Saturday, December 30, 2017

नव नाग साधना रहस्य एवं नाग पूजन एवं नाग बलि विधान

नव नाग साधना रहस्य एवं नाग पूजन एवं नाग बलि विधान

दक्षिणा 2100 /- ज्योतिष तंत्र मंत्र यंत्र टोटका वास्तु कुंडली हस्त रेखा राशि रत्न,भूत प्रेत जिन जिन्नात बुरे गंदे सपने का आना, कोर्ट केस, लव मैरिज, डाइवोर्स, वशीकरण पितृ दोष कालसर्प दोष चंडाल दोष गृह क्लेश बिजनस विदेश यात्रा, अप्सरा परी साधना, अघोर साधनायें , समशान तांत्रिक साधनायें, सास बहु, सास ससुर, पति पत्नी, जेठ जेठानी, देवर देवरानी, नन्द नन्दोई, साला साली, सभी झगड़े विवाद का हल व वशीकरण कार्य किया जाता है      

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नाग साधना हर प्रकार से श्रेष्ठ मानी गई है | यह जीवन में धन धान्य की बरसात करती है | हर प्रकार से सभी प्रकार के शत्रुओ से सुरक्षा देती है | इससे साधक ज्ञान का उद्य कर अन्धकार पर विजय करते हुए सभी प्रकार के भय से मुक्ति पाता है | इसके साथ ही अगर कुंडली में किसी प्रकार का नाग दोष है तो उससे भी मुक्ति मिलती है | नाग धन तो देते हैं, जीवन में प्रेम की प्राप्ति भी इनकी कृपा से मिल जाती है | हमने यह साधना बहुत समय पहले की थी और यह अनुभव किया कि यह जीवन का सर्वपक्षी विकास करती है | यहाँ मैं उसी अनुभूत साधना को दे रहा हूँ जो नव नागों के नाम से जानी जाती है | इसके साथ ही नाग पूजा विधान और विसर्जन के साथ विष निर्मली मंत्र, सर्प सूक्त आदि दिया जा रहा है जो आपकी कुंडली में से नाग दोष हटाकर जीवन को सुरक्षा देते हुए सभी दोषों का शमन करता है | चलो जानते हैं कि क्या है 9 विशेष नाग रूप जिन्हें नाग शिरोमणि कहा जाता है | इनकी साधना से क्या क्या लाभ हैं | नाग साधना में किन बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिए | यह साधना अति गोपनीय और महत्वपूर्ण मानी जाती है | इस को करने से जीवन में सभी प्रकार की उन्नति मिलती है और जीवन का सर्वपक्षी विकास होता है | मेरा मानना है अगर नाग कन्या साधना से पहले यह नव नागों की साधना कर ली जाए तो नाग कन्या साधना जल्द सफल होती है और जीवन में पूर्ण प्रेम व सुख प्रदान करती है |

नाग साधना के 9 रूप और लाभ


१. शेष नाग –
नाग देवता के इस रूप को आप सभी जानते हैं | भगवान विष्णु के सुरक्षा आसन के रूप में जाने जाते हैं | यह भगवान विष्णु का अभेद सुरक्षा कवच है | जब कोई साधक सच्चे मन से भगवान शेष नाग की उपासना या साधना करता है तो उसके जीवन के सारे दुर्भाग्य का नाश कर देते हैं | उसके जीवन में अखंड धन की बरसात कर देते हैं | अगर जीवन की प्रगति के सभी मार्ग बंद हो गए हैं, अगर जीवन में अचल संपति की कामना है | आय के स्त्रोत नहीं बन रहे तो आप भगवान शेष नाग की साधना से वह सभी आसानी से प्राप्त कर सकते हैं | जो भी साधक भगवान शेष नाग की साधना करता है उसे शेषनाग अभेद सुरक्षा कवच प्रदान करते हैं | कर्ज से मुक्ति देते हैं, व्यापार में वृद्धि होती है | जीवन में सभी कष्टों का नाश करते हैं | इसके अलावा आसन में स्थिरता प्रदान करते हैं और साधक में संयम आदि गुणो का विकास करते हैं |

२. कर्कोटक नाग –
जिनका जीवन हमेशा भय के वातावरण में गुजर रहा है | जिन्हें शत्रु का भय रहता है | घर में भयपूर्ण माहौल है, तो उनके लिए यह साधना वरदान स्वरूप मानी गई है | इसे संपन्न कर लेने से सभी परिवार के सदस्य पूर्ण रूप से सुरक्षित रहते हैं और साधक स्वः भी हर प्रकार से सुरक्षित रहता है | सुरक्षा के लिए यह एक बेमिसाल साधना है |

३. वासुकि नाग –
यह भगवान वासुकि का रूप हिमालय का अधिपति है | यह ज्ञान और बुद्धि को प्रदान करते हैं | स्टूडेंट के लिए यह एक अच्छी साधना है | जीवन में सर्वपक्षी विकास और जो ज्ञान चाहते हैं, उन्हे यह साधना मार्गदर्शन करती है | इस साधना को करने से शिक्षा संबंधी जो भी समस्या है और अगर नौकरी नहीं मिलती, नौकरी प्राप्ति में बाधाएं आ रही हों | हर प्रकार के ज्ञान में अगर कोई बाधा हो, उससे मुक्ति मिलती है | इसके साथ व्यक्ति एक तेजस्वी मस्तिष्क का स्वामी बनता है, उसे अद्भुत बुद्धि की प्राप्ति होती है और याद्दास्त तेज होती है | विद्या प्राप्ति के क्षेत्र में यह अमोघ साधना मानी गई है | इसके साथ ही यह साधक को परालोकिक ज्ञान भी देते हैं |

४. पदम नाग –
जिनके जीवन में विवाह की बाधा है | शादी में बार बार रुकावट आ रही हो तो उनके लिए यह साधना सर्वश्रेष्ठ है | इस साधना को करने से विवाह संबधि समस्या दूर होती है और संतान की प्राप्ति का वरदान भी पद्म नाग देते हैं | इसके साथ साथ अद्भुत सम्मोहन की प्राप्ति भी कराते हैं |

५. धृतराष्ट्र नाग –
नाग देवता का यह रूप जीवन में प्रेम प्राप्ति कराता है | इस साधना से जहां आपके प्रेम संबद्धों में कोई बाधा आ गई हो या आप जीवन में प्रेम संबंध बनाना चाहते हों तो उसमें आ रही हर रुकावट को दूर करती है | प्रेम संबंधों में इस साधना से मधुरता आती है और नवीन प्रेम सम्बन्ध सफल होते हैं |

६. शंखपाल नाग –
देवता का यह रूप संपूर्ण पृथ्वी का अधिपति है | जो साधक जीवन में पृथ्वी भ्रमण की इच्छा रखता हो, विदेश यात्रा करना चाहता हो या विदेश यात्रा में कोई रुकावट आ रही हो तो उसे यह साधना करनी चाहिए | यह सभी यात्रा की रुकावटें दूर करती है | इस साधना के आध्यात्मिक लाभ भी हैं | इससे साधक अपने सूक्ष्म स्वरूप से जुड़ जाता है और दूर आध्यात्मिक स्थानों की यात्रा कर लेता है | यह एक श्रेष्ठ साधना मानी गई है | इसी तरह सभी नाग साधना के आध्यात्मिक लाभ भी हैं जिन्हें साधक को खुद अनुभव करना चाहिए | यहाँ मैं आपके कार्य की बाधा को दूर करना और कुछ भौतिक लाभ ही बता रहा हूँ |

७. कंबल नाग –
यह नाग देवता का स्वरूप नाग अधिपति के नाम से जाना जाता है | अगर जीवन में रोग है, वह दूर नहीं हो रहा तो नाग देवता के इस स्वरूप की आराधना रोग मुक्ति करती है | जीवन में रोग के भय का नाश करते हुए साधक को पूर्ण रोग मुक्ति का वरदान देती है | जिनको कोई न कोई रोग बीमारी है, दवाई असर नहीं देती, रोग पीछा नहीं छोड़ रहा, उन्हे इस साधना से बहुत लाभ मिलता है | यह रोग मुक्त जीवन प्रदान कर साधक को पूर्ण सुरक्षा देती है | इससे असाध्य रोग दूर होते हैं | यह कायाकल्प सिद्धि आदि भी दे देते हैं | मगर इसके लिए कठोर साधना पूर्ण विधान से करनी पड़ती है |

८. तक्षक नाग –
यह नाग देवता का स्वरूप हर प्रकार के शत्रु का नाश करता है | शत्रु बाधा से मुक्ति देता है | जिन साधकों के जीवन में हर पल शत्रु का भय है | उन्हे यह साधना संपन्न करनी चाहिए | यह हर प्रकार के शत्रु संहार करते हैं | शत्रु दुआरा उत्पन्न की सभी बाधाओं को हर लेते हैं | यह एक बहुत ही तीक्ष्ण साधना है | इसलिए यह साधना साधको को पूर्ण सावधान होकर ही करनी चाहिए |

९. कालिया नाग –
यह नाग देवता का स्वरूप हर प्रकार की तंत्र बाधा दूर करता है | अगर किसी ने आप पर कोई अभिचार कर दिया हो या आप तंत्र बाधा से परेशान हैं तो यह साधना उससे मुक्ति प्रदान करती है | इसके साथ ही यह किसी भी बुरी शक्ति के प्रभाव से मुक्ति देती है और आपकी ग्रह बाधा भी दूर करती है | इसके और भी कई प्रयोग हैं अगर काली नाग को किसी पर छोड़ दिया जाए तो वह उसका नाश कर देते हैं और शत्रु की हर प्रकार की प्रगति को भी रोक देते हैं | अगर शत्रु ने आप पर कुछ किया है तो उसकी सजा उसे दे देते हैं |

यह नाग साधना के 9 रूप अपने आप में तीक्ष्ण हैं | यह जहां आपको धन आदि लाभ, भौतिक लाभ और आध्यात्मिक लाभ भी देते हैं जैसे आसन की स्थिरता शेष नाग देते हैं और मन के विकारों पर विजय दिलाते हैं | नाग साधना से दूरदर्शिता बढ़ती है | ज्ञान चक्षु विकसित होकर खुल जाते हैं | दूरदर्शन सिद्धि, दूर श्रवण सिद्धि, भूगर्भ सिद्धि, कायाकल्प, मनोवांछित रूप परिवर्तन, गंध त्रिमात्र, लोकाधिलोक गमन आदि ऐसी बहुत सी सिद्धियाँ जो नाग कृपा से या नाग साधना से प्राप्त की जा सकती हैं, मगर इसके लिए कठोर साधना करनी पड़ती है | यहाँ भौतिक लाभ प्राप्ति के लिए एक एक दिन की 9 साधना दी जा रही हैं | जो बहुत सरल और जल्द सिद्ध होने वाली हैं | नाग साधना अति शीघ्र फल देती है | इसलिए साधना पूर्ण श्रद्धा और विश्वाश से करनी चाहिए |

नाग पूजन एवं नाग बलि विधान

यह नाग पूजन दुर्लभ माना गया है | यह हर नाग साधना में जरूरी है | जहां तक ज्योतिष का सवाल है, बहुत ज्योतिषी आज कल कालसर्प योग का भय दिखाकर मन चाहा धन लेते हैं और पूजा के नाम से आपसे मोटी रकम ले ली जाती है | इस पूजन से हर प्रकार का नाग दोष और नाग भय हट जाता है | यह बात मैं पूरे विश्वाश से कहता हूँ क्योंकि यह पूजन मैंने सैकड़ों लोगों को कराया है और उनके नाग दोष का शमन किया है | नाग पूजन इसलिए भी देना उचित समझता हूँ क्योंकि आगे आने वाली नव नागों की साधना में यह पूजन आधार स्तंभ का काम करेगा | इसलिए आप अपने मन को हमेशा प्रसन्न रखते हुए नाग साधना करें और पूजन से भी लाभ लें | ऊपर जो नव नाग रहस्य बताया गया है उसमें दी गई हर साधना का पूर्ण लाभ लेने के लिए यह पूजन बहुत महत्व रखता है | यह हर साधना में आएगा और अगर आप कुंडली में नाग दोष की वजह से परेशान हैं, तो भी यह पूजन करें इससे आपको पूर्ण लाभ मिलेगा | जो साधक साधना करना चाहते हैं वो इस नाग पूजन को साधना के वक़्त करें |
जो सिर्फ कुंडली के दोष निवारण के लिए करना चाहते हैं, उन्हे चाहिए कि नव नाग का निर्माण करें या बाजार से पूजा की दुकान से नाग खरीद लें जिसमें 2 सोने के नाग छोटे छोटे सुनार से लें और 2 चाँदी के सर्प लेने हैं, दो ताँबे के, 2 सिक्के के मतलब लेड के | एक आटे को गूँथ कर उसका सात मुख का नाग बना लें | उस नाग को थोड़े गरम घी में भिगोकर उस पर सफ़ेद तिल लगा दें जो पूरे नाग पर लगे हों | उसके फन पर या उस पर 7 कौड़ी रख दें | उसे कुशा के आसन पर रखें या एक केले का पता लेकर उस पर थोड़ी कुशा बिछा कर उस पर रख दें जो वेदी के उपर रहेगा | इसके साथ ही जमीन पर रेत बिछा कर एक पूजन वेदी का निर्माण करें और उसमें नव ग्रह मण्डल और नाग पीठ का निर्माण करें | नाग पीठ में मध्य में एक अष्ट दल कमल बनाए और उसमें जो नाग आप बाजार से लाये हैं उन्हे एक पात्र में स्थापित कर देना है और नव ग्रह यंत्र का निर्माण भी आटे और हल्दी की मदद से बना लेना है | उसी पीठ में स्वस्तिक बनाकर श्री गणेश की स्थापना करनी है | साथ ही ॐ, शिव, षोडश मातृका, पित्र देव, वास्तु देव आदि का स्थापन करना है | सबसे पहले कलश आदि स्थापित कर गुरु पूजन करें | फिर गणेश, ओंकार, शिव ,षोडश मातृका और नव ग्रह, पितृ देव और वास्तु देवता का पूजन यथा योग्य सामर्थ्य अनुसार करें , फिर प्रधान देव पूजन करें |

