Thursday, February 28, 2019

वनस्पति तंत्र भाग 17

वनस्पति तंत्र भाग 17

हरिद्रा

 हरिद्रा के लिए प्रचलित शब्द हल्दी है।भारतीय मसालों का राजा- विशेष परिचय का मुंहताज नहीं। वैजयन्ती के आकार की इसकी पत्तियाँ बड़ी खुसबूदार होती हैं।करीब छःईंच चौड़ीं,पन्द्रह-बीस ईंच लम्बी पत्तियाँ आजू-बाजू बृन्त से जुड़ती हुयी,ऊपर बढ़ती जाती हैं;जिससे तथाकथित तने का निर्माण होता है,यानी स्वतन्त्र रुप से तने नहीं होते इसमें।हल्दी इसी पौधे की गाठें हैं।मुख्य गांठ से कुछ सह गाठें भी निकली होती हैं।आम तौर पर एक पौधे से सौ ग्राम से पांचसौ ग्राम तक गांठें प्राप्त होजाती हैं।इनमें करीब अस्सी प्रतिशत जलीयांश होता है।ताजी गाठों को उबाल कर सुखा लेते हैं- यही तैयार हल्दी है।दोमट या बलुई मिट्टी में इसकी अच्छी पैदावार होती है।आषाढ़ के महीने में अंकुरणदार छोटी गांठों को आलू या अदरख की तरह मेड़ बनाकर हल्दी का रोपण होता है।बरसात बाद मेड़ों को फिर से सुडौल करना पड़ता है।आश्विन-कार्तिक में एक-दो बार हल्की सिंचाई करनी होती है।फाल्गुन के शुरुआत में ही पत्तियां मुरझाने लगती हैं- यही पौढ़ता का प्रमाण है।फाल्गुन अन्त में प्रौढ़ पौधों को उखाड़ लिया जाता है। छायादार जगहों में भी इसकी खेती हो सकती है, इस कारण छोटे किसान अपने गृहवाटिका में भी थोड़ा-बहुत लगा लेते हैं,जिससे घरेलू उपयोग सिद्ध होता है।
हल्दी के सम्बन्ध में एक प्रचलित किंवदन्ति है- कोईरी और माली जाति को छोड़कर, अन्य जातियाँ इसका रोपण न करें।यदि करें ही तो लागातार बारह बर्षों तक लगाते रहें,बीच में बाधित न हो- न सम्भव हो तो एक ही गांठ लगायें, लेकिन लगाने का क्रम न टूटे अन्यथा भारी अनिष्ट झेलना पड़ सकता है।इसके पीछे शास्त्रीय प्रमाण या इसका वैज्ञानिक आधार तो मैं नहीं कह सकता,किन्तु इस नियम की जानबूझ कर अवहेलना करने वाले का दुष्परिणाम मैं तीन-चार बार देख चुका हूँ- रोपण बाधित हुआ और अवांछित विपत्ति सिर पर मड़रायी। अतः उचित है कि इसके रोपण से बचें।
एक और बात- सामान्य तौर पर हल्दी में नौ महीने के पैदावार-अवधि में प्रायः फूल लगते ही नहीं हैं। फूल लगने के लिए जितनी परिपक्वता चाहिए,उसके पूर्व ही पौधा मुरझाने लगता है- चाहे लाख जतन करें, किन्तु कभी-कभी अनहोनी सी हो जाती है- आश्विन-कार्तिक के अन्त तक पत्तियों के बीच एक विशेष कोंपल बन जाता है,और थोड़े ही दिनों में उसमें फूल निकल आते हैं।हल्दी में फूल निकलना किसी भारी अनिष्ट का सूचक है- खासकर रोगणकर्ता के लिए,किन्तु इस सम्बन्ध में भी उपर्युक्त नियम लागू होता है- हमेशा लगाने वाले किसान को किसी प्रकार की क्षति नहीं होती।
तन्त्रशास्त्र में हल्दी के फूल को एक दुर्लभ वनस्पति की सूची में रखा गया है।यहाँ इसके प्रयोग पर इशारा मात्र ही उचित समझता हूँ- षटकर्म के तीन निकृष्ट कर्मों में इसका अमोघ प्रयोग है- ब्रह्मास्त्र की तरह
अचूक,दुर्निवार,अद्भुत।सोचसमझ कर इसका प्रयोग करना चाहिए।स्मरण रहे- ब्रह्मास्त्र अर्जुन के पास भी था और अश्वत्थामा के पास भी- एक को परिस्थिति की पहचान थी,और आत्मनियंत्रण की क्षमता;पर दूसरे के पास इन दोनों का अभाव था।अस्तु।
आयुर्वेद में हल्दी के अनेक प्रयोग हैं।दर्द,सूजन,रक्तरोधन-शोधन,व्रणस्थापन आदि इसके विशिष्ट गुण हैं। सौन्दर्य प्रसाधनों में भी काफी प्रयुक्त होता है। होमियोपैथी का हाईड्राइटिस और कुछ नहीं सीधे हल्दी का ही  क्यूफॉर्म है।
पूजापाठ,एवं अन्य मांगलिक कार्यों में हल्दी अति अनिवार्य है।ग्रहों में गुरु वृहस्पति का प्रिय वनस्पति है यह।यूँ तो वृहस्पति की संविधा- पीपल है,और रत्न है पोखराज।किन्तु हरिद्रा पर गुरु की विशेष कृपा है।इतना ही नहीं गणपति विघ्नेश्वर के लिए भी हरिद्रा बहुत ही प्रिय है।माँ पीताम्बरा(बगलामुखी) का तो काम ही नहीं हो सकता हरिद्रा के वगैर।
हरिद्रा ग्रहण विचार- मकर संक्रान्ति(१४जनवरी) से सूर्य उत्तरायण हो जाते हैं।इसके बाद ही कोई शुभ मुहूर्त में हरिद्रा को साधनात्मक रुप से ग्रहण करना उचित है।यूँ तो किसी(रविपुष्य,सर्वार्थसिद्धि,अमृतसिद्धि) योग में विशेष परिस्थिति में ग्रहण किया जा सकता है;किन्तु गुरु का विशेष बल तभी प्राप्त होगा जब गुरुपुष्य योग हो।ध्यान रहे कि उस समय गुरु और साथ ही शुक्र अस्त न हों।चूँकि यह सुलभ प्राप्य द्रव्य है,इस लिए प्रथम प्रयास तो यही हो कि अन्य अध्यायों में बतलायी गयी विधि के अनुसार पूर्वसंध्या को निमंत्रण देकर ही अगले दिन निर्दिष्ट विधि से घर लाया जाय।महानगरीय सभ्यता में जीने वाले महानुभावों को असम्भव या कठिन लगे तो वाजार की उपलब्धि का सहारा ले सकते हैं।दशहरे के बाद बाजार में ताजी हल्दी की गांठे मिल
जाया करती हैं।उचित मुहूर्त का विचार करके सुविधानुसार लाया जा सकता है।जिस किसी विधि से भी प्राप्त हो, घर लाकर पूर्वनिर्दिष्ट विधान से स्थापन-पूजन करने के बाद सर्वप्रथम वृहस्पति के षडक्षर मंत्र (बीजयुक्त पंचाक्षर मंत्र)का १९००० जप करें,तथा दशांश होमादि सम्पन्न करें।प्रसंगवश यहाँ एक बात और स्पष्ट कर दूँ कि हरिद्रा की कोई भी क्रिया करने के लिए वस्त्र-आसन आदि रंग के वजाय हरिद्रा में ही रंजित हों तो अति उत्तम- चाहे उस पर गणपति की क्रिया करनी हो या पीताम्बरा की,या कि गुरु की।इन तीनों को पीत रंग(हरिद्रा)प्रिय है।इतना ही नहीं माला भी हल्दी की गाठों की ही होनी चाहिए।प्रसाद के लिए हल्दियापेड़ा,चने की दाल,वेसन के लड्डू आदि का प्रयोग करना चाहिए।साधक अपने भोजन में भी पीले पदार्थों का (उक्त चीजों) सेवन किया करे।स्नान से पूर्व हल्दी का उबटन अवश्य लगाले,एवं स्नानोपरान्त चन्दन के वजाय हल्दी का ही तिलक प्रयोग करे-कहने का तात्पर्य यह कि हरिद्रा-साधना के लिए हरिद्रामय होजाने की आवश्यकता है।इससे साधना को सुपुष्टि मिलती है,और छोटे-मोटे विघ्न स्वयमेव समाप्त हो जाते हैं।
    उक्त विधि से साधित हरिद्रा को हरिद्रारंजित चावल-सुपारी-नारियल का सूखा गोला आदि के साथ पीले वस्त्र में वेष्ठित कर पूजा-स्थान या तिजोरी में रख दें।नित्य धूप-दीप प्रदर्शित करें और कम से कम एक माला श्रीषडक्षर मंत्र का जप अवश्य कर लिया करें।अक्षय-स्थिर लक्ष्मी के लिए यह अद्भुत प्रयोग है।
  हरिद्रा गणपति प्रयोग- मंत्र-भेद से हरिद्रा के अन्य प्रयोग भी हैं।पूर्व अध्याय- श्वेतार्क-गणपति साधना में बतलाये गये विधान से हरिद्रा-गणपति की साधना भी की जा सकती है।मंत्र और विधि लगभग वही होगा। अन्तर सिर्फ माला-प्रयोग का होगा- वहाँ रुद्राक्ष माला प्रयुक्त होता है,यहाँ हरिद्रा-ग्रन्थि-माला का प्रयोग होना चाहिए।इस क्रिया से सभी प्रकार के विघ्नों का नाश होकर विद्या-वुद्धि-श्री समपन्नता की प्राप्ति होती है।किसी विशेष उद्देश्य से भी हरिद्रा-गणपति की साधना की जा सकती है- जैसे कोई शत्रु अकारण परेशान कर रहा हो, तो उसके शमन के लिए संकल्प में उसका नामोच्चारण करते हुए उक्त मंत्र का तैतीस हजार जप- दशांश होमादि सहित समपन्न करे।हाँ ध्यान रहे- कोई भी क्रिया स्वार्थान्ध होकर न किया जाय,अन्यथा परेशानी हो सकती है।
  पीताम्बरा प्रयोग- उक्त विधि से साधित हरिद्रा-ग्रन्थि को साक्षात् भगवती पीताम्बरा बगलामुखी का श्रीविग्रह स्वरुप घर में स्थापित कर नित्य पूजा-अर्चना करने से षटकर्म की सिद्धि होती है।साधक की वाचाशक्ति अद्भुत रुप से विकसित होती है।सचपूछें तो वाक्-सिद्धि होजाती है।काम-क्रोध-लोभ-मद-मोहादि समस्त अन्तः शत्रुओं का शमन होकर तेजोमय साधन-शरीर का उद्वोधन होता है।वाह्य समस्त शत्रुओं का शमन-दमन तो सामान्य सी बात हो जाती है।ध्यातव्य है कि इस प्रयोग में पीताम्बरा पूजन-विधि और षट्त्रिंश पीताम्बरा मंत्र का सर्वांग अनुष्ठान सम्पन्न करना होता है।पूरा विधान पीताम्बरा-तन्त्र से ग्रहण करना चाहिए।
  हरिद्रा तिलक प्रयोग- उक्त साधित हरिद्रा का तिलक लगाने मात्र से सम्मोहन और वशीकरण सिद्ध होता है। साधक अपने ललाट पर तिलक लगाकर किसी साध्य पर दृष्टिपात करते हुए अपने अभीष्ट का स्मरण मात्र करे, और मानसिक रुप से पीताम्बरा मंत्र या अपने अन्य इष्ट मंत्र का स्मरण करता रहे।
  विषहरण प्रयोग- पीताम्बरा-साधित हरिद्रा खण्ड को पीसकर गोदुग्ध या जल के साथ पिला देने से सभी प्रकार के विषों का निवारण होता है।
  वन्ध्या-त्तन्त्र-प्रयोग- उक्त विधि से कम से कम सवा सेर हरिद्रा-ग्रन्थि को साधित कर किसी सन्तानेच्छु स्त्री को प्रदान करे।स्त्री को चाहिए कि रजोस्नान के पश्चात् उक्त साधित हरिद्रा का घृतपाक विधि से पाक तैयार कर नित्य प्रातः-सायं दो-दो चम्मच सेवन करे गोदुग्ध के साथ- पूरे सताइश दिनों तक।(हरिद्रापाक की विधि सर्वसामान्य है,प्रायः घरों में महिलायें इसका प्रयोग करती हैं सद्यः प्रसूता को देने के लिए- समान मात्रा में हरिद्रा,घी और गूड़ मिश्रित हलवा- वल्य,रक्तशोधक,पीड़ाहर,कोथहर,शोथहर आदि गुणों से भरपूर है।
  प्रेतवाधा-निवारण- किसी भी प्रेतवाधा-ग्रसित व्यक्ति को नवार्ण-साधित हरिद्रा-प्रयोग से वाधा-मुक्त किया जा सकता है।इसके लिए शुभमुहूर्त में- शारदीय नवरात्रादि में- हरिद्रा-साधन करना विशेष महत्त्वपूर्ण होता है।इस प्रकार सिद्द हरिद्रा-ग्रन्थि को पीले कपड़े में बांध कर प्रभावित पुरुष की दांयी भुजा,एवं स्त्री की बायीं भुजा में बांध देने से काफी लाभ होता है। उक्त साधित हरिद्रा को पीस कर,जल में घोलकर प्रभावित व्यक्ति के कमरे,वस्त्र एवं विस्तर पर छिड़काव भी नित्य करते रहना चाहिए।साथ ही उसी हरिद्रा को कमरे में धूपित भी करें।कमरे की खिड़की-दरवाजों पर पीले कपड़ें में बांध कर साधित हरिद्रा की गांठों को स्थापित कर दें।इससे बारबार प्रभावित करने वाली प्रेतवाधा में काफी कमी आयेगी।जल या दूध में घोल कर साधित हरिद्रा को पिलाने से भी काफी लाभ होता है।साधकों को शारदीय नवरात्र में विशेष मात्रा में हरिद्रा का अभिमंत्रण-पूजन लोक-कल्याणार्थ करके सुरक्षित रख लेना चाहिए।विशेष परिस्थिति में तत्काल साधना से भी काम हो सकता है- महत्त्व इस बात का है कि साधक का आत्मबल और उक्त विषयक साधना बल कितना-क्या-कैसा है।
 हरिद्रा-ग्रन्थि-माला-  हल्दी की गाठों की माला का तन्त्र में काफी महत्त्व है।आजकल बनी-बनायी माला भी पूजन-सामग्री-विक्रेताओं के यहाँ उपलब्ध है,जो सूखी हल्दी की गाठों से बनायी जाती हैं।अन्य मालाओं की तरह इन्हें भी खरीद कर संस्कारित कर उपयोग किया जा सकता है।चूँकि माला अपने हाथ से गूँथने का निषेध रुद्राक्ष-प्रकरण में कर आये हैं,अतः उचित है कि बाजार से तैयार हरिद्रा माला ही खरीद लिया जाय।ऊपर वर्णित मुख्य तीन देवताओं- वृहस्पति,गणपति और बगला के किसी भी मंत्र-प्रयोग के लिए हल्दी की माला श्रेष्ठ मानी गयी है।हल्दी-निर्मित माला में एक महान दोष ये है कि यह अन्य मनकों की तरह दीर्घ स्थायी नहीं हैं- रुद्राक्ष,जीवितपुत्रिका,पद्माख आदि की तरह लम्बे समय तक इसे सहेज कर रखना बड़ा कठिन होता है- कीड़े लग जाते हैं,और संस्कार-श्रम व्यर्थ हो जाता है।फिर भी दो बातों का ध्यान रखेंगे तो अपेक्षाकृत दीर्घ-स्थायी हो सकता है- एक तो यह कि संस्कारित माला का नियमित जप-प्रयोग हो,और दूसरी बात यह कि समय-समय पर मनकों में घृतलेप कर दिया करें।माला को अन्यान्य की दृष्टि से बचाने का भी नियम है- दृष्टिपात से माला का गुण नष्ट होता है- इसका ध्यान रखते हुए सम्भव हो तो कभी-कभी एकान्त में खुली घूप में रख दें। जपमालिका में कपूर के टुकड़े डालकर रखने से भी हल्दी की माला को दीर्घजीवन दिया जा सकता है।देवदार,गुग्गुल,धूना(लोहवान नहीं) आदि से समय-समय पर धूपित करने से भी काफी लाभ होता है। एक सज्जन तो फेनाइल आदि रसायनों का प्रयोग कर देते थे- सुरक्षा के लिए,जो कि सर्वथा गलत है।
  कृष्णहरिद्रा-(विशिष्ट हरिद्रा)- समान्यतया हल्दी का रंग पीला ही होता है,परन्तु एक खास तरह की हल्दी भी होती है,जो श्यामवर्णी होती है,और इसका गंध भी सामान्य हरिद्रा से किंचित भिन्न होता है- इसमें कपूर जैसी मादक गंन्ध होती है।इसका एक अन्य नाम नरकचूर भी है।तन्त्रशास्त्र में इसका विशेष महत्त्व है।साधना और प्रयोग की शेष विधियाँ पूर्ववत ही होती हैं।पीत हरिद्रा के सभी गुण इसमें विद्यमान हैं,इसके अतिरिक्त कुछ विशिष्ट गुण भी हैं-
 उन्माद नाशक- श्याम हरिद्रा को ताबीज में भरकर पीले धागे में गूंथकर रविवार को गले में धारण करा देने से उन्माद रोग का नाश होता है।अनिद्रा,मिर्गी,योषापस्मार(हिस्टीरिया) आदि विभिन्न मानस व्याधियों में भी अद्भुत लाभ होता है।
  अदृश्य-बाधा-निवारण- श्याम हरिद्रा की सात,नौ,ग्यारह गांठों की माला बनाकर पुनः धूप-दीपादि संस्कार करके किसी रवि या मंगलवार को गले में धारण करा देने से समस्त वायव्यदोष- टोने-टोटके,ग्रह,भूत-प्रेतादि विघ्नों का शमन होता है।
 सौन्दर्य प्रसाधन- सामान्य हरिद्रा की तरह श्याम हरिद्रा का भी सौन्दर्य-प्रसाधनों में प्रयोग किया जाता है-उसके साथ भी या अकेले ही।जल या दूध के साथ लेपन अति गुणकारी होता है।

