वनस्पति तंत्र भाग 4
कपूर
कपूर,कर्पूर,काफूर,कैम्फर (CinnamomumCamphora)--एक अति उड़नशील,ज्ज्वलनशील,सुगन्धित,स्वेत-दानेदार पदार्थ है।वस्तुतः यह
एक विशालकाय,बहुवर्षायु लगभग सदावहार वृक्ष का रवादार सत्त्व है,जो वृक्ष के लगभग समग्र भाग से प्राप्त किया जाता है।इसका वृक्ष एशिया के विभिन्न भागों में पाया जाता है।भारत,श्रीलंका,चीन, जापान,मलेशिया,कोरिया,ताइवान,इन्डोनेशिया आदि देशों में बहुतायत से पाया जाता है।अन्य देशों में भी यहीं से ले जाया गया है।कपूर का वृक्ष 100 फीट से भी ऊँचे आकार का पाया जाता है।इसी तरह आयु में भी हजारों वर्ष पुराने वृक्ष पाये गये हैं।इसके सुन्दर अति सुगन्धित पुष्प और मनमोहक फल तथा पत्तियाँ बरबस ही अपनी ओर आकृष्ट करते हैं।यही कारण है कि कहीं-कहीं इसे श्रृंगारिक वृक्ष के रुप में भी अपनाया गया है।पत्तियाँ बड़ी सुन्दर,चिकनी,मोमी, लालिमा युक्त हरापन लिए होती हैं,जो आकार में- आठ से पन्द्रह सें.मी. लम्बी और तीन से सात सें.मी.चौड़ी होती हैं।कुछ पत्तियाँ किंचित गोलाकार भी होती हैं।वसन्त ऋतु में छोटे-छोटे अति सुगन्धित फूल लगते हैं।इसके फल भी बड़े मोहक होते हैं- वेरी की तरह,जिन्हें पक्षियों द्वारा खाने और यहाँ-वहाँ विखेरने के कारण मूल बृक्ष से सुदूर इलाके तक बीजों का स्थानान्तरण और तदुपरान्त समय पर अंकुरण होता है। कपूर वृक्ष की लकड़ियाँ सुन्दर फर्नीचर के काम में भी लायी जाती हैं,जो काफी मजबूत और टिकाऊ होती हैं।प्रौढ़ पौधे से प्राप्त लकड़ियों को छोटे-छोटे टुकड़ों में काट कर,तेज ताप पर उबाला जाता है।फिर वाष्पीकरण और शीतलीकरण विधि से रवादार (Crystalline substancec) बनाया जाता है।इसके अलावे अर्क और तेल भी बनाया जाता है;जिसका प्रयोग प्रसाधन एवं औषधी कार्यों में बहुतायत से होता है।आयुर्वेद में इसके अनेक औषधीय प्रयोगों का वर्णन है।अंग्रेजी और होमियोपैथी दवाइयों में भी कपूर का प्रयोग होता है।कपूर उच्चकोटि का कीटाणुनाशक,व्रणरोपक,ज्वरघ्न,शोथ-कोथहर,अतिसारहर,दर्द निवारक पदार्थ है।यह शीतवीर्य है। यानी ताशीर ठंढा है।विशेष मात्रा में सेवन से किंचित विषाक्त भी है।भारतीय कर्मकांड और तन्त्र में तो कपूर रसाबसा है ही।आजकल मिलावटी सामानों का बोलबाला है।दुष्ट व्यापारी इसके दानों में मोम डाल कर मोटी पपड़ीदार बना कर बेचते हैं।मोम के मिलावट से इसकी गुणवत्ता में काफी कमी आजाती है।किन्तु एक लाभ यह होता है कि इसकी उड़नशीलता में कमी आजाती है।वैसे उचित है कि कपूर को निर्वात (airtight) डब्बे में रखा जाय,और साथ में लौंग या गोलमिर्च डाल दिया जाय।इससे उड़ने की क्षमता न के बराबर होजाती है। कपूर को जलाने पर भारी मात्रा में काला धुआं(कार्बन)निकलता है।स्त्रियाँ हल्दी-चूर्ण के साथ कपूर को मिलाकर स्वच्छ कपड़ें में लपेटकर वर्तिका बना,तिलतेल या घृत दीप प्रज्ज्वलित कर कपूर-कज्जली को एकत्र कर लेती हैं।पुनः उस कज्जली में यथेष्टमात्रा में शुद्ध घृत मिश्रित कर जलधार देकर बारम्बार लेपन कर विकार-मुक्त बनाकर आंखों में लगाने हेतु काजल बनाती हैं।हल्दी-कपूर-घृत निर्मित यह कज्जली आंखों के लिए बड़ा ही गुणकारी है।
