Sunday, December 31, 2017

भगवान शिव से जुड़ी गुप्त बातें

भगवान शिव से जुड़ी गुप्त बातें


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ऊँ अघोराय नमः

‘शिव का द्रोही मुझे स्वप्न में भी पसंद नहीं।’- भगवान राम

आइंस्टीन से पूर्व शिव ने ही कहा था कि ‘कल्पना’ ज्ञान से ज्यादा महत्वपूर्ण है। हम जैसी कल्पना और विचार करते हैं, वैसे ही हो जाते हैं। शिव ने इस आधार पर ध्यान की कई विधियों का विकास किया। भगवान शिव दुनिया के सभी धर्मों का मूल हैं। शिव के दर्शन और जीवन की कहानी दुनिया के हर धर्म और उनके ग्रंथों में अलग-अलग रूपों में विद्यमान है।

जब देवी-देवताओं ने धरती पर कदम रखे थे, तब उस काल में धरती हिमयुग की चपेट में थी। इस दौरान भगवान शंकर ने धरती के केंद्र कैलाश को अपना निवास स्थान बनाया।
भगवान विष्णु ने समुद्र को और ब्रह्मा ने नदी के किनारे को अपना स्थान बनाया था। पुराण कहते हैं कि जहां पर शिव विराजमान हैं उस पर्वत के ठीक नीचे पाताल लोक है, जो भगवान विष्णु का स्थान है। शिव के आसन के ऊपर वायुमंडल के पार क्रमश: स्वर्ग लोक और फिर ब्रह्माजी का स्थान है, जबकि धरती पर कुछ भी नहीं था। इन तीनों से सब कुछ हो गया।

वैज्ञानिकों के अनुसार तिब्बत धरती की सबसे प्राचीन भूमि है और पुरातनकाल में इसके चारों ओर समुद्र हुआ करता था। फिर जब समुद्र हटा तो अन्य धरती का प्रकटन हुआ और इस तरह धीरे-धीरे जीवन भी फैलता गया।

सर्वप्रथम भगवान शिव ने ही धरती पर जीवन के प्रचार-प्रसार का प्रयास किया इसलिए उन्हें आदि देव भी कहा जाता है। आदि का अर्थ प्रारंभ। शिव को ‘आदिनाथ’ भी कहा जाता है। आदिनाथ होने के कारण उनका एक नाम आदिश भी है। इस ‘आदिश’ शब्द से ही ‘आदेश’ शब्द बना है। नाथ साधु जब एक–दूसरे से मिलते हैं तो कहते हैं- आदेश।

भगवान शिव के अलावा ब्रह्मा और विष्णु ने संपूर्ण धरती पर जीवन की उत्पत्ति और पालन का कार्य किया। सभी ने मिलकर धरती को रहने लायक बनाया और यहां देवता, दैत्य, दानव, गंधर्व, यक्ष और मनुष्य की आबादी को बढ़ाया।

महाभारत काल : ऐसी मान्यता है कि महाभारत काल तक देवता धरती पर रहते थे। महाभारत के बाद सभी अपने-अपने धाम चले गए। कलयुग के प्रारंभ होने के बाद देवता बस विग्रह रूप में ही रह गए अत: उनके विग्रहों की पूजा की जाती है।

पहले भगवान शिव थे रुद्र : वैदिक काल के रुद्र और उनके अन्य स्वरूप तथा जीवन दर्शन को पुराणों में विस्तार मिला। वेद जिन्हें रुद्र कहते हैं, पुराण उन्हें शंकर और महेश कहते हैं। वराह काल के पूर्व के कालों में भी शिव थे। उन कालों की शिव की गाथा अलग है।

देवों के देव महादेव : देवताओं की दैत्यों से प्रतिस्पर्धा चलती रहती थी। ऐसे में जब भी देवताओं पर घोर संकट आता था तो वे सभी देवाधिदेव महादेव के पास जाते थे। दैत्यों, राक्षसों सहित देवताओं ने भी शिव को कई बार चुनौती दी, लेकिन वे सभी परास्त होकर शिव के समक्ष झुक गए इसीलिए शिव हैं देवों के देव महादेव। वे दैत्यों, दानवों और भूतों के भी प्रिय भगवान हैं।

भगवान शिव ने क्यों मार दिए थे विशालकाय मानव


ब्रह्मा ने बनाए विशालकाय मानव : सन् 2007 में नेशनल जिओग्राफी की टीम ने भारत और अन्य जगह पर 20 से 22 फिट मानव के कंकाल ढूंढ निकाले हैं। भारत में मिले कंकाल को कुछ लोग भीम पुत्र घटोत्कच और कुछ लोग बकासुर का कंकाल मानते हैं।

हिन्दू धर्म के अनुसार सतयुग में इस तरह के विशालकाय मानव हुआ करते थे। बाद में त्रेतायुग में इनकी प्रजाति नष्ट हो गई। पुराणों के अनुसार भारत में दैत्य, दानव, राक्षस और असुरों की जाति का अस्तित्व था, जो इतनी ही विशालकाय हुआ करती थी।

भारत में मिले इस कंकाल के साथ एक शिलालेख भी मिला है। यह उस काल की ब्राह्मी लिपि का शिलालेख है। इसमें लिखा है कि ब्रह्मा ने मनुष्यों में शांति स्थापित करने के लिए विशेष आकार के मनुष्यों की रचना की थी। विशेष आकार के मनुष्यों की रचना एक ही बार हुई थी। ये लोग काफी शक्तिशाली होते थे और पेड़ तक को अपनी भुजाओं से उखाड़ सकते थे। लेकिन इन लोगों ने अपनी शक्ति का दुरुपयोग करना शुरू कर दिया और आपस में लड़ने के बाद देवताओं को ही चुनौती देने लगे। अंत में भगवान शंकर ने सभी को मार डाला और उसके बाद ऐसे लोगों की रचना फिर नहीं की गई।

भगवान शिव का धनुष पिनाक : शिव ने जिस धनुष को बनाया था उसकी टंकार से ही बादल फट जाते थे और पर्वत हिलने लगते थे। ऐसा लगता था मानो भूकंप आ गया हो। यह धनुष बहुत ही शक्तिशाली था। इसी के एक तीर से त्रिपुरासुर की तीनों नगरियों को ध्वस्त कर दिया गया था। इस धनुष का नाम पिनाक था। देवी और देवताओं के काल की समाप्ति के बाद इस धनुष को देवरात को सौंप दिया गया था।

उल्लेखनीय है कि राजा दक्ष के यज्ञ में यज्ञ का भाग शिव को नहीं देने के कारण भगवान शंकर बहुत क्रोधित हो गए थे और उन्होंने सभी देवताओं को अपने पिनाक धनुष से नष्ट करने की ठानी। एक टंकार से धरती का वातावरण भयानक हो गया। बड़ी मुश्किल से उनका क्रोध शांत किया गया, तब उन्होंने यह धनुष देवताओं को दे दिया।