वनस्पति तंत्र भाग 16

वनस्पति तंत्र भाग 16

सिन्दूर 

         सिन्दूर किसी विशेष परिचय का मोहताज़ नहीं है- खास कर भारत जैसे देश में,जहां स्त्रियों के  सुहागरज के रुप में मान्यता है इसे।सधवा और विधवा की निशानी है - उसके मांग का सिन्दूर। कुआंरी कन्यायें माँग तो नहीं भरती,पर कंठ में या भ्रूमध्य में लगाने से परहेज भी नहीं करती।आजकल तरह-तरह के रंगों में सिन्दूर मिलते हैं,और अनजाने में स्त्रियां उन्हें अंगीकार भी करती हैं- उसी मर्यादा पूर्वक;किन्तु यह जान लें कि असली सिन्दूर सिर्फ दो ही रंगों का हो सकता है- पीला और लाल।इसके सिवा और कोई रंग नहीं।
        थोड़ा पीछे झांक कर अपनी संस्कृति को ढूढ़ने-देखने का प्रयास करें तो पायेंगे कि जिस सिन्दूर का व्यवहार करने का अधिकार पति द्वारा विवाह-मंडप में दिया जाता है,वह सिन्दूर सिर्फ पीले रंग का ही होता है (लाल भी नहीं),और वजन में भी अन्य सिन्दूर की अपेक्षा भारी होता है।
       ज्ञातव्य है कि असली सिन्दूर का निर्माण हिंगुल(सिमरिख) नामक एक स्थावर पदार्थ से होता है, जिसका रंग पीला और चमकीला होता है।चमक का मुख्य कारण है- इसके अन्दर पारद की उपस्थिति।इसी सिसरिख से उर्ध्वपातन क्रिया द्वारा पारा(Mercury) निकलता है।पारद के पातन के बाद जो अवशेष रहता है, उसी से सिन्दूर बनता है।इसका महंगा होना भी स्वाभाविक ही है।
            गुण-धर्म से सिन्दूर रक्तशोधक,रक्तरोधक,और व्रणरोपक है।आयुर्वेद के विभिन्न औषधियों में भी इसका प्रयोग होता है।कर्मकांड-पूजा-पाठ का विशिष्ट उपादान है सिन्दूर।सभी देवियों को सिन्दूर अर्पित किया जाता है। सिन्दूर के वगैर जैसे सुहागिन का श्रृंगार अधूरा है,उसी प्रकार देवी-पूजन भी अधूरा है।अपवाद स्वरुप, पुरुष देवताओं में हनुमानजी और गणेशजी की पूजा में भी सिन्दूर अत्यावश्यक है।गणेश जी का शिव द्वारा शिरोच्छेदन हुआ था, तब आतुर अवस्था में माता पार्वती सिन्दूर लेपन कर उन्हें रक्षित की थी।राम-दरवार में मुक्ता- माला को खंडित करने पर हँसी के पात्र बने हनुमान ने अपना वक्षस्थल चीर कर सभासदों को चकित कर दिया था- उर में राम-दरवार-दर्शन करा कर।तब सीता माता ने सिन्दूर-लेपन कर उन्हें रक्षित किया था।एक और पौराणिक प्रसंग में सीता के सिन्दूर लगाने के औचित्य और महत्व पर हनुमान द्वारा जिज्ञासा प्रकट की गयी। सीता के यह कहने पर कि "इससे स्वामी की आयु बढ़ती है",श्री हनुमान अपने सर्वांग में सिन्दूर पोत कर दरबार में पुनः हँसी के पात्र बने थे।उनका तर्क था कि सिर्फ शरीर के उर्ध्वांग में थोड़ी मात्रा में भरा गया सिन्दूर जब स्वामी की आयु में वृद्धि कर सकता है, तो क्यों न पूरे शरीर को सिन्दूर से भर लिया जाय।
     बात कुछ और नहीं, ये कथानक सिर्फ सिन्दूर की गरिमा को दर्शाते हैं।
     विवाह काल में वारात जब कन्या के द्वार पर पहुंचती है,उस समय मां-बेटी एकान्त कुलदेवी-कक्ष में बैठ कर गोबर के गौरी-गणेश पर निरन्तर पीला सिन्दूर चढ़ाती रहती हैं- जब तक कि मंडप से कन्या का बुलावा न आजाय।भले ही आज इस अति महत्वपूर्ण क्रिया को लोग महत्वहीन करार देकर पालन करने में भूल कर रहे हों,किन्तु है, यह एक रहस्यमय तान्त्रिक क्रिया,जिसका सम्बन्ध सीधे अक्षुण्ण सुहाग से है।
     सिन्दूर का तान्त्रिक महत्व अमोघ है।यहां कुछ विशिष्ट प्रयोगों की चर्चा की जा रही है-
  कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को हनुमान जी का जन्मोत्सव होता है।दक्षिणात्य मत से चैत्र पूर्णिमा की मान्यता है।किसी अन्य मत से अन्य मास-तिथि भी मान्य है।उक्त दोनों दिन हनुमान जी की आराधना का विशेष महत्त्व है।आठ अंगुल प्रमाण के पत्थर की सुन्दर मूर्ति खरीद कर घर लायें।सामान्य प्राणप्रतिष्ठा-विधान से उसे प्रतिष्ठित करें।यथोपलब्ध पंचोपचार/षोडशोपचार पूजन सम्पन्न करें।नैवेद्य में अन्य सामाग्री हो न हो,भुना हुआ चना और गूड़ अत्यावश्यक है। अब,एक पीतल, कांसा,या तांबा के पात्र में शुद्ध घी और शुद्ध सिन्दूर का मधुनुमा लेप तैयार करें,और उस प्रतिष्ठित मूर्ति की आंखें छोड़कर,शेष सर्वांग में लेपन कर दें।तत्पश्चात् ऊँ हँ हनुमतये नमः का ग्यारह माला जप रुद्राक्ष के साधित माला पर कर लें।यह क्रिया इक्कीश दिनों तक नित्यक्रम से,नियत समय पर करते रहें। इक्कीशवें दिन अन्य प्रसाद के साथ शुद्ध घी में बना गूड़-आंटे का चूरमा(ठेकुआं) अर्पित करें।कम से कम एक माला से उक्त मंत्र पूर्वक तिलादि साकल्य-होम भी कर लें।इस क्रिया से हनुमान जी अति प्रसन्न होते हैं।समस्त मनोकामनाओं की सिद्धि होती है।उक्त क्रिया को अन्य शुभ मुहूर्त में भी प्रारम्भ किया जा सकता है।
 प्रत्येक महीने के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को संकष्टी गणेश चतुर्थी कहते हैं।अगहन महीने में उक्त तिथि से संकट निवारण के लिए गणपति की साधना प्रारम्भ की जा सकती है।सुविधानुसार कुछ पूर्व में सारी तैयारी कर लें- आठ अंगुल प्रमाण की गणेश की  सफेद पत्थर की मूर्ति खरीद लें। सामान्य प्राणप्रतिष्ठा-विधान से उसे प्रतिष्ठित कर लें।यथोपलब्ध पंचोपचार/षोडशोपचार पूजन सम्पन्न करें।नैवेद्य में अन्य सामग्रियों के साथ-साथ मोदक(लड्डु) अवश्य हो।उधर दूर्वा भी अनिवार्य ही है- गणेश-पूजन में- इसे न भूलें। अब,एक पीतल, कांसा,या तांबा के पात्र में शुद्ध घी और शुद्ध सिन्दूर का मधुनुमा लेप तैयार करें,और उस प्रतिष्ठित मूर्ति की आंखें छोड़कर,शेष सर्वांग में लेपन कर दें।तत्पश्चात् पूर्व साधित रुद्राक्ष के माला पर ऊँ गं गणपतये नमः मंत्र का ग्यारह माला जप करें।जप समाप्ति के बाद एक माला से उक्त मंत्रोच्चारण पूर्वक तिलादि साक्लय-होम भी अवश्य कर लें।इस क्रिया को पूरे वर्ष भर इसी विधि से करते रहें- महीने में सिर्फ एक दिन की विशेष क्रिया है,शेष दिनों में सामान्य पूजन और घृत मिश्रित सिन्दूर लेपन तथा एक माला जप भी करते रहें।यह संकष्टी गणेश चतुर्थी व्रत समस्त विघ्नों को समाप्त कर मनोकामना की पूर्ति करने में सक्षम है।
  अक्षय सौभाग्य की कामना प्रत्येक स्त्री को होती है।अतः इस कामना से सभी सौभाग्यकांक्षी स्त्रियां इस तान्त्रिक प्रयोग को कर सकती हैं,खास कर उन स्त्रियों को तो अवश्य ही करना चाहिए, जिनकी कुण्डली में मंगल,शनि,राहु आदि का दोष हो,तथा पति स्थान दुर्बल हो।किसी भी कारण से पति पर आये संकट को दूर करने में भी यह क्रिया सक्षम है।क्रिया विधि- गाय के गोबर से अंगुली के आकार की दो मूर्तियां पीले नवीन कपड़े पर स्थापित करें,और उन्हें गौरी और गणेश के रुप में प्रतिष्ठित कर सामान्य पंचोपचार पूजन करें।पूजन के पश्चात् आम या पान के पत्ते से ऊँ महागौर्यै नमः,ऊँ श्री गणेशाय नमः का उच्चारण करते हुए एक सौ आठ बार पीला सिन्दूर अर्पित करें।संख्या पूरी हो जाने पर कपूर की आरती दिखावें,और अपनी मनोवांछा निवेदन करें।तत्पश्चात् अक्षत छिड़क कर विसर्जन कर दें।यह क्रिया नित्य की है,कम से कम वर्ष भर तक करें।सामान्य स्थिति में तो अगहन महीने के शुक्ल पक्ष की नवमी से प्रारम्भ करनी चाहिए।विशेष संकट की घड़ी में सामान्य पंचांग शुद्धि देख कर कभी भी किया जा सकता है।क्रिया थोड़ा उबाऊ जैसा प्रतीत हो रहा है,किन्तु है अद्भुत और अमोघ। मुख्य रहस्य है- गोबर के गौरी-गणेश को नियमित सुहागरज अर्पित करना।किसी अन्य पदार्थ की मूर्ति पर यही क्रिया उतनी करगर नहीं होगी- इसका ध्यान रखें।
  शुद्ध सिमरिख से बने पीले सिन्दूर को पीले नवीन वस्त्र का आसन देकर,पंचोपचार पूजन करके,उसके समक्ष देवी नवार्ण का कम से कम नौ हजार जप कर सिद्ध कर लें- सुविधानुसार किसी नवरात्र या अन्य शुभ मुहूर्त में,और सुरक्षित रख लें।इस मन्त्राभिषिक्त सिन्दूर की एक चुटकी पुनः अभीष्ट नाम और मंत्र का मानसिक उच्चारण करते हुए जिसे प्रदान किया जायेगा वह वशीभूत होगा,किन्तु ध्यान रहे- किसी बुरे उद्देश्य से यह प्रयोग कदापि न करें।इस प्रकार साधित सिन्दूर का स्वयं भी तिलक के रुप में उपयोग कर, द्रष्टा को वशीभूत किया जा सकता है।

