आद भैरों, जुगाद भैरों, भैरों है सब थाई । भैरों ब्रह्मा, भैरों विष्णु, भैरों ही भोला साईं। भैरों देवी, भैरों सब देवता, भैरों सिद्ध, भैरों नाथ, भैरों गुरु, भैरों पीर, भैरों ज्ञान, भैरों ध्यान, भैरों योग वैराग, भैरों विन होय ना रक्षा । भैरों विन बजे ना नाद। काल भैरों, विकराल भैरों। घोर भैरों, अघोर भैरों। भैरों की कोई ना जाने सार। भैरों की महिमा अपरंपार। श्वेत वस्त्र, श्वेत जटाधारी। हाथ में मुदगर, श्वान की सवारी। सार की जंजीर लोहे का कड़ा । जहां सिमरूं, भैरों बाबा हाजिर खड़ा । चले मंत्र, फुरे वाचा। देखां आद भैरों! तेरे ईल्म चोट का तमाशा ।।
वशीकरण, लव मैरिज, दूसरी जाती में विवाह, शादी विवाह मे रुकावट, पति पत्नी के रिश्ते मे अनबन, माँ बाप को शादी के लिए मनवाना, मांगलिक दोष, काल सर्प दोष, विधवा दोष, संतान दोष, श्रापित दोष, तिल दोष। गृह क्लेश, नशा मुक्ति, दुश्मन से छुटकारा, भूत प्रेत का साया दिखना, कोर्ट केस, कर्ज से मुक्ति, कारोबार में घाटा, वीजा या विदेश यात्रा में रुकावट, AGHORI RISHI RAJ JI (TANTRIK SHIROMANI) ONLY VIDEO CALL केवल वीडयो कॉल करें | 9953255600
Sunday, November 24, 2024
सभी दुष्ट ग्रहों का बंधन माँ बगलामुखी कि कृपा से
सभी दुष्ट ग्रहों का बंधन माँ बगलामुखी कि कृपा से
किसी भी मंत्र को सिद्ध करने से पहले तीन दिन हवा में मध्यमा ऊँगली से लिखे 108 बार
फिर निचे दिए गुरु सर्वार्थ साधना शाबर मंत्र का जप 1 माला करें
तब जिस मंतर कि साधना करनी है उसे करे सफलता मिलेगी
गुरु सर्वार्थ साधना शाबर मंत्र
गुरु सठ गुरु सठ गुरु हैं वीर
गुरु साहब सुमरौ बड़ी भांत
सिङ्गि टोरों मन कहौं
मन नाऊ करतार
सकल गुरु की हर भजे
घट-घट्टा पाकर उठ जाग
चेत सम्हार श्री परम हंस कि
सभी दुष्ट ग्रहों का बंधन माँ बगलामुखी कि कृपा से
गोरक्षनाथ का शाबर मंत्र स्वप्न में मार्ग दर्शन के लिए
गोरक्षनाथ का शाबर मंत्र स्वप्न में मार्ग दर्शन के लिए
किसी भी मंत्र को सिद्ध करने से पहले तीन दिन हवा में मध्यमा ऊँगली से लिखे 108 बार
फिर निचे दिए गुरु सर्वार्थ साधना शाबर मंत्र का जप 1 माला करें
तब जिस मंतर कि साधना करनी है उसे करे सफलता मिलेगी
गुरु सर्वार्थ साधना शाबर मंत्र
गुरु सठ गुरु सठ गुरु हैं वीर
गुरु साहब सुमरौ बड़ी भांत
सिङ्गि टोरों मन कहौं
मन नाऊ करतार
सकल गुरु की हर भजे
घट-घट्टा पाकर उठ जाग
चेत सम्हार श्री परम हंस कि
दिपावली की रात को 10 बजे निचे दिए यह मंत्र एक हजार जप कर कर सिद्ध करे
गोरक्षनाथ का शाबर मंत्र स्वप्न में मार्ग दर्शन मिलता है
गोरक्षनाथ का शाबर मंत्र
ऊँ निरंजन जट स्वाहा तरंग ह्रांम् ह्रींम् स्वाहा
तंत्रोक्त भी बोल सकते हैं अंग मंत्र लगाएं म कि जगह
ॐ निरंजन जट स्वाहा तरंग ह्रां ह्रीं स्वाहा
किसी भी शाबर मंत्र को कैसे सिद्ध करें
किसी भी शाबर मंत्र को कैसे सिद्ध करें
किसी भी मंत्र को सिद्ध करने से पहले तीन दिन हवा में मध्यमा ऊँगली से लिखे 108 बार
फिर निचे दिए गुरु सर्वार्थ साधना शाबर मंत्र का जप 1 माला करें
तब जिस मंतर कि साधना करनी है उसे करे सफलता मिलेगी
गुरु सठ गुरु सठ गुरु हैं वीर
गुरु साहब सुमरौ बड़ी भांत
सिङ्गि टोरों मन कहौं
मन नाऊ करतार
सकल गुरु की हर भजे
घट-घट्टा पाकर उठ जाग
चेत सम्हार श्री परम हंस कि
Friday, November 22, 2024
दक्षिणा किस बात कि
दक्षिणा किस बात कि
HAPPY MARRIED LIFE दाम्पत्य सुख के उपाय
HAPPY MARRIED LIFE दाम्पत्य सुख के उपाय
१॰ यदि जन्म कुण्डली में प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, द्वादश स्थान स्थित मंगल होने से जातक को मंगली योग होता है इस योग के होने से जातक के विवाह में विलम्ब, विवाहोपरान्त पति-पत्नी में कलह, पति या पत्नी के स्वास्थ्य में क्षीणता, तलाक एवं क्रूर मंगली होने पर जीवन साथी की मृत्यु तक हो सकती है। अतः जातक मंगल व्रत। मंगल मंत्र का जप, घट विवाह आदि करें।
२॰ सप्तम गत शनि स्थित होने से विवाह बाधक होते है। अतः “ॐ शं शनैश्चराय नमः” मन्त्र का जप ७६००० एवं ७६०० हवन शमी की लकड़ी, घृत, मधु एवं मिश्री से करवा दें।
३॰ राहु या केतु होने से विवाह में बाधा या विवाहोपरान्त कलह होता है। यदि राहु के सप्तम स्थान में हो, तो राहु मन्त्र “ॐ रां राहवे नमः” का ७२००० जप तथा दूर्वा, घृत, मधु व मिश्री से दशांश हवन करवा दें। केतु स्थित हो, तो केतु मन्त्र “ॐ कें केतवे नमः” का २८००० जप तथा कुश, घृत, मधु व मिश्री से दशांश हवन करवा दें।
४॰ सप्तम भावगत सूर्य स्थित होने से पति-पत्नी में अलगाव एवं तलाक पैदा करता है। अतः जातक आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ रविवार से प्रारम्भ करके प्रत्येक दिन करे तथा रविवार को नमक रहित भोजन करें। सूर्य को प्रतिदिन जल में लाल चन्दन, लाल फूल, अक्षत मिलाकर तीन बार अर्ध्य दें।
५॰ जिस जातक को किसी भी कारणवश विवाह में विलम्ब हो रहा हो, तो नवरात्री में प्रतिपदा से लेकर नवमी तक ४४००० जप निम्न मन्त्र का दुर्गा जी की मूर्ति या चित्र के सम्मुख करें।
“ॐ पत्नीं मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम्।
तारिणीं दुर्ग संसार सागरस्य कुलोद्भवाम्।।”
६॰ किसी स्त्री जातिका को अगर किसी कारणवश विवाह में विलम्ब हो रहा हो, तो श्रावण कृष्ण सोमवार से या नवरात्री में गौरी-पूजन करके निम्न मन्त्र का २१००० जप करना चाहिए-
“हे गौरि शंकरार्धांगि यथा त्वं शंकर प्रिया।
तथा मां कुरु कल्याणी कान्त कान्तां सुदुर्लभाम।।”
७॰ किसी लड़की के विवाह मे विलम्ब होता है तो नवरात्री के प्रथम दिन शुद्ध प्रतिष्ठित कात्यायनि यन्त्र एक चौकी पर पीला वस्त्र बिछाकर स्थापित करें एवं यन्त्र का पंचोपचार से पूजन करके निम्न मन्त्र का २१००० जइ लड़की स्वयं या किसी सुयोग्य पंडित से करवा सकते हैं।
“कात्यायनि महामाये महायोगिन्यधीश्वरि।
नन्दगोप सुतं देवि पतिं मे कुरु ते नमः।।”
८॰ जन्म कुण्डली में सूर्य, शनि, मंगल, राहु एवं केतु आदि पाप ग्रहों के कारण विवाह में विलम्ब हो रहा हो, तो गौरी-शंकर रुद्राक्ष शुद्ध एवं प्राण-प्रतिष्ठित करवा कर निम्न मन्त्र का १००८ बार जप करके पीले धागे के साथ धारण करना चाहिए। गौरी-शंकर रुद्राक्ष सिर्फ जल्द विवाह ही नहीं करता बल्कि विवाहोपरान्त पति-पत्नी के बीच सुखमय स्थिति भी प्रदान करता है।
“ॐ सुभगामै च विद्महे काममालायै धीमहि तन्नो गौरी प्रचोदयात्।।”
९॰ “ॐ गौरी आवे शिव जी व्याहवे (अपना नाम) को विवाह तुरन्त सिद्ध करे, देर न करै, देर होय तो शिव जी का त्रिशूल पड़े। गुरु गोरखनाथ की दुहाई।।”
उक्त मन्त्र की ११ दिन तक लगातार १ माला रोज जप करें। दीपक और धूप जलाकर ११वें दिन एक मिट्टी के कुल्हड़ का मुंह लाल कपड़े में बांध दें। उस कुल्हड़ पर बाहर की तरफ ७ रोली की बिंदी बनाकर अपने आगे रखें और ऊपर दिये गये मन्त्र की ५ माला जप करें। चुपचाप कुल्हड़ को रात के समय किसी चौराहे पर रख आवें। पीछे मुड़कर न देखें। सारी रुकावट दूर होकर शीघ्र विवाह हो जाता है।
१०॰ जिस लड़की के विवाह में बाधा हो उसे मकान के वायव्य दिशा में सोना चाहिए।
११॰ लड़की के पिता जब जब लड़के वाले के यहाँ विवाह वार्ता के लिए जायें तो लड़की अपनी चोटी खुली रखे। जब तक पिता लौटकर घर न आ जाए तब तक चोटी नहीं बाँधनी चाहिए।
१२॰ लड़की गुरुवार को अपने तकिए के नीचे हल्दी की गांठ पीले वस्त्र में लपेट कर रखे।
१३॰ पीपल की जड़ में लगातार १३ दिन लड़की या लड़का जल चढ़ाए तो शादी की रुकावट दूर हो जाती है।
१४॰ विवाह में अप्रत्याशित विलम्ब हो और जातिकाएँ अपने अहं के कारण अनेक युवकों की स्वीकृति के बाद भी उन्हें अस्वीकार करती रहें तो उसे निम्न मन्त्र का १०८ बार जप प्रत्येक दिन किसी शुभ मुहूर्त्त से प्रारम्भ करके करना चाहिए।
“सिन्दूरपत्रं रजिकामदेहं दिव्याम्बरं सिन्धुसमोहितांगम् सान्ध्यारुणं धनुः पंकजपुष्पबाणं पंचायुधं भुवन मोहन मोक्षणार्थम क्लैं मन्यथाम।
महाविष्णुस्वरुपाय महाविष्णु पुत्राय महापुरुषाय पतिसुखं मे शीघ्रं देहि देहि।।”
१५॰ किसी भी लड़के या लड़की को विवाह में बाधा आ रही हो यो विघ्नहर्ता गणेशजी की उपासना किसी भी चतुर्थी से प्रारम्भ करके अगले चतुर्थी तक एक मास करना चाहिए। इसके लिए स्फटिक, पारद या पीतल से बने गणेशजी की मूर्ति प्राण-प्रतिष्ठित, कांसा की थाली में पश्चिमाभिमुख स्थापित करके स्वयं पूर्व की ओर मुँह करके जल, चन्दन, अक्षत, फूल, दूर्वा, धूप, दीप, नैवेद्य से पूजा करके १०८ बार “ॐ गं गणेशाय नमः” मन्त्र पढ़ते हुए गणेश जी पर १०८ दूर्वा चढ़ायें एवं नैवेद्य में मोतीचूर के दो लड्डू चढ़ायें। पूजा के बाद लड्डू बच्चों में बांट दें।
यह प्रयोग एक मास करना चाहिए। गणेशजी पर चढ़ये गये दूर्वा लड़की के पिता अपने जेब में दायीं तरफ लेकर लड़के के यहाँ विवाह वार्ता के लिए जायें।