देवताओं ने राजा जनक के पूर्वज देवरात को दे दिया। राजा जनक के पूर्वजों में निमि के ज्येष्ठ पुत्र देवरात थे। शिव-धनुष उन्हीं की धरोहरस्वरूप राजा जनक के पास सुरक्षित था। इस धनुष को भगवान शंकर ने स्वयं अपने हाथों से बनाया था। उनके इस विशालकाय धनुष को कोई भी उठाने की क्षमता नहीं रखता था। लेकिन भगवान राम ने इसे उठाकर इसकी प्रत्यंचा चढ़ाई और इसे एक झटके में तोड़ दिया।

भगवान शिव का चक्र : चक्र को छोटा, लेकिन सबसे अचूक अस्त्र माना जाता था। सभी देवी-देवताओं के पास अपने-अपने अलग-अलग चक्र होते थे। उन सभी के अलग-अलग नाम थे। शंकरजी के चक्र का नाम भवरेंदु, विष्णुजी के चक्र का नाम कांता चक्र और देवी का चक्र मृत्यु मंजरी के नाम से जाना जाता था। सुदर्शन चक्र का नाम भगवान कृष्ण के नाम के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है।

यह बहुत कम ही लोग जानते हैं कि सुदर्शन चक्र का निर्माण भगवान शंकर ने किया था। प्राचीन और प्रामाणिक शास्त्रों के अनुसार इसका निर्माण भगवान शंकर ने किया था। निर्माण के बाद भगवान शिव ने इसे श्रीविष्णु को सौंप दिया था। जरूरत पड़ने पर श्रीविष्णु ने इसे देवी पार्वती को प्रदान कर दिया। पार्वती ने इसे परशुराम को दे दिया और भगवान कृष्ण को यह सुदर्शन चक्र परशुराम से मिला।

त्रिशूल : इस तरह भगवान शिव के पास कई अस्त्र-शस्त्र थे लेकिन उन्होंने अपने सभी अस्त्र-शस्त्र देवताओं को सौंप दिए। उनके पास सिर्फ एक त्रिशूल ही होता था। यह बहुत ही अचूक और घातक अस्त्र था। त्रिशूल 3 प्रकार के कष्टों दैनिक, दैविक, भौतिक के विनाश का सूचक है। इसमें 3 तरह की शक्तियां हैं- सत, रज और तम। प्रोटॉन, न्यूट्रॉन और इलेक्ट्रॉन। इसके अलावा पाशुपतास्त्र भी शिव का अस्त्र है।

भगवान शिव के गले में जो सांप है 


भगवान शिव का सेवक वासुकी : शिव को नागवंशियों से घनिष्ठ लगाव था। नाग कुल के सभी लोग शिव के क्षेत्र हिमालय में ही रहते थे। कश्मीर का अनंतनाग इन नागवंशियों का गढ़ था। नागकुल के सभी लोग शैव धर्म का पालन करते थे। नागों के प्रारंभ में 5 कुल थे। उनके नाम इस प्रकार हैं- शेषनाग (अनंत), वासुकी, तक्षक, पिंगला और कर्कोटक। ये शोध के विषय हैं कि ये लोग सर्प थे या मानव या आधे सर्प और आधे मानव? हालांकि इन सभी को देवताओं की श्रेणी में रखा गया है तो निश्‍चित ही ये मनुष्य नहीं होंगे।

नाग वंशावलियों में ‘शेषनाग’ को नागों का प्रथम राजा माना जाता है। शेषनाग को ही ‘अनंत’ नाम से भी जाना जाता है। ये भगवान विष्णु के सेवक थे। इसी तरह आगे चलकर शेष के बाद वासुकी हुए, जो शिव के सेवक बने। फिर तक्षक और पिंगला ने राज्य संभाला। वासुकी का कैलाश पर्वत के पास ही राज्य था और मान्यता है कि तक्षक ने ही तक्षकशिला (तक्षशिला) बसाकर अपने नाम से ‘तक्षक’ कुल चलाया था। उक्त पांचों की गाथाएं पुराणों में पाई जाती हैं।

उनके बाद ही कर्कोटक, ऐरावत, धृतराष्ट्र, अनत, अहि, मनिभद्र, अलापत्र, कम्बल, अंशतर, धनंजय, कालिया, सौंफू, दौद्धिया, काली, तखतू, धूमल, फाहल, काना इत्यादि नाम से नागों के वंश हुए जिनके भारत के भिन्न-भिन्न इलाकों में इनका राज्य था।

अमरनाथ के अमृत वचन किस नाम से सुरक्षित


अमरनाथ के अमृत वचन : शिव ने अपनी अर्धांगिनी पार्वती को मोक्ष हेतु अमरनाथ की गुफा में जो ज्ञान दिया, उस ज्ञान की आज अनेकानेक शाखाएं हो चली हैं। वह ज्ञानयोग और तंत्र के मूल सूत्रों में शामिल है। ‘विज्ञान भैरव तंत्र’ एक ऐसा ग्रंथ है जिसमें भगवान शिव द्वारा पार्वती को बताए गए 112 ध्यान सूत्रों का संकलन है।

योगशास्त्र के प्रवर्तक भगवान शिव के ‘‍विज्ञान भैरव तंत्र’ और ‘शिव संहिता’ में उनकी संपूर्ण शिक्षा और दीक्षा समाई हुई है। तंत्र के अनेक ग्रंथों में उनकी शिक्षा का विस्तार हुआ है। भगवान शिव के योग को तंत्र या वामयोग कहते हैं। इसी की एक शाखा हठयोग की है। भगवान शिव कहते हैं- ‘वामो मार्ग: परमगहनो योगितामप्यगम्य:’ अर्थात वाम मार्ग अत्यंत गहन है और योगियों के लिए भी अगम्य है। -मेरुतंत्र

भगवान शिव ने अपना ज्ञान सबसे पहले 


भगवान शिव के शिष्य : शिव तो जगत के गुरु हैं। मान्यता अनुसार सबसे पहले उन्होंने अपना ज्ञान सप्त ऋषियों को दिया था। सप्त ऋषियों ने शिव से ज्ञान लेकर अलग-अलग दिशाओं में फैलाया और दुनिया के कोने-कोने में शैव धर्म, योग और ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया। इन सातों ऋषियों ने ऐसा कोई व्यक्ति नहीं छोड़ा जिसको शिव कर्म, परंपरा आदि का ज्ञान नहीं सिखाया गया हो। आज सभी धर्मों में इसकी झलक देखने को मिल जाएगी। परशुराम और रावण भी शिव के शिष्य थे।

