GURU BRAHASPATI KO SHUBH BALI KARNE KE UPAY गुरू को बली और शुभ करने के उपाय
Pahle bhav me guru ka shubh ashubh samanya fal/ पहले भाव में गुरु का शुभ अशुभ सामान्य फल
पहले भाव में गुरु का शुभ अशुभ सामान्य फल शुभ फल : बृहस्पति-लग्न में रहने पर उत्तम फल मिलता है। जातक का शरीर नीरोग, दृढ़-कोमल, वर्ण गोरा और मनोहर होता है। जातक देवताओं के समान सुंदर शरीर वाला, बली, दीर्घायु होता है। जातक तेजस्वी, स्पष्टवक्ता, स्वाभिमानी, विनीत, विनय-सम्पन्न, सुशील, कृतज्ञ एवं अत्यंत उदारचित होता है। जातक निर्मलचित, द्विज-देवता के प्रति श्रद्धा रखने वाला, दान, धर्म में रूचि रखने वाला, एवं धर्मात्मा होता है। जातक विद्याभ्यासी, विचार पूर्वक काम करनेवाला, सत्कर्म करने वाला, बुद्धिमान्, विद्वान्, पंडित, ज्ञानी तथा सज्जन होता है।
आध्यात्मिक रुचि, रहस्य विद्याओं का प्रेमी होता है। जातक मधुर प्रिय होता है तथा सर्वलोकहितकर, सत्य और मधुर वचन बोलता है। स्वभाव स्थिर होता है। स्वभाव से प्रौढ़ प्रतीत होता है तथा सर्वज्जन मान्य होता है। घूमने-फिरने का शौकीन होता है। जातक अपने भाव अपने मन में ही रखता है। जातक प्रतापी, प्रसिद्ध कुल में उत्पन्न होता है। लग्न में बृहस्पति होने से जातक शोभावान्, और रूपवान्, निर्भय, धैर्यवान्, और श्रेष्ठ होता है।
सामान्यत: लग्न में किसी भी राशि में गुरु होने से जातक उदार, स्वतंत्र, प्रामाणिक, सच बोलनेवाला, न्यायी, धार्मिक तथा कीर्तिप्राप्त करनेवाला और शुभ काम करनेवाला होता है। मस्तक बड़ा और तेजस्वी दिखता है। जातक का वेश (पोशाक) सुन्दर होता है। जातक सदा वस्त्र तथा आभूषणों से युक्त-सुवर्ण-रत्नआदि धन से पूर्ण होता है। राजमान्य-तथा राजकुल का प्रिय होता है। राजा से मान तथा धन मिलता है। अपने गुणसमूह से ही सर्वदा लोगों में गुरुता (श्रेष्ठता-बड़कप्पन) प्राप्त होती है। गुणों से समाज में मान्य होता है। स्त्री-पुत्र आदि के सुख से युक्त होता है। पुत्र दीर्घायु होता है। बचपन में सुख मिलता है। सभी प्रकार के सुख प्राप्त करता है। विविध प्रकार के भोगों में धन का खर्च करता है। जातक शत्रुओं के लिए विषवत् कष्टकर होता है। विघ्नों को गुरु तत्काल नाश करता है। जीवनयात्रा के अन्त में विष्णुलोक की प्राप्ति होती है। शरीर छोड़ने पर जातक की उत्तमगति होती है अर्थात् स्वर्गगामी होता है।
गुरु अग्निराशि में होने से उदार, धैर्यशाली, स्नेहल-विजयी, मित्रों से युक्त अभिमानी होता है। शास्त्रकारों के शुभफल मेष, सिंह, धनु, मिथुन और मीन राशियों के हैं। अशुभ फल इन राशियों से भिन्न दूसरी राशियों के हैं। जन्म लग्न में गुरु अपने स्थान (धनु-मीन) में होने से व्याकरणशास्त्रज्ञ होता है। तीनों वेदों का ज्ञाता होता है। धनु और मीन में गुरु होने से संकट नष्ट होते हैं। मेष, सिंह तथा धनु लग्न में गुरु होने से शुभफलों का अनुभव आता है। जातक स्वभाव से उदार होता है। लोककल्याण बहुत प्रिय होता है। गुरु के प्रभाव में आए हुए जातक अपठित भी पठित ही प्रतीत होते हैं। जातक यदि प्राध्यापक वकील-वैरिस्टर-जज-गायक कवि आदि होते हैं तो इन्हें यशप्राप्ति होती है। गुरु लग्न में, त्रिकोण में या केन्द्र में धनु, मीन या कर्क राशि में होने से अरिष्ट नहीं होता है।
अशुभफल : अल्पवीर्य-अर्थात् अल्पबली-कमजोर होता है। शरीर में वात और श्लेष्मा के रोग होते हैं। झूठी अफवाहों से कष्ट होता है। धनाभाव बना ही रहता है। लग्नस्थ गुरु के फलस्वरूप माता-पिता दोनों में से एक की मृत्यु बचपन में सम्भव है।लग्न स्थान का गुरु द्विभार्या योग कर करता है। विवाहाभाव योग भी बन सकता है।
लग्नस्थ गुरु पुलिस, सेना-आबकारी विभागों में काम करने वालों के लिए नेष्ट है। अर्थात ये विभाग लाभकारी नहीं होंगे। गुरु शत्रुग्रह की राशि में, नीच राशि में, पापग्रह की राशि में या पापग्रह के साथ होने से जातक नीचकर्मकर्ता तथा चंचल मन का होता है। मध्यायु होता है। पुत्रहीन होता है। अपने लोगों से पृथक हो जाता है। कृतघ्न, गर्वीला, बहुतों का बैरी, व्यभिचारी, भटकनेवाला अपने किए हुए पापों का फल भोगनेवाला होता है।
मेष, मिथुन, कर्क, कन्या-मकर को छोड़ अन्य लग्नों में गुरु होने से जातक भव्य भाल का, विनोदी स्वभाव का, किसी विशेष हावभाव से बातें करने वाला होता है। धनु लग्न में सन्तति नहीं होती। मिथुन, कन्या, धनु, मीन लग्न में गुरु होने से जातक वय में श्रेष्ठ कुलीन परस्त्री से सम्बन्ध जोड़ता है। लग्नस्थ गुरु अशुभ सम्बन्ध का अच्छा फल नहीं देता है।
Dusre bhav me guru ka shubh ashubh samanya fal/ दूसरे भाव में गुरु का शुभ अशुभ सामान्य फल शुभ फल :
द्वितीयभाव में जो-जो बातें देखी जाती हैं उन सबका सुख प्राप्त होता है। दूसरे स्थान में बृहस्पति होने से जातक सुन्दर मुखाकृति वाला, रूपवान्, सुमुख, सुंदर शरीर और आयुष्मान् होता है। जातक गुणी, श्रेष्ठ-दानी, सुशील, दीनदयालु, निर्लोभी, निरूपद्रवी, विनम्र, सत्संगी, साहसी और सदाचारी होता है। जातक मधुरभाषी, सर्वजनप्रिय, सम्माननीय होता है तथा सबलोग आदर-मान करते हैं। बुद्धिमान्, विद्या-विनययुक्त, विद्याभ्यासी विवेकसंपन्न, विद्वान, ज्ञानी, गुणज्ञ, होता है। सुकार्यरत, पुण्यात्मा, कृतज्ञ, राजमान्य, लोकमान्य, भाग्यवान् होता है। कवि की सी कोमल भावनाओ से युक्त होता है। मान-प्रतिष्ठा को ही धन मानता है। दूसरे भाव का बृहस्पति जातक को नेतृत्व के गुणों से युक्त करता है। कीर्ति से युक्त होता है। सदैव उत्साही होता है।
वाग्मी (बोलने में कुशल) होता है। बुद्धिमान् और कुशलवक्ता होता है। जातक भाषण में कुशल, बोलने में चतुर, तथा प्रसन्नमुख होता है। द्वितीयभावगत बृहस्पति के प्रभाव में उत्पन्न व्यक्ति वाचाल होता है-बोलने में प्रगल्भ होता है। जातक की वाणी अच्छी होती है-अर्थात् मितभाषी यथार्थ और मधुरभाषी होता है। जातक लोगों के बीच सभा में अधिक बोलने वाला होता है। जातक को उत्तम भोजन प्राप्त होते हैं। जातक धनी और सर्वाधिकार प्राप्तकर्ता होता है। जातक सम्पत्ति और सन्ततिवान्, धनाढ़्यय होता है। जातक को प्रयत्न से धन का लाभ होता है। मोतियों के व्यापार से धनवान् होता है। जातक पशुधन से भी धनाढ़्य होता है। अनेक प्रकार के वाहन-हाथी, घोड़े, मोटर आदि से युक्त होता है।