१६॰ तुलसी के पौधे की १२ परिक्रमायें तथा अनन्तर दाहिने हाथ से दुग्ध और बायें हाथ से जलधारा तथा सूर्य को बारह बार इस मन्त्र से अर्ध्य दें- “ॐ ह्रीं ह्रीं सूर्याय सहस्त्र किरणाय मम वांछित देहि-देहि स्वाहा।”
फिर इस मन्त्र का १०८ बार जप करें-
“ॐ देवेन्द्राणि नमस्तुभ्यं देवेन्द्र प्रिय यामिनि। विवाहं भाग्यमारोग्यं शीघ्रलाभं च देहि मे।”
१७॰ गुरुवार का व्रत करें एवं बृहस्पति मन्त्र के पाठ की एक माला आवृत्ति केला के पेड़ के नीचे बैठकर करें।
१८॰ कन्या का विवाह हो चुका हो और वह विदा हो रही हो तो एक लोटे में गंगाजल, थोड़ी-सी हल्दी, एक सिक्का डाल कर लड़की के सिर के ऊपर ७ बार घुमाकर उसके आगे फेंक दें। उसका वैवाहिक जीवन सुखी रहेगा।
१९॰ जो माता-पिता यह सोचते हैं कि उनकी पुत्रवधु सुन्दर, सुशील एवं होशियार हो तो उसके लिए वीरवार एवं रविवार के दिन अपने पुत्र के नाखून काटकर रसोई की आग में जला दें।
२०॰ विवाह में बाधाएँ आ रही हो तो पश्चिमाभिमुख होकर शुक्ल पक्ष के प्रथम गुरुवार से प्रारम्भ कर २१ दिन तक प्रतिदिन कमल-गट्टे की माला से निम्न मन्त्र का जप १०८ बार या १० माला करें-
“मरवानो हाथी जर्द अम्बारी। उस पर बैठी कमाल खां की सवारी। कमाल खाँ, कमाल खाँ मुगल पठान। बैठे चबूतरे पढ़े कुरान। हजार काम दुनिया का करे एक काम मेरा कर। न करे तो तीन लाख पैंतीस हजार पैगम्बरों की दुहाई।”
२१॰ किसी भी शुक्रवार की रात्रि में स्नान के बाद १०८ बार स्फटिक माला से निम्न मन्त्र का जप करें-
“ॐ ऐं ऐ विवाह बाधा निवारणाय क्रीं क्रीं ॐ फट्।”
२२॰ लड़के के शीघ्र विवाह के लिए शुक्ल पक्ष के शुक्रवार को ७० ग्राम अक्षत चावल, ७० सेमी॰ सफेद वस्त्र, ७ मिश्री के टुकड़े, ७ सफेद फूल, ७ छोटी इलायची, ७ सिक्के, ७ श्रीखंड चंदन की टुकड़ी, ७ जनेऊ। इन सबको सफेद वस्त्र में बांधकर विवाहेच्छु व्यक्ति घर के किसी सुरक्षित स्थान में शुक्रवार प्रातः स्नान करके इष्टदेव का ध्यान करके तथा मनोकामना कहकर पोटली को ऐसे स्थान पर रखें जहाँ किसी की दृष्टि न पड़े। यह पोटली ९० दिन तक रखें।
२३॰ लड़की के शीघ्र विवाह के लिए ७० ग्राम चने की दाल, ७० से॰मी॰ पीला वस्त्र, ७ पीले रंग में रंगा सिक्का, ७ सुपारी पीला रंग में रंगी, ७ गुड़ की डली, ७ पीले फूल, ७ हल्दी गांठ, ७ पीला जनेऊ- इन सबको पीले वस्त्र में बांधकर विवाहेच्छु जातिका घर के किसी सुरक्षित स्थान में गुरुवार प्रातः स्नान करके इष्टदेव का ध्यान करके तथा मनोकामना कहकर पोटली को ऐसे स्थान पर रखें जहाँ किसी की दृष्टि न पड़े। यह पोटली ९० दिन तक रखें।
२४॰ श्रेष्ठ वर की प्राप्ति के लिए बालकाण्ड का पाठ करे।
SUCESS IN EXAMS परिक्षा में सफलता, स्मरण-शक्ति-वर्द्धन प्रयोग
SUCESS IN EXAMS परिक्षा में सफलता, स्मरण-शक्ति-वर्द्धन प्रयोग
“एक-दन्त महा-बुद्धिः, सर्व-सौभाग्य-दायक।सर्व-सिद्धि-करो देवो, गौरी-पुत्र विनायकः।।”
“आगच्छ देव-देवेश! तेजो-राशे गण-पते!
क्रियमाणां मया पूजां, गृहाण सुर-सत्तम!
।।श्रीमद्-गणपति-देवं आवाहयामि।।
अर्थात् हे देवयाओं के ईश्वर! तेज-सम्पन्न! हे संसार के स्वामिन! हे देवोत्तम, आइए, मेरे द्वारा की जानेवाली पूजा को स्वीकार करिए।
मैं भगवान् श्रीगणेश का आवाहन करता हूँ।
शाबर मंत्रो को जगाने का
अगर बहोत कोशिश करने पर मंत्र जागृत नहीं हो रहे हो तो इस साधना को करके कोई भी साबर मंत्र जग सकते हो आप ..इस साधना को कर इसे सार्थक करे ..( अगर फिर नहीं हुआ तो साबर कल्प्सिद्धि से तो होना ही होना है यह हमारा दावा है ( कल्प्सिद्धि एक विशेष क्रिया है )
मन्त्रः-
ॐ इक ओंकार, सत नाम करता पुरुष निर्मै निर्वैर अकाल मूर्ति अजूनि सैभं गुर प्रसादि जप आदि सच, जुगादि सच है भी सच, नानक होसी भी सच –
मन की जै जहाँ लागे अख, तहाँ-तहाँ सत नाम की रख ।
चिन्तामणि कल्पतरु आए कामधेनु को संग ले आए, आए आप कुबेर भण्डारी साथ लक्ष्मी आज्ञाकारी, बारां ऋद्धां और नौ निधि वरुण देव ले आए ।
प्रसिद्ध सत-गुरु पूर्ण कियो स्वार्थ, आए बैठे बिच पञ्ज पदार्थ ।
ढाकन गगन, पृथ्वी का बासन, रहे अडोल न डोले आसन, राखे ब्रह्मा-विष्णु-महेश, काली-भैरों-हनु-गणेश ।
सूर्य-चन्द्र भए प्रवेश, तेंतीस करोड़ देव इन्द्रेश ।
सिद्ध चौरासी और नौ नाथ, बावन वीर यति छह साथ ।
राखा हुआ आप निरंकार, थुड़ो गई भाग समुन्द्रों पार ।
अटुट भण्डार, अखुट अपार । खात-खरचत, कछु होत नहीं पार ।
किसी प्रकार नहीं होवत ऊना । देव दवावत दून चहूना ।
गुर की झोली, मेरे हाथ । गुरु-बचनी पञ्ज तत, बेअन्त-बेअन्त-बेअन्त भण्डार ।
जिनकी पैज रखी करतार, नानक गुरु पूरे नमस्कार ।
अन्नपूर्णा भई दयाल, नानक कुदरत नदर निहाल ।
ऐ जप करने पुरुष का सच, नानक किया बखान,
जगत उद्धारण कारने धुरों होआ फरमान ।
अमृत-वेला सच नाम जप करिए ।
कर स्नान जो हित चित्त कर जप को पढ़े, सो दरगह पावे मान ।
जन्म-मरण-भौ काटिए, जो प्रभ संग लावे ध्यान ।
जो मनसा मन में करे, दास नानक दीजे दान ।।”..
भक्तों को साधना काल में निम्न नियमों का पालन अनिवार्य है:-
• सर्वश्रेष्ट तो यह है की आप गुरु खोजें और उससे मंत्र प्राप्त करें.
• साधना काल में वाणी का असंतुलन, कटु-भाषण, प्रलाप, मिथ्या वचन आदि का त्याग करें। मौन रहने की कोशिश करें।
• निरंतर मंत्र जप अथवा इष्टत देवता का स्मरण-चिंतन करना जरूरी होता है।
• जिसकी साधना की जा रही हो, उसके प्रति मन में पूर्ण आस्था रखें।
• मंत्र-साधना के प्रति दृढ़ इच्छा शक्ति धारण करें।
• साधना-स्थल के प्रति दृढ़ इच्छा शक्ति के साथ साधना का स्थान, सामाजिक और पारिवारिक संपर्क से अलग होना जरूरी है।
• उपवास में दूध-फल आदि का सात्विक भोजन लिया जाए।
• श्रृंगार-प्रसाधन और कर्म व विलासिता का त्याग अतिआवश्यक है।
• साधना काल में भूमि शयन ही करना चाहि
पीलिया वायु झड़ने का मंत्र
पीलिया वायु झड़ने का मंत्र
ओम आदेश गुरु तेरा नाम धरती रानी को आदेश पवन पानी को आदेश नवनाथ चौरासी सिद्ध को आदेश
व्याधिये तू कहां बसे मस्तक बसे मस्तक तो राजा भाग बसे मस्तक ते झाड़ू उतारू व्याधिये तू कहां बसे नैन बसे नैन तो नैन कुडिया राजा बसे नैन ते झाड़ू उतारू व्याधिये काहा बसे होंठ दांत बसे होंठ दांत तो राजा धौल बसे होंठ दांत ते झाड़ू उतारू व्याधिये तू कहां बसे जिभ्या बसे जिभ्या तो माता सरस्वती बसे जिभ्या ते झाड़ू उतारू व्याधिये तू कहां बसे कंठ बसे कंठ तो कंठ राजा बसे कंठ ते झाड़ू उतारू व्याधिये तू कहां बसे मगर बसे मगर तो प्यालिया राजा बसे मगर ते झाड़ू उतारू व्याधिये तू कहां बसे हाथ बसे हाथ तो राजा धर्म बसे हाथ ते झाड़ू उतारू व्याधिये तू कहां बसे कालजे बसे कालजे तो कालका देवी बसे कालजे ते झाड़ू उतारू व्याधिये तू कहां बसे नाभी बसे नाभी तो नाभ कुडलीया राजा बसे नाभी ते झाड़ू उतारू व्याधिये तू कहां बसे जंघा बसे जंघा ते राजा मछंदर नाथ बसे जंघा ते झाड़ू उतारू व्याधिये तू कहां बसे घुटने बसे घुटने तो राजा भीम सिंह की चक्की बसे घुटने ते झाड़ू उतारू व्याधिये तू कहां बसे पिंडली बसे पिंडली तो कुड़िया राजा बसे पिंडली ते झाड़ू उतारू व्याधिये तू कहां बसे पैर बसे पैर तो राजा रामचन्द्र के चक्र बसे पैर ते झाड़ू उतारू व्याधिये तू उतर के झटके जारे व्याधिये सातवें पताल छछडे भोमे मन्त्रे डोमे हिंगजा खलायजा बादलजा पन्टायजा मेरी भगत गुरु की शक्त इस मंत्र पर माहादेव की भाषा फुरे व्याधिये तू कहां से उगमी हिंगे हंगासे लाड्वे खाडूवे चिड़ी माछली अस्कुलू पटाडे शैखाटे शैमिठे शैभुर्जणे शैबातले तेरी याद जानू तेरी मनयाद जानू सर्व कुल हूं जानू जाहां ते आई ताहा जानू मण्डी सकेत ते आई बॉस ते बूट ते चौदेह घडीये तीखे नक्षत्रे मुगंलेबारे छड़ी आवसी सार के चने चबावसी दडबड बांस मगावसी हक मार के भैरव हनुमंत बीर कौन-कौन व्याध दावदी धूपदी गूगली ननावी बिछा रताजली हिन्दू मस्लमानी अष्टोत्तर उतर के झटके जारे व्याधिये सातवें पताल छछडे भोमे मन्त्रे डोमे हिंगजा खलायजा बादलजा पन्टायजा मेरी भगत गुरु की शक्त इस मंत्र पर माहादेव की भाषा फुरे जारे व्याधिये समुद्र के पार एक लोहे की पिंजरी वहीं जा के सिजंरी ऊं फट फू स्वाहा।
कांसे की थाली में तेल डाल दे और पीलिया ग्रस्त रोगी को उस थाली में अपनी परछाई देखें और 7 अंगुल दुर्वा घास की डाली से मंत्र जाप करते हुए तेल को घुमाते रहे 3 से 5 बार मंत्र का जाप करें पीलिया उतर जाएगा झाड़ा करने के बाद उस तेल को झाड़ियों के बीच फेंक दें ताकि कोई लांग ना पाए
धन्यवाद यह मंत्र शाबर मंत्र है यदि मंत्र में कोई त्रुटि रह जाती है तो भी मंत्र काम करेगा क्योंकि भगवान शिव ने शाबर की रचना अनाड़ी और ज्ञानियों के लिए ही की थी जो व्यक्ति शास्त्र का ज्ञान नहीं रखता यह मंत्र उन लोगों के लिए समर्पित है कृपया मंत्र को शेयर जरूर करें धन्यवाद
हमें कुलदेवता/कुलदेवी की पूजा क्यूं करनी चाहिये ?
