JANAM KUNDLI KE MARAK / MARKESH GREH /GRAH जन्म कुंडली में मारक ग्रहों का विचार
जन्म कुंडली
में फलादेश का विचार करते समय हम सबसे पहले जन्म कुंडली में योगकारक व मारक ग्रहों
का विचार करते हैं। अतः ज्योतिष शास्त्र में मारक ग्रहों का विचार प्रमुखता से किया
जाता है क्योंकि प्रत्येक लग्न की जन्म कुंडली में अलग-अलग ग्रह मारक होते हैं। मारक
ग्रह अपनी दशा अंतर्दशा में जातक को मरनतुल्य दुख प्रदान करते हैं। तो आज की परिचर्चा
में हम जन्म कुंडली में मारक ग्रहों की स्थिति व उनके फल का विचार करते हैं। जन्म कुंडली
में प्रथम भाव जिसे लग्न कहते हैं उसे जातक का शरीर माना जाता है और अष्टम भाव को आयु
का भाव की संज्ञ प्रदान की गई है। अष्टम द्वादश थ्योरी के अनुसार अष्टम से अष्टम अर्थात
तृतीय भाव जिसे भी अष्टम भाव अर्थात आयु भाव का ही प्रतिबिंब माना जाता है। जन्म कुंडली
के अष्टम भाव का द्वादश भाव बनता है सप्तम भाव जोकि अष्टम भाव का व्यय करने वाला होता
है अर्थात आयु को क्षीण करने वाला होता है। अतः सप्तम भाव को मारक भाव माना गया है, क्योंकि सप्तमेश अष्टम भाव का व्यय
करता है। इसी प्रकार अष्टम भाव का प्रतिबिंब तृतीय भाव जिसे पराक्रम भाव भी कहा जाता
है उसका द्वादश भाव बनता है द्वितीय भाव जो कि तृतीय भाव का व्यय करने वाला हुआ। इसलिए
दूसरे भाव के स्वामी को भी मारक माना गया है। इन दोनों भावो के अतिरिक्त जन्मकुंडली
के 6 8 12 भाव भी बुरे भाव होते हैं। क्योंकि इनसे भी जातक के जीवन में रोग ऋण शत्रु
आयु व कष्ट इत्यादि का विचार किया जाता है। अतः 6 8 12 भाव के स्वामीयो कों भी दुख
प्रदान करने वाले माना गया है। इस प्रकार से जन्म कुंडली में 2,,7 भाव को प्रबल मारक
माना गया है तो 6 8 12 भाव को भी मारक की श्रेणी में रखा जाता है। इस प्रकार हम प्रत्येक
लग्न के अनुसार मारक ग्रहों को इस प्रकार से समझने का प्रयास करते हैं।
मेष लग्न
-:
मेष लग्न की
जन्म कुंडली में लग्नेश होते हैं मंगल जिनको लग्न व अष्टम भाव का स्वामित्व प्राप्त
होता है। और दूसरे व सप्तम भाव के स्वामी बनते हैं शुक्र क्योंकि दूसरा भाव में वृष
राशि व सप्तम भाव में तुला राशि आती है। और वृष व तुला राशि के स्वामी शुक्र देव बनते
हैं। तथा शुक्र देव का लग्नेश मंगल के साथ शत्रुता का संबंध बनता है। इस कारण से शुक्र
देव मेष लग्न की जन्म कुंडली में प्रबल मारक बनते हैं। अतः इनकी दशा अंतर्दशा में जातक
को बहुत अधिक दुखो का सामना करना पड़ता है। इस प्रकार मेष लग्न की जन्म कुंडली में
बुध देव भी मारक बनने हैं क्योंकि इनको तीसरा
भाव व षष्टम भाव का स्वामित्व प्राप्त है तथा तीसरे भाव में मिथुन व छठे भाव में कन्या
राशि आती है और दोनों ही राशियों के स्वामी बुद्धदेव बनते हैं। यहां यद्यपि तीसरा भाव
सम भाव है किंतु बुध देव को एक भाव छठा भाव अति अशुभ त्रिक भाव मिलने के कारण मारक