ध्यान
अनंन्तपद्म पत्राथं फणाननेकतो ज्वलम् |
दिव्याम्बर-धरं देवं, रत्न कुण्डल- मण्डितम् ||
नानारत्न परिक्षिप्तं मकुट’ द्दुतिरंजितम |
फणा मणिसहस्रोद्दै रसंख्यै पन्नगोतमे ||
नाना कन्या सहस्रेण समंतात परिवारितम् |
दिव्याभरण दिप्तागं दिव्यचंदन- चर्चितम् ||
कालाग्निमिव दुर्धषर्म तेजसादित्य सन्निभम |
ब्रह्मण्डाधार भूतं त्वां, यमुनातीर-वासितम ||
भजेsहं दोष शन्त्यैत्र, पूजये कार्यसाधकम |
आगच्छ काल सर्पख्या दोष आदि निवारय ||
आसनम
नवकुलाधिपं शेषं ,शुभ्र कच्छ्प वाहनम |
नानारत्नसमायुकतम आसनं प्रति गृह्राताम ||
पाद्दम
अन्न्त प्रिय शेषं च जगदाधार –विग्रह |
पाद्द्म ग्रहाणमक्तयात्वं काद्रवेय नमोस्तुते ||
अर्घ्यम
काश्यपेयं महाघोरं, मुनिभिवरदिन्तं प्रभो |
अर्घ्यं गृहाणसर्वज्ञ भक्तय मां फ़लंदयाक ||
आचमनीयम्
सहस्र फ़णरुपेण वसुधाधारक प्रभो |
गृहाणाचमनं दिव्यं पावनं च सुशीतलम् ||
पन्चामृतं स्नानम्
पन्चामृतं गृहाणेदं पावनं स्वभिषेचनम् |
बलभद्रावतारेश ! क्षेयं कुरु मम प्रभो ||
वस्त्रम्
कौशेय युग्मदेवेश प्रीत्या तव मयार्पितम |
पन्नगाधीशनागेन्द्र तक्ष्रर्यशत्रो नमोस्तुते ||
यज्ञोपवीतम
सुवर्ण निर्मितं सूत्रं पीतं कण्ठोपाहारकम् |
अनेकरत्नसंयुक्तं सर्पराज नमोस्तुते ||
अथ अंग पूजा
अब चन्दन से अंग पूजा करें
सहस्रफ़णाधारिणे नमः पादौ पूजयामि | अनंद्दाये नमः गुल्फ़ौ पूजयामि | विषदन्ताय नमः जंधौ पूजयामि | मन्दगतये नमः जानू पूजयामि | कृष्णाय नमः कटिं पूजयामि | पित्रे नमः नाभिं पूजयामि | श्र्वेताये नमः उदरं पूजयामि | उरगाये नमः स्त्नो पूजयामि | कलिकाये नमः भुजौ पूजयामि | जम्बूकण्ठाय नमः कण्ठं पूजयामि | दिजिह्वाये नमः मुखं पूजयामि | मणिभूषणाये नमः ललाटं पूजयामि | शेषाये नमः सिरं पूजयामि | अनन्ताये नमः सर्वांगान पूजयामि |
गन्धं
कस्तूरी कर्पूर केसराढयं गोरोचनं चागररक्तचन्दनं |
श्री चन्द्राढयं शुभ दिव्यं गन्धं गृहाण नागाप्रिये मयार्तितम् ||
अक्षतान्
काश्मीर पंकलितप्राश्च शलेमानक्षतान शुभान् |
पातालाधिपते तुभ्यं अक्षतान् त्वं गृहाण प्रभो ||
पुष्पं
केतकी पाटलजातिचम्पकै बकुलादिभिः |
मोगरैः शतपत्रश्च पूजितो वरदो भव ||
धूप दीप
सौ भाग्यं धूपं दीपं च दर्शयामि |
नैवेद्दम्
नैवेद्दा गृहातां देव क्षीराज्य दधि मिश्रितम् |
नाना पक्वान्न संयुक्तं पयसं शर्करा युतम् ||
फ़ल् ,ताम्बूल, दक्षिणाम, पुष्पांजलि नमस्कारं —
अनन्त संसार धरप्रियतां कालिन्दजवासक पन्नगाधिपते |
न्मोसिस्म देवं कृपणं हि मत्वा रक्षस्व मां शंकर भूषणेश ||

एक आचमनी जल चढाते हुये अगर कोई कमी रह गई हो तो उसकी पूर्णता के लिये प्रार्थना करें |

अनयापूजन कर्मणा कृतेन अनन्तः प्रियताम् |
राहु केतु सहित अनन्ताद्दावहित देवाः प्रियतम् नमः ||
साधक यहाँ तक पूजन कर साधना कर सकते हैं | जो कुंडली के दोष या कालसर्प दोष शांति के लिए विधान कर रहे हैं वह आगे पूरा कर्म करें |
पूजन के पश्चात आप निम्न नव नाग गायत्री से १००८ आहुति किसी पात्र में अग्नि जला कर अजय आहुतिया देने के बाद दें |

मन्त्र
|| ॐ नवकुलनागाये विदमहे, विषदन्ताय धीमहि तन्नोः सर्पः प्रचोदयात् ||

अथ नाग बलि विधान
उसके बाद नाग बली कर्म करना चाहिये | एक पीपल के पत्ते पर उड़द, चावल, दही रखकर एक रुई कि बत्ती बना कर रखें और उसका पूजन कर नाग बली अर्पण करें |
प्रधान बली – इस मन्त्र से बली अर्पण करें |
ॐ नमोस्तु सर्पेभ्यो येकेन पृथ्वीमन |
ये अन्तरिक्षे ये दिवोतेभ्यः सर्पेभ्यो नमः ||
अनन्त वासुकि शेषं पदमं कम्बलमेव च |
धृतराष्ट्रं शंखपालं कालियं तक्षकं तथा,
पिंगल च महानाम मासि मासि प्रकीर्तितम |

अब नैऋत्य दिशा में सभी भूत दिक्पालों को बलि अर्पण करें
मन्त्र
सर्वदिग्भुतेभ्यो नमः गंध पुष्पं समर्पयामि | सर्व दिग्भुत बलि द्रव्यये नमः गन्ध पुष्मं समर्पयामि | हस्ते जलमादाये सर्व दिग्भुते भ्यो नमः इदं बलि नवेद्यामि |
नमस्कार
सर्व दिग्भुते भ्यो नमः नमस्कार समर्पयामि |
अनया पूजन पूर्वक कर्मणा कृतेन सर्व दिग्भुतेभ्यो नमः |
मन्त्र पुष्पाजलि
ॐ यज्ञेन यज्ञमय देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् | ते.ह् नाक महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः ||
प्रदक्षिणा
यानि कानि च पापानि ज्ञाताज्ञात कृतानि च |
तानि सर्वाणि नश्यन्ति प्रदक्षिणा पदे –पदे ||
—– इति श्री नाग बलि विधानं संपूर्णं ——-
विश निर्मली करणं
अब निम्न मंत्र पढ़ते हुए हाथ में जल लेकर सभी नागों पर छिडकें और इस मंत्र का 11 बार या 21 बार जप करें |

विश निर्मली मंत्र

सर्पापसर्प भद्र्म ते गच्छ सर्प महा विष |
जनमेजयस्य यज्ञान्ते, आस्तीक वचनं स्मर ||
आस्तीक्स्य वच: श्रुत्वा, यः सर्पो ना निवर्तते |
शतधाभिद्द्ते मूर्ध्नि, शिशं वृक्ष फ़लम् यथा ||

अथ सर्प वध प्रयशिचत कर्म
अगर मन, ह्रदय में ऐसा विचार हो कि मेरे दुआरा सर्प वध हुआ है | कई विद्वान् मानते हैं कि कुंडली में सर्प दोष या नाग दोष जिसे लोग काल सर्प योग भी कहते हैं तभी लगता है जब पूर्व जन्म में या स्व अथवा आपके पूर्वजों से सर्प वध हुआ हो | उसकी शांति यह कर्म करने से हो जाती है |
संकल्प
देशकालौ संकीर्त्या सभार्यस्य ममेह जन्मनि जन्मान्तरे वा ज्ञानाद अज्ञानदा जात सर्पवधोत्थ दोष परिहाराथर्म सर्पं संस्कारकर्म करिष्ये |
अब आटे से बनाये हुये नाग को हाथ में अक्षत लेकर प्रार्थना करें – हे पूर्व काल में मरे हुए सर्प आप इस पिण्ड में आ जाएँ और अक्षत चढ़ाते हुए उसका पूजन करें | पूजन आप फूल, अक्षत, धूप, दीप, नैवेद्य आदि से करें और नमस्कार करते हुए प्रार्थना करें कि हे सर्प आप बलि ग्रहण करो और ऐश्वर्य को बढ़ाओ | फिर उसका सिंचन घी देकर करें | फिर विधि नामक अग्नि का ध्यान हवन कुण्ड में करें और संकल्प करें – कि मैं अपना नाम व गोत्र बोलें और कहें – इस सर्प संस्कार होम रूप कर्म के विषय में देवता के परिग्रह के लिए अन्वाधान करता हूँ | अब “ ॐ भूः स्वाहा अग्नेय इदं “ बोल कर तीन आहुतियाँ दें और “ ॐ भूभूर्व: स्वः स्वाहा “ कह कर चौथी आहुति सर्प के मुख में दें फिर सुरवे में घी लेकर सर्प को सिंचन करें | गायत्री मंत्र पढ़ते हुए जल से पोषण करें और निम्न प्रार्थना को ध्यान पूर्वक पढ़ें |
जो अन्तरिक्ष पृथ्वी स्वर्ग में रहने वाले हैं, उन सर्पो को नमस्कार है | जो सूर्य की किरण जल, इसमें विराजमान है, उनको नमस्कार है | जो यातुधानों के वाण रूप है, जो वनस्पति और वृक्षों पर सोते हैं उनको नमस्कार है | हे महा भोगिन रक्षा करो रक्षा करो सम्पूर्ण उपद्रव और दुख से मेरी रक्षा करो |पुष्ट जिसका शरीर है ऐसी पवित्र संतति को मुझे दो | कृपा से युक्त आप दीनों पे दया करने वाले आप शरणागत मेरी रक्षा करो |जो ज्ञान व अज्ञान से मैंने या मेरे पित्रों ने सर्प का वध इस जन्म या अन्य जन्म में किया हो, उस पाप को नष्ट करो और मेरे अपराध को क्षमा करो |
अब उस नाग को होम अग्नि में भस्म कर दें और स्नान कर लें |
अब जो सोने ताँबे चाँदी के सांप बनाए थे उन्हे नजदीक किसी नदी में विसर्जन करें और निम्न मंत्र 3 बार पढ़ कर विसर्जन कर दें | यह मंत्र अति गोपनीय है |

नाग विसर्जन मंत्र

ॐ नमोस्तु सर्पेभ्यो ये दिवि येषां वर्ष मिषवः तेभ्यो दशप्प्रचि र्दशादक्षिणा दशप्रीतची र्दशोदीची र्दशोर्दुध्वाः तेब्भ्यो नमोsअस्तुतेनो वन्तुतेनो मृडायन्तुते यन्द्रिविष्मो यश्चनो द्वेष्टितमेषां जम्भेध्मः ||
जहां दिवि बोला गया है, दूसरी बार जब पढे तो अन्तरिक्ष और तीसरी बार पृथ्वी घोष करें |
इसके साथ ही इस कर्म में सर्प सूक्त का पाठ करना श्रेष्ठ माना गया है |

श्री सर्प सूक्त 


।। अथ सर्प सूक्त का पाठ ।।
 
विष्णु लोके च ये सर्पा: वासुकी प्रमुखाश्च ये । ‎ नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदश्च ।।१।।
 
रुद्र लोके च ये सर्पा: तक्षक: प्रमुखस्तथा । नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।२।।
 
ब्रह्मलोकेषु ये सर्पा शेषनाग परोगमा:। नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।३।।
 
इन्द्रलोकेषु ये सर्पा: वासु‍कि प्रमुखाद्य:। नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।४।।
 
कद्रवेयश्च ये सर्पा: मातृभक्ति परायणा। नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।४।।
 
इन्द्रलोकेषु ये सर्पा: तक्षका प्रमुखाद्य। नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।५।।
 
सत्यलोकेषु ये सर्पा: वासुकिना च रक्षिता। नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।६।।
 
मलये चैव ये सर्पा: कर्कोटक प्रमुखाद्य। नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।७।।
 
पृथिव्यां चैव ये सर्पा: ये साकेत वासिता। नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।८।।
 
सर्वग्रामेषु ये सर्पा: वसंतिषु संच्छिता। नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।९।।
 
ग्रामे वा यदि वारण्ये ये सर्पप्रचरन्ति च । नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।१०।।
 
समुद्रतीरे ये सर्पाये सर्पा जंलवासिन:। नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।११।।
 
रसातलेषु ये सर्पा: अनन्तादि महाबला:। नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।१२।
 
|| इति श्री सर्प सूक्त पाठ समाप्त ||

NAAG PATNI KRIT KRISHAN STUTI॥ नाग पत्नी कृत कृष्ण स्तुतिः ॥



॥ श्रीमद्भागवतान्तर्गतं नाग पत्न्य कृत स्तुतिः ॥

॥ नागपत्न्य ऊचुः ॥

न्याय्यो हि दण्डः कृतकिल्बिषेऽस्मिंस्तवावतारः खलनिग्रहाय ।

रिपोः सुतानामपि तुल्यदृष्टेर्धत्से दमं फलमेवानुशंसन् ॥ ३३ ॥

अनुग्रहोऽयं भवतः कृतो हि नो दण्डोऽसतां ते खलु कल्मषापहः ।

यद्दन्दशूकत्वममुष्य देहिनः क्रोधोऽपि तेऽनुग्रह एव सम्मतः ॥ ३४॥

तपः सुतप्तं किमनेन पूर्वं निरस्तमानेन च मानदेन ।

धर्मोऽथ वा सर्वजनानुकम्पया यतो भवांस्तुष्यति सर्वजीवः ॥ ३५॥

कस्यानुभावोऽस्य न देव विद्महे तवाङ्घ्रिरेणुस्पर्शाधिकारः ।

यद्वाञ्छया श्रीर्ललनाचरत्तपो विहाय कामान् सुचिरं धृतव्रता ॥ ३६॥

न नाकपृष्ठं न च सार्वभौमं न पारमेष्ठ्यं न रसाधिपत्यम् ।

न योगसिद्धीरपुनर्भवं वा वाञ्छन्ति यत्पादरजःप्रपन्नाः ॥ ३७॥

तदेष नाथाप दुरापमन्यैस्तमोजनिः क्रोधवशोऽप्यहीशः ।

संसारचक्रे भ्रमतः शरीरिणो यदिच्छतः स्याद्विभवः समक्षः ॥ ३८॥

नमस्तुभ्यं भगवते पुरुषाय महात्मने ।

भूतावासाय भूताय पराय परमात्मने ॥ ३९॥

ज्ञानविज्ञाननिधये ब्रह्मणेऽनन्तशक्तये ।

अगुणायाविकाराय नमस्ते प्राकृताय च ॥ ४०॥

कालाय कालनाभाय कालावयवसाक्षिणे ।

विश्वाय तदुपद्रष्ट्रे तत्कर्त्रे विश्वहेतवे ॥ ४१॥

भूतमात्रेन्द्रियप्राणमनोबुद्ध्याशयात्मने ।

त्रिगुणेनाभिमानेन गूढस्वात्मानुभूतये ॥ ४२॥

नमोऽनन्ताय सूक्ष्माय कूटस्थाय विपश्चिते ।

नानावादानुरोधाय वाच्यवाचकशक्तये ॥ ४३॥

नमः प्रमाणमूलाय कवये शास्त्रयोनये ।

प्रवृत्ताय निवृत्ताय निगमाय नमो नमः ॥ ४४॥

नमः कृष्णाय रामाय वसुदेवसुताय च ।

प्रद्युम्नायानिरुद्धाय सात्वतां पतये नमः ॥ ४५॥

नमो गुणप्रदीपाय गुणात्मच्छादनाय च ।

गुणवृत्त्युपलक्ष्याय गुणद्रष्ट्रे स्वसंविदे ॥ ४६॥

अव्याकृतविहाराय सर्वव्याकृतसिद्धये ।

हृषीकेश नमस्तेऽस्तु मुनये मौनशीलिने ॥ ४७॥

परावरगतिज्ञाय सर्वाध्यक्षाय ते नमः ।

अविश्वाय च विश्वाय तद्द्रष्ट्रेऽस्य च हेतवे ॥ ४८॥

त्वं ह्यस्य जन्मस्थितिसंयमान् प्रभो

गुणैरनीहोऽकृतकालशक्तिधृक् ।

तत्तत्स्वभावान् प्रतिबोधयन् सतः

समीक्षयामोघविहार ईहसे ॥ ४९॥

तस्यैव तेऽमूस्तनवस्त्रिलोक्यां

शान्ता अशान्ता उत मूढयोनयः ।

शान्ताः प्रियास्ते ह्यधुनावितुं सतां

स्थातुश्च ते धर्मपरीप्सयेहतः ॥ ५०॥

अपराधः सकृद्भर्त्रा सोढव्यः स्वप्रजाकृतः ।

क्षन्तुमर्हसि शान्तात्मन् मूढस्य त्वामजानतः ॥ ५१॥

अनुगृह्णीष्व भगवन् प्राणांस्त्यजति पन्नगः ।

स्त्रीणां नः साधुशोच्यानां पतिः प्राणः प्रदीयताम् ॥ ५२॥

विधेहि ते किङ्करीणामनुष्ठेयं तवाज्ञया ।

यच्छ्रद्धयानुतिष्ठन् वै मुच्यते सर्वतोभयात् ॥ ५३॥

(श्रीमद्भागवतपुराण, दशमस्कन्ध , अध्याय 16, श्लोक 33-53)