हमें कुलदेवता/कुलदेवी की पूजा क्यूं करनी चाहिये ?
भारत में हिन्दू पारिवारिक आराध्य व्यवस्था में कुल देवता / कुलदेवी का स्थान सदैव से रहा है । प्रत्येक हिन्दू परिवार किसी न किसी ऋषि के वंशज हैं जिनसे उनके गोत्र का पता चलता है ,बाद में कर्मानुसार इनका विभाजन वर्णों में हो गया विभिन्न कर्म करने के लिए ,जो बाद में उनकी विशिष्टता बन गया और जाति कहा जाने लगा । हर जाति वर्ग , किसी न किसी ऋषि की संतान है और उन मूल ऋषि से उत्पन्न संतान के लिए वे ऋषि या ऋषि पत्नी कुलदेव / कुलदेवी के रूप में पूज्य हैं । जीवन में कुलदेवता का स्थान सर्वश्रेष्ठ है | आर्थिक सुबत्ता, कौटुंबिक सौख्य और शांती तथा आरोग्य के विषय में कुलदेवी की कृपा का निकटतम संबंध पाया गया है |
पूर्व के हमारे कुलों अर्थात पूर्वजों के खानदान के वरिष्ठों ने अपने लिए उपयुक्त कुल देवता अथवा कुलदेवी का चुनाव कर उन्हें पूजित करना शुरू किया था ,ताकि एक आध्यात्मिक और पारलौकिक शक्ति कुलों की रक्षा करती रहे जिससे उनकी नकारात्मक शक्तियों / ऊर्जाओं और वायव्य बाधाओं से रक्षा होती रहे तथा वे निर्विघ्न अपने कर्म पथ पर अग्रसर रह उन्नति करते रहें |
कुलदेवी / देवता दरअसल कुल या वंश की रक्षक देवी देवता होते है। ये घर परिवार या वंश परम्परा की प्रथम पूज्य तथा मूल अधिकारी देव होते है । सर्वाधिक आत्मीयता के अधिकारी इन देवो की स्थिति घर के बुजुर्ग सदस्यों जैसी महत्वपूर्ण होती है । अत: इनकी उपासना या महत्त्व दिए बगैर सारी पूजा एवं अन्य कार्य व्यर्थ हो सकते है। इनका प्रभाव इतना महत्वपूर्ण होता है की यदि ये रुष्ट हो जाए तो अन्य कोई देवी देवता दुष्प्रभाव या हानि कम नही कर सकता या रोक नही लगा सकता। इसे यूं समझे – यदि घर का मुखिया पिताजी / माताजी आपसे नाराज हो तो पड़ोस के या बाहर का कोइ भी आपके भले के लिया आपके घर में प्रवेश नही कर सकता क्योकि वे “बाहरी ” होते है।
खासकर सांसारिक लोगो को कुलदेवी देवता की उपासना इष्ट देवी देवता की तरह रोजाना करना चाहिये
ऐसे अनेक परिवार देखने मे आते है जिन्हें अपने कुल देवी देवता के बारे में कुछ भी नही मालूम नही होता है। किन्तु कुलदेवी / देवता को भुला देने मात्र से वे हट नही जाते , वे अभी भी वही रहेंगे । यदि मालूम न हो तो अपने परिवार या गोत्र के बुजुर्गो से कुलदेवता / देवी के बारे में जानकारी लेवें, यह जानने की कोशिश करे की झडूला / मुण्डन सस्कार आपके गोत्र परम्परानुसार कहा होता है , या “जात” कहा दी जाती है । या विवाह के बाद एक अंतिम फेरा (५,६,७ वां ) कहा होता है। हर गोत्र / धर्म के अनुसार भिन्नता होती है. सामान्यत: ये कर्म कुलदेवी/कुलदेवता के सामने होते है. और यही इनकी पहचान है ।
समय क्रम में परिवारों के एक दुसरे स्थानों पर स्थानांतरित होने ,धर्म परिवर्तन करने ,आक्रान्ताओं के भय से विस्थापित होने ,जानकार व्यक्ति के असमय मृत होने ,संस्कारों के क्षय होने ,विजातीयता पनपने ,इनके पीछे के कारण को न समझ पाने आदि के कारण बहुत से परिवार अपने कुल देवता / देवी को भूल गए अथवा उन्हें मालूम ही नहीं रहा की उनके कुल देवता / देवी कौन हैं या किस प्रकार उनकी पूजा की जाती है ,इनमें पीढ़ियों से शहरों में रहने वाले परिवार अधिक हैं ,कुछ स्वयंभू आधुनिक मानने वाले और हर बात में वैज्ञानिकता खोजने वालों ने भी अपने ज्ञान के गर्व में अथवा अपनी वर्त्तमान अच्छी स्थिति के गर्व में इन्हें छोड़ दिया या इन पर ध्यान नहीं दिया |
कुल देवता / देवी की पूजा छोड़ने के बाद कुछ वर्षों तक तो कोई ख़ास अंतर नहीं समझ में आता ,किन्तु उसके बाद जब सुरक्षा चक्र हटता है तो परिवार में दुर्घटनाओं ,नकारात्मक ऊर्जा ,वायव्य बाधाओं का बेरोक-टोक प्रवेश शुरू हो जाता है ,उन्नति रुकने लगती है ,पीढ़िया अपेक्षित उन्नति नहीं कर पाती ,संस्कारों का क्षय ,नैतिक पतन ,कलह, उपद्रव ,अशांति शुरू हो जाती हैं ,व्यक्ति कारण खोजने का प्रयास करता है, कारण जल्दी नहीं पता चलता क्योकि व्यक्ति की ग्रह स्थितियों से इनका बहुत मतलब नहीं होता है ,अतः ज्योतिष आदि से इन्हें पकड़ना मुश्किल होता है ,भाग्य कुछ कहता है और व्यक्ति के साथ कुछ और घटता है|
कुल देवता या देवी हमारे वह सुरक्षा आवरण हैं जो किसी भी बाहरी बाधा ,नकारात्मक ऊर्जा के परिवार में अथवा व्यक्ति पर प्रवेश से पहले सर्वप्रथम उससे संघर्ष करते हैं और उसे रोकते हैं ,यह पारिवारिक संस्कारों और नैतिक आचरण के प्रति भी समय समय पर सचेत करते रहते हैं ,यही किसी भी ईष्ट को दी जाने वाली पूजा को ईष्ट तक पहुचाते हैं ,यदि इन्हें पूजा नहीं मिल रही होती है तो यह नाराज भी हो सकते हैं और निर्लिप्त भी हो सकते हैं,ऐसे में आप किसी भी ईष्ट की आराधना करे वह उस ईष्ट तक नहीं पहुँचता ,क्योकि सेतु कार्य करना बंद कर देता है , बाहरी बाधाये, अभिचार आदि, नकारात्मक ऊर्जा बिना बाधा व्यक्ति तक पहुचने लगती है,कभी कभी व्यक्ति या परिवारों द्वारा दी जा रही ईष्ट की पूजा कोई अन्य बाहरी वायव्य शक्ति लेने लगती है ,अर्थात पूजा न ईष्ट तक जाती है न उसका लाभ मिलता है| ऐसा कुलदेवता की निर्लिप्तता अथवा उनके कम शशक्त होने से होता है ।कुलदेव परम्परा भी लुप्तप्राय हो गयी है, जिन घरो में प्राय: कलह रहती है, वंशावली आगे नही बढ रही है (निर्वंशी हो रहे हों , आर्थिक उन्नति नही हो रही है, विकृत संताने हो रही हो अथवा अकाल मौते हो रही हो, उन परिवारों में विशेष ध्यान देना चाहिए।
समय क्रम में परिवारों के एक दुसरे स्थानों पर स्थानांतरित होने ,धर्म परिवर्तन करने ,आक्रान्ताओं के भय से विस्थापित होने, जानकार व्यक्ति के असमय मृत होने, संस्कारों के क्षय होने, विजातीयता पनपने, इनके पीछे के कारण को न समझ पाने आदि के कारण बहुत से परिवार अपने कुल देवता / देवी को भूल गए अथवा उन्हें मालूम ही नहीं रहा की उनके कुल देवता / देवी कौन हैं या किस प्रकार उनकी पूजा की जाती है । इनमे पीढ़ियों से शहरों में रहने वाले परिवार अधिक हैं । पंडित दयानन्द शास्त्री ने बताया की कुछ स्वयंभू आधुनिक मानने वाले और हर बात में वैज्ञानिकता खोजने वालों ने भी अपने ज्ञान के गर्व में अथवा अपनी वर्त्तमान अच्छी स्थिति के गर्व में इन्हें छोड़ दिया या इन पर ध्यान नहीं दिया |
पूर्व के हमारे कुलों अर्थात पूर्वजों के खानदान के वरिष्ठों ने अपने लिए उपयुक्त कुल देवता अथवा कुलदेवी का चुनाव कर उन्हें पूजित करना शुरू किया था ,ताकि एक आध्यात्मिक और पारलौकिक शक्ति कुलों की रक्षा करती रहे जिससे उनकी नकारात्मक शक्तियों/उर्जाओं और वायव्य बाधाओं से रक्षा होती रहे तथा वे निर्विघ्न अपने कर्म पथ पर अग्रसर रह उन्नति करते रहे |
कुलदेवता या देवी सम्बंधित व्यक्ति के पारिवारिक संस्कारों के प्रति संवेदनशील होते हैं और पूजा पद्धति ,उलटफेर ,विधर्मीय क्रियाओं अथवा पूजाओं से रुष्ट हो सकते हैं ,सामान्यतया इनकी पूजा वर्ष में एक बार अथवा दो बार निश्चित समय पर होती है ,यह परिवार के अनुसार भिन्न समय होता है और भिन्न विशिष्ट पद्धति होती है,शादी-विवाह-संतानोत्पत्ति आदि होने पर इन्हें विशिष्ट पूजाएँ भी दी जाती हैं,यदि यह सब बंद हो जाए तो या तो यह नाराज होते हैं या कोई मतलब न रख मूकदर्शक हो जाते हैं और परिवार बिना किसी सुरक्षा आवरण के पारलौकिक शक्तियों के लिए खुल जाता है ,परिवार में विभिन्न तरह की परेशानियां शुरू हो जाती हैं ,अतः प्रत्येक व्यक्ति और परिवार को अपने कुल देवता या देवी को जानना चाहिए तथा यथायोग्य उन्हें पूजा प्रदान करनी चाहिए, जिससे परिवार की सुरक्षा -उन्नति होती रहे ।
कुलदेवी देवता की उपासना इष्ट देवी देवता की तरह रोजाना करना चाहिये, खासकर सांसारिक लोगो को !
