॥ जगन्मङ्ल काली-कवचम् ॥
॥ भैरवी उवाच ॥
कालीपूजा श्रुता नाथ ! भावाश्च विविधा प्रभोः! ।
इदानीं श्रोतुमिच्छामि कवचं पूर्वसूचितम् ॥ १ ॥
त्वमेव स्रष्टा पाता च संहर्ता च त्वमेव च ।
त्वमेव शरणं नाथ ! त्राहि मां दुःख-सङ्कटात् ॥ २ ॥
भैरवी ने कहा — हे स्वामि ! मैंने अनेक भावयुक्त कालीपूजन आपके मुखारविन्द से श्रवण किया । आपने जो पहले कहा था कि, मैं तुमको कालीकवच सुनाऊँगा । (इसलिए) हे स्वामी ! वह कालीकवच मैं इस समय श्रवण करना चाहती हूँ । क्योंकि आपही संसार के निर्माणकर्ता, रक्षक और विनाशकर्ता हैं । (इसलिए) मैं आपकी शरणागत हूँ ।अतः इस घनघोर दुःख संकट से मेरी रक्षा करें ।
॥ भैरव उवाच ॥
रहस्यं शृणु वक्ष्यामि भैरवि प्राणवल्लभे ! ।
श्रीजगन्मङ्गलं नाम कवचं मन्त्र-विग्रहम् ॥ ३ ॥
पठित्वा धारयित्वा च त्रैलोक्यं मोहयेत्क्षणात् ।
नारायणोऽपि यद् धृत्वा नारी भूत्वा महेश्वरम् ॥ ४ ॥
योगिनं क्षोभमनयद् यद् धृत्वा च रघूत्तमः ।
वरतृप्तो जघानैव रावणादिनिशाचरान् ॥ ५ ॥
यस्य प्रसादादीशोऽहं त्रैलोक्य-विजयी विभुः ।
धनाधिपः कुबेरोऽपि सुरेशोऽभूच्छचीपतिः ॥ ६ ॥
एवं सकला देवाः सर्वसिद्धीश्वराः प्रिये ! ।
श्रीजगन्मङ्गलस्याऽस्य कवचस्य ऋषिः शिवः ॥ ७ ॥
छन्दोऽनुष्टप् देवता च कालिका दक्षिणेरिता ।
जगतां मोहने दुष्टविजये भुक्ति-मुक्तिषु ॥ ८ ॥
योषिदाकर्षणे चैव विनियोगः प्रकीर्तितः ।
भैरव बोले — हे प्राणों से प्रिय भैरवि ! मंत्रस्वरूप जगन्मङ्गल नामक कवच के रहस्य का मैं (तुमसे) वर्णन करता हूँ । अतः तुम अत्यन्त सावधान चित्त से इसे सुनो । इस कवच को पढ़नेवाले तथा धारण करनेवाले साधकगण उसी क्षण ही तीनों लोकों को मोहित कर लेते हैं । स्वयं भगवान् नारायण ने भी इसे धारण कर स्त्रीस्वरूप से योगिराज महेश्वर (शिव) के मन में क्षोभ पैदा कर दिया था । इसी कवच को धारण कर | मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम ने अति क्रूर रावण आदि राक्षसों का युद्धभूमि में वध किया था । इस कवच के धारण करने से मैं सम्पूर्ण जगत् का स्वामी, त्रैलोक्य विजयी एवं विभु हूँ । (धन के स्वामी) कुबेर ने भी इस कवच को धारण कर धनाधिप और (अदितिपुत्र) इन्द्र तीनों लोकों की सुंदरी शची के पति हुए । हे प्रिये! सम्पूर्ण देवता इसी कवच को धारण कर समस्त सिद्धियों के स्वामी हुए । इस जगन्मङ्गल कवच के ऋषि शिव हैं । अनुष्टुप छन्द, दक्षिण काली देवता उक्त कवच सम्पूर्ण संसार को मोहनेवाला दुष्टों पर विजय प्राप्त करनेवाला तथा भुक्ति-मुक्ति प्रदत्त करनेवाला है । विशेषरूप से स्त्रियों के आकर्षण में इसका प्रयोग अत्यधिक उपयोगी है ।
शिरो मे कालिका पातु क्रींकारेकाक्षरी परा ॥ ९ ॥
क्रीं क्रीं क्रीं मे ललाटं च कालिका खड्गधारिणी ।
हूं हूं पातु नेत्रयुगं ह्रीं ह्रीं पातु श्रुती मम ॥ १०॥