शिव ने ही गुरु और शिष्य परंपरा की शुरुआत ‍की थी जिसके चलते आज भी नाथ, शैव, शाक्त आदि सभी संतों में उसी परंपरा का निर्वाह होता आ रहा है। आदि गुरु शंकराचार्य और गुरु गोरखनाथ ने इसी परंपरा और आगे बढ़ाया।

सप्त ऋषि ही शिव के मूल शिष्य : भगवान शिव ही पहले योगी हैं और मानव स्वभाव की सबसे गहरी समझ उन्हीं को है। उन्होंने अपने ज्ञान के विस्तार के लिए 7 ऋषियों को चुना और उनको योग के अलग-अलग पहलुओं का ज्ञान दिया, जो योग के 7 बुनियादी पहलू बन गए। वक्त के साथ इन 7 रूपों से सैकड़ों शाखाएं निकल आईं। बाद में योग में आई जटिलता को देखकर पतंजलि ने 300 ईसा पूर्व मात्र 200 सूत्रों में पूरे योग शास्त्र को समेट दिया। योग का 8वां अंग मोक्ष है। 7 अंग तो उस मोक्ष तक पहुंचने के लिए है।

भगवान शिव के गणों के नाम

भगवान शिव गण : भगवान शिव की सुरक्षा और उनके आदेश को मानने के लिए उनके गण सदैव तत्पर रहते हैं। उनके गणों में भैरव को सबसे प्रमुख माना जाता है। उसके बाद नंदी का नंबर आता और फिर वीरभ्रद्र। जहां भी शिव मंदिर स्थापित होता है, वहां रक्षक (कोतवाल) के रूप में भैरवजी की प्रतिमा भी स्थापित की जाती है। भैरव दो हैं- काल भैरव और बटुक भैरव। दूसरी ओर वीरभद्र शिव का एक बहादुर गण था जिसने शिव के आदेश पर दक्ष प्रजापति का सर धड़ से अलग कर दिया। देव संहिता और स्कंद पुराण के अनुसार शिव ने अपनी जटा से ‘वीरभद्र’ नामक गण उत्पन्न किया।

इस तरह उनके ये प्रमुख गण थे- भैरव, वीरभद्र, मणिभद्र, चंदिस, नंदी, श्रृंगी, भृगिरिटी, शैल, गोकर्ण, घंटाकर्ण, जय और विजय। इसके अलावा, पिशाच, दैत्य और नाग-नागिन, पशुओं को भी शिव का गण माना जाता है। ये सभी गण धरती और ब्रह्मांड में विचरण करते रहते हैं और प्रत्येक मनुष्य, आत्मा आदि की खैर-खबर रखते हैं।

भगवान शिव के द्वारपाल


भगवान शिव के द्वारपाल : कैलाश पर्वत के क्षेत्र में उस काल में कोई भी देवी या देवता, दैत्य या दानव शिव के द्वारपाल की आज्ञा के बगैर अंदर नहीं जा सकता था। ये द्वारपाल संपूर्ण दिशाओं में तैनात थे।

इन द्वारपालों के नाम हैं- नंदी, स्कंद, रिटी, वृषभ, भृंगी, गणेश, उमा-महेश्वर और महाकाल। उल्लेखनीय है कि शिव के गण और द्वारपाल नंदी ने ही कामशास्त्र की रचना की थी। कामशास्त्र के आधार पर ही कामसूत्र लिखा गया था।

भगवान शिव पंचायत को जानिए


भगवान शिव पंचायत : पंचायत का फैसला अंतिम माना जाता है। देवताओं और दैत्यों के झगड़े आदि के बीच जब कोई महत्वपूर्ण निर्णय लेना होता था तो शिव की पंचायत का फैसला अंतिम होता था। शिव की पंचायत में 5 देवता शामिल थे।

ये 5 देवता थे:- 1. सूर्य, 2. गणपति, 3. देवी, 4. रुद्र और 5. विष्णु ये शिव पंचायत कहलाते हैं।

भगवान शिव के पार्षद


भगवान शिव पार्षद : जिस तरह जय और विजय विष्णु के पार्षद हैं ‍उसी तरह बाण, रावण, चंड, नंदी, भृंगी आदि ‍शिव के पार्षद हैं। यहां देखा गया है कि नंदी और भृंगी गण भी है, द्वारपाल भी है और पार्षद भी।

भगवान शिव के प्रतीक चिह्न


भगवान शिव चिह्न : वनवासी से लेकर सभी साधारण व्‍यक्ति जिस चिह्न की पूजा कर सकें, उस पत्‍थर के ढेले, बटिया को शिव का चिह्न माना जाता है। इसके अलावा रुद्राक्ष और त्रिशूल को भी शिव का चिह्न माना गया है। कुछ लोग डमरू और अर्ध चंद्र को भी शिव का चिह्न मानते हैं। हालांकि ज्यादातर लोग शिवलिंग अर्थात शिव की ज्योति का पूजन करते हैं।

भगवान शिव की जटाएं हैं। उन जटाओं में एक चंद्र चिह्न होता है। उनके मस्तष्क पर तीसरी आंख है। वे गले में सर्प और रुद्राक्ष की माला लपेटे रहते हैं। उनके एक हाथ में डमरू तो दूसरे में त्रिशूल है। वे संपूर्ण देह पर भस्म लगाए रहते हैं। उनके शरीर के निचले हिस्से को वे व्याघ्र चर्म से लपेटे रहते हैं। वे वृषभ की सवारी करते हैं और कैलाश पर्वत पर ध्यान लगाए बैठे रहते हैं। माना जाता है कि केदारनाथ और अमरनाथ में वे विश्राम करते हैं।

भस्मासुर से बचकर यहां छिप गए थे शिव


भगवान शिव की गुफा : शिव ने एक असुर को वरदान दिया था कि तू जिसके भी सिर पर हाथ रखेगा वह भस्म हो जाएगा। इस वरदान के कारण ही उस असुर का नाम भस्मासुर हो गया। उसने सबसे पहले शिव को ही भस्म करने की सोची।

भस्मासुर से बचने के लिए भगवान शंकर वहां से भाग गए। उनके पीछे भस्मासुर भी भागने लगा। भागते-भागते शिवजी एक पहाड़ी के पास रुके और फिर उन्होंने इस पहाड़ी में अपने त्रिशूल से एक गुफा बनाई और वे फिर उसी गुफा में छिप गए। बाद में विष्णुजी ने आकर उनकी जान बचाई।

माना जाता है कि वह गुफा जम्मू से 150 किलोमीटर दूर त्रिकूटा की पहाड़ियों पर है। इन खूबसूरत पहाड़ियों को देखने से ही मन शांत हो जाता है। इस गुफा में हर दिन सैकड़ों की तादाद में शिवभक्त शिव की अराधना करते हैं।