अकसर कुलदेवी ,देवता और इष्ट देवी देवता एक ही हो सकते है , इनकी उपासना भी सहज और तामझाम से परे होती है.जैसे नियमित दीप व् अगरबत्ती जलाकर देवो का नाम पुकारना या याद करना , विशिष्ट दिनों में विशेष पूजा करना, घर में कोई पकवान आदि बनाए तो पहले उन्हें अर्पित करना फिर घर के लोग खाए, हर मांगलिक कार्य या शुभ कार्य में उन्हें निमन्त्रण देना या आज्ञा मांगकर कार्य करना आदि। पंडित दयानन्द शास्त्री ने बताया की इस कुल परम्परा की सबसे महत्वपूर्ण बात यह है की यदि आपने अपना धर्म बदल लिया हो या इष्ट बदल लिया हो तब भी तब भी कुलदेवी देवता नही बदलेंगे , क्योकि इनका सम्बन्ध आपके वंश परिवार से है . किन्तु धर्म या पंथ बदलने सके साथ साथ यदि कुल देवी देवता का भी त्याग कर दिया तो जीवन में अनेक कष्टों का सामना करना पद सकता है जैसे धन नाश , दरिद्रता, बीमारिया , दुर्घटना, गृह कलह, अकाल मौते आदि। वही इन उपास्य देवो की वजह से दुर्घटना बीमारी आदि से सुरक्षा होते भी होते भी देखा गया है I
ऐसे अनेक परिवार भी मैंने देखा है जिन्हें अपने कुल देवी देवता के बारे में कुछ भी नही मालूम | एक और बात ध्यान देने योग्य है- किसी महिला का विवाह होने के बाद ससुराल की कुलदेवी / देवता ही उसके उपास्य हो जायेंगे न की मायके के। इसी प्रकार कोई बालक किसी अन्य परिवार में गोद में चला जाए तो गोद गये परिवार के कुल देव उपास्य होंगे।
कुल परम्परा कैसे जाने ?
कुलदेवी – कुलदेवता के पूजन की सरल विधि :-
* नवरात्री में पूजा अठवाई के साथ परम्परानुसार करनी चाहिए ।
पितृ देवता के पूजन की सरल विधि :-
* चावल की सेनक : चावल को उबाल पका लेवे फिर उसमे घी और शक्कर मिला ले ।
* अठवाई : दो पूड़ी के साथ एक मीठा पुआ और उस पर सूजी का हलवा , इस प्रकार दो जोड़े कुल मिलाकर ४ पूड़ी ; २ मीठा पुआ और थोड़ा सूजी का हलवा ।
कुलदेवी-कुल देवता को नहीं पूजने / मानाने के दुष्प्रभाव / परिणाम-
आज हमें यह पता ही नहीं चल रहा की हम सब पर इतनी मुसीबते आ क्यों रहे है ? बहुत से ऐसे लोग भी है जो बहुत पूजा पाठ करते है , बहुत धार्मिक है फिर भी उसके परिवार में सुख शांति नहीं है । बेटा बेरोजगार होता है बहुत पढने लिखने के बाद भी पिता पुत्र में लड़ाई होती रहती है , जो धन आता है घर मे पता ही नहीं चलता कोनसे रास्ते निकल जाता है । पहले बेटे बेटी की शादी नहीं होती , शादी किसी तरह हो भी गई तो संतान नहीं होती । ये संकेत है की आपके कुलदेव या देवी आपसे रुष्ट है ।
आपके ऊपर से सुरक्षा चक्र हट चूका है , जिसके कारण नकारात्मक शक्तियां आप पर हावी हो जाती है । फिर चाहे आप कितना पूजा पाठ करवा लो कोइ लाभ नहीं होगा । लेकिन आधुनिक लोग इन बातो को नहीं मानते । आँखे बन्द कर लेने से रात नहीं हो जाती । सत्य तो सत्य ही रहेगा । जो हमारे बुजुर्ग लोग कह गए वो सत्य है , भले ही वो आप सबकी तरह अंग्रेजी स्कूल में ना पढ़े हो लेकिन समझ उनमे आपसे ज्यादा थी । उनके जैसे संस्कार आज के बच्चों में नहीं मिलेंगे ।
कुल देवता – कुलदेवी का जिवन मे क्या महत्व है ?
जीवन में कुलदेवता का स्थान सर्वश्रेष्ठ है | आर्थिक सुबत्ता, कौटुंबिक सौख्य और शांती तथा आरोग्य के विषय में कुलदेवी की कृपा का निकटतम संबंध पाया गया है |
मोक्षमार्ग की और बढने वाले साधु संत भी प्रथमत: कुलदेवी की कृपा संपादन कर सन्मति प्राप्त करते है |
कुलदेवी/देवता दरअसल कुल या वंश की रक्षक देवी देवता होते है। ये घर परिवार या वंश परम्परा की प्रथम पूज्य तथा मूल अधिकारी देव होते है । सर्वाधिक आत्मीयता के अधिकारी इन देवो की स्थिति घर के बुजुर्ग सदस्यों जैसी महत्वपूर्ण होती है । अत: इनकी उपासना या महत्त्व दिए बगैर सारी पूजा एवं अन्य कार्य व्यर्थ हो सकते है। इनका प्रभाव इतना महत्वपूर्ण होता है की यदि ये रुष्ट हो जाए तो अन्य कोई देवी देवता दुष्प्रभाव या हानि कम नही कर सकता या रोक नही लगा सकता। इसे यूं समझे - यदि घर का मुखिया पिताजी /माताजी आपसे नाराज हो तो पड़ोस के या बाहर का कोइ भी आपके भले के लिया आपके घर में प्रवेश नही कर सकता क्योकि वे "बाहरी " होते है।
खासकर सांसारिक लोगो को कुलदेवी देवता की उपासना इष्ट देवी देवता की तरह रोजाना करना चाहिये,
ऐसे अनेक परिवार देखने मे आते है जिन्हें अपने कुल देवी देवता के बारे में कुछ भी नही मालूम नही होता है। किन्तु कुलदेवी /देवता को भुला देने मात्र से वे हट नही जाते , वे अभी भी वही रहेंगे । यदि मालूम न हो तो अपने परिवार या गोत्र के बुजुर्गो से कुलदेवता।/देवी के बारे में जानकारी लेवें, यह जानने की कोशिश करे की झडूला / मुण्डन सस्कार आपके गोत्र परम्परानुसार कहा होता है , या "जात" कहा दी जाती है । या विवाह के बाद एक अंतिम फेरा (५,६,७ वां ) कहा होता है। हर गोत्र / धर्म के अनुसार भिन्नता होती है. सामान्यत: ये कर्म कुलदेवी/कुलदेवता के सामने होते है. और यही इनकी पहचान है ।
कुलदेव परम्परा भी लुप्तप्राय हो गयी है, जिन घरो में प्राय: कलह रहती है, वंशावली आगे नही बढ रही है (निर्वंशी हो रहे हों , आर्थिक उन्नति नही हो रही है, विकृत संताने हो रही हो अथवा अकाल मौते हो रही हो, उन परिवारों में विशेष ध्यान देना चाहिए।
समय क्रम में परिवारों के एक दुसरे स्थानों पर स्थानांतरित होने ,धर्म परिवर्तन करने ,आक्रान्ताओं के भय से विस्थापित होने, जानकार व्यक्ति के असमय मृत होने, संस्कारों के क्षय होने, विजातीयता पनपने, इनके पीछे के कारण को न समझ पाने आदि के कारण बहुत से परिवार अपने कुल देवता /देवी को भूल गए अथवा उन्हें मालूम ही नहीं रहा की उनके कुल देवता /देवी कौन हैं या किस प्रकार उनकी पूजा की जाती है । इनमे पीढ़ियों से शहरों में रहने वाले परिवार अधिक हैं । कुछ स्वयंभू आधुनिक मानने वाले और हर बात में वैज्ञानिकता खोजने वालों ने भी अपने ज्ञान के गर्व में अथवा अपनी वर्त्तमान अच्छी स्थिति के गर्व में इन्हें छोड़ दिया या इनपर ध्यान नहीं दिया |
पूर्व के हमारे कुलों अर्थात पूर्वजों के खानदान के वरिष्ठों ने अपने लिए उपयुक्त कुल देवता अथवा कुलदेवी का चुनाव कर उन्हें पूजित करना शुरू किया था ,ताकि एक आध्यात्मिक और पारलौकिक शक्ति कुलों की रक्षा करती रहे जिससे उनकी नकारात्मक शक्तियों/उर्जाओं और वायव्य बाधाओं से रक्षा होती रहे तथा वे निर्विघ्न अपने कर्म पथ पर अग्रसर रह उन्नति करते रहे |
अतः प्रत्येक व्यक्ति और परिवार को अपने कुल देवता या देवी को जानना चाहिए तथा यथायोग्य उन्हें पूजा प्रदान करनी चाहिए, जिससे परिवार की सुरक्षा -उन्नति होती रहे । कुलदेवी की उपासना से आपमे श्रध्दा बलवान होती है, और यह श्रध्दा आपके ह्रदय को पवित्र करती है, और आप जिवन का अंतिम लक्ष्य मोक्ष के पथ पर अग्रेसर हाने लगते हो ।
श्रीभैरव : श्रीबटुक भैरव - श्रीकाल भैरव
भगवान श्रीभैरव : श्रीबटुक भैरव - श्रीकाल भैरव
भैरव शिव का ही स्वरूप हैं। इसलिए शिव की आराधना से पहले भैरव उपासना की जाती है। शिवमहापुराण में भैरव को परमात्मा शंकर का ही पूर्णरूप बताते हुए लिखा गया है - " भैरव: पूर्णरूपोहि शंकरस्य परात्मन:। मूढास्तेवै न जानन्ति मोहिता:शिवमायया॥" भगवान शंकर के अवतारों में भैरव का अपना एक विशिष्ट महत्व है। तंत्राचार्यों का मानना है कि वेदों में जिस परम पुरुष का चित्रण रुद्र में हुआ, वह तंत्र शास्त्र के ग्रंथों में उस स्वरूप का वर्णन 'भैरव' के नाम से किया गया, जिसके भय से सूर्य एवं अग्नि तपते हैं। इंद्र-वायु और मृत्यु देवता अपने-अपने कामों में तत्पर हैं, वे परम शक्तिमान 'भैरव' ही हैं।