नाग पत्नियों ने कहा – प्रभो! आपका यह अवतार ही दुष्टों को दण्ड देने के लिये हुआ है। इसलिये इस अपराधी को दण्ड देना सर्वथा उचित है। आपकी दृष्टि में शत्रु और पुत्र का कोई भेदभाव नहीं है। इसलिये आप जो किसी को दण्ड देते हैं, वह उसके पापों का प्रायश्चित कराने और उसका परम कल्याण करने के लिये ही। आपने हम लोगों पर यह बड़ा ही अनुग्रह किया। यह तो आपका कृपा-प्रसाद ही है, क्योंकि आप जो दुष्टों को दण्ड देते हैं, उससे उनके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। इस सर्प के अपराधी होने में तो कोई संदेह ही नहीं है। यदि यह अपराधी न होता तो इसे सर्प की योनि ही क्यों मिलती? इसलिये हम सच्चे हृदय से आपके इस क्रोध को भी आपका अनुग्रह ही समझती हैं।

अवश्य ही पूर्वजन्म में इसने स्वयं मान रहित होकर और दूसरों का सम्मान करते हुए कोई बहुत बड़ी तपस्या की है। अथवा सब जीवों पर दया करते हुए इसने कोई बहुत बड़ा धर्म किया है तभी तो आप इसके ऊपर संतुष्ट हुए हैं। क्योंकि सर्व-जीवनस्वरूप आपकी प्रसन्नता का यही उपाय है।

भगवन! हम नहीं समझ पातीं कि यह इसकी किस साधना का फल है, जो यह आपके चरण कमलों की धूल का स्पर्श पाने का अधिकारी हुआ है। आपके चरणों की रज इतनी दुर्लभ है कि उसके लिये आपकी अर्धांगिनी लक्ष्मी जी को भी बहुत दिनों तक समस्त भोगों का त्याग करके नियमों का पालन करते हुए तपस्या करनी पड़ी थी।

प्रभो! जो आपके चरणों की धूल की शरण ले लेते हैं, वे भक्तजन स्वर्ग का राज्य या पृथ्वी की बादशाही नहीं चाहते। न वे रसातल का ही राज्य चाहते और न तो ब्रह्मा का पद ही लेना चाहते हैं। उन्हें अणिमादि योग-सिद्धियों की भी चाह नहीं होती। यहाँ तक कि वे जन्म-मृत्यु से छुडाने वाले कैवल्य-मोक्ष की भी इच्छा नहीं करते।

स्वामी! यह नागराज तमोगुणी योनि में उत्पन्न हुआ है और अत्यन्त क्रोधी है। फिर भी इसे आपकी वह परम पवित्र चरण रज प्राप्त हुई, जो दूसरों के लिये सर्वथा दुर्लभ है; तथा जिसको प्राप्त करने की इच्छा-मात्र से ही संसार चक्र में पड़े हुए जीव को संसार के वैभव-सम्पत्ति की तो बात ही क्या – मोक्ष की भी प्राप्ति हो जाती है।

प्रभो! हम आपको प्रणाम करती हैं। आप अनन्त एवं अचिन्त्य ऐश्वर्य के नित्य निधि हैं। आप सबके अन्तःकरणों में विराजमान होने पर भी अनन्त हैं। आप समस्त प्राणियों और पदार्थों के आश्रय तथा सब पदार्थों के रूप में भी विद्यमान हैं। आप प्रकृति से परे स्वयं परमात्मा हैं। आप सब प्रकार के ज्ञान और अनुभवों के खजाने हैं। आपकी महिमा और शक्ति अनन्त है। आपका स्वरूप अप्राकृत – दिव्य चिन्मय है, प्राकृतिक गुणों एवं विकारों का आप कभी स्पर्श ही नहीं करते।

आप ही ब्रह्मा हैं, हम आपको नमस्कार कर रही हैं। आप प्रकृति में क्षोभ उत्पन्न करने वाले काल हैं, कालशक्ति के आश्रय हैं और काल के क्षण-कल्प आदि समस्त अवयवों के साक्षी हैं। आप विश्वरूप होते हुए भी उससे अलग रहकर उसके दृष्टा हैं। आप उसके बनाने वाले निमित्तकारण तो हैं ही, उसके रूप में बनने वाले उपादान कारण भी हैं।

प्रभो! पंचभूत, उसकी मात्राएँ, इन्द्रियाँ, प्राण, मन, बुद्धि और इन सबका खजाना चित्त – ये सब आप ही हैं। तीनों गुण और उनके कार्यों में होने वाले अभिमान के द्वारा आपने अपने साक्षात्कार को छिपा रखा है। आप देश, काल और वस्तुओं की सीमा से बाहर – अनन्त हैं। सूक्ष्म से भी सूक्ष्म और कार्य-कारणों के समस्त विकारों में भी एकरस, विकाररहित और सर्वज्ञ हैं। ईश्वर हैं कि नहीं हैं, सर्वज्ञ हैं कि अल्पज्ञ इत्यादि अनेक मतभेदों के अनुसार आप उन-उन मतवादियों को उन्हीं-उन्हीं रूपों में दर्शन देते हैं।

समस्त शब्दों के अर्थ के रूप में तो आप हैं ही, शब्दों के रूप में भी हैं तथा उन दोनों का सम्बन्ध जोड़ने वाली शक्ति भी आप ही हैं। हम आपको नमस्कार करती हैं। प्रयक्ष-अनुमान आदि जितने भी प्रमाण हैं, उनको प्रमाणित करने वाले मूल आप ही हैं। समस्त शास्त्र आपसे ही निकले हैं और आपका ज्ञान स्वतःसिद्ध है। आप ही मन को लगाने की विधि के रूप में और उसको सब कहीं से हटा लेने की आज्ञा के रूप में प्रवृत्तिमार्ग और निवृत्तिमार्ग हैं। इन दोनों के मूल वेद भी स्वयं आप ही हैं। हम आपको बार-बार नमस्कार करती हैं।

आप शुद्धस्त्वमय वसुदेव के पुत्र वासुदेव, संकर्षण एवं प्रद्युम्न और अनिरुद्ध भी हैं। इस प्रकार चतुर्व्यूह के रूप में आप भक्तों तथा यादवों के स्वामी हैं। श्रीकृष्ण! हम आपको नमस्कार करती हैं। आप अंतःकरण और उसकी वृत्तियों के प्रकाशक हैं और उन्हीं के द्वारा अपने-आपको ढक रखते हैं। उन अंतःकरण और वृत्तियों के द्वारा ही आपके स्वरूप का कुछ-कुछ संकेत भी मिलता है। आप उन गुणों और उनकी वृत्तियों के साक्षी तथा स्वयंप्रकाश हैं। हम आपको नमस्कार करती हैं। आप मूलप्रकृति में नित्य विहार करते रहते हैं। समस्त स्थूल और सूक्ष्म जगत की सिद्धि आपसे ही होती है। हृषिकेश! आप मननशील आत्माराम हैं। मौन ही आपका स्वभाव है। आपको नमस्कार है।

आप स्थूल, सूक्ष्म समस्त गतियों के जानने वाले तथा सबके साक्षी हैं। आप नाम रूपात्मक विश्वप्रपंच के निषेध की अवधि तथा उसके अधिष्ठान होने के कारण विश्वरूप भी हैं। आप विश्व के अध्यास तथा अपवाद साक्षी हैं एवं अज्ञान के द्वारा उसकी सत्यत्त्वभ्रान्ति एवं स्वरूप ज्ञान के द्वारा उसकी आत्यन्तिक निवृत्ति के भी कारण हैं। आपको हमारा नमस्कार है।

प्रभो! यद्यपि कर्तापन न होने के कारण आप कोई भी कर्म नहीं करते, निष्क्रिय हैं – तथापि अनादि कालशक्ति को स्वीकार करके प्रकृति के गुणों के द्वारा आप इस विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय की लीला करते हैं। क्योंकि आपकी लीलाएँ अमोघ हैं। आप सत्यसंकल्प हैं। इसलिये जीवों के संस्कार रूप से छिपे हुए स्वभावों को अपनी दृष्टि से जाग्रत कर देते हैं।

त्रिलोकी में तीन प्रकार की योनियाँ हैं – सत्त्वगुण प्रधान शान्त, रजोगुण प्रधान अशान्त और तमोगुण प्रधान मूढ। वे सब-की-सब आपकी लीला-मूर्तियाँ हैं। फिर भी इस समय आपको सत्त्वगुण प्रधान शान्तजन ही विशेष प्रिय हैं। क्योंकि आपका यह अवतार और ये लीलाएँ साधुजनों की रक्षा तथा धर्म की रक्षा एवं विस्तार के लिये ही हैं। शान्तात्मन्! स्वामी को एक बार अपनी प्रजा का अपराध सह लेना चाहिये। यह मूढ़ है, आपको पहचानता नहीं हैं, इसलिये इसे क्षमा कर दीजिये। भगवन! कृपा कीजिये; अब यह सर्प मरने ही वाला है। साधु पुरुष सदा से ही हम अबलाओं पर दया करते आये हैं। अतः आप हमें हमारे प्राण स्वरूप पतिदेव को दे दीजिये। हम आपकी दासी हैं। हमें आप आज्ञा दीजिये, आपकी क्या सेवा करें? क्योंकि जो श्रद्धा के साथ आपकी आज्ञाओं का पालन – आपकी सेवा करता है, वह सब प्रकार के भयों से छुटकारा पा जाता है।



॥ ब्रह्मवैवर्तपुराणान्तर्गत नाग-पत्न्य कृत स्तुति ॥



॥ सुरसोवाच ॥

हे जगत्कान्त मे कान्तं देहि मानं च मानद ।

पतिः प्राणाधिकः स्त्रीणां नास्ति बन्धुश्च तत्परः ॥ १७ ॥

सकलभुवननाथ प्राणनाथं मदीयं न कुरु वधमनन्त प्रेमसिन्धो सुबन्धो ।

अखिलभुवनबन्धो राधिकाप्रेमसिन्धो पतिमिह कुरु दानं मे विधातुर्विधातः ॥ १८ ॥

त्रिनयनविधिशेषाः षण्मुखश्चास्यसंघैः स्तवनविषयजाड्यात्स्तोतुमीशा न वाणी ।

खलु निखिलवेदाःस्तोतुमन्येऽपि देवाः स्तवनविषयशक्ताः सन्ति सन्तस्तवैव ॥ १९ ॥

कुमतिरहमधिज्ञा योषितां क्वाधमा वा क्व भुवनगतिरीशश्चक्षुषोऽगोचराऽपि ।

विधिहरिहरशेषैः स्तूयमानश्च यस्त्वमतनुमनुजमीशं स्तोतुमिच्छामि तं त्वाम् ॥ २० ॥

स्तवनविषयभीता पार्वती कस्य पद्मा श्रुतिगणजनयित्री स्तोतुमीशा न यं त्वाम् ।

कलिकलुषनिमग्ना वेदवेदाङ्गशास्त्र श्रवणविषयमूढा स्तोतुमिच्छामि किं त्वाम् ॥ २१ ॥

शयानो रत्नपर्यङ्के रत्नभूषणभूषितः ।

रत्नभूषणभूषाङ्गो राधावक्षसि संस्थितः॥ ॥ २२ ॥

चन्दनोक्षितसर्वाङ्गः स्मेराननसरोरुहः ।

प्रोद्यत्प्रेमरसाम्भोधौ निमग्नः सततं सुखात् ॥ २३ ॥

मल्लिकामालतीमालाजालैः शोभितशेखरः ।

पारिजातप्रसूनानां गन्धामोदितमानसः ॥ २४ ॥

पुंस्कोकिलकलध्वानैर्भ्रमरध्वनिसंयुतैः ।

कुसुमेषु विकारेण पुलकाङ्कितविग्रहः ॥ २५ ॥

प्रियाप्रदत्तताम्बूलं भुक्तवान्यः सदा मुदा ।

वेदा अशक्ता यं स्तोतुं जडीभूता विचक्षणाः ॥ २६ ॥

तमनिर्वचनीयं च किं स्तौमि नागवल्लभा ।

वन्देऽहं त्वत्पदाम्भोजं ब्रह्मेशशेषसेवितम् ॥ २७ ॥

लक्ष्मीसरस्वतीदुर्गा जाह्नवी वेदमातृभिः ।

सेवितं सिद्धसंघैश्च मुनीन्द्रैर्मनुभिः सदा ॥ २८ ॥

निष्कारणायाखिलकारणाय सर्वेश्वरायापि परात्पराय ।

स्वयंप्रकाशाय परावराय परावराणामधिपाय ते नमः ॥ २९ ॥

हे कृष्ण हे कृष्ण सुरासुरेश ब्रह्मेश शेषेश प्रजापतीश ।

मुनीश मन्वीश चराचरेश सिद्धीश सिद्धेश गणेश पाहि ॥ ३० ॥

धर्मेश धर्मीश शुभाशुभेश वेदेश वेदेष्वनिरूपितश्च ।

सर्वेश सर्वात्मक सर्वबन्धो जीवीश जीवेश्वर पाहि मत्प्रभुम् ॥ ३१ ॥

इत्येवं स्तवनं कृत्वा भक्तिनम्रात्मकन्धरा ।

विधृत्य चरणाम्भोजं तस्थौ नागेशवल्लभा ॥ ३२ ॥

नागपत्नीकृतं स्तोत्रं त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नरः ।

सर्वपापात्प्रमुक्तस्तु यात्यन्ते श्रीहरेः पदम् ॥ ३३ ॥

इह लोके हरेर्भक्तिमन्ते दास्यं लभेद्ध्रुवम् ।

लभते पार्षदो भूत्वा सालोक्यादिचतुष्टयम् ॥ ३४ ॥

(ब्रह्म वैवर्त पुराण । श्रीकृष्णजन्मखण्ड: अध्याय 19 । १७-३४)