भगवान राम ने किया था भगवान शिव से युद्ध

सभी जानते हैं कि राम के आराध्यदेव शिव हैं, तब फिर राम कैसे शिव से युद्ध कर सकते हैं? पुराणों में विदित दृष्टांत के अनुसार यह युद्ध श्रीराम के अश्वमेध यज्ञ के दौरान लड़ा गया।

यज्ञ का अश्व कई राज्यों को श्रीराम की सत्ता के अधीन किए जा रहा था। इसी बीच यज्ञ का अश्व देवपुर पहुंचा, जहां राजा वीरमणि का राज्य था। वीरमणि ने भगवान शंकर की तपस्या कर उनसे उनकी और उनके पूरे राज्य की रक्षा का वरदान मांगा था। महादेव के द्वारा रक्षित होने के कारण कोई भी उनके राज्य पर आक्रमण करने का साहस नहीं करता था। जब यज्ञ का घोड़ा उनके राज्य में पहुंचा तो राजा वीरमणि के पुत्र रुक्मांगद ने उसे बंदी बना लिया। ऐसे में अयोध्या और देवपुर में युद्ध होना तय था।

महादेव ने अपने भक्त को मुसीबत में जानकर वीरभद्र के नेतृत्व में नंदी, भृंगी सहित अपने सारे गणों को भेज दिया। एक और राम की सेना तो दूसरी ओर शिव की सेना थी। वीरभद्र ने एक त्रिशूल से राम की सेना के पुष्कल का मस्तक काट दिया। उधर भृंगी आदि गणों ने भी राम के भाई शत्रुघ्न को बंदी बना लिया। बाद में हनुमान भी जब नंदी के शिवास्त्र से पराभूत होने लगे तब सभी ने राम को याद किया। अपने भक्तों की पुकार सुनकर श्रीराम तत्काल ही लक्ष्मण और भरत के साथ वहां आ गए। श्रीराम ने सबसे पहले शत्रुघ्न को मुक्त कराया और उधर लक्ष्मण ने हनुमान को मुक्त करा दिया। फिर श्रीराम ने सारी सेना के साथ शिव गणों पर धावा बोल दिया। जब नंदी और अन्य शिव के गण परास्त होने लगे तब महादेव ने देखा कि उनकी सेना बड़े कष्ट में है तो वे स्वयं युद्ध क्षेत्र में प्रकट हुए, तब श्रीराम और शिव में युद्ध छिड़ गया।

भयंकर युद्ध के बाद अंत में श्रीराम ने पाशुपतास्त्र निकालकर कर शिव से कहा, ‘हे प्रभु, आपने ही मुझे ये वरदान दिया है कि आपके द्वारा प्रदत्त इस अस्त्र से त्रिलोक में कोई पराजित हुए बिना नहीं रह सकता इसलिए हे महादेव, आपकी ही आज्ञा और इच्छा से मैं इसका प्रयोग आप पर ही करता हूं’, ये कहते हुए श्रीराम ने वो महान दिव्यास्त्र भगवान शिव पर चला दिया।

वो अस्त्र सीधा महादेव के ह्वदयस्थल में समा गया और भगवान रुद्र इससे संतुष्ट हो गए। उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक श्रीराम से कहा कि आपने युद्ध में मुझे संतुष्ट किया है इसलिए जो इच्छा हो वर मांग लें। इस पर श्रीराम ने कहा कि ‘हे भगवन्, यहां मेरे भाई भरत के पुत्र पुष्कल सहित असंख्य योद्धा वीरगति को प्राप्त हो गए है, कृपया कर उन्हें जीवनदान दीजिए।’ महादेव ने कहा कि ‘तथास्तु।’ इसके बाद शिव की आज्ञा से राजा वीरमणि ने यज्ञ का अश्व श्रीराम को लौटा दिया और श्रीराम भी वीरमणि को उनका राज्य सौंपकर शत्रुघ्न के साथ अयोध्या की ओर चल दिए।

ब्रह्मा, विष्णु और शिव का जन्म रहस्य

तीनों के जन्म की कथाएं वेद और पुराणों में अलग-अलग हैं, लेकिन उनके जन्म की पुराण कथाओं में कितनी सच्चाई है और उनके जन्म की वेदों में लिखी कथाएं कितनी सच हैं, इस पर शोधपूर्ण दृष्टि की जरूरत है।

यहां यह बात ध्यान रखने की है कि ईश्वर अजन्मा है।

अलग-अलग पुराणों में भगवान शिव और विष्णु के जन्म के विषय में कई कथाएं प्रचलित हैं। शिव पुराण के अनुसार भगवान शिव को स्वयंभू माना गया है जबकि विष्णु पुराण के अनुसार भगवान विष्णु स्वयंभू हैं।

शिव पुराण के अनुसार एक बार जब भगवान शिव अपने टखने पर अमृत मल रहे थे तब उससे भगवान विष्णु पैदा हुए जबकि विष्णु पुराण के अनुसार ब्रह्मा भगवान विष्णु की नाभि कमल से पैदा हुए जबकि शिव भगवान विष्णु के माथे के तेज से उत्पन्न हुए बताए गए हैं। विष्णु पुराण के अनुसार माथे के तेज से उत्पन्न होने के कारण ही शिव हमेशा योगमुद्रा में रहते हैं।

भगवान शिव के जन्म की कहानी हर कोई जानना चाहता है। श्रीमद् भागवत के अनुसार एक बार जब भगवान विष्णु और ब्रह्मा अहंकार से अभिभूत हो स्वयं को श्रेष्ठ बताते हुए लड़ रहे थे, तब एक जलते हुए खंभे से जिसका कोई भी ओर-छोर ब्रह्मा या विष्णु नहीं समझ पाए, भगवान शिव प्रकट हुए।

यदि किसी का बचपन है तो निश्चत ही जन्म भी होगा और अंत भी। विष्णु पुराण में शिव के बाल रूप का वर्णन मिलता है। इसके अनुसार ब्रह्मा को एक बच्चे की जरूरत थी। उन्होंने इसके लिए तपस्या की। तब अचानक उनकी गोद में रोते हुए बालक शिव प्रकट हुए। ब्रह्मा ने बच्चे से रोने का कारण पूछा तो उसने बड़ी मासूमियत से जवाब दिया कि उसका नाम ‘ब्रह्मा’ नहीं है इसलिए वह रो रहा है।

तब ब्रह्मा ने शिव का नाम ‘रुद्र’ रखा जिसका अर्थ होता है ‘रोने वाला’। शिव तब भी चुप नहीं हुए इसलिए ब्रह्मा ने उन्हें दूसरा नाम दिया, पर शिव को नाम पसंद नहीं आया और वे फिर भी चुप नहीं हुए। इस तरह शिव को चुप कराने के लिए ब्रह्मा ने 8 नाम दिए