गुरु धनस्थान में हाने से या इस स्थान पर गुरु की दृष्टि होने से धनधान्य का सुख मिलता है। धनस्थ गुरु अनेक प्रकारों से धन का संग्रह और संचय करवाता है। धन का संग्रह होता है। सोना चांदी प्राप्त करने वाला, सरकारी नौकरी, कानूनी काम, बैंक, शिक्षा संस्थान, देवालय, धर्मसंस्था में यश मिलता है। रसायनशास्त्र, और भाषाओं के ज्ञान में निपुणता प्राप्त होती है।
द्वितीयभाव में बृहस्पति होने से जातक की स्वाभाविक रुचि काव्यशास्त्र की ओर होती है। द्वितीयभाव का बृहस्पति दंडनेतृत्व शक्ति अर्थात् राज्याधिकार देता है। जातक अपराधीजनों को दंड देने का अधिकारी होता है-अर्थात् मैजिस्ट्रेट-कलक्टर आदि न्यायाधीश होता है। कुटुंब के व्यक्तियों से और पत्नी से अच्छा सुख मिलता है। जातक की पत्नी सुन्दर होती है। पत्नी से संतुष्ट होता है। बंधुओं से आनन्द प्राप्त होता है। 27 वें वर्ष राजा से आदर पाता है। निर्वैर-अर्थात् शत्रुहीन होता है। शत्रुओं को पर विजय करने वाला होता है। गुरु कर्क और धनुराशि में होने से धनवान् होता है। यह गुरु बलवान् होतो श्रेष्ठ फल मिलता है।
अशुभफल : गुरु धनस्थान में पापग्रह से युक्त होने से शिक्षा में रुकावटें आती हैं। चोर, ठग, मिथ्याभाषी, अयोग्यभाषणकर्ता होता है। नीचराशि में, या पापग्रह की राशि में होने से मद्यपी, भ्रष्टाचार, कुलनाशक, परस्त्रीगामी और पुत्रहीन होता है। प्रथम आय के साधन कम होते हैं, दूसरे आय से अधिक खर्च होता रहता है, इसलिए धनाभाव बना ही रहता है।
द्वितीयभावगत बृहस्पति से प्रभावान्वित व्यक्ति को धनार्जन करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ता है। बड़ी कठिनता से अर्जित धन यत्न करने पर भी स्थायी नहीं होता है-अर्थात् आर्थिक कष्ट बना ही रहता है। जातक वक्त्ररोगी होता है। बहुत बोलना, वा मूक होना-दोनों ही जिह्वा के दोष हैं। द्वितीयभावगत गुरुप्रभावान्वित व्यक्ति शरीर में कोमल होने से, रतिप्रिया कामिनी के साथ रतिप्रसंग में विजयी नहीं होता-क्योंकि अल्पवीर्य होता है।
धनस्थानस्थ गुरु के व्यक्ति प्राय: भिक्षुक ब्राह्मण, पाठशालाओं में शिक्षक, प्राध्यापक अथवा ज्योतिषी होते हैं, और ये धनी नहीं होते हैं-जीवननिर्वाह के लिए इन्हें जो कुछ मिलता है-किसी से छिपा हुआ नहीं है। वैरिस्टर, वकील और जज लोग धनपात्र होते हैं। यह ठीक है, किन्तु ये लोग साधारण स्थिति के अपवाद में है। अत: यह धारणा कि धनभाव का गुरु धन देता है-सुसंगत नहीं है। उच्चवर्ग में विवाह का बिलंब से होना-गुरु क #2366; फल हो सकता है। बाल-विवाह की प्रथा निम्नवर्ग के लोगों में अभी तक चली आ रही है। "पिता का सुख कम मिलता है-जातक के धन का उपयोग पिता नहीं कर सकता है। पैतृकसंपति नहीं होती-हुई तो नष्ट हो जाती है, जातक द्वारा दत्तक पुत्र लिया जा सकता है। यदि पैतृकसंपत्ति अच्छी हो तो पिता-पुत्र में वैमनस्य रहता है। अच्छे सम्बन्ध हों तो दोनों में से एक ही धनार्जन कर पाता है।
इस भाव का गुरु शिक्षा के लिए अच्छा नहीं है, शिक्षा अधूरी रह जाती है। अपने ही लोग निंदक हो जाते हैं। उपकर्ता का विरोध करते हैं। 27 वें वर्ष राजमान्यता मिलेगी-यवनजातक का यह फल ठीक प्रतीत होता है। धनभावगत बृहस्पति धनार्जन करवाता है। जातक को महान् प्रयास और कष्ट उठाना पड़ता है-धनार्जन उच्च्कोटि का भी हो सकता है-मध्यमकोटि का भी तथा अधमकोटि का भी हो सकता है-इसका कारण एकमात्र व्यक्ति का परिश्रम, प्रयास तथा कष्ट होता है-जैसा परिश्रम, वैसा ही फल।
मेष, सिंह तथा धनु राशि में गुरु होने से, गुरुजनों से, घर में बड़ों से विरोध करता है-इस फल का अनुभव होता है। भृगुसूत्र के अनुसार दूषित गुरु का फल -मद्यपायी होना, चोर वा ठग होना, वाचाट और भ्रष्टाचारी होना आदि-संभव हैं, अनुभव में आ जावें। धनु में गुरु होने से दान-धर्म के कारण अल्पघनता होती है। पैतृकसंपत्ति नहीं मिलती है। धनस्थान में मेष, सिंह, धनु, मिथुन, तुला, कुंभ में गुरु के फल साधारणत: अच्छे होते हैं।
Tisre bhav me guru ka shubh ashubh samanya fal/ तीसरे भाव में गुरु का शुभ अशुभ सामान्य फल शुभ फल :
तीसरे स्थान में स्थित बृहस्पति के कारण जातक साहस संपन्न, बलवान् होता है। गुरु धार्मिक और आध्यात्मिक वृत्ति का पोषक है, जातक विचारशील और बुद्धिमान् होता है। जितेन्द्रिय, आस्तिक, शास्त्रज्ञ, अनेक प्रकार के धार्मिक कृत्य सम्पादित करने वाला होता है। जातक तेजस्वी-काम करने में चतुर होता है, जिस काम का संकल्प करता है उसमें सफलता मिलती है। प्रवासी, पर्यटनशील एवं तीर्थयात्राएँ करने वाला होता है। जातक को सगे इसे भाई-बहनों और कुटुंब का सुख मिलता है।
तीन या पांच भाई बहन होते हैं। सर्वदा अपने भाइयों को उत्तमसुख और कल्याण करनेवाला होता है। जातक का भाई प्रतिष्ठित व्यक्ति होता है। मित्र तथा आप्तजनों के सुख से संपन्न होता है। स्त्री के साथ प्रेम होता है। राजा द्वारा सम्मानित होता है। सैकड़ों लोगों का स्वामी होता है। जातक की बुद्धि अच्छी होती है। लेखन से लाभ होता है। आप्तों से इसे धन लाभ होता है।
गुरु अग्नितत्व की राशियों में होने से संसार में विजय मिलती है। धनु या मीन में गुरु होने से भ्रातृसुख विशेष मिलता है। तृतीय स्थान का गुरु पुरुषराशि में होने से तीन भाई तक संभव हैं। 'सैंकड़ों लोगों का स्वामी होता है" ऐसा यवनमत है, ऐसे फल का अनुभव पुरुषराशियों में संभव है।
अशुभफल : तीसरेस्थान में बृहस्पति हो होने से बहुत क्षुद्र होता है। नीच प्रकृति का होता है। जातक कृतघ्न होता है, किसी के उपकार को माननेवाला नहीं होता है। जातक सज्जन नहीं होता है- उदासीन, और आलसी होता है। तृतीयभावस्थ गुरु का जातक कृपण अर्थात् अदाता और कंजूस होता है। लोक में अपमानित, पापी और दुष्टबुद्धि होता है।
तीसरे स्थान पर बैठा बृहस्पति जातक को धनहीन, विलासी, परदाराप्रिय बनाता है। मित्रों के साथ मित्रों जैसा व्यवहार नहीं करता है, अर्थात् यह विश्वसनीय मित्र नहीं होता है। भाग्योदय होने पर भी संतोषजनक द्रव्योपलब्धि नहीं होती है। परन्तु राजा के घर में प्रसिद्धि पाकर भी स्वयं सुख भोगनेवाला नहीं होता है। स्त्री से पराजित होता है। स्त्री तथा पुत्रों और मित्रों से प्रेम नहीं होता है। भूख नहीं लगती है और यह दुर्बल होता है। अग्निमन्दता या मन्दाग्नि रहती है। जातक के शत्रु बढ़ते हैं, धन का क्षय होता है।
