Monday, April 20, 2020

ग्रह ग्रहों के बल और अवस्थाएं GRIH GREHON KE BAL AUR AVASTHAYEN

ग्रह ग्रहों के बल और अवस्थाएं GRIH GREHON KE BAL AUR AVASTHAYEN


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ग्रहों की दृष्टि कितनी घातक या लाभदायक

जन्मकुंडली में कोई भी ग्रह कहीं भी बैठा हो वह दूसरे ग्रह आदि पर दृष्टि डालता है तो उस दृष्टि का प्रभाव शुभ या अशुभ होता है। आप अपनी कुंडली के ग्रहों की स्थिति जानकर उनकी दृष्टि किस भाव या ग्रह पर कैसी पड़ी रही है यह जानकार आप भी उनके अशुभ प्रभाव को जान सकते हैं। जब तक आपको यह पता नहीं है कि कौन-सा ग्रह आपकी कुंडली में अशुभ दृष्टि या प्रभाव डाल रहा है तब तक आप कैसे उसके उपाय कर पाएंगे? अत: जानिए कि किसी ग्रह की कौन सी दृष्टि घातक होती है।

दृष्टि क्या होती है

दृष्टि का अर्थ यहां प्रभाव से लें तो ज्यादा उचित होगा। जैसे सूर्य की किरणें एकदम धरती पर सीधी आती है तो कभी तिरछी। ऐसा तब होता है जब सूर्य भूमध्य रेखा या कर्क, मकर आदि रेखा पर होता है। इसी तरह प्रत्येक ग्रह का अलग-अलग प्रभाव या दृष्टि होती है।

किस ग्रह की कौन-सी दृष्टि

*प्रत्येक ग्रह अपने स्थान से सप्तम स्थान पर सीधा देखता है। सीधा का मतलब यह कि उसकी पूर्ण दृष्टि होती है। पूर्ण का अर्थ यह कि वह अपने सातवें घर, भाव या खाने में 180 डिग्री से देख रहा है। पूर्ण दृष्टि का अर्थ पूर्ण प्रभाव।

*सातवें स्थान के अलावा शनि तीसरे और दसवें स्थान को भी पूर्ण दृष्टि से देखता है। गुरु भी पांचवें और नौवें स्थान पर पूर्ण दृष्टि रखता है। मंगल भी चौथे और आठवें स्थान को पूर्ण दृष्टि से देखता है।

*इसके अतिरिक्त प्रत्येक ग्रह अपने स्थान से तीसरे और दसवें स्थान को आंशिक रूप से भी देखते हैं।

*कुछ आचार्यों ने राहु और केतु की दृष्टि को भी मान्यता दी है। राहु अपने स्थान सातवें, पांचवें और नवम स्थान को पूर्ण दृष्टि से देखता है तो केतु भी इसी तरह देखता है।

*सूर्य और मंगल की उर्ध्व दृष्टि है, बुध और शुक्र की तिरछी, चंद्रमा और गुरु की बराबर की तथा राहु और शनि की नीच दृ‍ष्टि होती है।

वक्री ग्रह :

सूर्य और चंद्र को छोड़कर सभी ग्रह वक्री होते हैं। वक्री अर्थात उल्टी दिशा में गति करने लगते हैं। जब यह वक्री होते हैं तब इनकी दृष्टि का प्रभाव अलग होता है। वक्री ग्रह अपनी उच्च राशिगत होने के समतुल्य फल प्रदान करता है। कोई ग्रह जो वक्री ग्रह से संयुक्त हो उसके प्रभाव मे मध्यम स्तर की वृद्धि होती है। उच्च राशिगत कोई ग्रह वक्री हो तो, नीच राशिगत होने का फल प्रदान करता है।

इसी प्रकार से जब कोई नीच राशिगत ग्रह वक्री होता जाय तो अपनी उच्च राशि में स्थित होने का फल प्रदान करता है। इसी प्रकार यदि कोई उच्च राशिगत ग्रह नवांश में नीच राशिगत होने तो तो नीच राशि का फल प्रदान करेगा। कोई शुभ अथवा पाप ग्रह यदि नीच राशिगत हो परन्तु नवांश मे अपनी उच्च राशि में स्थित हो तो वह उच्च राशि का ही फल प्रदान करता है।

फलादेश के सामान्य नियम:- 


















लग्न की स्थिति के अनुसार ग्रहों की शुभता-अशुभता व बलाबल भी बदलता है। जैसे सिंह लग्न के लिए शनि अशुभ मगर तुला लग्न के लिए अतिशुभ माना गया है।


