श्री गजेन्द्र मोक्ष
कैसे हुई गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र की उत्पत्ति :-`````````````````````````````````````````````````````````````
सबसे पहले यह जान लेना बेहद आवश्यक है कि आखिर गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र की उत्पत्ति हुई कैसे। इस संदर्भ में हम यहाँ एक पौराणिक कथा का जिक्र करने जा रहे हैं जिसमें इस स्तोत्र की उत्पत्ति का जिक्र मिलता है। एक बार की बात है हाथियों के राजा गजेंद्र अपने समूह के साथ घूमने निकले थे और इसी दौरान उन्हें जोर की प्यास लगी। अपनी प्यास बुझाने के लिए वो एक विशाल तालाब के तट पर पहुंचे और वहाँ जल ग्रहण किया। इसके बाद उस तालाब में मौजूद कमल के फूलों की खुशबु से मंत्रमुग्द होकर वो सरोवर में जल क्रीडा के लिए उतर गया। इसी तालाब में मौजूद एक मगरमच्छ (जिसे ग्राह भी कहते हैं) ने गजेंद्र यानी उस हाथी का एक पैर दबोच लिया। गजेंद्र को जब दर्द का एहसास हुआ तो पहले उसने मगरमच्छ से अपने आप को छुड़ाने की बहुत कोशिश की लेकिन उसके सभी प्रयास असफल रहे। इस बीच मौजूद अन्य हाथियों ने भी गजेंद्र को ग्राह के चंगुल से मुक्ति दिलाने का प्रयास किया लेकिन सभी उसमें नाकामयाब रहे। काफी समय बीत जाने के बाद गजेंद्र की सारी शक्तियां जब यथावत रह गयी तो उसने मोक्ष प्राप्ति के लिए श्री हरी विष्णु जी की आराधना करनी शुरू कर दी और एक स्तोत्र का जाप किया जिसे गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र कहा जाता है। गजेंद्र के स्तोत्र पाठ से खुश होकर विष्णु जी उस सरोवर पर आते हैं और अपने सुदर्शन चक्र से ग्राह यानी की उस मगरमच्छ के सिर को काट देते हैं। अब आप जान चुके होंगे कि किस प्रकार से गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र की उत्पत्ति हुई।
[ श्री मद्भागवत के अष्टम स्कन्ध में गजेन्द्रमोक्ष की कथा है। द्वितीय अध्याय में ग्राह के साथ गजेन्द्र के युद्ध का वर्णन है, तृतीय अध्याय में गजेन्द्र कृत भगवान् के स्तवन और गजेन्द्रमोक्ष का प्रसंग है और चतुर्थ अध्याय के गज-ग्राह के पूर्वजन्म का इतिहास है। ]
II गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र और उसका अर्थ II
************************************
श्री शुक उवाच
एवं व्यवसितो बुद्धया समाधाय मनो ह्रदि।
जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम् ॥1॥
अर्थ :- श्री शुकदेवजी ने कहा - बुद्धि के द्वारा निश्चय करके तथा मन को ह्रदय में स्थिर करके वह गजराज अपने पूर्वजन्म में सीखकर कण्ठस्थ किये हुए सर्वश्रेष्ठ एवं बार-बार दोहराने योग्य निम्नलिखित स्तोत्र का मन-ही-मन पाठ करने लगा।।१।।
गजेन्द्र उवाच
ॐ नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम् ।
पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि॥2॥
अर्थ :- जिनके प्रवेश करने पर (जिनकी चेतना को पाकर) ये जड शरीर और मन आदि भी चेतन बन जाते हैं, “ॐ” शब्द के द्वारा लक्षित तथा सम्पूर्ण शरीरों में प्रकृति एवं पुरुष रुप से प्रविष्ट हुए उन सर्वसमर्थ परमेश्वर को हम मन-ही-मन नमन करते हैं।।२।।
यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयम् ।
योऽस्मातपरस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम्।।३।।
अर्थ :- जिनके सहारे यह विश्व टिका है, जिनसे यह निकला है, जिन्होंने इसकी रचना की है और जो स्वयं ही इसके रुप में प्रकट हैं-फिर भी जो इस दृश्य जगत् से एवं उसकी कारणभूता प्रकृति से सर्वथा परे (विलक्षण) एवं श्रेष्ठ हैं-उन अपने-आप-बिना किसी कारण के-बने हुए भगवान् की मैं शरण लेता हूँ।।३।।
यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं क्वचिद्विभातं क्व च तत्तिरोहितम्।
अविद्धदृक् साक्ष्युभयं तदीक्षते स आत्ममूलोऽवतु मां परात्परः।।४।।
अर्थ :- अपनी संकल्प-शक्ति के द्वारा अपने ही स्वरुप में रचे हुए और इसीलिये सृष्टिकाल में प्रकट और प्रलयकाल में उसी प्रकार अप्रकट रहनेवाले इस शास्त्रप्रसिद्ध कार्य-कारण रुप जगत् को जो अकुण्ठित-दृष्टि होने के कारण साक्षी रुप से देखते रहते हैं-उनसे लिप्त नहीं होते, वे चक्षु आदि प्रकाशकों के भी परम प्रकाशक प्रभु मेरी रक्षा करें।।४।।