सुरसा बोली

हे जगदीश्वर! आप मुझे मेरे स्वामी को लौटा दीजिये। दूसरों को मान देने वाले प्रभो! मुझे भी दान दीजिये। स्त्रियों को पति प्राणों से भी बढ़कर प्रिय होता है। उनके लिये पति से बढ़कर दूसरा कोई बन्धु नहीं है। नाथ! आप देवेश्वरों के भी स्वामी, अनन्त प्रेम के सागर, उत्तम बन्धु, सम्पूर्ण भुवनों के बान्धव तथा श्री राधिका जी के लिये प्रेम के समुद्र हैं। अतः मेरे प्राणनाथ को वध न कीजिये। आप विधाता के भी विधाता हैं। इसलिये यहाँ मुझे पतिदान दीजिये। त्रिनेत्रधारी महादेव के पाँच मुख हैं; ब्रह्मा जी के चार और शेषनाग के सहस्र मुख हैं; कार्तिकेय के भी छः मुख हैं; परंतु ये लोग भी अपने मुख-समूहों द्वारा आपकी स्तुति करने में जड़वत हो जाते हैं। साक्षात सरस्वती भी आपका स्तवन करने में समर्थ नहीं हैं। सम्पूर्ण वेद, अन्यान्य देवता तथा संत-महात्मा भी आपकी स्तुति के विषय में शक्तिहीनता का ही परिचय देते हैं। कहाँ तो मैं कुबुद्धि, अज्ञ एवं नारियों में अधम सर्पिणी और कहाँ सम्पूर्ण भुवनों के परम आश्रय तथा किसी के भी दृष्टिपथ में न आने वाले आप परमेश्वर! जिनकी स्तुति ब्रह्मा, विष्णु और शेषनाग करते हैं, उन मानव-वेषधारी आप नराकार परमेश्वर की स्तुति मैं करना चाहती हूँ, यह कैसी विडम्बना है? पार्वती, लक्ष्मी तथा वेदजननी सावित्री जिनके स्तवन से डरती हैं और स्तुति करने में समर्थ नहीं हो पातीं; उन्हीं आप परमेश्वर का स्तवन कलिकलुष में निमग्न तथा वेद-वेदांग एवं शास्त्रों के श्रवण में मूढ़ स्त्री मैं क्यों करना चाहती हूँ, यह समझ में नहीं आता। आप रत्नमय पर्यंक पर रत्ननिर्मित भूषणों से भूषित हो शनय करते हैं। रत्नालंकारों से अलंकृत अंगवाली राधिका के वक्षःस्थल पर विराजमान होते हैं। आपके सम्पूर्ण अंग चन्दन से चर्चित रहते हैं, मुखारविन्द पर मन्द मुस्कान की प्रभा फैली होती है। आप उमड़ते हुए प्रेमरस के महासागर में सदा सुख से निमग्न रहते हैं। आपका मस्तक मल्लिका और मालती की मालाओं से सुशोभित होता है।

आपका मानस नित्य निरन्तर पारिजात पुष्पों की सुगन्ध से आमोदित रहा करता है। कोकिल के कलरव तथा भ्रमरों के गुंजारव से उद्दीपित प्रेम के कारण आपके अंग उठी हुई पुलकावलियों से अलंकृत रहते हैं। जो सदा प्रियतमा के दिये हुए ताम्बूल का सानन्द चर्वण करते हैं; वेद भी जिनकी स्तुति करने में असमर्थ हैं तथा बड़े-बड़े विद्वान भी जिनके स्तवन में जड़वत हो जाते हैं; उन्हीं अनिर्वचनीय परमेश्वर का स्तवन मुझ-जैसी नागिन क्या कर सकती है? मैं तो आपके उन चरणकमलों की वन्दना करती हूँ, जिनका सेवन ब्रह्मा, शिव और शेष करते हैं तथा जिनकी सेवा सदा लक्ष्मी, सरस्वती, पार्वती, गंगा, वेदमाता सावित्री, सिद्धों के समुदाय, मुनीन्द्र और मनु करते हैं। आप स्वयं कारणरहित हैं, किंतु सबके कारण आप ही हैं। सर्वेश्वर होते हुए भी परात्पर हैं स्वयंप्रकाश, कार्य-कारणस्वरूप तथा उन कार्य-कारणों के भी अधिपति हैं। आपको मेरा नमस्कार है। हे श्रीकृष्ण! हे सच्चिदानन्दघन! हे सुरासुरेश्वर! आप ब्रह्मा, शिव, शेषनाग, प्रजापति, मुनि, मनु, चराचर प्राणी, अणिमा आदि सिद्धि, सिद्ध तथा गुणों के भी स्वामी हैं। मेरे पति की रक्षा कीजिये, आप धर्म और धर्मी के तथा शुभ और अशुभ के भी स्वामी हैं। सम्पूर्ण वेदों के स्वामी होते हुए भी उन वेदों का आपका अच्छी तरह निरूपण नहीं हो सका है। सर्वेश्वर! आप सर्वस्वरूप तथा सबके बन्धु हैं। जीवधारियों तथा जीवों के भी स्वामी हैं। अतः मेरे पति की रक्षा कीजिये।

इस प्रकार स्तुति करके नागराजवल्लभा सुरसा भक्तिभाव से मस्तक झुका श्रीकृष्ण के चरणकमलों को पकड़कर बैठ गयी। नागपत्नी द्वारा किये गये इस स्तोत्र का जो त्रिकाल संध्या के समय पाठ करता है, वह सब पापों से मुक्त हो अन्ततोगत्वा श्रीहरि के धाम में चला जाता है। उसे इहलोक में श्रीहरि की भक्ति प्राप्त होती है और अन्त में वह निश्चय ही श्रीकृष्ण का दास्य-सुख पा जाता है। वह श्रीहरि का पार्षद हो सालोक्य आदि चतुर्विध मुक्तियों को करतलगत कर लेता है।



॥ गर्ग संहितान्तर्गत नाग-पत्न्य कृत स्तुति ॥



॥ नागपत्‍न्य ऊचुः ॥

नमः श्रीकृष्णचंद्रय गोलोकपतये नमः ।

असंख्यांडाधिपते परिपूर्णतमाय ते ॥ १८ ॥

श्रीराधापतये तुभ्यं व्रजाधीशाय ते नमः ।

नमः श्रीनंदपुत्राय यशोदानंदनाय ते ॥ १९ ॥

पाहि पाहि परदेव पन्नगं

त्वत्परं न शरणं जगत्त्रये ।

त्वम् पदात्परतरो हरिः स्वयं

लीलया किल तनोषि विग्रहम् ॥ २० ॥

(गर्ग संहिता, वृन्‍दावन॰ 12। 18-20)



नाग पत्नियाँ बोलीं

भगवन! आप परिपूर्णतम परमात्मा तथा संख्य ब्रह्माण्‍डों के अधिपति हैं। आप गोलोकनाथ श्रीकृष्णचन्द्र को हमारा बारंबार नमस्कार है। व्रज के अधीश्वर आप श्रीराधावल्लभ को नमस्कार है। नन्द के लाला एवं यशोदा नन्दन को नमस्कार है। परमदेव ! आप इस नाग की रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये। तीनों लोकों में आपके सिवा दूसरा कोई इसे शरण देने वाला नहीं है। आप स्वयं साक्षात परात्पर श्री हरि हैं और लीला से ही स्वच्छन्दतापूर्वक नाना प्रकार के श्रीविग्रहों का विस्तार करते हैं।



सर्प दोष या नाग दोष का निवारण पाने के लिए नागों की अधिष्ठात्री देवी मां मनसा के साथ ही नागों की पूजा-अर्चना करना चाहिये, नाग स्तोत्रों में सबसे प्रचलित मंत्रो में से एक है सर्प सूक्त स्तोत्र है !

इसका पाठ शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि से शुरू करना चाहिये, पंचमी तिथि का स्वामी नाग है,
राहु सर्प का स्वरूप है। इसलिए नाग का पूजन पंचमी को होना चाहिए।
शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि पूर्णा तिथि होती है इस दिन संयोगवश सोमवार और नाग पंचमी होने से इस दिन की महत्वता बढ़ जाती है !
पंचम्यां तत्र भविता ब्रह्मा प्रोवाच लेलीहान।
तस्मादियं महाबाहो पंचमी दयिता सदा।
नागानामानन्दकरी दंत वै ब्रह्नणा पुरा।। 
अर्थात : 
ब्रह्माजी ने पंचमी तिथि को ही नाग-सर्पों को वर दिया था कि जन्मेजय के सर्प यज्ञ के दौरान ऋषि आस्तिक आपकी रक्षा करेंगे। पंचमी के दिन ही आस्तिक मुनि ने नागों की रक्षा की थी इसलिए पंचमी तिथि नागों को विशेष प्रिय है।
नाग पंचमी पर भगवान शिव, नाग देवता और नागों की अधिष्ठात्री देवी मां मनसा के पूजन से सर्प दोष/नाग दोष/काल सर्प दोष/ राहु दोष समेत अन्य दोषों से छुटकारा पाया जा सकता है।

नागपंचमी पर 12 नागों की क्रमश: पूजन करें। ये क्रम इस प्रकार हैं-

अनंत, वासुकि, शंख, पद्म, कंबल, कर्कोटक, अष्ववर, धृतराष्ट्र, शंखपाल, कालिया, तक्षक एवं पिंगल।
गरुड़ पुराण के अनुसार नागपंचमी के दिन घर के दोनों ओर नाग का चित्र बनाकर अनंत आदि नौ नामों का पूजन करना चाहिए। स्कंद पुराण के अनुसार श्रावण शुक्ल पक्ष पंचमी को नाग की पूजा से मनोकामना पूरी होती हैं। सर्पदंश से सुरक्षित रहने के लिए नागपंचमी के दिन उनकी वामी पर दूध चढ़ाएं एवं चांदी या सोने या मिट्‌टी नाग बनाकर हल्दी, चंदन, धूप पंचामृत, नैवेद्य आदि से नागों की विधिवत पूजा करें। पंचमी को नागपूजा करने वाले व्यक्ति को इस दिन भूमि नहीं खोदना चाहिए। पूजन करने के बाद सर्प देवता की आरती उतारें, कच्चे दूध में शहद, चीनी या थोड़ा सा गुड़ मिलाकर सांप की वामी या बिल में डाल दें। उस बिल की मिट्‌टी लेकर चक्की, चूल्हे, दरवाजे के निकट दीवार पर तथा घर के कोनों में सांप बनाएं। भीगे हुए बाजरा, घी और गुड़ से इनकी पूजा करें। आरती उतारें और नागपंचमी कथा श्रवण करें। ऐसा करने से घर में सांप के भय से मुक्ति प्राप्त होती है और घर में सांप का प्रवेश नहीं होता है।
नाग पंचमी के दिन ये करें उपाय:-
  1. भगवान शिव का अभिषेक करते समय चांदी के नाग और नागिन का जोड़ा चढ़ाएं।
  2. इस दिन किसी सपेरे से नाग नागिन का जोड़ा खरीदकर उसे जंगल में मुक्त करवाएं।
  3. नव नाग स्तोत्र का 108 बार पाठ करें। अपने वजन के बराबर कोयले पानी में बहाएं।
  4. पीपल के पेड़ के नीचे दूध रखें और बहते हुए जल में 11 नारियल प्रवाहित करें।
  5. रुद्राभिषेक करने से भी कालसर्प दोष को कम किया जा सकता है।
  6. शिव मंदिर की सफाई, मरम्मत तथा पुताई करवाएं।
  7. शिवजी को विजया, अर्क पुष्प, धतूर पुष्प, फल चढ़ाएं तथा दूध से रुद्राभिषेक करवाएं।
नाग पंचमी पर क्या न करें -
इस दिन हो सके तो कहीं पर भी जमीन की खुदाई ना करें तथा छोटे जीव जंतुओं की रक्षा करने का प्रयत्न करें
बीमार पशु पक्षियों को हो सके तो अस्पताल तक पहुंचाने की कोशिश करें तथा पूजा पाठ में शुद्ध सामग्री ही भगवान शिव को अर्पण करें
 काल सर्प दोष निवारण के उपाय भी करवाए।
  1. कृष्ण यजुर्वेद में उल्लेखित सर्प सूक्त स्तोत्र जिसे नाग स्तोत्र भी कहा जाता है सर्प पूजन का संस्कृत स्तवन है
  2. यह नौ हिंदू सर्प देवताओं को समर्पित एक शक्तिशाली प्रार्थना है। यह नौ सर्प देवता है:अनंत, वासुकी, पद्मनाभ, शेष, कम्बाला, शंखपाल, दृतराष्ट्र, तक्षश और कालिया
  3. ये सर्प मंत्र दो प्रकार के होते है, एक सर्पों के लिए और दूसरा नक्षत्रों के लिए जिसे नक्षत्र सूक्त मंत्र भी कहा जाता ह
ऊँ नमोस्तु सर्पेभ्यो ये के च पृथ्वीमनु।
येऽ अंतरिक्षे ये दिवितेभ्य: सर्पेभ्यो नम:।।
जो सर्प पृथ्वी के अंदर व अंतरिक्ष में हैं और स्वर्ग में हैं, उन सर्पों को नमस्कार है। राक्षसों के लिए बाण के समान तीक्ष्ण और वनस्पति के अनुकूल तथा जंगलों में रहने वाले सर्पों को नमस्कार है। 
ये वामी रोचने दिवो ये वा सूर्यस्य रश्मिषु।
येषामपसु सदस्कृतं तेभ्य: सर्वेभ्यो: नम:।। 
जो सूर्य की किरणों में सूर्य की ओर मुख किए हुए चला करते हैं तथा जो सागरों में समूह रूप से रहते हैं, उन सर्पों को नमस्कार है। तीनों लोकों में जो सर्प हैं, उन्हें भी हम नमस्कार करते हैं।
विशेष : जो व्यक्ति नागपंचमी को सोने, चांदी व तांबे के नाग बनवाकर शिव मंदिर में चढ़ाता है व ब्राह्मण को दान देता है, उसका हमेशा के लिए सर्प का भय खत्म हो जाता है और वह स्वर्गलोक को प्राप्त होता है।


।। अथ सर्प सूक्त का पाठ ।।
 
विष्णु लोके च ये सर्पा: वासुकी प्रमुखाश्च ये ।
‎ नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदश्च ।।१।।
 
रुद्र लोके च ये सर्पा: तक्षक: प्रमुखस्तथा
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।२।।
 
ब्रह्मलोकेषु ये सर्पा शेषनाग परोगमा:।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।३।।
 
इन्द्रलोकेषु ये सर्पा: वासु‍कि प्रमुखाद्य:।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।४।।
 
कद्रवेयश्च ये सर्पा: मातृभक्ति परायणा।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।४।।
 
इन्द्रलोकेषु ये सर्पा: तक्षका प्रमुखाद्य।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।५।।
 
सत्यलोकेषु ये सर्पा: वासुकिना च रक्षिता।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।६।।
 
मलये चैव ये सर्पा: कर्कोटक प्रमुखाद्य।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।७।।
 
पृथिव्यां चैव ये सर्पा: ये साकेत वासिता।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।८।।
 
सर्वग्रामेषु ये सर्पा: वसंतिषु संच्छिता।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।९।।
 
ग्रामे वा यदि वारण्ये ये सर्पप्रचरन्ति च ।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।१०।।
 
समुद्रतीरे ये सर्पाये सर्पा जंलवासिन:।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।११।।
 