तांत्रिक पद्धति में भैरव शब्द की निरूक्ति उनका विराट रूप प्रतिबिम्बित करती हैं। वामकेश्वर तंत्र की योगिनीह्रदयदीपिका टीका में अमृतानंद नाथ कहते हैं- 'विश्वस्य भरणाद् रमणाद् वमनात् सृष्टि-स्थिति-संहारकारी परशिवो भैरवः।'
भ- से विश्व का भरण, र- से रमश, व- से वमन अर्थात सृष्टि को उत्पत्ति पालन और संहार करने वाले शिव ही भैरव हैं। तंत्रालोक की विवेक-टीका में भगवान शंकर के भैरव रूप को ही सृष्टि का संचालक बताया गया है।
श्री तत्वनिधि नाम तंत्र-मंत्र में भैरव शब्द के तीन अक्षरों के ध्यान के उनके त्रिगुणात्मक स्वरूप को सुस्पष्ट परिचय मिलता है, क्योंकि ये तीनों शक्तियां उनके समाविष्ट हैं-
'भ' अक्षरवाली जो भैरव मूर्ति है वह श्यामला है, भद्रासन पर विराजमान है तथा उदय कालिक सूर्य के समान सिंदूरवर्णी उसकी कांति है। वह एक मुखी विग्रह अपने चारों हाथों में धनुष, बाण वर तथा अभय धारण किए हुए हैं।
'र' अक्षरवाली भैरव मूर्ति श्याम वर्ण हैं। उनके वस्त्र लाल हैं। सिंह पर आरूढ़ वह पंचमुखी देवी अपने आठ हाथों में खड्ग, खेट (मूसल), अंकुश, गदा, पाश, शूल, वर तथा अभय धारण किए हुए हैं।
'व' अक्षरवाली भैरवी शक्ति के आभूषण और नरवरफाटक के सामान श्वेत हैं। वह देवी समस्त लोकों का एकमात्र आश्रय है। विकसित कमल पुष्प उनका आसन है। वे चारों हाथों में क्रमशः दो कमल, वर एवं अभय धारण करती हैं।
प्राचीन ग्रंथों में भैरव :-
‘शिवपुराण’ के अनुसार कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी को मध्यान्ह में भगवान शंकर के अंश से भैरव की उत्पत्ति हुई थी, अतः इस तिथि को काल-भैरवाष्टमी के नाम से भी जाना जाता है। पौराणिक आख्यानों के अनुसार अंधकासुर नामक दैत्य अपने कृत्यों से अनीति व अत्याचार की सीमाएं पार कर रहा था, यहाँ तक कि एक बार घमंड में चूर होकर वह भगवान शिव तक के ऊपर आक्रमण करने का दुस्साहस कर बैठा. तब उसके संहार के लिए शिव के रुधिर से भैरव की उत्पत्ति हुई।
कुछ पुराणों के अनुसार शिव के अपमान-स्वरूप भैरव की उत्पत्ति हुई थी। यह सृष्टि के प्रारंभकाल की बात है। सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने भगवान शंकर की वेशभूषा और उनके गणों की रूपसज्जा देख कर शिव को तिरस्कारयुक्त वचन कहे। अपने इस अपमान पर स्वयं शिव ने तो कोई ध्यान नहीं दिया, किन्तु उनके शरीर से उसी समय क्रोध से कम्पायमान और विशाल दण्डधारी एक प्रचण्डकाय काया प्रकट हुई और वह ब्रह्मा का संहार करने के लिये आगे बढ़ आयी। स्रष्टा तो यह देख कर भय से चीख पड़े। शंकर द्वारा मध्यस्थता करने पर ही वह काया शांत हो सकी। रूद्र के शरीर से उत्पन्न उसी काया को महाभैरव का नाम मिला। बाद में शिव ने उसे अपनी पुरी, काशी का नगरपाल नियुक्त कर दिया। ऐसा कहा गया है कि भगवान शंकर ने इसी अष्टमी को ब्रह्मा के अहंकार को नष्ट किया था, इसलिए यह दिन भैरव अष्टमी व्रत के रूप में मनाया जाने लगा। भैरव अष्टमी 'काल' का स्मरण कराती है, इसलिए मृत्यु के भय के निवारण हेतु बहुत से लोग कालभैरव की उपासना करते हैं।
ऐसा भी कहा जाता है की ,ब्रह्मा जी के पांच मुख हुआ करते थे तथा ब्रह्मा जी पांचवे वेद की भी रचना करने जा रहे थे,सभी देवो के कहने पर महाकाल भगवान शिव ने जब ब्रह्मा जी से वार्तालाप की परन्तु ना समझने पर महाकाल से उग्र,प्रचंड रूप भैरव प्रकट हुए और उन्होंने नाख़ून के प्रहार से ब्रह्मा जी की का पांचवा मुख काट दिया, इस पर भैरव को ब्रह्मा हत्या का पाप भी लगा I
भैरव उपासना की शाखाएं :-
शिवपुराण के अनुसार मार्गशीर्ष मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी को दोपहर में भगवान शंकर के अंश से भैरव की उत्पत्ति हुई थी। इसलिए इस तिथि को काल भैरवाष्टमी या भैरवाष्टमी के नाम से जाना जाता है। पुराणों के अनुसार अंधकासुर दैत्य अपनी सीमाएं पार कर रहा था। यहां तक कि एक बार घमंड में चूर होकर वह भगवान शिव के ऊपर हमला करने का दुस्साहस कर बैठा। तब उसके संहार के लिए लिए शिव के खून से भैरव की उत्पत्ति हुई। पुराणों में उल्लेख है कि शिव के रूधिर से भैरव की उत्पत्ति हुई। बाद में उक्त रूधिर के दो भाग हो गए- पहला बटुक भैरव और दूसरा काल भैरव।
कालान्तर में भैरव-उपासना की दो शाखाएं :-
[1] श्रीबटुक भैरव :-
'बटुकाख्यस्य देवस्य भैरवस्य महात्मन:।
ब्रह्मा विष्णु, महेशाधैर्वन्दित दयानिधे।।'
- अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु, महेशादि देवों द्वारा वंदित बटुक नाम से प्रसिद्ध इन भैरव देव की उपासना कल्पवृक्ष के समान फलदायी है। बटुक भैरव भगवान का बाल रूप है। इन्हें आनंद भैरव भी कहते हैं। उक्त सौम्य स्वरूप की आराधना शीघ्र फलदायी है। यह कार्य में सफलता के लिए महत्वपूर्ण है।
।।ॐ ह्रीं बटुकाय आपदुद्धारणाचतु य कुरु कुरु बटुकाय ह्रीं ॐ।।
तथा
[2] श्रीकाल भैरव :-
भूत, प्रेत, पिशाच, पूतना, कोटरा और रेवती आदि की गणना भगवान शिव के अन्यतम गणों में की जाती है। दूसरे शब्दों में कहें तो विविध रोगों और आपत्तियों विपत्तियों के वह अधिदेवता हैं। शिव प्रलय के देवता भी हैं, अत: विपत्ति, रोग एवं मृत्यु के समस्त दूत और देवता उनके अपने सैनिक हैं। इन सब गणों के अधिपति या सेनानायक हैं महाभैरव। सीधी भाषा में कहें तो भय वह सेनापति है जो बीमारी, विपत्ति और विनाश के पार्श्व में उनके संचालक के रूप में सर्वत्र ही उपस्थित दिखायी देता है।
जहां बटुक भैरव अपने भक्तों को अभय देने वाले सौम्य स्वरूप में विख्यात हैं वहीं काल भैरव आपराधिक प्रवृत्तियों पर नियंत्रण करने वाले प्रचण्ड दंडनायक के रूप में प्रसिद्ध हुए।
तंत्रशास्त्र में अष्ट-भैरव का उल्लेख है :– असितांग-भैरव, रुद्र-भैरव, चंद्र-भैरव, क्रोध-भैरव, उन्मत्त-भैरव, कपाली-भैरव, भीषण-भैरव तथा संहार-भैरव।
कालिका पुराण में भैरव को नंदी, भृंगी, महाकाल, वेताल की तरह भैरव को शिवजी का एक गण बताया गया है जिसका वाहन कुत्ता है। ब्रह्मवैवर्तपुराण में भी :– महाभैरव, संहार भैरव, असितांग भैरव, रुद्र भैरव, कालभैरव क्रोध भैरव, ताम्रचूड़ भैरव तथा चंद्रचूड़ भैरव नामक आठ पूज्य भैरवों का निर्देश है। इनकी पूजा करके मध्य में नवशक्तियों की पूजा करने का विधान बताया गया है।
श्री भैरव के अनेक रूप हैं जिसमें प्रमुख रूप से बटुक भैरव, महाकाल भैरव तथा स्वर्णाकर्षण भैरव प्रमुख हैं। जिस भैरव की पूजा करें उसी रूप के नाम का उच्चारण होना चाहिए। सभी भैरवों में बटुक भैरव उपासना का अधिक प्रचलन है। तांत्रिक ग्रंथों में अष्ट भैरव के नामों की प्रसिद्धि है। वे इस प्रकार हैं-
1. असितांग भैरव, 2. चंड भैरव, 3. रूरू भैरव, 4. क्रोध भैरव,
5. उन्मत्त भैरव, 6. कपाल भैरव, 7. भीषण भैरव 8. संहार भैरव।
अष्ट भैरव (आठ भैरव) भगवान काल भैरव के आठ स्वरूप हैं, जो कि भगवान शिव का एक रौद्र रूप है । जो सभी भैरवों के प्रमुख व काल के शासक माने जाते हैं। वे आठों दिशाओं की रक्षा एवं नियंत्रण करते हैं ।
अष्ट भैरव किसका प्रतिनिधित्व करते हैं :-
अष्ट भैरव में से पाँच भैरव, पंच तत्वों यथा आकाश, वायु, जल, अग्नि और भूमि का प्रतिनिधित्व करते हैं और अन्य तीन सूर्य, चंद्र व आत्मा का। आठों भैरवों का स्वरूप एक दूसरे से भिन्न है, उनके वाहन व शस्त्र भी भिन्न हैं तथा वे अपने श्रद्धालुओं को अष्ट लक्ष्मी के रूप में आठ प्रकार की संपदाएँ देते हें । भैरव की निरंतर प्रार्थना श्रद्धालु को एक महागुरु बनने का मार्ग प्रशस्त करती है । आठों भैरवों के अलग अलग मूल मंत्र व ध्यान श्लोक हैं ।
श्री भैरव भगवान की आराधना कैसे करें:-
