MAHAKALI PRACTICE FROM SEX PART 1 SAMBHOG SE MAHAKALI SADHNA PART 1 सम्भोग से महाकाली साधना भाग 1
एक विशेष बात ध्यान में रखना चाहिए कि तन्त्र का चाहे वाममार्ग हो या दक्षिण मार्ग, योग हो या पूजा क्रम – सभी में सर्वप्रथम मूलाधार की इस महाकाली को ही सिद्ध किया जाता है, जो मूलाधार के श्याम शिवलिंग की शक्ति है और ये खुनी लाल रंग की अपनी तरंगों का उत्सर्जन करती है।
इससे रक्त, रक्त से मांस – मज्जा-हड्डी-बाल और नखों की शक्ति उत्पन्न होती है इन सबका भक्षण करने वाली भी यही देवी है; इसलिए इन्हें इन पदार्थों से लिप्त और आभूषित रूप में ध्यान लगाया जाता है। यह विकराल शक्ति है। जब यह जागती है, तो मस्तिष्क इसके पैरों के नीचे चला जाता है और खोपड़ी का कोई महत्त्व ही नहीं रहता। इसलिए इन्हें नरमुंडों की माला से सवित रूधिर पीते स्वरुप में ध्यान किया जाताहै।
शास्त्रीय कहानी कुछ और है; पर वे रूपक है। रक्तबीज आज भी हमारे अंदर है, संसार – प्रकृति में व्याप्त है।
सामान्यतया काली के नौ भेद माने जाते है। (बहुत से मार्ग में 13, 17, 23, 28 रूपों की स्थिति मानी जाती है; पर यह भिन्न –भिन्न मान्यताओं पर शरीर केअन्य चक्रों की भी गिनती हो जाती है। ऐसे तो अनंत है । इन्हें सीमा में बद्ध नहीं किया जा सकता; पर मुख्य धुरी में इसके मुख्य नौ ही वर्गीकरण माने जाते है – दक्षिण काली, भद्र काली, शमसान काली, काल काली, गुह्य काली, काम कला काली, धन काली, सिद्धि काली, चंडकाली। महाकाल संहिता में इन्ही नों रूपों का वर्गीकरण किया गया है। यह ग्रन्थ नेपाल के राजकीय लाइब्रेरी और जर्मनी के राष्ट्रीय संग्रहालय में है।
मन्त्र भेद, ध्यान भेद, पूजा भेद , विधि भेद से गुह्य काली ही कामकला काली एवं अन्य रूपों में परिवर्तित हो जाती है। कामकाली सोलह कलाओं की है। इनका मंत्र भी सोलह अक्षरों का होता है । सम्पूर्ण श्री चक्र में व्याप्त देवी सोलह कलाओं की होती है। इन सबकी मुख्य आधार शक्ति श्री चक्र या भैरवी साधना ही होती है। इसी तरह सभी काली रूपों में काम कला काली ही प्रमुख मानी जाती है । इन्हें के मन्त्र को त्रैलोक्याकर्षण मन्त्र कहा जाता है।
यंत्र का स्वरुप
चार भुजाओं वाले दोहरी लकीरों से युक्त भूपर में अष्टदल कमल बनाकर उसकी कर्णिका में तीन त्रिकोणों की रचना की जाती है।
इसमें तीनों एक के ऊपर एक अद्योगामी होते है। बीच में बिंदु होता है। रत्न की रचना में चावल का आटा, सिन्दूर, कुमकुम , पंच रंगा, का प्रयोग किया जाता है। इसे स्वयं अपने रक्त से भी बनाया जाता है, पर यह यंत्र कागज़ पर बनता है और विशेष कार्यों के लिए होता है । बायें कोण में मायाबीज ‘ह्रीं’ दायें कोण पर क्रोध बीज ‘हूँ’। नीचे प्राश ‘आं’ एवं मध्य में ‘क्लीं’ लिखा जाता है।
पूजा विधि
सर्वप्रथम भूतशुद्धि , फिर न्यास की प्रक्रिया करके इस यंत्र के सामने भैरवी को बैठा कर उसे चक्र का पीठ मानकर पीठ्न्यास करके , स्वयं अपना करांग न्यास किया जाता है। इसके बाद यन्त्रस्थ देवी की पूजा की जाती है। तीन त्रिकोणों में जो दो खाली स्थान के त्रिकोण बनते है; उनमें बाहर बायें दायें , नीचे क्रम में संहारिणी , भीषणा एवं मोहिनी की , अंदर कुरुकुल्ला , कपालिनी, विप्रचिता की पूजा की जाती है।
अंदर के त्रिकोण के अंदर बाएँ कोण पर गौरी, कमला, माहेश्वरी, दाई और चामुंडा , कौमारी, अपराजिता . नीचे वाराही , नारसिंही की पूजा की जाती है।
इन सभी देवियों का रंग सांवला है, इनके एक हाथ में कपाल में मध है। ये हाथों में खड्ग लिए है और मुंडमालाओं से सुसज्जित हैं। ये मद पान करती है तर्जनी ऊपर उठाये नृत्य कर रही है।
विशेष विश्लेष्ण