रसातलेषु ये सर्पा: अनन्तादि महाबला:।
नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सर्वदा।।१२।
 
|| इति श्री सर्प सूक्त पाठ समाप्त ||
 
|| वेदोक्त सर्पसूक्तम् ||

नमोऽस्तु सर्पेभ्यो ये के च पृथिविमनु । 
ये अन्तरिक्षे ये दिवि तेभ्यः सर्पेभ्यो नमः ॥ १॥ 

येऽदो रोचने दिवो ये वा सूर्यस्य रश्मिषु । 
येषामप्सूषदः कृतं तेभ्यः सर्पेभ्यो नमः ॥ २॥ 

या इषवो यातुधानानां ये वा वनस्पतीम्+ रनु । 

ये वाऽवटेषु शेरते तेभ्यः सर्पेभ्यो नमः ॥ ३॥ 
 
स्वप्नस्स्वप्नाधिकरणे सर्वं निष्वापया जनम् । 
आ सूर्यमन्यांस्त्वापयाव्युषं जाग्रियामहम् ॥ ४॥ 
 
अजगरोनाम सर्पः सर्पिरविषो महान् । 
तस्मिन्हि सर्पस्सुधितस्तेनत्वा स्वापयामसि ॥ ५॥ 
 
सर्पस्सर्पो अजगरसर्पिरविषो महान् । 
तस्य सर्पात्सिन्धवस्तस्य गाधमशीमहि ॥ ६॥ 
 
कालिको नाम सर्पो नवनागसहस्रबलः । 
यमुनाह्रदेहसो जातो यो नारायण वाहनः ॥ ७॥
यदि कालिकदूतस्य यदि काः कालिकात् भयात् । 
जन्मभूमिमतिक्रान्तो निर्विषो याति कालिकः ॥ ८॥ 
 
आयाहीन्द्र पथिभिरीलितेभिर्यज्ञमिमन्नो भागदेयञ्जुषस्व । 
तृप्तां जुहुर्मातुलस्ये वयोषा भागस्थे पैतृष्वसेयीवपामिव ॥ ९॥ 
 
यशस्करं बलवन्तं प्रभुत्वं तमेव राजाधिपतिर्बभूव । 
सङ्कीर्णनागाश्वपतिर्नराणां सुमङ्गल्यं सततं दीर्घमायुः ॥ १०॥ 
 
कर्कोटको नाम सर्पो योद्वष्टी विष उच्यते । 
तस्य सर्पस्य सर्पत्वं तस्मै सर्प नमोऽस्तुते ॥ ११॥ 
सर्पगायत्री - भुजङ्गेशाय विद्महे सर्पराजाय धीमहि । तन्नो नागः प्रचोदयात् ॥ १२॥ 

नमो॑ अस्तु स॒र्पेभ्यो॒ ये के च॑ पृथि॒वीमनु॑ । ये अ॒न्तरि॑क्षे॒ ये दि॒वि तेभ्यः॑ स॒र्पेभ्यो॒ नमः॑ ॥ ये॑ऽदो रो॑च॒ने दि॒वो ये वा॒ सूर्य॑स्य र॒श्मिषु॑ । येषा॑म॒प्सु सदः॑ कृ॒तं तेभ्यः॑ स॒र्पेभ्यो॒ नमः॑ ॥ या इष॑वो यातु॒धाना॑नां॒ ये वा॒ वन॒स्पती॒ꣳ॒रनु॑ । ये वा॑ व॒टेषु॒ शेर॑ते॒ तेभ्यः॑ स॒र्पेभ्यो॒ नमः॑ ॥ ४। २। ८॥

।।अथ नवनाग स्तोत्रम ।।
 
अनन्तं वासुकिं शेषं पद्मनाभं च कम्बलं |
शन्खपालं ध्रूतराष्ट्रं च तक्षकं कालियं तथा ||

एतानि नव नामानि नागानाम च महात्मनं |
सायमकाले पठेन्नीत्यं प्रातक्काले विशेषतः
तस्य विषभयं नास्ति सर्वत्र विजयी भवेत ||
|| इति श्री नवनागस्त्रोत्रं सम्पूर्णं ||

नाग गायत्री मंत्र 
ॐ नव कुलाय विध्महे विषदन्ताय धी माहि तन्नो सर्प प्रचोदयात ll
जिस भी जातक की कुंडली में कालसर्प दोष, पितृ दोष, राहू व् केतु द्वारा जीवन पीड़ित चल रहा है तो सर्प सूक्त का पाठ करने से जातक की परेशानी शांत होने लगती है ! जिस भी व्यक्ति के सपने में सांप आते हो या सांप आदि से भय सताता रहता हो तो ऐसे व्यक्ति को भी सर्प सूक्त पढ़ना काफी फायदेमद रहता है !

द्वादश नाग 
अनंत, वासुकि, शंख, पद्म, कंबल, कर्कोटक, अष्ववर, धृतराष्ट्र, शंखपाल, कालिया, तक्षक एवं पिंगल।
शास्त्रों में द्वादश नाग अनंत, वासुकी, शेष, पद्म, कंबल, करकोटक, अश्वतर, धृतराष्ट्र, शंखपाल, कालिय, तक्षक व पिंगल का वर्णन है। इनका 12 मास की शुक्ल पंचमी पर अलग-अलग पूजन विधान है लेकिन मात्र सावन शुक्ल पंचमी पर पूजन से सभी पंचमी के बराबर फल मिलता है।
|| श्री नाग स्तोत्र ||
 
अगस्त्यश्च पुलस्त्यश्च वैशम्पायन एव च । 
सुमन्तुजैमिनिश्चैव पञ्चैते वज्रवारका: ॥१॥
 
मुने: कल्याणमित्रस्य जैमिनेश्चापि कीर्तनात् ।
विद्युदग्निभयं नास्ति लिखितं गृहमण्डल ॥२॥
 
अनन्तो वासुकि: पद्मो महापद्ममश्च तक्षक: ।
कुलीर: कर्कट: शङ्खश्चाष्टौ नागा: प्रकीर्तिता: ॥३॥
 
यत्राहिशायी भगवान् यत्रास्ते हरिरीश्वर: ।
भङ्गो भवति वज्रस्य तत्र शूलस्य का कथा ॥४॥
 
॥ इति श्रीनागस्तोत्रम् सम्पूर्णम् ॥

|| श्री नाग देवता की आरती ||

आरती कीजे श्री नाग देवता की, भूमि का भार वहनकर्ता की ।
उग्र रूप है तुम्हारा देवा भक्त, सभी करते है सेवा ।।
 
मनोकामना पूरण करते, तन-मन से जो सेवा करते ।
आरती कीजे श्री नाग देवता की , भूमि का भार वहनकर्ता की ।।
 
भक्तो के संकट हारी की आरती कीजे श्री नागदेवता की ।
आरती कीजे श्री नाग देवता की, भूमि का भार वहनकर्ता की ।।
 
महादेव के गले की शोभा ग्राम देवता मै है पूजा ।
श्ररेत वर्ण है तुम्हारी धव्जा ।।
 
दास ऊकार पर रहती क्रपा सहसत्रफनधारी की ।
आरती कीजे श्री नाग देवता की, भूमि का भार वहनकर्ता की ।।
 
आरती कीजे श्री नाग देवता की, भूमि का भार वहनकर्ता की ।।
 
।। इति समाप्त ।।



अथ नागस्तुति:

एतैत सर्पा: शिवकण्ठभूषा । लोकोपकाराय भुवं वहन्त: ।।
भूतै: समेता मणिभूषिताङ्गा: । गृह्णीत पूजां परमं नमो व: ।।
कल्याणरुपं फणिराजमग्र्यं । नानाफणामण्डलराजमानम् ।।
भक्त्यैकगम्यं जनताशरण्यं । ‎ यजाम्यहं न: स्वकुलाभिवृद्ध्यै । ।


।। अथ नाग आवाहन ।।
अनन्त नाग मध्यमा
अनन्तं विप्रवर्गं च रक्त कुंकुम वर्णकम् ।
‎ सहस्त्र फण संयुक्तं तं देवं प्रणमाम्यहम् ।। १ ।।
 
शेष नाग पूर्वमा
‎ विप्रवर्गं श्वेतवर्णं सहस्त्रफणसंयुतम् ।
‎ आवाहयाम्यहं देवं शेष वै विश्वरुपिणम् ।। २ ।।
वासुकी नाग आग्नेयमा
‎ क्षत्रिय पीतवर्णं च फणैर्सप्तशतैर्युतम् ।
‎ युक्तमतुंगकायं च वासुकी प्रणमाम्यहम् ।। ३ ।।
 
तक्षक नाग दक्षिणमा
‎वैश्यवर्गं नीलवर्णं फणै: पंचशतैर्युतम् ।
‎ युक्तमुतुंग्कायं च तक्षकं प्रणमाम्यहम् ।। ४ ।।
 
कर्कोटक नाग नैऋत्यमा
शूद्रवर्गं श्वेतवर्णं शतत्रयफणैर्युतम् ।
‎युक्तमुत्तुंगकायं च कर्कोटं च नमाम्यहम् ।। ५ ।।
 
शंखपाल नाग पश्चिममा
शंखपालं क्षत्रीयं च पत्र सप्तशतै: फणै: ।
‎ युक्तमुत्तुंग कायं च शिरसा प्रणमाम्यहम् ।। ६ ।।
नील नाग वायव्यमा
 
‎ वैश्यवर्गं नीलवर्णं फणै: पंचशतैर्युतम् ।
‎युक्तमत्तुंगकायं च तं नीलं प्रणमाम्यहम् ।। ७ ।।
कम्बलक नाग उत्तरमा
 
कम्बलं शूद्रवर्णं च शतत्रयफणैर्युतम् ।
‎ आवाहयामि नागेशं प्रणमामि पुन: पुन: ।। ८ ।।
 
महापद्म नाग इशानमा
वैश्यवर्गं नीलवर्णं पत्रं पंच शतैर्युतम् ।
‎युक्तमत्तुंग कायं च महापद्मं नमाम्यहम् ।। ९ ।।
‎ उत्तरमा राहु
दक्षिणमा केतु

|| सर्प-भय-विनाशक नागिनी द्वादश नाम स्तोत्र ||

जरत्कारुर्जगद्-गौरी, मनसा सिद्ध-योगिनी । 
वैष्णवी नाग-भगिनी, शैवी नागेश्वरी तथा ।। 
 
जरत्कारु-प्रियाऽऽस्तोक-माता विष-हरेति च । 
महा-ज्ञान-युता चैव, सा देवी विश्व-पूजिता ।। 
 
द्वादशैतानि नामानि, पूजा-काले तु यः पठेत् । 
तस्य नाग-भयं नास्ति, सर्वत्र विजयी भवेत् ।।

जरत्कारु, जगद्-गौरी, मनसा, सिद्ध-योगिनी, वैष्णवी, नाग-भगिनी, शैवी, नागेश्वरी, जरत्कारु-प्रिया, आस्तीक-माता, विष-हरा और महा-ज्ञानयुता – नामक देवी सारे संसार में पूजा जाती है । पूजन काल में जो व्यक्ति इन बारह नामों को पढ़ता है, उसे नाग का भय नहीं होता और सभी कार्यों में विजय मिलती है ।

नाग-मंडल पूजन -
 


कालसर्प दोष की शान्ति नागमंडल पूजन के बिना अधूरी है। नागमंडल निर्माण के लिए द्वादश नाग प्रतिमाओं की आवश्यकता होती है, जिनमें दस नाग प्रतिमाएं चांदी की, एक नाग प्रतिमा स्वर्ण की व एक नाग प्रतिमा तांबे की होना अनिवार्य है। सभी नाग प्रतिमाओं को एक मंडल (चक्र) के आकार में चावल की ढेरियों पर रखकर नागमंडल का निर्माण करें एवं लिंगतोभद्रमंडल बनाकर विधिवत् प्रतिष्ठा एवं षोडषोपचार पूजन करें। पूजन क्रम में अपनी जन्मपत्रिका में उपस्थित कालसर्प दोष वाली नाग प्रतिमा का ध्यान रखें क्योंकि इसका ही विसर्जन किया जाता है। तत्पश्चात् राहु-केतु, सर्पमन्त्र, मनसा देवी मन्त्र, महामृत्युंजय की एक माला मन्त्रों से हवन करें।
हवन के उपरान्त अपनी जन्मपत्रिका में उपस्थित कालसर्प दोष वाली नाग प्रतिमा को पत्ते के दोने में रखकर उसे गौ-दुग्ध से पूरित करें। अब इस दोने को पवित्र नदी में प्रवाहित कर एक डुबकी लगाकर बिना पीछे देखे वापस आएं। तट पर आकर पूजन के समय धारण किए गए वस्त्रों को वहीं छोड़ कर नवीन वस्त्र धारण करें।
शेष नाग प्रतिमाएं विसर्जन के उपरान्त शिवालय में आकर तांबे वाली नाग प्रतिमा को शिवलिंग पर अर्पण करें। स्वर्ण नाग प्रतिमा मुख्य आचार्य को दक्षिणा से साथ दें अन्य प्रतिमाओं को आचार्य के सहयोगी विप्रों को दान देकर प्रणाम करें।

Naga Dosha or snake curse can have aderse effects on fertility, horoscope match for marriage and bring a general state of misfortune leading to sadness in a family. By singing the sacred hymn, Sarpa Suktam in praise of the serpent gods, followed by fire prayer to the eagle god Garuda can reduce the adverse effects of Naga Dosha and help enjoy prosperity and comfort.

