ॥ ६॥
चतुर्मुखस्य जाया या चतुर्वेदस्वरूपिणी ।
चतुर्भुजा च सा वोऽव्याच्चतुर्वर्गा सरस्वती ॥ ७॥
सर्वलोकप्रपूज्या या पर्वचन्द्रनिभानना ।
सर्वजिह्वाग्रसंस्था सा सदा वोऽव्यात्सरस्वती ॥ ८॥
सरस्वत्यष्टकं नित्यं सकृत्प्रातर्जपेन्नरः।
अज्ञैर्विमुच्यते सोऽयं प्राज्ञैरिष्टश्च लभ्यते ॥ ९॥
II इति श्रीसरस्वत्यष्टकं समाप्तम् II
II ब्रह्मवैवर्तान्तर्गत श्रीसरस्वतीकवचम् II
ब्रह्मोवाच ।
शृणु वत्स प्रवक्ष्यामि कवचं सर्वकामदम् ।
श्रुतिसारं श्रुतिसुखं श्रुत्युक्तं श्रुतिपूजितम् ॥ ६३॥
उक्तं कृष्णेन गोलोके मह्यं वृन्दावने वने ।
रासेश्वरेण विभुना रासे वै रासमण्डले ॥ ६४॥
अतीव गोपनीयं च कल्पवृक्षसमं परम् ।
अश्रुताद्भुतमन्त्राणां समूहैश्च समन्वितम् ॥ ६५॥
यद्धृत्वा पठनाद्ब्रह्मन्बुद्धिमांश्च बृहस्पतिः ।
यद्धृत्वा भगवाञ्छुक्रः सर्वदैत्येषु पूजितः ॥ ६६॥
पठनाद्धारणाद्वाग्मी कवीन्द्रो वाल्मिको मुनिः ।
स्वायंभुवो मनुश्चैव यद्धृत्वा सार्वपूजितः ॥ ६७॥
कणादो गौतमः कण्वः पाणिनिः शाकटायनः ।
ग्रन्थं चकार यद्धृत्वा दक्षः कात्यायनः स्वयम् ॥ ६८॥
धृत्वा वेदविभागं च पुराणान्यखिलानि च ।
चकार लीलामात्रेण कृष्णद्वैपायनः स्वयम् ॥ ६९॥
शातातपश्च संवर्तो वसिष्ठश्च पराशरः ।
यद्धृत्वा पठनाद्ग्रन्थं याज्ञवल्क्यश्चकार सः ॥ ७०॥
ऋष्यशृङ्गो भरद्वाजश्चाऽऽस्तीको देवलस्तथा ।
जैगीषव्योऽथ जाबालिर्यत्द्धृत्वा सर्वपूजितः ॥ ७१॥
कवचस्यास्य विप्रेन्द्र ऋषिरेष प्रजापतिः ।
स्वयं बॄहस्पतिश्छन्दो देवो रासेश्वरः प्रभुः ॥ ७२॥
सर्वतत्त्वपरिज्ञाने सर्वार्थेऽपि च साधने ।
कवितासु च सर्वासु विनियोगः प्रकीर्तितः ॥ ७३॥
ओं ह्रीं सरस्वत्यै स्वाहा शिरो मे पातु सर्वतः ।
श्रीं वाग्देवतायै स्वाहा भालं मे सर्वदाऽवतु ॥ ७४॥
ओं सरस्वत्यै स्वाहेति श्रोत्रं पातु निरन्तरम् ।
ओं श्रीं ह्रीं भार्त्यै स्वाहा नेत्रयुग्मं सदाऽवतु ॥ ७५॥
ओं ह्रीं वाग्वादिन्यै स्वाहा नासां मे सर्वतोऽवतु ।
ह्रीं विद्याधिष्ठातृदेव्यै स्वाहा श्रोत्रं सदाऽवतु ॥ ७६॥
ओं श्रीं ह्रीं ब्राह्म्यै स्वाहेति दन्तपङ्क्तीः सदाऽवतु ।
ऐमित्येकाक्षरो मन्त्रो मम कण्ठं सदाऽवतु ॥ ७७॥
ओं श्रीं ह्रीं पातु मे ग्रीवां स्कन्धं मे श्रीं सदाऽवतु ।
श्रीं विद्याधिष्ठातृदेव्यै स्वाहा वक्षः सदाऽवतु ॥ ७८॥
ओं ह्रीं विद्यास्वरूपायै स्वाहा मे पातु नाभिकाम् ।
ओं ह्रीं क्लीं वाण्यै स्वाहेति मम प्र्ष्ठं सदाऽवतु ॥ ७९॥
ओं सर्ववर्णात्मिकायै पादयुग्मं सदाऽवतु ।
ओं वागधिष्ठातृदेव्यै सर्वाङ्गं मे सदाऽवतु ॥ ८०॥
ओं सर्वकण्ठवासिन्यै स्वाहा प्रच्यां सदाऽवतु ।
ओं ह्रीं जिह्वाग्रवासिन्यै स्वाहाऽग्निदिशि रक्षतु ॥ ८१॥
ओं ऐं श्रीं ह्रीं सरस्वत्यै बुधजनन्यै स्वाहा ।
सततं मन्त्रराजोऽयं दक्षिणे मां सदाऽवतु ॥ ८२॥
ओं ह्रीं श्रीं त्र्यक्षरो मन्त्रो नैरॄत्यां मे सदाऽवतु ।
कविजिह्वाग्रवासिन्यै स्वाहा मां वारुणेऽवतु ॥ ८३॥
ओं सदम्बकायै स्वाहा वायव्यै मां सदाऽवस्तु ।
ओं गद्यपद्यवासिन्यै स्वाहा मामुत्तरेऽवतु ॥ ८४॥
ओं सर्वशास्त्रवासिन्यै स्वाहैशान्यां सदाऽवतु ।
ओं ह्रीं सर्वपूजितायै स्वाहा चोर्ध्वं सदाऽवतु ॥ ८५॥
ओं ह्रीं पुस्तकवासिन्यै स्वाहाऽधो मां सदाऽवतु ।
ओं ग्रन्थबीजरूपायै स्वाहा मां सर्वतोऽवतु ॥ ८६॥
इति ते कथितं विप्र सर्वमन्त्रौघविग्रहम् ।
इदं विश्वजयं नाम कवचं ब्रह्मारूपकम् ॥ ८७॥
पुरा श्रुतं धर्मवक्त्रात्पर्वते गन्ध्मादने ।
तव स्नेहान्मयाऽऽख्यातं प्रवक्तव्यं न कस्यचित् ॥ ८८॥
गुरुमभ्यर्च्य विधिवद्वस्त्रालंकारचन्दनैः ।
प्रणम्य दण्डवद्भूमौ कवचं धारयेत्सुधीः ॥ ८९॥
पञ्चलक्षजपेनैव सिद्धं तु कवचं भवेत् ।
यदि स्यात्सिद्धकवचो बृहस्पतिसमो भवेत् ॥ ९०॥
महावाग्मी कवीन्द्रश्च त्रैलोक्यविजयी भवेत् ।
शक्नोति सर्व्ं जेतुं स कवचस्य प्रभावतः ॥ ९१॥
इदं ते काण्वशाखोक्तं कथितं कवचं मुने ।
स्तोत्रं पूजाविधानं च ध्यानं वै वन्दनं तथा ॥ ९२॥
II इति श्री ब्रह्मवैवर्ते महापुराणे प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे
सरस्वतीकवचं नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४॥
शृणु वत्स प्रवक्ष्यामि कवचं सर्वकामदम् ।
श्रुतिसारं श्रुतिसुखं श्रुत्युक्तं श्रुतिपूजितम् ॥ ६३॥
उक्तं कृष्णेन गोलोके मह्यं वृन्दावने वने ।
रासेश्वरेण विभुना रासे वै रासमण्डले ॥ ६४॥
अतीव गोपनीयं च कल्पवृक्षसमं परम् ।
अश्रुताद्भुतमन्त्राणां समूहैश्च समन्वितम् ॥ ६५॥
यद्धृत्वा पठनाद्ब्रह्मन्बुद्धिमांश्च बृहस्पतिः ।
यद्धृत्वा भगवाञ्छुक्रः सर्वदैत्येषु पूजितः ॥ ६६॥
पठनाद्धारणाद्वाग्मी कवीन्द्रो वाल्मिको मुनिः ।
स्वायंभुवो मनुश्चैव यद्धृत्वा सार्वपूजितः ॥ ६७॥
कणादो गौतमः कण्वः पाणिनिः शाकटायनः ।
ग्रन्थं चकार यद्धृत्वा दक्षः कात्यायनः स्वयम् ॥ ६८॥
धृत्वा वेदविभागं च पुराणान्यखिलानि च ।
चकार लीलामात्रेण कृष्णद्वैपायनः स्वयम् ॥ ६९॥
शातातपश्च संवर्तो वसिष्ठश्च पराशरः ।
यद्धृत्वा पठनाद्ग्रन्थं याज्ञवल्क्यश्चकार सः ॥ ७०॥
ऋष्यशृङ्गो भरद्वाजश्चाऽऽस्तीको देवलस्तथा ।
जैगीषव्योऽथ जाबालिर्यत्द्धृत्वा सर्वपूजितः ॥ ७१॥
कवचस्यास्य विप्रेन्द्र ऋषिरेष प्रजापतिः ।
स्वयं बॄहस्पतिश्छन्दो देवो रासेश्वरः प्रभुः ॥ ७२॥
सर्वतत्त्वपरिज्ञाने सर्वार्थेऽपि च साधने ।
कवितासु च सर्वासु विनियोगः प्रकीर्तितः ॥ ७३॥
ओं ह्रीं सरस्वत्यै स्वाहा शिरो मे पातु सर्वतः ।
श्रीं वाग्देवतायै स्वाहा भालं मे सर्वदाऽवतु ॥ ७४॥
ओं सरस्वत्यै स्वाहेति श्रोत्रं पातु निरन्तरम् ।
ओं श्रीं ह्रीं भार्त्यै स्वाहा नेत्रयुग्मं सदाऽवतु ॥ ७५॥
ओं ह्रीं वाग्वादिन्यै स्वाहा नासां मे सर्वतोऽवतु ।
ह्रीं विद्याधिष्ठातृदेव्यै स्वाहा श्रोत्रं सदाऽवतु ॥ ७६॥
ओं श्रीं ह्रीं ब्राह्म्यै स्वाहेति दन्तपङ्क्तीः सदाऽवतु ।
ऐमित्येकाक्षरो मन्त्रो मम कण्ठं सदाऽवतु ॥ ७७॥
ओं श्रीं ह्रीं पातु मे ग्रीवां स्कन्धं मे श्रीं सदाऽवतु ।
श्रीं विद्याधिष्ठातृदेव्यै स्वाहा वक्षः सदाऽवतु ॥ ७८॥
ओं ह्रीं विद्यास्वरूपायै स्वाहा मे पातु नाभिकाम् ।
ओं ह्रीं क्लीं वाण्यै स्वाहेति मम प्र्ष्ठं सदाऽवतु ॥ ७९॥
ओं सर्ववर्णात्मिकायै पादयुग्मं सदाऽवतु ।
ओं वागधिष्ठातृदेव्यै सर्वाङ्गं मे सदाऽवतु ॥ ८०॥
ओं सर्वकण्ठवासिन्यै स्वाहा प्रच्यां सदाऽवतु ।
ओं ह्रीं जिह्वाग्रवासिन्यै स्वाहाऽग्निदिशि रक्षतु ॥ ८१॥
ओं ऐं श्रीं ह्रीं सरस्वत्यै बुधजनन्यै स्वाहा ।
सततं मन्त्रराजोऽयं दक्षिणे मां सदाऽवतु ॥ ८२॥
ओं ह्रीं श्रीं त्र्यक्षरो मन्त्रो नैरॄत्यां मे सदाऽवतु ।
कविजिह्वाग्रवासिन्यै स्वाहा मां वारुणेऽवतु ॥ ८३॥
ओं सदम्बकायै स्वाहा वायव्यै मां सदाऽवस्तु ।
ओं गद्यपद्यवासिन्यै स्वाहा मामुत्तरेऽवतु ॥ ८४॥
ओं सर्वशास्त्रवासिन्यै स्वाहैशान्यां सदाऽवतु ।
ओं ह्रीं सर्वपूजितायै स्वाहा चोर्ध्वं सदाऽवतु ॥ ८५॥
ओं ह्रीं पुस्तकवासिन्यै स्वाहाऽधो मां सदाऽवतु ।
ओं ग्रन्थबीजरूपायै स्वाहा मां सर्वतोऽवतु ॥ ८६॥
इति ते कथितं विप्र सर्वमन्त्रौघविग्रहम् ।
इदं विश्वजयं नाम कवचं ब्रह्मारूपकम् ॥ ८७॥
पुरा श्रुतं धर्मवक्त्रात्पर्वते गन्ध्मादने ।
तव स्नेहान्मयाऽऽख्यातं प्रवक्तव्यं न कस्यचित् ॥ ८८॥
गुरुमभ्यर्च्य विधिवद्वस्त्रालंकारचन्दनैः ।
प्रणम्य दण्डवद्भूमौ कवचं धारयेत्सुधीः ॥ ८९॥
पञ्चलक्षजपेनैव सिद्धं तु कवचं भवेत् ।
यदि स्यात्सिद्धकवचो बृहस्पतिसमो भवेत् ॥ ९०॥
महावाग्मी कवीन्द्रश्च त्रैलोक्यविजयी भवेत् ।
शक्नोति सर्व्ं जेतुं स कवचस्य प्रभावतः ॥ ९१॥
इदं ते काण्वशाखोक्तं कथितं कवचं मुने ।
स्तोत्रं पूजाविधानं च ध्यानं वै वन्दनं तथा ॥ ९२॥
II इति श्री ब्रह्मवैवर्ते महापुराणे प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे
सरस्वतीकवचं नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४॥
II विश्वविजय सरस्वती कवच II
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श्रीब्रह्मवैवर्त-पुराण के प्रकृतिखण्ड, अध्याय ४ में मुनिवर भगवान् नारायण ने मुनिवर नारदजी को बतलाया कि ‘विप्रेन्द्र ! सरस्वती का कवच विश्व पर विजय प्राप्त कराने वाला है। जगत्स्त्रष्टा ब्रह्मा ने गन्धमादन पर्वत पर भृगु के आग्रह से इसे इन्हें बताया था।’