सबसे पहले मध्य में कामकला काली का आवाहन, पूजा, होती है। इसके बाद त्रिकोणों की अंदर के क्रम से , फिर बाहर के दो रिक्तों में एक-एक करके, फिर कमला दल मध्य , फिर म्क्ला दल के मध्य रिक्त, फिर मकाल दल अग्र भाग, फिर दिकपाल ।
यह सृष्टि क्रम है। संहार क्रम बाहर से भीतर की ओर होता है। भौतिक स्वरुप में सृष्टि क्रम, मोक्ष ज्ञान आदि के लिए संहार क्रम की पूजा की जाती है। प्रत्येक देवी-देवता की पूजा तीन –तीन बार करने का निर्देश है ।
सामान्यतया काली के नौ भेद माने जाते है। (बहुत से मार्ग में 13, 17, 23, 28 रूपों की स्थिति मानी जाती है; पर यह भिन्न –भिन्न मान्यताओं पर शरीर केअन्य चक्रों की भी गिनती हो जाती है। ऐसे तो अनंत है । इन्हें सीमा में बद्ध नहीं किया जा सकता; पर मुख्य धुरी में इसके मुख्य नौ ही वर्गीकरण माने जाते है – दक्षिण काली, भद्र काली, शमसान काली, काल काली, गुह्य काली, काम कला काली, धन काली, सिद्धि काली, चंडकाली। महाकाल संहिता में इन्ही नों रूपों का वर्गीकरण किया गया है। यह ग्रन्थ नेपाल के राजकीय लाइब्रेरी और जर्मनी के राष्ट्रीय संग्रहालय में है।
मन्त्र भेद, ध्यान भेद, पूजा भेद , विधि भेद से गुह्य काली ही कामकला काली एवं अन्य रूपों में परिवर्तित हो जाती है। कामकाली सोलह कलाओं की है। इनका मंत्र भी सोलह अक्षरों का होता है । सम्पूर्ण श्री चक्र में व्याप्त देवी सोलह कलाओं की होती है। इन सबकी मुख्य आधार शक्ति श्री चक्र या भैरवी साधना ही होती है। इसी तरह सभी काली रूपों में काम कला काली ही प्रमुख मानी जाती है । इन्हें के मन्त्र को त्रैलोक्याकर्षण मन्त्र कहा जाता है।
यंत्र का स्वरुप
चार भुजाओं वाले दोहरी लकीरों से युक्त भूपर में अष्टदल कमल बनाकर उसकी कर्णिका में तीन त्रिकोणों की रचना की जाती है।
इसमें तीनों एक के ऊपर एक अद्योगामी होते है। बीच में बिंदु होता है। रत्न की रचना में चावल का आटा, सिन्दूर, कुमकुम , पंच रंगा, का प्रयोग किया जाता है। इसे स्वयं अपने रक्त से भी बनाया जाता है, पर यह यंत्र कागज़ पर बनता है और विशेष कार्यों के लिए होता है । बायें कोण में मायाबीज ‘ह्रीं’ दायें कोण पर क्रोध बीज ‘हूँ’। नीचे प्राश ‘आं’ एवं मध्य में ‘क्लीं’ लिखा जाता है।
पूजा विधि
सर्वप्रथम भूतशुद्धि , फिर न्यास की प्रक्रिया करके इस यंत्र के सामने भैरवी को बैठा कर उसे चक्र का पीठ मानकर पीठ्न्यास करके , स्वयं अपना करांग न्यास किया जाता है। इसके बाद यन्त्रस्थ देवी की पूजा की जाती है। तीन त्रिकोणों में जो दो खाली स्थान के त्रिकोण बनते है; उनमें बाहर बायें दायें , नीचे क्रम में संहारिणी , भीषणा एवं मोहिनी की , अंदर कुरुकुल्ला , कपालिनी, विप्रचिता की पूजा की जाती है।
अंदर के त्रिकोण के अंदर बाएँ कोण पर गौरी, कमला, माहेश्वरी, दाई और चामुंडा , कौमारी, अपराजिता . नीचे वाराही , नारसिंही की पूजा की जाती है।
इन सभी देवियों का रंग सांवला है, इनके एक हाथ में कपाल में मध है। ये हाथों में खड्ग लिए है और मुंडमालाओं से सुसज्जित हैं। ये मद पान करती है तर्जनी ऊपर उठाये नृत्य कर रही है।
विशेष विश्लेष्ण
सबसे पहले मध्य में कामकला काली का आवाहन, पूजा, होती है। इसके बाद त्रिकोणों की अंदर के क्रम से , फिर बाहर के दो रिक्तों में एक-एक करके, फिर कमला दल मध्य , फिर म्क्ला दल के मध्य रिक्त, फिर मकाल दल अग्र भाग, फिर दिकपाल ।
यह सृष्टि क्रम है। संहार क्रम बाहर से भीतर की ओर होता है। भौतिक स्वरुप में सृष्टि क्रम, मोक्ष ज्ञान आदि के लिए संहार क्रम की पूजा की जाती है। प्रत्येक देवी-देवता की पूजा तीन –तीन बार करने का निर्देश है ।
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