तृतीयभावगत गुरु भाइयों की एकसाथ प्रगति में रुकावट डालता है-सभी एकसाथ प्रगतिशील नहीं होंगे। कोई एक निठल्ला अवश्य ही बैठेगा और कुछ उपयोगी न होगा। इस परिस्थिति में पृथकत्व अच्छा रहेगा। युक्तिवाद करता है और मत बदलता रहता है। तृतीयेश के साथ पापीग्रह होने से धैर्यहीन, जडबुद्धि तथा दरिद्रता युक्त होता है। कू्ररग्रह की दृष्टि होने से भाइयों पर विपत्ति आती है। क्रूर और शत्रुग्रहों की दृष्टि होने से भाइयों का सुख कम मिलता है। तृतीयेश के साथ पापीग्रह होने से भाइयों का नाश होता है, इनसे संबंध अच्छे नहीं रहते हैं।
तृतीयस्थान का गुरु पुरुषराशि में होने से बड़े भाई होते हैं परन्तु बड़ी बहिनें नहीं होतीं। पुरुषराशि में तृतीयस्थान का गुरु शिक्षा के लिये अशुभ है, शिक्षा पूरी नहीं होती है। तृतीयस्थान का गुरु पुरुषराशि में होने से उपजीविका नौकरी द्वारा होती है पहिला चला हुआ स्वतंत्र व्यवसाय भी बंद करना होता है और नौकरी करनी होती है।
chothe bhav me guru ka shubh ashubh samanya fal / चौथे भाव में गुरु का शुभ अशुभ सामान्य फल
अशुभफल : सन्तानाभाव के कारण दुखी रहता है। जातक का अन्तष्करण चिन्तायुक्त रहता है। वैद्यनाथ ने "जातक कपटी होता है" ऐसा अशुभफल कहा है। पूर्वजों की संपत्ति का नाश-अथवा अभाव, परिश्रम और कष्ट से स्वयं धन का उपार्जन, उत्तर आयुष्यकुछ अच्छा, आयु के पूर्वार्ध में कष्ट, पूर्वाजित संपत्ति का नाश अपने ही हाथों से होना, अथवा किसी ट्रस्टी द्वारा इसका हड़प हो जाना। पितृसुख शीघ्रनष्ट होता है।
मातृजीवन में भाग्योदय नहीं होता है। माता-पिता जीवित रहें तो इन्हें पुत्रोपार्जित धन का सुख नहीं मिलता- जातक स्वयं भी प्रगतिशील नहीं होता-नौकरी हो तो इसमें शीघ्र उन्नति नहीं होती। व्यापार हो तो प्रगति बहुत धीमी होती है। जातक उतार-चढ़ाव के चक्र में पड़ा रहता है-कभी 12 वर्ष अच्छे, तो कभी 12 वर्ष बुरे बीतते हैं।
मेष, सिंह या धनु में चतुर्थभाव का गुरु होने से घर-बाग-बगीचा हो ऐसी प्रबल इच्छाएँ होती हैं, किन्तु इस विषय में व्यक्ति चिंताग्रस्त ही रहता है। आयु के अंत में घर तो हो जाता है किन्तु अन्य इच्छाएँ बनी रहती हैं, पूर्ण नहीं होती है। चतुर्थेश के साथ पापग्रह होने से, या पापग्रहों की दृष्टि होने से घर और वाहन नहीं होते। दूसरे के घर रहना पड़ता है-जमीन नहीं होती माता की मृत्यु होती है। भाई-बंधुओं से द्वेष होता है।
शुभ फल : चौथे स्थान में बृहस्पति होने से जातक रूपवान्, बली, बुद्धिमान्, अच्छे हृदयवाला तथा मेधावी होता है। वाक्पटु, महत्वाकांक्षी और शुभकर्म करनेवाला होता है। जातक उद्यमी, कार्यरत, उद्योगी, यशस्वी और कुल में मुख्य होता है। लोक में आदर पानेवाला होता है। सब लोग जातक की प्रशंसा करते हैं। ब्राह्मणों का आदर-सम्मान करने वाला होता है। गुरुजनों का भक्त होता है। नौकरों-चाकरों और सवारी का सुख मिलता है। नानाप्रकार के वाहन आदि की प्राप्ति से सदैव आनंद मिलता है। कई प्रकार के वाहन चलाने की योग्यता रखता है। घर के दरवाजे पर बँधे हुए घोड़ों की हिनहिनाहट सुनाई देती है।
जातक के पास सवारी के लिए घोड़ा होता है। जातक का घर बड़ा विस्तृत और सुख-सुविधा युक्त होता है। राजा द्वारा दिए गए घर (राजकीय आवास) के सुख से युक्त होता है। जातक के घर पर पाण्डित्य पूर्ण शास्त्रार्थ-वाद-विवाद होते हैं। माता का सुख एवं स्नेह का पात्र बनता है। माता-पिता की सेवा करने वाला होता है। माता-पिता पर भक्ति होती है। और उनसे अच्छा लाभ होता है।
बृहस्पति अपरिमित सुख देता है। माता, मित्र, वस्त्र, स्त्री, धान्य आदि का सुख प्राप्त होता है।जातक को भूमि का सुख मिलता है। राजा की कृपा से (सरकार से) जातक को धन मिलता है। जातक के पास अच्छा दूध देने वाले दुधारू पशु होते हैं। अर्थात् यह पशु-धन संपन्न होता है। मित्रों से सुख मिलता है। वचपन के मित्र प्राप्त होते हैं। उत्तम वस्त्र और पुष्पमालाएँ प्राप्त होती हैं। आयु के अंतिमभाग में विजय प्राप्त होती है। पुरुषराशियों में शुभफल मिलते हैं। गुरु बलवान् होने से पिता की स्थिति बहुत अच्छी होती है। पिता सुखी होते हैं।
panchve bhav me guru ka shubh ashubh samanya fal / पांचवें भाव में गुरु का शुभ अशुभ सामान्य फलशुभ फल :
पंचमस्थ बृहस्पति होने से जातक दर्शनीय रूपवाला होता है, आखें बड़ी होती हैं। पाँचवें भाव में बृहस्पति होने से जातक आस्तिक, धार्मिक, शुद्धचित्त, दयालु तथा विनम्र होता है। जातक बुद्धिमान्, पवित्र और श्रेष्ठ होता है। वृत्ति न्यायशील होती है। महापुरुषों से पूजित योगाभ्यासी होता है। जातक उत्तम कल्पना करनेवाला, कुशल तार्किक, ऊहापोह-तर्क-वितर्क करनेवाला नैयायिक होता है। जातक की वाणी कोमल और मधुर होती है। वह उत्तम वक्ता, धाराप्रवाह बोलने वाला, तर्कानुकूल उचित बोलनेवाला, कुशल व्याख्यानदाता होता है।
जातक धीर होता है, संघर्षो से मुख न मोड़ कर विपत्तियों से जूझना इसकी विशेषता मानी जाती है। वह चतुर और समझदार होता है। महान् कार्य करने वाला होता है। इसका हस्ताक्षर (हस्त लेख) बहुत दिव्य और सुंदर होता है। उत्तम लेखक होता है अर्थात् स्वप्रज्ञोद्भावित-भावपूर्णगंभीरलेख लिखने वाला होता है, अथवा एक उच्चकोटि का ग्रंथकार होता है। जातक ज्योतिष मे रुचि, कल्पनाशील, प्रतिभावान एवं नीतिविशारद होता है। अनेक विध, विद्या और विद्वानों का समागम होता है। अनेक शास्त्रों का ज्ञाता होता है। जातक उत्तम मंत्रशास्त्र का ज्ञाता होता है। जातक की बुद्धि विलास में अर्थात् आनन्द प्रमोद में रहती है। अर्थात् जातक बृहस्पति के प्रभाव से आरामतलब होता है। बहुत पुत्र होते हैं। सुखी और सुन्दर होते हैं।