परमोच्च अंश 

सूर्य आदि ग्रह अपनी-अपनी उच्च राशियों एक निश्चित अंश पर उच्च हो जाते है।

सूर्य मेष राशि के 10अंश पर, 
चंद्रमा वृष राशि में 3अंश पर, 
मंगल मकर राशि 28अंश पर, 
बुध कन्या राशि में 15अंश पर, 
गुरु कर्क राशि पर 5अंश पर, 
शुक्र मीन राशि के 27अंश पर 
शनि तुला राशि के 20अंश तक परम उच्चता होते है 


और यही ग्रह जिस राशि में उच्च होते है उसी अपनी उच्च राशि से सातवीं राशि पर उतने ही अंश पर नीच हो जाते है। 

ग्रहों के उच्च और नीच स्थान :


सूर्य : यह ग्रह मेष में उच्च का और तुला में नीच का होता है।
चंद्र : यह ग्रह वृषभ में उच्च का और वृश्चिक में नीच का होता है।
मंगल : यह ग्रह मकर में उच्च का और कर्क में नीच का होता है।
बुध : यह ग्रह कन्या में उच्च का और मीन में नीच का होता है।
बृहस्पति : यह ग्रह कर्क में उच्च का और मकर में नीच का होता है।
शनि : यह ग्रह तुला में उच्च और मेष में नीच का होता है।
राहु : राहु मिथुन मतांतर से यह ग्रह वृषभ में उच्च का और वृश्चिक में नीच का होता है।

केतु : राहु मिथुन मतांतर से यह ग्रह वृश्चिक में उच्च का और वृषभ में नीच का होता है।

1. कुंडली में त्रिकोण के (5-9) के स्वामी सदा शुभ फल देते हैं।
2. केंद्र के स्वामी (1-4-7-10) यदि शुभ ग्रह हों तो शुभ फल नहीं देते, अशुभ ग्रह शुभ हो जाते हैं।
3. 3-6-11 भावों के स्वामी पाप ग्रह हों तो वृद्धि करेगा, शुभ ग्रह हो तो नुकसान करेगा।
4. 6-8-12 भावों के स्वामी जहां भी होंगे, उन स्थानों की हानि करेंगे।
5. छठे स्थान का गुरु, आठवां शनि व दसवां मंगल बहुत शुभ होता है।
6. केंद्र में शनि (विशेषकर सप्तम में) अशुभ होता है। अन्य भावों में शुभ फल देता है।
7. दूसरे, पांचवें व सातवें स्थान में अकेला गुरु हानि करता है।
8. ग्यारहवें स्थान में सभी ग्रह शुभ होते हैं। केतु विशेष फलदायक होता है।
9. जिस ग्रह पर शुभ ग्रहों की दृष्टि होती है, वह शुभ फल देने लगता है।


इस के साथ कुंडली में अन्य भी बहुत कुछ देखना होता है जैसे की दशा अस्ठ्क्वर्ग आदि |









ग्रहों की दिप्तादि अवस्थाएँ

1. दीप्त- जो ग्रह अपनी उंच या मूलत्रिकोण राशि में हो दीप्त अवस्था का कहलाता है। उत्तम फल देता है।
2. स्वस्थ- जो ग्रह अपनी ही राशि में हो स्वस्थ कहलाता है शुभफलदायी होता है।
3. मुदित- जो ग्रह अपने मित्र या अधिमित्र की राशि में हो मुदितवस्था का ग्रह होता है और शुभफलदायी होता है।
4.शांत- जो ग्रह किसी शुभ ग्रह के वर्ग में हो वो शांत कहलाता है और शुभ फल प्रदान करता है।
5. गर्वित- उच्च मूलत्रिकोण राशि का ग्रह गर्वित अवस्था में होता है उत्तम फल दायी होता है।
6. पीड़ित - जो ग्रह अन्य पाप ग्रह से ग्रस्त हो पीड़ित कहलाता है और अशुभफलप्रदान करता है।
7. दीन- नीच या शत्रु की राशि में दीन अवस्था का होता है अशुभफलदायि होता है।
8. खल- पाप ग्रह की राशि में गया हुवा ग्रह खल कहलाता है और अशुभ फलदायी होता है।
9. भीत- नीच राशि का ग्रह भीत अवस्था का होता है और अशुभफलदायि होता है।
10.विकल - अस्त हुवा ग्रह विकल कहलाता है शुभ होते हुवे भी फल प्रदान नही कर पाता।
मित्रों इस प्रकार ये ग्रह की अवस्था हुई जिनसे आप पता लगा सकते हो की कोई ग्रह आपको कितना और कैसा फल देगा । 