कपूर के विभिन्न प्रयोग-
१) कपूर एक सात्त्विक पदार्थ है।तन्त्र-साधना में सात्त्विक कार्यों के लिए ही इसका विशेष प्रयोग किया जाता है।विभिन्न प्रकार के लेप और तिलक तैयार करने में कपूर का उपयोग होता है।आरती-दीप,हवनादि में भी उपयुक्त है।देवाराधन में अन्यान्य उपचारों के बाद घृतवर्तिका के वजाय कर्पूर की आरती अति महत्त्वपूर्ण माना जाता है।श्रीयन्त्र या अन्याय यंत्र-लेखन में(ध्यातब्य है कि अलग-अलग देवताओं के अष्टगन्घ भी अलग-अलग होते हैं) मसी (स्याही) निर्माण में कर्पूर का प्रयोग आवश्यक है।मसी निर्माण में कपूर मिला देने से क्रिया की गुणवत्ता बेहद बढ़ जाती है।वस्तु की तान्त्रिक गुणवत्ता में भी वढोत्तरी हो जाती है।किसी भी अनुष्ठान-पूजा-साधना में जैसे धूना या लोहवान का प्रयोग कहा गया है,वैसे ही मेरे विचार से पूजा-स्थान के आसपास कर्पूर प्रज्ज्वलित कर देना अति लाभकारी होता है।कपूर को हाथों से मसलकर आसपास विखेर देने से भी वातावरण की शुद्धि हो जाती है। पूजा-क्रम में कई बार कपूर का प्रयोग किया जाना चाहिए- प्रारम्भिक स्थान शोधन,प्रज्ज्वलन,तिलक और मसी निर्माण,जलपात्र शोधन,मुखशुद्दि ताम्बूलादि सहित,और अन्त में आरार्तिक अर्पण।
२) वास्तु-दोष निवारण के लिए पीले वस्त्र में वेष्ठित कर कपूर की पोटली को घर के चारों कोनों और मध्य में समुचित स्थान पर टांग देना चाहिए।
३) आकर्षण-प्रयोगों के अन्तर्गत किसी मृतात्मा को आहूत करने के लिए सर्वप्रथम कक्ष में कपूर की धूल को विखेर देना चाहिए।तदुपरान्त कपूर का दीपक जला कर रख दें।कपूर के निकला धूम मृत प्राणियों को विशेष प्रिय है।ध्यातव्य है कि प्रेत-आवेशित व्यक्ति को कपूर से कष्ट होता है।प्रतांशा-प्रभाव –जांच हेतु यह नुस्खा अपनाया जा सकता है।मृतात्मा को आहूत कर मनोवांछित वार्ता का विधान भी तन्त्र का विषय है।इस क्रिया को अलग से मैं अपने संग्रह में स्थान दूंगा।जिज्ञासुओं को वहीं से ग्रहण करना चाहिए।
४) यन्त्र-लेखन प्रायः भोजपत्र(वृक्ष विशेष की छाल) पर किया जाता है।यन्त्र-लेखन में प्रयुक्त मसी में कपूर का मिश्रण अवश्य करना चाहिए।कपूर को जलाकर उसकी कज्जली को घृत मिश्रित करके भी मसी तैयार की जाती है।शनि-यन्त्र-लेखन में कपूर-कज्जली का उपयोग विशेष प्रभावशाली होता है। स्थायित्व की दृष्टि से ताम्रादि धातुओं पर उत्कीर्ण विभिन्न यन्त्रों का विशेष महत्त्व है।यहाँ यन्त्र-लेखन की बात तो नहीं आती,किन्तु यन्त्र-पूजन में अष्टगन्ध निर्माण करते समय कपूर अवश्य उपयोग करना चाहिए।इससे यन्त्र की ऊर्जा में विकाश होता है।
५) हस्तरेखा विशेषज्ञों द्वारा कपूर-कज्जली का उपयोग किया जाता है।
कपूर-कज्जली अथवा अष्टगन्ध निर्माण के लिए कोई भी आमावश्या(विशेष कर दीपावली) का शुभ मुहूर्त चयन करना चाहिए।रविपुष्य,गुरुपुष्यादि योग भी श्रेयष्कर हैं।विजय की कामना से देवी-अष्टगन्ध का निर्माण विजयादशमी को सायंकाल में करना उत्तम है।अन्य (या मिश्रित) उद्देश्य हेतु नवरात्रि के किसी दिनों में किया जा सकता है।
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