दक्षिणे कालिका पातु घ्राणयुग्मं महेश्वरी ।
क्रीं क्रीं क्रीं रसनां पातु हूं हूं पातुं कपोलकम् ॥ ११ ॥
वदनं सकलं पातु ह्रीं ह्रीं स्वाहा-स्वरूपिणी ।
द्वाविंशत्यक्षरी स्कन्धौ महाविद्या सुखप्रदा ॥ १२ ॥
खड्ग-मुण्डधरा काली सर्वाङ्गमभितोऽवतु ।
क्रीं ह्रूं ह्रीं त्र्यक्षरी पातु चामुण्डा हृदये मम ॥ १३ ॥
ऐं हूं ओं ऐं स्तनद्वन्द्वं ह्रीं फट् स्वाहा ककुत्स्थलम् ।
अष्टाक्षरी महाविद्या भुजौ पातु सकर्तृका ॥ १४ ॥
क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं-ह्रींकारी पातु षडक्षरी मम् ।
क्रीं नाभि मध्यदेशं च दक्षिणे कालिकाऽवतु ॥ १५ ॥
क्रीं स्वाहा पातु पुष्टं च कालिका सा दशाक्षरी ।
क्रीं मे गुह्यं सदा पातु कालिकायै नमस्ततः ॥ १६ ॥
सप्ताक्षरी महाविद्या सर्वतन्त्रेषु गोपिता ।
ह्रीं ह्रीं दक्षिणे कालिके हूं हूं पातु कटिद्वयम् ॥ १७ ॥
काली दशाक्षरी विद्या स्वाहा मामूरुयुग्मकम् ।
ॐ क्रीं क्रीं मे स्वाहा पातु कालिका जानुनी सदा ॥ १८ ॥
कालीहृन् नामविद्येयं चतुर्वर्ग फलप्रदा ।
क्रीं ह्रीं ह्रीं पातु सा गुल्फं दक्षिणे कालिकाऽवतु ॥ १६ ॥
क्रीं ह्रूं ह्रीं स्वाहा पदं पातु चतुर्दशाक्षरी मम ।
खङ्ग-मुण्डधरा काली वरदाभयधारिणी ॥ २० ॥
विद्याभिः सकलाभिः सा सर्वाङ्गमभितोऽवतु ।
काली कपालिनी कुल्ला कुरुकुल्ला विरोधिनी ॥ २१ ॥
विप्रचित्ता तथोग्रोग्रप्रभा दीप्ता घनत्विषा ।
नीला घना बलाका च मात्रा मुद्रा मिता च माम् ॥ २२ ॥
एताः सर्वाः खड्गधरा मुण्डमाला-विभूषणाः ।
रक्षन्तु दिग्-विदिक्षु मां ब्राह्मी नारायणी तथा ॥ २३ ॥
माहेश्वरी च चामुण्डा कौमारी चाऽपराजिता ।
वाराही नारसिंही च सर्वाश्चाऽमितभूषणाः ॥ २४ ॥
रक्षन्तु स्वायुधैर्दिक्षु विदिक्षु मां यथा तथा ।
इति ते कथितं दिव्यं कवचं परमाद्भुतम् ॥ २५ ॥
परा, एकाक्षरी क्रीं रूप कालिका मेरे सिर की रक्षा करें । खड्गधारिणी अर्थात् खड्ग को धारण करनेवाली क्रीं क्रीं क्रीं रूप कालिका मेरे ललाट की, हूँ हूँ रूप कालिका मेरे दोनों नेत्रों की, एवं ह्रीं-हीं रूप कालिका मेरे दोनों कर्णों की रक्षा करें । कालिका मेरी दायीं ओर महेश्वरी दोनों नासिका की, क्रीं क्रीं क्रीं रूप काली मेरी जिह्वा की तथा हूँ-हूँ स्वरूपा काली मेरे कपोल की रक्षा करें ।
ह्रीं-हीं स्वाहा स्वरूपिणी कालिका मेरे मुख की रक्षा करें, बाईस अक्षरवाली, सुखप्रदत्त करनेवाली, महाविद्यारूपा काली मेरे दोनों कंधों की रक्षा करें । खडगमुण्ड धारण करनेवाली काली मेरे शरीर के समस्त अंगों की चारों ओर से (सदैव) रक्षा करें । क्रीं-ह्रूं-ह्रीं तीन अक्षरवालीं चामुण्डारूप काली मेरे हृदय की रक्षा करें । ऐं-हूं-ओं-ऐं रूप कालिका मेरे दोनों स्तनों की रक्षा करें । ह्रीं फट् स्वाहा रूप कालिका मेरे तालु भाग की रक्षा करें एवं अष्टाक्षरी महाविद्या