ग्रहों की लज्जितादि 6 अवस्थाएं


1. लज्जित - जो ग्रह पंचम भाव में राहु केतु सूर्य शनि या मंगल से युक्त हो वह लज्जित कहलाता है जिसके प्रभाव स पुत्र सुख में कमी और व्यर्थ की यात्रा और धन का नाश होता है।
2. गर्वित- जो ग्रह उच्च स्थान या अपनी मूलत्रिकोण राशि में होता है गर्वित कहलाता है। ऐसा ग्रह उत्तम फल प्रदान करता है और सुख सोभाग्य में विर्धि करता है।
3. क्षुधित - शत्रु के घर में या शत्रु से युक्त क्षुधित कहलाता है अशुभ फलदायी कहलाता है।
4. तृषित -जो ग्रह जल राशि में सिथत होकर केवल शत्रु या पाप ग्रह से dirsth हो तृषित कहलाता है। इस से कुकर्म में बढ़ोतरी बंधू विवाद दुर्बलता दुस्ट द्वारा क्लेश परिवार में चिन्ता धन हानि स्त्रियों को रोग आदि अशुभ फल मिलते है।
5.मुदित- मित्र के घर में मित्र ग्रह से युक्त या dirst मुदित कहलाता है शुभफलदायी होता है।
6.छोभित- सूर्य के साथ सिथत होकर केवल पाप ग्रह से दीर्स्ट होने पर ग्रह छोभित कहलाता है।
जिन जिन भावों में तृषित क्षुधित या छोभित ग्रह होते है उस भाव के सुख की हानि करते है।

ग्रहों की जागृत आदि अवस्थाएं

मित्रों ग्रहों की तिन अवस्था होती है 1. जागृत 2. स्वप्न और तीसरी सुषुप्ति अवस्था।
प्रत्येक राशि को 10 10 के तिन अंशो में बांटे। विषम राशि यानी पहली ,तीसरी ,पाँचमि ,सातवीं ,नोवी और ग्यारवीं के पहले भाग यानी एक से दस अंश तक कोई ग्रह हो तो वो जागृत अवस्था में होगा, 10 से 20 तक स्वप्न और 20 से 30 अंश तक हो तो सुषुप्ति अवस्था में होगा।
इसके विपरीत सम राशि यानी दूसरी ,चौथी ,छटी, आठवीं ,दसवीं और बारवीं में यदि कोई ग्रह 1 से 10 अंश तक का हो तो सुषुप्ति अवस्था में ,11 से 20 तक में स्वप्न अवस्था और 20 से 30 तक जागृत अवस्था में होगा । ग्रह की जागृत अवस्था जातक को सुख प्रदान करती है और ग्रह पूर्ण फल देने में सक्षम होता है । स्वप्न अवस्था का ग्रह मध्यम फल देता है और सुषुप्ति अवस्था का ग्रह फल देने में निष्फलि माना जाता है।
इसी प्रकार ग्रहों की बालादि अवस्था होती है।
विषम राशि में 1 से 6 अंश तक बाल्यावस्था, 6 से 12 अंश तक कुमारावस्था ,12 से 18 अंश तक युवा ,18 से 24 विरद्ध और 24 से 30 अंश तक मिर्त अवस्था होती है।
सम राशि में 1 से 6 मिर्त ,6 से 12 विरद्ध ,12 से 18 युवा ,18 से 24 कुमार ,24 से 30 बाल्यावस्था का काल होता है।
बाल्यावस्था में ग्रह अत्यंत न्यून फल देता है। कुमारावस्था में अर्द्ध मात्रा में फल देता है । युवावस्था का ग्रह पूर्ण फल देता है। विर्धावस्था वाला अत्यंत अल्प फल देता है और मिर्त अवस्था वाला ग्रह फल देने में अक्षम होता है।
इसी कड़ी में कल हम ग्रहों की अन्य सिथति की चर्चा करेंगे ताकि आप पता लगा सको की कोई ग्रह आपकी कुंडली में कितना फल देने में सक्षम है ।