मुहूर्त-
सामान्यत: कालसर्प दोष शांति हेतु लगभग प्रतिमाह मुहूर्त बनते हैं किन्तु श्रावण मास, नागपंचमी व श्राद्ध पक्ष कालसर्प दोष की शांति हेतु सर्वोत्तम होते हैं।

मनसा देवी पूजा विधि Mansa Devi Pooja Vidhi

मन्सा देवी की साधना व विधि व् लाभ
यह साधना अखंड धन प्राप्ति के लिए है | यहाँ तक देखा गया है इस साधना से आसन की स्थिरता भी मिलती है | धन मार्ग में आ रही बाधा अपने आप हट जाती है | नाग देवता के इस रूप को आप सभी जानते हैं | भगवान विष्णु के सुरक्षा आसन के रूप में जाने जाते हैं | यह भगवान विष्णु का अभेद सुरक्षा कवच है | जब कोई साधक सच्चे मन से भगवान शेषनाग की उपासना या साधना करता है तो उसके जीवन के सारे दुर्भाग्य का नाश कर देते हैं | उसके जीवन में अखंड धन की बरसात कर देते हैं | अगर जीवन के उन्नति के सभी मार्ग बंद हो गए हैं, अगर जीवन में अचल संपति की कामना है | आय के स्त्रोत नहीं बन रहे तो आप भगवान शेष नाग की साधना से वह आसानी से प्राप्त कर सकते हैं | जो भी साधक भगवान शेषनाग की साधना करता है उसे अभेद सुरक्षा कवच प्रदान करते हैं | कर्ज से मुक्ति देते हैं, व्यापार में वृद्धि होती है | जीवन में सभी कष्टों का नाश करते हैं |
ज्योतिष विवेचना
12 स्थान से ष्ट्म स्थान पश्चात पड़ने वाले ग्रह योग के कारण शेषनाग नामक नाग दोष ( काल सर्प योग ) की सृष्टि होती है |इसके कारण जन्म स्थान व देश से दूरी, सदैव संघर्षशील जीवन, नेत्र पीड़ा, निद्रा न आना तथा अंतिम जीवन रहस्य पूर्ण बना रहता है |ऐसे जातक के गुप्त शत्रु बहुत होते हैं |निराशा अधिक रहती है | मन चाहा काम पूरा नहीं होता | यदि कार्य होता है तो बहुत देरी से होता है |मानसिक उदिग्नता के कारण दिल और दिमाग हमेशा परेशान रहता है | धन की भारी चिंता एवं कर्जा उतारने के प्रयासों में सफलता नहीं मिलती |
यह साधना करने से यह सारे दोष हट जाते हैं और व्यक्ति भय मुक्त, चिंता मुक्त जीवन व्यतीत करता है |
1. इसमें साधना सामाग्री जो लेनी है लाल चन्दन की लकड़ी के टुकड़े, नीला और सफ़ेद धागा जो तकरीबन 8 – 8 उंगल का हो | कलश के लिए नारियल, सफ़ेद व लाल वस्त्र, पूजन में फल, पुष्प, धूप, दीप, पाँच मेवा आदि
2. सबसे पहले पुजा स्थान में एक बाजोट पर सफ़ेद रंग का वस्त्र बिछा दें और उस पर एक पात्र में चन्दन के टुकड़े बिछा कर उस पर एक सात मुख वाला नाग का रूप आटा गूँथ कर बना लें और उसे स्थापित करें | साथ ही भगवान शिव अथवा विष्णु जी का चित्र भी स्थापित करें | उसके साथ ही एक छोटा सा शिवलिंग एक अन्य पात्र में स्थापित कर दें |
3. पहले गुरु पूजन कर साधना के लिए आज्ञा लें और फिर गणेश जी का पंचौपचार पूजन करें | उसके बाद भगवान विष्णु जी का और शंकर जी का पूजन करें |
4. पूजन में धूप, दीप, फल, पुष्प, नैवेद्य आदि रखें | प्रसाद पाँच मेवो का भोग लगाएं |
5. यह साधना रविवार शाम 7 से 10 बजे के बीच करें |
6. माला रुद्राक्ष की उत्तम है, और 9 ,11 या 21 माला मंत्र जाप करना है |
7. दीप साधना काल में जलता रहना चाहिए |
8. भगवान शेष नाग का पूजन करें | आपको पूर्व दिशा की ओर शेषनाग की स्थापना करनी है और उसके ईशान कोण में मनसा देवी की | अपना मुख भी पूर्व की ओर रखना है |
साधकों की सुविधा के लिए नाग पूजन दिया जा चुका है | अब भगवान शेषनाग का आवाहन करें | हाथ में अक्षत पुष्प लेकर निम्न मंत्र पढ़ते हुए शेषनाग पर चढ़ाएं |

आवाहन मन्त्र
ॐ विप्रवर्गं श्र्वेत वर्णं सहस्र फ़ण संयुतम् |
आवाहयाम्यहं देवं शेषं वै विश्व रूपिणं ||
ॐ शेषाये नमः शेषं अवह्यामि | ईशान्यां अमृत रक्षणी साहितायै मनसा दैव्ये नमः | प्रतिष्ठः || प्रतिष्ठः ||
अब हाथ में अक्षत लें और प्राण प्रतिष्ठता करें |

प्राण प्रतिष्ठा मन्त्र
ॐ मनोजुतिर्जुषता माज्यस्य बृस्पतिर्यज्ञ मिमन्तनो त्वरिष्टं यज्ञ ठरंसमिनदधातु |
विश्वेदेवसेऽइहं मदन्ता मों 3 प्रतिष्ठ ||
अस्मै प्राणाः प्रतिष्ठन्तु अस्मै प्राणाः क्षरन्तु च,
अस्ये देवत्वमर्चाये मामहेति च कश्चन ||

मनसा देवी पूजन
अब ईशान कोण में एक अष्ट दल कमल अक्षत से बनाएं और उस पर एक ताँबे या मिटटी के कलश पर कुंकुम से दो नाग बनाकर अमृत रक्षणी माँ मनसा की स्थापना करें | कलश पर पाँच प्लव रख कर नारियल पर लाल वस्त्र लपेट कर रख दें | हाथ में अक्षत, कुंकुम, पुष्प लेकर मनसा देवी की स्थापना के लिए निम्न मंत्र पढ़ते हुए अक्षत कलश पर छोड़ दें |

ॐ अमृत रक्षणी साहितायै मनसा दैव्ये नमः | प्रतिष्ठः || प्रतिष्ठः ||
अब मनसा देवी का पूजन पंचौपचार से करें |
एक जल आचमनी चढ़ाएं
ॐ अमृत रक्षणी साहितायै मनसा दैव्ये नमः ईशनानं स्मर्पयामी ||
चन्दन से गन्ध अर्पित करे
ॐ अमृत रक्षणी साहितायै मनसा दैव्ये नमः गन्धं समर्पयामि ||
पुष्प अर्पित करें
ॐ अमृत रक्षणी साहितायै मनसा दैव्ये नमः पुष्पं समर्पयामि ||
धूप
ॐ अमृत रक्षणी साहितायै मनसा दैव्ये नमः धूपं अर्घ्यामि ||
दीप
ॐ अमृत रक्षणी साहितायै मनसा दैव्ये नमः दीपं दर्शयामि ||

नवैद्य—मेवो या दूध् से बना नैवेद्य अर्पित करें |
नाग साधना हर प्रकार से श्रेष्ठ मानी गई है | यह जीवन में धन धान्य की बरसात करती है | हर प्रकार से सभी प्रकार के शत्रुओ से सुरक्षा देती है | इससे साधक ज्ञान का उद्य कर अन्धकार पर विजय करते हुए सभी प्रकार के भय से मुक्ति पाता है | इसके साथ ही अगर कुंडली में किसी प्रकार का नाग दोष है तो उससे भी मुक्ति मिलती है | नाग धन तो देते हैं, जीवन में प्रेम की प्राप्ति भी इनकी कृपा से मिल जाती है | हमने यह साधना बहुत समय पहले की थी और यह अनुभव किया कि यह जीवन का सर्वपक्षी विकास करती है | यहाँ मैं उसी अनुभूत साधना को दे रहा हूँ जो नव नागों के नाम से जानी जाती है | इसके साथ ही नाग पूजा विधान और विसर्जन के साथ विष निर्मली मंत्र, सर्प सूक्त आदि दिया जा रहा है जो आपकी कुंडली में से नाग दोष हटाकर जीवन को सुरक्षा देते हुए सभी दोषों का शमन करता है | चलो जानते हैं कि क्या है 9 विशेष नाग रूप जिन्हें नाग शिरोमणि कहा जाता है | इनकी साधना से क्या क्या लाभ हैं | नाग साधना में किन बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिए | यह साधना अति गोपनीय और महत्वपूर्ण मानी जाती है | इस को करने से जीवन में सभी प्रकार की उन्नति मिलती है और जीवन का सर्वपक्षी विकास होता है | मेरा मानना है अगर नाग कन्या साधना से पहले यह नव नागों की साधना कर ली जाए तो नाग कन्या साधना जल्द सफल होती है और जीवन में पूर्ण प्रेम व सुख प्रदान करती है |

नाग साधना के 9 रूप और लाभ
1. शेष नाग – नाग देवता के इस रूप को आप सभी जानते हैं | भगवान विष्णु के सुरक्षा आसन के रूप में जाने जाते हैं | यह भगवान विष्णु का अभेद सुरक्षा कवच है | जब कोई साधक सच्चे मन से भगवान शेष नाग की उपासना या साधना करता है तो उसके जीवन के सारे दुर्भाग्य का नाश कर देते हैं | उसके जीवन में अखंड धन की बरसात कर देते हैं | अगर जीवन की प्रगति के सभी मार्ग बंद हो गए हैं, अगर जीवन में अचल संपति की कामना है | आय के स्त्रोत नहीं बन रहे तो आप भगवान शेष नाग की साधना से वह सभी आसानी से प्राप्त कर सकते हैं | जो भी साधक भगवान शेष नाग की साधना करता है उसे शेषनाग अभेद सुरक्षा कवच प्रदान करते हैं | कर्ज से मुक्ति देते हैं, व्यापार में वृद्धि होती है | जीवन में सभी कष्टों का नाश करते हैं | इसके अलावा आसन में स्थिरता प्रदान करते हैं और साधक में संयम आदि गुणो का विकास करते हैं |
2. कर्कोटक नाग – जिनका जीवन हमेशा भय के वातावरण में गुजर रहा है | जिन्हें शत्रु का भय रहता है | घर में भयपूर्ण माहौल है, तो उनके लिए यह साधना वरदान स्वरूप मानी गई है | इसे संपन्न कर लेने से सभी परिवार के सदस्य पूर्ण रूप से सुरक्षित रहते हैं और साधक स्वः भी हर प्रकार से सुरक्षित रहता है | सुरक्षा के लिए यह एक बेमिसाल साधना है |
3. वासुकि नाग – यह भगवान वासुकि का रूप हिमालय का अधिपति है | यह ज्ञान और बुद्धि को प्रदान करते हैं | स्टूडेंट के लिए यह एक अच्छी साधना है | जीवन में सर्वपक्षी विकास और जो ज्ञान चाहते हैं, उन्हे यह साधना मार्गदर्शन करती है | इस साधना को करने से शिक्षा संबंधी जो भी समस्या है और अगर नौकरी नहीं मिलती, नौकरी प्राप्ति में बाधाएं आ रही हों | हर प्रकार के ज्ञान में अगर कोई बाधा हो, उससे मुक्ति मिलती है | इसके साथ व्यक्ति एक तेजस्वी मस्तिष्क का स्वामी बनता है, उसे अद्भुत बुद्धि की प्राप्ति होती है और याद्दास्त तेज होती है | विद्या प्राप्ति के क्षेत्र में यह अमोघ साधना मानी गई है | इसके साथ ही यह साधक को परालोकिक ज्ञान भी देते हैं |
4. पदम नाग – जिनके जीवन में विवाह की बाधा है | शादी में बार बार रुकावट आ रही हो तो उनके लिए यह साधना सर्वश्रेष्ठ है | इस साधना को करने से विवाह संबधि समस्या दूर होती है और संतान की प्राप्ति का वरदान भी पद्म नाग देते हैं | इसके साथ साथ अद्भुत सम्मोहन की प्राप्ति भी कराते हैं |
5. धृतराष्ट्र नाग – नाग देवता का यह रूप जीवन में प्रेम प्राप्ति कराता है | इस साधना से जहां आपके प्रेम संबद्धों में कोई बाधा आ गई हो या आप जीवन में प्रेम संबंध बनाना चाहते हों तो उसमें आ रही हर रुकावट को दूर करती है | प्रेम संबंधों में इस साधना से मधुरता आती है और नवीन प्रेम सम्बन्ध सफल होते हैं |
6. शंखपाल नाग – देवता का यह रूप संपूर्ण पृथ्वी का अधिपति है | जो साधक जीवन में पृथ्वी भ्रमण की इच्छा रखता हो, विदेश यात्रा करना चाहता हो या विदेश यात्रा में कोई रुकावट आ रही हो तो उसे यह साधना करनी चाहिए | यह सभी यात्रा की रुकावटें दूर करती है | इस साधना के आध्यात्मिक लाभ भी हैं | इससे साधक अपने सूक्ष्म स्वरूप से जुड़ जाता है और दूर आध्यात्मिक स्थानों की यात्रा कर लेता है | यह एक श्रेष्ठ साधना मानी गई है | इसी तरह सभी नाग साधना के आध्यात्मिक लाभ भी हैं जिन्हें साधक को खुद अनुभव करना चाहिए | यहाँ मैं आपके कार्य की बाधा को दूर करना और कुछ भौतिक लाभ ही बता रहा हूँ |
7. कंबल नाग – यह नाग देवता का स्वरूप नाग अधिपति के नाम से जाना जाता है | अगर जीवन में रोग है, वह दूर नहीं हो रहा तो नाग देवता के इस स्वरूप की आराधना रोग मुक्ति करती है | जीवन में रोग के भय का नाश करते हुए साधक को पूर्ण रोग मुक्ति का वरदान देती है | जिनको कोई न कोई रोग बीमारी है, दवाई असर नहीं देती, रोग पीछा नहीं छोड़ रहा, उन्हे इस साधना से बहुत लाभ मिलता है | यह रोग मुक्त जीवन प्रदान कर साधक को पूर्ण सुरक्षा देती है | इससे असाध्य रोग दूर होते हैं | यह कायाकल्प सिद्धि आदि भी दे देते हैं | मगर इसके लिए कठोर साधना पूर्ण विधान से करनी पड़ती है |
8. तक्षक नाग –यह नाग देवता का स्वरूप हर प्रकार के शत्रु का नाश करता है | शत्रु बाधा से मुक्ति देता है | जिन साधकों के जीवन में हर पल शत्रु का भय है | उन्हे यह साधना संपन्न करनी चाहिए | यह हर प्रकार के शत्रु संहार करते हैं | शत्रु दुआरा उत्पन्न की सभी बाधाओं को हर लेते हैं | यह एक बहुत ही तीक्ष्ण साधना है | इसलिए यह साधना साधको को पूर्ण सावधान होकर ही करनी चाहिए |
9. कालिया नाग – यह नाग देवता का स्वरूप हर प्रकार की तंत्र बाधा दूर करता है | अगर किसी ने आप पर कोई अभिचार कर दिया हो या आप तंत्र बाधा से परेशान हैं तो यह साधना उससे मुक्ति प्रदान करती है | इसके साथ ही यह किसी भी बुरी शक्ति के प्रभाव से मुक्ति देती है और आपकी ग्रह बाधा भी दूर करती है | इसके और भी कई प्रयोग हैं अगर काली नाग को किसी पर छोड़ दिया जाए तो वह उसका नाश कर देते हैं और शत्रु की हर प्रकार की प्रगति को भी रोक देते हैं | अगर शत्रु ने आप पर कुछ किया है तो उसकी सजा उसे दे देते हैं |
यह नाग साधना के 9 रूप अपने आप में तीक्ष्ण हैं | यह जहां आपको धन आदि लाभ, भौतिक लाभ और आध्यात्मिक लाभ भी देते हैं जैसे आसन की स्थिरता शेष नाग देते हैं और मन के विकारों पर विजय दिलाते हैं | नाग साधना से दूरदर्शिता बढ़ती है | ज्ञान चक्षु विकसित होकर खुल जाते हैं | दूरदर्शन सिद्धि, दूर श्रवण सिद्धि, भूगर्भ सिद्धि, कायाकल्प, मनोवांछित रूप परिवर्तन, गंध त्रिमात्र, लोकाधिलोक गमन आदि ऐसी बहुत सी सिद्धियाँ जो नाग कृपा से या नाग साधना से प्राप्त की जा सकती हैं, मगर इसके लिए कठोर साधना करनी पड़ती है | यहाँ भौतिक लाभ प्राप्ति के लिए एक एक दिन की 9 साधना दी जा रही हैं | जो बहुत सरल और जल्द सिद्ध होने वाली हैं | नाग साधना अति शीघ्र फल देती है | इसलिए साधना पूर्ण श्रद्धा और विश्वाश से करनी चाहिए | नगेंदर |

