Wednesday, August 11, 2021

SHRADH KE PRAKAR श्राद्ध के प्रकार

SHRADH KE PRAKAR श्राद्ध के प्रकार

श्राद्ध

वृद्धावस्था प्राप्त हो जाने पर पुत्रवान कुटुम्बी, आस्तिक धनी काशीवास कर लेते थे, अथवा अन्यत्र कहीं गंगा-तट पर निवास करके ईश्वर-भजन करते थै । पर अब लोग पुत्रादि के समीप रहना आवश्यक समझते हैं । मृत्यु के समय गीता और श्रीमद्भागवतादि का पाठ सुनना, रामनाम का जप करना स्वर्गदायक समझा जाता है । गोदान और दश-दान कराके, होश रहते-रहते मृतक को चारपाई से उठाकर जमीन में लिटा दिया जाता है । प्राण रहते गंगा जल ड़ाला जाता है । प्राण निकल जाने पर मुख-नेत्र-छिद्रादि में सुवर्ण के कण ड़ाले जाते हैं । फिर स्नान कराकर चंदन व यज्ञोपवीत पहनाये जाते हैं । शहर व गाँव के मित्र, बांधव तथा पड़ोसी उसे श्मशान ले जाने के लिए मृतक के घर पर एकत्र होते हैं । मृतक के ज्येष्ठ पुत्र, उसके अभाव में कनिष्ठ पुत्र, भाई-भतीजे या बांधव को मृतक का दाह तथा अन्य संस्कार करने पड़ते हैं । जौ के आटे से पिंडदान करना होता है । नूतन वस्र के गिलाफ (खोल) में प्रेत को रखते हैं, तब रथी में वस्र बिछाकर उस  प्रेत को रख ऊपर से शाल, दुशाले या अन्य वस्र ड़ाले जाते हैं । मार्ग में पुन: पिंड़दान होता है । घाट पर पहुँचकर प्रेत को स्नान कराकर चिता में रखते हैं । श्मशान-घाट ज्यादातर दो नदियों के संगम पर होते हैं । पुत्रादि कर्मकर्ता अग्नि देते हैं । कपाल-क्रिया करके उसी समय कर देते हैं । तीसरे दिन चिता नहीं बुझाते । उसी दिन बुझाकर जल से शुद्ध कर देते हैं । कपूतविशेष (कपोत यानि कबूतक के तुल्य सिर पर बाँधना होता है । इस 'छोपा' कहते हैं । मुर्दा फूँकनेवाले सब लोगों को स्नान करना पड़ता है । पहले कपड़े भी धोते थे । अब शहर में कपड़े कोई नहीं धोता । हाँ, देहातों में कोई धोते हैं । गोमुत्र के छींटे देकर सबकी शुद्धि होती है । देहात में बारहवें दिन मुर्दा फूँकने वालों का 'कठोतार' के नाम से भोजन कराया जाता या सीधा दिया जाता है । नगर में उसी समय मिठाई, चाय या फल खिला देते हैं । कर्मकर्ता को आगे करके घर को लौटते हैं । मार्ग में एक काँटेदार शाखा को पत्थर से दबाकर सब लोग उस पर पैर रखते हैं । श्मशान से लौटकर अग्नि छूते हैं, खटाई खाते हैं ।

कर्मकर्ता को एक बार हविष्यान्न भोजन करके ब्रह्मणचर्य-पूर्वक रहना पड़ता है । पहले, तीसरे, पाँचवे, सातवें या नवें दिन से दस दिन तक प्रेत को अंजलि दी जाती है, तथा श्राद्ध होता है ।