पांचवे स्थान में बृहस्पति स्थित होने से जातक को गुणी और सदाचारी पुत्रों की प्राप्ति होती है। जातक के पुत्र आज्ञाकारी, सहायक होते हैं। जातक बुद्धिमान् और राजा का मंत्री होता है। विविध प्रकारों से धन और वाहन मिलते हैं। जातक की संपति सामान्य ही रहती है। अर्थात् अपने का्यर्यानुसार ही प्राप्ति होती है, अधिक प्राप्ति नहीं होती है। अर्थात् जातक की जीवनयात्रा तो अच्छी चलती हैं, किन्तु धन समृद्धि नहीं होती है, और यथा लाभ संतुष्ट रहना होता है। स्थिरधन से युक्त और सदा सुखी होता है। मनोरंजक खेल, सट्टा, जुआ, साहसी (रिस्की)काम, रेस, प्रेम प्रकरणों आदि में विजयी होता है। जातक के मित्र अच्छे होते हैं। बुद्धि शुभ होती है। अपने कुल का प्रेमी, अपने वर्ग का मुख्य अर्थात कुलश्रेष्ठ होता है। अच्छे वस्त्राभूषण पहनता है। जातक पुत्र के कमाये धन पर आराम करने वाला रहता है। धनु में होने से कष्ट से संतति होती है। ग्रंथकारों ने पंचम भावगत गुरु के शुभ फल वर्णित किये हैं। इनका अनुभव पुरुषराशियोें में प्राप्त होता है।
अशुभफल : पुत्र और कन्या का सुख नहीं होता है। अर्थात् संतानसुख नहीं होता है। पंचम भाव का गुरू कर्क, मीन, धनु तथा कुंभ में होने से पुत्र न होना अथवा थोड़े पुत्रों का होना और उनका रोगी होना" ऐसे फल का अनुभव आता है। पुत्रों के कारण क्लेशयुक्त होता है। 1. पुत्र उत्पन्न न होना भी क्लेश है, पुत्र का अभाव भी पुत्रक्लेश है। 2. पुत्र उत्पन्न होने पर नष्ट हो जावें यह भी पुत्रों से क्लेश है। 3. पुत्रों के आचरण से, व्यवहार से क्लेश उठाना पड़े, वा मन को क्लेश हो यह भी पुत्रों से क्लेश है।
बुढ़ापे में पुत्रों से कदाचित् ही सुख मिलता है। धन लाभ के समय विरोध खड़ा हो जाता है। राज्यसम्बन्धी कारण से कचहरी में धन का खर्च होता है। कार्य की फलप्राप्ति के समय इसे कुछ विघ्न प्राप्त हो जाते हैं। अर्थात् अपने किए हुए काम का पूरा फल नहीं मिलता है। पंचमस्थ गुरु निष्फल होता है' यह मत वैद्यनाथ (जातक पारिजात) का है। वृष, कर्क, कन्या, मकर, मीन तथा धनु राशियों में पंचमस्थ गुरु होने से निष्फलता का अनुभव संभव है। पंचमेश बलवान् ग्रहों से युक्त न होने से, या पापग्रह के घर में होने से, या शत्रु तथा नीचराशि में होने से पुत्र नाश होता है। अथवा एक ही पुत्रवाला होता है। पंचमेश के साथ या गुरु के साथ राहु-केतु होने से सर्प के शाप से पुत्रनाश होता है।
Chathe bhav me guru ka shubh ashubh samanya fal / छठे भाव में गुरु का शुभ अशुभ फल शुभ फल :
छठे भाव में गुरु बलवान् होने से शारीरिक प्रकृति अच्छी अर्थात नीरोगी होती है। शरीर में चिन्ह होता है। जातक मधुरभाषी, सदाचारी, पराक्रमी, विवेकी, उदार होता है। सुकर्मरत, लोकमान्य, प्रतापी, विख्यात और यशस्वी होता है। जातक विद्वान, ज्योतिषी, तथा संसारी विषयों से विमुख और विरक्त होता है। जारण-मारण आदि मन्त्रों में कुशल होता है। जातक संगीत विद्या का प्रेमी होता है। सार्वजनिक स्वास्थ्य के विषय में जातक प्रवीण होता है।
छठे स्थान पर बैठा बृहस्पति जातक को स्त्री पक्ष का पूरा सुख देता है।सुन्दरी स्त्री से रति सुख मिलता है। गुरु भाई बहनों के लिए तथा मामा के लिए सुखकारी होता है। पुत्र और पुत्र के पुत्र (पौत्र) देखने का सुख मिलता है। राज-काज में, विवाद में विजय कराता है। जातक शत्रुहंता तथा अजातशत्रु होता है। अर्थात शत्रु नहीं होते। नौकर अच्छे मिलते हैं। वैद्य, डाक्टरों के लिए यह गुरु अच्छा होता है। स्वास्थविभाग की नौकरी में जातक यशस्वी होता है। स्वतंत्र व्यवसाय की अपेक्षा नौकरी के लिए यह गुरु अनुकूल होता है। भैंस-गाय-घोड़ा कुत्ते आदि चतुष्पदों (चारपाए जानवरों) का सुख मिलता है। गुरु स्वगृह में या शुभग्रह की राशि में होने से शत्रुनाशक होता है।
अशुभफल : जातक कृश शरीर अर्थात दुर्बल होता है। सामान्यत: षष्ठ भाव के गुरु होने से जातक के के बारे में लोग संदिग्ध और संशयात्मा रहते हैं। निष्ठुर, हिंसक, आलसी, घबड़ाने वाला, मूर्ख तथा कामी होता है। जातक के काम में विघ्न आते हैं। जिस काम को हाथ में लेता है उसे समाप्त करने में शीघ्रता नहीं करता है अर्थात् आलस करता है।
जन्मलग्न से छठे स्थान में बृहस्पति होने से जातक रोगार्त रहता है। नानाविध रोगों से रुग्ण रहता है। जातक को नाक के रोग होते हैं। जातक की माता भी रोग पीडि़त रहती हैं। माता के बन्धु वर्गों में भी (मामा आदि में भी) कुशल नहीं रहता है। जातक के मामा को सुख नहीं होता है। शत्रु बहुत होते हैं। शत्रुओं से कष्ट होता है। 40 वें वर्ष शत्रुओं का भय होता है। छठागुरु भाइयों और मामा के लिए मारक होता है। छठागुरु अपमान, पराभव और व्याधि देता है। छठवें और बारहवें वर्ष ज्वर होता है। कामी, और शोक करने वाला होता है। जातक स्त्री के वश में रहता है। जातक की भूख कम होती है-पौरुष कम होता है। गुरु धनेश होकर छठे होने से पैतृकसंपत्ति नहीं मिलती।
गुरु पुरुषराशियों में होने से जातक सदाचारी नहीं होते-इन्हें जुआ, शराब और वेश्या में प्रेम होता है। मधुमेह, बहुमूत्र, हार्निया, मेदवृद्धि आदि रोग होते हैं। गुरु कन्या, धनु या कुंभ मे होने से जातक के लिए भाग्योदय में रुकावट डालनेवाला है। गुरु अशुभ योग में होने से यकृत के विकार, मेदवृद्धि-तथा खाने-पीने की अनियमितता से अन्यरोग होते हैं। पापग्रह का योग होने से या पापग्रह के घर में गुरु होने से वात के तथा शीत के रोग होते हैं। शास्त्रकारों के बताये अशुभफल पुरुषराशियों में अनुभव मे आते हैं।
Satve bhav me guru ka shubh ashubh samanya fal / सातवे भाव में गुरु का शुभ अशुभ सामान्य फल शुभ फल :
सातवें स्थान के बृहस्पति के प्रभाव से जातक सुन्दर देह और आकर्षक व्यक्तित्व का धनी, बलाढ़्य होता है। जातक से मिलकर लोग प्रसन्न होते हैं अर्थात् यह मिलने में आकर्षक और वश में करनेवाला होता है। जातक की वाणी अमृत के समान मधुर होती है। वक्ता, बोलने में-सभा में भाषण देने में कुशल होता है। सप्तम भावगत गुरु प्रभावान्वित जातक कुशाग्रबुद्धि होता है। श्रेष्ठ-बुद्धिमान् और विद्या-सम्पन्न होता है। जातक की सद्-असद् विवेकाकारिणी बुद्धि बहुत फलदायिनी होती है।
