वनस्पति तंत्र भाग 17
हरिद्रा
हरिद्रा के लिए प्रचलित शब्द हल्दी है।भारतीय मसालों का राजा- विशेष परिचय का मुंहताज नहीं। वैजयन्ती के आकार की इसकी पत्तियाँ बड़ी खुसबूदार होती हैं।करीब छःईंच चौड़ीं,पन्द्रह-बीस ईंच लम्बी पत्तियाँ आजू-बाजू बृन्त से जुड़ती हुयी,ऊपर बढ़ती जाती हैं;जिससे तथाकथित तने का निर्माण होता है,यानी स्वतन्त्र रुप से तने नहीं होते इसमें।हल्दी इसी पौधे की गाठें हैं।मुख्य गांठ से कुछ सह गाठें भी निकली होती हैं।आम तौर पर एक पौधे से सौ ग्राम से पांचसौ ग्राम तक गांठें प्राप्त होजाती हैं।इनमें करीब अस्सी प्रतिशत जलीयांश होता है।ताजी गाठों को उबाल कर सुखा लेते हैं- यही तैयार हल्दी है।दोमट या बलुई मिट्टी में इसकी अच्छी पैदावार होती है।आषाढ़ के महीने में अंकुरणदार छोटी गांठों को आलू या अदरख की तरह मेड़ बनाकर हल्दी का रोपण होता है।बरसात बाद मेड़ों को फिर से सुडौल करना पड़ता है।आश्विन-कार्तिक में एक-दो बार हल्की सिंचाई करनी होती है।फाल्गुन के शुरुआत में ही पत्तियां मुरझाने लगती हैं- यही पौढ़ता का प्रमाण है।फाल्गुन अन्त में प्रौढ़ पौधों को उखाड़ लिया जाता है। छायादार जगहों में भी इसकी खेती हो सकती है, इस कारण छोटे किसान अपने गृहवाटिका में भी थोड़ा-बहुत लगा लेते हैं,जिससे घरेलू उपयोग सिद्ध होता है।
हल्दी के सम्बन्ध में एक प्रचलित किंवदन्ति है- कोईरी और माली जाति को छोड़कर, अन्य जातियाँ इसका रोपण न करें।यदि करें ही तो लागातार बारह बर्षों तक लगाते रहें,बीच में बाधित न हो- न सम्भव हो तो एक ही गांठ लगायें, लेकिन लगाने का क्रम न टूटे अन्यथा भारी अनिष्ट झेलना पड़ सकता है।इसके पीछे शास्त्रीय प्रमाण या इसका वैज्ञानिक आधार तो मैं नहीं कह सकता,किन्तु इस नियम की जानबूझ कर अवहेलना करने वाले का दुष्परिणाम मैं तीन-चार बार देख चुका हूँ- रोपण बाधित हुआ और अवांछित विपत्ति सिर पर मड़रायी। अतः उचित है कि इसके रोपण से बचें।
एक और बात- सामान्य तौर पर हल्दी में नौ महीने के पैदावार-अवधि में प्रायः फूल लगते ही नहीं हैं। फूल लगने के लिए जितनी परिपक्वता चाहिए,उसके पूर्व ही पौधा मुरझाने लगता है- चाहे लाख जतन करें, किन्तु कभी-कभी अनहोनी सी हो जाती है- आश्विन-कार्तिक के अन्त तक पत्तियों के बीच एक विशेष कोंपल बन जाता है,और थोड़े ही दिनों में उसमें फूल निकल आते हैं।हल्दी में फूल निकलना किसी भारी अनिष्ट का सूचक है- खासकर रोगणकर्ता के लिए,किन्तु इस सम्बन्ध में भी उपर्युक्त नियम लागू होता है- हमेशा लगाने वाले किसान को किसी प्रकार की क्षति नहीं होती।
तन्त्रशास्त्र में हल्दी के फूल को एक दुर्लभ वनस्पति की सूची में रखा गया है।यहाँ इसके प्रयोग पर इशारा मात्र ही उचित समझता हूँ- षटकर्म के तीन निकृष्ट कर्मों में इसका अमोघ प्रयोग है- ब्रह्मास्त्र की तरह
अचूक,दुर्निवार,अद्भुत।सोचसमझ कर इसका प्रयोग करना चाहिए।स्मरण रहे- ब्रह्मास्त्र अर्जुन के पास भी था और अश्वत्थामा के पास भी- एक को परिस्थिति की पहचान थी,और आत्मनियंत्रण की क्षमता;पर दूसरे के पास इन दोनों का अभाव था।अस्तु।