मकान के एक कमरे में लीप-पोतकर गोबर की बाढ़ लगाकर दीपक जला देते हैं । कर्मकर्ता को उसमें रहना होता है । वह किसी को छू नहीं सकता । जलाशाय के समीप नित्य स्नान करके तिलाञ्जलि के बाद पिंडदान करके छिद्रयुक्त मिट्टी की हाँड़ी को पेड़ में बाँध देते हैं, उसमें जल व दूध मिलाकर एक दंतधावन (दतौन) रख दिया जाता है और एक मंत्र पढ़ा जाता है, जिसका आशय इस प्रकार है - "शंख-चक्र गदा-धारी नारायण प्रेतके मेक्ष देवें । आकाश में वायुभूत निराश्रय जो प्रेत है, यह जल मिश्रित दूध उसे प्राप्त होवे । चिता की अग्नि से किया हुआ, बांधवों से परिव्यक्त जो प्रेत है, उसे सुख-शान्ति मिले, प्रेतत्व से मुक्त होकर वह उत्तम लोक प्राप्त करे ।" सात पुश्तके भीतर के बांधव-वर्गों को क्षौर और मुंडन करके अञ्जलि देनी होती है । जिनके माता-पिता होते हैं, वे बांधव मुंडन नहीं करते, हजामत बनवाते हैं । दसवें दिन कुटुम्बी बांधव सबको घर की लीपा-पोती व शुद्धि करके सब वस्र धोने तथा बिस्तर सुखाने पड़ते हैं । तब घाट में स्नान व अञ्जलिदान करने जाना पड़ता है । १० वें दिन प्रेत कर्म करने वाला हाँड़ी को फोड़ दंड व चूल्हे को भी तोड़ देता है, तथा दीपक को जलाशय में रख देता है । इस प्रकार दस दिन का क्रिया-कर्म पूर्ण होता है । कुछ लोग दस दिन तक नित्य दिन में गरुड़पुराण सुनते हैं ।

ग्यारहवें दिन का कर्म एकादशाह तथा बारहवें दिन का द्वादशाह कर्म कहलाता है । ग्यारहवें दिन दूसरे घाट में जाकर स्नान करके मृतशय्या पुन: नूतन शय्यादान की विधि पूर्ण करके वृषोत्सर्ग होता है, यानि एक बैल के चूतड़ को दाग देते हैं । बैल न हुआ, तो आटे गा बैल बनाते हैं । ३६५ दिन जलाये जाते हैं । ३६५ घड़े पानी से भरकर रखे जाते हैं । पश्चात् मासिक श्राद्ध तथा आद्य श्राद्ध का विधान है ।

द्वादशाह के दिन स्नान करके सपिंडी श्राद्ध किया जाता है । इससे प्रेत-मंडल से प्रेत का हटकर पितृमंडल में पितृगणों के साथ मिलकर प्रेत का बसु-स्वरुप होना माना जाता है । इसके न होने से प्रेत का निकृष्ट योनि से जीव नहीं छूट सकता, ऐसा विश्वास बहुसंख्यक हिन्दुओं का है । इसके बाद पीपल-वृक्ष की पूजा, वहाँ जल चढ़ाना, फिर हवन, गोदान या तिल पात्र-दान करना होता है । इसके अनन्तर शुक शान्ति तेरहवीं का कर्म ब्रह्मभोजनादि इसी दिन में करते हैं । यह तेरहवीं को होता है ।

श्राद्ध - प्रतिमास मृत्यु-तिथि पर मृतक का मासिक श्राद्ध किया जाता है । शुभ कर्म करने के पूर्व मासिक श्राद्ध एकदम कर दिए जाते हैं, जिन्हें "मासिक चुकाना" कहते हैं । साल भर तक ब्रह्मचर्य पूर्वक-स्वयंपाकी रहकर वार्षिक नियम मृतक के पुत्र को करने होते हैं । बहुत सी चीजों को न खाने व न बरतने का आदेश है । साल भर में जो पहला श्राद्ध होता है, उसे 'वर्षा' कहते हैं ।

प्रतिवर्ष मृत्यु-तिथि को एकोदिष्ट श्राद्ध किया जाता है । आश्विन कृष्ण पक्ष में प्रतिवर्ष पार्वण श्राद्ध किया जाता है । काशी, प्रयाग, हरिद्वार आदि तीर्थों में तीर्थ-श्राद्ध किया जाता है । तथा गयाधाम में गया-श्राद्ध करने की विधि है । गया में मृतक-श्राद्ध करने के बाद श्राद्ध न भी करे, तो कोई हर्ज नहीं माना जाता । प्रत्येक संस्कार तथा शुभ कर्मों में आभ्युदयिक "नान्दी श्राद्ध" करना होता है । देव-पूजन के साथ पितृ-पूजन भी होना चाहिए । कर्मेष्ठी लोग नित्य तपंण, कोई-कोई नित्य श्राद्ध भी करते हैं । हर अमावस्या को भी तपंण करने की रीति है । घर का बड़ा ही प्राय: इन कामों को करता है