जातक ज्योतिष, काव्य साहित्य, कला-पे्रमी, शास्त्र परिशीलन में बहुत आसक्त रहता है। अच्छी रुचिवाला, उदार, कृतज्ञ, धैर्यसंपन्न, विनम्र, विनययुक्त होता है। जातक भाग्यवान और गुणी होता है। जातक गुणों में अपने पिता की अपेक्षा श्रेष्ठ होता है। अपने पिता से अधिक उदार होता है। अपने भाई-बहनों से सशक्त होता है अथवा अपने कुलके लोगों में श्रेष्ठ होता है। स्वयं सुन्दर होता है। प्रधान, प्रवासी, सुन्दर, प्रसिद्ध होता है। सप्तमस्थ बृहस्पति के अनुसार व्यक्ति प्रतापी, यशस्वी, प्रसिद्ध होता है। जातक स्त्रियों के प्रति आसक्त नहीं होता। स्त्रियों को केवल उपभोग का साधन मानता है, बंधना नहीं जानता। जातक की पत्नी सुन्दर, सुलोचना, गौर वर्ण की, धर्मनिष्ठ, पतिव्रता-पतिपरायणा होती है। पति या पत्नी उदार, न्यायी, सुस्वभावी, प्रामाणिक और स्नेहल होती है। पत्नी या पति उच्चकुल का धनवान् और सुखी होता है।
विवाह के कारण भाग्योदय होकर धन, सुख, श्रेष्ठपद और मान्यता मिलती है। जातक की पत्नी गुणवती और पुत्रवती होती है। साझीदार अच्छे होने से साझे के व्यवहार में और कचहरी के मामलों में यश मिलता है। जातक का वैभव तथा ऐश्वर्य गगनचुम्बी होता है। जातक को राजकुल से पूर्ण धन का लाभ होता है। राजा के समान सुख प्राप्त होता है। बृहस्पति सप्तमभाव में होने से जातक शीघ्र परम उच्चस्थान को प्राप्त करता है। अच्छी और शुभ मंत्रणा देनेवाला, अच्छा सलाहकार होता है। पुत्र उत्तम बुद्धिमान् और सुंदर होते हैं। चित्रकर्मा-विचित्र काम करनेवाला अथवा चित्रकार-फोटोग्राफर होता है। न्याय के कार्य में यश मिलता है। शत्रुता दूर होती है, अच्छे मित्र मिलते हैं। वकीलों के लिए सप्तम में गुरु बलवान् होने से अच्छा योग होता है। क्योंकि ये समझौता करने में कुशल होते हैं। पिता से सुख मिलता है। जातक को 34 वें वर्ष में प्रतिष्ठा प्राप्त होती है।
मेष, सिंह, मिथुन वा धनु में सप्तमभावस्थ गुरु शिक्षा के लिए अच्छा है। पूर्ण शिक्षा प्राप्त कर लेने के अनन्तर जातक विद्वान् बुद्धिमान् शिक्षक, प्राध्यापक वकील, बैरिस्टर और न्यायाधीश भी हो सकता है। शिक्षा-विभाग में नौकरी के लिए यह अच्छा योग है। सप्तम स्थान के स्वामी के साथ शुभग्रह होने से, या बृहस्पति उच्च में (कर्कराशि में) अथवा अपने गृह (धनु-मीन) में होने सेे एक ही पत्नी वाला होता है और स्त्री के द्वारा बहुत धनवाला तथा सुखी होता है। ग्रन्थकरों के बतलाए शुभफलों का अनुभव पुरुषराशियों में प्राप्त हो सकता है ।
अशुभफल : जातक अत्यंत अभिमानी भी होता है। सातवें भाव में गुरु होने से जातक अतिकामुक होता है और रतिक्रीड़ा विचक्षणा स्त्री में अत्यंत आसक्त होता है। सप्तमस्थान का स्वामी निर्बल होने से, अथवा राहु, केतु, शनि और मंगल ग्रह बैठे होने से या पापग्रह की दृष्टि होने से परदारोपभोक्ता एवं परस्त्रीरत होता है। जातक का ब्राह्मणी से अवैध संबंध होता है। पुत्रों की चिंता होती है। जातक पिता और गुरुजनों से द्वेष करनेवाला होता है। वैद्यनाथ ने सप्तम स्थान के गुरु का फल अशुभ भी बतलाया है, "पितृगुरुद्वेषी" ऐसा अशुभफल कहा है। इसी प्रकार जातकालंकार कर्ता ने भी "पुत्रचिन्ता" यह अशुभफल बतलाया है। इनका अनुभव स्त्रीराशियों में आएगा। गुरु अशुभयोग में या कन्याराशि में होने से विशेष लाभ नहीं होता। सप्तमस्थान में गुरु पुरुषराशि में होने से स्त्री पर प्रेम होता है।
athve bhav me guru ka shubh ashubh samanya fal / आठवें भाव में गुरु का शुभ अशुभ सामान्य फल शुभ फल :
बृहस्पति अष्टम भाव में होने से विनयशीलता, मधुर भाषण एवं सज्जनता जातक के स्वभाव के अंग होते हैं। जातक शीलसम्पन्न, शान्त, बुद्धिमान्, विवेकी, ज्योतिषप्रेमी, स्थिरमति और सुन्दर शरीरवाला होता है। योगमार्ग में निरत रहता है अर्थात् योगाभयासी होता है। कुलाचार-कुलपरंपरागत परिपाटी को माननेवाला होता है।
आठवें स्थान पर विराजमान गुरू के प्रभाव से जातक दीर्घायु, चिरंजीवी होता है।शरीर छूटने पर वैकुण्ठ में जाता है। मृत्यु शान्त अवस्था में होती है। अपने जन्म का साध्य पूरा हुआ, यह जानकर ही मानों मृत्यु का स्वागत करता है। जातक उत्तम-उत्तम तीर्थों की यात्रा करता है। धनी मित्रों की संगति प्राप्त होती है।अपने पिता के घर में बहुत समय तक नहीं रहता है। नौकर या गुलाम होता है-स्वजनों में नौकरी करनेवाला होता है। नौकरी से जीवन निर्वाह करता है। किसी के वसीयत द्वारा अथवा मृत्यु के कारण धन मिलता है। जब कभी रोगों से ग्रस्त भी हो जाता है पर इससे जातक की प्रकृति में अन्तर नहीं आता।
अष्टमभाव में मेंष, सिंह, धनु, मिथुन या तुला में गुरु होने से वसीयत द्वारा सम्पत्ति प्राप्त होती है। उत्तराधिकारी के रूप में भी सम्पत्ति मिल सकती है। धनु या मिथुन राशि में गुरु होने से विधवा स्त्रियों की सम्पत्ति-जो अमानत के रूप में रखी हुई होती है-प्राप्त होती है। ऐसा तब होता है जब विधवाएँ मर जाती है। गुरु बलवान् होने से विवाह से आर्थिक लाभ होता है, और प्रगति होने लगती है। शुभफलों का अनुभव विशेषत: पुरुषराशियों में आता है। गुरु शुभराशि में या स्वगृह में होने से ज्ञानपूर्वक किसी उत्तम तीर्थस्थान में मृत्यु होती है। गुरु धनु में होने से घोड़े से गिर पड़ने से मृत्यु होती है।
अशुभफल : आठवें स्थान में बृहस्पति होने से जातक मलिन, दीन, विवेकहीन, विनयहीन, सदैव आलसी और दुर्बल देह होता है। जातक कृपण (कंजूस), लोभी, शोकाकुल, शत्रुओं से घिरा हुआ, बुरे काम करने वाला तथा कुरूप होता है। जातक का शरीर कभी निरोग नहीं रहता है। अर्थात् सदैव रोगी रहता है। कई विकार होते हैं। 31 वें वर्ष रोग होते हैं। पीलिया, ज्वर, अतिसार, जैसे रोग, दरिद्रता, अनेक प्रकार की दुश्चिन्तायें और व्याधियां प्राप्त करता है। कुल के अयोग्य काम करने वाला होता है। जातक का मन चंचल रहता है। पैतृक धन-धान्य प्राप्त नहीं होता है। दीन और नीच वर्ग की स्त्री का उपभोग करनेवाला होता है। इसका अपमान होता है। पराशरमत से अष्टमस्थगुरु बन्धनयोग करता है।
अष्टमभावस्थ गुरु दीर्घायुष्य देता है। गुरु चाहे किसी राशि में हो व्यक्ति की मृत्यु के लिए नेष्ट है-मृत्यु बुरी हालत में होती है। गुरु पीडि़त होने से वसीयत आदि से असफलता द्वारा हानि होती है। गुरु के साथ पापग्रह होने से पतित होता है । गुरु पापग्रह की राशि में पीडि़त होने से कष्टपूर्वक मृत्यु होती है। पापग्रह बैठे हों तो 17 वर्ष के बाद विधवा से भोग करता है। गुरु पुरुषराशि में होने से 7-14-21-28-35-9-18-27,-36 वर्ष आपत्तियों के होते है। गुरु पुरुषराशि में होने से घर के भेद बाहर प्रकट नहीं होते-पत्नी और नौकर विश्वासपात्र होते हैं।