आयुर्वेद में हल्दी के अनेक प्रयोग हैं।दर्द,सूजन,रक्तरोधन-शोधन,व्रणस्थापन आदि इसके विशिष्ट गुण हैं। सौन्दर्य प्रसाधनों में भी काफी प्रयुक्त होता है। होमियोपैथी का हाईड्राइटिस और कुछ नहीं सीधे हल्दी का ही क्यूफॉर्म है।
पूजापाठ,एवं अन्य मांगलिक कार्यों में हल्दी अति अनिवार्य है।ग्रहों में गुरु वृहस्पति का प्रिय वनस्पति है यह।यूँ तो वृहस्पति की संविधा- पीपल है,और रत्न है पोखराज।किन्तु हरिद्रा पर गुरु की विशेष कृपा है।इतना ही नहीं गणपति विघ्नेश्वर के लिए भी हरिद्रा बहुत ही प्रिय है।माँ पीताम्बरा(बगलामुखी) का तो काम ही नहीं हो सकता हरिद्रा के वगैर।
हरिद्रा ग्रहण विचार- मकर संक्रान्ति(१४जनवरी) से सूर्य उत्तरायण हो जाते हैं।इसके बाद ही कोई शुभ मुहूर्त में हरिद्रा को साधनात्मक रुप से ग्रहण करना उचित है।यूँ तो किसी(रविपुष्य,सर्वार्थसिद्धि,अमृतसिद्धि) योग में विशेष परिस्थिति में ग्रहण किया जा सकता है;किन्तु गुरु का विशेष बल तभी प्राप्त होगा जब गुरुपुष्य योग हो।ध्यान रहे कि उस समय गुरु और साथ ही शुक्र अस्त न हों।चूँकि यह सुलभ प्राप्य द्रव्य है,इस लिए प्रथम प्रयास तो यही हो कि अन्य अध्यायों में बतलायी गयी विधि के अनुसार पूर्वसंध्या को निमंत्रण देकर ही अगले दिन निर्दिष्ट विधि से घर लाया जाय।महानगरीय सभ्यता में जीने वाले महानुभावों को असम्भव या कठिन लगे तो वाजार की उपलब्धि का सहारा ले सकते हैं।दशहरे के बाद बाजार में ताजी हल्दी की गांठे मिल
जाया करती हैं।उचित मुहूर्त का विचार करके सुविधानुसार लाया जा सकता है।जिस किसी विधि से भी प्राप्त हो, घर लाकर पूर्वनिर्दिष्ट विधान से स्थापन-पूजन करने के बाद सर्वप्रथम वृहस्पति के षडक्षर मंत्र (बीजयुक्त पंचाक्षर मंत्र)का १९००० जप करें,तथा दशांश होमादि सम्पन्न करें।प्रसंगवश यहाँ एक बात और स्पष्ट कर दूँ कि हरिद्रा की कोई भी क्रिया करने के लिए वस्त्र-आसन आदि रंग के वजाय हरिद्रा में ही रंजित हों तो अति उत्तम- चाहे उस पर गणपति की क्रिया करनी हो या पीताम्बरा की,या कि गुरु की।इन तीनों को पीत रंग(हरिद्रा)प्रिय है।इतना ही नहीं माला भी हल्दी की गाठों की ही होनी चाहिए।प्रसाद के लिए हल्दियापेड़ा,चने की दाल,वेसन के लड्डू आदि का प्रयोग करना चाहिए।साधक अपने भोजन में भी पीले पदार्थों का (उक्त चीजों) सेवन किया करे।स्नान से पूर्व हल्दी का उबटन अवश्य लगाले,एवं स्नानोपरान्त चन्दन के वजाय हल्दी का ही तिलक प्रयोग करे-कहने का तात्पर्य यह कि हरिद्रा-साधना के लिए हरिद्रामय होजाने की आवश्यकता है।इससे साधना को सुपुष्टि मिलती है,और छोटे-मोटे विघ्न स्वयमेव समाप्त हो जाते हैं।
उक्त विधि से साधित हरिद्रा को हरिद्रारंजित चावल-सुपारी-नारियल का सूखा गोला आदि के साथ पीले वस्त्र में वेष्ठित कर पूजा-स्थान या तिजोरी में रख दें।नित्य धूप-दीप प्रदर्शित करें और कम से कम एक माला श्रीषडक्षर मंत्र का जप अवश्य कर लिया करें।अक्षय-स्थिर लक्ष्मी के लिए यह अद्भुत प्रयोग है।