शिव को इसलिए कहते हैं महाकाल 

आज जहां महाकाल मंदिर है वहां प्राचीन समय में वन हुआ करता था, जिसके अधिपति महाकाल थे। इसलिए इसे महाकाल वन भी कहा जाता था। स्कंदपुराण के अवंती खंड, शिव महापुराण, मत्स्य पुराण आदि में महाकाल वन का वर्णन मिलता है। शिव महापुराण की उत्तराद्र्ध के 22वे अध्याय के अनुसार दूषण नामक एक दैत्य से भक्तों की रक्षा करने के लीए भगवान शिव ज्योति के रूप में यहां प्रकट हुए थे। दूषण संसार का काल थे और शिव ने उसे नष्ट किया अत: वे महाकाल के नाम से पूज्य हुए। तत्कालीन राजा राजा चंद्रसेन के युग में यहां एक
मंदिर भी बनाया गया, जो महाकाल का पहला मंदिर था। महाकाल का वास होने से पुरातन साहित्य में उज्जैन को महाकालपुरम भी कहा गया है।

अकाल मृत्यु वो मरे, जो काम करे चण्डाल का।

काल उसका क्या करे, जो भक्त हो महाकाल का॥


12 ज्योतिर्लिंगों में से एक महाकालेश्वर कई कारणों से अलग हैं। महाकाल के दर्शन से कई परेशानियों से मुक्ति मिलती है।
खासतौर पर महाकाल के दर्शन के बाद मृत्यु का भय दूर हो जाता है क्योंकि महाकाल को काल का अधिपति माना गया है।
सभी देवताओं में भगवान शिव ही एकमात्र ऐसे देवता हैं जिनका पूजन लिंग रूप में भी किया जाता है। भारत में
विभिन्न स्थानों पर भगवान शिव के प्रमुख 12 शिवलिंग स्थापित हैं। इनकी महिमा का वर्णन अनेक धर्म ग्रंथों में लिखा है। इनकी महिमा को देखते हुए ही इन्हें ज्योतिर्लिंग भी कहा जाता है। यूं तो इन सभी ज्योतिर्लिंगों का अपना अलग महत्व है लेकिन इन सभी में उज्जैन स्थित महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग का विशेष स्थान है।
धर्म ग्रंथों के अनुसार-
आकाशे तारकेलिंगम्, पाताले हाटकेश्वरम्
मृत्युलोके च महाकालम्, त्रयलिंगम् नमोस्तुते।।

यानी आकाश में तारक लिंग, पाताल में हाटकेश्वर लिंग और पृथ्वी पर महाकालेश्वर से बढ़कर अन्य कोई
ज्योतिर्लिंग नहीं है। इसलिए महाकालेश्वर को पृथ्वी का अधिपति भी माना जाता है अर्थात वे ही संपूर्ण पृथ्वी के एकमात्र राजा हैं।

एकमात्र दक्षिणमुखी ज्योतिर्लिंग


महाकालेश्वर की एक और खास बात यह भी है कि सभी प्रमुख 12 ज्योतिर्लिंगों में एकमात्र महाकालेश्वर ही दक्षिणमुखी हैं अर्थात इनकी मुख दक्षिण की ओर है। धर्म शास्त्रों के अनुसार दक्षिण दिशा के स्वामी स्वयं भगवान यमराज हैं। इसलिए यह भी मान्यता है कि जो भी सच्चे मन से भगवान महाकालेश्वर के दर्शन व पूजन करता है उसे मृत्यु उपरांत यमराज द्वारा दी जाने वाली यातनाओं से मुक्ति मिल जाती है। संपूर्ण विश्व में महाकालेश्वर ही एकमात्र ऐसा ज्योतिर्लिंग है जहां भगवान शिव की भस्मारती की जाती है। भस्मारती को देखने के लिए दूर-दूर से श्रद्धालु यहां आते हैं। मान्यता है कि प्राचीन काल में मुर्दे की भस्म से भगवान महाकालेश्वर की भस्मारती की जाती थी लेकिन कालांतर में यह प्रथा समाप्त हो गई और वर्तमान में गाय के गोबर से बने उपलों (कंडों) की भस्म से महाकाल की भस्मारती की जाती है। यह आरती सूर्योदय से पूर्व सुबह 4 बजे की जाती है। जिसमें भगवान को स्नान के बाद भस्म चढ़ाई जाती है।
जय श्री महाकाल

अष्टलक्ष्मी स्तोत्र

अष्टलक्ष्मी स्तोत्र

दक्षिणा 2100 /- ज्योतिष तंत्र मंत्र यंत्र टोटका वास्तु कुंडली हस्त रेखा राशि रत्न,भूत प्रेत जिन जिन्नात बुरे गंदे सपने का आना, कोर्ट केस, लव मैरिज, डाइवोर्स, वशीकरण पितृ दोष कालसर्प दोष चंडाल दोष गृह क्लेश बिजनस विदेश यात्रा, अप्सरा परी साधना, अघोर साधनायें , समशान तांत्रिक साधनायें, सास बहु, सास ससुर, पति पत्नी, जेठ जेठानी, देवर देवरानी, नन्द नन्दोई, साला साली, सभी झगड़े विवाद का हल व वशीकरण कार्य किया जाता है      

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अष्टलक्ष्मी स्तोत्र : एक बार मनन अवश्य करे -जय माँ लक्ष्मी

1-आदिलक्ष्मी

सुमनसवन्दित सुन्दरि माधवि चन्द्र सहोदरि हेममये l
मुनिगणमण्डित मोक्षप्रदायिनि मञ्जुळभाषिणि वेदनुते ll
पङ्कजवासिनि देवसुपूजित सद्गुणवर्षिणि शान्तियुते l
जयजय हे मधुसूदन कामिनि आदिलक्ष्मि सदा पालय माम्

2-धान्यलक्ष्मी

अहिकलि कल्मषनाशिनि कामिनि वैदिकरूपिणि वेदमये l
क्षीरसमुद्भव मङ्गलरूपिणि मन्त्रनिवासिनि मन्त्रनुते ll
मङ्गलदायिनि अम्बुजवासिनि देवगणाश्रित पादयुते l
जयजय हे मधुसूदन कामिनि धान्यलक्ष्मि सदा पालय माम्

3-धैर्यलक्ष्मी

जयवरवर्णिनि वैष्णवि भार्गवि मन्त्रस्वरूपिणि मन्त्रमये l
सुरगणपूजित शीघ्रफलप्रद ज्ञानविकासिनि शास्त्रनुते ll
भवभयहारिणि पापविमोचनि साधुजनाश्रित पादयुते l
जयजय हे मधुसूदन कामिनि धैर्यलक्ष्मि सदा पालय माम्