॥ ध्यान ॥
सरस्वतीं शुक्लवर्णां सस्मितां सुमनोहराम् ।
कोटिचन्द्रप्रभाजुष्टपुष्टश्रीयुक्तविग्रहाम् ॥
वह्निशुद्धांशुकाधानां सस्मितां सुमनोहराम् ।
रत्नसारेन्द्र खचितवरभूषणभूषिताम् ॥
सुपूजितां सुरगणैर्ब्रह्मविष्णुशिवादिभिः ।
वन्दे भक्त्या वन्दिता तां मुनीन्द्रमनुमानवैः ॥
(ब्रह्मवै॰पु॰ प्रकृतिखण्ड अ॰ ४ । ४६-४८)
॥ मन्त्र ॥ ” श्रीं ह्रीं सरस्वत्यै स्वाहा ॥” ॥ ब्रह्मोवाच ॥
श्रृणु वत्स प्रवक्ष्यामि कवचं सर्वकामदम् ।
श्रुतिसारं श्रुतिसुखं श्रुत्युक्तं श्रुतिपूजितम् ॥
उक्तं कृष्णेन गोलोके मह्यं वृन्दावने वने ।
रासेश्वरेण विभुना वै रासमण्डले ॥
अतीव गोपनीयं च कल्पवृक्षसमं परम् ।
अश्रुताद्भुतमन्त्राणां समूहैश्च समन्वितम् ॥
यद् धृत्वा भगवाञ्छुक्रः सर्वदैत्येषु पूजितः ।
यद् धृत्वा पठनाद् ब्रह्मन् बुद्धिमांश्च बृहस्पतिः ॥
पठणाद्धारणाद्वाग्मी कवीन्द्रो वाल्मिको मुनिः ।
स्वायम्भुवो मनुश्चैव यद् धृत्वा सर्वपूजितः ॥
कणादो गौतमः कण्वः पाणिनीः शाकटायनः ।
ग्रन्थं चकार यद् धृत्वा दक्षः कात्यायनः स्वयम् ॥
धृत्वा वेदविभागं च पुराणान्यखिलानि च ।
चकार लीलामात्रेण कृष्णद्वैपायनः स्वयम् ॥
शातातपश्च संवर्तो वसिष्ठश्च पराशरः ।
यद् धृत्वा पठनाद् ग्रन्थं याज्ञवल्क्यश्चकार सः ॥
ऋष्यशृङ्गो भरद्वाजश्चास्तीको देवलस्तथा ।
जैगीषव्योऽथ जाबालिर्यद् धृत्वा सर्वपूजिताः ॥
॥ मूल-पाठ ॥
कचवस्यास्य विप्रेन्द्र ऋषिरेष प्रजापतिः ।
स्वयं बृहतीच्छन्दो देवता शारदाम्बिका ॥ १ ॥
सर्वतत्त्वपरिज्ञाने सर्वार्थसाधनेषु च ।
कवितासु च सर्वासु विनियोगः प्रकीर्तितः ॥ २ ॥
श्रीं ह्रीं सरस्वत्यै स्वाहा शिरो मे पातु सर्वतः ।
श्रीं वाग्देवतायै स्वाहा भालं मे सर्वदावतु ॥ ३ ॥
ॐ सरस्वत्यै स्वाहेति श्रोत्रे पातु निरन्तरम् ।
ॐ श्रीं ह्रीं भारत्यै स्वाहा नेत्रयुग्मं सदावतु ॥ ४ ॥
ऐं ह्रीं वाग्वादिन्यै स्वाहा नासां मे सर्वतोऽवतु ।
ॐ ह्रीं विद्याधिष्ठातृदेव्यै स्वाहा ओष्ठं सदावतु ॥ ५ ॥
ॐ श्रीं ह्रीं ब्राह्मयै स्वाहेति दन्तपङ्क्तीः सदावतु ।
ऐमित्येकाक्षरो मन्त्रो मम कण्ठं सदावतु ॥ ६ ॥
ॐ श्रीं ह्रीं पातु मे ग्रीवां स्कन्धौ मे श्रीं सदावतु ।
ॐ श्रीं विद्याधिष्ठातृदेव्यै स्वाहा वक्षः सदावतु ॥ ७ ॥
ॐ ह्रीं विद्यास्वरुपायै स्वाहा मे पातु नाभिकाम् ।
ॐ ह्रीं ह्रीं वाण्यै स्वाहेति मम हस्तौ सदावतु ॥ ८ ॥
ॐ सर्ववर्णात्मिकायै पादयुग्मं सदावतु ।
ॐ वागधिष्ठातृदेव्यै स्वाहा सर्व सदावतु ॥ ९ ॥
ॐ सर्वकण्ठवासिन्यै स्वाहा प्राच्यां सदावतु ।
ॐ ह्रीं जिह्वाग्रवासिन्यै स्वाहाग्निदिशि रक्षतु ॥ १० ॥
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं सरस्वत्यै बुधजनन्यै स्वाहा ।
सततं मन्त्रराजोऽयं दक्षिणे मां सदावतु ॥ ११ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं त्र्यक्षरो मन्त्रो नैर्ऋत्यां मे सदावतु ।
कविजिह्वाग्रवासिन्यै स्वाहा मां वारुणेऽवतु ॥ १२ ॥
ॐ सर्वाम्बिकायै स्वाहा वायव्ये मां सदावतु ।
ॐ ऐं श्रीं गद्यपद्यवासिन्यै स्वाहा मामुत्तरेऽवतु ॥ १३ ॥
ॐ सर्वशास्त्रवासिन्यै स्वाहैशान्यां सदावतु ।
ॐ ह्रीं सर्वपूजितायै स्वाहा चोर्ध्वं सदावतु ॥ १४ ॥
ऐं ह्रीं पुस्तकवासिन्यै स्वाहाधो मां सदावतु ।
ॐ ग्रन्थबीजरुपायै स्वाहा मां सर्वतोऽवतु ॥ १५ ॥
॥ फल-श्रुति ॥
इति ते कथितं विप्र ब्रह्ममन्त्रौघविग्रहम् ।
इदं विश्वजयं नाम कवचं ब्रह्मरुपकम् ॥ १६ ॥
पुरा श्रुतं धर्मवक्त्रात् पर्वते गन्धमादने ।
तव स्नेहान्मयाऽऽख्यातं प्रवक्तव्यं न कस्यचित् ॥ १७ ॥
गुरुमभ्यर्च्य विधिवद् वस्त्रालंकारचन्दनैः ।
प्रणम्य दण्डवद् भूमौ कवचं धारयेत् सुधीः ॥ १८ ॥
पञ्चलक्षजपैनैव सिद्धं तु कवचं भवेत् ।
यदि स्यात् सिद्धकवचो बृहस्पतिसमो भवेत् ॥ १९ ॥
महावाग्मी कवीन्द्रश्च त्रैलोक्यविजयी भवेत् ।
शक्नोति सर्वं जेतुं स कवचस्य प्रसादतः ॥ २० ॥