कालेन पञ्चत्वमितेषु कृत्स्नशो लोकेषु पालेषु च सर्वहेतुषु।
तमस्तदाऽऽसीद् गहनं गभीरं यस्तस्य पारेऽभिविराजते विभुः।।५।।
अर्थ :- समय के प्रवाह से सम्पूर्ण लोकों के एवं ब्रह्मादि लोकपालों के पंचभूतों में प्रवेश कर जाने पर तथा पंचभूतों से लेकर महत्तत्त्वपर्यन्त सम्पूर्ण कारणों के उनकी परमकारणरुपा प्रकृति ही बच रही थी। उस अन्धकार के परे अपने परम धाम में जो सर्वव्यापक भगवान् सब ऒर प्रकाशित रहते हैं, वे प्रभु मेरी रक्षा करें।।५।।
न यस्य देवा ऋषयः पदं विदुर्जन्तुः पुनः कोऽर्हति गन्तुमीरितुम्।
यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतो दुरत्ययानुक्रमणः स मावतु।।६।।
अर्थ :- भिन्न-भिन्न रुपों में नाट्य करने वाले अभिनेता के वास्तविक स्वरुप को जिस प्रकार साधारण दर्शक नहीं जान पाते, उसी प्रकार सत्त्वप्रधान देवता अथवा ऋषि भी जिनके स्वरुप को नहीं जानते, फिर दूसरा साधारण जीव तो कौन जान अथवा वर्णन कर सकता है-वे दुर्गम चरित्र वाले प्रभु मेरी रक्षा करें।।६।।
दिदृक्षवो यस्य पदं सुमंगलं विमुक्तसंगा मुनयः सुसाधवः।
चरन्त्यलोकव्रतमव्रणं वने भुतात्मभूताः सुह्रदः स मे गतिः।।७।।
अर्थ :- आसक्ति से सर्वथा छूटे हुए, सम्पूर्ण प्राणियों में आत्मबुद्धि रखने वाले, सबके अकारण हितू एवं अतिशय साधु-स्वभाव मुनिगण जिनके परम मंगलमय स्वरुप का साक्षात्कार करने की इच्छा से वन में रहकर अखण्ड ब्रह्मचर्य आदि अलौकिक व्रतों का पालन करते हैं, वे प्रभु ही मेरी गति हैं।।७।।
न विद्यते यस्य च जन्म कर्म वा न नामरुपे गुणदोष एव वा।
तथापि लोकाप्ययसम्भवाय यः स्वमायया यः तान्यनुकालमृच्छति।।८।।
अर्थ :- जिनका हमारी तरह कर्मवश न तो जन्म होता है और न जिनके द्वारा अहंकारप्रेरित कर्म ही होते हैं, जिनके निर्गुण स्वरुप का न तो कोई नाम है न रुप ही, फिर भी जो समयानुसार जगत् की सृष्टि एवं प्रलय (संहार)-के लिये स्वेच्छा से जन्म आदि को स्वीकार करते हैं।।८।।
तस्मै नमः परेशाय ब्रह्मणेऽनन्तशक्तये।
अरुपायोरुरुपाय नम आश्चर्यकर्मणे।।९।।
अर्थ :- उन अनन्तशक्तिसम्पन्न परब्रह्म परमेश्वर को नमस्कार है। उन प्राकृत आकार रहित एवं अनेकों आकारवाले अद्भुतकर्मा भगवान् को बार-बार नमस्कार है।।९।।
नम आत्मप्रदीपाय साक्षिणे परमात्मने।
नमो गिरां विदूराय मनसश्चेतसामपि।।१०।।
अर्थ :- स्वयंप्रकाश एवं सबके साक्षी परमात्मा को नमस्कार है। उन प्रभु को, जो मन, वाणी एवं चित्तवृत्तियों से भी सर्वथा परे हैं, बार-बार नमस्कार है।।१०।।
सत्त्वेन प्रतिलभ्याय नैष्कर्म्येण विपश्विता
नमः कैवल्यनाथाय निर्वाणसुखसंविदे।।११।।
अर्थ :- विवेकी पुरुष के द्वारा सत्त्वगुण विशिष्ट निवृत्तिधर्म के आचरण से प्राप्त होने योग्य, मोक्ष-सुख के देने वाले तथा मोक्ष-सुख की अनुभूति रुप प्रभु को नमस्कार है।।११।।
नमः शान्ताय घोराय मूढाय गुणधर्मिणे।
निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च।।१२।।
अर्थ :- सत्त्वगुण को स्वीकार करके शान्त, रजोगुण को स्वीकार करके घोर एवं तमोगुण को स्वीकार करके मूढ-से प्रतीत होने वाले, भेदरहित; अतएव सदा समभाव से स्थित ज्ञानघन प्रभु को नमस्कार है।।१२।।
क्षेत्रज्ञाय नमस्तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय साक्षिणे।
पुरुषायात्ममूलाय मूलप्रकृतये नमः।।१३।।
अर्थ :- शरीर, इन्द्रिय आदि के समुदायरुप सम्पूर्ण पिण्डों के ज्ञाता, सबके स्वामी एवं साक्षीरुप आपको नमस्कार है। सबके अन्तर्यामी, प्रकृति के भी परम कारण, किंतु स्वयं कारण रहित प्रभु को नमस्कार है।।१३।।
सर्वेन्द्रियगुणद्रष्ट्रे सर्वप्रत्ययहेतवे। असताच्छाययोक्ताय सदाभासाय ते नमः।।१४।। अर्थ :- सम्पूर्ण इन्द्रियों एवं उनके विषयों के ज्ञाता, समस्त प्रतीतियों के कारणरुप, सम्पूर्ण जड-प्रपञ्च एवं सबकी मूलभूता अविद्यारुप के द्वारा सूचित होने वाले तथा सम्पूर्ण विषयों में अविद्यारुप से भासने वाले आपको नमस्कार है।।१४।।