4-गजलक्ष्मी

जयजय दुर्गतिनाशिनि कामिनि सर्वफलप्रद शास्त्रमये l
रथगज तुरगपदादि समावृत परिजनमण्डित लोकनुते ll
हरिहर ब्रह्म सुपूजित सेवित तापनिवारिणि पादयुते l
जयजय हे मधुसूदन कामिनि गजलक्ष्मि रूपेण पालय माम्

5-सन्तानलक्ष्मी

अहिखग वाहिनि मोहिनि चक्रिणि रागविवर्धिनि ज्ञानमये l
गुणगणवारिधि लोकहितैषिणि स्वरसप्त भूषित गाननुते ll
सकल सुरासुर देवमुनीश्वर मानववन्दित पादयुते l
जयजय हे मधुसूदन कामिनि सन्तानलक्ष्मि त्वं पालय माम् ll

6-विजयलक्ष्मी

जय कमलासनि सद्गतिदायिनि ज्ञानविकासिनि गानमये l
अनुदिनमर्चित कुङ्कुमधूसर भूषित वासित वाद्यनुते ll
कनकधरास्तुति वैभव वन्दित शङ्कर देशिक मान्य पदे l
जयजय हे मधुसूदन कामिनि विजयलक्ष्मि सदा पालय माम्

7-विद्यालक्ष्मी

प्रणत सुरेश्वरि भारति भार्गवि शोकविनाशिनि रत्नमये l
मणिमयभूषित कर्णविभूषण शान्तिसमावृत हास्यमुखे ll
नवनिधिदायिनि कलिमलहारिणि कामित फलप्रद हस्तयुते l
जयजय हे मधुसूदन कामिनि विद्यालक्ष्मि सदा पालय माम्

8-धनलक्ष्मी

धिमिधिमि धिंधिमि धिंधिमि धिंधिमि दुन्दुभि नाद सुपूर्णमये
घुमघुम घुंघुम घुंघुम घुंघुम शङ्खनिनाद सुवाद्यनुते ll
वेदपुराणेतिहास सुपूजित वैदिकमार्ग प्रदर्शयुते l
जयजय हे मधुसूदन कामिनि धनलक्ष्मि रूपेण पालय माम् ll

महाकाली कि नित्याएं / कलाएं

महाकाली कि नित्याएं / कलाएं


दक्षिणा 2100 /- ज्योतिष तंत्र मंत्र यंत्र टोटका वास्तु कुंडली हस्त रेखा राशि रत्न,भूत प्रेत जिन जिन्नात बुरे गंदे सपने का आना, कोर्ट केस, लव मैरिज, डाइवोर्स, वशीकरण पितृ दोष कालसर्प दोष चंडाल दोष गृह क्लेश बिजनस विदेश यात्रा, अप्सरा परी साधना, अघोर साधनायें , समशान तांत्रिक साधनायें, सास बहु, सास ससुर, पति पत्नी, जेठ जेठानी, देवर देवरानी, नन्द नन्दोई, साला साली, सभी झगड़े विवाद का हल व वशीकरण कार्य किया जाता है      
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विज्ञ जनों को यदि मेरे इस लेख में कोई गलतियां मिलती हैं तो कृपापूर्वक मुझे दिशानिर्देश दें — आप सबके सुझावों का स्वागत है :-

१. काली :-
प्रथम नित्य का नाम भी काली ही है और मंत्र है :-

ॐ ह्रीं काली काली महाकाली कौमारी मह्यं देहि स्वाहा 

२. कपालिनी :-
माता काली कि द्वितीय नित्य का नाम कपालिनी है और मन्त्र है :-

ॐ ह्रीं क्रीं कपालिनी – महा – कपाला – प्रिये – मानसे कपाला सिद्धिम में देहि हुं फट स्वाहा 

३. कुल्ला :-
माता काली कि तृतीय नित्या का नाल कुल्ला है और मंत्र है :-

ॐ क्रीं कुल्लायै नमः

४. कुरुकुल्ला :-
माता कि चतुर्थ नित्या का नाम कुरुकुल्ला है और मंत्र है :-

क्रीं ॐ कुरुकुल्ले क्रीं ह्रीं मम सर्वजन वश्यमानय क्रीं कुरुकुल्ले ह्रीं स्वाहा

५. विरोधिनी :-
माता कि पंचम नित्या का नाम विरोधिनी है और मंत्र है :-

ॐ क्रीं ह्रीं क्लीं हुं विरोधिनी शत्रुन उच्चाटय विरोधय विरोधय शत्रु क्षयकरी हुं फट

६. विप्रचित्ता :-
माता कि छटवीं नित्या का नाम विप्रचित्ता है और मंत्र है :-

ॐ श्रीं क्लीं चामुण्डे विप्रचित्ते दुष्ट-घातिनी शत्रुन नाशय एतद-दिन-वधि प्रिये सिद्धिम में देहि हुं फट स्वाहा

७. उग्रा :-
माता कि सप्तम नित्या का नाम उग्रा है और मंत्र है :-

ॐ स्त्रीं हुं ह्रीं फट

८. उग्रप्रभा :-
माँ कि अष्टम नित्या का नाम उग्रप्रभा है और मंत्र है :-

ॐ हुं उग्रप्रभे देवि काली महादेवी स्वरूपं दर्शय हुं फट स्वाहा

९. दीप्ता :-
माता कि नवमी नित्या का नाम दीप्ता है और मंत्र है :-

ॐ क्रीं हुं दीप्तायै सर्व मंत्र फ़लदायै हुं फट स्वाहा

१०. नीला :-
माता कि दसवीं नित्या का नाम नीला है और मंत्र है :-

हुं हुं क्रीं क्रीं ह्रीं ह्रीं हसबलमारी नीलपताके हम फट

११. घना :-
माता कि ग्यारहवीं नित्या के रूप में माता घना को जाना जाता है और मंत्र है :-

ॐ क्लीं ॐ घनालायै घनालायै ह्रीं हुं फट

१२. बलाका :-
माता कि बारहवीं नित्या का नाम बलाका है और मंत्र है :-

ॐ क्रीं हुं ह्रीं बलाका काली अति अद्भुते पराक्रमे अभीष्ठ सिद्धिम में देहि हुं फट स्वाहा

१३. मात्रा :-
माता कि त्रयोदश नित्या का नाम मात्रा है और मंत्र है :-

ॐ क्रीं ह्लीं हुं ऐं दस महामात्रे सिद्धिम में देहि सत्वरम हुं फट स्वाहा

१४. मुद्रा :-
माता कि चतुर्दश नित्या का नाम मुद्रा है और मंत्र है :-

ॐ क्रीं ह्लीं हुं प्रीं फ्रें मुद्राम्बा मुद्रा सिद्धिम में देहि भो जगन्मुद्रास्वरूपिणी हुं फट स्वाहा

१५. मिता :-
माता की पंचादशम नित्या का नाम मिता है और मंत्र है :-

ॐ क्रीं हुं ह्रीं ऐं मिते परामिते ॐ क्रीं हुं ह्लीं ऐं सोहं हुं फट स्वाहा

साधक सर्वप्रथम स्नान आदि से शुद्ध हो कर अपने पूजा गृह में पूर्व या उत्तर की ओर मुह कर आसन पर बैठ जाए अब सर्व प्रथम आचमन – पवित्रीकरण करने के बाद गणेश -गुरु तथा अपने इष्ट देव/ देवी का पूजन सम्पन्न कर ले तत्पश्चात पीपल के 09 पत्तो को भूमि पर अष्टदल कमल की भाती बिछा ले !