इदं ते काण्वशाखोक्तं कथितं कवचं मुने ।
स्तोत्रं पूजाविधानं च ध्यानं वै वन्दनं तथा ॥ २१ ॥
॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते ध्यानमन्त्रसहितं विश्वविजय-सरस्वतीकवचं सम्पूर्णम् ॥ (प्रकृतिखण्ड ४ । ६३-९१)
ॐ सरस्वत्यै स्वाहेति श्रोत्रे पातु निरन्तरम् ।
ॐ श्रीं ह्रीं भारत्यै स्वाहा नेत्रयुग्मं सदावतु ॥ ४ ॥
ऐं ह्रीं वाग्वादिन्यै स्वाहा नासां मे सर्वतोऽवतु ।
ॐ ह्रीं विद्याधिष्ठातृदेव्यै स्वाहा ओष्ठं सदावतु ॥ ५ ॥
ॐ श्रीं ह्रीं ब्राह्मयै स्वाहेति दन्तपङ्क्तीः सदावतु ।
ऐमित्येकाक्षरो मन्त्रो मम कण्ठं सदावतु ॥ ६ ॥
ॐ श्रीं ह्रीं पातु मे ग्रीवां स्कन्धौ मे श्रीं सदावतु ।
ॐ श्रीं विद्याधिष्ठातृदेव्यै स्वाहा वक्षः सदावतु ॥ ७ ॥
ॐ ह्रीं विद्यास्वरुपायै स्वाहा मे पातु नाभिकाम् ।
ॐ ह्रीं ह्रीं वाण्यै स्वाहेति मम हस्तौ सदावतु ॥ ८ ॥
ॐ सर्ववर्णात्मिकायै पादयुग्मं सदावतु ।
ॐ वागधिष्ठातृदेव्यै स्वाहा सर्व सदावतु ॥ ९ ॥
ॐ सर्वकण्ठवासिन्यै स्वाहा प्राच्यां सदावतु ।
ॐ ह्रीं जिह्वाग्रवासिन्यै स्वाहाग्निदिशि रक्षतु ॥ १० ॥
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं सरस्वत्यै बुधजनन्यै स्वाहा ।
सततं मन्त्रराजोऽयं दक्षिणे मां सदावतु ॥ ११ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं त्र्यक्षरो मन्त्रो नैर्ऋत्यां मे सदावतु ।
कविजिह्वाग्रवासिन्यै स्वाहा मां वारुणेऽवतु ॥ १२ ॥
ॐ सर्वाम्बिकायै स्वाहा वायव्ये मां सदावतु ।
ॐ ऐं श्रीं गद्यपद्यवासिन्यै स्वाहा मामुत्तरेऽवतु ॥ १३ ॥
ॐ सर्वशास्त्रवासिन्यै स्वाहैशान्यां सदावतु ।
ॐ ह्रीं सर्वपूजितायै स्वाहा चोर्ध्वं सदावतु ॥ १४ ॥
ऐं ह्रीं पुस्तकवासिन्यै स्वाहाधो मां सदावतु ।
ॐ ग्रन्थबीजरुपायै स्वाहा मां सर्वतोऽवतु ॥ १५ ॥
॥ फल-श्रुति ॥
इति ते कथितं विप्र ब्रह्ममन्त्रौघविग्रहम् ।
इदं विश्वजयं नाम कवचं ब्रह्मरुपकम् ॥ १६ ॥
पुरा श्रुतं धर्मवक्त्रात् पर्वते गन्धमादने ।
तव स्नेहान्मयाऽऽख्यातं प्रवक्तव्यं न कस्यचित् ॥ १७ ॥
गुरुमभ्यर्च्य विधिवद् वस्त्रालंकारचन्दनैः ।
प्रणम्य दण्डवद् भूमौ कवचं धारयेत् सुधीः ॥ १८ ॥
पञ्चलक्षजपैनैव सिद्धं तु कवचं भवेत् ।
यदि स्यात् सिद्धकवचो बृहस्पतिसमो भवेत् ॥ १९ ॥
महावाग्मी कवीन्द्रश्च त्रैलोक्यविजयी भवेत् ।
शक्नोति सर्वं जेतुं स कवचस्य प्रसादतः ॥ २० ॥
इदं ते काण्वशाखोक्तं कथितं कवचं मुने ।
स्तोत्रं पूजाविधानं च ध्यानं वै वन्दनं तथा ॥ २१ ॥
॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते ध्यानमन्त्रसहितं विश्वविजय-सरस्वतीकवचं सम्पूर्णम् ॥ (प्रकृतिखण्ड ४ । ६३-९१)
II श्रीरुद्रयामलतन्त्रे श्रीसरस्वतीकवचम् II
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भैरव उवाच -
शृणु देवि! प्रवक्ष्यामि वाणीकवचमुत्तमम् ।
त्रैलोक्यमोहनं नाम दिव्यं भोगापवर्गदम् ॥ १॥
मूलमन्त्रमयं साध्यमष्टसिद्धिप्रदायकम् ।
सर्वैश्वर्यप्रदं लोके सर्वाङ्गमविनिश्चितम् ॥ २॥
पठनाच्छ्रवणात् देवि! महापातकनाशनम् ।
महोत्पातप्रशमनं मूलविद्यामनोहरम् ॥ ३॥
यद्धृत्वा कवचं ब्रह्मा विष्णुरीशः शचीपतिः ।
यमोऽपि वरुणश्चैव कुबेरोऽपि दिगीश्वराः ॥ ४॥
ब्रह्मा सृजति विश्वं च विष्णुर्दैत्यनिसूदनः ।
शिवः संहरते विश्व जिष्णुः सुमनसां पतिः ॥ ५॥
दिगीश्वराश्च दिक्पाला यथावदनुभूतये ।
त्रैलोक्यमोहनं वक्ष्ये भोगमोक्षैकसाधनम् ॥ ६॥
सर्वविद्यामयं ब्रह्मविद्यानिधिमनुत्तमम् ।
त्रैलोक्यमोहनस्यास्य कवचस्य प्रकीर्तितः ॥ ७॥
विनियोगः - ऋषिः कण्वो विराट् छन्दो देवी सरस्वती शुभा ।
अस्य श्रीसरस्वती देवता, ह्रीं बीजं, ॐ शक्तिः, ऐं कीलकं,
त्रिवर्गफलसाधने विनियोगः ।
ऋष्यादिन्यासः -
कण्वऋषये नमः शिरसि । विराट् छन्दसे नमः मुखे ।
देवीसरस्वत्यै नमः हृदि । ह्रीं बीजाय नमः गुह्ये ।
ॐ शक्तये नमः नाभौ । ऐं कीलकाय नमः पादयोः ।
त्रिवर्गफलसाधने विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे॥
ॐ ऐं ह्रीं ह्रीं पातु वाणी शिरो मे सर्वदा सती ।