नमो नमस्तेऽखिलकारणाय निष्कारणायाद्भुतकारणाय।
सर्वागमाम्नायमहार्णवाय नमोऽपवर्गाय परायणाय।।१५।।
अर्थ :- सबके कारण किन्तु स्वयं कारणरहित तथा कारण होने पर भी परिणामरहित होने के कारण अन्य कारणों से विलक्षण कारण आपको बारम्बार नमस्कार है। सम्पूर्ण वेदों एवं शास्त्रों के परम तात्पर्य, मोक्षरुप एवं श्रेष्ठ पुरुषों की परम गति भगवान् को नमस्कार है।।१५।।
गुणारणिच्छन्नचिदुष्मपाय तत्क्षोभविस्फूर्जितमानसाय।
नैष्कर्म्यभावेन विवर्जितागमस्वयंप्रकाशाय नमस्करोमि।।१६।।
अर्थ :- जो त्रिगुणरुप काष्ठों में छिपे हुए ज्ञानमय अग्नि हैं, उक्त गुणों में हलचल होने पर जिनके मन में सृष्टि रचने की बाह्यवृत्ति जाग्रत् हो जाती है तथा आत्मतत्त्व की भावना के द्वारा विधि-निषेधरुप शास्त्र से ऊपर उठे हुए ज्ञानी महात्माऒं में जो स्वयं प्रकाशित रहते हैं, उन प्रभु को मैं नमस्कार करता हूँ ।।१६।।
मादृक्प्रपन्नपशुपाशविमोक्षणाय मुक्ताय भूरिकरुणाय नमोऽलयाय।
स्वांशेन सर्वतनुभृन्मनसि प्रतीतप्रत्यग्दृशे भगवते बृहते नमस्ते।।१७।।
अर्थ :- मुझ-जैसे शरणागत पशुतुल्य (अविद्याग्रस्त) जीव की अविद्यारुप फाँसी को सदा के लिये पूर्णरुप से काट देने वाले अत्यधिक दयालु एवं दया करने में कभी आलस्य न करने वाले नित्यमुक्त प्रभु को नमस्कार है। अपने अंश से सम्पूर्ण जीवों के मन में अन्तर्यामी रुप से प्रकट रहने वाले सर्वनियन्ता अनन्त परमात्मा आपको नमस्कार है ।।१७।।
आत्मात्मजाप्तगृहवित्तजनेषु सक्तैर्दुष्प्रापणाय गुणसंगविवर्जिताय।
मुक्तात्मभिः स्वह्रदये परिभाविताय ज्ञानात्मने भगवते नम ईश्वराय।।१८।।
अर्थ :- शरीर, पुत्र, मित्र, घर, सम्पत्ति एवं कुटुम्बियों में आसक्त लोगों के द्वारा कठिनता से प्राप्त होने वाले तथा मुक्त पुरुषों के द्वारा अपने ह्रदय में निरन्तर चिन्तित ज्ञानस्वरुप, सर्वसमर्थ भगवान् को नमस्कार है।।१८।।
यं धर्मकामार्थविमुक्तिकामा भजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति।
किं त्वाशिषो रात्यपि देहमव्ययं करोतु मेऽदभ्रदयो विमोक्षणम्।।१९।।
अर्थ :- जिन्हें धर्म, अभिलषित भोग, धन एवं मोक्ष की कामना से भजने वाले लोग अपनी मनचाही गति पा लेते हैं, अपितु जो उन्हें अन्य प्रकार के अयाचित भोग एवं अविनाशी पार्षद शरीर भी देते हैं, वे अतिशय दयालु प्रभु मुझे इस विपत्ति से सदा के लिये उबार लें।।१९।।
एकान्तिनो यस्य न कञ्चनार्थं वाञ्छन्ति ये वै भगवत्प्रपन्नाः।
अत्यद्भुतं तच्चरितं सुमंगलं गायन्त आनन्दसमुद्रमग्नाः।।२०।।
अर्थ :- जिनके अनन्य भक्त- जो वस्तुतः एकमात्र उन भगवान् के ही शरण हैं- धर्म, अर्थ आदि किसी भी पदार्थ को नहीं चाहते, अपितु उन्हीं के परम मंगलमय एवं अत्यन्त विलक्षण चरित्रों का गान करते हुए आनन्द के समुद्र के गोते लगाते रहते हैं।।२०।।
तमक्षरं ब्रह्म परं परेशमव्यक्तमाध्यात्मिकयोगगम्यम्।
अतीन्द्रियं सूक्ष्ममिवातिदूरमनन्तमाद्यं परिपूर्णमीडे।।२१।।
अर्थ :- उन अविनाशी, सर्वव्यापाक, सर्वश्रेष्ठ, ब्रह्मादि के भी नियामक, अभक्तों के लिये अप्रकट होने पर भी भक्तियोग द्वारा प्राप्त करने योग्य, अत्यन्त निकट होने पर भी माया के आवरण के कारण अत्यन्त दूर प्रतीत होनेवाले, इन्द्रियों के द्वारा अगम्य तथा अत्यन्त दुर्विज्ञेय, अन्तरहित किन्तु सबके आदि कारण एवं सब ऒर से परिपूर्ण उन भगवान् की मैं स्तुति करता हूँ।।२१।।
यस्य ब्रह्मादयो देवा वेदा लोकाश्चराचराः।
नामरुपविभेदेन फलव्या च कलया कृताः।।२२।।
अर्थ :- ब्रह्मादि समस्त देवता, चारों वेद तथा सम्पूर्ण चराचर जीव नाम और आकृति के भेद से जिनके अत्यन्त क्षुद्र अंश के द्वारा रचे गये हैं।।२२।
यथार्चिषोऽग्नेः सवितुर्गभस्तयो निर्यान्ति संयान्त्यसकृत् स्वरोचिषः।
तथा यतोऽयं गुणसम्प्रवाहो बुद्धिर्मनः खानि शरीरसर्गाः।।२३।।
अर्थ :- जिस प्रकार प्रज्वलित अग्नि से लपटें तथा सूर्य से किरणें बार-बार निकलती हैं और पुनः अपने कारण में लीन हो जाती हैं, उसी प्रकार बुद्धि, मन, इन्द्रियाँ और नाना योनियों के शरीर-यह गुणमय प्रपञ्च जिन स्वयंप्रकाश परमात्मा से प्रकट होता है और पुनः उन्हीं में लीन हो जाता है।।२३।।