हरिद्रा गणपति प्रयोग- मंत्र-भेद से हरिद्रा के अन्य प्रयोग भी हैं।पूर्व अध्याय- श्वेतार्क-गणपति साधना में बतलाये गये विधान से हरिद्रा-गणपति की साधना भी की जा सकती है।मंत्र और विधि लगभग वही होगा। अन्तर सिर्फ माला-प्रयोग का होगा- वहाँ रुद्राक्ष माला प्रयुक्त होता है,यहाँ हरिद्रा-ग्रन्थि-माला का प्रयोग होना चाहिए।इस क्रिया से सभी प्रकार के विघ्नों का नाश होकर विद्या-वुद्धि-श्री समपन्नता की प्राप्ति होती है।किसी विशेष उद्देश्य से भी हरिद्रा-गणपति की साधना की जा सकती है- जैसे कोई शत्रु अकारण परेशान कर रहा हो, तो उसके शमन के लिए संकल्प में उसका नामोच्चारण करते हुए उक्त मंत्र का तैतीस हजार जप- दशांश होमादि सहित समपन्न करे।हाँ ध्यान रहे- कोई भी क्रिया स्वार्थान्ध होकर न किया जाय,अन्यथा परेशानी हो सकती है।
पीताम्बरा प्रयोग- उक्त विधि से साधित हरिद्रा-ग्रन्थि को साक्षात् भगवती पीताम्बरा बगलामुखी का श्रीविग्रह स्वरुप घर में स्थापित कर नित्य पूजा-अर्चना करने से षटकर्म की सिद्धि होती है।साधक की वाचाशक्ति अद्भुत रुप से विकसित होती है।सचपूछें तो वाक्-सिद्धि होजाती है।काम-क्रोध-लोभ-मद-मोहादि समस्त अन्तः शत्रुओं का शमन होकर तेजोमय साधन-शरीर का उद्वोधन होता है।वाह्य समस्त शत्रुओं का शमन-दमन तो सामान्य सी बात हो जाती है।ध्यातव्य है कि इस प्रयोग में पीताम्बरा पूजन-विधि और षट्त्रिंश पीताम्बरा मंत्र का सर्वांग अनुष्ठान सम्पन्न करना होता है।पूरा विधान पीताम्बरा-तन्त्र से ग्रहण करना चाहिए।
हरिद्रा तिलक प्रयोग- उक्त साधित हरिद्रा का तिलक लगाने मात्र से सम्मोहन और वशीकरण सिद्ध होता है। साधक अपने ललाट पर तिलक लगाकर किसी साध्य पर दृष्टिपात करते हुए अपने अभीष्ट का स्मरण मात्र करे, और मानसिक रुप से पीताम्बरा मंत्र या अपने अन्य इष्ट मंत्र का स्मरण करता रहे।
विषहरण प्रयोग- पीताम्बरा-साधित हरिद्रा खण्ड को पीसकर गोदुग्ध या जल के साथ पिला देने से सभी प्रकार के विषों का निवारण होता है।
वन्ध्या-त्तन्त्र-प्रयोग- उक्त विधि से कम से कम सवा सेर हरिद्रा-ग्रन्थि को साधित कर किसी सन्तानेच्छु स्त्री को प्रदान करे।स्त्री को चाहिए कि रजोस्नान के पश्चात् उक्त साधित हरिद्रा का घृतपाक विधि से पाक तैयार कर नित्य प्रातः-सायं दो-दो चम्मच सेवन करे गोदुग्ध के साथ- पूरे सताइश दिनों तक।(हरिद्रापाक की विधि सर्वसामान्य है,प्रायः घरों में महिलायें इसका प्रयोग करती हैं सद्यः प्रसूता को देने के लिए- समान मात्रा में हरिद्रा,घी और गूड़ मिश्रित हलवा- वल्य,रक्तशोधक,पीड़ाहर,कोथहर,शोथहर आदि गुणों से भरपूर है।