ॐ ह्रीं सरस्वती देवी भालं पातु सदा मम ॥ ८॥
ॐ ह्रीं भ्रुवौ पातु दुर्गा दैत्यानां भयदायिनी ।
ॐ ऐं ह्रीं पातु नेत्रे सर्वमङ्गलमङ्गला ॥ ९॥
ॐ ह्रीं पातु श्रोत्रयुग्मं जगदभयकारिणी ।
ॐ ऐं नासा पातु नित्यं विद्या विद्यावरप्रदा ॥ १०॥
ॐ ह्रीं ऐं पातु वक्त्रं वाग्देवी भयनाशिनी ।
अं आं इं ईं पातु दन्तान् त्रिदन्तेश्वर पूजिताः ॥ ११॥
उं ऊं ऋं ॠं ऌं ॡं एं ऐं पातु ओष्ठौ च भारती ।
ओं औं अं अः पातु कण्ठं नीलकण्ठाङ्कवासिनी ॥ १२॥
कं खं गं घं ङं पायान्मे चांसौ देवेशपूजिता ।
चं छं जं झं ञं मे पातु वक्षो वक्षःस्थलाश्रया ॥ १३॥
टं ठं डं ढं णं पायान्मे पार्श्वौ पार्श्वनिवासिनी ।
तं थं दं धं नं मे पातु मध्ये लोकेशपूजिता ॥ १४॥
पं फं बं भं मं पायान्मे नाभिं ब्रह्मेशसेविता ।
यं रं लं वं पातु गुह्य नितम्बप्रियवादिनी ॥ १५॥
शं षं सं हं कटिं पातु देवी श्रीवगलामुखी ।
ऊरू ळं क्षं सदा पातु सर्वाविद्याप्रदा शिवा ॥ १६॥
सरस्वती पातु जङ्घे रमेश्वरप्रपूजिता ।
ॐ ह्रीं ऐं ह्रीं पातु पादौ पादपीठनिवासिनी ॥ १७॥
विस्मारितं च यत् स्थानं यद्देशो नाम वर्जितः ।
तत्सर्वं पातु वागेशी मूलविद्यामयी परा ॥ १८॥
पूर्वे मां पातु वाग्देवी वागेशी वह्निके च माम् ।
सरस्वती दक्षिणे च नैऋत्ये चानलप्रिया ॥ १९॥
पश्चिमे पातु वागीशा वायौ वेणामुखी तथा ।
उत्तरे पातु विद्या चैशान्यां विद्याधरी तथा ॥ २०॥
असिताङ्गो जलात् पातु पयसो रुरुभैरवः ।
चण्डश्च पातु वातान्मे क्रोधेशः पातु धावतः ॥ २१॥
उन्मत्तस्तिष्ठतः पातु भीषणश्चाग्रतोऽवतु ।
कपाली मार्गमध्ये च संहारश्च प्रवेशतः ॥ २२॥
पादादिमूर्धपर्यन्तं वपुः सर्वत्र मेऽवतु ।
शिरसः पादपर्यन्तं देवी सरस्वती मम ॥ २३॥
इतीदं कवचं वाणी मन्त्रगर्भं जयावहम् ।
त्रैलोक्यमोहनं नाम दारिद्र्यभयनाशनम् ॥ २४॥
सर्वरोगहरं साक्षात् सिद्धिदं पापनाशनम् ।
विद्याप्रदं साधकानां मूलविद्यामयं परम् ॥ २५॥
परमार्थप्रदं नित्यं भोगमोक्षैककारणम् ।
यः पठेत् कवचं देवि! विवादे शत्रुसङ्कटे ॥ २६॥
वादिमुखं स्तम्भयित्वा विजयी गृहमेष्यति ।
पठनात् कवचस्यास्य राज्यकोपः प्रशाम्यति ॥ २७॥
त्रिवारं यः पठेद् रात्रो श्मशाने सिद्धिमाप्नुयात् ।
रसैर्भूजे लिखेद् वर्म रविवारे महेश्वरि! ॥ २८॥
अष्टगन्धेर्लाक्षया च धूपदीपादितर्पणैः ।
सुवर्णगुटिकां तत्स्थां पूजयेत् यन्त्रराजवत् ॥ २९॥
गुटिकैषा महारूपा शुभा सरस्वतीप्रदा ।
सर्वार्थसाधनी लोके यथाऽभीष्टफलप्रदा ॥ ३०॥
गुटिकेयं शुभा देव्या न देया यस्य कस्यचित् ।
इदं कवचमीशानि मूलविद्यामयं ध्रुवम् ॥ ३१॥
विद्याप्रदं श्रीपदं च पुत्रपौत्रविवर्धनम् ।
आयुष्यकरं पुष्टिकरं श्रीकरं च यशः प्रदम् ॥ ३२॥
इतीदं कवचं देवि! त्रैलोक्यमोहनाभिधम ।
कवचं मन्त्रगर्भं तु त्रैलोक्य मोहनाभिधम् ॥ ३३॥
॥ इति श्रीरुद्रयामले तन्त्रे दशविद्यारहस्ये सरस्वती कवचम् ॥
II श्रीसरस्वती सूक्तम् II
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I ऋग्वेदं षष्ठं मण्डलं ६१ सूक्तम् ।
इयमददाद्रभसमृणच्युतं दिवोदासं वध्र्यश्वायं दाशुषे ।
या शश्वन्तमाचखशदावसं पणिं ता ते दात्राणि तविषा सरस्वती ॥ १॥
इयं शुष्मेभिर्बिसखा इवारुजत्सानुं गिरीणां तविषेभिरूर्मिभिः ।
पारावतघ्नीमवसे सुवृक्तिभिः सरस्वती मा विवासेम धीतिभिः ॥ २॥
सरस्वति देवनिदो नि बर्हय प्रजां विश्वस्य बृसयस्य मायिनः ।
उत क्षितिभ्योऽवनीरविन्दो विषमेभ्यो अस्रवो वाजिनीवति ॥ ३॥
प्रणो देवी सरस्वती वाजेभिर्वाजिनीवती । धीनामवित्र्यवतु ॥ ४।
यस्त्वा देवि सरस्वत्युपब्रूते धने हिते । इन्द्रं न वृत्रतूर्ये ॥ ५॥
त्वं देवि सरस्वत्यवा वाजेषु वाजिनि । रदा पूषेव नः सनिम् ॥ ६॥
उत स्या नः सरस्वती घोरा हिरण्यवर्तनिः । वृत्रघ्नी वष्टि सुष्टुतिम् ॥ ७॥
यस्या अनन्तो अह्रुतस्त्वेषश्चरिष्णुरर्णवः । अमश्चरति रोरुवत् ॥ ८॥
सा नो विश्वा अति द्विषः स्वसॄरन्या ऋतावरी । अतन्नहेव सूर्यः ॥ ९॥
उत नः प्रिया प्रियासु सप्तस्वसा सुजुष्टा । सरस्वती स्तोम्या भूत् ॥ १०॥