स वै न देवासुरमर्त्यतिर्यङ् न स्त्री न षण्ढो न पुमान् न जन्तुः।
नायं गुणः कर्म न सन्न चासन् निषेधशेषो जयतादशेषः।।२४।।
अर्थ :- वे भगवान् वास्तव में न तो देवता हैं, न असुर, न मनुष्य हैं न तिर्यक् (मनुष्य से नीची-पशु, पक्षी आदि किसी) योनी के प्राणी हैं। न वे स्त्री हैं न पुरुष ऒर न नपुंसक ही हैं। न वे ऐसे कोई जीव हैं जिनका इन तीनों ही श्रेणियों में समावेश न हो सके। न वे गुण हैं न कर्म, न कार्य हैं न तो कारण ही। सबका निषेध हो जाने पर जो कुछ बच रहता है, वही उनका स्वरुप है और वे ही सब कुछ हैं। ऐसे भगवान् मेरे उद्धार के लिये आविर्भूत हों।।२४।।
जिजीविषे नाहमिहामुया किमन्तर्बहिश्चावृतयेभयोन्या।
इच्छामि कालेन न यस्य विप्लवस्तस्यात्मलोकावरणस्य मोक्षम्।।२५।।
अर्थ :- मैं इस ग्राह के चंगुल से छूटकर जीवित रहना नहीं चाहता; क्योंकि भीतर ऒर बाहर-सब ऒर से अज्ञान के द्वारा ढके हुए इस हाथी के शरीर से मुझे क्या लेना है। मैं तो आत्मा के प्रकाश को ढक देने वाले उस अज्ञान की निवृत्ति चाहता हूँ, जिसका कालक्रम से अपने-आप नाश नहीं होता, अपितु भगवान् कि दया से अथवा ज्ञान के उदय से होता है।।२५।।
सोऽहं विश्वसृजं विश्वमविश्वं विश्ववेदसम्।
विश्वात्मानमजं ब्रह्म प्रणतोऽस्मि परं पदम्।।२६।।
अर्थ :- इस प्रकार मोक्ष का अभिलाषी मैं विश्व के रचयिता, स्वयं विश्व के रुप में प्रकट तथा विश्व से सर्वथा परे, विश्व को खिलौना बनाकर खेलने वाले, विश्व में आत्मारुप से व्याप्त, अजन्मा, सर्वव्यापक एवं प्राप्तव्य वस्तुओं में सर्वश्रेष्ठ श्रीभगवान् को केवल प्रणाम ही करता हूँ-उनकी शरण में हूँ।।२६।।
योगरन्धितकर्माणो ह्रदि योगविभाविते।
योगिनो यं प्रपश्यन्ति योगेशं तं नतोऽस्म्यहम्।।२७।।
अर्थ :- जिन्होंने भगवद्भक्तिरुप योग के द्वारा कर्मों को जला डाला है, वे योगी लोग उसी योग के द्वारा शुद्ध किये हुए अपने ह्रदय में जिन्हें प्रकट हुआ देखते हैं, उन योगेश्वर भगवान् को मैं नमस्कार करता हूँ।।२७।।
नमो नमस्तुभ्यमसह्यवेगशक्तित्रयायाखिलधीगुणाय।
प्रपन्नपालाय दुरन्तशक्तये कदिन्द्रियाणामनवाप्यवर्त्मने।।२८।।
अर्थ :- जिनकी त्रिगुणात्मक (सत्त्व-रज-तमरुप) शक्तियों का रागरुप वेग असह्य है, जो सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयरुप में प्रतीत हो रहे हैं, तथापि जिनकी इन्द्रियाँ विषयों में ही रची-पची रहती हैं- ऐसे लोगों को जिनका मार्ग भी मिलना असम्भव है, उन शरणागतरक्षक एवं अपार शक्तिशाली आपको बार-बार नमस्कार है।।२८।।
नायं वेद स्वमात्मानं यच्छक्त्याहंधिया हतम्।
तं दुरत्ययामाहात्म्यं भगवन्तमितोऽस्म्यहम्।।२९।।
अर्थ :- जिनकी अविद्या नामक शक्ति के कार्यरुप अहंकार से ढके हुए अपने स्वरुप को यह जीव जान नहीं पाता, उन अपार महिमावाले भगवान् की शरण आया हूँ।।२९।।
श्री शुक उवाच I
एवं गजेन्द्रमुपवर्णितनिर्विशेषं ब्रह्मादयो विविधलिंगभिदाभिमानाः।
नैते यदोपससृपुर्निखिलात्मकत्वात् तत्राखिलामरमयो हरिराविरासीत्।।३०।।
अर्थ :- श्रीशुकदेवजी ने कहा - जिसने पूर्वोक्त प्रकार से भगवान् के भेदरहित निराकार स्वरुप का वर्णन किया था, उस गजराज के समीप जब ब्रह्मा आदि कोई भी देवता नहीं आये, जो भिन्न-भिन्न प्रकार के विशिष्ट विग्रहों को ही अपना स्वरुप मानते हैं, तब साक्षात् श्रीहरि-जो सबके आत्मा होने के कारण सर्वदेवस्वरुप हैं-वहाँ प्रकट हो गये।।३०।।
तं तद्वदार्त्तमुपलभ्य जगन्निवासः स्तोत्रं निशम्य दिविजैः सह संस्तुवद्भिः।
छन्दोमयेन गरुडेन समुह्यमानश्चक्रायुधोऽभ्यगमदाशु यतो गजेन्द्रः।।३१।।
अर्थ :- उपर्युक्त गजराज को उस प्रकार दुःखी देखकर तथा उसके द्वारा पढ़ी हुई स्तुति को सुनकर सुदर्शन-चक्रधारी जगदाधार भगवान् इच्छानुरुप वेग वाले गरुड़जी की पीठ पर सवार हो स्तवन करते हुए देवताओं के साथ तत्काल उस स्थान पर पहुँच गये, जहाँ वह हाथी था।।३१।।
सोऽन्तस्सरस्युरुबलेन गृहीत आर्त्तो दृष्ट्वा गरुत्मति हरिं ख उपात्तचक्रम्।