सकर्तृका रूप काली मेरी दोनों भुजाओं की रक्षा करें । क्रीं क्रीं-हूँ-हूँ-ह्रीं-ह्रीं ये षडक्षरी रूप कालिका मेरी रक्षा करें । क्रीं रूपा काली मेरी नाभि की और दक्षिण कालिका मेरे मध्य भाग की (सदैव) रक्षा करें । क्रीं स्वाहा दशाक्षरी रूप कालिका मेरे पीछे के भाग की रक्षा करें, क्रीं रूप कालिका सदैव मेरे गुप्तांग की रक्षा करें । इसके उपरान्त काली को नमस्कार करें । सप्ताक्षरी महाविद्यारूप कालिका सम्पूर्ण मंत्रों में अत्यन्त गुप्त है । ह्रीं ह्रीं रूप कालिका मेरी दाहिने भाग की रक्षा करें एवं हूँ-हूँ रूप कालिका मेरे वामभाग की रक्षा करें । दशाक्षरवाली विद्या एवं स्वाहा रूप काली मेरे दोनों ऊरु भाग की रक्षा करें । ओं-क्रीं-क्रीं में स्वाहा रूप कालिका मेरे घुटनों की (सदैव) रक्षा करें । हृद् नामक विद्यारूप | यह काली धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चतुर्वर्गरूप फल को प्रदत्त करनेवाली है । क्रीं-ह्रीं-ह्रीं रूप दक्षिण कालिका मेरे गुल्फ भाग की रक्षा करें । चतुर्दशाक्षरी क्रीं हूँ ह्रीं स्वाहा रूप मेरे (दोनों) पैरों की रक्षा करें । खड्ग-मुण्डधारी काली, वरद और अभयमुद्रा धारण करनेवाली सम्पूर्ण कलाओं से युक्त, सम्पूर्ण विद्यारूपा कालिका मेरे सभी अंगों की चारों ओर से रक्षा करें । काली, कपालिनी, कुल्ला, कुरुकुल्ला, विरोधिनी, विप्रचित्ता एवं उग्रोग्र प्रभा, दीप्ता, घनत्विषा, नीला, घना, बलाका, मात्रा, मुद्रा, मिता ये सभी खड्ग को धारण करनेवाली मुण्डमाला से विभूषित दिशा एवं विदिशाओं में मेरी रक्षा करें । ब्राह्मी, नारायणी और माहेश्वरी, चामुण्डा, कौमारी एवं अपराजिता, वाराही, नारसिंही ये समस्त सर्वाधिक भूषण धारण करनेवली देवी अपने-अपने अस्त्र-शस्त्रों से सम्पूर्ण दिशा और विदिशाओं में मेरी रक्षा करें । हे भैरवि ! अत्यन्त आश्चर्यकारी इस दिव्य कवच का मैंने तुमसे वर्णन किया है ।
॥ फलश्रुतिः ॥
श्रीजगन्मङ्गलं नाम महाविद्यौघविग्रहम् ।
त्रैलोक्याकर्षणं ब्रह्मन् ! कवचं मन् मुखोदितम् ॥ २६ ॥
गुरुपूजां विधायाऽथ विधिवत् प्रपठेत्ततः ।
कवचं त्रिसकृद वाऽपि यावज्जीवं च वा पुनः ॥ २७ ॥
एतच्छतार्द्धमावृत्य त्रैलोक्य-विजयी भवेत् ।
त्रैलोक्यं क्षोभयत्येव कवचस्य प्रसादतः ॥ २८ ॥
महाकविर्भवेन्मासं सर्वसिद्धीश्वरो भवेत् ।
पुष्पाञ्जलिं कालिकायै मूलेनैवाऽर्पयेत् सकृत् ॥ २९ ॥
शतवर्षसहस्राणां पूजायाः फलमाप्नुयात् ।
भूर्जे विलिखितं चैतत् स्वर्णस्थं धारयेद् यदि ॥ ३० ॥
विशाखायां दक्षबाहौ कण्ठे वा धारयेद् यदि ।
त्रैलोक्यं मोहयेत् क्रोधात् त्रैलोक्यं चूर्णयेत् क्षणात् ॥ ३१ ॥
सपुत्रवान् धनवान् श्रीमान् नानाविद्या-निधिर्भवेत् ।
ब्रह्मास्त्रादीनि शस्त्राणि तद्गात्रस्पर्शनात्ततः ॥ ३२ ॥
नाशमायाति या नारी बन्ध्या वा मृतपुत्रिणी ।