वनस्पति तंत्र भाग 15

वनस्पति तंत्र भाग 15

एकाक्षी नारियल

         नारियल एक सुपरिचित फल है।इसका पौधा मुख्य रुप से समुद्रतटीय इलाकों में पाया जाता है, किन्तु आजकल विभिन्न क्षेत्रों में भी यदाकदा उगाया जा रहा है,भले ही उपलब्धि और विकास अति न्यून हो। भारत के दक्षिणी-पूर्वी प्रान्तों में यह बहुतायत से पाया जाता है।ताड़,खजूर,सुपारी और नारियल के पौधे आकार और वनावट की दृष्टि से काफी साम्य रखते हैं।हाँ,इनके फलों के आकार में पर्याप्त भिन्नता है,फिर भी गौर करें तो काफी कुछ समानता भी है- सुपारी और नारियल में तो और भी सामीप्य है।ये दोनों हमारे धार्मिक कर्मकांडों के विशिष्ट उपादेय हैं।किसी पूजा-कर्म में कलश-स्थापना का महत्त्व है।कलश के पूर्णपात्र पर नारियल या सुपारी को ही वस्त्रवेष्ठित कर रखने का विधान है।तन्त्र-शास्त्र में भी नारियल की महत्ता दर्शायी गयी है।
    यहाँ मेरा विवेच्य- सामान्य नारियल न होकर उसकी एक विशिष्ट फलाकृति है।नारियल का फल रेशेदार कवच में आवेष्ठित रहता है,जिसे बलपूर्वक उतारने के बाद एक और कठोर कवच मिलता है,और उसके
अन्दर सुस्वादु फल भाग होता है।ऊपरी जटा(रेशा) उतारने के बाद गौर करें तो मुख भाग में तीन किंचित गड्ढे (आँखनुमा)दिखाई पड़ेंगे- ये गड्ढे- शेष कवच-भाग की तुलना में कुछ कमजोर भाग होते हैं।इन्हीं भागों से भविष्य में अंकुरण होता है- जो नये पौधे का सृजन करता है।तन्त्र-शास्त्र में इन तीन गड्ढों में दो को आंख और एक को मुख का प्रतीक माना जाता है।नारियल का यह प्राकृतिक वनावट बड़ा ही आकर्षक है।आमतौर पर ये तीन की संख्या में ही होते हैं,किन्तु कभी-कभी तीन के वजाय दो ही निशान पाये जाते हैं।मेरा अभीष्ट यही है।तन्त्र-शास्त्र में इसे ही एकाक्षी नारियल कहा गया है- यानी एक मुख और एक आँख(एकाक्ष)।ऐसा फल बहुत ही दुर्लभ है;किन्तु ऐसा भी नहीं कि अलभ्य है।नारियल की मण्डियों में इसे तलाशा जा सकता है।और इस दुर्लभ वस्तु को धर लाने के लिए किसी मुहूर्त की प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं है- दुर्लभ वस्तु की प्राप्ति ही अपने आप में शुभत्व-सूचक है।हाँ,सिर्फ इतना ध्यान अवश्य रखा जाय कि नारियल "श्री" का प्रतीक है,अतः "श्रीश" के स्मरण के साथ ही इसे ग्रहण करें-
      शुक्लाम्बरधरं देवं शशिवर्णं चतुर्भुजम् , प्रसन्नवदनं ध्यायेत्सर्वविघ्नोपशान्तये।
      व्यासं वसिष्ठनप्तारं सक्तेः पौत्रमकल्मषम् , पराशरात्मजं वन्दे शुकतातं तपोनिधिम्।।
      व्यासाय विष्णुरुपाय व्यासरुपाय विष्णवे , नमो वै ब्रह्मनिधये वासिस्ष्ठाय नमो नमः।
      अचतुर्वदनो ब्रह्मा द्विवाहुरपरो हरिः , अभाललोचनः शम्भुर्भगवान् वादरायणः ।।
श्री विष्णु के इस ध्यान-स्मरण के साथ प्राप्त एकाक्षी नारियल को उचित मूल्य देकर आदर पूर्वक ग्रहण करें, और घर लाकर पवित्र स्थान में रख दें।
     जैसा कि पहले भी अन्य प्रसंगो में कहा गया है- किसी भी तन्त्र-प्रयोज्य वस्तु को शुभ मुहूर्त में साधित करना चाहिए- अमृत सिद्धि,सर्वार्थ सिद्धि,रविपुष्य,गुरुपुष्य आदि किसी उपयुक्त योग का सुविधानुसार चयन करके एकाक्षी नारियल का स्थापन-पूजन करना चाहिए।गंगाजल से प्रक्षालित कर,लाल वस्त्र में आवेष्ठित कर पीतल या ताम्रपात्र में रख कर विधिवत(पूर्व अध्यायों में कथित विधि से)स्थापन पूजन करना चाहिए।पूजनोपरान्त श्री विष्णु और लक्ष्मी के द्वादशाक्षर मन्त्रों का कम से कम सोलह हजार जप,दशांश होमादि विधि सम्पन्न करने के बाद विप्र-भिक्षुक भोजन सदक्षिणा प्रदान कर अनुष्ठान समाप्त करना चाहिए।आगे पूजा स्थान में स्थायी स्थान देकर नित्य पंचोपचार पूजन 
करते रहना चाहिए।जिस घर में नित्यप्रति एकाक्षी नारियल की पूजा होती है,वहाँ लक्ष्मी का अखण्ड वास होता है।

