काशी – निषेध क्षेत्र ?
पापमेव ही कर्तव्यं मतिरस्ती याठेद्रशी सुखेनान्यात्रा कर्तव्यं मही ह्वास्ति महीयसी ।
अपि कामातुरो जन्तुरेकाम रक्षति मातरम, अपि पाप्क्रता काशी रक्ष्या मोक्षर्थिनैकिका ।।
परापवादाशीलेन परदाराभिलाशिणा, तेन काशी न संसेव्यं क्व काशी निरयः क्व सः ।
अभिल्ष्यन्ति ये नित्यं धनं चात्र प्रतिग्रहे, परस्त्रम कपटैवार्पि काशी सैव्या न तैर्नरै ।
पर्पीडाकारम कर्म काश्याम नित्यं विवर्जयेत, तदेव चेत किमत्र स्यात काशीवासी दुरात्मनाम ।।
अर्थोर्थिनस्तु ये विप्र ये कामार्थीनो नरः, अविमुक्तं न तैह सेव्यं मोक्श्क्षेमामिदम यतः ।
शिव्निन्दपरा ये च वेद्निन्दपराश्च ये, वेदाचारप्रतिपा ये सैव्याम वाराणसी न तैह ।
परद्रोहधियो ये च परेश्याकारिणष्च ये, परोपतापिनी ये वै तेषां काशी न सिद्धये ।
अर्थ : मैं तो पाप करूँगा ही – ऐसी जिनकी बुद्धि है, उसके लिए पृथिवि बहुत बड़ी पड़ी है । वो काशी से बाहर जा कर कही भी सुख से पाप कर सकता है । कामातुर होने पर भी मनुष्य एक अपनी माता को तो बचाता ही है । ऐसे ही पापी मनुष्य को मोक्षार्थी होने पर भी एक काशी को तो बचाना ही चाहिए । दूसरो की निंदा करना जिनका स्वभाव है और जो परस्त्री इच्छा करते हैं, उनके लिए काशी में रहना उचित नहीं है । कहाँ मोक्ष देने वाली काशी और कहाँ ऐसे नारकी पुरुष ! जो प्रतिग्रह द्वारा धन की इच्छा रखते हैं और जो कपट – जाल फैला कर दूसरो का धन हरण करना चाहते हैं, उन मनुष्यों को काशी में नहीं रहना चाहिए । काशी में रह कर कभी ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिए जिस से किसी को भी पीड़ा हो । जिनको यही करना है उन दुरात्माओ को काशी वास से क्या प्रयोजन है !
(काशी 122 । 101-103)
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