श्रीमहिषासुरमर्दिनी स्तोत्रम् आदि शंकराचार्य रचित:
सर्वप्रथम आदि शंकराचार्य रचित 'महिषासुरमर्दिनी स्तोत्रम्' का मूलपाठ दे कर, देवी तथा महिषासुर की कथा को संक्षेप में बताया गया है । तत्पश्चात् इस स्तोत्र के सभी इक्कीस श्लोकों का भावार्थ देते हुए पंक्ति प्रति पंक्ति इनकी व्याख्या प्रस्तुत की गई है । इसे सरल और सुबोध बनाने के लिए शब्दार्थ (एवं जहां आवश्यकता प्रतीत हुई वहां संधि-विच्छेद भी) व्याख्या के भीतर ही समाहित कर लिए गए हैं । परिणाम आपके सम्मुख है और आपके सुझावों का स्वागत है ।
|| `महिषासुरमर्दिनी स्तोत्रम्` मूलपाठ ||
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महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम् : श्लोक १
अयि गिरिनन्दिनि नन्दितमेदिनि विश्वविनोदिनि नन्दिनुते
गिरिवरविन्ध्यशिरोsधिनिवासिनि विष्णुविलासिनि जिष्णुनुते ।
भगवति हे शितिकण्ठकुटुम्बिनि भूरिकुटुम्बिनि भूतिकृते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।।
भावार्थ :- महिषासुर का वध करने वाली भगवती का स्तवन करते हुए ‘महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम्’ के पहले श्लोक में कहा गया है, हे गिरिपुत्री, पृथ्वी को आनंदित करने वाली, संसार का मन मुदित रखने वाली, नंदी द्वारा स्तुत अर्थात् नंदी द्वारा जिनकी स्तुति की जाती है, पर्वतप्रवर विंध्याचल के सिरमौर शिखर (सबसे ऊंची चोटी) पर निवास करने वाली, विष्णु को आनंद देने वाली, इंद्रदेव द्वारा स्तुत, नीलकंठ (महादेव) की गृहिणी, विशाल कुटुंब वाली, (सबका) कुशल-कल्याण करने वाली (हे) देवी, हे महिषासुर का घात करने वाली, सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो ।
महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम् : श्लोक २
सुरवरवर्षिणि दुर्धरधर्षिणि दुर्मुखमर्षिणि हर्षरते
त्रिभुवन पोषिणि शंकर तोषिणि कल्मष मोषिणि घोषरते ।
दनुज निरोषिणि दुर्मद शोषिणि दुर्मु निरोषिणि सिन्धुसुते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनी रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।।
भावार्थ ;- हे सुरों पर वरदानों का वर्षंण करने वाली, दुर्मुख और दुर्धर नामक दैत्यों का संहार करने वाली, सदा हर्षित रहने वाली, तीनों लोकों का पालन-पोषण करने वाली, शिवजी को प्रसन्न रखने वाली, पापों को (व पापियों को) नष्ट करने वाली, हे (नाना प्रकार के आयुधों के) घोष से प्रसन्न होने वालीं, दनुजों के रोष को निरोष करने वाली – निःशेष करने वाली, तात्पर्य यह कि दनुजों को ही समाप्त करके उनके रोष (क्रोध) को समाप्त करने वाली, दुर्मद दैत्यों को, यानि मदोन्मत्त दैत्यों को, भयभीत करके उन्हें सुखाने वाली (उनके प्राण सुखाने वाली), (सदाचार से विमुख) मुनिजनों पर क्रोध करने वाली हे सागर-पुत्री ! हे महिषासुर का घात करने वाली, सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो !
महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम् : श्लोक ३
अयि जगदम्ब कदम्बवन प्रियवासिनि तोषिणि हासरते
शिखरि शिरो मणि तुंग हिमालयश्रृंग निजालय मध्यगते ।
मधुमधुरे मधुकैट भगन्जिनि महिष विदारिणि रासरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।।
भावार्थ ;- कवि महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम् के तीसरे श्लोक में स्तुति करते हुए भगवती से कहते हैं – हे जगन्माता, हे मेरी माता ! अपने प्रिय कदम्ब-वृक्ष के वनों में वास व विचरण करने वाली हे हासरते ! हासरते अर्थात उल्लासमयी, हास-उल्लास में रत। ऊंचे हिमाद्रि के मुकुटमणि सदृश सर्वोच्च शिखर के बीचोबीच जिसका गृह (निवासस्थान) है, ऐसी हे शिखर-मंदिर में रहने वाली देवी ! (हे) मधु से भी मधुरतर ! मधु-कैटभ को पराभूत करने वाली, महिषासुर को चीरने वाली (वध करने वाली), कोलाहल में रत रहने वाली, हे महिषासुरमर्दिनि, हे सुकेशिनी, हे नगेश-नंदिनी ! तुम्हारी जय हो, जय हो !
महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम् : श्लोक ४
अयि शतखण्ड विखण्डित रुण्ड वितुण्डित शुण्ड गजाधिपते
निज भुज दण्ड निपातित चण्ड विपाटि तमुण्ड भटाधिपते ।
रिपु गज गण्ड विदारण चण्ड पराक्रम शौण्ड मृगाधिपते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनी रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।।
भावार्थ :- संग्राम में कुशल योद्धा की भाँति लड़ने वाले उत्तम हाथियों की सूँड़ें काट कर उनके धड़ों को सौ-सौ टुकड़ों में खण्ड-खण्ड करके रख देने वाली हे गजराजगंजिनी, योद्धाओं में श्रेष्ठ चण्ड व मुण्ड को अपने त्रिशूल से बींध कर मार फेंकने वाली हे परमेश्वरी, शत्रुओं के हाथियों के कपोल आदि को चीर देने में हिंसक रूप से कुशल सिंह पर सवारी करने वाली हे सिंहवाहिनी ! हे महिषासुर का घात करने वाली सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो !
महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम् : श्लोक ५
अयि रण दुर्मद शत्रु वधाद्धुर दुर्धर निर्भर शक्तिभृते
चतुर विचार धुरीण महाशय दूत कृत प्रमथाधिपते ।
दुरित दुरीह दुराशय दुर्मति दानवदू त दुरन्तगते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।।
भावार्थ :- रणभूमि में हिंसा के मद में चूर वैरी-वध से बढ़ी हुई एवं दुस्सह व उत्कट शक्ति को धारण किये हुए हे देवी, भूतनाथ, जो विचक्षण बुद्धिशालियों में अग्रणी और सर्वश्रेष्ठ हैं, को दूत बना कर दौत्यकर्म सौंपने वाली (दैत्यराज के पास भेजने वाली), साथ ही अधम,पापेच्छा व कुत्सित प्रयोजन रखने वाले दुष्टबुद्धि दानवदूत जिन्हें (तनिक भी) समझ में न पाये, (जिनका तनिक भी थाह न पा सके) ऐसी हे माता, हे देवी, हे महिषासुर का घात करने वाली सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो !
महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम् : श्लोक ६
अयि शरणागत वैरिव धूजन वीर वराभय दायिकरे
त्रिभुवन मस्तक शूल विरोधि शिरोधि कृतामल शूलकरे ।
दुमिदुमितामर दुन्दुभि नाद मुहुर्मुखरीकृत दिंग्निकरे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।।
भावार्थ :- शरण में आई हुईं पतिपरायण शत्रुपत्नियों के योद्धा-पतियों को अभय प्रदान करने वाले हाथ हैं जिसके ऐसी हे देवी एवं अपने त्रिशूल-विरोधी के मस्तक को, चाहे वह त्रिभुवन का स्वामी ही क्यों न हो, अपने उज्जवल त्रिशूल से अपने अधिकार में करने वाली हे (त्रि)शूलधारिणी और हे दुमि-दुमि की ताल पर बजने वाली देवताओं की दुन्दुभि के नाद को दिशाओं में बार-बार शब्दायमान करवाने वाली, हे महिषासुर का घात करने वाली, हे सुन्दर जटाधरी गिरिनन्दिनि तुम्हारी जय हो, जय हो !
महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम् : श्लोक ७
अयि निजहुंकृतिमात्रनिराकृतधूम्रविलोचनधूम्रशते
समरविशोषितरोषितशोणितबीजसमुद्भवबीजलते ।
शिवशिवशुम्भनिशुम्भमहाहवतर्पितभूतपिशाचरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।।
भावार्थ :- अपनी केवल हुंकार मात्र से धूम्रविलोचन (एक दैत्य का नाम) को आकारहीन करके सौ सौ धुंए के कणों में बदल कर रख देने वाली, युद्ध में शोणितबीज (एक दैत्य का नाम) और उसके रक्त की बूँद-बूँद से पैदा होते हुए और बीजों की बेल सदृश दिखने वाले अन्य अनेक शोणितबीजों का संहार करने वाली, शुम्भ-निशुम्भ से (सबके लिये) कल्याणकारी, मंगलकारी महाहव अर्थात् महायुद्ध में (दैत्यवध करके) भूत-पिशाच आदि को (मानों तर्पण से) तृप्त करने में रत (हे देवि), हे महिषासुर का घात करने वाली, हे सुन्दर जटाधरी गिरिजा, तुम्हारी जय हो, जय हो !
महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम् : श्लोक ८
धनुरनुषंगरणक्षणसंगपरिस्फुरदंगनटत्कटके
कनकपिशंगपृषत्कनिषंगरसद्भटश्रृंगहताबटुके ।
हतचतुरंगबलक्षितिरंगघटद् बहुरंगरटद् बटुके
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।।
भावार्थ :- रणभूमि में, युद्ध के क्षणों में, धनुष थामे हुए जिनके घूमते हुए हाथों की गति-दिशा के अनुरूप जिनके कंकण हाथ में नर्तन करने लगते हैं, ऐसी हे देवी ! रण में भीषण कोलाहल करते हुए मूढ़ शत्रु योद्धाओं को अपने सुनहरे-भूरे तीर-तरकश से मार गिराने वाली हे देवी ! रणक्षेत्र में शत्रु की चतुरंगिणी सेना को नष्ट कर उसका संहार करने वाली व कोलाहल मचाते हुए, अनेक रंगों के शिरों वाले बटुकों को उत्पन्न करने वाली ऐसी हे देवी, हे महिषासुर का घात करने वाली सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो !
महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम् : श्लोक ९
सुरललनाततथेयितथेयितथाभिनयोत्तर नृत्यरते
कृतकुकुथाकुकुथोदिडदाडिकतालकुतूहलगानरते ।
धुधुकुटधूधुटधिन्धिमितध्वनिघोरमृदंगनिनादरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।।
भावार्थ :- देवांगनाओं द्वारा ततथेयि तथेयि की लय-ताल पर नृत्य और उस नाच के अनुरूप किये जाने वाले अभिनय से सुप्रसन्न हे देवी, कुकुथा-कुकुथा आदि ताल पर कुतूहल जगाते गान में तन्मय होती हुई (हे देवी), धुधुकुट- धुधुट की धिंम् धिम् ध्वनि करते हुए मृदंग के धीर-गम्भीर निनाद में खो जाने वाली (हे देवी) ! हे महिषासुर का घात करने वाली सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो !
महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम् : श्लोक १०
जय जय जाप्यजये जयशब्दपरस्तुतितत्परविश्वनुते
झणझणझिंझिमझिंकृतनूपुरशिंजितमोहितभूतपते ।
नटितनटार्धनटीनटनायकनाटननाटितनाट्यरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।।
भावार्थ :- हे जये ! आप जपनीय हो, आपकी जय हो, जय हो ! जयकार करने में लीन व स्तुति करने में तत्पर विश्व द्वारा वन्दिता, झन-झन झनकते नूपुरों की ध्वनि से (रुनझुन से) भूतनाथ (महेश्वर) को मुग्ध कर देने वाली (हे देवी), और नट व नटियों के प्रमुख नायक नटेश्वर (शिव) के नृत्य से सुशोभित नाट्य देखने में तन्मय (हे देवी), हे महिषासुर का घात करने वाली देवी, हे सुन्दर जटाधरी गिरिजा, तुम्हारी जय हो, जय हो !
महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम् : श्लोक ११
अयि सुमनःसुमनःसुमनः सुमनःसुमनोरमकान्तियुते
श्रितरजनीरजनीरजनीरजनीरजनीकरवक्त्रभृते ।
सुनयनविभ्रमरभ्रमरभ्रमरभ्रमरभ्रमराभिदृते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।।
भावार्थ ;- (हे) सुन्दर मनोहर कांतिमय रूप के साथ साथ सुन्दर मन से संयुत देवी, देवी की शोभा से शोभित है रात्रि तथा देवी भी रात्रि की भांति ही सौम्य, रहस्यमयी तथा सुखकर हैं और चंद्रमा सदृश उज्जवल आभा से युक्त मुख-मंडल वाली हैं तथा (हे) काले, मतवाले भंवरों के सदृश, अपितु उनसे भी अधिक गहरे काले और मतवाले-मनोरम तथा चंचल नेत्रों वाली (देवी), हे महिषासुर का घात करने वाली देवी, हे सुन्दर जटाधरी गिरिजा, तुम्हारी जय हो, जय हो !
महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम् : श्लोक १२
महितमहाहवमल्लमतल्लिकवल्लितरल्लितभल्लिरते
विरचितवल्लिकपालिकपल्लिकझिल्लिकभिल्लिकवर्गवृते ।
श्रुतकृतफुल्लसमुल्लसितारुणतल्लजपल्लवसल्ललिते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।।
भावार्थ ;- (दैत्यों के साथ हो रहे) गौरवशाली महासंग्राम में श्रेष्ठ योद्धाओं के (हाथों में) घूमते हुए व थरथराते हुए भालों को देखने में तत्पर हे देवी, लताओं-पल्लवों से बनाये गये (रचे गये) वितानों ( मण्डपों) अथवा लतागृहों को रचने वाले वनपाल या वनपालिकाओं के ग्राम्य अंचलों में, झिल्लिक नाम के वन्यवाद्य बजानेवाले भील-भीलनियोंके समूह से घिरी हुई हे देवी, तथा उदयकालीन ( रवि जैसी ) अरुणाली रंगत के पत्र-पल्लवों को, जो विकसित हैं सुचारू रूप से तथा सुकोमल भी हैं, उन्हें कानों पर (भीलनियों की भांति) लगाये हुए हे सुन्दर-सलोनी देवी , हे महिषासुर का घात करने वाली, हे सुन्दर जटाधरी गिरिजा, तुम्हारी जय हो, जय हो !
महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम् : श्लोक १३
अयि सुदतीजन लालसमानसमोहनमन्मथराजसुते
अविरलगण्डगलन्मदमेदुरमत्तमतंगगजराजगते ।
त्रिभुवनभूषणभूतकलानिधिरूपपयोनिधिराजसुते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।।
महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम् : श्लोक १४
कमलदलामलकोमलकान्तिकलाकलितामलभाललते
सकलविलासकलानिलयक्रमकेलिचलत्कलहंसकुले ।
अलिकुलसंकुलकुन्तलमण्डलमौलिमिलद्बकुलालिकुले
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।।
भावार्थ :- कमल के फूल की निर्मल पंखुड़ी के समान सुकुमार, उज्जवल आभा से, तथा (आपके शीश पर स्थित चंद्र की) कला से कान्तिमती है भाल-लता जिनकी, ऐसी हे देवी और समस्त ललित कलाओं की आश्रय-स्थली एवं चाल-ढाल व पग-संचरण गरिमा से गुम्फित तथा राजहंसों के समुदाय से घिरी हुई हे देवी, आपके भ्रमरावली-से काले व सघन केशजाल पर बनी वेणी में गुँथे मौलिसिरी के पुष्पों से आकर्षित हो कर मँडराते हुए भ्रमर-समुदाय से युक्त हे देवी, ऐसी हे महिषासुर का घात करने वाली, सुन्दर जटाधरी, हे गिरिराज पुत्री, तुम्हारी जय हो, जय हो !
महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम् : श्लोक १५
करमुरलीरववर्जितकूजितलज्जितकोकिलमंजुमते
मिलितमिलिन्दमनोहरगुंजितरंजितशैलनिकुंजगते ।
निजगणभूतमहाशबरीगणरंगणसम्भृतकेलितले
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।।
भावार्थ :- हिमालय का पर्वत-प्रदेश देवी की क्रीड़ास्थली है ।यहां के कोकिल-कूजित वन-विपिन देवी की करगत मुरली से झर झर कर बहती स्वरलहरियों से आन्दोलित हैं और इस मिठासभरे मुरलीरव को सुन कर कोयल लज्जित हो कर नीरव हो जाती है । माता उस मौन हो जाने वाली कोकिल के प्रति प्रीतिभाव रखती हैं, (अत:उन्हें मंजुमति वाली कहा है) ऐसी हे मंजुल-मनोहर मति से संयुत देवी ! एकत्रित हुए भँवरों के मनोहर गान से गुंजरित व विविध रंगों से रंजित पार्वत्य प्रदेश के वनकुंजों में विचरणशील हे देवी, अपने भूत आदि गणों व महाशबरी आदि जनजाति के अपने भील जनों के साथ नृत्याभिनय तथा क्रीड़ा से विनोद पाती हुई हे देवी ! हे महिषासुर का घात करने वाली, सुंदर जटाधरी गिरिजा, तुम्हारी जय हो, जय हो !
महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम् : श्लोक १६
कटितटपीतदुकूलविचित्रमयूखतिरस्कृतचण्डरुचे
जितकनकाचलमौलिमदोर्जितगर्जितकुंजरकुम्भकुचे प्रणतसुराsसुरमौलिमणिस्फुरदंशुलसन्नखचन्द्ररुचे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।।
महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम् : श्लोक १८
पदकमलं करुणानिलये वरिवस्यति योऽनुदिनं सुशिवे
अयि कमले कमलानिलये कमलानिलयः स कथं न भवेत् ।
तव पदमेव परम्पदमस्त्विति शीलयतो मम किं न शिवे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।।
महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम् : श्लोक १९
कनकलसत्कलशीकजलैरनुषिंचति तेsअंगणरंगभुवम्
भजति स किं न शचीकुचकुम्भनटीपरिरम्भसुखानुभवम् ।
तव चरणं शरणं करवाणि सुवाणि पथं मम देहि शिवम्
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।।
महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम् : श्लोक २०
तव विमलेन्दुकलं वदनेन्दुमलं कलयन्ननुकूलयते
किमु पुरुहूतपुरीन्दुमुखीसुमुखीभिरसौ विमुखीक्रियते ।
मम तु मतं शिवमानधने भवती कृपया किमु न क्रियते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।।
भावार्थ :- उज्जवल चंद्र की तरह शोभित होता हुआ आपका मुख-चन्द्र सचमुच ही साधक के मन के मल-विकार को ध्यानपूर्वक दूर कर देता है व उसे निर्मल कर देता है । क्या इन्द्रपुरी की चंद्रमुखी सुन्दरियां उसे आपकी भक्ति से विमुख हो सकती हैं ? अर्थात् नहीं कर सकती हैं । हे शिव के सम्मान-धन से धनाढ़्या देवी, मेरा तो मानना है कि आपकी कृपा से क्या-क्या संपन्न नहीं हो सकता ? अर्थात् सब कुछ संपन्न हो सकता है । हे महिषासुर का घात करने वाली, सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो !
महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम् : श्लोक २१
अयि मयि दीन दयालुतया कृपयैव त्वया भवितव्यमुमे
अयि जगतो जननीति यथाsसि मयाsसि तथाsनुमतासि रमे ।
यदुचितमत्र भवत्पुरगं कुरु शाम्भवि देवि दयां कुरु मे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ।।
भावार्थ ;- हे उमा, मुझ दीन पर तुम्हारी दया हो जाये, तुम्हारी कृपा हो जाये (तुम मुझ दीन पर दयालु बनी रहो) । हे रमा (महालक्ष्मी) ! जैसे तुम सारे जगत की माता हो, उसी तरह मेरी (भी माता) हो तथा तुम (सबकी) प्रिय हो (सबके द्वारा चाही जाती हो) । अब जो उचित समझो (वह मेरे लिये करो) अपने लोक में गमन करने की (जाने की) मुझे पात्रता दो, योग्यता दो । हे शिवानी ! मुझ पर दया करो । हे महिषासुर का घात करने वाली सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो !
महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम् - - -
देवी तथा महिषासुर का उपाख्यान (संक्षिप्त कथा)
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`महिषासुरमर्दिनीस्तोत्रम्` में देवी की महालक्ष्मी. महासरस्वती तथा महादुर्गा के रूप में स्तुति की गई है । महिषासुर व अन्य दैत्यों के साथ देवी के युद्ध का उल्लेख श्री शंकराचार्य द्वारा रचित इस स्तोत्र में मिलता है । देवी के रणचण्डी रूप के अलावा उनके रमणीय रूप के भी दर्शन इस स्तोत्र में होते हैं । श्लोकों की व्याख्या से पूर्व (पहले) देवी तथा महिषासुर का उपाख्यान (लघु कथा ) जान लेना उपयुक्त होगा, अतः संक्षेप में इसका वर्णन दिया जा रहा है ।
‘देवी भागवत-पुराण ‘के अनुसार भगवती तथा महिषासुर की कथा संक्षेप में इस प्रकार है । त्रिलोकी को त्रस्त करने वाले महिषासुर नामक दैत्य का जन्म असुरराज रम्भ और एक महिष (भैंस) त्रिहायिणी के संग से हुआ था । रम्भ दनु का पुत्र था । दनु के पुत्र दानव कहलाये । कथा में प्रदत्त (दिये गये) वर्णन के अनुसार रम्भ को जल में रहने वाली महिष से प्रेम हो गया । उनके संयोग से उत्पन्न होने के कारण महिषासुर अपनी इच्छा और आवश्यकता के अनुसार कभी मनुष्य तो कभी भैंस का रूप ले सकने में समर्थ था । वह अनेक रूप रच लेता था । माना जाता है कि दैत्य कामरूप होते हैं । अपनी कामना के अनुरूप उनके द्वारा छद्मरूप धारण करने की अनेक कथाएँ हमारे ग्रंथों में मिलती हैं । महिषासुर राजा बना तो उसने घोर तपस्या से ब्रह्माजी को प्रसन्न कर उनसे अमर होने का वरदान माँगा, जिसे देना संभव न बताते हुए ब्रह्माजी ने उससे कोई अन्य वर मांगने के लिए कहा । उसकी अमर होने की लालसा बलवती थी । उसने वर माँगा कि देव, दानव व मानव- इन तीनों में से किसी भी पुरुष द्वारा मेरी मृत्यु न हो सके । स्त्री तो वैसे से भी कोमलांगी होती है, वह तो मुझे वैसे भी मार नहीं सकती । वर पा लेने के बाद उसने पृथ्वी को जीत लिया और स्वर्ग पर आक्रमण करके देवताओं से वहां का आधिपत्य छीन लिया । भयातुर देवतागण ब्रह्माजी के पास व फिर उन्हीं के साथ शिवजी के पास गए । और फिर वहां से सब मिल कर शेषशायी भगवान विष्णु के पास गए व अपनी रक्षा एवं सहायता के हेतु प्रार्थना की । यहीं से देवी के प्राकट्य की कथा आरम्भ होती है ।
देवताओं ने भगवान विष्णु से पूछा कि ऐसी कौन स्त्री होगी जो दुराचारी महिषासुर को रण में मार सके, तब भगवान विष्णु ने मुस्कुराते हुए कहा कि अब एक ही उपाय है कि यदि सभी देवताओं के तेज से, सबकी शक्ति के अंश से कोई सुंदरी उत्पन्न की जाये, तो वही वीर स्त्री मायावी, मदोन्मत्त, दुष्ट महिषासुर का वध करने में समर्थ होगी । इसलिये भगवती पराशक्ति से हमें प्रार्थना करनी चाहिये कि वह हम सब के तेजांश सेवक तेजपुंज स्वरू़पिणी नारी के रूप में प्रकट हो । उस नारी को हम रुद्र आदि सब देवता विविध प्रकार के शस्त्रादि देंगे । तब सर्वायुधोंसे सज्जित हुई वह तेजोमय नारी उस पापी, मदगर्वित दुरात्मा का वध कर देगी । उनके ऐसा कहते ही ब्रह्माजी के मुख से एक असह्य तेजपुंज निःसृत हुआ (निकला) । सुन्दर आकृति वाला वह तेज लाल रंग का था । तत्पश्चात भगवान शिव के शरीर से भी महाप्रचंड तेज निकला, जो भयंकर रूप वाला, पर्वत के समान विशाल तथा साक्षात दूसरे तमोगुण जैसा था । तदनन्तर भगवान विष्णु के शरीर से सत्वगुणसम्पन्न, नीलवर्ण और अत्यंत दीप्तिमान दूसरी तेजोराशि प्रकट हुई । इसके बाद इंद्र के शरीर से पूर्ण गोलाकार, सर्वगुणात्मक तेज प्रादुर्भूत हुआ । कुबेर, यम, अग्नि, वरुण, कामदेव, चन्द्र व अन्य देवताओं के शरीरों से भी अतिशय प्रदीप्त तेज निकला । दूसरे हिमालय पर्वत के समान विशाल उस महादिव्य तेजोराशि से सभी के देखते ही देखते एक सुन्दर तथा महतेजस्विनी नारी प्रकट हो गई ।