वनस्पति तंत्र भाग 14

वनस्पति तंत्र भाग 14

श्रृगालश्रृंगी 

      जांगम द्रव्यों में श्रृगालश्रृंगी एक अद्भुत और अलभ्य पदार्थ है।सियार के सभी पर्यायवाची शब्दों- जम्बुक,गीदड़ आदि से जोड़कर इसके भी पर्याय प्रचलित हैं;किन्तु सियारसिंगी सर्वाधिक प्रचलित नाम है। आमलोग तो इसके होने पर ही संदेह व्यक्त करते हैं- कुत्ते-सियार के भी कहीं सींग होते हैं? किन्तु तन्त्र शास्त्र का सामान्य ज्ञान रखने वाला भी जानता है कि सियारसिंगी कितना महत्त्वपूर्ण तान्त्रिक वस्तु है। शहरी सभ्यता और पश्चिमीकरण ने नयी पीढ़ी के लिए बहुत सी चीजें अलभ्य बना दी हैं।बहुत सी जानकारियां अब मात्र किताबों तक ही सिमट कर रह गयी हैं,अपना अनुभव और प्रत्यक्ष ज्ञान अति संकीर्ण हो गया है।चांद और मंगल की बातें भले कर लें,जमीनी अनुभव के लिए भी "विकीपीडिया" तलाशना पड़ता है।
   बहुत लोगों ने तो सियार देखा भी नहीं होगा।चिड़ियाघर में शेर की तरह इन बेचारों को स्थान भी शायद ही मिला हो,फिर शहरी बच्चे देखें तो कहां? सियार काफी हद तक कुत्ते से मिलता-जुलता प्राणी है,किन्तु कुत्ते से स्वभाव में काफी भिन्न।एक कुत्ता दूसरे कुत्ते को देखकर गुरगुरायेगा,क्यों कि उसमें थोड़ी वादशाहियत है, शेखी है।कुत्ता बहुत समूह में रहना पसन्द नहीं करता,जब कि सियार बिना समूह के रह ही नहीं सकता। उसकी पूरी जीवन-चर्या ही सामूहिक है।देहात से जुड़े लोगों को सियार का समूहगान सुनने का अवसर अवश्य मिला होगा।वन्य-झाड़ियों में माँद(छोटा खोहनुमा)बनाकर ये रहते हैं।दिन में प्रायः छिपे रहते हैं,और शाम होते ही बाहर निकल कर "हुआ...हुआ" का कर्कस कोलाहल शुरु कर देते हैं।सियारों के इस समूह में ही एक विशेष प्रकार का नर सियार होता जो सामान्य सियारों से थोड़ा हट्ठा-कट्ठा होता है।अपने समूह में इसकी पहचान मुखिया की तरह होती है,आहार-विहार-व्यवहार भी वैसा ही।फलतः डील-डौल में विशिष्ट होना स्वाभाविक है।अन्य सियारों की तुलना में यह थोड़ा आलसी भी होता है- बैठे भोजन मिल जाय तो आलसी होने में आश्चर्य ही क्या?खास कर रात्रि के प्रथम प्रहर में यह अपने माँद से निकलता है।विशेष रुप से कर्कस संकेत-ध्वनि करता है,जिसे सुनते ही आसपास के मांदों में छिपे अन्य सियार भी बाहर आ जाते हैं,और थोड़ी देर तक सामूहिक गान करते हैं- वस्तुतः भोजन की तलाश में निकलने की उनकी योजना, और आह्वानगीत है यह। सामूहिक गायन समाप्त होने के बाद सभी सियार अपने-अपने गन्तव्य पर दो-चार की टोली में निकल पड़ते हैं,किन्तु यह महन्थ(मुखिया)यथास्थान पूर्ववत हुँकार भरते ही रह जाता है।यहां तक कि प्रायः मूर्छित होकर गिर पड़ता है।
   इसी महन्थ के सिर पर (दोनों कानों के बीच) एक विशिष्ट जटा सी होती है,जिसे सियारसिंगी कहते हैं। गोल गांठ को ठीक से टटोलने पर उसमें एक छोटी कील जैसी नोक मिलेगी,जो असलियत की पहचान है। भेंड़-बकरे की नाभी भी कुछ-कुछ वैसी ही होती है,पर उसके अन्दर यह नोकदार भाग नहीं होता।जानकार शिकारी वैसे समय में घात लगाये बैठे रहते हैं- पास के झुरमुटों में कि कब वह मूर्छित हो।जैसे ही मौका मिलता है,झटके से उसकी जटा उखाड़ लेते हैं।चारों ओर से रोयें से घिरा गहरे भूरे (कुछ छींटेदार) रंग का,करीब एक ईंच व्यास का गोल गांठ – देखने में बड़ा ही सुन्दर लगता है।एक सींग का वजन करीब पच्चीस से पचास ग्राम तक हो सकता है।तान्त्रिक सामग्री बेचने वाले मनमाने कीमत में इसे बेचते हैं।वैसे पांच सौ रुपये तक भी असली सियारसिंगी मिल जाय तो लेने में कोई हर्ज नहीं।ध्यातव्य है कि ठगी के बाजार में सौ-पचास रुपये में भी नकली सियारसिंगी काफी मात्रा में मिल जायेगा।रोयें,रेशे,वजन, सब कुछ बिलकुल असली जैसा होगा,असली वाला दुर्गन्ध भी होगा,सुगन्ध भी।वस्तुतः सियार की चमड़ी में लपेट कर सुलेसन से गांठदार बनाया हुआ, मिट्टी-पत्थर भरा होगा।कस्तूरी और सियारसिंगी के नाम से आसानी से बाजार में बिक जाता है।सच्चाई ये है कि कस्तूरी तो और भी दुर्लभ वस्तु है,जो मूलतः, मृग की नाभि से प्राप्त होता है।अतः धोखे से सावधान।
      असली सियारसिगीं जब कभी भी प्राप्त हो जाय,उसे सुरक्षित रख दें,और शारदीय नवरात्र की प्रतीक्षा करें।वैसे अन्य नवरात्रों में भी साधा जा सकता है।गंगाजल से सामान्य शोधन करने के पश्चात् नवीन पीले वस्त्र का आसन देकर यथोपलब्ध पंचोपचार/षोडशोपचार पूजन करें।तत्पश्चात् श्रीशिवपंचाक्षर एवं देवी नवार्ण मन्त्रों का कम से कम एक-एक हजार जप कर लें।इतने से ही आपका सियारसिंगी प्रयोग-योग्य हो गया। प्रयोग के नाम पर तो "बहुत और व्यापक" शब्द लगा हुआ है,किन्तु गिनने पर कुछ खास मिलता नहीं।बस एक ही मूल प्रयोग की पुनरावृत्ति होती है।सियारसिंगी बहुत ही शक्ति और प्रभाव वाली वस्तु है।पूजन-साधन के बाद इसे एक डिबिया में(चांदी की हो तो अति उत्तम) सुरक्षित रख देना चाहिये।रखने का तरीका है कि डिबिया में पीला कपड़ा बिछा दे।उसमें सिन्दूर भर दें,और साधित सियारसिंगी को स्थापित करके,पुनः ऊपर से सिन्दूर भर दें।नित्य पंचोपचार पूजन किया करें।पूजन में सिन्दूर अवश्य रहे।इस प्रकार सियारसिगीं सदा जागृत रहेगा।जहां भी रहेगा,वास्तुदोष,ग्रहदोष आदि को स्वयमेव नष्ट करता रहेगा।किसी प्रकार की विघ्न-वाधाओं से सदा रक्षा करता रहेगा।सियारसिंगी के उस डिबिया से निकाल कर थोड़ा सा सिन्दुर अपेक्षित व्यक्ति को अपेक्षित उद्देश्य(तन्त्र के षटकर्म) से दे दिया जाय तो अचूक निशाने की तरह कार्य सिद्ध करेगा- यही इसकी सबसे बड़ी विशेषता है।प्रयोग करते समय चुटकी में उस खास सिन्दूर को लेकर बस पांच बार पूर्व साधित दोनों मंत्रों का मानसिक उच्चारण भर कर लेना है- प्रयोग के उद्देश्य और प्रयुक्त के नामोच्चारण के साथ-साथ। किन्तु ध्यान रहे- इस दुर्निवार वस्तु का दुरुपयोग बिना सोचे समझे(नादानी और स्वार्थवश) न कर दे,अन्यथा एक ओर तो कार्य-सिद्धि नहीं होती और दूसरी ओर वह साधित सियारसिंगी सदा के निर्बीज(शक्तिहीन)हो जायेगी।शक्तिहीनता का पहचान है कि उसमें से अजीब सा दुर्गन्ध निकलने लगेगा-
सड़े मांस की तरह,जब कि पहले उस साधित सियारसिंगी में एक आकर्षक मदकारी-मोदकारी सुगन्ध निकला करता था- देवी-मन्दिरों के गर्भगृह जैसा सुगन्ध।अतः सावधान- स्वार्थ के वशीभूत न हों।
     प्रसंगवश यहां एक बात और स्पष्ट कर दूं कि सियारसिंगी की साधना में जो सिन्दूर प्रयोग किया जाय वह असली सिन्दूर ही हो,क्यों कि आजकल कृत्रिम पदार्थों से तरह-तरह के सस्ते और महंगे सिन्दूर बनने लगे हैं,जो शोभा की दृष्टि से भले ही महत्वपूर्ण हों,किन्तु पूजा-साधना में उनका कोई महत्व नहीं है।नकली सिन्दूर के प्रयोग से साधना निष्फल होगी- इसमें जरा भी संदेह नहीं।इस सम्बन्ध में इसी पुस्तक में आगे आठवें प्रकरण में- सिन्दुर अध्याय में देख सकते हैं।

वनस्पति तंत्र भाग 13

वनस्पति तंत्र भाग 13

शिवलिंगी

        शिवलिंगी- एक यथा नाम तथा रुप वनस्पति है।एक समय था जब इसके लिए मुझे बहुत भटकना पड़ा था।काफी खोज के बाद कहीं से इसके कुछ बीज उपलब्ध हुए।बीज क्या,मानों साक्षात शिव ही विराजमान हों अर्घ्य में।जी हां, शिवलिंगी के सुपुष्ट बीज को गौर से देखें तो पायेंगे कि प्रत्येक अर्घ्यनुमा बीज एक छोटा सा शिवलिंग समाहित किये हुए हैं अपने अन्दर।बरसात के प्रारम्भ में इन बीजों में अंकुरण होता है,और जाड़ा आते-आते त्रिकोल सी पत्तियां और बेलें घेर लेती हैं आसपास के पौधों को।इसका विस्तार बड़ा ही तीब्र होता है।बड़े मटर की तरह हरे-हरे,किन्तु सफेद धारीदार फल काफी मात्रा में लगते हैं- गुच्छे के गुच्छे।फाल्गुन आते-आते ये फल परिपक्व होकर किंचित लालिमायुक्त हो जाते हैं,और फिर लाली इतनी गहरी हो जाती है कि कालिमा का भ्रम होता है।सफेद धारियों की सुन्दरता और निखर आती है। एक परिपक्व फल में आठ-दस बीज प्राप्त हो जाते हैं।लाल गुद्दों के बीच काले बीज बड़े ही सुन्दर लगते हैं।चुंकि इसके फल का स्वाद थोड़ा तीता होता है,इस कारण पक्षियों से फल की बरबादी भी नहीं होती।पके फलों को तोड़ कर सुखा लेते हैं- सुखाने से पहले उन्हें फोड़-मसल देना जरुरी होता है,अन्यथा पूरे फल को सूखने में काफी समय लगता है।उपरी तुष भाग को हटाकर स्वच्छ बीजों का संग्रह कर लिया जाता है।वर्तमान समय में इन बीजों का बाजार मूल्य पांच सौ से हजार रुपये प्रति किलोग्राम है।किन्तु इसकी खेती बिलकुल आसान है।कहीं भी व्यर्थ सी जमीन पर मौसम में बीज बो दें।विना श्रम के लता तैयार हो जायेगी।
       शिवलिगीं को फाल्गुन मास की महाशिवरात्रि(कृष्ण त्रयोदशी-चतुर्दशी) को पूर्व संध्या के विधिवत निमंत्रण पूर्वक ग्रहण करना चाहिए।धो-पोंछ साफ करके लाल या पीले नवीन वस्त्र का आसन देकर अन्य वनस्पतियों में बतलाये गये विधान से पंचोपचार पूजन करके श्री शिवपंचाक्षर एवं देवी नवार्ण तथा कामदेव मंत्रों का कम से कम एक-एक हजार जर कर लेना चाहिए।इस प्रकार उस दिन की क्रिया पूर्ण हो गयी।आगे प्रयोग के समय पुनः संकल्प पूर्वक(जिसे उपयोग के लिए देना हो उसके नाम सहित) उक्त तीनों मंत्रों का क्रमशः एक-एक हजार जप करना चाहिए,तभी सम्यक् रुप से प्रयोग के योग्य होता है।
      शिवलिंगी का सर्वाधिक प्रयोग सन्तानेच्छु के लिए है।इसके सेवन से हर प्रकार का बन्ध्यत्त्व दोष नष्ट होकर सुन्दर-सुपुष्ट सन्तान की प्राप्ति होती है।सन्तान की कामना वाली स्त्री को उक्त प्रकार से अभिमंत्रित शिवलिंगी बीज यथेष्ट मात्रा में दे दें।ऋतु स्नान के पांचवे दिन से प्रारम्भ कर पुनः ऋतु आने तक(लगभग सताइस दिनों तक)सेवन कराना चाहिए- ताजो गोदुग्ध के साथ सात-सात दाने नित्य प्रातः-सायं।सेवन की इस क्रिया को पुनः अगले महीने भी उसी तरह जारी रखे।इस प्रकार कम से कम छः महीने यह क्रम जारी रहे।विशेष लाभ के लिए इसके साथ इसी विधि से साधित जीयापोता(जिऊत्पुत्रिका)बीज को भी चूर्ण कर
मिला लेना चाहिए।
     शिवलिंगी के बीजों को पवित्रता पूर्वक घर में रख कर नित्य पूजन भी किया जा सकता है।इससे शिव की प्रसन्नता प्राप्त होकर सर्वसुख-प्राप्ति होती है।एक बार का संग्रहित बीज दो-तीन बर्षों तक उपयोगी हो सकता है।आगे उन्हें विसर्जित कर पुनः नवीन बीज ग्रहण कर लेना चाहिए।

वनस्पति तंत्र भाग 12

वनस्पति तंत्र भाग 12

लक्ष्मणा

         लक्ष्मणा एक सुपरिचित वनस्पति है,जो कटेरी की तरह होता है।डाल,पत्ते,फल सभी वैसे ही होते है।अन्तर सिर्फ फूलों के रंग का है- इसके फूल नीले के वजाय सफेद होते हैं।रेगनी,कंटकारी आदि इसके अन्य प्रचलित नाम हैं।आयुर्वेद में कफ-पित्त शामक औषधियों में इसका उपयोग होता है।आकार भिन्नता से इसके दो प्रकार हैं- बड़ी कटेरी और छोटी कटेरी।कुछ लोगों का विचार है कि लक्ष्मणा इन चारों से भिन्न,विलकुल ही अलग प्रकार की वनस्पति है।आयुर्वेद का प्रसिद्ध औषध- फलघृत का यह विशिष्ट घटक है।
    तान्त्रिक प्रयोग हेतु लक्ष्मणा को ग्रहण करने का विधान अन्य वनस्पतियों की तुलना में थोड़ा निराला है- रविपुष्य(विशेष कर सूर्य के पुष्य नक्षत्र में पड़ने वाले रविवार) योग की पूर्व संध्या को विधिवत जलाक्षतादि से आमंत्रण दे आना चाहिए।फिर अगले दिन(मुहूर्त वाले दिन) ब्रह्ममुहूर्त में अन्य पूजन सामग्रियों के साथ एक सहयोगी और खनन-उपकरण लेकर उस स्थान पर पहुंचे।स्वाभाविक है कि उस वक्त अन्धेरा रहेगा,अतः साथ में रौशनी का साधन भी जरूरी है।पौधे के समीप पहुंच कर पूजन सामग्री पास में रख दें,और स्वयं विलकुल निर्वस्त्र हो जाए।इसी अवस्था में पौधे की पंचोपचार पूजा करें।