सामान्यतः ये विश्वास किया जाता है कि भैरवों की उपासना करने से समृद्धि, सफलता, सुशील संतान, अकाल मृत्यु से बचाव तथा ऋण मुक्ति व उत्तरदायित्वों की कुशल निर्वहन क्षमता आदि की प्राप्ति होती है। भैरवों के विभिन्न स्वरूप भगवान शिव से विकसित हुए जो कि भैरव के रूप में अस्तित्व में आए। भैरव नाम स्वयं में एक गहरा अर्थ समेटे हुए है। इस नाम का प्रथम खंड अर्थात “भै” यानि भय अथवा दिव्य प्रकाश को इंगित करता है एवं इस नाम से साधक को धन की प्राप्ति होती है। “रव” का अर्थ “प्रतिध्वनि” है जिसमे “र” शब्द नकारात्मक परिणामों एवं प्रतिबंधों को दूर करने वाला है और “व” शब्द अवसरों को उत्पन्न करने का कार्य करता है। कुल मिलाकर, भैरव शब्द यह इंगित करता है कि यदि हम भय का प्रयोग करें तो हम ‘असीम आनंद’ को प्राप्त कर सकते हैं। भगवान शिव के मंदिरों में नियमित पूजा अर्चना सूर्योपासना से प्रारम्भ होकर भैरव वंदना के साथ समाप्त होती है। शुक्रवार की मध्यरात्रि भैरव पूजा के सर्वथा योग्य मानी जाती है।
भैरव की मूर्तियाँ अपना व्यक्तित्व कैसे व्यक्त करती हैं :-
भैरव सामान्यतः उत्तर या दक्षिण दिशा में स्थापित होते हैं। एक देवता के रूप में, भैरव सदैव चार भुजाओं के साथ खड़ी मुद्रा में प्रकट होते है अपने बाएं हाथों में डमरू और फंडा धारण करते हैं और अपने दाहिने हाथों पर त्रिशूल और मुंड धारण करते हैं।कभी कभी भैरव अधिक हाथों सहित प्रदर्शित किए जाते हैं। वह पूर्ण अथवा आंशिक नग्नवस्था में रहते हैं। उनका वाहन श्वान उनके साथ ही रहता है, जो कि मात्र एक वाहन ही नहीं अपितु भगवान भैरव के साथ उनकी भयावह गतिविधियों में उनका सहयोगी भी रहता है। भैरव अपने उभरे हुए दांतों की वजह से भयावह दिखते हैं। उनके गले में लाल फूलों की माला सुशोभित होती है।
श्रीभैरव आराधना के विशेष मंत्र :-
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- 'ॐ कालभैरवाय नम:।'
- 'ॐ भयहरणं च भैरव:।'
- 'ॐ भ्रां कालभैरवाय फट्।'
- 'ॐ हं षं नं गं कं सं खं महाकाल भैरवाय नम:।'
- 'ॐ ह्रीं बटुकाय आपदुद्धारणाय कुरू कुरू बटुकाय ह्रीं।'
काल भैरव मंत्र
1) ॥ ॐ हं षं नं गं कं सं खं महाकाल भैरवाय नम:॥
2) ॐ ह्रीं बटुकाय आपदुद्धारणाचतु य कुरु कुरु बटुकाय ह्रीं ॐ॥
3) ॥ ॐ भैरवाय नम:॥
4) 'बटुकाख्यस्य देवस्य भैरवस्य महात्मन:। ब्रह्मा विष्णु, महेशाधैर्वन्दित दयानिधे॥' 5) ॐ ह्रीं बटुकाय आपदुद्धारणाय कुरु कुरु बटुकाय ह्रीं
6) ॥ ऊं भ्रं कालभैरवाय फ़ट॥
7) || ॐ भयहरणं च भैरव: ||
II श्रीकालभैरवाष्टकम् काल भैरव अष्टक II
ॐ देवराजसेव्यमानपावनाङ्घ्रिपङ्कजं
व्यालयज्ञसूत्रमिन्दुशेखरं कृपाकरम
नारदादियोगिवृन्दवन्दितं दिगंबरं
काशिकापुराधिनाथ कालभैरवं भजे॥ १॥
भानुकोटिभास्वरं भवाब्धितारकं परं
नीलकण्ठमीप्सितार्थदायकं त्रिलोचनम ।
कालकालमंबुजाक्षमक्षशूलमक्षरं
काशिका पुराधिनाथ कालभैरवं भजे॥२॥
शूलटङ्कपाशदण्डपाणिमादिकारणं
श्यामकायमादिदेवमक्षरं निरामयम ।
भीमविक्रमं प्रभुं विचित्रताण्डवप्रियं
काशिका पुराधिनाथ कालभैरवं भजे ॥३॥
भुक्तिमुक्तिदायकं प्रशस्तचारुविग्रहं
भक्तवत्सलं स्थितं समस्तलोकविग्रहम ।
विनिक्वणन्मनोज्ञहेमकिङ्किणीलसत्कटिं
काशिकापुराधिनाथ कालभैरवं भजे ॥४॥
धर्मसेतुपालकं त्वधर्ममार्गनाशकं
कर्मपाशमोचकं सुशर्मदायकं विभुम ।
स्वर्णवर्णशेषपाशशोभिताङ्गमण्डलं
काशिकापुराधिनाथ कालभैरवं भजे ॥ ५॥
रत्नपादुकाप्रभाभिरामपादयुग्मकं
नित्यमद्वितीयमिष्टदैवतं निरञ्जनम ।
मृत्युदर्पनाशनं कराळदंष्ट्रमोक्षणं
काशिकापुराधिनाथ कालभैरवं भजे ॥६॥
अट्टहासभिन्नपद्मजाण्डकोशसन्ततिं
दृष्टिपातनष्टपापजालमुग्रशासनम ।
अष्टसिद्धिदायकं कपालमालिकन्धरं
काशिकापुराधिनाथ कालभैरवं भजे ॥७॥
भूतसङ्घनायकं विशालकीर्तिदायकं
काशिवासलोकपुण्यपापशोधकं विभुम ।
नीतिमार्गकोविदं पुरातनं जगत्पतिं
काशिकापुराधिनाथ कालभैरवं भजे ॥८॥
कालभैरवाष्टकं पठन्ति ये मनोहरं
ज्ञानमुक्तिसाधनं विचित्रपुण्यवर्धनम ।
शोकमोहदैन्यलोभकोपतापनाशनं
ते प्रयान्ति कालभैरवाङ्घ्रिसन्निधिं ध्रुवम ॥९॥
II इति श्रीमच्छङ्कराचार्यविरचितं कालभैरवाष्टकं संपूर्णम ॥
II श्रीकालभैरवाष्टकम् II
मङ्गलौघदानदक्षपादपद्मसंस्मृतिं
शृङ्गशैलवासिनं नमामि कालभैरवम् ॥ १॥
पादनम्रमूकलोकवाक्प्रदानदीक्षितं
वेदवेद्यमीशमोदवार्धिशुभ्रदीधितिम् ।
आदरेण देवताभिरर्चिताङ्घ्रिपङ्कजं
शृङ्गशैलवासिनं नमामि कालभैरवम् ॥ २॥
अम्बुजाक्षमिन्दुवक्त्रमिन्दिरेशनायकं
कम्बुकण्ठमिष्टदानधूतकल्पपादपम् ।
अम्बरादिभूतरूपमम्बरायिताम्बरं
शृङ्गशैलवासिनं नमामि कालभैरवम् ॥ ३॥
मन्दभाग्यमप्यरं सुरेन्द्रतुल्यवैभवं
सुन्दरं च कामतोऽपि संविधाय सन्ततम् ।
पालयन्तमात्मजातमादरात्पिता यथा
शृङ्गशैलवासिनं नमामि कालभैरवम् ॥ ४॥
नम्रकष्टनाशदक्षमष्टसिद्धिदायकं
कम्रहासशोभितुण्डमच्छगण्डदर्पणम् ।
कुन्दपुष्पमानचोरदन्तकान्तिभासुरं
शृङ्गशैलवासिनं नमामि कालभैरवम् ॥ ५॥
काशिकादिदिव्यदेशवासलोलमानसं
पाशिवायुकिन्नरेशमुख्यदिग्धवार्चितम् ।
नाशिताघवृन्दमङ्घ्रिनम्रलोकयोगदं
शृङ्गशैलवासिनं नमामि कालभैरवम् ॥ ६॥
सारमागमस्य तुङ्गसारमेयवाहनं
दारितान्तरान्ध्यमाशु नैजमन्त्रजापिनाम् ।
पूरिताखिलेष्टमष्टमूर्तिदेहसम्भवं
शृङ्गशैलवासिनं नमामि कालभैरवम् ॥ ७॥
कालभीतिवारणं कपालपाणिशोभितं
खण्डितामरारिमिन्दुबालशोभिमस्तकम् ।
चण्डबुद्धिदानदक्षमक्षतात्मशासनं
शृङ्गशैलवासिनं नमामि कालभैरवम् ॥ ८॥
II इति श्रीकालभैरवाष्टकं सम्पूर्णम् II
दिगम्बरं भस्मविभूषिताङ्गं नमाम्यहं भैरवमिन्दुचूडम् ॥ १॥
कवित्वदं सत्वरमेव मोदान्नतालये शम्भुमनोऽभिरामम् ।
नमामि यानीकृतसारमेयं भवाब्धिपारं गमयन्तमाशु ॥ २॥
जरादिदुःखौघविभेददक्षं विरागिसंसेव्यपदारविन्दम् ।
नराधिपत्वप्रदमाशु नन्त्रे सुराधिपं भैरवमानतोऽस्मि ॥ ३॥
शमादिसम्पत्प्रदमानतेभ्यो रमाधवाद्यर्चितपादपद्मम् ।
समाधिनिष्ठैस्तरसाधिगम्यं नमाम्यहं भैरवमादिनाथम् ॥ ४॥
गिरामगम्यं मनसोऽपि दूरं चराचरस्य प्रभवादिहेतुम् ।
कराक्षिपच्छून्यमथापि रम्यं परावरं भैरवमानतोऽस्मि ॥ ५॥
II इतिश्री श्रीकालभैरवपञ्चरत्नस्तुतिः सम्पूर्णा II
कालकालाय ।कालदण्डधृते । कालात्मने । काममन्त्रात्मने ।
काशिकापुरनायकाय । करुणावारिधये । कान्तामिलिताय ।
कालिकातनवे । कालजाय । कुक्कुटारूढाय । कपालिने ।
कालनेमिघ्ने । कालकण्ठाय । कटाक्षाऽनुग्रहीताऽखिलसेवकाय ।
कपालकर्परोत्कृष्टभिक्षापात्रधराय । कवये । कल्पान्तदहनाकाराय ।
कलानिधिकलाधराय । कपालमालिकाभूषाय नमः ॥ २०
ॐ ह्रीं क्रीं हूं ह्रीं कालीकुलवरप्रदाय नमः ।
काली-कलावती-दीक्षा-संस्कारोपासनप्रियाय ।
कालिकादक्षपार्श्वस्थाय । कालीविद्यास्वरूपवते । कालीकूर्चसमायुक्तभुवनाकूटभासुराय ।
कालीध्यानजपासक्तहृदाकारनिवासकाय ।
कालिकावरिवस्त्यादिप्रधानकल्पपादपाय । काल्युग्रावासव
ब्राह्मी प्रमुखाचार्यनायकाय । कङ्कालमालिकाधारिणे ।
कमनीयजटाधराय । कोणरेखाष्टभद्रस्थप्रदेशबिन्दुपीठकाय ।
कदलीकरवीरार्ककञ्जहोमार्चनप्रियाय । कूर्मपीठादि शक्तीशाय ।
कलाकाष्ठाऽधिपालकाय । कठभ्रुवे । कामसञ्चारिणे । कामारये ।
कामरूपवते । कण्ठादिसर्वचक्रस्थाय । क्रियादिकोटिदीपकाय नमः ॥ ४०
ॐ ह्रीं क्रीं हूं ह्रीं कर्णहीनोपवीतापाय नमः । कनकाचलदेहवते ।
कन्धराकारदहरागसभासुर मूर्तिमते । कपालमोचनानन्ताय ।
कालराजाय । क्रियाप्रदाय । करणाधिपतये । कर्मकारकाय ।
कर्तृनायकाय । कण्ठाद्यखिलदेशाहिभूषणाढ्याय । कलात्मकाय । कर्मखण्डाधिपाय । किल्बिषमोचिने । कामकोष्टकाय ।
कलकण्ठारवानन्दिने । कर्मश्रद्धावरप्रदाय । गुणभाकीर्णगान्धारसञ्चारिणे । गौमतीस्मिताय । किङ्किणीमञ्जुनिर्वाण-कटीसूत्रविराजिताय ।
कल्याणकृत्कलिध्वंसिने नमः ॥ ६०
ॐ ह्रीं क्रीं हूं ह्रीं कर्मसाक्षिणे नमः । कृतज्ञपाय ।
कराळदंष्ट्राय । कन्दर्पदर्पघ्नाय । कामभेदनाय ।
कालागुरुविलिप्ताङ्गाय । कादरार्थाऽभयप्रदाय । कलन्तिकाभरदाय ।
कालीभक्तलोकवरप्रदाय । कमिनीकाञ्चनाभक्तमोचकाय ।
कमलेक्षणाय । कादम्बरीरसास्वादलोलुपाय । काङ्क्षितार्थदाय ।