उत्क्षिप्य साम्बुजकरं गिरमाह कृच्छ्रान्नारायणाखिलगुरो भगवन् नमस्ते।।३२।।
अर्थ :- सरोवर के भीतर महाबली ग्राह के द्वारा पकड़े जाकर दुःखी हुए उस हाथी ने आकाश में गरुढ़ की पीठ पर चक्र को उठाये हुए भगवान् श्रीहरि को देखकर अपनी सूँड़ को- जिसमें उसने (पूजा के लिये) कमल का एक फूल ले रखा था-ऊपर उठाया और बड़ी ही कठिनता से ‘सर्वपूज्य भगवान् नारायण, आपको प्रणाम है’, यह वाक्य कहा।।३२।।
तं वीक्ष्य पीडितमजः सहसावतीर्य सग्राहमाशु सरसः कृपयोज्जहार।
ग्राहाद् विपाटितमुखादरिणा गजेन्द्रं सम्पश्यतां हरिमूमुचदुस्त्रियाणाम्।।३३।।
अर्थ :- उसे पीड़ित देखकर अजन्मा श्रीहरि एकाएक गरुढ़ को छोड़कर नीचे झील पर उतर आये। वे दया से प्रेरित हो ग्राहसहित उस गजराज को तत्काल झील से बाहर निकाल लाये और देवताओं के देखते-देखते चक्र से उस ग्राह का मुँह चीरकर उसके चंगुल से हाथी को उबार लिया।।३३।।
[ श्री मद्भागवत के अष्टम स्कन्ध में गजेन्द्रमोक्ष की कथा है। द्वितीय अध्याय में ग्राह के साथ गजेन्द्र के युद्ध का वर्णन है, तृतीय अध्याय में गजेन्द्र कृत भगवान् के स्तवन और गजेन्द्रमोक्ष का प्रसंग है और चतुर्थ अध्याय के गज-ग्राह के पूर्वजन्म का इतिहास है। श्रीमद्भागवत में गजेन्द्रमोक्ष-आख्यान के पाठ का माहात्म्य बतलाते हुए इसको स्वर्ग तथा यशदायक, कलियुग के समस्त पापों का नाशक, दुःस्वप्ननाशक और श्रेयःसाधक कहा गया है। तृतीय अध्याय का स्तवन बहुत ही उपादेय है। इसकी भाषा और भाव सिद्धान्त के प्रतिपादक और बहुत ही मनोहर है। स्वयं भगवान् का वचन है कि ‘जो रात्री के शेष में (ब्राह्ममुहूर्त के प्रारम्भ में) जागकर इस स्तोत्र के द्वारा मेरा स्तवन करते हैं, उन्हें मैं मृत्यु के समय निर्मल मति (अपनी स्मृति) प्रदान करता हूँ’। ]
***********************
II श्री गजेन्द्र मोक्ष कथा II
***********************
अति प्राचीन काल की बात है। द्रविड़ देश में एक पाण्ड्यवंशी राजा राज्य करते थे। उनका नाम था इंद्रद्युम्न। वे भगवान की आराधना में ही अपना अधिक समय व्यतीत करते थे। यद्यपि उनके राज्य में सर्वत्र सुख-शांति थी। प्रजा प्रत्येक रीति से संतुष्ट थी तथापि राजा इंद्रद्युम्न अपना समय राजकार्य में कम ही दे पाते थे। वे कहते थे कि भगवान विष्णु ही मेरे राज्य की व्यवस्था करते है। अतः वे अपने इष्ट परम प्रभु की उपासना में ही दत्तचित्त रहते थे।
राजा इंद्रद्युम्न के मन में आराध्य-आराधना की लालसा उत्तरोत्तर बढ़ती ही गई। इस कारण वे राज्य को त्याग कर मलय-पर्वत पर रहने लगे। उनका वेश तपस्वियों जैसा था। सिर के बाल बढ़कर जटा के रूप में हो गए थे। वे निरंतर परमब्रह्म परमात्मा की आराधना में तल्लीन रहते। उनके मन और प्राण भी श्री हरि के चरण-कमलों में मधुकर बने रहते। इसके अतिरिक्त उन्हें जगत की कोई वस्तु नहीं सुहाती। उन्हें राज्य, कोष, प्रजा तथा पत्नी आदि किसी प्राणी या पदार्थ की स्मृति ही नहीं होती थी।
एक बार की बात है, राजा इन्द्रद्युम्न प्रतिदिन की भांति स्नानादि से निवृत होकर सर्वसमर्थ प्रभु की उपासना में तल्लीन थे। उन्हें बाह्य जगत का तनिक भी ध्यान नहीं था। संयोग वश उसी समय महर्षि अगस्त्य अपने समस्त शिष्यों के साथ वहां पहुँच गए। लेकिन न पाद्ध, न अघ्र्य और न स्वागत। मौनव्रती राजा इंद्रद्युम्न परम प्रभु के ध्यान में निमग्न थे। इससे महर्षि अगस्त्य कुपित हो गए। उन्होंने इंद्रद्युम्न को शाप दे दिया- “इस राजा ने गुरुजनो से शिक्षा नहीं ग्रहण की है और अभिमानवश परोपकार से निवृत होकर मनमानी कर रहा है। ऋषियों का अपमान करने वाला यह राजा हाथी के समान जड़बुद्धि है इसलिए इसे घोर अज्ञानमयी हाथी की योनि प्राप्त हो।” महर्षि अगत्स्य भगवदभक्त इंद्रद्युम्न को यह शाप देकर चले गए। राजा इन्द्रद्युम्न ने इसे श्री भगवान का मंगलमय विधान समझकर प्रभु के चरणों में सिर रख दिया।