बनेंगे और बुध का संबंध मंगल के साथ भी शत्रुता का है। इसी क्रम में आठवें भाव के स्वामी
स्वयं मंगल बनते हैं जो कि लग्नेश भी है किंतु यहां लग्नेश मंगल को अष्टम भाव का स्वामित्व
प्राप्त होने पर भी इसका दोष नहीं लगेगा जब तक की स्वयं मंगल से 6,8,12 में विद्यमान
नहीं होते हैं। बारहवें भाव में गुरुदेव बृहस्पति की मीन राशि आती है किंतु यहां गुरु
मारक नहीं होंगे क्योंकि इनको बारवा भाव मिलने के साथ-साथ एक त्रिकोण भाव अर्थात नवम
भाव मिलने के कारण बृहस्पति यहां योगकारक बनेंगे। इस प्रकार निष्कर्ष रूप में मेष लग्न
की जन्म कुंडली में शुक्र देव व बुध देव मारक बनते हैं।
वृषभ लग्न
-:
वृषभ लग्न की
जन्म कुंडली में दूसरे भाव के स्वामी बुद्धदेव बनते हैं। बुध को यहां दूसरा भाव और पंचम भाव का स्वामित्व प्राप्त है। क्योंकि
बुध देव की एक राशि दूसरे भाव में और दूसरी राशि कन्या पंचम भाव में है। एक तो बुद्धदेव
को यहां त्रिकोण का भाव मिला है और दूसरा बुध देव शुक्रदेव के अति मित्र होने के कारण
दूसरे भाव के स्वामी होने के बावजूद भी मारक नहीं माने जाएंगे। इसी क्रम में सप्तम
भाव जो की मारक भाव होता है। उसमें मंगल देव की राशि वृश्चिक राशि आती है मंगल देव
यहां शुक्र के शत्रु होने के कारण प्रबल मारक की श्रेणी में आएंगे साथ ही यहां मंगल
देव को द्वादश भाव का अधिपति भी मिला है। इस कारण से भी मारक बनते हैं। वृषभ लग्न की
जन्म कुंडली में षष्टम भाव स्वयं शुक्रदेव को प्राप्त होता है किंतु शुक्र यहां लग्नेश
होने के कारण षष्टम भाव के स्वामित्व प्राप्त होने पर भी इनको दोष नहीं लगेगा, जब तक
कि शुक्र स्वयं चलकर 6 8 12 में नहीं बैठते हैं। अष्टम भाव में गुरुदेव बृहस्पति की
धनु राशि आती है गुरु को दूसरा भाव लक्ष्मी भाव प्राप्त है। फिर भी गुरु मारक होंगे
क्योंकि इनको यहां अष्टम भाव अर्थात त्रिक भाव प्राप्त हुआ है। इस प्रकार निष्कर्ष
रूप में वृषभ लग्नकी जन्म कुंडली में मंगल देव प्रबल मारक बनेंगे साथ ही गुरु भी अनिष्ट
फल प्रदान करने वाले होंगे।
मिथुन लग्न
-:
मिथुन लग्न
की जन्म कुंडली में लग्नेश बुध देव होते हैं जिनको लगन व चतुर्थ भाव का स्वामित्व प्राप्त
होता है। क्योंकि बुद्धदेव की मिथुन राशि लग्न में व चतुर्थ भाव में उनकी कन्या राशि
आती है और बुद्धदेव मिथुन व कन्या राशि के स्वामी होते हैं। मिथुन लग्न की जन्म कुंडली
में दूसरा भाव जो मारक भाव होता है। उसमें कर्क राशि आती है और कर्क राशि के स्वामी
चंद्र देव होते हैं। चंद्रदेव व लग्नेश बुध का परस्पर शत्रुता का संबंध है। अतः यहां
चंद्रदेव प्रबल मारक होते हैं। इसी क्रम में सप्तम भाव में गुरुदेव बृहस्पति की धनु
राशि और उनकी दूसरी राशि मीन दशम भाव में आती है। यद्यपि सप्तम भाव मारक भाव होता है।
यद्यपि गुरुदेव बृहस्पति सप्तमेश बनते हैं किंतु बुद्धदेव के मित्र होने के कारण यहां