nave bhav me guru ka shubh ashubh samanya fal / नवें भाव में गुरु का शुभ अशुभ सामान्य फल शुभ फल :
नवम भाव मे गुरु होने से जातक धार्मिक, सच बोलनेवाला, नीतिमान्, विचारी और माननीय होता है। जातक स्वभाव से शान्त और सदाचारी होता है-ऊँचे बिचारों का होता है। तीर्थाटन और देवता-गुरू व ब्राह्मणों में श्रद्धा देता है तथा जातक को पुण्यकर्मा बनाता है। जातक साधुओं के संगति में रहनेवाला, भक्त, योगी, वेदान्ती, शास्त्रज्ञ, इच्छारहित और ब्रह्यवेत्ता होता है। जातक तपस्वी अर्थात् तपश्चर्या करनेवाला होता है। यह ज्ञानी, सर्वशास्त्रज्ञ, विद्वान, स्वकुलाचारपरायण और कुल को बढ़ाने वाला होता है। सभी शास्त्रों और कलाओं में पूर्णतया अभ्यस्त, व्रती और देवपितृभक्त होता है। जातक तीर्थयात्रा और धर्मिक कार्यों में प्रेम रखने वाला होता है। पराक्रमी, यशस्वी, विख्यात, मनुष्यों में श्रेष्ठ, भाग्यवान, साधुस्वभाव का होता है। जातक बहुत यज्ञ करता है। 35 वें वर्ष में देवयज्ञ करता है।
नवम बृहस्पति अध्यात्मज्ञान, और योगाभ्यास का द्योतक है। अन्तर्ज्ञान या भविष्य का ज्ञान प्राप्त होता है। न्यायकार्य, लेखन आदि के लिए गुरु शुभ है। जातक को मकान का सुख पूर्ण रूप से मिलता है । जन्मलग्न से नवेंस्थान में बृहस्पति होने से जातक का घर चारखण्ड (चारमंजिल) या चार चौक का होता है। बृहस्पति नवमभाव में होने से जातक का मकान पीला-लाल-हरे रंग से चित्रित चौकोर चारमन्जिल का होता है। जातक राजा का प्रेमपात्र होता है। जातक पर राजा की बहुत कृपा रहती है। जातक राजमंत्री, राजमान्य, नेता, या प्रधान होता है और बहुतों का स्वामी अर्थात् पालक होता है। राज्य और समाज में सम्मानित होता है और प्रसिद्ध होता है। धनवान्, धनाढ़्य होता है। सभी प्रकार की संपत्ति बढ़ती है। राजा जैसा ऐश्वर्य मिलता है। जीवनभर सुख मिलता है। और स्त्रियों को प्रिय होता है। जातक का पिता दीर्घायु होता है, अच्छे काम करता है, अत एव बहुत आदर और सम्मान पाता है।
नवम स्थान में स्थित बृहस्पति से हाथी-घोड़ों (वाहन) का सुख होता है। जातक भाई वंद और सेवकों से युक्त होता है। जातक के भाई-बन्धु जातक के प्रति विनीत और विनम्र व्यवहार करते हैं। जातक को कानून के काम, क्लर्क का काम, धार्मिक विषय, वेदांत, दूर के प्रवास से लाभ होता है। विवाह सम्बन्ध से जो नए रिश्तेदार होते हैं उनसे अच्छा सुखप्राप्त होता है। नवमभाव का गुरु भाइयों की कुटुम्ब में एकत्र स्थिति के अनुकूल नहीं है-एकत्र स्थिति में दोनों भाई प्रगतिशील नहीं होंगे। गुरु मेष, सिंह, धनु या मीन में होने से जातक एम.ए., एल.एल.बी., पी.एच.डी. आदि ऊची पदवियां प्राप्त करता है इस व्यक्ति को प्रोफेसर उपकुल गुरु आदि पद प्राप्त होते हैं।
अशुभफल : जातक किसी भी कार्य को प्रारम्भ से अन्त तक ले जाने के पहले ही छोड़ देता है। किसी भी विषय को थोड़ा ज्ञान होने पर आलस्य एवं प्रमादवश छोड़ बैठना जातक का स्वभाव होता है। जातक आलस्य से धर्म में उदासीन होता है, अर्थात् नित्यकर्म संध्यावंदनादि मे भी आलस्य करता है। गुरु पीडि़त होने से ऊपरी दिखावा, वृथा अभिमान बहुत होता है। वाहियात वर्ताव से जातक की बेइज्जती होती है।
नवमस्थान का गुरु पुत्र-चिन्ता बनाए रखता है। पुत्र होता नहीं-लड़की होती है-पुत्र चिन्ता बनी रहती है। पुत्र होता है, जीवित नहीं रहता है पुत्र चिन्ता बनी रहती है। जीवित तो रहता है किन्तु उच्छृख्ंल तथा विरुद्धाचारी होता है, पुत्र चिन्ता बनी रहती है। सुशिक्षित तो होता है किन्तु बरताव अच्छा नहीं करता, पुत्रचिन्ता बनी रहती है। नवमस्थान पितृस्थान है। किन्तु 'माता की मृत्यु होती है' बृहद्यवनजातक का यह फल भी सम्भव है। माता-पिता दोनों की मृत्यु भी सम्भव है। गुरु पुरुष राशि में होने से भाई-बहिनों के लिए नेष्ट है-भाई-बहनें थोड़ी होती हैं। पुरुषराशि का गुरु अल्प संतति(पुत्र) दाता है-एक या दो पुत्र, कन्याओं के बाद होते हैं।
dasve bhav me guru ka shubh ashubh samanya fal / दसवें भाव में गुरु का शुभ अशुभ फल
शुभ फल : दसवें स्थान में बृहस्पति स्थित होने से जातक सच्चरित्र, स्वतन्त्र विचारक, विचार विवेक-सम्पन्न, न्यायी, सत्यवादी होता है। दसवें भाव में गुरु होने से जातक सत्कर्मी, पुण्यात्मा, साधु, प्रसन्न, शास्त्रों का ज्ञाता, ज्योतिष-प्रेमी होता है। जातक अपने गुणों के कारण समाज में पूजित, अपने प्रभाव से सर्वत्र सम्मान प्राप्त करने वाला होता है। जातक की कीर्ति अतुल होती है अर्थात् इसके समान दूसरे लोग यशस्वी नहीं होते हैं।
जातक का प्रताप अपने बाप-दादा आदि से भी अधिक होता है। जातक को कामों के आरंभ में ही सफलता मिलती है। जातक गीता पाठ करता है, योग्य, उज्वल यशवाला और बहुत मनुष्यों का पूजनीय होता है। जातक मातृ-पितृ-भक्त, और पिता का प्रिय होता है। भूमि का सुख और भूमि से लाभ पूरी तरह मिलता है। घर रत्नों से शोभायमान होता है। जातक के पास उत्तम वाहन होते हैं।
दशम में गुरु होने से बहुत धन प्राप्त होता है। ऐश्वर्यवान्, समृद्ध, सुखी, धनी होता है। सुंदर वस्त्र तथा आभूषणों से युक्त होता है। दशम में गुरु होने से भाई से धन मिलता है। स्त्री-पुत्र का सुख सामान्य प्राप्त होता है। स्वास्थ्य सुख सामान्य होता है। घर पर बहुत मनुष्य भोजन करते हैं। परलोक की गति के बारे में चिन्ता करने वाला होता है। दशमस्थ गुरु किन व्यवसायों के लिए लाभकारी है यह निश्चयात्मक कहना कठिन है। इसमें सभी प्रकार के व्यवसायी पाए जाते हैं-भिक्षुक भी हैं, व्यापारी और जज भी हैं-आयात-निर्यात के व्यापारी भी पाए जाते हैं। 1, 2, 5, 6, 8, 9, 10, 12 राशियों में शुभ फल मिलते हैं। यह गुरु सम्मान, कीर्ति, भाग्य, यश आदि के लिए शुभ है। दशमेश बलवान् ग्रहों से युक्त होने से यज्ञ करने वाला होता है।
अशुभफल : संतानसुख बहुत थोड़ा होता है। अपने कुपुत्रों अर्थात् दुष्टपुत्रों के सुख से सुखी नहीं होता है। अर्थात् दुष्टपुत्र होते हैं। दशमेश पापग्रह युक्त होने से, या पापग्रह के घर में होने से काम में विघ्न पड़ते हैं, दुष्टकाम किये जाते हैं, यात्रा में लाभ नहीं होता है। दशमस्थान में गुरु पुरुषराशि में होने से संतान थोड़ी होती है।
gyarve bhav me guru ka shubh ashubh samanya fal / ग्यारहवे भाव में गुरु का शुभ अशुभ सामान्य फल