एक पत्ता मध्य में तथा शेष आठ पत्ते आठ दिशाओ में रखने से अष्टदल कमल बनेगा !
इन पत्तो के ऊपर आप माला को रख दे ! अब अपने समक्ष पंचगव्य तैयार कर के रख ले किसी पात्र में और उससे माला को प्रक्षालित ( धोये ) करे !
गाय का दूध , दही , घी , गोमूत्र , गोबर यह पांच चीज गौ का ही हो उसको पंचगव्य कहते है ! पंचगव्य से माला को स्नान करना है – स्नान करते हुए अं आं इत्यादि सं हं पर्यन्त समस्त स्वर वयंजन का उच्चारण करे !

यह अं आं इत्यादि सं हं पर्यन्त समस्त स्वर वयंजन क्या है ? तो नोट कर ले – 

ॐ अं आं इं ईं उं ऊं ऋं ऋृं लृं लॄं एं ऐं ओं औं अं अः कं खं गं घं ङं चं छं जं झं ञं टं ठं डं ढं णं तं थं दं धं नं पं फं बं भं मं यं रं लं वं शं षं सं हं क्षं !!

यह उच्चारण करते हुए माला को पंचगव्य से धोले ध्यान रखे इन समस्त स्वर का अनुनासिक उच्चारण होगा !

माला को पंचगव्य से स्नान कराने के बाद निम्न मंत्र बोलते हुए माला को जल से धो ले –

ॐ सद्यो जातं प्रद्यामि सद्यो जाताय वै नमो नमः
भवे भवे नाति भवे भवस्य मां भवोद्भवाय नमः !!

अब माला को साफ़ वस्त्र से पोछे और निम्न मंत्र बोलते हुए माला के प्रत्येक मनके पर चन्दन- कुमकुम आदि का तिलक करे –

ॐ वामदेवाय नमः जयेष्ठाय नमः श्रेष्ठाय नमो रुद्राय नमः कल विकरणाय नमो बलविकरणाय नमः !
बलाय नमो बल प्रमथनाय नमः सर्वभूत दमनाय नमो मनोनमनाय नमः !!

अब धूप जला कर माला को धूपित करे और मंत्र बोले –

ॐ अघोरेभ्योथघोरेभ्यो घोर घोर तरेभ्य: सर्वेभ्य: सर्व शर्वेभया नमस्ते अस्तु रुद्ररूपेभ्य:

अब माला को अपने हाथ में लेकर दाए हाथ से ढक ले और निम्न मंत्र का १०८ बार जप कर उसको अभिमंत्रित करे –

ॐ ईशानः सर्व विद्यानमीश्वर सर्वभूतानाम ब्रह्माधिपति ब्रह्मणो अधिपति ब्रह्मा शिवो मे अस्तु सदा शिवोम !!

अब साधक माला की प्राण – प्रतिष्ठा हेतु अपने दाय हाथ में जल लेकर विनियोग करे –

ॐ अस्य श्री प्राण प्रतिष्ठा मंत्रस्य ब्रह्मा विष्णु रुद्रा ऋषय: ऋग्यजु:सामानि छन्दांसि प्राणशक्तिदेवता आं बीजं ह्रीं शक्ति क्रों कीलकम अस्मिन माले प्राणप्रतिष्ठापने विनियोगः !!

अब माला को बाय हाथ में लेकर दाय हाथ से ढक ले और निम्न मंत्र बोलते हुए ऐसी भावना करे कि यह माला पूर्ण चैतन्य व शक्ति संपन्न हो रही है !

ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हों ॐ क्षं सं सः ह्रीं ॐ आं ह्रीं क्रों अस्य मालाम प्राणा इह प्राणाः ! ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हों ॐ क्षं सं हं सः ह्रीं ॐ आं ह्रीं क्रों अस्य मालाम जीव इह स्थितः ! ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हों ॐ क्षं सं हं सः ह्रीं ॐ आं ह्रीं क्रों अस्य मालाम सर्वेन्द्रयाणी वाङ् मनसत्वक चक्षुः श्रोत्र जिह्वा घ्राण प्राणा इहागत्य इहैव सुखं तिष्ठन्तु स्वाहा ! ॐ मनो जूतिजुर्षतामाज्यस्य बृहस्पतिरयज्ञमिमन्तनो त्वरिष्टं यज्ञं समिमं दधातु विश्वे देवास इह मादयन्ताम् ॐ प्रतिष्ठ !!

अब माला को अपने मस्तक से लगा कर पूरे सम्मान सहित स्थान दे !
इतने संस्कार करने के बाद माला जप करने योग्य शुद्ध तथा सिद्धिदायक होती है !

नित्य जप करने से पूर्व माला का संक्षिप्त पूजन निम्न मंत्र से करने के उपरान्त जप प्रारम्भ करे –

ॐ अक्षमालाधिपतये सुसिद्धिं देहि देहि सर्व मंत्रार्थ साधिनी साधय-साधय सर्व सिद्धिं परिकल्पय मे स्वाहा ! ऐं ह्रीं अक्षमालिकायै नमः !

जप करते समय माला पर किसी कि दृष्टि नहीं पड़नी चाहिए ! गोमुख रूपी थैली ( गोमुखी ) में माला रखकर इसी थैले में हाथ डालकर जप किया जाना चाहिए अथवा वस्त्र आदि से माला आच्छादित कर ले अन्यथा जप निष्फल होता है !