 



अनुक्रमणिका

१. मुख्य एवं प्रचलित प्रकार

अ. नित्य श्राद्ध

आ. नैमित्तिक श्राद्ध

इ. काम्य श्राद्ध

ई. नांदी श्राद्ध

१. कुर्मांग श्राद्ध

२. वृद्धि श्राद्ध


उ. पार्वण श्राद्ध

१. महालय श्राद्ध

२. मातामह श्राद्ध

३. तीर्थ श्राद्ध

४. अन्य प्रकार

अ. गोष्ठी श्राद्ध
आ. शुद्धि श्राद्ध
इ. पुष्टि श्राद्ध
ई. घृतश्राद्ध (यात्राश्राद्ध)
उ. दधि श्राद्ध

ऊ. अष्टका श्राद्ध (कृष्ण पक्ष की अष्टमी पर किया जानेवाला श्राद्ध)

ए. दैविक श्राद्ध

ऐ. हिरण्य श्राद्ध

ओ. हस्तश्राद्ध

औ. आत्मश्राद्ध

अं. चटश्राद्ध

हिन्दू धर्म का एक पवित्र कर्म है । मानव जीवन में इसका असाधारण महत्त्व है । उद्देश्य के अनुसार श्राद्ध के अनेक प्रकार हैं । उनके विषय में हम इस लेख से जानेंगे ।

१. श्राद्ध के प्रमुख प्रचलित प्रकार
मत्स्यपुराण में लिखा है, ‘नित्यं नैमित्तिकं काम्यं त्रिविधं श्राद्धमुच्यते । – मत्स्यपुराण, अध्याय १६, श्लोक ५’ अर्थात, श्राद्ध के तीन प्रकार हैं – नित्य, नैमित्तिक एवं काम्य । यमस्मृति में उपर्युक्त तीन प्रकारों के अतिरिक्त, नांदी एवं पार्वण श्राद्ध के विषय में भी बताया गया है ।

अ. नित्य श्राद्ध
प्रतिदिन किए जानेवाले श्राद्ध को नित्य श्राद्ध कहते हैं । इसमें केवल जल-तर्पण अथवा तिल-तर्पण किया जाता है ।

आ. नैमित्तिक श्राद्ध
लिंगदेह (मृतक) के लिए किए जानेवाले एकोद्दिष्ट तथा अन्य प्रकार के श्राद्ध नैमित्तिक हैं ।

इ. काम्य श्राद्ध
विशेष कामना की पूर्ति के लिए किए जानेवाले श्राद्ध को काम्य श्राद्ध कहते हैं । फलप्ति के उद्देश्य से विशेष दिन, तिथि एवं नक्षत्र पर श्राद्ध करने से विशेष फल की प्राप्ति होती है । उनके विषय में जानकारी आगे दे रहे हैं ।

१. वार (दिन) एवं श्राद्धफल

वार श्राद्धफल वार श्राद्धफल
सोमवार सौभाग्य शुक्रवार धनप्राप्ति
मंगलवार विजयप्राप्ति शनिवार आयुष्यवृद्धी
बुधवार कामनासिद्धी रविवार आरोग्य
गुरुवार विद्याप्राप्ति