नाग पूजन एवं नाग बलि विधान
यह नाग पूजन दुर्लभ माना गया है | यह हर नाग साधना में जरूरी है | जहां तक ज्योतिष का सवाल है, बहुत ज्योतिषी आज कल कालसर्प योग का भय दिखाकर मन चाहा धन लेते हैं और पूजा के नाम से आपसे मोटी रकम ले ली जाती है | इस पूजन से हर प्रकार का नाग दोष और नाग भय हट जाता है | यह बात मैं पूरे विश्वाश से कहता हूँ क्योंकि यह पूजन मैंने सैकड़ों लोगों को कराया है और उनके नाग दोष का शमन किया है | नाग पूजन इसलिए भी देना उचित समझता हूँ क्योंकि आगे आने वाली नव नागों की साधना में यह पूजन आधार स्तंभ का काम करेगा | इसलिए आप अपने मन को हमेशा प्रसन्न रखते हुए नाग साधना करें और पूजन से भी लाभ लें | ऊपर जो नव नाग रहस्य बताया गया है उसमें दी गई हर साधना का पूर्ण लाभ लेने के लिए यह पूजन बहुत महत्व रखता है | यह हर साधना में आएगा और अगर आप कुंडली में नाग दोष की वजह से परेशान हैं, तो भी यह पूजन करें इससे आपको पूर्ण लाभ मिलेगा | जो साधक साधना करना चाहते हैं वो इस नाग पूजन को साधना के वक़्त करें |
जो सिर्फ कुंडली के दोष निवारण के लिए करना चाहते हैं, उन्हे चाहिए कि नव नाग का निर्माण करें या बाजार से पूजा की दुकान से नाग खरीद लें जिसमें 2 सोने के नाग छोटे छोटे सुनार से लें और 2 चाँदी के सर्प लेने हैं, दो ताँबे के, 2 सिक्के के मतलब लेड के | एक आटे को गूँथ कर उसका सात मुख का नाग बना लें | उस नाग को थोड़े गरम घी में भिगोकर उस पर सफ़ेद तिल लगा दें जो पूरे नाग पर लगे हों | उसके फन पर या उस पर 7 कौड़ी रख दें | उसे कुशा के आसन पर रखें या एक केले का पता लेकर उस पर थोड़ी कुशा बिछा कर उस पर रख दें जो वेदी के उपर रहेगा | इसके साथ ही जमीन पर रेत बिछा कर एक पूजन वेदी का निर्माण करें और उसमें नव ग्रह मण्डल और नाग पीठ का निर्माण करें | नाग पीठ में मध्य में एक अष्ट दल कमल बनाए और उसमें जो नाग आप बाजार से लाये हैं उन्हे एक पात्र में स्थापित कर दे ना है और नव ग्रह यंत्र का निर्माण भी आटे और हल्दी की मदद से बना लेना है | उसी पीठ में स्वस्तिक बनाकर श्री गणेश की स्थापना करनी साथ ही ॐ, शिव, षोडश मातृका, पित्र देव, वास्तु देव आदि का स्थापन करना है | सबसे पहले कलश आदि स्थापित कर गुरु पूजन करें | फिर गणेश, ओंकार, शिव ,षोडश मातृका और नव ग्रह, पितृ देव और वास्तु देवता का पूजन यथा योग्य सामर्थ्य अनुसार करें , फिर प्रधान देव पूजन करें |

ध्यान
अनंन्तपद्म पत्राथं फणाननेकतो ज्वलम् |
दिव्याम्बर-धरं देवं, रत्न कुण्डल- मण्डितम् ||
नानारत्न परिक्षिप्तं मकुट’ द्दुतिरंजितम |
फणा मणिसहस्रोद्दै रसंख्यै पन्नगोतमे ||
नाना कन्या सहस्रेण समंतात परिवारितम् |
दिव्याभरण दिप्तागं दिव्यचंदन- चर्चितम् ||
कालाग्निमिव दुर्धषर्म तेजसादित्य सन्निभम |
ब्रह्मण्डाधार भूतं त्वां, यमुनातीर-वासितम ||
भजेsहं दोष शन्त्यैत्र, पूजये कार्यसाधकम |
आगच्छ काल सर्पख्या दोष आदि निवारय ||

आसनम
नवकुलाधिपं शेषं ,शुभ्र कच्छ्प वाहनम |
नानारत्नसमायुकतम आसनं प्रति गृह्राताम ||
पाद्दम
अन्न्त प्रिय शेषं च जगदाधार –विग्रह |
पाद्द्म ग्रहाणमक्तयात्वं काद्रवेय नमोस्तुते ||
अर्घ्यम
काश्यपेयं महाघोरं, मुनिभिवरदिन्तं प्रभो |
अर्घ्यं गृहाणसर्वज्ञ भक्तय मां फ़लंदयाक ||
आचमनीयम्
सहस्र फ़णरुपेण वसुधाधारक प्रभो |
गृहाणाचमनं दिव्यं पावनं च सुशीतलम् ||
पन्चामृतं स्नानम्
पन्चामृतं गृहाणेदं पावनं स्वभिषेचनम् |
बलभद्रावतारेश ! क्षेयं कुरु मम प्रभो ||
वस्त्रम्
कौशेय युग्मदेवेश प्रीत्या तव मयार्पितम |
पन्नगाधीशनागेन्द्र तक्ष्रर्यशत्रो नमोस्तुते ||
यज्ञोपवीतम
सुवर्ण निर्मितं सूत्रं पीतं कण्ठोपाहारकम् |
अनेकरत्नसंयुक्तं सर्पराज नमोस्तुते ||
अथ अंग पूजा
अब चन्दन से अंग पूजा करें
सहस्रफ़णाधारिणे नमः पादौ पूजयामि | अनंद्दाये नमः गुल्फ़ौ पूजयामि | विषदन्ताय नमः जंधौ पूजयामि | मन्दगतये नमः जानू पूजयामि | कृष्णाय नमः कटिं पूजयामि | पित्रे नमः नाभिं पूजयामि | श्र्वेताये नमः उदरं पूजयामि | उरगाये नमः स्त्नो पूजयामि | कलिकाये नमः भुजौ पूजयामि | जम्बूकण्ठाय नमः कण्ठं पूजयामि | दिजिह्वाये नमः मुखं पूजयामि | मणिभूषणाये नमः ललाटं पूजयामि | शेषाये नमः सिरं पूजयामि | अनन्ताये नमः सर्वांगान पूजयामि |
गन्धं
कस्तूरी कर्पूर केसराढयं गोरोचनं चागररक्तचन्दनं |
श्री चन्द्राढयं शुभ दिव्यं गन्धं गृहाण नागाप्रिये मयार्तितम् ||
अक्षतान्
काश्मीर पंकलितप्राश्च शलेमानक्षतान शुभान् |
पातालाधिपते तुभ्यं अक्षतान् त्वं गृहाण प्रभो ||
पुष्पं
केतकी पाटलजातिचम्पकै बकुलादिभिः |
मोगरैः शतपत्रश्च पूजितो वरदो भव ||
धूप दीप
सौ भाग्यं धूपं दीपं च दर्शयामि |
नैवेद्दम्
नैवेद्दा गृहातां देव क्षीराज्य दधि मिश्रितम् |
नाना पक्वान्न संयुक्तं पयसं शर्करा युतम् ||
फ़ल् ,ताम्बूल, दक्षिणाम, पुष्पांजलि नमस्कारं —
अनन्त संसार धरप्रियतां कालिन्दजवासक पन्नगाधिपते |
न्मोसिस्म देवं कृपणं हि मत्वा रक्षस्व मां शंकर भूषणेश ||
एक आचमनी जल चढाते हुये अगर कोई कमी रह गई हो तो उसकी पूर्णता के लिये प्रार्थना करें |
अनयापूजन कर्मणा कृतेन अनन्तः प्रियताम् |
राहु केतु सहित अनन्ताद्दावहित देवाः प्रियतम् नमः ||
साधक यहाँ तक पूजन कर साधना कर सकते हैं | जो कुंडली के दोष या कालसर्प दोष शांति के लिए विधान कर रहे हैं वह आगे पूरा कर्म करें |
पूजन के पश्चात आप निम्न नव नाग गायत्री से 1008 आहुति किसी पात्र में अग्नि जला कर अजय आहुतिया देने के बाद दें |


मन्त्र
|| ॐ नवकुलनागाये विदमहे, विषदन्ताय धीमहि तन्नोः सर्पः प्रचोदयात् ||


अथ नाग बलि विधान
उसके बाद नाग बली कर्म करना चाहिये | एक पीपल के पत्ते पर उड़द, चावल, दही रखकर एक रुई कि बत्ती बना कर रखें और उसका पूजन कर नाग बली अर्पण करें |

प्रधान बली – इस मन्त्र से बली अर्पण करें |
ॐ नमोस्तु सर्पेभ्यो येकेन पृथ्वीमन |
ये अन्तरिक्षे ये दिवोतेभ्यः सर्पेभ्यो नमः ||
अनन्त वासुकि शेषं पदमं कम्बलमेव च |
धृतराष्ट्रं शंखपालं कालियं तक्षकं तथा,
पिंगल च महानाम मासि मासि प्रकीर्तितम |

अब नैऋत्य दिशा में सभी भूत दिक्पालों को बलि अर्पण करें
मन्त्र
सर्वदिग्भुतेभ्यो नमः गंध पुष्पं समर्पयामि | सर्व दिग्भुत बलि द्रव्यये नमः गन्ध पुष्मं समर्पयामि | हस्ते जलमादाये सर्व दिग्भुते भ्यो नमः इदं बलि नवेद्यामि |

नमस्कार
सर्व दिग्भुते भ्यो नमः नमस्कार समर्पयामि |
अनया पूजन पूर्वक कर्मणा कृतेन सर्व दिग्भुतेभ्यो नमः |
मन्त्र पुष्पाजलि
ॐ यज्ञेन यज्ञमय देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् | ते.ह् नाक महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः ||
प्रदक्षिणा
यानि कानि च पापानि ज्ञाताज्ञात कृतानि च |
तानि सर्वाणि नश्यन्ति प्रदक्षिणा पदे –पदे ||

—– इति श्री नाग बलि विधानं संपूर्णं ——-

अब निम्न मंत्र पढ़ते हुए हाथ में जल
अब निम्न मंत्र पढ़ते हुए हाथ में जल लेकर सभी नागों पर छिडकें और इस मंत्र का 11 बार या 21 बार जप करें |
विश निर्मली मंत्र
सर्पापसर्प भद्र्म ते गच्छ सर्प महा विष |
जनमेजयस्य यज्ञान्ते, आस्तीक वचनं स्मर ||
आस्तीक्स्य वच: श्रुत्वा, यः सर्पो ना निवर्तते |
शतधाभिद्द्ते मूर्ध्नि, शिशं वृक्ष फ़लम् यथा ||
अथ सर्प वध प्रयशिचत कर्म
अगर मन, ह्रदय में ऐसा विचार हो कि मेरे दुआरा सर्प वध हुआ है | कई विद्वान् मानते हैं कि कुंडली में सर्प दोष या नाग दोष जिसे लोग काल सर्प योग भी कहते हैं तभी लगता है जब पूर्व जन्म में या स्व अथवा आपके पूर्वजों से सर्प वध हुआ हो | उसकी शांति यह कर्म करने से हो जाती है |
संकल्प
देशकालौ संकीर्त्या सभार्यस्य ममेह जन्मनि जन्मान्तरे वा ज्ञानाद अज्ञानदा जात सर्पवधोत्थ दोष परिहाराथर्म सर्पं संस्कारकर्म करिष्ये |
अब आटे से बनाये हुये नाग को हाथ में अक्षत लेकर प्रार्थना करें – हे पूर्व काल में मरे हुए सर्प आप इस पिण्ड में आ जाएँ और अक्षत चढ़ाते हुए उसका पूजन करें | पूजन आप फूल, अक्षत, धूप, दीप, नैवेद्य आदि से करें और नमस्कार करते हुए प्रार्थना करें कि हे सर्प आप बलि ग्रहण करो और ऐश्वर्य को बढ़ाओ | फिर उसका सिंचन घी देकर करें | फिर विधि नामक अग्नि का ध्यान हवन कुण्ड में करें और संकल्प करें – कि मैं अपना नाम व गोत्र बोलें और कहें – इस सर्प संस्कार होम रूप कर्म के विषय में देवता के परिग्रह के लिए अन्वाधान करता हूँ | अब “ ॐ भूः स्वाहा अग्नेय इदं “ बोल कर तीन आहुतियाँ दें और “ ॐ भूभूर्व: स्वः स्वाहा “ कह कर चौथी आहुति सर्प के मुख में दें फिर सुरवे में घी लेकर सर्प को सिंचन करें | गायत्री मंत्र पढ़ते हुए जल से पोषण करें और निम्न प्रार्थना को ध्यान पूर्वक पढ़ें |
जो अन्तरिक्ष पृथ्वी स्वर्ग में रहने वाले हैं, उन सर्पो को नमस्कार है | जो सूर्य की किरण जल, इसमें विराजमान है, उनको नमस्कार है | जो यातुधानों के वाण रूप है, जो वनस्पति और वृक्षों पर सोते हैं उनको नमस्कार है | हे महा भोगिन रक्षा करो रक्षा करो सम्पूर्ण उपद्रव और दुख से मेरी रक्षा करो |पुष्ट जिसका शरीर है ऐसी पवित्र संतति को मुझे दो | कृपा से युक्त आप दीनों पे दया करने वाले आप शरणागत मेरी रक्षा करो |जो ज्ञान व अज्ञान से मैंने या मेरे पित्रों ने सर्प का वध इस जन्म या अन्य जन्म में किया हो, उस पाप को नष्ट करो और मेरे अपराध को क्षमा करो |

अब उस नाग को होम अग्नि में भस्म कर दें और स्नान कर लें |
अब जो सोने ताँबे चाँदी के सांप बनाए थे उन्हे नजदीक किसी नदी में विसर्जन करें और निम्न मंत्र 3 बार पढ़ कर विसर्जन कर दें | यह मंत्र अति गोपनीय है |

नाग विसर्जन मंत्र

ॐ नमोस्तु सर्पेभ्यो ये दिवि येषां वर्ष मिषवः तेभ्यो दशप्प्रचि र्दशादक्षिणा दशप्रीतची र्दशोदीची र्दशोर्दुध्वाः तेब्भ्यो नमोsअस्तुतेनो वन्तुतेनो मृडायन्तुते यन्द्रिविष्मो यश्चनो द्वेष्टितमेषां जम्भेध्मः ||

ॐ नमोस्तु सर्पेभ्यो ये अन्तरिक्ष येषां वर्ष मिषवः तेभ्यो दशप्प्रचि र्दशादक्षिणा दशप्रीतची र्दशोदीची र्दशोर्दुध्वाः तेब्भ्यो नमोsअस्तुतेनो वन्तुतेनो मृडायन्तुते यन्द्रिविष्मो यश्चनो द्वेष्टितमेषां जम्भेध्मः ||

3
ॐ नमोस्तु सर्पेभ्यो ये पृथ्वी  येषां वर्ष मिषवः तेभ्यो दशप्प्रचि र्दशादक्षिणा दशप्रीतची र्दशोदीची र्दशोर्दुध्वाः तेब्भ्यो नमोsअस्तुतेनो वन्तुतेनो मृडायन्तुते यन्द्रिविष्मो यश्चनो द्वेष्टितमेषां जम्भेध्मः ||