प्रेतवाधा-निवारण- किसी भी प्रेतवाधा-ग्रसित व्यक्ति को नवार्ण-साधित हरिद्रा-प्रयोग से वाधा-मुक्त किया जा सकता है।इसके लिए शुभमुहूर्त में- शारदीय नवरात्रादि में- हरिद्रा-साधन करना विशेष महत्त्वपूर्ण होता है।इस प्रकार सिद्द हरिद्रा-ग्रन्थि को पीले कपड़े में बांध कर प्रभावित पुरुष की दांयी भुजा,एवं स्त्री की बायीं भुजा में बांध देने से काफी लाभ होता है। उक्त साधित हरिद्रा को पीस कर,जल में घोलकर प्रभावित व्यक्ति के कमरे,वस्त्र एवं विस्तर पर छिड़काव भी नित्य करते रहना चाहिए।साथ ही उसी हरिद्रा को कमरे में धूपित भी करें।कमरे की खिड़की-दरवाजों पर पीले कपड़ें में बांध कर साधित हरिद्रा की गांठों को स्थापित कर दें।इससे बारबार प्रभावित करने वाली प्रेतवाधा में काफी कमी आयेगी।जल या दूध में घोल कर साधित हरिद्रा को पिलाने से भी काफी लाभ होता है।साधकों को शारदीय नवरात्र में विशेष मात्रा में हरिद्रा का अभिमंत्रण-पूजन लोक-कल्याणार्थ करके सुरक्षित रख लेना चाहिए।विशेष परिस्थिति में तत्काल साधना से भी काम हो सकता है- महत्त्व इस बात का है कि साधक का आत्मबल और उक्त विषयक साधना बल कितना-क्या-कैसा है।
हरिद्रा-ग्रन्थि-माला- हल्दी की गाठों की माला का तन्त्र में काफी महत्त्व है।आजकल बनी-बनायी माला भी पूजन-सामग्री-विक्रेताओं के यहाँ उपलब्ध है,जो सूखी हल्दी की गाठों से बनायी जाती हैं।अन्य मालाओं की तरह इन्हें भी खरीद कर संस्कारित कर उपयोग किया जा सकता है।चूँकि माला अपने हाथ से गूँथने का निषेध रुद्राक्ष-प्रकरण में कर आये हैं,अतः उचित है कि बाजार से तैयार हरिद्रा माला ही खरीद लिया जाय।ऊपर वर्णित मुख्य तीन देवताओं- वृहस्पति,गणपति और बगला के किसी भी मंत्र-प्रयोग के लिए हल्दी की माला श्रेष्ठ मानी गयी है।हल्दी-निर्मित माला में एक महान दोष ये है कि यह अन्य मनकों की तरह दीर्घ स्थायी नहीं हैं- रुद्राक्ष,जीवितपुत्रिका,पद्माख आदि की तरह लम्बे समय तक इसे सहेज कर रखना बड़ा कठिन होता है- कीड़े लग जाते हैं,और संस्कार-श्रम व्यर्थ हो जाता है।फिर भी दो बातों का ध्यान रखेंगे तो अपेक्षाकृत दीर्घ-स्थायी हो सकता है- एक तो यह कि संस्कारित माला का नियमित जप-प्रयोग हो,और दूसरी बात यह कि समय-समय पर मनकों में घृतलेप कर दिया करें।माला को अन्यान्य की दृष्टि से बचाने का भी नियम है- दृष्टिपात से माला का गुण नष्ट होता है- इसका ध्यान रखते हुए सम्भव हो तो कभी-कभी एकान्त में खुली घूप में रख दें। जपमालिका में कपूर के टुकड़े डालकर रखने से भी हल्दी की माला को दीर्घजीवन दिया जा सकता है।देवदार,गुग्गुल,धूना(लोहवान नहीं) आदि से समय-समय पर धूपित करने से भी काफी लाभ होता है। एक सज्जन तो फेनाइल आदि रसायनों का प्रयोग कर देते थे- सुरक्षा के लिए,जो कि सर्वथा गलत है।
कृष्णहरिद्रा-(विशिष्ट हरिद्रा)- समान्यतया हल्दी का रंग पीला ही होता है,परन्तु एक खास तरह की हल्दी भी होती है,जो श्यामवर्णी होती है,और इसका गंध भी सामान्य हरिद्रा से किंचित भिन्न होता है- इसमें कपूर जैसी मादक गंन्ध होती है।इसका एक अन्य नाम नरकचूर भी है।तन्त्रशास्त्र में इसका विशेष महत्त्व है।साधना और प्रयोग की शेष विधियाँ पूर्ववत ही होती हैं।पीत हरिद्रा के सभी गुण इसमें विद्यमान हैं,इसके अतिरिक्त कुछ विशिष्ट गुण भी हैं-