आपप्रुषी पार्थिवान्युरु रजो अन्तरिक्षम् । सरस्वती निदस्पातु ॥ ११॥
त्रिषधस्था सप्तधातुः पञ्चं जाता वर्धयन्ती । वाजेवाजे हव्याभूत् ॥ १२॥
प्र या महिम्ना महिनासु चेकिते द्युम्नेभिरन्या अपसामपस्तमा ।
रथ इव बृहती विभ्वने कृतोपस्तुत्या चिकितुषा सरस्वती ॥ १३॥
सरस्वत्यभि नो नेषि वस्यो माप स्फरीः पयसा मा न आ धक् ।
जुषस्व नः सख्या वेश्या च मा त्वत् क्षेत्राण्यरेणानि गन्म ॥ १४॥
प्र क्षोसा धायसा सस्र एषा सरस्वती धरुणमाय॑सी पूः ।
प्रबाबधाना रथ्येव याति विश्वा अपो महिना सिन्धुरन्याः ॥ १५॥
एकाचेतत् सरस्वती नदीनां शुचिर्यती गिरिभ्य आ समुद्रात् ।
रायश्चेतन्ती भुवनस्य भूरेर्घृतं पयो दुदुहे नाहुषाय ॥ १६॥
स वावृधे नर्यो योषणासु वृषा शिशुर्वृषभो यज्ञियासु ।
स वाजिनं मघवद्भ्यो दधाति वि सातये तन्वं मामृजीत ॥ १७॥
उत स्या नः सरस्वती जुषाणोप श्रवत् सुभगा यज्ञे अस्मिन् ।
मितज्ञुभिर्नमस्यैरियाना राया युजा चिदुत्तरा सखिभ्यः ॥ १८॥
इमा जुह्वाना युप्मदा नमोभिः प्रति स्तोमं सरस्वति जुषस्व ।
तव शर्मन् प्रियतमे दधाना उप स्थेयाम शरणं न वृक्षम् ॥ १९॥
अपमु ते सरस्वति वसिष्ठो द्वारावृतस्य सुभगे व्यावः ।
वर्ध शुभ्रे स्तुवते रासि वाजान् यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः ॥ २०॥
बृहदु गायिषे वचोऽसुर्या नदीनाम् ।
सरस्वतीमिन्महया सुवृक्तिभिः स्तोमैर्वसिष्ठ रोदसी ॥ २१॥
उभे यत्ते महिना शुभ्रे अन्धसी अधिक्षियन्ति पूरवः ।
सा नो बोध्यवित्री मरुत्सखा चोद राधो मघोनाम् ॥ २२॥
भद्रमिद् भद्रा कृणवत् सरस्वत्यकवारी चेतति वाजिनीवती ।
गृणाना जमदग्निवत् स्तुवाना च वसिष्ठवत् ॥ २३॥
जनीयन्तो न्वग्रवः पुत्रीयन्तः सुदानवः । सरस्वन्तं हवामहे ॥ २४॥
ये ते सरस्व ऊर्मयो मधुमन्तो घृतश्चुतः । तेभिर्नोऽविता भव ॥ २५॥
पीपिवांसं सरस्वतः स्तनं यो विश्वदर्शतः । भक्षीमहि प्रजामिषम् ॥ २६॥
अम्बितमे नदीतमे देवितमे सरस्वति ।
अप्रशस्ता इव स्मसि प्रशस्तिमम्ब नस्कृधि ॥ २७॥
त्वे विश्वा सरस्वति चितायूंषि देव्याम् ।
शुनहोत्रेषु मत्स्व प्रजां देवि दिदिड्ढि नः ॥ २८॥
इमा ब्रह्म सरस्वति जुषस्व वाजिनीवति ।
या ते मन्म गृत्समदा ऋतावरि प्रिया देवेषु जुह्वति ॥ २९॥
पावका नः सरस्वती बाजेभिर्वाजिनीवती । यज्ञ वष्टु धियावसूः ॥ ३०॥
चोदायित्री सूनृतानां चेतन्ती सुमतीनाम् । यज्ञं दधे सरस्वती ॥ ३१॥
महो अर्णः सरस्वती प्र चेतयति केतुना । धियो विश्वा वि रीजति ॥ ३२॥
सरस्वतीं दैव्यन्तो हवन्ते सरस्वतीमध्वरे तायमाने ।
सरस्वतीं सुकृतो अह्वयन्त सरस्वती दाशुषे वार्यं दात् ॥ ३३॥
सरस्वति या सरथं ययाथ स्वधाभिर्देवि पितृभिर्मदन्ती ।
आसद्यास्मिन् बर्हिषि मादयस्वानमीवा इष आ धेह्यस्मे ॥ ३४॥
सरस्वतीं यां पितरो हवन्ते दक्षिणा यज्ञमभिनक्षमाणाः ।
सहस्रार्घमिळो अत्र भागं रायस्पोषं यजमानेषु धेहि ॥ ३५॥
आ नो दिवो बृहतः पर्वतादा सरस्वती यजता गन्तु यज्ञम् ।
हवं देवी जुजुषाणा घृताची शग्मां नो वाचमुशती शृणोतु ॥ ३६॥
राकामहं सुहवीं सुष्टुती हुवे शृणोतु नः सुभगा बोधतु त्मना ।
सीव्यत्वपः सूच्याच्छिद्यमानया ददातु वीरं शतदाययमुक्थ्यम् ॥ ३७॥
यास्ते राके सुमतयः सुपेशसो याभिर्ददासि दाशुषे वसूनि ।
ताभिर्नो अद्य सुमना उपागहि सहस्रपोषं सुभगे रराणा ॥ ३८॥
सिनीवालि पृथुष्टुके या देवानामसि स्वसा ।
जुषस्व हव्यमाहुतं प्रजां देवि दिदिड्ढि नः ॥ ३९॥
या सुबाहुः स्वङ्गुरिः सुषूमा बहुसूवरी ।
तस्यै विश्पन्त्यै हविः सिनीवाल्यै जुहोतन ॥ ४०॥
या गुङ्गूर्या सिनीवाली या राका या सरस्वती ।
इन्द्राणीमह्व ऊतये वरुणानीं स्वस्तये ॥ ४१॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
II श्रीसरस्वत्यष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम् II
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सरस्वती महाभद्रा महामाया वरप्रदा ।
श्रीप्रदा पद्मनिलया पद्माक्षी पद्मवक्त्रका ॥ १॥
शिवानुजा पुस्तकभृत् ज्ञानमुद्रा रमा परा ।
कामरूपा महाविद्या महापातकनाशिनी ॥ २॥