इसके साथ ही इस कर्म में सर्प सूक्त का पाठ करना श्रेष्ठ माना गया है |




मनसा देवी को भगवान शिव की मानस पुत्री के रूप में पूजा जाता है। इनका प्रादुर्भाव मस्तक से हुआ है इस कारण इनका नाम मनसा पड़ा। महाभारतके अनुसार इनका वास्तविक नाम जरत्कारु है और इनके समान नाम वाले पति मुनि जरत्कारु तथा पुत्र आस्तिक जी हैं। इन्हें नागराज वासुकी की बहन के रूप में पूजा जाता है, प्रसिद्ध मंदिर एक शक्तिपीठ पर हरिद्वार में स्थापित है। इन्हें शिव की मानस पुत्री माना जाता है परंतु कई पुरातन धार्मिक ग्रंथों में इनका जन्म कश्यप के मस्तक से हुआ हैं, ऐसा भी बताया गया है। कुछ ग्रंथों में लिखा है कि वासुकि नाग द्वारा बहन की इच्छा करने पर शिव नें उन्हें इसी कन्या का भेंट दिया और वासुकि इस कन्या के तेज को न सह सका और नागलोक में जाकर पोषण के लिये तपस्वी हलाहल को दे दिया। इसी मनसा नामक कन्या की रक्षा के लिये हलाहल नें प्राण त्यागा। इनका विवाह जरत्कारु ऋषि के साथ हुआ था तथा इनके पुत्र का नाम आस्तीक था। सर्पों के विष उतारने की एक विशेष शक्ति इनमें थी अत: इनको विषहरा भी कहते थे।
ये भगवती कश्यप ऋषि की मानसी कन्या तथा मन से उद्दीप्त होने के कारण ‘मनसा देवी’ के नाम से विख्यात हैं। वासुकि की बहन जरत्कारु का ही एक अन्य नाम है।
'ब्रह्मवैवर्तपुराण' में जरत्कारु के निम्नलिखित बारह नाम प्राप्त होते हैं-
जरत्कारु के नाम:-
जरत्कारु, जगद्गौरी, मनसा, सिद्धयोगिनी, वैष्णवी, नागभगिनी, शैवी, नागेश्वरी, जरत्कारुप्रिया, आस्तिकमाता और विषहरी।
 
जो पुरुष पूजा के समय इन बारह नामों का पाठ करता है, उसे तथा उसके वंशज को भी सर्प का भय नहीं हो सकता। इन बारह नामों से विश्व इनकी पूजा करता है।

जरत्कारुर्जगद्गौरी मनसा सिद्धयोगिनी। वैष्णवी नागभगिनी शैवी नागेश्वरी तथा ।।
जरत्कारुप्रियाऽऽस्तीकमाता विषहरीति च। महाज्ञानयुता चैव सा देवी विश्वपूजिता ।।
द्वादशैतानि नामानि पूजाकाले तु यः पठेत्। तस्य नागभयं नास्ति तस्य वंशोद्भवस्य च ।।

-(प्रकृतिखण्ड 45। 15-17)

|| मनसादेवी स्तोत्रम् ||

।। अथ ध्यानः ।।
चारु-चम्पक-वर्णाभां, सर्वांग-सु-मनोहराम् ।
नागेन्द्र-वाहिनीं देवीं, सर्व-विद्या-विशारदाम् ।।

|। मूल-स्तोत्र ।।
 
श्रीनारायण उवाच ।
नमः सिद्धि-स्वरुपायै, वरदायै नमो नमः ।
नमः कश्यप-कन्यायै, शंकरायै नमो नमः ।।
 
बालानां रक्षण-कर्त्र्यै, नाग-देव्यै नमो नमः ।
नमः आस्तीक-मात्रे ते, जरत्-कार्व्यै नमो नमः ।।
 
तपस्विन्यै च योगिन्यै, नाग-स्वस्रे नमो नमः ।
साध्व्यै तपस्या-रुपायै, शम्भु-शिष्ये च ते नमः ।।
 
।। फल-श्रुति ।।
इति ते कथितं लक्ष्मि ! मनसाया स्तवं महत् ।
यः पठति नित्यमिदं, श्रावयेद् वापि भक्तितः ।।
 
न तस्य सर्प-भीतिर्वै, विषोऽप्यमृतं भवति ।
वंशजानां नाग-भयं, नास्ति श्रवण-मात्रतः ।।
 
हे लक्ष्मी ! यह मनसा देवी का महान् स्तोत्र कहा है । जो नित्य भक्ति-पूर्वक इसे पढ़ता या सुनता है – उसे साँपों का भय नहीं होता और विष भी अमृत हो जाता है । उसके वंश में जन्म लेनेवालों को इसके श्रवण मात्र से साँपों का भय नहीं होता ।
 
।।अथ द्वितीय मनसादेवी स्तोत्रम् ।।
 
देवी त्वां स्तोतुमिच्छामि सा विनां प्रवरा परम् ।
‎परात्परां च परमां नहि स्तोतुं क्षयोsधुना ।। १ ।।
 
स्तोत्राणां लक्षणं वेदे स्वभावाव्यानत: परम् ।
‎न क्षम: प्रकृति वक्तुं गुणानां तब सुव्रते ।। २ ।।
 
शुद्रसत्वस्वरुपा त्वम् कोपहिंसाविवर्जिता ।
‎न च सप्तो मुनिस्तेन त्यक्तया च त्वया यत: ।। ३ ।।
 
त्वं मया पूजिता साध्वी जननी च यथाsदिति: ।
‎दयारुपा च भगिनी क्षमारुपा यथा प्रसु: ।। ४ ।।
 
त्वया मे रक्षिता: प्राणा: पुत्रदारा सुरेश्वरी ।
‎अहं करोमि त्वां पूज्यां मम प्रीतिश्छ वर्धते ।। ५ ।।
 
नित्यं यद्यपि पूज्यां त्वां भवेsत्र जगदम्बिके ।
‎तथाsपि तव पूजां वै वर्धयामि पुन: पुन: ।। ६ ।।
 
ये त्वयाषाढसङ्क्रान्त्या पूजयिष्यन्ति भक्तित: ।
‎पञ्चम्यां मनसारव्या यां मासान्ते दिने दिने ।। ७ ।।
 
पुत्रपौत्रादयस्तेषां वर्धन्ते न धनानि च ।
‎यशस्विन: कीर्तिमन्तो विद्यावन्तो गुणान्विता: ।। ८ ।।
 
ये त्वां न पूजयिष्यन्ति निन्दन्त्यज्ञानतो जना: ।
‎लक्ष्मी हीना भविष्यन्ति तेषां नागभयं सदा ।। ९ ।।
 
त्वं स्वर्गलक्ष्मी: स्वर्गे च वैकुण्ठे कमलाकला ।
‎नारायणांशो भगवन् जरत्कारुर्मुनीश्वर: ।। १० ।।
 
तपसा तेजसा त्वं च मनसा ससृजे पिता ।
‎अस्माकं रक्षणायैव तेन त्वं मनसाभिदा ।। ११ ।।
 
मनसादेवी त्वं शक्त्या चाssत्मना सिद्धयोगिनी ।
‎तेन त्वं मनसादेवी पूजिता वन्दिता भवे ।। १२ ।।
 
यां भक्त्या मनसा देवा: पूजयन्त्यंनिशं भृशम् ।
‎तेन त्वं मनसादेवीं प्रवदन्ति पुराविद: ।। १३ ।।
 
सत्त्वरुपा च देवी त्वं शश्वत्सर्वानषेवया ।
‎यो हि यद्भावयेन्नित्यं शतं प्राप्नोति तत्समम् ।। १४ ।।
 
इदं स्तोत्रं पुण्यवीजं तां संपूज्य च य: पठेत् ।
‎तस्य नागभयं नास्ति तस्य वंशोद्भवस्य च ।। १५ ।।
 
विषं भवेत्सुधातुल्य सिद्धस्तोत्रं यदा पठेत् ।
‎पञ्चलक्ष जपेनैव सिद्ध्यस्तोत्रो भवेन्नर ।।
‎सर्पशायी भवेत्सोsपि निश्चितं सर्ववाहन: ।। १६ ।।

‎।। इति महेन्द्रकृतं मनसादेवीस्तोत्रं समसम्पूर्णम् ।।
 
 
।। अथ मनसा द्वादशनाम स्तोत्रम् ।।
 
ॐ नमो मनसायै जरत्कारु जगद्गौरी मनसा सिद्धयोगिनी ।
‎वैष्णवी नागभगिनी शैवी नागेश्वरी तथा ।। १ ।।
 
जरत्कारुप्रियाssस्तीकमाता विषहरीती च ।
‎महाज्ञानयुता चैव सा देवी विश्वपूजिता ।। २ ।।
 
द्वादशैतानि नामानि पूजाकाले च य: पठेत् ।
‎तस्य नागभयं नास्ति तस्य वंशोद्भस्य च ।। ३ ।।
 
नागभीते च शयने नागग्रस्ते च मन्दिरे ।
‎नागभीते महादुर्गे नागवेष्ठितविग्रहे ।। ४ ।।
 
इदं स्तोत्रं पठित्वा तु मुञ्चते नात्रसंशय: ।
‎नित्यं पठेद् य: तं दृष्ट्वा नागवर्ग: पलायते ।। ५ ।।
 
नागौधं भूषणं कृत्वा स भवेत् नागवाहना: ।
‎नागासनो नागतल्पो महासिद्धो भवेन्नर: ।। ६ ।।

‎।। इति मनसादेवीद्वादशनाम स्तोत्र सम्पूर्णम् ।।
 
नाग, नागों के कुल और परंपरा
भारत में सदियों से नाग पूजन की परंपरा रही है। माना जाता है कि 3000 ईसा पूर्व आर्य काल में भारत में नागवंशियों के कबीले रहा करते थे, जो सर्प की पूजा करते थे। उनके देवता सर्प थे। यही कारण रहा कि प्रमुख नाग वंशों के नाम पर विभिन्न नागों के नाम है।
पुराणों अनुसार कश्मीर में कश्यप ऋषि का राज था। कश्यप ऋषि की पत्नी कद्रू से उन्हें आठ पुत्र मिले जिनके नाम क्रमश: इस प्रकार हैं-
1. अनंत (शेष), 2. वासुकी, 3. तक्षक, 4. कर्कोटक, 5. पद्म, 6. महापद्म, 7. शंख और 8. कुलिक। कश्मीर का अनंतनाग इलाका अनंतनाग समुदायों का गढ़ था उसी तरह कश्मीर के बहुत सारे अन्य इलाके भी दूसरे पुत्रों के अधीन थे।
कुछ पुराणों अनुसार नागों के प्रमुख पांच कुल थे- अनंत, वासुकी, तक्षक, कर्कोटक और पिंगला।
कुछ पुराणों के अनुसार नागों के अष्टकुल क्रमश: इस प्रकार हैं:- वासुकी, तक्षक, कुलक, कर्कोटक, पद्म, शंख, चूड़, महापद्म और धनंजय।
अग्निपुराण में 80 प्रकार के नाग कुलों का वर्णन है, जिसमें वासुकी, तक्षक, पद्म, महापद्म प्रसिद्ध हैं। नागों का पृथक नागलोक पुराणों में बताया गया है। अनादिकाल से ही नागों का अस्तित्व देवी-देवताओं के साथ वर्णित है। जैन, बौद्ध देवताओं के सिर पर भी शेष छत्र होता है। असम, नागालैंड, मणिपुर, केरल और आंध्रप्रदेश में नागा जातियों का वर्चस्व रहा है।
भारत में उपरोक्त आठों के कुल का ही क्रमश: विस्तार हुआ जिनमें निम्न नागवंशी रहे हैं- नल, कवर्धा, फणि-नाग, भोगिन, सदाचंद्र, धनधर्मा, भूतनंदि, शिशुनंदि या यशनंदि तनक, तुश्त, ऐरावत, धृतराष्ट्र, अहि, मणिभद्र, अलापत्र, कम्बल, अंशतर, धनंजय, कालिया, सौंफू, दौद्धिया, काली, तखतू, धूमल, फाहल, काना, गुलिका, सरकोटा इत्यादी नाम के नाग वंश हैं।
प्रमुख नागों का परिचय-
1. शेषनाग : शेषनाग के बारे में कहा जाता है कि इसी के फन पर धरती टिकी हुई है यह पाताल लोक में ही रहता है। चित्रों में अक्सर हिंदू देवता भगवान विष्णु को शेषनाग पर लेटे हुए चित्रित किया गया है।
मान्यता है कि शेषनाग के हजार मस्तक हैं। दो मुंह वाला सर्प तो आम बात हैं। हाल ही में एक खबर छपी थी कि हैदराबाद में पांच मुंह वाला सर्प देखा गया जिसके देश भर में चित्र जारी किए गए थे।
शेष को ही अनंत कहा जाता है ये कद्रू के बेटों में सबसे पराक्रमी और प्रथम नागराज थे। कश्मीर के अनंतनाग जिला इनका गढ़ था।
2. वासुकी : नागों के दूसरे राजा वासुकी का इलाका कैलाश पर्वत के आसपास का क्षेत्र था। पुराणों अनुसार वासुकी नाग अत्यंत ही विशाल और लंबे शरीर वाले माने जाते हैं। समुद्र मंथन के दौरान देव और दानवों ने मंदराचल पर्वत को मथनी तथा वासुकी को ही नेती (रस्सी) बनाया था।
3. तक्षक : तक्षक ने शम‍ीक मुनि के शाप के आधार पर राजा परीक्षित को डंसा था। उसके बाद परीक्षित के पुत्र जनमेजय ने नाग जाति का नाश करने के लिए नाग यज्ञ करवाया था। माना जाता है कि तक्षक का राज तक्षशिला में था।
4. कर्कोटक : कर्कोटक और ऐरावत नाग कुल का इलाका पंजाब की इरावती नदी के आसपास का माना जाता है। कर्कोटक शिव के एक गण और नागों के राजा थे।
नारद के शाप से वे एक अग्नि में पड़े थे, लेकिन नल ने उन्हें बचाया और कर्कोटक ने नल को डस लिया, जिससे राजा नल का रंग काला पड़ गया। लेकिन यह भी एक शाप के चलते ही हुआ तब राजा नल को कर्कोटक वरदान देकर अंतर्ध्यान हो गए।
शिवजी की स्तुति के कारण कर्कोटक जनमेजय के नाग यज्ञ से बच निकले थे और उज्जैन में उन्होंने शिव की घोर तपस्या की थी। कर्कोटेश्वर का एक प्राचीन उपेक्षित मंदिर आज भी चौबीस खम्भा देवी के पास कोट मोहल्ले में है। वर्तमान में कर्कोटेश्वर मंदिर हरसिद्धि के प्रांगण में है।
5. पद्म : पद्म नागों का गोमती नदी के पास के नेमिश नामक क्षेत्र पर शासन था। बाद में ये मणिपुर में बस गए थे। असम के नागावंशी इन्हीं के वंश से है।

6. महापद्म, 
7. शंख 
8. कुलिक नामक नागों के कुल का उल्लेख भी मिलता है। 

उक्त सभी के मंदिर भारत के प्रमुख तीर्थ स्थानों पर पाए जाते हैं।
 

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विशेष सुचना

( जो भी मंत्र तंत्र टोटका इत्यादि ब्लॉग में दिए गए है वे केवल सूचनार्थ ही है, अगर साधना करनी है तो वो पूर्ण जानकार गुरु के निर्देशन में ही करने से लाभदायक होंगे, किसी भी नुक्सान हानि के लिए प्रकाशक व लेखक जिम्मेदार नहीं होगा। )