शुभ फल : ग्यारहवें भाव में बृहस्पति होने से जातक सुन्दर, नीरोगी, स्वस्थ देह वाला, दीर्घायु होता है। जातक प्रमाणिक, सच बोलनेवाला, कुशाग्र बुद्धि, विचारवान् होता है। सन्तोषी, उदार, परोपकारी और साधु स्वभाव का होता है। सज्जनों की संगति में रहता है। "लाभस्थाने ग्रहा: सर्वे बहुलाभप्रदा:" इसके अनुसार सभी ग्रंथकारों ने प्राय: शुभफल बतलाए हैं। जातक को राज्य द्वारा सम्मान और लाभ के विलक्षण योग प्राप्त होते हैं। श्रीमान् और खानदानी लोगों से मित्रता होती है। अच्छे मित्रों से युक्त होता है। मित्रों की मदद से आशाएं और महत्वाकांक्षाएं पूरी होती हैं। उनकी सलाह उत्तम और फायदेमंद होती हैं। अपने कामों से समाज में नाम होता है और श्रेष्ठता प्राप्त होती है।
ग्यारहवें स्थान में स्थित बृहस्पति से पुष्कल अर्थ-लाभ, धनप्राप्ति अच्छी होती है। धनधान्य से परिपूर्ण भाग्यवान् होता है। जातक के धनप्राप्ति के मार्ग अपरिमित और असंख्य होते हैं। उत्तम रत्न, विविध वस्त्रों से युक्त, और व्यापार से लाभ प्राप्त होते हैं। सोना-चांदी आदि उत्तम और अमूल्य वस्तु प्राप्त होती है। जातक हाथी घोड़े आदि धनसंपत्ति से युक्त होता है। पृथ्वी पर जातक के लिए कुछ भी अलभ्य नहीं होता है। राजा, यज्ञ, हाथी, जमीन, और ज्ञान की क्रिया से लाभ होता है। 32 वें वर्ष बहुत लाभ होता है। कई प्रकार से प्रतिष्ठा प्राप्ति होती है।
जातक के पास सवारियाँ भी बहुत होती हैं, उत्तमवाहन प्राप्त होते हैं। जातक सेवकों का सुख प्राप्त करता है। नौकर चाकर बहुत होते हैं। जातक अनेक स्त्रियों का उपभोग करता है और पांच पुत्र उत्पन्न करता है। संतति सुख अच्छा मिलता है। पुत्र के जन्म से भाग्योदय शुरु होता है। जातक अपने पिता के भार को संभालनेवाला अर्थात् अपने पिता का पोषक या सहायक होता है। पराक्रमी होता है, शत्रुगण संग्राम में शीघ्र ही विमुख होकर भाग जाते हैं। मंत्रज्ञ तथा दूसरों के शास्त्र जानने वाला होता है। धनवान् लोग तथा ब्राह्मणगण(विद्वान्) स्तुति करते हैं। राजपूज्य, राजकृपायुक्त होता है। अपने कुल की बढ़ौत्री करनेवाला होता है। संतति-संपत्ति और विद्या, इन तीनों में से एक का अच्छा लाभ, एकादशस्थ गुरु का सामान्य फल है। कथन का तात्पर्य यह है कि यदि संपत्ति अच्छी होगी तो दूसरी दोनों संतान और विद्या कम होगी। पूर्वार्जित संपत्ति प्राप्त नहीं होती या अपने हाथों नष्ट हो जाएगी या दूसरे हड़प कर लेगें। शुभफलों का अनुभव कर्क, कन्या और मीन को छोड़कर अन्यराशियों में आता है। गुरु द्विस्वभाव राशि में होने से धार्मिक और संसारदक्ष होता है।
अशुभफल : कल्याण वर्मा और गर्ग ने कुछ अशुभफल भी कहे हैं-'शिक्षा न होना।' 'अल्प संतान होना।' ये अशुभफल हैं। जातक का द्रव्य (धन) दूसरों के लिए होता है। जातक के उपभोग के लिए नहीं होता है। अर्थात् जातक कृपण होता है अत: दान-भोग आदि में अपने धन का उपयोग स्वयं नहीं करता है-और जातक के धन का आनन्द दूसरे लेते हैं। अल्पसन्ततिवान् अर्थात् पुत्र भी बहुत नहीं होते। विद्या बहुत नहीं होती अर्थात् बहुत विद्वान् नहीं होता है। एकादश में गुरु होने से पुत्र बहुत दुराचारी होते है। मां-बाप से झगड़ते हैं, मारपीट करने से भी पीछे नहीं रहते । निरुपयोगी होते हैं। अपना पेट भी भर नहीं सकते।
गुरु कर्क, कन्या, धनु या मीन में होने से संतति या तो होती नहीं, होती है तो मृत होती है। अथवा स्त्री पुत्रोत्पत्ति में अयोग्य होती है। गुरु के प्रभाव स्वरूप विपत्तियों की भरमार रहती है। स्वयं रोगी होना, पत्नी का रुग्णा होना, पत्नी से वैमनस्य, द्वितीय विवाह, कन्याएं ही होना, बड़े भाई की मृत्यु, निर्धनी, ऋण लेना, चुकाने में असमर्थ होने से जेल जाना-व्यवसाय में नुकासान, परिणामत: वेइज्जत होकर गांव छोड़ अन्यत्र वास करना आदि-आदि अशुभ फल मिलते हैं।
barve bhav me guru ka shubh ashubh samanya fal / बारहवें भाव में गुरु का शुभ अशुभ सामान्य फल
शुभ फल : बारहवें स्थान में बृहस्पति के स्थित होने से जातक संसार में पूज्य, धार्मिक आचरण करने वाला होता है। जातक मितभाषी, योगाभ्यासी, परोपकारी, उदार, शास्त्रज्ञ, सदाचारी, विरक्त स्वभाव का होता है। आध्यात्म और गूढ़शास्त्रों में रुचि होती है। पुरानी रीतियों के बारे में आदर होता है। निर्भीक प्रकृति का और सुखी होता है।
द्वादशस्थान का सम्बन्ध परोपकार तथा विश्वप्रेम से हैं। अत: बड़े-बड़े दान देने की प्रवृत्ति भी होती है। मरणान्तर सद्गति प्राप्त करने वाला होता है। स्वर्गलोक प्राप्त होता है। मितव्ययी, द्रव्य व्यय अच्छे कामों में,धर्म में खर्च करता है। वैद्य, धर्मगुरु, वेदज्ञानी, लोकसेवक, सम्पादक आदि के लिए यह गुरु शुभ है। देशत्याग, अज्ञातवास तथा दूरप्रदेशों में प्रवास से कीर्ति तथा लाभ प्राप्त होते हैं। शत्रु द्वारा लाभ होता है।
आयु का मध्य तथा उत्तरार्ध अच्छा जाता है। अन्न की कमी नहीं होती। वस्त्र, गौएँ, धन, सोना और सम्पत्ति प्राप्त होते हैं। सेवा करने में चतुर होता है। भ्रमणशील (प्रवासी) होता है। विदेश-यात्रा तथा प्रवास संभव है। पिता के धन से धनी होता है। पिता के भाई सुखी रहते हैं। गणित जाननेवाला होता है। पुत्र संतति थोड़ी होती है। गुरु से विपुल धन प्राप्त होता है। गुरु विजय प्राप्त कराता है। गुरु उच्च या स्वगृह में होने से लोकहितकारी और देशसेवक होता है। गुरु के बलवान् होने से दानाध्यक्ष, सार्वजनिक संस्थाओं में कार्यकर्ता, अस्पताल, धार्मिक संस्थाएँ आदि के व्यवस्थापक के रूप में लाभ होता है।
अशुभफल : बारहवें भाव का बृहस्पति शुभ नहीं होता। जातक दुबला पतला और पीड़ा युक्त होता है। जातक उद्वेग, चिंता, पाप और कोप से युक्त होता है। निर्लज्ज, मानहीन और अपमानित होता है। चित्त उद्विग्न रहने से क्रोध बहुत आता है। दुर्बुद्धि, दुष्ट तथा दुष्टों की सहायता करनेवाला होता है। अधिक अहंकारी होता है। गुरु तथा बंधुजनों का उपकार करने में शिथिलता होती है। व्यर्थ ही खर्च की अधिकता और सदा दूसरे के धन का अपहरण करने में बुद्धि व्यग्र रहती है। भाई-बंधुओं का वैरी, और गुरुजनों से द्वेष करने वाला होता है। किसी सार्वजनिक संस्था के आश्रय से जीवन बितानेवाला होता है। जातक से दूसरे लोग द्वेष करते हैं। लोगों के साथ द्वेष करने वाला होता है। बुरे शब्द बोलनेवाला, संतानहीन, पापी, आलसी और सेवक (नौकर) होता है। अपने कुल का परित्याग करके अन्य कुल में जाने वाला होता है।