उन्माद नाशक- श्याम हरिद्रा को ताबीज में भरकर पीले धागे में गूंथकर रविवार को गले में धारण करा देने से उन्माद रोग का नाश होता है।अनिद्रा,मिर्गी,योषापस्मार(हिस्टीरिया) आदि विभिन्न मानस व्याधियों में भी अद्भुत लाभ होता है।
अदृश्य-बाधा-निवारण- श्याम हरिद्रा की सात,नौ,ग्यारह गांठों की माला बनाकर पुनः धूप-दीपादि संस्कार करके किसी रवि या मंगलवार को गले में धारण करा देने से समस्त वायव्यदोष- टोने-टोटके,ग्रह,भूत-प्रेतादि विघ्नों का शमन होता है।
सौन्दर्य प्रसाधन- सामान्य हरिद्रा की तरह श्याम हरिद्रा का भी सौन्दर्य-प्रसाधनों में प्रयोग किया जाता है-उसके साथ भी या अकेले ही।जल या दूध के साथ लेपन अति गुणकारी होता है।
हल्दी के सम्बन्ध में एक प्रचलित किंवदन्ति है- कोईरी और माली जाति को छोड़कर, अन्य जातियाँ इसका रोपण न करें।यदि करें ही तो लागातार बारह बर्षों तक लगाते रहें,बीच में बाधित न हो- न सम्भव हो तो एक ही गांठ लगायें, लेकिन लगाने का क्रम न टूटे अन्यथा भारी अनिष्ट झेलना पड़ सकता है।इसके पीछे शास्त्रीय प्रमाण या इसका वैज्ञानिक आधार तो मैं नहीं कह सकता,किन्तु इस नियम की जानबूझ कर अवहेलना करने वाले का दुष्परिणाम मैं तीन-चार बार देख चुका हूँ- रोपण बाधित हुआ और अवांछित विपत्ति सिर पर मड़रायी। अतः उचित है कि इसके रोपण से बचें।
एक और बात- सामान्य तौर पर हल्दी में नौ महीने के पैदावार-अवधि में प्रायः फूल लगते ही नहीं हैं। फूल लगने के लिए जितनी परिपक्वता चाहिए,उसके पूर्व ही पौधा मुरझाने लगता है- चाहे लाख जतन करें, किन्तु कभी-कभी अनहोनी सी हो जाती है- आश्विन-कार्तिक के अन्त तक पत्तियों के बीच एक विशेष कोंपल बन जाता है,और थोड़े ही दिनों में उसमें फूल निकल आते हैं।हल्दी में फूल निकलना किसी भारी अनिष्ट का सूचक है- खासकर रोगणकर्ता के लिए,किन्तु इस सम्बन्ध में भी उपर्युक्त नियम लागू होता है- हमेशा लगाने वाले किसान को किसी प्रकार की क्षति नहीं होती।
तन्त्रशास्त्र में हल्दी के फूल को एक दुर्लभ वनस्पति की सूची में रखा गया है।यहाँ इसके प्रयोग पर इशारा मात्र ही उचित समझता हूँ- षटकर्म के तीन निकृष्ट कर्मों में इसका अमोघ प्रयोग है- ब्रह्मास्त्र की तरह
अचूक,दुर्निवार,अद्भुत।सोचसमझ कर इसका प्रयोग करना चाहिए।स्मरण रहे- ब्रह्मास्त्र अर्जुन के पास भी था और अश्वत्थामा के पास भी- एक को परिस्थिति की पहचान थी,और आत्मनियंत्रण की क्षमता;पर दूसरे के पास इन दोनों का अभाव था।अस्तु।
आयुर्वेद में हल्दी के अनेक प्रयोग हैं।दर्द,सूजन,रक्तरोधन-शोधन,व्रणस्थापन आदि इसके विशिष्ट गुण हैं। सौन्दर्य प्रसाधनों में भी काफी प्रयुक्त होता है। होमियोपैथी का हाईड्राइटिस और कुछ नहीं सीधे हल्दी का ही क्यूफॉर्म है।
पूजापाठ,एवं अन्य मांगलिक कार्यों में हल्दी अति अनिवार्य है।ग्रहों में गुरु वृहस्पति का प्रिय वनस्पति है यह।यूँ तो वृहस्पति की संविधा- पीपल है,और रत्न है पोखराज।किन्तु हरिद्रा पर गुरु की विशेष कृपा है।इतना ही नहीं गणपति विघ्नेश्वर के लिए भी हरिद्रा बहुत ही प्रिय है।माँ पीताम्बरा(बगलामुखी) का तो काम ही नहीं हो सकता हरिद्रा के वगैर।