कबन्धनावाय । कामाख्याकाञ्च्यादिक्षेत्रपालकाय । कैवल्यप्रदमन्दाराय ।
कोटिसूर्यसमप्रभाय । क्रियेच्छाज्ञानशक्तिप्रदीपकानललोचनाय ।
काम्यादिकर्मसर्वस्वफलदाय । कर्मपोषकाय नमः ॥ ८०
ॐ ह्रीं क्रीं हूं ह्रीं कार्यकारणनिर्मात्रे नमः ।
कारागृहविमोचकाय । कालपर्यायमूलस्थाय । कार्यसिद्धिप्रदायकाय ।
कालानुरूपकर्माङ्गमोक्षणभ्रान्तिनाशनाय । कालचक्रप्रभेदिने ।
कालिम्मन्ययोगिनीप्रियाय । काहलादिमहावाद्यातालताण्डवलालसाय ।
कुलकुण्डलिनीशाक्तयोगसिद्धिप्रदायकाय । कालरात्री
महारात्री शिवरात्र्यादि कारकाय । कोलाहलध्वनये । कोपिने ।
कौलमार्गप्रवर्तकाय । कर्मकौशल्यसन्तोषिणे । केलीभाषणलालसाय ।
कृत्स्नप्रवृत्तविश्वाण्डपञ्चकृत्यविदायकाय । कालनाथपराय ।
कालाय । कालधर्मप्रवर्तकाय । कुलाचार्याय नमः ॥ १००
ॐ ह्रीं क्रीं हूं ह्रीं कुलाचाररताय नमः । गुह्वष्टमीप्रियाय ।
कर्मबन्धाखिलच्छेदिने । गोष्टस्थभैरवाग्रण्ये ।
कटोरौजस्यभीष्माज्ञापालकिङ्करसेविताय । कालरुद्राय ।
कालवेलाहोरांशमूर्तिमते । कराय नमः ॥ १०८
II इति श्रीकालभैरवाष्टोत्तरशतनामावली सम्पूर्णम् ॥
II श्रीबटुकभैरवप्रातःस्मरणम् II
श्रीस्फाटिकाभसदृशं कुटिलालकाढ्यम् ।
वक्त्रं दधानमणिमादिगुणैर्हि युक्तं
हस्तद्वयं मणिमयैः पदभूषणैश्च ॥ १॥
प्रातर्नमामि बटुकं तरुणं त्रिनेत्रं
कामास्पदं वरकपालत्रिशूलदण्डान् ।
भक्तार्तिनाशकरणे दधतं करेषु
तं कौस्तुभाभरणभूषित दिव्यदेहम् ॥ २॥
प्रातःकाले सदाऽहं भगणपरिधरं भालदेशे महेशं
नागं पाशं कपालं डमरूमथ सृणिं खड्गघण्टाभयानि ।
दिग्वस्त्रं पिङ्गकेशं त्रिनयनसहितं मुण्डमालं करेषु
यो धत्ते भीमदंष्ट्रं मम विजयकरं भैरवं तं नमामि ॥ ३॥
देवदेव कृपासिन्धो सर्वनाशिन्महाव्यय ।
संसारासक्तचित्तं मां मोक्षमार्गे निवेशय ॥ ४॥
एतच्छ्लोकचतुष्कं वै भैरवस्य तु यः पठेत् ।
सर्वबाधाविनिर्मुक्तो जायते निर्भयः पुमान ॥ ५॥
II इतिश्री श्रीबटुकभैरवप्रातःस्मरणम् सम्पूर्णम् ॥
श्रीगुरवे नमः । श्रीभैरवाय नमः ।
अस्य श्रीबटुकभैरवाष्टकस्तोत्रमन्त्रस्य ईश्वर ऋषिः ।
गायत्री छन्दः । बटुकभैरवो देवताः । ह्रीं बीजम् । बटुकायेतिशक्तिः ।
प्रणवः कीलकम् । धर्मार्म्मार्थकाममोक्षार्थे पाठे विनियोगः ॥
अथ करन्यासः ।
कं अङ्गुष्टाभ्यां नमः । हं तर्जनीभ्यां स्वाहा ।
खं मध्यमाभ्यां वषट् । सं अनामिकाभ्यां हूं ।
गं कनिष्टिकाभ्यां वौषट् । क्षं करतलकरपृष्टाभ्यां फट् ॥
अथ हृदयादिन्यासः ।
कं हृदयाय नमः । हं शिरसे स्वाहा ।
खं शिखायै वषट् । सं कवचाय हूं ।
गं नेत्रत्रयाय वौषट् । क्षं अस्त्राय फट् ॥
अथाङ्ग न्यासः ।
क्षं नमः हृदि । कं नमः नासिकयोः ।
हं नमः ललाटे । खं नमः मुखे ।
सं नमः जिह्वायाम् । रं नमः कण्ठे ।
मं नमः स्तनयोः । नमः नमः सर्वाङ्गेषु ।
आज्ञा ।
तीक्ष्णदंष्ट्र महाकाय कल्पान्त दहनोपम ।
भैरवाय नमस्तुभ्यमनुज्ञान्दातुमर्हसि ॥ १॥
अथ ध्यानम् ।
करकलितकपालः कुण्डलीदण्डपाणि
स्तरुणतिमिरनीलोव्यालयज्ञोपवीती ।
क्रतुसमयसपर्या विघ्नविच्छेदहेतु-
र्जयतिबटुकनाथः सिद्धिदः साधकानाम् ॥ २॥
इति ध्यानम् ।
पूर्वे आसिताङ्गभैरवाय नमः पूर्वदिशि मां रक्ष रक्ष
कालकण्टकान् भक्ष भक्ष आवाहयाम्यहमत्रतिष्ट तिष्ट हूं फट् स्वाहा ।
आग्नेये रुरुभैरवाय नमः आग्नेये मां रक्ष रक्ष
कालकण्टकान् भक्ष भक्ष आवाहयाम्यहमत्रतिष्ट तिष्ट हूं फट् स्वाहा ।
दक्षिणे चण्डभैरवाय नमः दक्षिणे मां रक्ष रक्ष
कालकण्टकान् भक्ष भक्ष आवाहयाम्यहमत्रतिष्ट तिष्ट हूं फट् स्वाहा ।
नैऋत्ये क्रोधभैरवाय नमः नैऋत्यां मां रक्ष रक्ष
कालकण्टकान् भक्ष भक्ष आवाहयाम्यहमत्रतिष्ट तिष्ट हूं फट् स्वाहा ।
प्रतिच्यां उन्मत्तभैरवाय नमः प्रतिच्यां मां रक्ष रक्ष
कालकण्टकान् भक्ष भक्ष आवाहयाम्यहमत्रतिष्ट तिष्ट हूं फट् स्वाहा ।
वायव्ये कपालभैरवाय नमः वायव्ये मां रक्ष रक्ष
कालकण्टकान् भक्ष भक्ष आवाहयाम्यहमत्रतिष्ट तिष्ट हूं फट् स्वाहा ।
उदिच्यां भीषणभैरवाय नमः उदिच्यां मां रक्ष रक्ष
कालकण्टकान् भक्ष भक्ष आवाहयाम्यहमत्रतिष्ट तिष्ट हूं फट् स्वाहा ।
ईशान्यां संहारभैरवाय नमः ईशाने मां रक्ष रक्ष
कालकण्टकान् भक्ष भक्ष आवाहयाम्यहमत्रतिष्ट तिष्ट हूं फट् स्वाहा ।
॥ नमो भगवते भैरवाय नमः क्लीं क्लीं क्लीं ॥
इति मन्त्रमष्टोत्तर शतं जप्त्वा चतुर्विध पुरुषार्थसिद्धये
महासिद्धिकरभैरवाष्टकस्तोत्र पाठे विनियोगः ॥
यं यं यं यक्षरूपं दिशिचकृतपदं भूमिकम्पायमानं
सं सं संहारमूर्तिं शिरमुकुट्जटा भालदेशेऽर्धचन्द्रम् ।
दं दं दं दीर्घकायं विकृतनख मुखं चोर्ध्वरोमं करालं
पं पं पं पापनाशं नतिरिह सततं भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ १॥
रं रं रं रक्तवर्णं कटिनतनुमयं तीक्ष्णदंष्ट्रं च भीमं
घं घं घं घोरघोषं घ घ घनघटितं घुर्घुरा घोरनादम् ।
कं कं कं कालपाशं ध्रिकि ध्रिकि चकितं कालमेघावभासं
तं तं तं दिव्यदेहं नतिरिह सततं भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ २॥
लं लं लं लम्बदन्तं ल ल ल लितल ल्लोलजिह्वा करालं
धूं धूं धूं धूम्रवर्णं स्फुट विकृतनखमुखं भास्वरं भीमरूपम् ।
रुं रुं रुं रूण्डमालं रुधिरमयतनुं ताम्रनेत्रं सुभीमं
नं नं नं नग्नरूपं नतिरिह सततं भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ ३॥
वं वं वं वायुवेगं ग्रहगणनमितं ब्रह्मरुद्रैस्सुसेव्यं
खं खं खं खड्गहस्तं त्रिभुवननिलयं घोररूपं महोग्रम् ।
चं चं चं व्यालहस्तं चालित चल चला चालितं भूतचक्रं
मं मं मं मातृरूपं नतिरिह सततं भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ ४॥
शं शं शं शङ्खहस्तं शशिशकलयरं सर्पयज्ञोपवीतं
मं मं मं मन्त्रवर्णं सकलजननुतं मन्त्र सूक्ष्मं सुनित्यम् ।
भं भं भं भूतनाथं किलिकिलिकिलितं गेहगेहेरटन्तं
अं अं अं मुख्यदेवं नतिरिह सततं भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ ५॥
खं खं खं खड्गभेदं विषममृतमयं कालकालं सुकालं
क्षं क्षं क्षं क्षिप्रवेगं दहदहदहनं तप्तसन्तप्तमानम् ।
हं हं हं कारनादं प्रकटितदपातं गर्जितां भोपिभूमिं
बं बं बं बाललीलं नतिरिह सततं भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ ६॥
सं सं सं सिद्धियोगं सकलगुणमयं रौद्ररूपं सुरौद्रं
पं पं पं पद्मनाभं हरिहरनुतं चन्द्रसूर्याग्नि नेत्रम् ।
ऐं ऐं ऐं ऐश्वर्यरूपं सततभयहरं सर्वदेवस्वरूपं
रौं रौं रौं रौद्रनादं नतिरिह सततं भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ ७॥
हं हं हं हंसहास्यं कलितकरतलेकालदण्डं करालं
थं थं थं स्थैर्यरूपं शिरकपिलजटं मुक्तिदं दीर्घहास्यम् ।
टं टं टंकारभीमं त्रिदशवरनुतं लटलटं कामिनां दर्पहारं
भूं भूं भूं भूतनाथं नतिरिह सततं भैरवं क्षेत्रपालम् ॥ ८॥
भैरवस्याष्टकं स्तोत्रं पवित्रं पापनाशनम् ।
महाभयहरं दिव्यं सिद्धिदं रोगनाशनम् ॥
II इति श्रीरुद्रयामलेतन्त्रे महाभैरवाष्टकं सम्पूर्णम् II
श्रीगुरवे नमः । श्रीभैरवाय नमः ।
पूर्वपीठिका
कैलाशशिखरासीनं देवदेवं जगद्गुरुम् ।
देवी पप्रच्छ सर्वज्ञं शङ्करं वरदं शिवम् ॥ १॥
॥ श्रीदेव्युवाच ॥
देवदेव परेशान भक्त्ताभीष्टप्रदायक ।
प्रब्रूहि मे महाभाग गोप्यं यद्यपि न प्रभो ॥ २॥
बटुकस्यैव हृदयं साधकानां हिताय च ।
॥ श्रीशिव उवाच ॥
शृणु देवि प्रवक्ष्यामि हृदयं बटुकस्य च ॥ ३॥
गुह्याद्गुह्यतरं गुह्यं तच्छृणुष्व तु मध्यमे ।
हृदयास्यास्य देवेशि बृहदारण्यको ऋषिः ॥ ४॥
छन्दोऽनुष्टुप् समाख्यातो देवता बटुकः स्मृतः ।
प्रयोगाभीष्टसिद्धयर्थं विनियोगः प्रकीर्तितः ॥ ५॥
॥ सविधि हृदयस्तोत्रस्य विनियोगः ॥
ॐ अस्य श्रीबटुकभैरवहृदयस्तोत्रस्य श्रीबृहदारण्यक ऋषिः ।
अनुष्टुप् छन्दः । श्रीबटुकभैरवः देवता । अभीष्टसिद्ध्यर्थं पाठे विनियोगः ॥
॥ अथ ऋष्यादिन्यासः ॥
श्री बृहदारण्यकऋषये नमः शिरसि ।
अनुष्टुप्छन्दसे नमः मुखे ।
श्रीबटुकभैरवदेवतायै नमः हृदये ।