पूजन-मन्त्र- 
ऊँ नमो भगवते रुद्राय सर्ववदनी त्रैलोक्य कास्तरणी ह्रूँ फट् स्वाहा ।
इस मंत्र को बोलते हुए सभी सामग्री अर्पित करें,और पूजा समाप्ति के पश्चात्  मम कार्यं सिद्धिं कुरु- कुरु स्वाहा- कहते हुए पौधे को समूल ऊखाड़ लें।
   घर लाकर अन्य वनस्पतियों की तरह ही इसे भी शुद्ध जल,गंगाजल आदि से शोधन करके,नवीन पीले वस्त्र के आसन पर रख कर प्राण-प्रतिष्ठा पूर्वक पंचोपचार पूजन करें।पुनः पूर्वोक्त मंत्र का सहस्र जप करें,दशांश होमादि विधान सहित।इस प्रकार प्रयोग के योग्य सिद्ध लक्ष्मणा को सुरक्षित रख दें।
    इस वनस्पति को दीपावली,नवरात्रि आदि विशेष अवसरों पर भी सिद्ध किया जा सकता है।मंत्र और विधान समान ही होगा।हां,विशेषकर दीपावली के अवसर पर सिद्ध किये जाने वाले लक्ष्मणा का प्रयोग काफी महत्त्वपूर्ण होता है। दीपावली की रात्रि में उक्त विधि से पूर्व साधित लक्ष्मणा को पुनः   एक अन्य मंत्र से जागृत करना चाहिए- देवी नवार्ण के तीसरे बीज से।इस मंत्र का कम से कम तीन हजार या अधिक से अधिक नौ हजार जप कर लें।इस क्रिया से उसमें अद्भुत शक्ति आजाती है।
    
तान्त्रिक प्रयोग-
 साधित लक्ष्मणा का पंचाग जल में पीस कर गोलियां बना लें।इन गोलियों का प्रयोग आकर्षण और वशीकरण के लिए किया जा सकता है।प्रयोग के समय अमुकं आकर्षय-आकर्षय को "तीसरे बीज" से सम्पुटित कर सात बार उच्चारण करते हुए एक गोली अभीष्ट व्यक्ति को खिला देना चाहिए।
  सन्तान की इच्छा वाली स्त्री मासिक स्नान के पांचवें दिन से प्रारम्भ कर इक्कीश दिन तक नित्य प्रातः-सायं दो-दो गोली उक्त लक्ष्मणा वटी को गोदुग्ध के साथ सेवन करे तो निश्चित ही सुन्दर,सुपुष्ट सन्तान की प्राप्ति होती है।हां, यदि पुरुष में भी कोई कमी हो तो उसकी चिकित्सा भी अनिवार्य है।उसे भी यही गोली चौआलिस दिनों तक सेवन कराना चाहिए,साथ ही रोग-लक्षणानुसार इस पुस्तक के अन्य प्रसंग में बतलायी गई तन्त्रौषधियों का प्रयोग भी करना चाहिए।
  साधित लक्ष्मणा-पंचांग के साथ अन्य विशिष्ट वनस्पतियों के मिश्रण से घृतपाक विधान से फलघृत तैयार कर सेवन करने से विभिन्न वन्ध्यत्व दोषों का निवारण होकर सन्तान-सुख प्राप्त होता है।फलघृत की सामग्री-सूची भैषज्यसंग्रग में देखना चाहिए।बाजार में उपलब्ध फलघृत खरीद कर उसे भी नवार्ण एवं मन्मथ मंत्र से साधित कर प्रयोग किया जा सकता है।
  स्वस्थ-सामान्य स्त्री-पुरुष भी साधित लक्ष्मणा पंचांग को चूर्ण या वटी रुप में उक्त विधि से सेवन कर अत्यधिक कामानन्द की प्राप्ति कर सकते हैं।सहवास-सुख में वृद्धि(स्तम्भन,वाजीकरण)
लक्ष्मणा का विशिष्ट गुण है।

वनस्पति तंत्र भाग 11

वनस्पति तंत्र भाग 11

गोरोचन

       जांगम द्रव्यों में गोरोचन आज के जमाने में एक दुर्लभ वस्तु हो गया है।वैसे नकली गोरोचन पूजा-पाठ की दुकानों में भरे पड़े हैं।छोटी-छोटी प्लास्टिक की शीशियों में उपलब्ध होने वाले पीले से पदार्थ को गोरोचन से दूर का भी सम्बन्ध नहीं है।
      गोरोचन मरी हुयी गाय के शरीर से प्राप्त होता है।कुछ विद्वान का मत है कि यह गाय के मस्तक में पाया जाता है,किन्तु वस्तुतः इसका नाम "गोपित्त" है,यानी कि गाय का पित्त। शरीर में सर्वव्यापी पित्त का मूल स्थान पित्ताशय(Gallbladar) होता है।पित्ताशय की पथरी आजकल की आम बीमारी जैसी है।मनुष्यों में इसे शल्यक्रिया द्वारा बाहर निकाल दिया जाता है।गाय की इसी बीमारी से गोरोचन प्राप्त होता है।वैसे स्वस्थ गाय में भी किंचित मात्रा में पित्त तो होगा ही- उसके पित्ताशय में,जिसे आसानी से प्राप्त किया जा सकता है। मस्तक के एक खास भाग पर भी यह पदार्थ- गोल,चपटे,तिकोने,लम्बे,चौकोर- विभिन्न आकारों में एकत्र हो जाता है,जिसे चीर कर निकाला जा सकता है।हल्की लालिमायुक्त पीले रंग का यह एक अति सुगन्धित पदार्थ है,जो मोम की तरह जमा हुआ सा होता है।ताजी अवस्था में लस्सेदार,और सूख जाने पर कड़ा- कंकड़ जैसा हो जाता है।
     गोपित्त,शिवा,मंगला,मेध्या,भूत-निवारिणी,वन्द्य आदि इसके अनेक नाम हैं,किन्तु सर्वाधिक प्रचलित नाम गोरोचन ही है।शेष नाम साहित्यिक रुप से गुणों पर आधारित हैं।गाय का पित्त- गोपित्त।शिवा- कल्याणकारी।मंगला- मंगलकारी।मेध्या- मेधाशक्ति बढ़ाने वाला।भूत-निवारिणी- भूत से त्राण दिलाने वाला।वन्द्य- पूजादि अति वन्द्य- आदरणीय।
    आयुर्वेद और तन्त्र शास्त्र में इसका विशद प्रयोग-वर्णन है।अनेक औषधियों में इसका प्रयोग होता है। यन्त्र-लेखन,तन्त्र-साधना,तथा सामान्य पूजा में भी अष्टगन्ध-चन्दन-निर्माण में गोरोचन की अहम् भूमिका है। हालाकि विभिन्न देवताओं के लिए अलग-अलग प्रकार के अष्टगन्ध होते हैं,किन्तु गोरोचन का प्रयोग लगभग प्रत्येक अष्टगन्ध में विहित है।
    गोरोचन को रविपुष्य योग में साधित करना चाहिए।सुविधानुसार कभी भी प्राप्त हो जाय,किन्तु साधना हेतु शुद्ध योग की अनिवार्यता है।साधना अति सरल है- विहित योग में सोने या चांदी,अभाव में तांबे के ताबीज में शुद्ध गोरोचन को भर कर यथोपलब्ध पंचोपचार/षोडशोपचार पूजन करें।तदुपरान्त अपने इष्टदेव का सहस्र जप करें,साथ ही शिव / शिवा के मंत्रो का भी एक-एक हजार जप अवश्य कर लें।इस प्रकार साधित गोरोचन युक्त ताबीज को धारण करने मात्र से ही सभी मनोरथ पूरे होते है- षटकर्म-दशकर्म आदि सहज ही सम्पन्न होते हैं।गोरोचन में अद्भुत कार्य क्षमता है।सामान्य मसी-लिखित यन्त्र की तुलना में असली गोरोचन द्वारा तैयार की गयी मसी से कोई भी यन्त्र-लेखन का आनन्द ही कुछ और है।ध्यातव्य है कि कर्म शुद्धि,भाव शुद्धि को साथ द्रव्य शुद्धि भी अनिवार्य है।
   

गोरोचन के कतिपय तान्त्रिक प्रयोग-
  साधित गोरोचन युक्त ताबीज को घर के किसी पवित्र स्थान में रख दें,और नियमित रुप से,देव-प्रतिमा की तरह उसकी पूजा-अर्चना करते रहें।इससे समस्त वास्तु दोषों का निवारण होकर घर में सुख-शान्ति-समृद्धि आती है।
 नवग्रहों की कृपा और प्रकोप से सभी अवगत हैं।इनक प्रसन्नता हेतु जप-होमादि उपचार किये जाते हैं। किन्तु गोरोचन के प्रयोग से भी इन्हें प्रसन्न किया जा सकता है।साधित गोरोचन को ताबीज रुप में धारण करने, और गोरोचन का नियमित तिलक लगाने से समस्त ग्रहदोष नष्ट होते हैं।
  प्रेतवाधा युक्त व्यक्ति को गुरुपुष्य योग में साधित गोरोचन से भोजपत्र पर सप्तशती का "द्वितीय बीज" लिख कर ताबीज की तरह धारण करा देने से विकट से विकट प्रेतवाधा का भी निवारण हो जाता है।
  मृगी,हिस्टीरिया आदि मानस व्याधियों में गोरोचन(रविपुष्य योग साधित) मिश्रित अष्टगन्ध से नवार्ण मंत्र लिख कर धारण कर देने से काफी लाभ होता है।
  उक्त बीमारियों में गोरोचन को गुलाबजल में थोड़ा घिसकर तीन दिनों तक लागातार तीन-तीन बार पिलाने से अद्भुत लाभ होता है।यह कार्य किसी रवि या मंगलवार से ही प्रारम्भ करना चाहिए।
 षटकर्म के सभी कर्मों में तत् तत् यंत्रों का लेखन गोरोचन मिश्रित मसी से करने से चमत्कारी लाभ होता है।
 धनागम की कामना से गुरुपुष्य योग में विधिवत साधित गोरोचन का चांदी या सोने के कवच में आवेष्ठित कर नित्य पूजा-अर्चना करने से अक्षय लक्ष्मी का वास होता है।
  विभिन्न सौदर्य प्रसाधनों में भी गोरोचन का प्रयोग अति लाभकारी है।हल्दी,मलयागिरी चन्दन,केसर, कपूर,मंजीठ और थोड़ी मात्रा में गोरोचन मिलाकर गुलाबजल में पीसकर तैयार किया गया लेप सौन्दर्य कान्ति में अद्भुत विकास लाता है।इस लेप को चेहरे पर लगाने के बाद घंटे भर अवश्य छोड़ दिया जाय ताकि शरीर की उष्मा से स्वतः सूखे।