२. तिथि एवं श्राद्धफल

श्राद्ध की तिथि श्राद्धफल
प्रतिपदा उत्तम पुत्र एवं पशु की प्राप्ति होना
द्वितीया कन्याप्राप्ति होना
तृतीया अश्‍वप्राप्ति, मानसन्मान मिलना
चतुर्थी अनेक क्षुद्र पशुआें की प्राप्ति होना
पंचमी अनेक और सुंदर पुत्र प्राप्त होना
षष्ठी तेजस्वी पुत्र प्राप्ति, द्युत में विजय मिलना
सप्तमी खेती के लिए भूमि मिलना
अष्टमी व्यापार में लाभ होना
नवमी घोडे जैसे पशुआें की प्राप्ति होना
दशमी गोधन बढना, दो खुरवाले पशुआें की प्राप्ति होना
एकादशी बर्तन, वस्त्र एवं ब्रम्हवर्चस्वी पुत्र से लाभान्वित होना
द्वादशी सोने-चांदी आदि की प्राप्ति
त्रयोदशी जातिबंधुआें से सम्मान प्राप्त होना
चतुर्दशी शस्त्र के आघात से अथवा युद्ध में मारे गए लोगों को आगे की गति मिलना, सुप्रजा की प्राप्ति होना
अमावस्या / पौर्णिमा सभी इच्छाआें की पूर्ति होना

टिप्पणी १ – पूर्णिमा के अतिरिक्त, सब तिथियां कृष्ण पक्ष की हैं । आश्विन मास के कृष्णपक्ष में (महालय में) ये विशेष फल देते हैं ।

२ अ. भीष्माष्टमी श्राद्ध

अपत्य (संतान) न हो, तब संतानप्राप्ति हेतु अथवा गर्भपात हो रहा हो गर्भ सुखपूर्वक रहने की कामनापूर्ति के लिए माघ शुक्ल अष्टमी अर्थात भीष्माष्टमी पर भीष्म पितामह के नाम से यह श्राद्ध अथवा तर्पण करें ।

३. नक्षत्र एवं श्राद्धफल

नक्षत्र श्राद्धफल
१. अश्विनी अश्वप्राप्ति
२. भरणी दीर्घायुष्य
३. कृत्तिका पुत्र के साथ स्वयं को स्वर्गप्राप्ति
४. रोहिणी पुत्रप्राप्ति
५. मृग ब्रह्मतेज की प्राप्ति
६. आर्द्रा क्रूरकर्मियों को गति मिलना (टिप्पणी १), कर्म सफल होना
७. पुनर्वसु द्रव्यप्राप्ति, भूमिप्राप्ति
८. पुष्य बलवृद्धी
९. आश्लेषा धैर्यवान पुत्र की प्राप्ति, कामनापूर्ति
१०. मघा जातिबंधुआें में सम्मान मिलना, सौभाग्यप्राप्ति
११. पूर्वा भाग्य, पुत्रप्राप्ति एवं पापनाश
१२. उत्तरा भाग्य, पुत्रप्राप्ति एवं पापनाश
१३. हस्त इच्छापूर्ति, जातिबंधुओंमें श्रेष्ठता प्राप्त होना
१४. चित्रा रूपवान पुत्रप्राप्ति, अनेक पुत्रप्राप्ति
१५. स्वाती व्यापारमें लाभ, यशप्राप्ति
१६. विशाखा अनेक पुत्रप्राप्ति, स्वर्णप्राप्ति
१७. अनुराधा राज्यप्राप्ति (मंत्रीपद इत्यादिकी प्राप्ति), मित्रलाभ
१८. ज्येष्ठा श्रेष्ठत्व, अधिकार, वैभव एवं आत्मनिग्रहकी प्राप्ति, राज्यप्राप्ति
१९. मूळ आरोग्यप्राप्ति, खेत-भूमि प्राप्त होना
२०. पूर्वाषाढा उत्तम कीर्ति, समुद्रतक यशस्वी यात्रा
२१. उत्तराषाढ शोकमुक्ति, सर्वकामनासिद्धि, श्रवणश्रेष्ठत्व
२२. श्रवण परलोकमें उत्तम गति, श्रेष्ठत्व
२३. धनिष्ठा राज्य (मंत्रीपद इत्यादिकी) प्राप्ति, सर्व मनोकामनाओंकी पूर्ति
२४. शतभिषा चिकित्सकीय व्यवसायमें सिद्धि प्राप्त होना, बलप्राप्ति
२५. पूर्वाभाद्रपद भेड, बकरी आदिकी प्राप्ति, स्वर्ण व चांदीसे भिन्न धातुओंकी प्राप्ति
२६. उत्तराभाद्रपद गौ-प्राप्ति, शुभ एवं उत्तम वास्तु प्राप्त होना
२७. रेवती बरतन, वस्त्र इत्यादिकी प्राप्ति, गोधनप्राप्ति

