Sunday, September 12, 2021

NAV GRAHON KI PRAKRTI ANYLYSIS नवग्रहों की प्रकृति विश्लेषण

NAV GRAHON KI PRAKRTI ANYLYSIS  नवग्रहों की प्रकृति विश्लेषण


जैसा कि हम सब जानते हैं कि नवग्रह होते हैं। उनमें से राहु और केतु को छाया ग्रह माना जाता है क्योंकि राहु और केतु का कोई पिंड नहीं होता है इसलिए दोनों को ही छाया ग्रह की संज्ञा दी गई है। आज हम  नवग्रहों की सामान्य प्रकृति व उनके कारकत्व के विषय में चर्चा करने जा रहे हैं तो आइए जानते हैं नवग्रहों की सामान्य प्रकृति किस प्रकार की होती है?

सूर्य -:

ज्योतिष शास्त्र में सूर्य को राजा की संज्ञा दी गई है। सूर्य सिंह राशि का स्वामी बनता है। तथा सूर्य मेष राशि में उच्च का व तुला राशि में नीच का होता है। सूर्य मेष राशि में अपने 10 अंशों के साथ परम उच्च का होता है तो तुला राशि में अपने 10 अंशों में परम नीच का होता है। सिंह राशि में सूर्य 20 अंशो तक मूल त्रिकोण व शेष 10 अंशों में स्वग्रही होता है। ज्योतिष शास्त्र में सूर्य को पाप ग्रह अर्थात अनुशासन प्रिय ग्रह माना गया है। सूर्य पुरुष ग्रह होता है और काल पुरुष की इसे आत्मा कहा गया है। सूर्य का रंग लाल होता है। पूर्व दिशा का सूर्य को स्वामी माना गया है। प्रकृति में सूर्य पिता का बोध कराता है। ज्योतिष शास्त्र में सूर्य को पितृविषयक तत्वों का कारक माना गया है।

 अर्थात पितृविषयक तत्व का बोध सूर्य से ही किया जाता है। नेत्र कलेजा मेरुदंड स्नायु आदि पर सूर्य का प्रभाव होता है। सूर्य जन्म कुंडली के दशम भाव में दिक बली होता है और मकर से 6 राशि पर्यंत चेष्टा बली होता है। सूर्य अपने स्थान से सप्तम स्थान को पूर्ण दृष्टि से देखता है पुरुष जातक की जन्म कुंडली में सूर्य को दाया नेत्र और जाति का की जन्म कुंडली में बाया नेत्र का द्योतक माना जाता है।

चन्द्र -:

ज्योतिष शास्त्र में चंद्रमा को रानी की संज्ञा दी गई है। चंद्रमा कर्क राशि का स्वामी होता है। तथा चंद्रदेव वृष राशि में उच्च के व वृश्चिक राशि में नीच के हो जाते हैं। वृष राशि में 3 अंशो तक परमोच्च व वृश्चिक राशि में 3 अंशो तक परम नीच के माने जाते हैं। जन्म कुंडली के चतुर्थ भाव में चंद्र देव दिकबली होते हैं। चंद्रदेव को एक सौम्य ग्रह माना गया है और इसे  माता का कारकत्व प्रदान किया गया है। राहु केतु इन के परम शत्रु ग्रह होते हैं। चंद्रमा को जल का कारकत्व भी प्रदान किया गया है। चंद्र देव का रंग सफेद होता है और इन्हें वायव्य कोण का स्वामी कहा गया है। चंद्रमा अपने स्थान से सप्तम भाव को पूर्ण दृष्टि से देखता है।

मंगल -:

मंगल देव को ज्योतिष शास्त्र में सेनापति की उपाधि प्रदान की गई है। मंगल को देव समूह ग्रह माना गया है। जिस प्रकार सेनापति अनुशासन प्रिय होता है इस कारण से दूसरे लोगों को की दृष्टि में उसे क्रूर कह दिया जाता है उसी प्रकार से मंगल देव सौम्य ग्रह होने पर भी साधारण  रूप से इन्हें पापग्रह की श्रेणी में मान लिया जाता है। मंगल मेष और वृश्चिक राशि का स्वामी होता है। मंगल का रंग लाल  होता है। और इसे दक्षिण दिशा का स्वामी माना गया है। मंगल मकर राशि में उच्च के व कर्क राशि में नीच के होते हैं। मंगल देव अपने स्थान से 4,7,8 भाव को पूर्ण दृष्टि से देखते हैं। मंगल देव जन्म कुंडली के दशम भाव में दिक्बलि होते हैं। मंगल से भ्रातत्व संबंधी बोध किया जाता है।

बुध -:

बुद्धदेव को ज्योतिष शास्त्र में कुमार ग्रह की संज्ञा प्रदान की गई है। बुद्ध मिथुन व कन्या राशि का स्वामी होता है। बुद्धदेव अपने स्थान से सप्तम भाव को पूर्ण दृष्टि से देखते हैं। बुध का रंग हरा होता है और इसे उत्तर दिशा का स्वामी कहा गया है। बुद्धदेव अपने ही राशि अर्थात कन्या राशि में उच्च के व मीन राशि में नीच के हो जाते हैं। बुध जन्म कुंडली के लग्न भाव में दिक् बलि होते हैं। बुद्ध से जातक की बुद्धि का विचार किया जाता है। बुद्ध भौतिक संसाधनों का कारकत्व भी होता है।