हरिद्रा ग्रहण विचार- मकर संक्रान्ति(१४जनवरी) से सूर्य उत्तरायण हो जाते हैं।इसके बाद ही कोई शुभ मुहूर्त में हरिद्रा को साधनात्मक रुप से ग्रहण करना उचित है।यूँ तो किसी(रविपुष्य,सर्वार्थसिद्धि,अमृतसिद्धि) योग में विशेष परिस्थिति में ग्रहण किया जा सकता है;किन्तु गुरु का विशेष बल तभी प्राप्त होगा जब गुरुपुष्य योग हो।ध्यान रहे कि उस समय गुरु और साथ ही शुक्र अस्त न हों।चूँकि यह सुलभ प्राप्य द्रव्य है,इस लिए प्रथम प्रयास तो यही हो कि अन्य अध्यायों में बतलायी गयी विधि के अनुसार पूर्वसंध्या को निमंत्रण देकर ही अगले दिन निर्दिष्ट विधि से घर लाया जाय।महानगरीय सभ्यता में जीने वाले महानुभावों को असम्भव या कठिन लगे तो वाजार की उपलब्धि का सहारा ले सकते हैं।दशहरे के बाद बाजार में ताजी हल्दी की गांठे मिल
जाया करती हैं।उचित मुहूर्त का विचार करके सुविधानुसार लाया जा सकता है।जिस किसी विधि से भी प्राप्त हो, घर लाकर पूर्वनिर्दिष्ट विधान से स्थापन-पूजन करने के बाद सर्वप्रथम वृहस्पति के षडक्षर मंत्र (बीजयुक्त पंचाक्षर मंत्र)का १९००० जप करें,तथा दशांश होमादि सम्पन्न करें।प्रसंगवश यहाँ एक बात और स्पष्ट कर दूँ कि हरिद्रा की कोई भी क्रिया करने के लिए वस्त्र-आसन आदि रंग के वजाय हरिद्रा में ही रंजित हों तो अति उत्तम- चाहे उस पर गणपति की क्रिया करनी हो या पीताम्बरा की,या कि गुरु की।इन तीनों को पीत रंग(हरिद्रा)प्रिय है।इतना ही नहीं माला भी हल्दी की गाठों की ही होनी चाहिए।प्रसाद के लिए हल्दियापेड़ा,चने की दाल,वेसन के लड्डू आदि का प्रयोग करना चाहिए।साधक अपने भोजन में भी पीले पदार्थों का (उक्त चीजों) सेवन किया करे।स्नान से पूर्व हल्दी का उबटन अवश्य लगाले,एवं स्नानोपरान्त चन्दन के वजाय हल्दी का ही तिलक प्रयोग करे-कहने का तात्पर्य यह कि हरिद्रा-साधना के लिए हरिद्रामय होजाने की आवश्यकता है।इससे साधना को सुपुष्टि मिलती है,और छोटे-मोटे विघ्न स्वयमेव समाप्त हो जाते हैं।
उक्त विधि से साधित हरिद्रा को हरिद्रारंजित चावल-सुपारी-नारियल का सूखा गोला आदि के साथ पीले वस्त्र में वेष्ठित कर पूजा-स्थान या तिजोरी में रख दें।नित्य धूप-दीप प्रदर्शित करें और कम से कम एक माला श्रीषडक्षर मंत्र का जप अवश्य कर लिया करें।अक्षय-स्थिर लक्ष्मी के लिए यह अद्भुत प्रयोग है।
हरिद्रा गणपति प्रयोग- मंत्र-भेद से हरिद्रा के अन्य प्रयोग भी हैं।पूर्व अध्याय- श्वेतार्क-गणपति साधना में बतलाये गये विधान से हरिद्रा-गणपति की साधना भी की जा सकती है।मंत्र और विधि लगभग वही होगा। अन्तर सिर्फ माला-प्रयोग का होगा- वहाँ रुद्राक्ष माला प्रयुक्त होता है,यहाँ हरिद्रा-ग्रन्थि-माला का प्रयोग होना चाहिए।इस क्रिया से सभी प्रकार के विघ्नों का नाश होकर विद्या-वुद्धि-श्री समपन्नता की प्राप्ति होती है।किसी विशेष उद्देश्य से भी हरिद्रा-गणपति की साधना की जा सकती है- जैसे कोई शत्रु अकारण परेशान कर रहा हो, तो उसके शमन के लिए संकल्प में उसका नामोच्चारण करते हुए उक्त मंत्र का तैतीस हजार जप- दशांश होमादि सहित समपन्न करे।हाँ ध्यान रहे- कोई भी क्रिया स्वार्थान्ध होकर न किया जाय,अन्यथा परेशानी हो सकती है।