क्षीराब्धि में दस सहस्त्र योजन लम्बा, चौड़ा और ऊंचा त्रिकुट नामक पर्वत था। वह पर्वत अत्यंत सुन्दर एवं श्रेष्ठ था। उस पर्वतराज त्रिकुट की तराई में ऋतुमान नामक भगवान वरुण का क्रीड़ा-कानन था। उसके चारों ओर दिव्य वृक्ष सुशोभित थे। वे वृक्ष सदा पुष्पों और फूलों से लदे रहते थे। उसी क्रीड़ा-कानन ऋतुमान के समीप पर्वतश्रेष्ठ त्रिकुट के गहन वन में हथनियों के साथ अत्यंत शक्तिशाली और अमित पराक्रमी गजेन्द्र रहता था।
एक बार की बात है। गजेन्द्र अपने साथियो सहित तृषाधिक्य (प्यास की तीव्रता) से व्याकुल हो गया। वह कमल की गंध से सुगंधित वायु को सूंघकर एक चित्ताकर्षक विशाल सरोवर के तट पर जा पहुंचा। गजेन्द्र ने उस सरोवर के निर्मल,शीतल और मीठे जल में प्रवेश किया। पहले तो उसने जल पीकर अपनी तृषा बुझाई, फिर जल में स्नान कर अपना श्रम दूर किया। तत्पश्चात उसने जलक्रीड़ा आरम्भ कर दी। वह अपनी सूंड में जल भरकर उसकी फुहारों से हथिनियों को स्नान कराने लगा। तभी अचानक गजेन्द्र ने सूंड उठाकर चीत्कार की। पता नहीं किधर से एक मगर ने आकर उसका पैर पकड़ लिया था। गजेन्द्र ने अपना पैर छुड़ाने के लिए पूरी शक्ति लगाई परन्तु उसका वश नहीं चला, पैर नहीं छूटा। अपने स्वामी गजेन्द्र को ग्राहग्रस्त देखकर हथिनियां, कलभ और अन्य गज अत्यंत व्याकुल हो गए। वे सूंड उठाकर चिंघाड़ने और गजेन्द्र को बचाने के लिए सरोवर के भीतर-बाहर दौड़ने लगे। उन्होंने पूरी चेष्टा की लेकिन सफल नहीं हुए।
वस्तुतः महर्षि अगत्स्य के शाप से राजा इंद्रद्युम्न ही गजेन्द्र हो गए थे और गन्धर्वश्रेष्ठ हूहू महर्षि देवल के शाप से ग्राह हो गए थे। वे भी अत्यंत पराक्रमी थे। संघर्ष चलता रहा। गजेन्द्र स्वयं को बाहर खींचता और ग्राह गजेन्द्र को भीतर खींचता। सरोवर का निर्मल जल गंदला हो गया था। कमल-दल क्षत-विक्षत हो गए। जल-जंतु व्याकुल हो उठे। गजेन्द्र और ग्राह का संघर्ष एक सहस्त्र वर्ष तक चलता रहा। दोनों जीवित रहे। यह द्रश्य देखकर देवगण चकित हो गए।
अंततः गजेन्द्र का शरीर शिथिल हो गया। उसके शरीर में शक्ति और मन में उत्साह नहीं रहा। परन्तु जलचर होने के कारण ग्राह की शक्ति में कोई कमी नहीं आई। उसकी शक्ति बढ़ गई। वह नवीन उत्साह से अधिक शक्ति लगाकर गजेन्द्र को खींचने लगा। असमर्थ गजेन्द्र के प्राण संकट में पड़ गए। उसकी शक्ति और पराक्रम का अहंकार चूर-चूर हो गया। वह पूर्णतया निराश हो गया। किन्तु पूर्व जन्म की निरंतर भगवद आराधना के फलस्वरूप उसे भगवत्स्मृति हो आई। उसने निश्चय किया कि मैं कराल काल के भय से चराचर प्राणियों के शरण्य सर्वसमर्थ प्रभु की शरण ग्रहण करता हूं। इस निश्चय के साथ गजेन्द्र मन को एकाग्र कर पूर्वजन्म में सीखे श्रेष्ठ स्त्रोत द्वारा परम प्रभु की स्तुति करने लगा।
गजेन्द्र की स्तुति सुनकर सर्वात्मा सर्वदेव रूप भगवान विष्णु प्रकट हो गए। गजेन्द्र को पीड़ित देखकर भगवान विष्णु गरुड़ पर आरूढ़ होकर अत्यंत शीघ्रता से उक्त सरोवर के तट पर पहुंचे। जब जीवन से निराश तथा पीड़ा से छटपटाते गजेन्द्र ने हाथ में चक्र लिए गरुड़ारूढ़ भगवान विष्णु को तीव्रता से अपनी ओर आते देखा तो उसने कमल का एक सुन्दर पुष्प अपनी सूंड में लेकर ऊपर उठाया और बड़े कष्ट से कहा- “नारायण ! जगद्गुरो ! भगवान ! आपको नमस्कार है।”
गजेन्द्र को अत्यंत पीड़ित देखकर भगवान विष्णु गरुड़ की पीठ से कूद पड़े और गजेन्द्र के साथ ग्राह को भी सरोवर से बाहर खींच लाए और तुरंत अपने तीक्ष्ण चक्र से ग्राह का मुंह फाड़कर गजेन्द्र को मुक्त कर दिया।
ब्रह्मादि देवगण श्री हरि की प्रशंसा करते हुए उनके ऊपर स्वर्गिक सुमनों की वृष्टि करने लगे। सिद्ध और ऋषि-महर्षि परब्रह्म भगवान विष्णु का गुणगान करने लगे। ग्राह दिव्य शरीर-धारी हो गया। उसने विष्णु के चरणो में सिर रखकर प्रणाम किया और भगवान विष्णु के गुणों की प्रशंसा करने लगा।
भगवान विष्णु के मंगलमय वरद हस्त के स्पर्श से पाप मुक्त होकर अभिशप्त हूहू गन्धर्व ने प्रभु की परिक्रमा की और उनके त्रेलोक्य वन्दित चरण-कमलों में प्रणाम कर अपने लोक चला गया। भगवान विष्णु ने गजेन्द्र का उद्धार कर उसे अपना पार्षद बना लिया। गन्धर्व,सिद्ध और देवगण उनकी लीला का गान करने लगे। गजेन्द्र की स्तुति से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने सबके समक्ष कहा- “प्यारे गजेन्द्र ! जो लोग ब्रह्म मुहूर्त में उठकर तुम्हारी की हुई स्तुति से मेरा स्तवन करेंगे, उन्हें मैं मृत्यु के समय निर्मल बुद्धि का दान करूँगा।”