सभी देवताओं के शरीरों से आविर्भूत वह त्रिगुणात्मिका, त्रिवर्णा (तीन वर्णों अर्थात् रंगों वाली ), अठारह भुजाओं वाली, उज्जवल मुखवाली, काले नेत्रों वाली, अपूर्व कान्ति से संपन्न स्त्री साक्षात् भगवती महालक्ष्मी थीं । असुरों का विनाश करने के लिए वे तब हजारों भुजाओं से सुशोभित हो गईं । तत्पश्चात देवताओं ने उन्हें अपने अपने शुभ भूषण एवं आयुध प्रदान किये । उन्हें विविध वस्त्र भी प्रदान किये गए, जैसे क्षीर सागर ने लाल रंग के दिव्य वस्त्र तथा मणि-मंडित हार, विश्वकर्मा ने करोड़ों सूर्यों के सामान तेजवाली दिव्य चूड़ामणि, कुण्डल द्वय, बाजूबंद, केयूर व विविध रत्न-जटित कंकण, वरुण ने सदैव खिले रहने वाले कमल- पुष्पों की वैजयंती माला, हिमालय पर्वत ने विविध प्रकार के रत्न तथा सवारी के लिए सिंह और अनेक देवताओं ने नाना विध अनुपम वस्त्राभूषण प्रदान किये । सिंह पर सवार, सर्वाभूषणों से सुसज्जित देवी शतशोभामयी लग रही थीं । अब सब देवों ने उन्हें विविध आयुध प्रदान किये । भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र के अंग रूप से उत्पन्न सहस्र धार वाला अत्यंत तेजोमय चक्र प्रदान किया । ब्रह्माजी ने गंगाजल से परिपूर्ण एक कमण्डलु, भगवान शंकर ने अपने त्रिशूल का अंगभूत एक त्रिशूल, वरुण ने एक अत्यंत उज्जवल, मंगलमय और घनघोर शब्द करने वाला शंख तथा पाश, अग्नि ने मन के समान गति करने वाली एक शक्ति, यमराज ने अपने कालदंड से उत्पन्न हुआ एक दंड, त्वष्टा ने कौमोदकी गदा आदि प्रदान किये । ये सब दैत्यों को नष्ट करने में समर्थ थे । इस प्रकार सब आभूषणों से, शस्त्राशस्त्र से सुसज्जित भगवती को देख कर सब देवता बहुत विस्मित हुए और उन्हें नमन कर उनकी स्तुति करने लगे एवं उन्हें महिषासुर द्वारा किये गए उपद्रवों व त्रास के बारे में बता कर उनसे आर्त स्वर में रक्षा की प्रार्थना की ।
इन्द्रादि देवताओं द्वारा नमस्कृत और स्तुत हो कर भगवती ने उनसे मंद हास बिखेरते हुए कहा कि हे देवगण ! भय का त्याग करो, उस मंदमति महिषासुर को मैं नष्ट कर दूँगी । सम्पूर्ण विश्व को मोह में पड़ा हुआ देख कर देवी ने अट्टहास किया । यह कहतीं हुईं वे उठ कर पुनः हंस पड़ीं । इससे जो घोर शब्द गूंजा, वह दैत्यों को भयभीत करने वाला था । उस शब्द से पृथ्वी काँप उठी और पर्वत हिल उठे, समुद्र में ज्वार उठ पड़े, सुमेरु पर्वत भी विचलित ह उठा, दिशाएं गूँज उठीं और दैत्यों के दिल दहल गए । देवों ने भगवती की जय जयकार का उच्च घोष किया, जिसे सुन कर दैत्य भी भयभीत हो गये । महिषासुर ने भी सुना और सुन कर वह क्रुद्ध हो गया व इस निनाद के विषय में पता लगाने का दैत्यों को आदेश दे कर कहा कि दैत्य हो या देवता, जिसने भी यह कर्णकटु शब्द किया हो, उसे पकड़ कर लाओ । अपने भेजे हुए दूतों से गर्जन करती हुई सुंदर, किन्तु भयभीत करने वाली नारी के बारे में जान लेने के बाद उसने अपने मंत्री को उस सुंदरी को साम आदि (साम, दाम ) उपायों से किसी भी प्रकार भी वहां लिवा लाने के लिए भेजा । मंत्री के देवी के सम्मुख जाने एवं महिषासुर का सन्देश देने पर देवी ने उससे कहा कि “हे मंत्रीश्रेष्ठ ! मैं देवताओं की जननी महालक्ष्मी के नाम से विख्यात हूँ । सब दैत्यों को नष्ट करना मेरा कर्तव्य है । क्योंकि महिषासुर के अत्याचारों से पीड़ित व यज्ञभाग से बहिष्कृत देवताओं ने उसे मारने की मुझसे प्रार्थना की है । अब तुम उस पापी से जाकर कह दो कि यदि तुम जीवित रहना चाहते हो तो तुरंत पाताल लोक चले जाओ, अन्यथा मैं बाणों से तुम्हारा शरीर नष्ट -भ्रष्ट करके तुम्हें यमपुरी पहुंचा दूँगी । मैं बिना किसी सेना के एकाकी ही उसका वध करने यहाँ आई हूँ । ” मंत्री ने जाकर दैत्यराज से को यह सब बताया । दैत्यराज ने अपने सचिवों के साथ परामर्श किया । उसके मुख्य सचिव (मंत्री) थे – ताम्र, वाष्कल, असिलोमा, दुर्मुख, दुर्धर, दुर्मद, विरूपाक्ष,विडालाक्ष एवं चिक्षुर् इत्यादि । उसके बाद ताम्र को अपने सन्देश के साथ देवी के पास भेजा । ताम्र के वचन सुन कर हँसते हुए, किन्तु मेघ के सामान गंभीर वाणी में देवी ने उसे उत्तर देते हुए कहा कि “तुम उस मरणोन्मुख महिषासुर के पास लौट जाओ और उससे मेरी यह बात कहो कि जैसे घास, तृण आदि खाने वाली तुम्हारी माता है, वैसे मैं उसके समान लम्बी पूँछ, मोटे पेट और बड़े सींगों वाली भैंस नहीं हूँ । अतः स्वयं आ कर युद्ध कर, यदि तुझे प्राणों से मोह हो तो अपने साथियों के साथ पृथ्वी और सागर छोड़ कर तुरंत पाताल लोक चले जाओ ।” इतना कह कर देवी ने कल्पान्त के सामान घोर गर्जन किया जिसे सुनकर दैत्यों का ह्रदय काँप गया । ताम्र भयभीत हो कर वहां से भाग खडा हुआ ।