पीताम्बरा प्रयोग- उक्त विधि से साधित हरिद्रा-ग्रन्थि को साक्षात् भगवती पीताम्बरा बगलामुखी का श्रीविग्रह स्वरुप घर में स्थापित कर नित्य पूजा-अर्चना करने से षटकर्म की सिद्धि होती है।साधक की वाचाशक्ति अद्भुत रुप से विकसित होती है।सचपूछें तो वाक्-सिद्धि होजाती है।काम-क्रोध-लोभ-मद-मोहादि समस्त अन्तः शत्रुओं का शमन होकर तेजोमय साधन-शरीर का उद्वोधन होता है।वाह्य समस्त शत्रुओं का शमन-दमन तो सामान्य सी बात हो जाती है।ध्यातव्य है कि इस प्रयोग में पीताम्बरा पूजन-विधि और षट्त्रिंश पीताम्बरा मंत्र का सर्वांग अनुष्ठान सम्पन्न करना होता है।पूरा विधान पीताम्बरा-तन्त्र से ग्रहण करना चाहिए।
हरिद्रा तिलक प्रयोग- उक्त साधित हरिद्रा का तिलक लगाने मात्र से सम्मोहन और वशीकरण सिद्ध होता है। साधक अपने ललाट पर तिलक लगाकर किसी साध्य पर दृष्टिपात करते हुए अपने अभीष्ट का स्मरण मात्र करे, और मानसिक रुप से पीताम्बरा मंत्र या अपने अन्य इष्ट मंत्र का स्मरण करता रहे।
विषहरण प्रयोग- पीताम्बरा-साधित हरिद्रा खण्ड को पीसकर गोदुग्ध या जल के साथ पिला देने से सभी प्रकार के विषों का निवारण होता है।
वन्ध्या-त्तन्त्र-प्रयोग- उक्त विधि से कम से कम सवा सेर हरिद्रा-ग्रन्थि को साधित कर किसी सन्तानेच्छु स्त्री को प्रदान करे।स्त्री को चाहिए कि रजोस्नान के पश्चात् उक्त साधित हरिद्रा का घृतपाक विधि से पाक तैयार कर नित्य प्रातः-सायं दो-दो चम्मच सेवन करे गोदुग्ध के साथ- पूरे सताइश दिनों तक।(हरिद्रापाक की विधि सर्वसामान्य है,प्रायः घरों में महिलायें इसका प्रयोग करती हैं सद्यः प्रसूता को देने के लिए- समान मात्रा में हरिद्रा,घी और गूड़ मिश्रित हलवा- वल्य,रक्तशोधक,पीड़ाहर,कोथहर,शोथहर आदि गुणों से भरपूर है।
प्रेतवाधा-निवारण- किसी भी प्रेतवाधा-ग्रसित व्यक्ति को नवार्ण-साधित हरिद्रा-प्रयोग से वाधा-मुक्त किया जा सकता है।इसके लिए शुभमुहूर्त में- शारदीय नवरात्रादि में- हरिद्रा-साधन करना विशेष महत्त्वपूर्ण होता है।इस प्रकार सिद्द हरिद्रा-ग्रन्थि को पीले कपड़े में बांध कर प्रभावित पुरुष की दांयी भुजा,एवं स्त्री की बायीं भुजा में बांध देने से काफी लाभ होता है। उक्त साधित हरिद्रा को पीस कर,जल में घोलकर प्रभावित व्यक्ति के कमरे,वस्त्र एवं विस्तर पर छिड़काव भी नित्य करते रहना चाहिए।साथ ही उसी हरिद्रा को कमरे में धूपित भी करें।कमरे की खिड़की-दरवाजों पर पीले कपड़ें में बांध कर साधित हरिद्रा की गांठों को स्थापित कर दें।इससे बारबार प्रभावित करने वाली प्रेतवाधा में काफी कमी आयेगी।जल या दूध में घोल कर साधित हरिद्रा को पिलाने से भी काफी लाभ होता है।साधकों को शारदीय नवरात्र में विशेष मात्रा में हरिद्रा का अभिमंत्रण-पूजन लोक-कल्याणार्थ करके सुरक्षित रख लेना चाहिए।विशेष परिस्थिति में तत्काल साधना से भी काम हो सकता है- महत्त्व इस बात का है कि साधक का आत्मबल और उक्त विषयक साधना बल कितना-क्या-कैसा है।
