Thursday, February 28, 2019

BHAIRAVI KI YONI PUJA SE KUNDALINI JAGRAN PART 6 भैरवी की योनि पूजा से कुण्डलनी जागरण भाग 6

BHAIRAVI KI YONI PUJA SE KUNDALINI JAGRAN PART 6 भैरवी की योनि पूजा से कुण्डलनी जागरण भाग 6

भैरवी चक्र /भैरवी विद्या रहस्य

भैरवी विद्या एक अति प्राचीन विद्या है | ज्ञात तथ्यों के अनुसार यह त्रेता युग से अस्तित्व में है | शास्त्र के अनुसार यह सृष्टि के उत्पन्न होते ही अस्तित्व में आ गयी | भैरवी चक्र की आकृति यंत्रों में देखने से यह सही भी लगता है | 

भैरवी विद्या में लिंग और योनी का मूल अर्थ बहुत ही तात्विक है |इन्हें व्यक्त करने का माध्यम स्थूल अथवा प्राकृतिक समझ में आने वाला बनाया गया है | इसका अर्थ सृष्टि की उत्पत्ति से जुड़ा है | सृष्टि की उत्पत्ति के पूर्व केवल परम तत्व होता है ,जो निर्विकार ,निरपेक्ष होता है | इसकी इच्छा से जब सृष्टि की उत्पत्ति शुरू होती है तो दो प्रकार के गुण इसमें ही उत्पन्न होते हैं | प्रथमतः ऋणात्मक बिंदु बनता है जो ऊपर उठता है और एक शंक्वाकार प्याले जैसी रचना उत्पन्न होती है | उठ रहे भाग को भरने के लिए परम तत्व की धाराएं उस और दौड़ती हैं और एक चक्रवात सा उत्पन्न होता है | यह शंक्वाकार रचना तीब्रता से घूम रहा होता है | क्योकि यह ऋणात्मक होता है अतः परम तत्व में धनात्मक बिंदु उत्पन्न होता है और ठीक वैसी ही रचना उत्पन्न होती है |यह धनात्मक चक्र ,ऋणात्मक के आवेश से आकर्षित हो उसमे समाता है |

अर्थात सर्वप्रथम एक योनी उत्पन्न होती है और तीब्र घूर्णन के कारण आवेशित होती है | ऊर्जा का बीजांकुर यही आवेश है | ऐसा एक विपरीत आवेश दुसरे बिंदु पर भी घूर्णन के कारण उत्पन्न होता है जिसे लिंग कहते हैं | यह आवेश या प्रतिकृति योनी रूप प्रथम भंवर से उत्पन्न होती है , इसलिए शक्ति का जो पहला बीजांकुर उत्पन्न होता है , वह किसी आकृति के रूप में नहीं , बल्कि योनी के रूप में होता है | 

इस योनी को तंत्र में ,वाम मार्ग में महाकाली ,आदि शक्ति आदि कहा गया है क्योकि सबसे पहले यही उत्पन्न होती है और परम ऋणात्मक ध्रुव होती है जिसके कारण धनात्मक ध्रुव की उत्पत्ति होती है | क्योकि यह उत्पत्ति से ही योनी रूपा है इसलिए इसकी पूजा योनी रूप में होती है |

इस योनी की उत्पत्ति के साथ ही इसकी प्रतिक्रया में लिंग या दुसरे शंक्वाकार भंवर की उत्पत्ति होती है | तंत्र में कहा गया है की कामावेषित इस योनी की काम भावना को संतुष्ट करने के लिए शिव के लिंग की उत्पत्ति होती है |

तात्विक रूप से प्रथम उत्पन्न ऋण भंवर की प्रतिक्रया में धनात्मक भंवर उसे भरने के लिए उत्पन्न होता है , जिसके प्रथम भंवर में समाने पर बीच में एक नली सी बनती है जिससे ऊपर की और ऊर्जा की फुहारें निकलती हैं इन दोनों धाराओं की आपसी क्रिया से इसलिए भी इसे लिंग कहा जाता है | 

लिंग को धनात्मक रूप है प्रकृति में और योनी को ऋणात्मक ,अतः इसलिए भी इन्हें लिंग योनी से परिभाषित किया जाता है | चूंकि भैरवी साधना मनुष्य की मुक्ति हेतु मनुष्य के लिए है और मनुष्य में पुरुष धनात्मक स्वरुप है जिसका मूल गुण लिंग से परिभाषित होता है , स्त्री ऋणात्मक स्वरुप है और उसका मूल गुण योनी से परिभाषित होता है , इसलिए भी इसे लिंग योनी से परिभाषित किया जाता है | 

मानव की उत्पत्ति या नई सृष्टि मानव में लिंग योनी के समागम से ही होती है जिसका साम्य मूल शंक्वाकार भंवर से होता है इसलिए भी इसे लिंग योनी से परिभाषित किया जाता है | योनी की क्रिया से ही योनी से ही समस्त जीवों की उत्पत्ति है , लिंग की क्रिया से ही लिंग के बीजारोपण से ही समस्त जीवों में उत्पत्ति है इसलिए भी इसे लिंग योनी रूप में परिभाषित किया जाता है ,क्योकि सृष्टि की उत्पत्ति भी दो विपरीत आवेश के भंवरों के आपसी समागम से होती है |


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