वे योगकारक होंगे ना कि मारक। इसी प्रकार षष्टेश मंगल देव बनते हैं क्योंकि षष्टम भाव
में उनकी राशि वृश्चिक और उन्हीं की दूसरी राशि मेष एकादश भाव में आती है।
और दोनों ही
भाव अच्छे नहीं होते हैं इस कारण से यहां मंगल देव मारक ग्रह की श्रेणी में माने जाएंगे।
अष्टम भाव में शनि की मकर राशि आती है और उनकी दूसरी राशि कुंभ नवम भाव में आती है।
अतः शनी देव यहां योगकारक होंगे क्योंकि यद्यपि वो अष्टम भाव के स्वामी बने हैं किंतु
उनकी दूसरी राशि कुंभ त्रिकोण के नवम भाव में आने के कारण शुभ ग्रह की श्रेणी में माने
जाएंगे। जन्म कुडली का द्वादश भाव भी जैसा कि हम जानते हैं अशुभ भाव होता है। वहां
शुक्र देव की वृष राशि आती है और उनकी दूसरी राशि तुला त्रिकोण के पंचम भाव में आने
के कारण शुक्र भी यहां योगकारक होंगे। इस प्रकार निष्कर्ष रूप में मिथुन लग्न की जन्म
कुंडली में चंद्र देव व मंगल देव मारक ग्रह की श्रेणी में आएंगे। और दोनों की दशा में
जातक को अशुभ परिणाम प्राप्त होते हैं।
कर्क लग्न
-:
कर्क लग्न के
स्वामी चंद्रदेव होते हैं। तथा दूसरे भाव के स्वामी सूर्य देव होते हैं क्योंकि दूसरे
भाव में उनकी सिंह राशि आती है
सूर्य देव व
चंद्र देव आपस में मित्रता का संबंध रखते हैं। इसलिए यहां सूर्य द्वितीय भाव
के स्वामी होने पर भी योग कारक माने जायेंगे। सप्तम भाव में शनि की मकर व अष्टम भाव
में शनि की कुंभ राशि आती है। और लग्नेश चंद्र देव व शनि का प्रश्न पत्र पर का संबंध
भी है। अतः शनिदेव यहां प्रबल मारक होंगे। अतः उनकी दशा अंतर्दशा में जातक को मरण तुल्य
कष्टों का सामना करना पड़ता है। छठे भाव में गुरु की धनु राशि आती है। किंतु गुरु को
एक त्रिकोण का भाव भी मिला है क्योंकि त्रिकोण के नवम भाव में गुरु की मीन राशि होने
के कारण गुरु यहां मारक नहीं हो कर योग कारक होते हैं। द्वादश भाव में बुध देव की मिथुन
राशि आती है और उनकी दूसरी राशि कन्या तीसरे भाव में होने के कारण दोनों ही भाव अच्छे
नहीं होते हैं। और बुध का चंद्र देव के साथ शत्रुता का संबंध भी है। अतः बुद्धदेव भी
यहां अयोगकारक होते हैं। निष्कर्ष रूप में कर्क लग्न की जन्म कुंडली में शनि देव व
बुद्धदेव मारक ग्रह की श्रेणी में माने जाते हैं।
सिंह लग्न
-;
सिंह लग्न की
जन्म कुंडली में लग्नेश सूर्य होते हैं। दूसरे भाव में बुध देव की कन्या राशि आती है।
अतः दूसरे भाव के स्वामी बुद्धदेव होते हैं। और उनकी दूसरी मिथुन राशि 11 भाव में होती
है किंतु यहां सूर्य देव जो कि लग्नेश है उनका बुध के साथ सम संबंध होने कारण बुद्धदेव
यहां मारक नहीं माने जाएंगे। किंतु शनि देव षष्टम भाव और सप्तम भाव के स्वामी होते
हैं। और लग्नेश सूर्य के साथ उनका शत्रु ता का संबंध होने कारण यहां शनिदेव प्रबल मारक
होंगे। अष्टम भाव में गुरु देव की मीन राशि
आने का अष्टमेश बनते हैं किंतु उनकी एक राशि धनु त्रिकोण के पंचम भाव में होने कारण