बह्वपत्या जीवतोका भवत्येव न संशयः ॥ ३३ ॥
न देयं परशिष्येभ्यो ह्यभक्तेभ्यो विशेषतः ।
शिष्येभ्यो भक्तियुक्तेभ्यो ह्यन्यथा मृत्युमाप्नुयात् ॥ ३४ ॥
स्पर्धामुद्धय कमला वाग्देवी मन्दिर सुखे ।
पौत्रान्तं स्थैर्यमास्थाय निवसत्येव निश्चितम् ॥ ३५ ॥
इदं कवचमज्ञात्वा यो भजेद् घोरदक्षिणाम् ।
शतलक्षं प्रजप्त्वाऽपि तस्य विद्या न सिद्धयति ॥
सहस्रघातमाप्नोति सोऽचिरान् मृत्युमाप्नुयात् ॥ ३६ ॥
॥ काली-कवचं सम्पूर्णम् ॥
फलश्रुति —
भैरवजी ने ब्रह्माजी से कहा — हे ब्रह्माजी ! सम्पूर्ण महाविद्या समूह विग्रहरूप और मेरे द्वारा कहा गया त्रैलोक्य आकर्षणरूप ‘श्रीजगन्मङ्गल’ नामक कवच का विधि-विधान द्वारा सबसे पहले अपने गुरु का पूजन कर पाठ करें । सम्पूर्ण जीवनभर तीनों कालों में इस कवच का पाठ करें । इस कवच का पचास बार पाठ करने से साधक तीनों लोकों पर विजय प्राप्त करता है तथा इस कवच के प्रभाव से तीनों लोकों को वो शोभित कर देता है । एक मास तक इसका पाठ करने से सम्पूर्ण सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं एवं साधक महाकवि बन जाता है ।
मूलमंत्र द्वारा कालिका को एक बार पुष्पाञ्जलि प्रदत्त करने से सौ एवं हजार वर्ष पर्यन्त पूजा का फल प्राप्त होता है । यदि इस कवच को भोजपत्र पर लिखकर, स्वर्ण में मढ़वाकर, विशाखा नक्षत्र में दायीं भुजा या गले में धारण करने से साधक तीनों लोकों को मोहित कर लेता है और क्रोधित होने पर उसी क्षण तीनों लोकों को नष्ट कर देता है । जो साधक इस कवच को धारण करता है, वह पुत्रयुक्त, धनयुक्त एवं श्रीमान और अनेक विद्याओं का ज्ञाता होता है । उस साधक के शरीर स्पर्शमात्र से अत्यन्त भयंकर और अमोघ ब्रह्मास्त्रादि सभी शस्त्र नष्ट हो जाते हैं । इस कवच को धारण करनेवाली, बाँझ स्त्री या मरे हुए पुत्र को जन्म देनेवाली स्त्री भी बहुत-से पुत्रों को जन्म देती है । इस कवच को अपने दीक्षित शिष्य के अतिरिक्त अन्य के शिष्यों को तथा विशेष रुप से श्रद्धाभक्तिहीन, नास्तिक शिष्य को इसे प्रदान नहीं करना चाहिए अर्थात् श्रद्धाभक्ति से युक्त शिष्य को ही इसे प्रदत्त करना चाहिए । क्योंकि इसके विपरीत आचरण से साधक की मृत्यु हो सकती है । लक्ष्मी, सरस्वती आपस में द्वेष रखने पर भी इस कवच को धारण करने से स्पर्धा को छोड़कर तीन पीढ़ी तक स्थिर हो, निःसन्देह रूप से साधक के पास (स्थिर भाव से) निवास करती हैं ।
इस कवच का सम्पूर्ण ज्ञान न रखनेवाला साधक घोर दक्षिण कालिका प्रयोग करता है तो उस साधक को एक करोड़ बार कालिका मन्त्रजप करने पर भी सिद्धि प्राप्त नहीं
हो सकती और हजारों बार चोट-चपेट लगने से वह कष्ट प्राप्त करता है और अतिशीघ्र मृत्यु को प्राप्त होता है ।
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