टिप्पणी १ – क्रूर व्यक्ति की मृत्यु होने पर उसे गति प्राप्त करवाने हेतु आर्द्रा नक्षत्र पर यह श्राद्ध करने से लाभ होता है । (मूल स्थान पर)

विशेष टिप्पणी – सूत्र ‘२’ एवं ‘३’ की सारणियों में कुछ स्थानों पर एक ही तिथि अथवा नक्षत्र पर एक से अधिक श्राद्धफल बताए गए हैं । यह भिन्नता पाठभेद के कारण है ।

ई. नांदीश्राद्ध
मंगलकार्य के आरंभ में, गर्भाधान आदि सोलह संस्कारों के आरंभ में, पुण्याहवाचन के समय कार्य बाधारहित होने के लिए जो श्राद्ध किया जाता है, उसे नांदीश्राद्ध कहते हैं । इसमें सत्यवसु (अथवा क्रतुदक्ष) नाम के विश्वेदेव होते हैं तथा पितृत्रय, मातृत्रय एवं मातामहत्रय के ही नामों का उच्चारण किया जाता है । कर्मांगश्राद्ध एवं वृद्धिश्राद्ध, दोनों नांदीश्राद्ध हैं ।

१. कर्मांगश्राद्ध

गर्भाधान संस्कार के समय किया जानेवाला श्राद्ध

२. वृद्धिश्राद्ध

शिशु के जन्म के पश्चात किया जानेवाला श्राद्ध ।

उ. पार्वण श्राद्ध
‘श्रौत परंपरा में पिंडपितृ यज्ञ साग्निक (आग्निहोत्री) करता है । उसी का पर्याय, गृहसूत्र का पार्वण श्राद्ध है । इस श्राद्ध की सूची में पितरों का समावेश होने के कारण उनके लिए यह श्राद्ध किया जाता है । इस श्राद्ध के तीन प्रकार हैं – एकपार्वण, द्विपार्वण और त्रिपार्वण । तीर्थश्राद्ध और महालयश्राद्ध, पार्वण श्राद्ध में ही आते हैं ।

१. महालयश्राद्ध

आश्विनकृष्ण पक्ष प्रतिपदा से अमावस्या तक जो श्राद्ध किए जाते हैं, उन्हें पार्वण श्राद्ध कहते हैं ।

२.मातामहश्राद्ध (दौहित्र)

जिसके पिता जीवित हैं; परंतु नाना जीवित नहीं हैं, ऐसा व्याक्ति यह श्राद्ध करता है । नाना के वर्षश्राद्ध से पहले यह श्राद्ध नहीं किया जाता । मातामह श्राद्ध केवल आश्विन शुक्ल पक्ष प्रतिपदा को किया जाता है । यह श्राद्ध करने के लिए श्राद्धकर्ता की आयु तीन वर्ष से अधिक होनी चाहिए । उसका उपनयन न हुआ हो, तो भी यह श्राद्ध कर सकता है ।

३. तीर्थश्राद्ध

यह श्राद्ध, प्रयागादि तीर्थक्षेत्रों में अथवा पवित्र नदियों के तट पर किया जाता है । तीर्थश्राद्ध में महालय के सभी पार्वण श्राद्ध किए जाते हैं ।

२. अन्य प्रकार
श्राद्ध के उपर्युक्त प्रमुख प्रकारों के अतिरिक्त १२ अमावस्या, ४ युग, १४ मन्वंतर, १२ संक्रांति, १२ वैधृति, १२ व्यतिपात, १५ महालय, ५, पाथेय, ५ अष्टका, ५ अन्वाष्टक ये ९६ प्रकार बताए गए हैं ।श्राद्ध के अन्य प्रकारों में कुछ की संक्षिप्त जानकारी आगे दे रहे हैं ।

अ. गोष्ठी श्राद्ध
ब्राह्मण समुदाय एवं विद्वान मिलकर तीर्थक्षेत्र में ‘पितरों की शांति तथा सुख-संपत्ति की कामना से जो श्राद्ध करते हैं अथवा श्राद्ध के विषय में चर्चा करते हुए प्रेरित होकर जो श्राद्ध करते हैं, उसे ‘गोष्ठीश्राद्ध’ कहते हैं ।