जातक नेत्ररोगी होता है। हृदयरोग, गुप्त रोग, क्षयरोग होता है। ग्रंथिव्रण होता है। जातक का धन चोर ले जाते हैं। जातक नीचों की सेवा करने वाला, लोगों से झगड़ने वाला होता है। जातक को वाहन, भूषण, वस्त्र, घोड़े, चामर आदि की चिन्ता होती है। जातक बढ़-चढ़कर खर्च करता है। ब्राह्मणी और गर्भिणी स्त्री से सहवास और संगम करता है। अपने लोगों से झगड़े होते हैं, दु:ख होता है। चार्वाकमतानुयायी होता है। चार्वाकमत संक्षेप में 'खाओ पीओ मौज उड़ाओ' है। परलोक को नहीं मानता है। राजा से (सरकार से) भय होता है। बोलने में अल्हड़, सेवक और भाग्यहीन होता है। उचित दान नहीं करनेवाला होता है। जातक के शत्रु बहुत होते हैं। कल्याण और पृथ्वी पर यश नहीं होता है। गुरु पीडि़त या अशुभ सम्बन्ध में होने से विवाह में कुछ गड़बड़ होती है। पापग्रह से युक्त होने से नरक में जाता है। गुरु पीडि़त होने से जातक व्यसनी, लोभी, मूर्ख, आलसी, विवेकहीन, शास्त्रों और देवताओं की निन्दा करने वाला होता है।
गुरू ग्रह शुभग्रहों में प्रमुख ग्रह है। अशुभ अवस्था वाला गुरू व्यक्ति को विद्याहीन, कठोर स्वभाव वाला, दुष्ट प्रकृति वाला, तथा लीवर के रोग देता है। इसके अलावा संतान की तरफ से चिंता, दुर्भाग्य, सामाजिक अपमान, देता हैैं। यह चर्बी, जिगर, पैर, तथा नितंब, का कारक है। सौम्य स्वभाव वाला है। सोना व पीतल इसकी धातु है। तर्जनी अंगुली पर इसका प्रभाव है।इसके अशुभ फल के निवारण के लिये निम्न उपाय करने चाहिये- प्रत्येक गुरूवार को भीगी हुई चने की दाल व गुड तथा केला, गाय को खिलाना चाहिये।
केले की पेड की पूजा करनी चाहिये तथा गुरू गायत्री मंत्र का जाप करना चाहिये।
पुष्य नक्षत्र वाले गुरूवार को कांसी के कटोरी में घी भरकर स्वर्ण का टुकडा डालकर दक्षिणा के साथ किसी बाह्रमण को दान करना चाहिये।
हर गुरूवार को बेसन के चार लडडू किसी मंदिर में चढाये।
गुरूवार को पीले कपडे में चने की दाल, गुड, पीला पुष्प, मीठा फल, तथा दक्षिणा रखकर किसी मंदिर के पुजारी को दान करना चाहिये।
विद्यार्थियों को फीस और पुस्तकों के पैसे देने चाहिये।
बृहस्पति के उपाय हेतु जिन वस्तुओं का दान करना चाहिए उनमें चीनी, केला, पीला वस्त्र, केशर, नमक, मिठाईयां, हल्दी, पीला फूल और भोजन उत्तम कहा गया है।
इस ग्रह की शांति के लिए बृहस्पति से सम्बन्धित रत्न का दान करना भी श्रेष्ठ होता है।
दान करते समय आपको ध्यान रखना चाहिए कि दिन बृहस्पतिवार हो और सुबह का समय हो।
दान किसी ब्राह्मण, गुरू अथवा पुरोहित को देना विशेष फलदायक होता है।
बृहस्पतिवार के दिन व्रत रखना चाहिए।
कमजोर बृहस्पति वाले व्यक्तियों को केला और पीले रंग की मिठाईयां गरीबों, पंक्षियों विशेषकर कौओं को देना चाहिए।
ब्राह्मणों एवं गरीबों को दही चावल खिलाना चाहिए। रविवार और बृहस्पतिवार को छोड़कर अन्य सभी दिन पीपल के जड़ को जल से सिंचना चाहिए।
गुरू, पुरोहित और शिक्षकों में बृहस्पति का निवास होता है अतः इनकी सेवा से भी बृहस्पति के दुष्प्रभाव में कमी आती है।
केला का सेवन और शयन कक्ष में केला रखने से बृहस्पति से पीड़ित व्यक्तियों की कठिनाई बढ़ जाती है अतः इनसे बचना चाहिए।
ऐसे व्यक्ति को अपने माता-पिता, गुरुजन एवं अन्य पूजनीय व्यक्तियों के प्रति आदर भाव रखना चाहिए तथा महत्त्वपूर्ण समयों पर इनका चरण स्पर्श कर आशिर्वाद लेना चाहिए।
सफेद चन्दन की लकड़ी को पत्थर पर घिसकर उसमें केसर मिलाकर लेप को माथे पर लगाना चाहिए या टीका लगाना चाहिए।
ऐसे व्यक्ति को मन्दिर में या किसी धर्म स्थल पर निःशुल्क सेवा करनी चाहिए।
किसी भी मन्दिर या इबादत घर के सम्मुख से निकलने पर अपना सिर श्रद्धा से झुकाना चाहिए।
ऐसे व्यक्ति को परस्त्री व परपुरुष से संबंध नहीं रखने चाहिए।
गुरुवार के दिन मन्दिर में केले के पेड़ के सम्मुख गौघृत का दीपक जलाना चाहिए।
गुरुवार के दिन आटे के लोयी में चने की दाल, गुड़ एवं पीसी हल्दी डालकर गाय को खिलानी चाहिए।
गुरु के दुष्प्रभाव निवारण के लिए किए जा रहे टोटकों हेतु गुरुवार का दिन, गुरु के नक्षत्र (पुनर्वसु, विशाखा, पूर्व-भाद्रपद) तथा गुरु की होरा में अधिक शुभ होते हैं।
गुरू- ओम ग्रां ग्रीं ग्रौं सः गुरवे नमः
किसी विद्वान ब्राहमण द्वारा इस गुरू मंत्र के 19.000 जाप करवाये। तथा आप स्वयं भी प्रतिदिन कम से कम एक माला जाप कर सकते है।
गुरू गायत्री मंत्रः- ओम अंगिरो जाताय विद्महे वाचस्पतये धीमहि तन्नो गुरू प्रचोदयात।
गुरू गायत्री मंत्र की प्रतिदिन एक माला जपने से भी गुरू ग्रह के शुभ फल प्राप्त होते है।
गुरू ग्रह के हवन में पीपल की समिधा का प्रयोग होता है। इसके अलावा पीपल की जड को गुरूवार को पीले कपडे में सिलकर पुरूष दायें हाथ में और स्त्री बायें हाथ में बांधे। इससे भी गुरू के शुभ फल प्राप्त होते है।
अथ गुरू नाम स्तोत्र
बृहस्पतिः सुराचार्यों दयावान् शुभलक्षणः। लोकत्रय गुरू श्रीमान् सर्वदः सर्वतोविभुः।।
सर्वेशः सर्वदा तुष्टः सर्वगः सर्वपूजितः। अक्रोधनो मुनि श्रेष्ठो नीति कर्ता जगत्पिता।।
विश्वात्मा विश्वकर्ता च विश्व योनि रयोनिजः। भू र्भुवो धन दाता च भर्ता जीवो महाबलः।।
पंचविंशति नामानि पुण्यानि शुभदानि च। प्रातरूत्थाय यो नित्यं पठेद्वासु समाहितः।।
विपरीतोपि भगवान्सुप्रीतास्याद् बृहस्पतिः। नंद गोपाल पुत्रेण विष्णुना कीर्ति तानि च।।
बृहस्पतिः काश्य पेयो दयावान् शुभ लक्षणः। अभीष्ट फलदः श्रीमान्् शुभ ग्रह नमोस्तुते।।
प्रतिवर्ष चार महारात्रियाँ आती है। ये है - होली , दीवाली, कृष्ण जन्माष्टमी , और शिव रात्रि। इनके आलावा सूर्य ग्रहण, चंद्र ग्रहण ,नवरात्र , आदि में मंगल यंत्र को सिद्ध करने का सर्वोत्तम समय होता है। इस समय में भोजपत्र पर अष्टगंध तथा अनार की टहनी से बनी कलम से यह ग्रह यंत्र लिखकर पौराणिक या बीज मंत्र के जाप करके इन्हें सिद्ध किया जा सकता है। सिद्ध होने पर उसे ताबीज में डाल कर गले में या दाई भुजा पर पहना जा सकता है। इससे ग्रह जनित अशुभ फल नष्ट होते है. तथा शुभ फलों में वृद्धि होती है।