वनस्पति तंत्र भाग 10

वनस्पति तंत्र भाग 10

बहेड़ा

 त्रिफला समूह का एक घटक – बहेड़ा का संस्कृत नाम विभीतक है।हिन्दी में इसे बहेरा कहते हैं। इसका एक तान्त्रिक नाम भूतवृक्ष भी है।मान्यता है कि बहेरा के वृक्ष पर आरुढ़ होकर,अथवा इसके तल में आसन लगाकर साधना करने से विशेष लाभ होता है- क्रिया शीघ्र फलीभूत होती है।इसके विशालकाय वृक्ष जंगलों में बहुतायत से पाये जाते हैं।बहेड़ा के फलों के त्वक भाग को विभिन्न आयुर्वेदिक औषधियों में प्रयोग किया जाता है।बड़े मटर सदृश कठोर बीज के अन्दर की गिरि का भी औषधीय उपयोग होता है।खाने में कुछ-कुछ चिनियां वादाम जैसा स्वाद होता है इस अन्तः मज्जा का। तन्त्र शास्त्र में बहेड़ा के मूल,त्वक और पत्र भाग का उपयोग किया जाता है।मंत्र शास्त्र में साधना के योग्य निर्दिष्ट अन्य स्थानों के साथ बहेड़े की भी  चर्चा है। किसी जलाशय(नदी-तालाब) के समीप बहेड़ा का वृक्ष हो तो रात्रि में उसके नीचे बैठ कर तान्त्रिक क्रियायें (जपादि) करने से आशातीत सफलता मिलती है। योगिनी और यक्षिणी साधना में बहेड़े की शाखा पर आरुढ़ होकर जप करने का विधान है। समान्य आसन और स्थान की तुलना में विभीतक-शाखारुढ़ साधना अनन्त गुना फलदायी होती है।सीधे विभीतक-साधना भी करने का विधान है- इसमें चयनित विभीतक वृक्ष को ही तान्त्रिक क्रिया द्वारा साधित कर लिया जाता है,जिसका उपयोग साधक अपनी आवश्यकतानुसार करता है। इस प्रकार एक साधित विभीतक वृक्ष से सौकड़ों-हजारों लोगों का कल्याण किया जा सकता है।किन्तु उस साधित वृक्ष की मर्यादा की सुरक्षा एक बहुत बड़ी जिम्मेवारी हो जाती है- उस साधक के लिए।क्यों कि जाने-अनजाने यदि किसी अन्य व्यक्ति ने उसका प्रयोग कर लिया तो भारी परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है। मेरे एक सम्बन्धी सज्जन ने अपने घर के समीप विधिवत तालाब खुदवाया। उसके पिंड पर चारोंओर विभिन्न उपयोगी वनस्पतियों को स्थापित किया। नैऋत्य कोण पर विभीतक वृक्ष लगाये। समुचित विकास के बाद उसकी विधिवत साधना सम्पन्न की। जीवन भर काफी लाभ उठाये- नाम,यश,कीर्ति,लोक कल्याण – सब कुछ बटोरा,किन्तु शरीर थकने पर वृक्ष की मर्यादा का घोर उलंघन हुआ,भारी दुरुपयोग भी;और इसका परिणाम भी सामने आया- रहा न कुल में रोअन हारा।अस्तु।
       किसी भी वनस्पति का सीधे उपयोग करने से उसके औषधीय गुण तो प्राप्त होते ही हैं,किन्तु ग्रहण- मुहूर्त और अन्य विधान के साथ उपयोग करने पर चमत्कारिक रुप से गुणों में वृद्धि हो जाती है- ऐसा हमारे मनीषाओं का अनुभव रहा है। पुराने समय में आयुर्वेदज्ञ इस बात को जानते थे,और सम्यक् रुप से पालन भी करते थे,यही कारण था कि औषधियां बलवती होती थी;किन्तु आज हर वस्तु का वाजारीकरण हो गया है, जिससे मांग बढ़ गयी है,और पूर्ति के लिए नियमों की धज्जियां ऊड़ायी जा रही है।फलतः अविश्वास का बोलबाला है।दूसरी बात है कि लोभ-मोहादि दुर्गुणों का बाहुल्य हो गया है।अनाधिकारियों के हाथ लग कर
वस्तु हो या शास्त्र- अपनी मर्यादा खो चुका है।अतः इन बातों का सदा ध्यान रखना चाहिए।
      बहेड़ा के वृक्ष की साधना विभिन्न(बारहो महीने के शुक्ल पक्ष प्रतिपदा से नवमी पर्यन्त) नवरात्रियों में करनी चाहिए।किसी खास अंग(मूल,पत्र,फल,त्वकादि) का प्रयोग करना हो तो किसी रविपुष्य,सोमपुष्य का चयन कर लेना चाहिए,जो भद्रादि कुयोग रहित हो।
विशिष्ट मंत्र- ऊँ नमः सर्व भूताधिपतये ग्रस-ग्रस शोषय-शोषय भैरवीं चाज्ञायति स्वाहा।
   पूर्व संध्या को जलाक्षतादि सहित निमंत्रण देकर आगामी प्रातः पंचोपचार पूजन करके प्रयोज्यांग ग्रहण करें। अंग-ग्रहण करते समय उक्त मंत्र का निरंतर मानसिक जप चलता रहे।घर लाकर विधिवत- पीत या रक्त नवीन वस्त्र का आसन देकर पुनः पंचोपचार पूजन करे,तदुपरान्त श्री शिवपंचाक्षर मंत्र तथा सोम पंचाक्षर मंत्रों का कम से कम ग्यारह-ग्यारह माला जप करें।पूरे वृक्ष की साधना करनी हो तो उक्त मंत्रों के जप के बाद लागातार चौआलिस दिनों तक देवी नवार्ण मंत्र का जप दशांश होमादि सहित सम्पन्न करना चाहिए।इस प्रकार सिद्ध विभीतक के ऊपर आरुढ़ होकर,अथवा तल में आसन लगाकर यथेष्ट योगिनी मंत्र का जप करना चाहिए।


प्रयोगः-
  साधित बहेड़ा का पत्ता और जड़ भण्डार,तिजोरी,बक्से आदि में रखने से धन-धान्य की वृद्धि होती है। यह निश्चित प्रभावशाली और सरल प्रयोग है।पांच-सात-नौ पत्ते और थोड़े से मूल भाग पर साधना करके यह प्रयोग किया जा सकता है।
 उदर-विकारों- मन्दाग्नि,अपच,उदर-शूल,कोष्टवद्धता, आदि के निवारण में साधित बहेड़ा-मूल का चमत्कारिक लाभ लिया जा सकता है।प्रयोग के लिए अन्य औषधियों की तरह इसे खाना नहीं है,बल्कि खाते समय पवित्र आसन(पीढ़ा,कम्बल आदि)पर बैठ जाये और पुरूष अपनी दायीं जंघा के नीचे,तथा स्त्रियां अपनी वायीं जंघा के नीचे इसके साधित मूल को दबा कर बैठ जायें।भोजन के बाद मूल और आसन दोनों को मर्यादा पूर्वक उठाकर रख दें।पुनः भोजन के वक्त उसका उसी प्रकार उपयोग करें।ऐसा कम से कम सात-नौ या ग्यारह दिन लागातार करना चाहिए।विशेष परिस्थिति में इक्कीश दिन तक भी करना पड़ सकता है।तन्त्र-प्रभाव से भोजन सुपाच्य हो जाता है।प्रभावित अंग की क्रिया-विकृति में शनैः-शनैः सुधार हो जाता है।
  धातु क्षीणता के रोगी ताजे बहेड़ा के फलों को एकत्र करें अथवा लाचारी में बाजार से खरीद कर ही लायें।उक्त विधि से साधना सम्पन्न करें।अब तोड़कर फल के त्वक भाग को अलग करलें,और चूर्ण
या क्वाथ के रुप में उसका प्रयोग इक्कीश दिनों तक करें।साथ ही कठोर बीज को भी पुनः फोड़ कर अन्दर की मज्जा को बाहर निकालें।चार-छः मज्जा नित्य प्रातः-सायं गोदुग्ध के साथ सेवन करें।अद्भुत लाभ होगा।

वनस्पति तंत्र भाग 9

वनस्पति तंत्र भाग 9

गोरखमुण्डी
      गोरखमुण्डी एक सुलभप्राप्य वनस्पति है।इसके छोटे-छोटे पौधे गेहूं,जौ,रब्बी आदि के खेतों में बहुतायत से पाये जाते हैं।प्रायः जाड़े में स्वतः उत्पन्न होने वाले ये बड़े घासनुमा पौधे गर्मी आते-आते परिपक्व होजाते हैं।दो-तीन ईंच लम्बी दांतेदार पत्तियों के ऊपरी भाग में, गुच्छों में छोटे-छोटे घुण्डीदार फल लगते हैं,जो वस्तुतः फूल के ही सघन परिवर्तित रुप हैं।ये पौधे यदाकदा जलाशयों के जल सूखजाने के बाद वहाँ भी स्वतः उत्पन्न हो जाते हैं।आयुर्वेद में रक्तशोधक औषधी के रुप में इसका उपयोग होता है।
     ऐसी मान्यता है कि इसके तान्त्रिक प्रयोगों के जनक तन्त्र गुरू गोरखनाथजी हैं,और उनके नाम पर ही सामान्य मुण्डी गोरखमुण्डी हो गया।पूर्व अध्यायों में वर्णित विधि से इसे ग्रहण करके उपयोग करने से कई लाभ मिलते हैं।
  तन्त्र-सिद्ध गोरखमुण्डी को (पंचाग) सुखा कर चूर्ण बनालें।इसे शहद के साथ नित्य प्रातः-सायं एक-एक चम्मच की मात्रा में खाने से बल-वीर्य,स्मरण-क्षमता,चिन्तन और धारणा तथा वाचा-शक्ति का विकास होता है।
  इसके चूर्ण को रात भर भिगोकर,सुबह उस जल से सिर धोने से केश-कल्प का कार्य करता है।
   गोरखमुण्डी के ताजे स्वरस को शरीर पर लेप करने से ताजगी और स्फूर्ति आती है।त्वचा की सुन्दरता बढ़ती है।
   गोरखमुण्डी के चूर्ण को जौ के आटे में मिलाकर(चार-एक की मात्रा में),रोटी बनाकर,गोघृत चुपड़ कर खाने से बल-वीर्य की बृद्धि होकर वुढ़ापे की झुर्रियां मिटती हैं।शरीर कान्तिवान होता है।
   गोरखमुण्डी का सेवन दूषित रक्त को स्वच्छ करता है।विभिन्न रक्तविकारों में इसे सेवन करना चाहिए।
उक्त सभी प्रयोग सामान्य औषधि के रुप में भी किये जा सकते हैं,किन्तु तान्त्रिक विधान से ग्रहण करके,साधित करके उपयोग में लाया जाय तो लाभ अधिक होगा यह निश्चित है।