हरिद्रा-ग्रन्थि-माला- हल्दी की गाठों की माला का तन्त्र में काफी महत्त्व है।आजकल बनी-बनायी माला भी पूजन-सामग्री-विक्रेताओं के यहाँ उपलब्ध है,जो सूखी हल्दी की गाठों से बनायी जाती हैं।अन्य मालाओं की तरह इन्हें भी खरीद कर संस्कारित कर उपयोग किया जा सकता है।चूँकि माला अपने हाथ से गूँथने का निषेध रुद्राक्ष-प्रकरण में कर आये हैं,अतः उचित है कि बाजार से तैयार हरिद्रा माला ही खरीद लिया जाय।ऊपर वर्णित मुख्य तीन देवताओं- वृहस्पति,गणपति और बगला के किसी भी मंत्र-प्रयोग के लिए हल्दी की माला श्रेष्ठ मानी गयी है।हल्दी-निर्मित माला में एक महान दोष ये है कि यह अन्य मनकों की तरह दीर्घ स्थायी नहीं हैं- रुद्राक्ष,जीवितपुत्रिका,पद्माख आदि की तरह लम्बे समय तक इसे सहेज कर रखना बड़ा कठिन होता है- कीड़े लग जाते हैं,और संस्कार-श्रम व्यर्थ हो जाता है।फिर भी दो बातों का ध्यान रखेंगे तो अपेक्षाकृत दीर्घ-स्थायी हो सकता है- एक तो यह कि संस्कारित माला का नियमित जप-प्रयोग हो,और दूसरी बात यह कि समय-समय पर मनकों में घृतलेप कर दिया करें।माला को अन्यान्य की दृष्टि से बचाने का भी नियम है- दृष्टिपात से माला का गुण नष्ट होता है- इसका ध्यान रखते हुए सम्भव हो तो कभी-कभी एकान्त में खुली घूप में रख दें। जपमालिका में कपूर के टुकड़े डालकर रखने से भी हल्दी की माला को दीर्घजीवन दिया जा सकता है।देवदार,गुग्गुल,धूना(लोहवान नहीं) आदि से समय-समय पर धूपित करने से भी काफी लाभ होता है। एक सज्जन तो फेनाइल आदि रसायनों का प्रयोग कर देते थे- सुरक्षा के लिए,जो कि सर्वथा गलत है।
कृष्णहरिद्रा-(विशिष्ट हरिद्रा)- समान्यतया हल्दी का रंग पीला ही होता है,परन्तु एक खास तरह की हल्दी भी होती है,जो श्यामवर्णी होती है,और इसका गंध भी सामान्य हरिद्रा से किंचित भिन्न होता है- इसमें कपूर जैसी मादक गंन्ध होती है।इसका एक अन्य नाम नरकचूर भी है।तन्त्रशास्त्र में इसका विशेष महत्त्व है।साधना और प्रयोग की शेष विधियाँ पूर्ववत ही होती हैं।पीत हरिद्रा के सभी गुण इसमें विद्यमान हैं,इसके अतिरिक्त कुछ विशिष्ट गुण भी हैं-
उन्माद नाशक- श्याम हरिद्रा को ताबीज में भरकर पीले धागे में गूंथकर रविवार को गले में धारण करा देने से उन्माद रोग का नाश होता है।अनिद्रा,मिर्गी,योषापस्मार(हिस्टीरिया) आदि विभिन्न मानस व्याधियों में भी अद्भुत लाभ होता है।
अदृश्य-बाधा-निवारण- श्याम हरिद्रा की सात,नौ,ग्यारह गांठों की माला बनाकर पुनः धूप-दीपादि संस्कार करके किसी रवि या मंगलवार को गले में धारण करा देने से समस्त वायव्यदोष- टोने-टोटके,ग्रह,भूत-प्रेतादि विघ्नों का शमन होता है।
सौन्दर्य प्रसाधन- सामान्य हरिद्रा की तरह श्याम हरिद्रा का भी सौन्दर्य-प्रसाधनों में प्रयोग किया जाता है-उसके साथ भी या अकेले ही।जल या दूध के साथ लेपन अति गुणकारी होता है।