ताम्र को इस प्रकार वापिस आया देख कर महिषासुर विमूढ़ हो गया । दुर्मुख और वाष्कल ने युद्ध की मंत्रणा देते हुए कहा कि हम जा कर युद्ध करेंगे और वे देवी के सम्मुख चले गए व उनसे महिषासुर को वर के रूप में स्वीकार करने की वही पुरानी बात कही । देवी के ललकारने पर उन पर बाणवर्षा आरम्भ कर दी, भयंकर युद्ध हुआ, जिसमें देवी ने दोनों का वध कर दिया । तब सेनापति चिक्षुर् अन्य दैत्यों को लेकर देवी के पास पहुंचा । वह भी अपनी दैत्य-सेना सहित मारा गया । तत्पश्चात् असिलोमा व विडालाक्ष भी ससैन्य देवी द्वारा मृत्यु का ग्रास बना दिये गये । अंत में महिषासुर स्वयं आकर्षक मनुष्य का रूप धारण करके संग्राम के लिये चला, उसकी मूढ़ बुद्धि में यही बात आ रही थी कि इस मोहक रूप से वह देवी को अपनी ओर आकृष्ट कर लेगा । उसने भगवती के सम्मुख पहुँच कर रसपूर्ण बातों से, देवी को अपने साथ जुड़ने व प्रीति-संयोग की बातें कहीं, जो उसकी कामुकता का प्रदर्शन करतीं थीं । उसके ऐसा कहने पर देवी खिलखिला कर हंस दीं व बोलीं,” हे दैत्य ! मैं परम पुरुष की इच्छा-शक्ति हूँ और मैं ही जगत् को रचती हूँ । उस परम पुरुष के सिवाय अन्य किसी पुरुष की कामना नहीं करती हूँ । वे सदा ही मेरे निकट रहते हैं, तभी मैं सदा चैतन्य रहती हूँ । तू मंदबुद्धि है, इसीलिए स्त्रीसंयोग के हेतु व्याकुल है, जो महादुःख का देने वाला है । यथार्थ में मेरा न कभी जन्म हुआ न तो मेरा कोई रूप ही है, देवताओं की रक्षा के लिए मुझे विग्रहवान (मूर्तिवान ) होना पड़ता है । अब तू मुझसे युद्ध कर या पाताल लोक में जा कर रह, अन्यथा मैं तेरा वध कर दूँगी । देवी द्वारा ऐसा कहने पर वह युद्ध के लिए सन्नद्ध हो गया, किन्तु तभी दुर्धर और त्रिनेत्र नमक दैत्य बीच में आ कर युद्ध करने लगे व मृत्यु को प्राप्त हुए । त्रिनेत्र का मरण देख कर क्रोधाविष्ट अन्धक ने सिंह के मस्तक पर लोहे की गदा चलाई, तब सिंह ने अपने नखों से उसे फाड़ कर रख दिया व उसका भक्षण कर लिया । सिंह ने महिषासुर को भी अपने नखों से घायल कर दिया, जब उसने सिंह पर गदा चलाई । अब महिषासुर ने मनुष्य का रूप छोड़ कर नए नए अनेक रूप धारण किये । सिंह का फिर हाथी का, शरभ का और अंत में महिष (भैंस) का रूप धारण किया व सींगों से देवी पर प्रहार करने लगा । तब क्रोध से लाल नेत्र कर भगवती चण्डिका ने अपने त्रिशूल से उस पर प्रत्याक्रमण किया । वह मूर्छित हो कर फिर उठ बैठा व देवी पर भयानक चीत्कार करते हुए पदाघात करने लगा । इससे देवगण भयभीत हो उठे, किन्तु देवी ने सहस्र धार वाला चक्र हाथ में ले कर उस पर छोड़ दिया और महिषासुर का मस्तक उस दारुण चक्र से काट कर उसे युद्ध भूमि में गिरा दिया । फिर उसका कबन्ध (धड़ ) भी घूमता हुआ पृथ्वी पर जा गिरा । इस प्रकार दैत्यराज महिषासुर का अंत हुआ व भगवती महिषासुरमर्दिनी कहलायीं । देवताओं ने आनंदसूचक जयघोष किया । राजा की मृत्यु से शेष भयभीत दानव अपने प्राण बचा कर पाताल लोक भाग गए । देव, मनुष्य व पृथ्वी के सभी प्राणी आनंद-मग्न हो गए । देवताओं ने भगवती की स्तुति की व उनसे स्तुत होकर तब देवी अन्तर्धान (अंतर्ध्यान) हो गईं ।