वनस्पति तंत्र भाग 8

वनस्पति तंत्र भाग 8

अपामार्ग

         अपामार्ग का प्रचलित नाम चिड़चिड़ी है।लटजीरा,चिरचिटा,और ओंगा आदि नामों से भी इसे जाना जाता है।क्षुप जातिय यह एक सर्वसुलभ वनस्पति है,जिसका अंकुरण बरसात के प्रारम्भ में होता है,और कई वर्षों तक पुष्पित-पल्लवित होते रहता है।अंकुरण के दो-ढाई महीने बाद पुष्पित होता है,और जाड़ा आते-आते सभी फूल परिपक्व फल में परिणत हो जाते हैं।फलों के तुष भाग को रगड़ कर अलग करने पर सावां की कन्नी की तरह छोटे-छोटे चावल निकलते हैं,जिनका आयुर्वेद और तन्त्र में विशेष प्रयोग होता है।साधु-संतो के बीच इसका बड़ा ही महत्त्व है,क्यों कि क्षुधा-तृषा पर नियंत्रण रखने में बहुत ही कारगर है। गहरे हरे रंग की एक ईंच गोलाई वाली चिकनी पत्तियां वड़ी मनोहर लगती हैं।ज्योतिष शास्त्र में बुध ग्रह की यह संमिधा माना गया है।रंग-भेद से अपामार्ग प्रायः दो प्रकार का होता है- श्वेत और रक्त।सामान्य तौर पर यह भेद स्पष्ट नहीं होता,किन्तु गौर से देखने पर पत्तियों और डंठल में किंचित रंगभेद दीख पड़ता है।इसके पौधे प्रायः एक वर्ष में ही सूख जाते हैं,किन्तु कुछ पौधे कई वर्षों तक पुष्पित-पल्लवित होते हुए भी देखे गये हैं। ये पौधे बड़े और पुराने होने पर झाड़ीनुमा हो जाते हैं ।आयुर्वेद और तन्त्र में इसके पंचागों का अलग-अलग प्रयोग है।
     अपामार्ग को किसी रविपुष्य योग में(भद्रादि रहित) ग्रहण किया जा सकता है,किन्तु सूर्य जब पुष्य नक्षत्र में हों,उस वक्त मिलने वाले रवि या सोमवार को ग्रहण करना विशेष लाभदायक माना गया है।कुछ लोग सौर्यपुष्य के बुधवार को भी ग्रहण करना उचित समझते हैं।अन्य वनस्पतियों की तरह (जो पुस्तक के प्रारम्भिक अध्यायों में स्पष्ट है) ही इसे भी पूर्व संध्या को आमंत्रण देकर, अगले दिन विधिवत पंचोपचार पूजन कर घर लाना चाहिए। पूरे पौधे को जड़ सहित उखाड़ कर ,घर लाकर हरे रंग के नवीन कपड़े पर आसन देकर पंचोपचार पूजन करना चाहिए।तदुपरान्त श्री शिवपंचाक्षर,सोम पंचाक्षर,एवं बुध पंचाक्षर मंत्रों का कम से कम एक-एक हजार जप- दशांश होमादि सहित सम्पन्न करें।इस प्रकार अब अपामार्ग प्रयोग के योग्य तैयार हो गया।
     अपामार्ग के कतिपय प्रयोगः-
 रक्त अपामार्ग के डंठल से नियमित दातुन करने से वाणी में अद्भुत चमत्कार उत्पन्न हो जाता है। प्रयोग-कर्ता की वाचा-सिद्धि हो जाती है।
 लाल ओंगा की जड़ को भस्म करके, नियमित गो दुग्घ के साथ एक-एक ग्राम सेवन करने वाले दम्पति को सन्तान सुख की प्राप्ति होती है।
 अपामार्ग के बीजों को साफ करके चावल निकाल लें।उन चावलों के दश ग्राम की मात्रा लेकर आठ गुने गोदुग्ध में पूर्णिमा की रात को मिट्टी के नवीन पात्र में पकावें।पूरी पाक-प्रक्रिया में सोमपंचाक्षर मंत्र का जप मानसिक रुप से चलता रहे।तैयार पाक को चन्द्रमा को नैवेद्य अर्पण करके श्रद्धा-प्रेम सहित ग्रहण करें।इस पाक में अद्भुत क्षमता है।क्षय,दमा जैसी फेफड़े की विभिन्न वीमारियां दो-चार बार के प्रयोग से समूल नष्ट हो जाती हैं।
  उक्त विधि से तैयार पाक को ग्रहण करने से बल-वीर्य की बृद्धि के साथ क्षुधा-तृषा पर चमत्कारिक रुप से नियंत्रण होता है।किसी लम्बे अनुष्ठान में इस पाक का प्रयोग किया जा सकता है।एक सुपुष्ट विस्तृत पौधे से दो-सौ ग्राम तक चावल प्राप्त किया जा सकता है,जो कई बार प्रयोग करने हेतु पर्याप्त है।
  साधित श्वेत अपामार्ग-मूल को पास में(पर्स आदि में) रखने से अप्रत्याशित धनागम के स्रोत बनते हैं।अन्य कल्याणकारी लाभ भी होते हैं।
   साधित श्वेत अपामार्ग-मूल को ताबीज में भर कर लाल,पीले या हरे धागे में गूंथकर गले वा वांह में धारण करने से शत्रु,शस्त्र,अन्तरिक्ष आदि से रक्षा होती है।
साधित श्वेत अपामार्ग-मूल को जल में घिस कर तिलक लगाने से प्रयोग कर्ता में सम्मोहन और आकर्षण गुण आ जाता है।
 साधित श्वेत अपामार्ग-मूल को चूर्ण करके हरे रंग के नवीन कपड़े में लपेट कर वर्तिका बना,तिल तेल का दीपक प्रज्ज्वलित करें।उस दीपक को एकान्त में रखकर उसकी लौ पर ध्यान केन्द्रित करने से वांछित दृश्य देखे जा सकते हैं।मान लिया किसी चोरी गई वस्तु की,अथवा गुमशुदा व्यक्ति के बारे में हम जानना चाहते हैं,तो इस प्रयोग को किया जा सकता है।आपका ध्यान जितना केन्द्रित होगा, दृश्य और आभास उतना ही स्पष्ट होगा।
  साधित श्वेत अपामार्ग-मूल को उक्त विधि से दीपक तैयार कर, दीपक के लौ पर कज्जली(काजल) तैयार करें। हांथ के अंगूठे के नाखून पर लेप करके किसी वालक को आहूत करें,और वांछित प्रश्न का उत्तर जानने का प्रयास करें।अंगूठे पर लगे काजल में झांककर वालक दूरदर्शन के पर्दे की तरह दृश्य देख कर बता सकता है, जो काफी सटीक होता है।इस क्रिया को करने के लिए साबर तन्त्र के कज्जली मंत्र को साध लेना भी आवश्यक है,तभी सही लाभ मिलेगा।वैसे सामान्य आभास इतने मात्र से ही हो जायेगा।
  साधित श्वेत अपामार्ग-मूल को जल में पीस कर शरीर पर लेप करने से शस्त्राघात का प्रभाव न के बराबर होता है।
 साधित श्वेत अपामार्ग की पत्तियों को जल के साथ पीस कर दंशित स्थान पर लेप करने से विच्छु- दंश का कष्ट निवारण होता है।इस प्रयोग में  साधित श्वेत अपामार्ग-मूल को भी ग्रहण करना चाहिए- इसे आतुर को सुंघाते रहना चाहिए।दोनों प्रयोग एक साथ करने  से शीघ्र लाभ होता है।
 साधित श्वेत अपामार्ग-मूल और पत्तियों को जल के साथ पीस कर,अथवा चूर्ण बनाकर एक-एक चम्मच की मात्रा में ग्रहण करने से विभिन्न पित्तज व्याधियां नष्ट होती हैं।
  साधित श्वेत अपामार्ग पंचाग को आठ गुने जल में डाल कर अष्टमांश क्वाथ बनावे।फिर उस क्वाथ को तैल-पाक विधि से तिल-तेल में पका कर,सिद्ध तेल को छान कर सुरक्षित रख लें।इसके लेपन का प्रयोग शरीर के अंगों के जल जाने पर ,या अन्य व्रणों के रोपण में करने से आशातीत लाभ होता है।मैंने इस प्रयोग को सैंकड़ों बार किया है- जलने का दाग तक मिट जाता है।त्वचा के अन्याय रोगों में भी इस अपामार्ग तेल का प्रयोग किया जा सकता है।
 साधित श्वेत अपामार्ग पंचाग के भस्म को दंत-मंजन की तरह प्रयोग करने से दन्त,जिह्वा,तालु,कंठ-स्वर मंडल आदि के विभिन्न रोगों का नाश होता है।
  साधित श्वेत अपामार्ग-मूल को लाल धागे में बांध कर प्रसव-वेदना पीड़िता के कमर में बांध देने से सुख प्रसव हो जाता है।कुछ लोग इस मूल को सीधे योनी में रखने का सुझाव देते हैं,किन्तु व्यवहारिक रुप से यह उचित नहीं प्रतीत होता।मूल को कमर में ही बांधे और ध्यान रहे कि प्रसव होते के साथ,(तत्क्षण) ही कमर से खोल दे,अन्यथा अपनी तीव्र शक्ति के प्रभाव से गर्भाशय को भी बाहर खींच सकता है।

वनस्पति तंत्र भाग 7

वनस्पति तंत्र भाग 7

सहदेई

सहदेई का एक और प्रचलित नाम सहदेवी भी है।क्षुप जातीय बलाचतुष्टय(बला,अतिबला,नागबला, और सहदेई) समूह की यह वनस्पति प्रायः ग्रामीण इलाकों में सर्व सुलभ है,भले ही अज्ञानता वस उपेक्षित    प्रायः है।घास-फूस के श्रेणी में माना जाने वाला सहदेई आयुर्वेद और तन्त्र में बहुत ही उपयोगी है।अनेक प्रकार के लोकोपकारी प्रयोग हैं इसके।
ग्रहण विधि- सर्वप्रथम किसी रविपुष्य योग का चयन करें,जो भद्रादि रहित हो।अब उसके पूर्व संध्या यानी शनिवार की संध्या समय जल-अक्षत और सुपारी लेकर श्रद्धा पूर्वक उक्त वनस्पति के समीप जाकर निवेदन करें - " कल प्रातः लोक-कल्याणार्थ मैं आपको अपने घर ले चलूंगा।" और अगले दिन प्रातःकाल शुचिता पूर्वक उसे उखाड़ कर घर ले आयें।ध्यातव्य है कि ग्रहण से लेकर घर पहुंचने पर्यन्त निम्नांकित मन्त्र का सम्यक् उच्चारण करते रहना चाहिए।मार्ग में किसी से बातचीत न हो।एकाग्रता और उद्देश्य-स्मरण सतत जारी रहे।
मन्त्र- 

ऊँ नमो रूपावर्ती सर्वप्रोतेति श्री सर्वजनरंजनी सर्वलोक वशकरणी सर्वसुखरंजनी महामाईल घोल थी कुरुकुरु स्वाहा। (यह एक का साबर मंत्र है,अतः भाषायी विचार में न उलझें)
घर आकर सहदेई पंचाग को पवित्र जल से धो कर पुनः पंचामृत स्नान,एवं शुद्ध स्नानादि क्रिया सम्पन्न करें, तथा पंचोपचार वा षोडशोपचार पूजनोपरान्त उक्त मंत्र का अष्टोत्तर सहस्र जप भी सम्पन्न करें। पूरी क्रिया बिलकुल एकान्त में, और गोपनीय ढंग से सम्पन्न करने का हर सम्भव प्रयास करें।क्रियात्मक तन्मयता के साथ-साथ दृष्टि-दोष से भी बचना जरुरी है।
सूर्य-चन्द्रादि ग्रहण,विभिन्न नवरात्रियाँ, खरमास रहित किसी भी महीने की आमावश्या आदि काल में रविपुष्य योग मिल जाये तो अति उत्तम,या फिर सूर्य के पुष्य नक्षत्र में आने पर जो शुद्ध रविवार मिले उसे भी सहदेई-साधना के लिए ग्रहण किया जा सकता है।
साधित सहदेई के विभिन्न तान्त्रिक प्रयोग-
  सहदेई के मूल भाग को लाल वस्त्र में वेष्ठित कर तिजोरी,आलमीरे या अन्नागार में स्थापित करने से अन्न-धनादि की वृद्धि होती है।पुराणों में विभिन्न अक्षय पात्रों की चर्चायें मिलती हैं। वहां भी कुछ ऐसा ही चमत्कार-योग है।
 सहदेई के मूल को गंगाजल में घिसकर नेत्रों में अञ्जन करने से प्रयोगकर्ता की दृष्टि में सम्मोहन-क्षमता आ जाती है।
 सहदेई के मूल को तिल तेल में घिस कर प्रसव-वेदना-ग्रस्त स्त्री की योनि पर लेप करने से शीघ्र ही प्रसव-पीड़ा सुख-प्रसव में बदल जाती है,यानी प्रसव हो जाता है।
  सहदेई के मूल को लाल धागे में बांध कर प्रसव-वेदना-ग्रस्त स्त्री के कमर में बांध देने से शीघ्र ही प्रसव-पीड़ा सुख-प्रसव में बदल जाती है,यानी प्रसव हो जाता है।ध्यातव्य है कि प्रसव होते ही कमर में बंधा मूल यथाशीघ्र खोल कर रख दें,और बाद में कहीं विसर्जित कर दें।
  साधित सहदेई-पंचाग को चूर्ण करके गोघृत के साथ मासिक धर्म से पांच दिन पूर्व से प्रारम्भ कर पांच दिन बाद तक(पांच-छः महीने तक) सेवन करने से सन्तान-सुख प्राप्त होता है।
  साधित सहदेई-पंचाग को चूर्ण करके पान में डाल कर गुप्त रुप से सेवन करा देने से अभीष्ट व्यक्ति साधक के वशीभूत हो जाता है।
  साधित सहदेई-पंचाग को चूर्ण करके जल-मिश्रित तिलक लगाने से प्रयोगकर्ता के मान-प्रतिष्ठा की बृद्धि होती है।सामाजिक-प्रतिष्ठा-लाभ के लिए यह अद्भुत प्रयोग है।
  साधित सहदेई-मूल को लाल धागे में बांध कर बालक के गले में ताबीज की तरह पहना देने से थोड़े ही दिनों में गण्डमाला रोग नष्ट हो जाता है।
  सहदेई को विधिवत ग्रहण कर घर के वायव्य वा ईशान क्षेत्र में जमीन वा गमले में स्थापित कर नित्य पूजन कर कम से कम एक माला पूर्व कथित मन्त्र का जप करते रहने से गृह-कलहादि की शान्ति होती है,और वास्तु दोषों का निवारण होता है।
  साधित सहदेई-पंचाग को चूर्ण करके गोदुग्ध अथवा जल के साथ नित्य सेवन करने से स्त्रियों के श्वेत प्रदर एवं रक्त प्रदर में अद्भुत लाभ होता है।
  सहदेई के अन्य आयुर्वेदिक प्रयोगों को आयुर्वेद-ग्रन्थों में देखना चाहिए।बस सिर्फ इस बात का ध्यान रखना है कि प्रयोग करने के लिए साधित सहदेई का ही उपयोग हो ताकि अधिक लाभार्जन हो।