गुरु -:

ज्योतिष शास्त्र में गुरु को गुरु की ही संज्ञा दी गई है। गुरु नवग्रह में सबसे सौम्य ग्रह माना गया है। क्योंकि गुरु को अमृत दृष्टि प्राप्त होती है। गुरु धनु व मीन राशि के स्वामी बनते हैं। तथा अपने स्थान से 5,7,9 भाव को पूर्ण दृष्टि से देखते हैं। गुरु को विद्या विवाह व आचार्य का कारक माना गया है। गुरु का रंग गौर और पीत होता है तथा इन्हें ईशान कोण का स्वामी बताया गया है। गुरु जन्म कुंडली के प्रथम भाव में दिक्वली होते हैं। गुरु कर्क राशि में उच्च के व मकर राशि में नीच के होते हैं।

 शुक्र -:

शुक्र को सौम्य ग्रह माना गया है। और इसे भी गुरु की उपाधि प्राप्त है। शुक्र वृष व तुला राशि का स्वामी होता है। इसी प्रकार शुक्रदेव मीन राशि में उच्च के कन्या राशि में नीच के होते हैं। शुक्र अपने स्थान से सप्तम भाव को पूर्ण दृष्टि से देखते हैं। शुक्र का रंग श्वेत होता है। तथा शुक्र देव अग्नि कोण के स्वामी होते हैं। शुक्र देव को भौतिक सुख सविधाओं का कारक माना जाता है। शुक्र सप्तम भाव का कारकत्व होते हैं। इसी प्रकार से शुक्र देव चतुर्थ भाव में दीक्वली होते हैं। शुक्र से विद्या भौतिक सुख विदेश यात्रा इत्यादि का भी प्रमुखता से विचार किया जाता है।

शनि -:

सनी मकर व कुंभ राशि का स्वामी होता है मेष राशि में नीच के व तुला में उच्च होते हैं। तुला के 20 तक परमोच्च व मेष के 20अंशो तक  परम नीच के होते हैं। इसी प्रकार से कुंभ राशि के 20 अंश मूलत्रिकोण व इसके बाद के 10 अंश स्वग्रही होते हैं। सामान्यता शनी को दुख प्रदान करने वाला ग्रह माना जाता है ।अतः इसे पाप ग्रह की संज्ञा दी गई है। शनी को न्याय का ग्रह भी कहा गया है। शनी का रंग काला होता है और यह पश्चिम दिशा का स्वामी होता है। शनी  चंद्रमा के साथ रहने से चेष्टा बली व सप्तम भाव में दीक्वली होते हैं। सनी को ज्योतिष शास्त्र में सेवक कहा गया है। इसी प्रकार से शनि देव को अष्टम व द्वादश भाव का कारकत्व प्रदान किया गया है। शनी को नपुंसक ग्रह माना गया है अतः सप्तम भाव में शनि सदैव निष्फल होते हैं। शनी अपने स्थान से 3,7 ,10 भाव को पूर्ण दृष्टि से देखता है।

राहु -:

राहु एक छाया ग्रह होता है और इसे पापी ग्रह माना गया है। यह वृष राशि में उच्च का व वृश्चिक राशि में नीच का होता है। राहु का रंग काला होता है और यह पश्चिम व दक्षिण दिशा का स्वामी माना गया है। कई विद्वान इसे मिथुन  में भी उच्च का मानते हैं और कन्या राशि का स्वामी कहते हैं। राहु जीवन में घटित होने वाली एकाएक घटनाओं का कारक होता है राहु को मोक्ष का कारक माना गया है। राहु को भी गुरु के समान 5,7,9 दृष्टि प्राप्त है अर्थात राहु भी अपने स्थान से 5,7,9 भव को पूर्ण दृष्टि से देखता हैं।

केतु -:

केतु वृष राशि में नीच का और वृश्चिक राशि में उच्च का होता हैं मकर और तुला केतु का मूल त्रिकोण होता है। केतु भी राहु की समान ही स्वभाव से पापी ग्रह है। इसे ज्योतिष शास्त्र में माता महि की संज्ञा दी गई है। सामान्य रूप से केतु चर्म रोग का कारक होता है।

विशेष -:

(१)ज्योतिष शास्त्र में जैसा कि हम जान चुके हैं कि शुक्र व गुरु को सोम्य  ग्रह माना गया है। किंतु यहां पर मुख्य रूप से  विचारणीय  बात इस प्रकार है।कि गुरु जातक को आत्म उन्नति व आत्मिक सुख प्रदान करता है और शुक्र जातक को सांसारिक उन्नति तथा सांसारिक सुख की प्राप्ति कराने वाला होता है। अतः शुक्र के प्रभाव से जातक स्वार्थी और गुरु के प्रभाव से परमार्थी होता है।

(२) यद्यपि ज्योतिष शास्त्र ने सनी को पापी ग्रह की संज्ञा प्रदान की है। किंतु शनि का जो अंतिम परिणाम होता है वह सुखद होता है। जिस प्रकार सोने को अग्नि में तपा कर अति विशिष्ट बना दिया जाता है उसी प्रकार शनि देव जातक को कष्टों की अग्नि में तपा करके विशिष्ट बनाते हैं।

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