संक्षेप में यही महिषासुर की कथा है । देवी से सम्बद्ध अन्य पुराणों में भी यह कथा उपलब्ध होती है । सब स्थलों पर कुछ कुछ बदलाव पाये जाते हैं । `कालिका पुराण` के अनुसार महिषासुर भद्रकाली का अनन्य भक्त था । उसने माया से स्त्री-रूप धर कर कात्यायन ऋषि के पुत्र के शिष्य को एक बार मोहित कर दिया था, जिससे वह तपोभ्रष्ट हो गया । इससे क्रुद्ध हो कर कात्यायन मुनि के पुत्र ने महिषासुर को शाप दिया कि उसका हनन एक सीमन्तिनी (नारी) द्वारा होगा । एक बार देवी अठारह भुजाओं के साथ उस भक्त के सामने प्रकट हुईं एवं उससे वर मांगने के लिए कहा । महिषासुर ने कहा कि मेरे पास सब कुछ है, केवल मैं देवताओं की भांति यज्ञों में अपने यज्ञ-भाग पा कर देवों की तरह यज्ञों में पूज्य होना चाहता हूँ, तथा संसार में जब तक सूर्यदेव विद्यमान हैं, तब तक मैं आपके चरणों की सेवा का परित्याग न करूँ । तब देवी माँ ने कहा कि यज्ञ-भाग तो देवगणों के लिए ही अलग-अलग कल्पित हैं, और कोई भाग इस समय शेष नहीं है, जो मैं तुम्हें दूं । किन्तु हे महिषासुर ! मेरे साथ युद्ध में तेरे मारे जाने पर, तेरे निहित हो जाने पर, तू मेरे चरणों को कभी नहीं त्यागेगा । मैं दुर्गा के स्वरूप में तुम्हारा और तुम्हारे साथियों का हनन करुँगी । `कालिका पुराण` में इस प्रकार इसे कहा गया है । देवी कहती हैं,
मम प्रवर्तते पूजा यत्र यत्र च तत्र ते ।
पूज्यश्चिन्तयश्च तत्रैव कायोऽयं तव दानव ।
अर्थात देवी उससे कहती हैं की जहाँ जहाँ भी मेरी पूजा होगी, वहां वहां हे दानव ! यह तुम्हारा शरीर भी पूजा के और चिंतन के योग्य होगा । अतः देवी महिषासुरमर्दिनी उसका कटा हुआ सिर हाथ में लेकर चित्रित की जाती हैं ।
वस्तुतः इस पौराणिक उपाख्यान में शारीरिक और मानसिक रूप से सक्रिय रहने का संदेश निहित है . महिष यानि भैंस वास्तव में जड़ता (inertia) की प्रतीक है. जड़ता मनुष्य को नया कुछ करने या वर्त्तमान स्थिति को बदलने का उत्साह उत्पन्न नहीं होने देती । मनुष्य सामर्थ्य होने के पश्चात् भी अपनी नियति को बदलने का साहस नहीं जुटा पाता । `जैसा है वैसा ठीक ह या मैं क्या करूं` जैसे मनोभावों की असुर सेना हमें अर्थात हमारे भीतर बैठे देवताओं को अत्याचार सहन करने के लिए विवश कर देती है, उन्हें स्वर्ग से निष्कासित कर देती है । किन्तु जब वह दृढ निश्चय रुपी त्रिदेवों के पास जाता है तो भीतर शक्ति का प्रादुर्भाव (जन्म) हो जाता है, और वह सिंह की पीठ पर सवार उस शूरवीर (शक्ति रूपिणी देवी ) की भांति होता है, जो अकेला ही आसुरी या तामसिक शक्तियों के साथ युद्ध कर विजयी होता है । यह शक्ति सब के भीतर निहित है । देवी की उपासना में यह बोला जाता है
या देवी सर्व भूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।
अर्थात् वह देवी जो सब भूत प्राणियों में शक्ति रूप से स्थित है, उसे नमन है, नमन है, नमन है । `कालिका पुराण` में कहा गया है कि देवी कामदा हैं तथा जड़ता का नाश करने वाली हैं ।
एषाऽतिकामदा देवी जाड्यहानिकरो सदा ।
अर्थात् यह देवी कामनाओं की देने (पूरी करने) वाली हैं और जड़ता के भाव का विनाश करने वाली हैं । मनुष्य के अन्तःकरण के भीतर समाई हुई दैवीय शक्तियों का आह्वान करना व उन्हें जगाना अत्यंत आवश्यक है । अपने मनो-राज्य से भटका हुआ व्यक्ति अपने स्वर्ग के राज्य से भटके हुए इंद्र के समान है , अतः जड़ता से लड़ने के लिए देह के प्रत्येक अंग से, मन-मस्तिष्क से चैतन्य के तेजांशों का निकलना अति आवश्यक है । मनुष्य द्वारा जगाई हुई यही चेतना उसको अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित कर उसे जड़ता और तामसिक भाव रुपी महिषासुर पर विजय दिलाती है और उसका खोया हुआ स्वर्ग पुनः उसे प्राप्त होता है । अन्यथा नकारात्मक भावों और भटकाव की स्थितियों से जूझते-जूझते वर्षों बीत जाते हैं, पर परिणाम कच्छ नहीं निकालता । हम हर नए वर्ष के आरम्भ में कुछ न कुछ संकल्प लेते हैं और फिर उसे कार्यान्वित न करके उसे भूल जाते हैं और महिषासुर जीत जाता है । उस पर विजय पाने के लिए आवश्यकता है आध्यात्मिक शक्ति की, जो हमें चेतना की उद्दाम अंतर्धारा से जोड़ती है ।
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