यह कहकर भगवान विष्णु ने पार्षद रूप में गजेन्द्र को साथ लिया और गरुडारुड़ होकर अपने दिव्य धाम को चले गए।
****************************
II श्री गजेन्द्र मोक्ष II [पद्यानुवाद]
****************************
श्री शुकदेव जी ने कहा –
यों निश्चय कर व्यवसित मति से मन प्रथम हृदय से जोड लिया ।
फिर पूर्व जन्म में अनुशिक्षित इस परम मंत्र का जाप किया ॥१॥
गजेन्द्र बोला –
मन से है ऊँ नमन प्रभु को जिनसे यह जड चेतन बनता ।
जो परमपुरुष जो आदि बीज, सर्वोपरि जिसकी ईश्वरता ॥२॥
जिसमें, जिससे, जिसके द्वारा जग की सत्ता, जो स्वयं यही ।
जो कारण-कार्य परे सबके , जो निजभू आज शरण्य वही ॥३॥
अपने में ही अपनी माया से ही रचे हुए संसार ।
को हो कभी प्रकट, अन्तर्हित, कभी देखता उभय प्रकार ॥
जो अविद्धदृक साक्षी बन कर, जो परसे भी सदा परे ।
है जो स्वयं प्रकाशक अपना, मेरी रक्षा आज करे ॥४॥
लोक, लोकपालों का, इन सबके कारण का भी संहार ।
कर देता संपूर्ण रूप से महाकाल का कठिन कुठार ॥
अंधकार तब छा जाता है, एक गहन गंभीर अपार ।
उसके पार चमकते जो विभु, वे में मुझको आज संभार ॥५॥
देवता तथा ऋषि लोग नही जिनके स्वरूप को जान सके ।
फिर कौन दूसरा जीव भला, जो उनको कभी बखान सके ॥
जो करते नाना रूप धरे , लीला अनेक नटतुल्य रचा ।
है दुर्गम जिनका चरितसिंधु , वे महापुरुष लें मुझे बचा ॥६॥
जो साधु स्वाभवी , सर्व सुहृद वे मुनिगण भी सब सग छोड ।
बस केवल मात्र आत्मा का सब भूतों से संबंध जोड ॥
जिनके मंगलमय पद दर्शन की इच्छा से वन मे पालन ।
करते अलोक व्रत का अखंड , वे ही हैं मेरे अवलम्बन ॥७॥
जिसका होता है जन्म नही, केवल होता भ्रम से प्रतीत ।
जो कर्म और गुण दोष तथा जो नाम रूप से है अतीत ॥
रचनी होती जब सृष्टि किंतु, जब करना होता उसका लय ।
तब अंगीकृत कर लेता है इन धर्मों को वह यथा समय ॥८॥
उस परमेश्वर, उस परमब्रह्म, उस अमित शक्ति को नमस्कार ।
जो अद्भुतकर्मा जो अरूप फिर भी लेता बहुरूप धार ॥९॥
परमात्मा जो सबका साक्षी, उस आत्मदीप को नमस्कार ।
जिसतक जाने में पथ में ही जाते वाणी मन चित्त हार ॥१०॥
बन सतोगुणी सुनिवृत्तिमार्ग से पाते जिसको विद्वज्जन ।
जो सुखस्वरूप निर्वाण जनित, जो मोक्षधामपति, उसे नमन ॥११॥
जो शान्त, घोर, जडरूप प्रकट होते तीनों गुण धर्म धार ।
उन सौम्य ज्ञान घन निर्विशेष को नमस्कार है, नमस्कार ॥१२॥
सबके स्वामी, सबके साक्षी, क्षेत्रज्ञ ! तुझे है नमस्कार ।
हे आत्ममूल हे मूल प्रकृति, हे पुरुष नमस्ते बार बार ॥१३॥
इन्द्रिय विषयों का जो दृष्टा, इन्द्रियानुभव का जो कारन ।
जो व्यक्त असत की छाया में, हे सदाभास ! है तुझे नमन ॥१४॥
सबके कारण निष्कारण भी, हे विकृतिरहित सबके कारण ।
तेरे चरणों में बारबार है नमस्कार मेरा अर्पण ॥
सब श्रुतियों, शास्त्रों का सारे, जो केवल एक अगाध निलय ।
उस मोक्षरूप को नमस्कार, जिसमें पाते सज्जन आश्रय ॥१५॥
जो ज्ञानरूप से छिपा गुणों के बीच, काष्ठ में यथा अनल ।
अभिव्यक्ति चाहता मन जिसका, जिस समय गुणों में हो हलचल ॥
मैं नमस्कार करता उनको, जो स्वयं प्रकाशित हैं उनमें ।
आत्मालोचन करके न रहे जो विधि निषेध के बंधन में ॥१६॥
जो मेरे जैसे शरणागत जीवों का हरता है बंधन ।
उस मुक्त अमित करुणा वाले, आलस्य रहित के लिये नमन ॥
सब जीवों के मन के भीतर, जो हैं प्रतीत प्रत्यक्चेतन ।
बन अन्तर्यामी, हे भगवन! हे अपरिछिन्न ! है तुझे नमन ॥१७॥
जिसका मिलना है सहज नही, उन लोगों को जो सदा रमें ।
लोगों में, धन में, मित्रों में, अपने में, पुत्रों में, घर में ॥
जो निर्गुण, जिसका हृदय बीच जन अनासक्त करते चिन्तन ।
हे ज्ञानरूप ! हे परमेश्वर ! हे भगवन ! मेरा तुझे नमन ॥१८॥
जिनको विमोक्ष-धर्मार्थ काम की इच्छा वाले जन भज कर ।
वांछित फल को पा लेते हैं; जो देते तथा अयाचित वर ॥
भी अपने भजने वालों को, कर देते उनकी देह अमर ।