ग्रहों का बलाबल

मित्रों फलित ज्योतिष में जातक के फलादेश में और अधिक स्पष्ठता और सूक्ष्मता लाने हेतु ग्रहों के बलाबल और अवस्था का ज्ञान होना परम् आवश्यक है। आज से हमी इसी कड़ी में कुछ पोस्ट हर रोज करेंगे। ग्रहों के बलाबल 6 प्रकार के होते है जो इस प्रकार है:::::::-----
1. स्थान बल - जो ग्रह उंच राशिस्थ सवगरहि मित्र राशिस्थ मूलत्रिकोण राशिस्थ सवद्रेष्कनस्थ आदि सववर्गों में सिथत हो , इसके अतिरिक्त अष्टक वर्ग में 4 से अधिक रेखाएं प्राप्त हो तो वो स्थानब्ली कहलाता है। । इसके अतिरिक्त एक अन्य मान्यता के अनुसार स्त्री ग्रह स्त्री राशि में और पुरुष ग्रह पुरुष राशि में बलि माने जाते है।
2.दिक् बल - बुद्ध गुरु लग्न में चन्द्र शुक्र चोथे भाव में शनि सप्तम भाव में और सूर्य मंगल दसम भाव में दिक् बलि माने जाते है ।
3. काल बल- चन्द्र मंगल शनि राहु रात्रि में और सूर्य गुरु दिन में बलि होते है । शुक्र मध्यान्ह में और बुद्ध दिन रात दोनों में बलि होता है।
4. नैसर्गिक बल - शनि से मंगल ,मंगल से बुद्ध ,बुद्ध से गुरु, गुरु से शुक्र ,शुक्र से चन्द्र, चन्द्र से सूर्य क्रमानुसार ये ग्रह उत्तरोत्तर बलि माने जाते है।
5. चेष्ठा बल - सूर्य चंद्रादि ग्रहों की गति के कारण जो बल ग्रहों को मिलता है उसे चेष्ठा बल कहते है। सूर्य से चन्द्र उतरायनगत राशियों (मकर से मिथुन राशि पर्यन्त) में हो तो चेष्ठा बलि होते है । तथा क्रूर ग्रह सूर्य द्वारा दक्षिणायन गत ( कर्क से धनु राशि पर्यन्त )
राशियों में बलि माने जाते है। मतांतर से कुंडली में चन्द्र के साथ मंगल बुद्ध गुरु शुक्र शनि हो तो कुछ ब्लॉन्तित हो जाते है। कुछ विद्वान चेष्ठा बल को अयन बल भी कहते है। इसी प्रकार शुभ ग्रह वक्री हो तो राशि सबंधी सुखो में विर्धि करते है और पाप ग्रह वक्री हो तो दुःखो में विर्धि करते है।
6. दृक् बल- जिस ग्रह पर शुभ ग्रहों की dirsti पड़ती हो उसे दृक बलि कहते है।
बुद्ध गुरु शुक्र और बलि चन्द्र यानी पूर्णमाशी के आसपास का चन्द्र शुभ ग्रह कहलाते है मंगल सूर्य क्रूर और राहु केतु शनि पापी ग्रह कहलाते है।


राहू के खराब होने की निशानियाँ 


किसी दिन अचानक से तनाव और अशांति हमे घेर लेती है , उस से पहले हम एक दम से ठीक थे , अब अचानक से डर लगने लगा , घबराहट होने लगी , मन में आने लगा की मै अब मर जाऊँगा | अब हम इसका न तो कारण जान सकते है और न ही विश्लेष्ण कर पाते है की ऐसा क्यों हुआ | हमारे मन में जो मानसिक विछिप्त्ता हो रही है उसी का कारण राहू होता है | 
दिमाकी खराबी होना राहू के खराब होने की निशानी होती है | बिना किसी कारण के दुश्मन बन जाना ससुराल से सम्बन्ध खराब हो जाना , घर से काला कुता गुम हो जाना , बैठे बिठाए मरने या किसी को मारने के ख्याल पैदा हो जाना , एक्सीडेंट हो जाना , बिल्ली का घर में रोना , काले रंग के रिश्तेदार की नजर में फर्क हो जाना , हाथ के नाख़ून झड़ जाना , एक छोटे से नुक्सान को एक बड़े नुक्सान में बदल जाना आदि राहू के खराब होने की निशानियाँ होती है|

राहू खराब हो जिसका उसे सिर पर चोटी हमेशा रखनी चाहिये | दक्षिण दिशा वाले मुख्य दरवाज़े में निवास से बचना चाहिए | यदि घर का मुख्य दरवाज़ा दक्षिण दिशा का हो तो उसकी देहलीज के निचे चांदी का चोरस तार दबवा देना चाहिए | ससुराल से सम्बन्ध खराब नही करने चाहिए |अपने परिवार के लोगों के साथ मिलकर रहे यानी की संयुक्त परिवार में रहने की कोसिस करनी चाहिए | नीले रंग के वस्त्र का प्रयोग नही करना चाहिए | 

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विशेष सुचना

( जो भी मंत्र तंत्र टोटका इत्यादि ब्लॉग में दिए गए है वे केवल सूचनार्थ ही है, अगर साधना करनी है तो वो पूर्ण जानकार गुरु के निर्देशन में ही करने से लाभदायक होंगे, किसी भी नुक्सान हानि के लिए प्रकाशक व लेखक जिम्मेदार नहीं होगा। )