महाश्रया मालिनी च महाभोगा महाभुजा ।
महाभागा महोत्साहा दिव्याङ्गा सुरवन्दिता ॥ ३॥
महाकाली महापाशा महाकारा महाङ्कुशा ।
पीता च विमला विश्वा विद्युन्माला च वैष्णवी ॥ ४॥
चन्द्रिका चन्द्रवदना चन्द्रलेखाविभूषिता ।
सावित्री सुरसा देवी दिव्यालङ्कारभूषिता ॥ ५॥
वाग्देवी वसुधा तीव्रा महाभद्रा महाबला ।
भोगदा भारती भामा गोविन्दा गोमती शिवा ॥ ६॥
जटिला विन्ध्यवासा च विन्ध्याचलविराजिता ।
चण्डिका वैष्णवी ब्राह्मी ब्रह्मज्ञानैकसाधना ॥ ७॥
सौदामिनी सुधामूर्तिस्सुभद्रा सुरपूजिता ।
सुवासिनी सुनासा च विनिद्रा पद्मलोचना ॥ ८॥
विद्यारूपा विशालाक्षी ब्रह्मजाया महाफला ।
त्रयीमूर्तिः त्रिकालज्ञा त्रिगुणा शास्त्ररूपिणी ॥ ९॥
शुम्भासुरप्रमथिनी शुभदा च स्वरात्मिका ।
रक्तबीजनिहंत्री च चामुण्डा चाम्बिका तथा ॥ १०॥
मुण्डकायप्रहरणा धूम्रलोचनमर्दना ।
सर्वदेवस्तुता सौम्या सुरासुरनमस्कृता ॥ ११॥
कालरात्री कलाधारा रूपसौभाग्यदायिनी ।
वाग्देवी च वरारोहा वाराही वारिजासना ॥ १२॥
चित्राम्बरा चित्रगन्धा चित्रमाल्यविभूषिता ।
कान्ता कामप्रदा वन्द्या विद्याधरसुपूजिता ॥ १३॥
श्वेतानना नीलभुजा चतुर्वर्गफलप्रदा ।
चतुराननसाम्राज्या रक्तमद्या निरञ्जना ॥ १४॥
हंसासना नीलजङ्घा ब्रह्मविष्णुशिवात्मिका ।
एवं सरस्वतीदेव्या नाम्नामष्टोत्तरं शतम् ॥ १५॥
II इति श्री सरस्वत्यष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम् सम्पूर्णम् ॥
II श्रीसरस्वती अष्टोत्तरनामावली II
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ॐ सरस्वत्यै नमः । ॐ महाभद्रायै नमः ।
ॐ महामायायै नमः । ॐ वरप्रदायै नमः ।
ॐ श्रीप्रदायै नमः । ॐ पद्मनिलयायै नमः ।
ॐ पद्माक्ष्यै नमः । ॐ पद्मवक्त्रायै नमः ।
ॐ शिवानुजायै नमः । ॐ पुस्तकभृते नमः । १०
ॐ ज्ञानमुद्रायै नमः । ॐ रमायै नमः ।
ॐ परायै नमः । ॐ कामरूपायै नमः ।
ॐ महाविद्यायै नमः । ॐ महापातक नाशिन्यै नमः ।
ॐ महाश्रयायै नमः । ॐ मालिन्यै नमः ।
ॐ महाभोगायै नमः । ॐ महाभुजायै नमः । २०
ॐ महाभागायै नमः । ॐ महोत्साहायै नमः ।
ॐ दिव्याङ्गायै नमः । ॐ सुरवन्दितायै नमः ।
ॐ महाकाल्यै नमः । ॐ महापाशायै नमः ।
ॐ महाकारायै नमः । ॐ महाङ्कुशायै नमः ।
ॐ पीतायै नमः । ॐ विमलायै नमः । ३०
ॐ विश्वायै नमः । ॐ विद्युन्मालायै नमः ।
ॐ वैष्णव्यै नमः । ॐ चन्द्रिकायै नमः ।
ॐ चन्द्रवदनायै नमः ।
ॐ चन्द्रलेखाविभूषितायै नमः ।
ॐ सावित्र्यै नमः । ॐ सुरसायै नमः ।
ॐ देव्यै नमः । ॐ दिव्यालङ्कारभूषितायै नमः । ४०
ॐ वाग्देव्यै नमः । ॐ वसुधायै नमः ।
ॐ तीव्रायै नमः । ॐ महाभद्रायै नमः ।
ॐ महाबलायै नमः । ॐ भोगदायै नमः ।
ॐ भारत्यै नमः । ॐ भामायै नमः ।
ॐ गोविन्दायै नमः । ॐ गोमत्यै नमः । ५०
ॐ शिवायै नमः । ॐ जटिलायै नमः ।
ॐ विन्ध्यावासायै नमः ।
ॐ विन्ध्याचलविराजितायै नमः ।
ॐ चण्डिकायै नमः । ॐ वैष्णव्यै नमः ।
ॐ ब्राह्मयै नमः । ॐ ब्रह्मज्ञानैकसाधनायै नमः ।
ॐ सौदामिन्यै नमः । ॐ सुधामूर्त्यै नमः । ६०
ॐ सुभद्रायै नमः । ॐ सुरपूजितायै नमः ।
ॐ सुवासिन्यै नमः । ॐ सुनासायै नमः ।
ॐ विनिद्रायै नमः । ॐ पद्मलोचनायै नमः ।
ॐ विद्यारूपायै नमः । ॐ विशालाक्ष्यै नमः ।
ॐ ब्रह्मजायायै नमः । ॐ महाफलायै नमः । ७०
ॐ त्रयीमूर्त्यै नमः । ॐ त्रिकालज्ञायै नमः ।
ॐ त्रिगुणायै नमः । ॐ शास्त्ररूपिण्यै नमः ।
ॐ शुम्भासुरप्रमथिन्यै नमः । ॐ शुभदायै नमः ।
ॐ स्वरात्मिकायै नमः । ॐ रक्तबीजनिहन्त्र्यै नमः ।
ॐ चामुण्डायै नमः । ॐ अम्बिकायै नमः । ८०
ॐ मुण्डकायप्रहरणायै नमः । ॐ धूम्रलोचनमर्दनायै नमः ।
ॐ सर्वदेवस्तुतायै नमः । ॐ सौम्यायै नमः ।
ॐ सुरासुर नमस्कृतायै नमः । ॐ कालरात्र्यै नमः ।
ॐ कलाधारायै नमः । ॐ रूपसौभाग्यदायिन्यै नमः ।
ॐ वाग्देव्यै नमः । ॐ वरारोहायै नमः । ९०
ॐ वाराह्यै नमः । ॐ वारिजासनायै नमः ।
ॐ चित्राम्बरायै नमः । ॐ चित्रगन्धायै नमः ।
ॐ चित्रमाल्यविभूषितायै नमः । ॐ कान्तायै नमः ।
ॐ कामप्रदायै नमः । ॐ वन्द्यायै नमः ।
ॐ विद्याधरसुपूजितायै नमः । ॐ श्वेताननायै नमः । १००