अभीष्टसिद्ध्यर्थं पाठे विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे ॥
॥ इति ऋष्यादिन्यासः ॥
ॐ प्रणवेशः शिरः पातु ललाटे प्रमथाधिपः ।
कपोलौ कामवपुषो भ्रूभागे भैरवेश्वरः ॥ १॥
नेत्रयोर्वह्निनयनो नासिकायामघापहः ।
ऊर्ध्वोष्ठे दीर्घनयनो ह्यधरोष्ठे भयाशनः ॥ २॥
चिबुके भालनयनो गण्डयोश्चन्द्रशेखरः ।
मुखान्तरे महाकालो भीमाक्षो मुखमण्डले ॥ ३॥
ग्रीवायां वीरभद्रोऽव्याद् घण्टिकायां महोदरः ।
नीलकण्ठो गण्डदेशे जिह्वायां फणिभूषणः ॥ ४॥
दशने वज्रदशनो तालुके ह्यमृतेश्वरः ।
दोर्दण्डे वज्रदण्डो मे स्कन्धयोः स्कन्दवल्लभः ॥ ५॥
कूर्परे कञ्जनयनो फणौ फेत्कारिणीपतिः ।
अङ्गुलीषु महाभीमो नखेषु अघहाऽवतु ॥ ६॥
कक्षे व्याघ्रासनो पातु कट्यां मातङ्गचर्मणी ।
कुक्षौ कामेश्वरः पातु वस्तिदेशे स्मरान्तकः ॥ ७॥
शूलपाणिर्लिङ्गदेशे गुह्ये गुह्येश्वरोऽवतु ।
जङ्घायां वज्रदमनो जघने जृम्भकेश्वरः ॥ ८॥
पादौ ज्ञानप्रदः पातु धनदश्चाङ्गुलीषु च ।
दिग्वासो रोमकूपेषु सन्धिदेशे सदाशिवः ॥ ९॥
पूर्वाशां कामपीठस्थः उड्डीशस्थोऽग्निकोणके ।
याम्यां जालन्धरस्थो मे नैरृत्यां कोटिपीठगः ॥ १०॥
वारुण्यां वज्रपीठस्थो वायव्यां कुलपीठगः ।
उदीच्यां वाणपीठस्थः ऐशान्यामिन्दुपीठगः ॥ ११॥
ऊर्ध्वं बीजेन्द्रपीठस्थः खेटस्थो भूतलोऽवतु ।
रुरुः शयानेऽवतु मां चण्डो वादे सदाऽवतु ॥ १२॥
गमने तीव्रनयनः आसीने भूतवल्लभः ।
युद्धकाले महाभीमो भयकाले भवान्तकः ॥ १३॥
रक्ष रक्ष परेशान भीमदंष्ट्र भयापह ।
महाकाल महाकाल रक्ष मां कालसङ्कटात् ॥ १४॥
॥ फलश्रुतिः ॥
इतीदं हृदयं दिव्यं सर्वपापप्रणाशनम् ।
सर्वसम्पत्प्रदं भद्रे सर्वसिद्धिफलप्रदम् ॥
॥ इति श्रीबटुकभैरवहृदयस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
अनुष्टुप् छन्दः । श्री बटुकभैरवो देवता । बं बीजम् । ह्रीं शक्तिः।
प्रणव कीलकम् । श्री बटुकभैरव प्रीत्यर्थम् एभिर्द्रव्यैः पृथक्
नाम मन्त्रेण हवने विनियोगः।
तत्रादौ ह्रां बां इति करन्यासं हृदयादि न्यासं
च कृत्वा ध्यात्वा गंधाक्षतैः सम्पुज्य हवनं कुर्य्यात्।
ॐ भैरवाय नमः। ॐ भूतनाथाय नमः।
ॐ भूतात्मने नमः। ॐ भूतभावनाय नमः।
ॐ क्षेत्रज्ञाय नमः। ॐ क्षेत्रपालाय नमः।
ॐ क्षेत्रदाय नमः। ॐ क्षत्रियाय नमः।
ॐ विरजि नमः। ॐ श्मशान वासिने नमः।
ॐ मांसाशिने नमः। ॐ खर्वराशिने नमः।
ॐ स्मरांतकाय नमः। ॐ रक्तपाय नमः।
ॐ पानपाय नमः। ॐ सिद्धाय नमः।
ॐ सिद्धिदाय नमः। ॐ सिद्धिसेविताय नमः।
ॐ कंकालाय नमः। ॐ कालाशमनाय नमः।
ॐ कलाकाष्ठाय नमः। ॐ तनये नमः।
ॐ कवये नमः। ॐ त्रिनेत्राय नमः।
ॐ बहुनेत्राय नमः। ॐ पिंगललोचनाय नमः।
ॐ शूलपाणये नमः। ॐ खङ्गपाणये नमः।
ॐ कपालिने नमः। ॐ धूम्रलोचनाय नमः।
ॐ अभिरेव नमः। ॐ भैरवीनाथाय नमः।
ॐ भूतपाय नमः। ॐ योगिनीपतये नमः।
ॐ धनदाय नमः। ॐ धनहारिणे नमः।
ॐ धनवते नमः। ॐ प्रीतिवर्धनाय नमः।
ॐ नागहाराय नमः। ॐ नागपाशाय नमः।
ॐ व्योमकेशाय नमः। ॐ कपालभृते नमः।
ॐ कालाय नमः। ॐ कपालमालिने नमः।
ॐ कमनीयाय नमः। ॐ कलानिधये नमः।
ॐ त्रिलोचनाय नमः। ॐ ज्वलन्नेत्राय नमः।
ॐ त्रिशिखिने नमः। ॐ त्रिलोकषाय नमः।
ॐ त्रिनेत्रयतनयाय नमः। ॐ डिंभाय नमः
ॐ शान्ताय नमः। ॐ शान्तजनप्रियाय नमः।
ॐ बटुकाय नमः। ॐ बटुवेशाय नमः।
ॐ खट्वांगधारकाय नमः। ॐ धनाध्यक्षाय नमः।
ॐ पशुपतये नमः। ॐ भिक्षुकाय नमः।
ॐ परिचारकाय नमः। ॐ धूर्ताय नमः।
ॐ दिगम्बराय नमः। ॐ शूराय नमः।
ॐ हरिणे नमः। ॐ पांडुलोचनाय नमः।
ॐ प्रशांताय नमः। ॐ शांतिदाय नमः।
ॐ सिद्धाय नमः,। ॐ शंकरप्रियबांधवाय नमः।
ॐ अष्टभूतये नमः। ॐ निधीशाय नमः।
ॐ ज्ञानचक्षुशे नमः। ॐ तपोमयाय नमः।
ॐ अष्टाधाराय नमः। ॐ षडाधाराय नमः।
ॐ सर्पयुक्ताय नमः। ॐ शिखिसखाय नमः।
ॐ भूधराय नमः। ॐ भुधराधीशाय नमः।
ॐ भूपतये नमः। ॐ भूधरात्मजाय नमः।
ॐ कंकालधारिणे नमः। ॐ मुण्दिने नमः।
ॐ नागयज्ञोपवीतवते नमः। ॐ जृम्भणाय नमः।
ॐ मोहनाय नमः। ॐ स्तंभिने नमः।
ॐ मरणाय नमः। ॐ क्षोभणाय नमः।
ॐ शुद्धनीलांजनप्रख्याय नमः। ॐ दैत्यघ्ने नमः।
ॐ मुण्डभूषिताय नमः। ॐ बलिभुजं नमः।
ॐ बलिभुङ्नाथाय नमः। ॐ बालाय नमः।
ॐ बालपराक्रमाय नमः। ॐ सर्वापित्तारणाय नमः।
ॐ दुर्गाय नमः। ॐ दुष्टभूतनिषेविताय नमः।
ॐ कामिने नमः। ॐ कलानिधये नमः।
ॐ कांताय नमः। ॐ कामिनीवशकृद्वशिने नमः।
ॐ सर्वसिद्धिप्रदाय नमः। ॐ वैद्याय नमः।
ॐ प्रभवे नमः। ॐ विष्णवे नमः।
॥ इतिश्री बटुकभैरवाष्टोत्तरशतनामं समाप्तम् ॥
II श्रीभैरव चालीसा II
श्री गणपति गुरु गौरी पद प्रेम सहित धरि माथ।
चालीसा वंदन करो श्री शिव भैरवनाथ॥
श्री भैरव संकट हरण मंगल करण कृपाल।
श्याम वरण विकराल वपु लोचन लाल विशाल॥
जय जय श्री काली के लाला। जयति जयति काशी- कुतवाला॥
जयति बटुक- भैरव भय हारी। जयति काल- भैरव बलकारी॥
जयति नाथ- भैरव विख्याता। जयति सर्व- भैरव सुखदाता॥
भैरव रूप कियो शिव धारण। भव के भार उतारण कारण॥
भैरव रव सुनि हवै भय दूरी। सब विधि होय कामना पूरी॥
शेष महेश आदि गुण गायो। काशी- कोतवाल कहलायो॥
जटा जूट शिर चंद्र विराजत। बाला मुकुट बिजायठ साजत॥
कटि करधनी घुंघरू बाजत। दर्शन करत सकल भय भाजत॥
जीवन दान दास को दीन्ह्यो। कीन्ह्यो कृपा नाथ तब चीन्ह्यो॥
वसि रसना बनि सारद- काली। दीन्ह्यो वर राख्यो मम लाली॥
धन्य धन्य भैरव भय भंजन। जय मनरंजन खल दल भंजन॥
कर त्रिशूल डमरू शुचि कोड़ा। कृपा कटाक्ष सुयश नहिं थोडा॥
जो भैरव निर्भय गुण गावत। अष्टसिद्धि नव निधि फल पावत॥
रूप विशाल कठिन दुख मोचन। क्रोध कराल लाल दुहुं लोचन॥
अगणित भूत प्रेत संग डोलत। बम बम बम शिव बम बम बोलत॥
रुद्रकाय काली के लाला। महा कालहू के हो काला॥
बटुक नाथ हो काल गंभीरा। श्वेत रक्त अरु श्याम शरीरा॥
करत नीनहूं रूप प्रकाशा। भरत सुभक्तन कहं शुभ आशा॥
रत्न जड़ित कंचन सिंहासन। व्याघ्र चर्म शुचि नर्म सुआनन॥
तुमहि जाइ काशिहिं जन ध्यावहिं। विश्वनाथ कहं दर्शन पावहिं॥
जय प्रभु संहारक सुनन्द जय। जय उन्नत हर उमा नन्द जय॥
भीम त्रिलोचन स्वान साथ जय। वैजनाथ श्री जगतनाथ जय॥
महा भीम भीषण शरीर जय। रुद्र त्रयम्बक धीर वीर जय॥
अश्वनाथ जय प्रेतनाथ जय। स्वानारुढ़ सयचंद्र नाथ जय॥
निमिष दिगंबर चक्रनाथ जय। गहत अनाथन नाथ हाथ जय॥
त्रेशलेश भूतेश चंद्र जय। क्रोध वत्स अमरेश नन्द जय॥
श्री वामन नकुलेश चण्ड जय। कृत्याऊ कीरति प्रचण्ड जय॥
रुद्र बटुक क्रोधेश कालधर। चक्र तुण्ड दश पाणिव्याल धर॥
करि मद पान शम्भु गुणगावत। चौंसठ योगिन संग नचावत॥
करत कृपा जन पर बहु ढंगा। काशी कोतवाल अड़बंगा॥
देयं काल भैरव जब सोटा। नसै पाप मोटा से मोटा॥
जनकर निर्मल होय शरीरा। मिटै सकल संकट भव पीरा॥
श्री भैरव भूतों के राजा। बाधा हरत करत शुभ काजा॥
ऐलादी के दुख निवारयो। सदा कृपाकरि काज सम्हारयो॥
सुन्दर दास सहित अनुरागा। श्री दुर्वासा निकट प्रयागा॥
श्री भैरव जी की जय लेख्यो। सकल कामना पूरण देख्यो॥
I दोहा I
जय जय जय भैरव बटुक स्वामी संकट टार।
कृपा दास पर कीजिए शंकर के अवतार॥
II भगवान श्री भैरव की पवित्र आरती II
जय काली और गौरा देवी कृत सेवा।।
तुम्हीं पाप उद्धारक दुख सिंधु तारक।
भक्तों के सुख कारक भीषण वपु धारक।।
वाहन शवन विराजत कर त्रिशूल धारी।
महिमा अमिट तुम्हारी जय जय भयकारी।।
तुम बिन देवा सेवा सफल नहीं होंवे।
चौमुख दीपक दर्शन दुख सगरे खोंवे।।
तेल चटकि दधि मिश्रित भाषावलि तेरी।
कृपा करिए भैरव करिए नहीं देरी।।
पांव घुंघरू बाजत अरु डमरू डमकावत।।
बटुकनाथ बन बालक जन मन हर्षावत।।
बटुकनाथ जी की आरती जो कोई नर गावें।
कहें धरणीधर नर मनवांछित फल पावें।।
विशेष सुचना
( जो भी मंत्र तंत्र टोटका इत्यादि ब्लॉग में दिए गए है वे केवल सूचनार्थ ही है, अगर साधना करनी है तो वो पूर्ण जानकार गुरु के निर्देशन में ही करने से लाभदायक होंगे, किसी भी नुक्सान हानि के लिए प्रकाशक व लेखक जिम्मेदार नहीं होगा। )