आ. शुद्धिश्राद्ध
अपनी शुद्धि के लिए ब्राह्मणों को जो भोजन करवाया जाता है, उसे ‘शुद्धिश्राद्ध’ कहते हैं । इसे प्रायाश्चित्तांग श्राद्ध भी कहते हैं ।

इ. पुष्टिश्राद्ध
शरीर बलवान होने के लिए तथा धन-संपत्ति बढने के लिए किए जानेवाले श्राद्ध को पुष्टिश्राद्ध कहते हैं ।’

ई. घृतश्राद्ध
(यात्राश्राद्ध)तीर्थयात्रा पर जाने से पहले, यात्रा निर्विघ्न होने के लिए पितरों को स्मरण कर, घी से जो श्राद्ध किया जाता है, उसे घृतश्राद्ध कहते हैं ।

उ. दधिश्राद्ध
तीर्थयात्रा से लौटने पर किया जानेवाला श्राद्ध

ऊ. अष्टका श्राद्ध(कृष्णपक्ष की अष्टमी पर किया जानेवाला श्राद्ध)
अष्टका, अर्थात किसी भी महीने की कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि । वेदकाल में अष्टका श्राद्ध विशेषतः पौष, माघ, फाल्गुन एवं चैत्र इन चार महीनों के कृष्ण पक्ष की अष्टमी पर किया जाता था । इस श्राद्ध में तरकारी, मांस, बडा, तिल, शहद, चावल की खीर, फल, कंद-मूल आदि पदार्थ पितरों को अर्पित किए जाते थे । विश्वेदेव, आग्नि, सूर्य, प्रजापति, रात्रि, नक्षत्र, ऋतु आदि श्राद्ध के देवता माने जाते थे ।

ए. दैविकश्राद्ध
देवता की कृपा प्राप्त करने के उद्देश्य से किए जानेवाले श्राद्ध को दैविकश्राद्ध कहते हैं ।

ऐ. हिरण्यश्राद्ध
इसमें, भोजन के स्थान पर दक्षिणा देकर किया श्राद्ध । अन्न के अभाव में अनाज के मूल्य के चौगुने मूल्य का स्वर्ण ब्राह्मण को देकर, श्राद्ध किया जाता है ।

ओ. हस्तश्राद्ध
यह, ब्राह्मणों को भोजन देकर किया जानेवाला श्राद्ध । भोजन न हो तो हिरण्य से (पैसे से), आमान्न से (सूखा सीधा) दिया जाता है ।’

औ. आत्मश्राद्ध
जिसे संतान नहीं है अथवा जिनकी संतान नास्तिक है, वे अपने जीवनकाल में अपने हाथों से अपना श्राद्ध कर सकते हैं । इसकी विधि शास्त्र में बताई गई है ।

अं. चटश्राद्ध

श्राद्ध के लिए देवता तथा पितरों के स्थान पर बैठने के लिए जब ब्राह्मण उपलब्ध नहीं होते, तब उस स्थान पर कुश (दर्भ) रखा जाता है । इसे चट (अथवा दर्भबटु) कहते हैं । इस विधि से श्राद्धकर्म चटपट (तुरंत) होने के कारण इसे ‘चटश्राद्ध’ कहते हैं ।

यद्यपि ऊपर श्राद्ध के विविध प्रकार बताए गए हैं; परंतु वर्तमान में, मृत्यु के उपरांत प्रथम दिन से ग्यारहवें दिन तक आवश्यक श्राद्ध, मासिक श्राद्ध, सपिंडीकरण श्राद्ध, अब्दपूर्तिश्राद्ध, द्वितीयाब्दिक श्राद्ध अर्थात प्रतिसांवत्सरिक एवं महालय श्राद्ध प्रचलित हैं ।

संदर्भ : सनातन का ग्रंथ – श्राद्ध (भाग-१) महत्त्व एवं अध्यात्मशास्त्रीय विवेचन

प्रायाश्चित्तांग


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