योगकारक होंगे और यहां गुरुदेव बृहस्पति का
लग्नेश सूर्य के साथ मित्रता का संबंध भी होता है। द्वादश भाव में चंद्र देव की कर्क
राशि आती है किंतु सूर्य के साथ चंद्र देव का मित्रता का संबंध होने कारण मारक नहीं
होकर योगकारक माने जायेंगे। निष्कर्ष रूप में सिंह लग्न की जन्म कुंडली में शनि देव
ही प्रबल मारक बनते है।
कन्या लग्न
-:
कन्या लग्न
की जन्म कुंडली में लग्नेश बुध देव बनते हैं। तथा शुक्र देव दूसरे भाव व त्रिकोण के
नवम भाव के स्वामी होते हैं। शुक्र देव को एक तो नवम भाव का स्वामित्व मिलने के कारण
और दूसरा लग्नेश बुध के साथ मित्रता का संबंध होने कारण मारक नहीं हो कर योगकारक होंगे।
गुरुदेव बृहस्पति चतुर्थ भाव व सप्तम भाव के स्वामी बनते हैं। गुरु को यहां चतुर्थ
भाव का स्वामित्व मिलने के कारण व बुध के साथ मित्रता का संबंध होने से भी गुरु यहां
योगकारक होंगे। शनि देव पंचम व षष्टम भाव के स्वामी होते हैं। अतः यहां त्रिकोण का
पंचम भाव मिलने कारण सनी भी योगकारक ही होंगे। किंतु मंगल देव को तीसरा व अष्टम भाव
का स्वामित्व मिलने के कारण मारक माने जाएंगे।
द्वादश भाव
में सूर्य की सिंह राशि होती है किंतु यहां सूर्य का लग्नेश बुध के साथ समता का संबंध
है अतः सूर्य यहां तटस्थ माने जाएंगे। निष्कर्ष रूप में कन्या लग्न की जन्म कुंडली
में मंगल देव प्रबल मारक माने जाते हैं।
तुला लग्न
-:
तुला लग्न की
जन्म कुंडली में लग्नेश शुक्र देव बनते हैं। तथा दूसरे भाव व सप्तम भाव के स्वामी मंगल
देव होते हैं। मंगल का लग्नेश शुक्र के साथ शत्रुता का व्यवहार है। अतः यहां मंगल देव
सबसे अधिक प्रबल मारक सिद्ध होते हैं। गुरुदेव बृहस्पति को तीसरा व छटा भाव का स्वामित्व
मिलने के कारण तथा लग्नेश के शत्रु होने से
मारक माने जाएंगे। अष्टम भाव के स्वामी स्वयं शुक्र देव बनते हैं। अतः शुक्र
देव को अष्टमेश बनने का दोष नहीं लगेगा। जब तक कि स्वयं शुक्र 6,8,12 में,स्थित नहीं
होते हैं । इसी प्रकार बुद्धदेव यहां नवम व द्वादश भाव के स्वामी होते हैं किंतु बुद्ध
को नवम भाव का स्वामित्व मिलने के कारण मारक नहीं हो कर योगकारक माने जायेंगे। निष्कर्ष
रूप में तुला लग्न की जन्म कुंडली में मंगल व गुरु मारक की श्रेणी में आएंगे।
वृश्चिक लग्न
-:
वृश्चिक लग्न
की जन्म कुंडली में लग्नेश मंगल देव होते हैं। दूसरे भाव व नवम भाव के स्वामी बृहस्पति
होते हैं किंतु यहां बृहस्पति का लग्नेश के
साथ मित्रता का संबंध व दूसरी राशि त्रिकोण की पंचम भाव में होने कारण मारक नहीं होकर
योग कारक होते हैं। षष्टम भाव के स्वामी स्वयं मंगल होते हैं। अतः उनको यहां षष्टेश
का दोष नहीं लगेगा किंतु सप्तम भाव व द्वादश भाव के स्वामी शुक्र देव होते हैं और लग्नेश
मंगल के शत्रु भी है। अतः यहां शुक्र सबसे अधिक प्रबल मारक होंगे। इसी क्रम में बुद्धदेव
को अष्टम भाव व एकादश भाव मिला है। इस कारण से बुद्धदेव भी यहां मारक श्रेणी में होंगे।