ॐ नीलभुजायै नमः । ॐ चतुर्वर्गफलप्रदायै नमः ।
ॐ चतुरानन साम्राज्यायै नमः ।
ॐ रक्तमध्यायै नमः । ॐ निरञ्जनायै नमः ।
ॐ हंसासनायै नमः । ॐ नीलजङ्घायै नमः ।
ॐ ब्रह्मविष्णुशिवान्मिकायै नमः । १०८
॥ इति श्रीसरस्वत्यष्टोत्तरशतनामावलिः समाप्ता ॥
II श्री सरस्वती चालीसा II
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॥दोहा॥
जनक जननि पद्मरज, निज मस्तक पर धरि।
बन्दौं मातु सरस्वती, बुद्धि बल दे दातारि॥
पूर्ण जगत में व्याप्त तव, महिमा अमित अनंतु।
दुष्जनों के पाप को, मातु तु ही अब हन्तु॥
॥चालीसा॥
जय श्री सकल बुद्धि बलरासी।जय सर्वज्ञ अमर अविनाशी॥
जय जय जय वीणाकर धारी।करती सदा सुहंस सवारी॥1
रूप चतुर्भुज धारी माता।सकल विश्व अन्दर विख्याता॥
जग में पाप बुद्धि जब होती।तब ही धर्म की फीकी ज्योति॥2
तब ही मातु का निज अवतारी।पाप हीन करती महतारी॥
वाल्मीकिजी थे हत्यारा।तव प्रसाद जानै संसारा॥3
रामचरित जो रचे बनाई।आदि कवि की पदवी पाई॥
कालिदास जो भये विख्याता।तेरी कृपा दृष्टि से माता॥4
तुलसी सूर आदि विद्वाना।भये और जो ज्ञानी नाना॥
तिन्ह न और रहेउ अवलम्बा।केव कृपा आपकी अम्बा॥5
करहु कृपा सोइ मातु भवानी।दुखित दीन निज दासहि जानी॥
पुत्र करहिं अपराध बहूता।तेहि न धरई चित माता॥6
राखु लाज जननि अब मेरी।विनय करउं भांति बहु तेरी॥
मैं अनाथ तेरी अवलंबा।कृपा करउ जय जय जगदंबा॥7
मधुकैटभ जो अति बलवाना।बाहुयुद्ध विष्णु से ठाना॥
समर हजार पाँच में घोरा।फिर भी मुख उनसे नहीं मोरा॥8
मातु सहाय कीन्ह तेहि काला।बुद्धि विपरीत भई खलहाला॥
तेहि ते मृत्यु भई खल केरी।पुरवहु मातु मनोरथ मेरी॥9
चंड मुण्ड जो थे विख्याता।क्षण महु संहारे उन माता॥
रक्त बीज से समरथ पापी।सुरमुनि हदय धरा सब काँपी॥10
काटेउ सिर जिमि कदली खम्बा।बारबार बिन वउं जगदंबा॥
जगप्रसिद्ध जो शुंभनिशुंभा।क्षण में बाँधे ताहि तू अम्बा॥11
भरतमातु बुद्धि फेरेऊ जाई।रामचन्द्र बनवास कराई॥
एहिविधि रावण वध तू कीन्हा।सुर नरमुनि सबको सुख दीन्हा॥12
को समरथ तव यश गुन गाना।निगम अनादि अनंत बखाना॥
विष्णु रुद्र जस कहिन मारी।जिनकी हो तुम रक्षाकारी॥13
रक्त दन्तिका और शताक्षी।नाम अपार है दानव भक्षी॥
दुर्गम काज धरा पर कीन्हा।दुर्गा नाम सकल जग लीन्हा॥14
दुर्ग आदि हरनी तू माता।कृपा करहु जब जब सुखदाता॥
नृप कोपित को मारन चाहे।कानन में घेरे मृग नाहे॥15
सागर मध्य पोत के भंजे।अति तूफान नहिं कोऊ संगे॥
भूत प्रेत बाधा या दुःख में।हो दरिद्र अथवा संकट में॥16
नाम जपे मंगल सब होई।संशय इसमें करई न कोई॥
पुत्रहीन जो आतुर भाई।सबै छांड़ि पूजें एहि भाई॥17
करै पाठ नित यह चालीसा।होय पुत्र सुन्दर गुण ईशा॥
धूपादिक नैवेद्य चढ़ावै।संकट रहित अवश्य हो जावै॥18
भक्ति मातु की करैं हमेशा। निकट न आवै ताहि कलेशा॥
बंदी पाठ करें सत बारा। बंदी पाश दूर हो सारा॥19
रामसागर बाँधि हेतु भवानी।कीजै कृपा दास निज जानी।20
॥दोहा॥
मातु सूर्य कान्ति तव, अन्धकार मम रूप।
डूबन से रक्षा करहु परूँ न मैं भव कूप॥
बलबुद्धि विद्या देहु मोहि, सुनहु सरस्वती मातु।
राम सागर अधम को आश्रय तू ही देदातु॥
II सरस्वती मां की आरती, ॐ जय सरस्वती माता II
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जय सरस्वती माता, मैया जय सरस्वती माता।
सद्गुण, वैभवशालिनि, त्रिभुवन विख्याता ।।जय.।।
चन्द्रवदनि, पद्मासिनि द्युति मंगलकारी।
सोहे हंस-सवारी, अतुल तेजधारी।। जय.।।
बायें कर में वीणा, दूजे कर माला।
शीश मुकुट-मणि सोहे, गले मोतियन माला ।।जय.।।
देव शरण में आये, उनका उद्धार किया।
पैठि मंथरा दासी, असुर-संहार किया।।जय.।।
वेद-ज्ञान-प्रदायिनी, बुद्धि-प्रकाश करो।।
मोहज्ञान तिमिर का सत्वर नाश करो।।जय.।।
धूप-दीप-फल-मेवा-पूजा स्वीकार करो।
ज्ञान-चक्षु दे माता, सब गुण-ज्ञान भरो।।जय.।।
माँ सरस्वती की आरती, जो कोई जन गावे।
हितकारी, सुखकारी ज्ञान-भक्ति पावे।।जय.।।
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