वनस्पति तंत्र भाग 6

वनस्पति तंत्र भाग 6

विजया

             विजया का प्रचलित नाम भांग(भंग) है।इसका एक व्यंगोक्ति नाम शिवप्रिया भी है- क्यों कि शिव को विशेष प्रिय है।शिवाराधन में अन्य पूजनोपचारों के साथ विल्वपत्र और विजया अनिवार्य है। विल्वपत्र का प्रयोग तो अन्य देवों के पूजन में भी होता है,किन्तु विजया एकमात्र शिवप्रिया ही है।प्रायः सर्व सुलभ क्षुप जातीय इस वनस्पति के रोपण हेतु सरकारी आज्ञापत्र की आवश्यकता होती है,क्यों कि इसके सर्वांग में मादकता गुण है।वैसे जंगली वूटियों की तरह प्रायः जहां-तहां अवांछित रुप से उग भी जाता है।भांग की पत्तियों को पीस कर गोली बनाकर या शर्बत के रुप में लोग पीते हैं।नशे के विभिन्न पदार्थों में विजया का  नशा अपने आप में अनूठा ही है।वैसे यह शाही घरानों से जुड़ा रहा है।विजया का प्रयोग आयुर्वेद के विभिन्न औषधियों में होता है।इसके कुछ तान्त्रिक प्रयोग भी हैं,जो खासकर स्वास्थ्य से ही सम्बन्धित हैं। भांग को एक खास विधि से खास समय में प्रयोग करने से गुण में काफि वृद्धि हो जाती है।प्रयोग पूर्व की विधि अन्याय वनस्पतियों जैसी ही है।
        बाजार से यथेष्ठ मात्रा में भांग की सूखी पत्तियाँ खरीद लायें।उतित होगा कि यह कार्य श्रावण महीने में किसी सोमवार को किया जाय।झाड़-पोंछ कर स्वच्छ करने के बाद नवीन लाल वस्त्र का आसन देकर स्थापित करें और कम से कम ग्यारह हजार शिव पंचाक्षर मंत्र का जप करें।जप के पूर्व शिव की पंचोपचार पूजन अवश्य कर लें।साथ ही भांग की पोटली की भी पूजा करें- उसमें शिव को आवाहित करके।इस प्रकार प्रयोग के लिए बूटी तैयार हो गयी।
       भांग के प्रयोग के लिए कुछ सहयोगी घटक भी अनिवार्य हैं, यथा- सौंफ,कागजी बादाम,काली मिर्च, छोटी इलाइची,गुलाब की पंखुड़ियां,केसर,दूध और शक्कर(मिश्री)। भांग की मात्रा (सामान्य जन के लिए) नित्य एक ग्राम से अधिक नहीं हो।वैसे नशे के आदि लोग तो पांच से दश ग्राम तक सेवन कर लेते हैं।पर यह उचित नहीं है।समुचित मात्रा में साधित विजया का नियमित प्रयोग मेधा शक्ति को बढ़ाने में काफी कारगर है। साल के बारह महीनों में विजया प्रयोग के लिए अलग-अलग अनुपान का महत्व तन्त्रात्मक आयुर्वेद में बतलाया गया है,जो निम्नलिखित हैं-
*   चैत्र- ऊपर निर्दिष्ट घटकों के साथ प्रयोग करें। चिन्तन,धारणा,स्मरण-शक्ति को विजया से काफी बल मिलता है।
*   वैशाख- ऊपर निर्दिष्ट घटकों के साथ प्रयोग करें। चिन्तन,धारणा,स्मरण-शक्ति के लिए गुणकारी है।स्नायु संस्थान के लिए अति उत्तम है।
*   ज्येष्ठ- इस महीने में उक्त घटकों के साथ विजया-पेय तैयार कर, सूर्योदय के जितने समीप ग्रहण कर सके, उतना लाभदायी है- शारीरिक बल-कान्ति-सौन्दर्य के लिए।
*   आषाढ़- इस महीने में विजया का नियमित सेवन केश-कल्प का कार्य करता है।प्रयोग की विधि बदल जाती है।उक्त महीनों की तरह पेय के रुप में न लेकर,चूर्ण के रुप में लेना चाहिए साथ में चित्रक का चूर्ण भी समान मात्रा में मिलाकर धारोष्ण दूध या सामान्य गरम दूध के साथ लेना चाहिए।
*   श्रावण- इस महीने में विजया-चूर्ण के साथ शिवलिंगी-बीज के चूर्ण को मिलाकर दूध या उक्त घटक के साथ पेय के रुप में सेवन करने से बल-वीर्य-कान्ति की बृद्धि होती है।(शिवलिंगी के सम्बन्ध में विशेष जानकारी शिवलिंगी अध्याय में देखें)।
*   भादो- इस महीने में विजया-चूर्ण को रुदन्ती-फल-चूर्ण के साथ समान मात्रा में मिलाकर दूध के साथ सेवन करने से मानसिक अशान्ति दूर होकर चित्त की एकाग्रता में बृद्धि होती है।सुविधा के लिए इसे गोली बनाकर भी उपयोग किया जा सकता है।
*   आश्विन- इस महीने में विजया के पत्तों को समान मात्रा में ज्योतिष्मति(मालकांगनी) के साथ चूर्ण बनाकर दुग्ध के साथ सेवन करने से तेजबल की बृद्धि होती है।
*   कार्तिक- इस महीने में विजया के पत्तों को समान मात्रा में ज्योतिष्मति(मालकांगनी) के साथ चूर्ण बनाकर बकरी के दूध के साथ सेवन करने से तेजबल की बृद्धि होती है।यानी अन्य बातें वही रही जो आश्वन की थी,किन्तु अनुपान बदल गया।ध्यातव्य है कि आयुर्वेद में अनुपान-भेद से एक ही औषधि अनेक रोगों में प्रयुक्त होती है।तन्त्र में भी क्रिया भेद से प्रयोग और प्रभाव में अन्तर हो जाता है।
*   अगहन- इस महीने में विजया-चूर्ण को घी और मिश्री के साथ सेवन करने से समस्त नेत्र रोगों में लाभ होता है।स्वस्थ व्यक्ति भी नेत्र-ज्योति की रक्षा के लिए इस प्रयोग को कर सकते हैं।
*   पौष- इस महीने में विजया-चूर्ण को काले तिल के चूर्ण के साथ सेवन करने से नेत्र-ज्योति बढ़ती है।अनुपान गरम जल का होना चाहिए।कुछ लोग दूध का अनुपान सही बताते हैं,किन्तु मेरे विचार से काले तिल के साथ दूध सर्वथा वर्जित होना चाहिए।इससे एक लाभ तो हो जायेगा,पर अनेक हानि के द्वार भी खुलेंगे।अतः इस निषेध का ध्यान रखना जरुरी है।
*   माघ- इस महीने में विजया-चूर्ण को नागरमोथा-चूर्ण के साथ मिलाकर दूध या गरम जल से सेवन करना चाहिए।इससे शरीर का भार बढ़ता है(मोटे लोग इसका प्रयोग न करें)।
*   फाल्गुन- इस महीने में विजया को चार गुने आंवले के साथ मिलाकर चूर्ण बनाकर,गरम जल के साथ सेवन करने से अद्भुत स्फूर्ति आती है।वात,रक्त,नाड़ी सभी संस्थानों का शोधन होकर शरीर कान्ति-शक्तिवान होता है।
इस प्रकार साल के बारह महीनों में अलग-अलग घटकों और अनुपान भेद से विजया कल्प का प्रयोग किया जा सकता है।

वनस्पति तंत्र भाग 5

वनस्पति तंत्र भाग 5

नागदमनी 
    वनस्पति-जगत में अनेकानेक पौधे हैं,जिन सबका विस्तृत गुण-धर्म-संकलन किसी एक भाषा की पुस्तक में एकत्र कर देना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। आयुर्वेद का निघण्टु संग्रह काफी हद तक इस क्षेत्र में काम किया है।आधुनिक वनस्पति विज्ञान भी नित  नूतन शोध में जुटा है;किन्तु मुझे लगता है कि पुराने को ही नये अन्दाज में देखने भर-का जितना प्रयास किया जा रहा है- उतना किसी नये पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है।असंख्य वनस्पतियाँ अभी भी उपेक्षित हैं हमारे चारों ओर।नागदमनी भी कुछ वैसा ही वनस्पति है।
   अपनी हरीतिमा और दण्डाकार संरचना में शोभायमान नागदमनी महज बाढ़ लगाने के काम तक सिमट कर रह गया है।कहीं-कहीं एकाध गमले में भी दीख पड़ता है।नागदमनी के पत्ते गहरे हरे रंग के,तनिक लंबाई वाले,तदनुसार चौड़ाई भी थोड़ी ही- ऊर्ध्वमुखी शाखाओं पर अल्प संख्या में ही होते हैं।कम जल और किसी भी वातावरण में जीवित रहने वाला नागदमनी के डंठल को तोड़-काट कर भी आसानी से लगाया जा सकता है।एक और विशेषता यह भी है कि पशु इसे खाते नहीं- यही कारण है कि घेरेबन्दी में सुरक्षित-उपयोग होता है।नागदमन,दर्पदमन,नागपुष्पी,वनकुमारी के साथ सर्पदमन नाम से भी जाना जाता है।मान्यता है कि इसके आसपास सर्प नहीं आते।यही कारण है कि जानकार लोग गमलों में सम्मान पूर्वक स्थान देते हैं।तन्त्र-ग्रन्थों में महायोगेश्वरी नाम से ख्यात है।

प्रायोगिकक्रिया- 

रविपुष्य योग में नागदमनी की जड़ विधिवत(पूर्व अध्यायों में कथित विधि से) ग्रहण कर जलादि शुद्धि-संस्कार करके नवीन लाल वस्त्र का आसन देकर पीठिका पर स्थापित कर यथोपचार पूजन करना चाहिए।पूजन के पश्चात् कम से कम ग्यारह माला श्री शिवपंचाक्षर मंत्र एवं नौ माला देवी नवार्ण मंत्र का जप कर,पुनः पंचोपचार पूजन करना चाहिए।तथा सामान्य साकल्य(काला तिल,तदर्घ चावल,तदर्ध जौ,तदर्घ गूड़, तदर्ध घृत) से कम से कम अष्टोत्तरशत तततत मंत्रो से होम भी अवश्य करें।इतनी क्रिया से तान्त्रिक प्रयोग के लिए नामदमनी तैयार हो गया।इसके प्रयोग अति सीमित हैं।यथा-
मेधा-शक्ति-वर्धन- मन्दबुद्धि बालकों को साधित नामदमनी मूल को भद्रादि रहित किसी रविवार या मंगलवार को ताबीज में भर कर लाल धागे में पिरोकर गले या बांह में बांध देने से अद्भुत लाभ होता है।सामान्य बालकों के बौद्धिक विकास हेतु भी यह प्रयोग किया जा सकता है।


सम्मान-यश-विजय-प्राप्ति हेतु- आये दिन हम देखते हैं कि अकारण ही प्रायः लोगों को अयश और असम्मान का सामना करना पड़ता है।हालाकि उसके अनेक कारण हैं।कारण चाहे जो भी हों,ऐसी स्थिति में नामदमनी का प्रयोग बड़ा ही लाभकारक होता है।करना सिर्फ यही है जो ऊपर के प्रयोग में बतला आए हैं- यानी ताबीज में भर कर धारण मात्र।


धन-वृद्धि हेतु-  रविपुष्य योग में आमन्त्रण विधि से(पूर्व अध्यायों में वर्णित) नागदमनी का पौधा घर में ले आयें और नये गमले में रोपण करके,ऊपर बतलायी गयी विधि से स्थापन पूजन-जप-होमादि सम्पन्न करें।(ध्यातव्य है कि गमले में रोपण करने से पूर्व थोड़ा सा मूलभाग तोड़कर अलग रख लें,और सारी विधियाँ साथ-साथ उसके लिए भी करते जाएं)।इस प्रकार साधित नामदमनी के पौधे को घर के मध्योत्तर भाग में स्थापित कर दें और नित्य जलार्पण कर प्रणाम करके,कम से कम एक माला श्री महालक्ष्मी मंत्र का जप सुविधानुसार खड़े या बैठ कर कर लिया करें।साधित जड़ को ताबीज में भर कर लाल धागे में पिरोकर गले या बांह में बांध लें।आप अनुभव करेंगे कि थोड़े ही दिनों में धनागम के नये स्रोत खुल रहे हैं,साथ ही पहले के होते आरहे धन का प्रतिकूल प्रवाह भी रुक गया है।


ग्रह-दोष-निवारण- उक्त विधान से साधित नागदमनी की जड़ को ताबीज में भरकर धारण करन से विभिन्न ग्रहदोषों का निवारण होता है,साथ ही अन्तरिक्ष वाधाओं का भी शमन होता है।घर में पूर्व विधि से स्थापित करने से मकान पर पड़ने वाला ग्रहों का प्रतिकूल प्रभाव भी नष्ट होता है।ध्यातव्य है कि मकान की रक्षा के लिए नागदमनी का स्थापन-पूजन तो पूर्व विधि से ही होगा,किन्तु गमले का स्थान मुख्य द्वार की सीध में होना आवश्यक है।सुविधा हो तो मुख्य द्वार के दोनों ओर एक-एक गमले रख सकते हैं।दूसरी बात ध्यान में रखने योग्य है कि यदि पहले से आपका मकान भूत-प्रेत-वाधाओं से ग्रसित है,तो वैसी स्थिति में नागदमनी की स्थापना के पूर्व विशेष जानकार वास्तुशास्त्री से परीक्षण कराकर,शान्तिकर्म अवश्य करा लें,अन्यथा उलटा प्रभाव हो सकता है।इस बात को यों समझें कि घर में अवांक्षित का प्रवेश है यदि, तो पहले उसे बाहर करलें,तब दरवाजा बन्द करें।नामदमनी का सुरक्षा कवच अपनी स्थापना के बाद अवांछित को आने नहीं देगा,किन्तु पहले से जो घर में उपस्थित है उसे बाहर नहीं करेगा,और दूसरी ओर मुख्यद्वार नागदमनी-कवच से अवरुद्ध हो जाने के कारण अवांछित पदार्थ चाह कर भी बाहर नहीं निकल पायेगा।परिणाम यह होगा कि वह घर के अन्दर ही उतपात मचाता रहेगा।अतः सावधानी से इसका प्रयोग करना चाहिए।

विशेष सुचना

( जो भी मंत्र तंत्र टोटका इत्यादि ब्लॉग में दिए गए है वे केवल सूचनार्थ ही है, अगर साधना करनी है तो वो पूर्ण जानकार गुरु के निर्देशन में ही करने से लाभदायक होंगे, किसी भी नुक्सान हानि के लिए प्रकाशक व लेखक जिम्मेदार नहीं होगा। )