निष्कर्ष रूप में वृश्चिक लग्न की जन्म कुंडली में शुक्र देव और बुद्धदेव मारक होते
हैं।
धनु लग्न
-:
धनु लग्न की
जन्म कुंडली में गुरु लग्नेश होते हैं। दूसरे व तीसरे भाव के स्वामी शनि देव है। अतः
शनिदेव यहां प्रबल मारक होते हैं क्योंकि प्रथम तो दूसरे भाव के अधिपति होते हैं साथ
ही तीसरा भाव भी अच्छा नहीं है और गुरु के
परम शत्रु होने कारण यहां प्रबल मारक होते हैं। सप्तमेश बुध देव बने हैं बुध की दूसरी
राशि कन्या दशम भाव में आती है। बुद्ध का गुरु के साथ मित्रता का संबंध ही माना जाता
हैं। अतः बुध यहां सम होंगे अर्थात कम कष्टकारी होंगे। शुक्र देव षष्टम भाव के स्वामी
होने कारण मारक होंगे। चंद्रमा अष्टम भाव के अधिपति होने से मारक होंगे तथा मंगल द्वादश
भाव के अधिपति होकर भी मारक नहीं होंगे क्योंकि उनको एक राशि त्रिकोण के पंचम भाव में
मिली है। इस प्रकार ने स्पष्ट रूप से धनु लग्न की जन्म कुंडली में शनि प्रबल मारक होते
हैं शुक्र व चंद्र भी कष्टकारी होते हैं।
मकर लग्न
-:
मकर लग्न की
जन्म कुंडली में लग्नेश व द्वितीयेश शनिदेव बनते हैं। सप्तम भाव के स्वामी चंद्र देव बनते हैं और शनिदव
के साथ इनका शत्रुता का संबंध भी है। अतः मकर लग्न की जन्म कुंडली में चंद्र देव प्रबलम
मारक होते हैं। षष्टमेश बुध देव बने हैं किंतु
उनकी दूसरी राशि कन्या त्रिकोण के नवम भाव में होने के कारण योगकारक होंगे। अष्टम भाव
के स्वामी सूर्य देव होते हैं इस कारण से सूर्य देव भी मारक होंगे। द्वादश भाव में
गुरुदेव की धनु राशि आती है और उनकी दूसरी राशि में तीसरे घर में होती है। अतः दोनों
ही भाव बुरे होते हैं और लग्नेश के साथ शत्रुता का संबंध है। इस कारण गुरु मारक होते
हैं। निष्कर्ष रूप में मकर लग्न की जन्म कुंडली में चंद्र देव गुरुदेव और सूर्य प्रबल
मारक होते हैं।
कुंभ लग्न
-:
कुंभ लग्न की
जन्म कुंडली में लग्नेश शनि देव होते हैं तथा दूसरे भाव में गुरु की मीन राशि आती है
और उनकी दूसरी धनु राशि ग्यारहवें भाव में आती है। गुरु का लग्नेश शनि के साथ शत्रुता
का व्यवहार है। अतः यहां गुरु प्रबल मारक होते हैं। सूर्य देव सप्तमेश बनते हैं और
शनि के साथ शत्रुता का व्यवहार है। सूर्य भी प्रबल मारक होंगे। षष्टम भाव में चंद्रमा
की राशि होने के कारण चंद्रदेव भी मारक की श्रेणी में आते हैं। अष्टम भाव में बुध की
कन्या राशि आती है और उनकी दूसरी राशि त्रिकोण के पंचम भाव में आने का कारण योगकारक
हो जाते हैं ।इसी प्रकार द्वादश भाव में स्वयं लग्नेश शनि की राशि मकर होती है। इस
प्रकार कुंभ लग्न की जन्म कुंडली में गुरु देव,सूर्य देव, चंद्रदेव, प्रबल मारक ग्रह
होते हैं।
मीन लग्न
-:
मीन लग्न की
जन्म कुंडली में लग्नेश गुरु बनते हैं। तथा दूसरे भाव के स्वामी मंगल देव बनते हैं
और इनकी दूसरी वृश्चिक राशि नवम भाव में आती है। अतः प्रथम तो नवम भाव के अधिपति बने