लें वे ही आज उबार मुझे, इस संकट से करुणासागर ॥१९॥
जिनके अनन्य जन धर्म, अर्थ या काम मोक्ष पुरुषार्थ-सकल ।
की चाह नही रखते मन में, जिनकी बस, इतनी रुचि केवल ॥
अत्यन्त विलक्षण श्री हरि के जो चरित परम मंगल सुन्दर ।
आनन्द-सिंधु में मग्न रहें , गा गा कर उनको निसि-वासर ॥२०॥
जो अविनाशी, जो सर्व व्याप्त. सबका स्वामी, सबके ऊपर ।
अव्यक्त किन्तु अध्यात्म मार्ग के पथिकों को जो है गोचर ॥
इन्द्रियातीत अति दूर सदृश जो सूक्ष्म तथा जो हैं अपार ।
कर कर बखान मैं आज रहा, उस आदि पुरुष को ही पुकार ॥२१॥
उत्पन्न वेद, ब्रह्मादि देव, ये लोक सकल , चर और अचर ।
होते जिसकी बस, स्वल्प कला से नाना नाम रूप धरकर ॥२२॥
ज्यों ज्वलित अग्नि से चिंगारी, ज्यों रवि से किरणें निकल निकल ।
फिर लौट उन्ही में जाती हैं, गुण कृत प्रपंच उस भाँति सकल ॥
मन बुद्दि सभी इन्द्रियों तथा सब विविध योनियों वाले तन ।
का जिससे प्रकटन हो जिसमें, हो जाता है पुनरावर्त्तन ॥२३॥
वह नही देव, वह असुर नही, वह नही मर्त्य वह क्लीब नही ।
वह कारण अथवा कार्य नही, गुण, कर्म, पुरुष या जीव नही ॥
सबका कर देने पर निषेध, जो कुछ रह जाता शेष, वही ।
जो है अशेष हो प्रकट आज, हर ले मेरा सब क्लेश वही ॥२४॥
कुछ चाह न जीवित रहने की जो तमसावृत बाहर-भीतर –
ऐसे इस हाथी के तन को क्या भला करूंगा मैं रखकर ?
इच्छा इतनी-बन्धन जिसका सुदृढ न काल से भी टूटे ।
आत्मा की जिससे ज्योति ढँकी, अज्ञान वही मेरा छूटे ॥२५॥
उस विश्व सृजक , अज, विश्व रूप, जग से बाहर जग-सूत्रधार ।
विश्वात्मा, ब्रह्म, परमपद को, इस मोक्षार्थी का नमस्कार ॥२६॥
निज कर्मजाल को, भक्ति योग से जला, योग परिशुद्ध हृदय ।
में जिसे देखते योगीजन , योगेश्वर प्रति मैं नत सविनय ॥२७॥
हो सकता सहन नही जिसकी त्रिगुणात्मक शक्ति का वेग प्रबल ।
जो होता तथा प्रतीत धरे इन्द्रिय विषयों का रूप सकल ॥
जो दुर्गम उन्हें मलिन विषयों में जो कि इन्द्रियों के उलझे ।
शरणागत-पालक अमित शक्ति हे! बारंबार प्रणाम तुझे ॥२८॥
अनभिज्ञ जीव जिसकी माय, कृत अहंकार द्वारा उपहत ।
निज आत्मा से मैं उस दुरन्त महिमामय प्रभु के शरणागत ॥२९॥
श्री शुकदेव जी ने कहा –
यह निराकार-वपु भेदरहित की स्तुति गजेन्द्र वर्णित सुनकर ।
आकृति विशेषवाले रूपों के अभिमानी ब्रह्मादि अमर ॥
आये जब उसके पास नही , तब श्री हरि जो आत्मा घट घट ।
के होने से सब देव रूप, हो गये वहाँ उस काल प्रकट ॥३०॥
वे देख उसे इस भाँति दुःखी , उसका यह आर्त्तस्तव सुनकर ।
मन-सी गति वाले पक्षी राज की चढे पीठ ऊपर सत्वर ॥
आ पहुँचे, था गजराज जहाँ, निज कर में चक्र उठाये थे ।
तब जगनिवास के साथ साथ, सुर भी स्तुति करते आये थे ॥३१॥
अतिशय बलशाली ग्राह जिसे था पकडे हुए सरोवर में ।
गजराज देखकर श्री हरि को, आसीन गरुड पर अंबर में ॥
खर चक्र हाथ में लिये हुए, वह दुखिया उठा कमल करमें ।
‘हे विश्व-वन्द्य प्रभु ! नमस्कार’ यह बोल उठा पीडित स्वर में ॥३२॥
पीडा में उसको पडा देख, भगवान अजन्मा पडे उतर ।
अविलम्ब गरुड से फिर कृपया झट खींच सरोवर से बाहर ॥
कर गज को मकर-सहित, उसका मुख चक्रधार से चीर दिया ।
देखते-देखते सुरगण के हरि ने गजेन्द्र को छुडा लिया ॥३३॥
गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र जाप के लाभ :- ऐसी मान्यता है की श्रीमद् भागवत पुराण में वर्णित गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र का जाप करने से व्यक्ति बड़े से बड़े कर्ज से मुक्ति पा सकता है। पौराणिक कथा गज और ग्राह की कहानी पर आधारित इस स्तोत्र को शुकदेव जी ने लिखा था। हिन्दू पौराणिक मान्यताओं के अनुसार नियमित रूप से सूर्योदय के पूर्व उठकर स्नान ध्यान करने के बाद यदि इस स्तोत्र का जाप किया जाय तो इससे आपको जीवन में किसी भी प्रकार के कर्ज से मुक्ति मिल सकती है। कर्ज से मुक्ति पाने के लिए गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र को सर्वाधिक फायदेमंद माना गया है। यदि भी किसी प्रकार के कर्ज से मुक्ति पाना चाहते हैं तो इस स्तोत्र का जाप जरूर करें।
No comments:
Post a Comment