हैं और दूसरा लग्नेश गुरु के परम मित्र होने के कारण यहा मंगल देव मारक ना होकर योग
कारक हो जाते हैं। इसी प्रकार सप्तमेश बुध देव होते हैं। बुद्धदेव भी गुरु के मित्र
होने के कारण योगकारक की श्रेणी में माने जाएंगे। षष्टमेश सूर्यदेव होते हैं। अतः सूर्य
कष्टकारी होंगे। अष्टम भाव और तीसरे भाव के स्वामी शुक्र देव होते हैं। अतः शुक्र प्रबल
मारक होंगे। द्वादश भाव में शनि की कुंभ राशि होती है। और गुरु के साथ शत्रुता का संबंध
भी है। इस कारण से शनी भी मारक होते हैं। निष्कर्ष रूप में मीन लग्न की जन्म कुंडली
में सूर्य देव, शुक्र देव और शनि देव मारक
होते हैं।
विशेष -:
इस प्रकार से
हमने प्रत्येक लग्न की जन्म कुंडली में मारक
ग्रहों का विचार किया है। फिर भी जन्म कुंडली में मारक ग्रहों के फल का विचार करते
समय उनकी मारकति की प्रतिशत का भी विचार करना आवश्यक होता है। इसके लिए हमें मारक ग्रह
की डिग्री देखनी होती है यदि किसी मारक ग्रह की डिग्री बहुत कम हो तो उसका मारकत्व
कम हो जाता है। तथा यदि कोई मारक ग्रह सूर्य से अस्त हो तब भी उसका मारकत्व समाप्त
हो जाता है। या कोई मारकग्रह विपरीत राजयोग में आ रहा हो। तब भी उसका मारकत्व समाप्त
हो जाता है। या यदि कोई मारक ग्रह अपनी उच्च राशि में स्थित हो उसी स्थिति में भी उसका
प्रभाव कम होता है। इस प्रकार मारक ग्रह का फल कहने से पहले मारक ग्रह की डिग्री, मारक
ग्रह का अस्त होना, मारक ग्रह का विपरीत राजयोग, मारक ग्रह की उच्च राशि इत्यादि का
विचार कर लेना चाहिए।
मारक ग्रहो का फल -:
सामान्य रूप
से मारक ग्रह अपनी दशा अंतर्दशा में जातक को अनेक प्रकार के अशुभ परिणाम देने वाले
होते हैं। मुख्य रूप से जो मारक ग्रह जिस भाव से संबंध बनाता है। उस भाव से संबंधित
क्षेत्र में जातक को कष्ट देता है। इस दौरान जातक को मानसिक अवसाद, शारीरिक कष्ट, आर्थिक
चिन्ता दुर्घटना, कर्
ज अथवा असाध्य
बीमारियां देने वाले होते हैं। निष्कर्ष रूप में जब भी मारक ग्रह की दशा अंतर्दशा जातक
के जीवन आती है। तो वह ग्रह जिस भाव का स्वामी बनकर जिन भावों से संबंध बना रहा है। उन भावों से संबंधित
सदैव नकारात्मक परिणाम जातक को मिलते हैं।
मारक ग्रह को शांत करने के उपाय -:
जातक को मारक
ग्रह के अशुभ परिणामों से बचने के लिए सबसे पहले मारक ग्रह की दशा अंतर्दशा में संबंधित
मारक ग्रह के वैदिक बीज मंत्रों का जाप करना
चाहिए। जिससे मारक ग्रह प्रसन्न होकर जातक
को अशुभता के स्थान पर शुभता प्रदान करने लगता है।
संबंधित मारक
ग्रह की दशा अंतर्दशा में मारक ग्रह से संबंधित वस्तुओं का दान करना चाहिए।
भगवान शिव की आराधना करते हुए महामृत्युंजय मंत्र
का जाप करें।
अपने शारीरिक
व मानसिक कर्मों को सात्विक बनाने का प्रयास करें।
मारक ग्रह का
कभी भी भूल कर रत्न धारण नहीं करें।
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