श्री दुर्गा सप्तशति बीज मंत्रात्मक साधना

श्री दुर्गा सप्तशति बीज मंत्रात्मक साधना

दक्षिणा 2100 /- ज्योतिष तंत्र मंत्र यंत्र टोटका वास्तु कुंडली हस्त रेखा राशि रत्न,भूत प्रेत जिन जिन्नात बुरे गंदे सपने का आना, कोर्ट केस, लव मैरिज, डाइवोर्स, वशीकरण पितृ दोष कालसर्प दोष चंडाल दोष गृह क्लेश बिजनस विदेश यात्रा, अप्सरा परी साधना, अघोर साधनायें , समशान तांत्रिक साधनायें, सास बहु, सास ससुर, पति पत्नी, जेठ जेठानी, देवर देवरानी, नन्द नन्दोई, साला साली, सभी झगड़े विवाद का हल व वशीकरण कार्य किया जाता है      

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ॐ श्री गणेशाय नमः
ॐह्रुं जुं सः सिद्ध गुरूवे नमः
ॐ दुर्गे दुर्गे रक्षीणी ठः ठः स्वाहः


सिद्धकुञ्जिकास्तोत्रम

॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामण्डायै विच्चे|
ॐ ग्लौं हुं क्लीं जूं सः
ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल
ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चै
ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा ||

नमस्ते रुद्ररूपिण्यै नमस्ते मधुमर्दीनि |
नमः कैटभहारिण्यै नमस्ते महिषार्दीनि ||
नमस्ते शुम्भहन्त्र्यै च निशुम्भसुरघातिनि | जाग्रतं हि महादेवि जपं सिद्धं कुरुष्व मे ||
ऐंकारी सृष्टीरूपायै ह्रींकारी प्रतिपालिका| क्लींकारी कामरूपिण्यै बीजरूपे नमोस्तुते||
चामुण्डा चण्डघाती च यैकारी वरदायिनी | विच्चे चाभयदा नित्यं नमस्ते मन्त्ररूपिणि||
धां धीं धूं धूर्जटेः पत्नी वां वीं वूं वागधीश्वरी|
करां क्रीं क्रूं कालिका देवि शां शीं शूं मे शुंभ कुरू ||
हुं हुं हुं हुंकाररूपिण्यै जं जं जं जम्भनादिनी|
भराम भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रै भवान्यै ते नमो नमः||
अं कं चं टं तं पं यं शं वीं दुं ऐं वीं हं क्षं | धिजाग्रं धिजाग्रं त्रोटय त्रोटय दीप्तं कुरु कुरु स्वाहा ||
पां पीं पूं पार्वती पूर्णा खां खीं खूं खेचरी तथा |
सां सीं सूं सप्तशती देव्या मन्त्रसिद्धिं कुरुष्व मे ||

ओम नमश्चण्डिकायैः|
ओम श्री दुर्गार्पणमस्तु||


प्रथमचरित्र

ओम अस्य श्री प्रथमचरित्रस्य ब्रह्मा रूषिः महाकाली देवता गायत्री छन्दः नन्दा शक्तिः रक्तदन्तिका बीजम् अग्निस्तत्त्वम् रूग्वेद स्वरूपम् श्रीमहाकाली प्रीत्यर्थे प्रथमचरित्र जपे विनियोगः|

(१) श्रीं ह्रीं क्लीं श्रीं प्रीं ह्रां ह्रीं सौं प्रें म्रें ल्ह्रीं म्लीं स्त्रीं क्रां स्ल्हीं क्रीं चां भें क्रीं वैं ह्रौं युं जुं हं शं रौं यं विं वैं चें ह्रीं क्रं सं कं श्रीं त्रों स्त्रां ज्यैं रौं द्रां द्रों ह्रां द्रूं शां म्रीं श्रौं जूं ल्ह्रूं श्रूं प्रीं रं वं व्रीं ब्लूं स्त्रौं ब्लां लूं सां रौं हसौं क्रूं शौं श्रौं वं त्रूं क्रौं क्लूं क्लीं श्रीं व्लूं ठां ठ्रीं स्त्रां स्लूं क्रैं च्रां फ्रां जीं लूं स्लूं नों स्त्रीं प्रूं स्त्रूं ज्रां वौं ओं श्रौं रीं रूं क्लीं दुं ह्रीं गूं लां ह्रां गं ऐं श्रौं जूं डें श्रौं छ्रां क्लीं

|ओम श्री दुर्गार्पणमस्तु|

मध्यमचरित्र

ओम अस्य श्री मध्यमचरित्रस्य विष्णुर्रूषिः महालक्ष्मीर्देवता उष्णिक छन्दः शाकम्भरी शक्तिः दुर्गा बीजम् वायुस्तत्त्वम् यजुर्वेदः स्वरूपम् श्रीमहालक्ष्मी प्रीत्यर्थे मध्यमचरित्र जपे विनियोगः

(२) श्रौं श्रीं ह्सूं हौं ह्रीं अं क्लीं चां मुं डां यैं विं च्चें ईं सौं व्रां त्रौं लूं वं ह्रां क्रीं सौं यं ऐं मूं सः हं सं सों शं हं ह्रौं म्लीं यूं त्रूं स्त्रीं आं प्रें शं ह्रां स्मूं ऊं गूं व्र्यूं ह्रूं भैं ह्रां क्रूं मूं ल्ह्रीं श्रां द्रूं द्व्रूं ह्सौं क्रां स्हौं म्लूं श्रीं गैं क्रूं त्रीं क्ष्फीं क्सीं फ्रों ह्रीं शां क्ष्म्रीं रों डुं•

|ओम श्री दुर्गार्पणमस्तु|

(३) श्रौं क्लीं सां त्रों प्रूं ग्लौं क्रौं व्रीं स्लीं ह्रीं हौं श्रां ग्रीं क्रूं क्रीं यां द्लूं द्रूं क्षं ह्रीं क्रौं क्ष्म्ल्रीं वां श्रूं ग्लूं ल्रीं प्रें हूं ह्रौं दें नूं आं फ्रां प्रीं दं फ्रीं ह्रीं गूं श्रौं सां श्रीं जुं हं सं

ओम श्री दुर्गार्पणमस्तु|

(४) श्रौं सौं दीं प्रें यां रूं भं सूं श्रां औं लूं डूं जूं धूं त्रें ल्हीं श्रीं ईं ह्रां ल्ह्रूं क्लूं क्रां लूं फ्रें क्रीं म्लूं घ्रें श्रौं ह्रौं व्रीं ह्रीं त्रौं हलौं गीं यूं ल्हीं ल्हूं श्रौं ओं अं म्हौं प्रीं

|ओम श्री दुर्गार्पणमस्तु|


उत्तमचरित्र

ओम अस्य श्री उत्तरचरित्रस्य रुद्र रूषिः महासरस्वती देवता अनुष्टुप् छन्दः भीमा शक्तिः भ्रामरी बीजम सूर्यस्तत्त्वम सामवेदः स्वरूपम श्री महासरस्वती प्रीत्यर्थे उत्तरचरित्र जपे विनियोगः

(५) श्रौं प्रीं ओं ह्रीं ल्रीं त्रों क्रीं ह्लौं ह्रीं श्रीं हूं क्लीं रौं स्त्रीं म्लीं प्लूं ह्सौं स्त्रीं ग्लूं व्रीं सौः लूं ल्लूं द्रां क्सां क्ष्म्रीं ग्लौं स्कं त्रूं स्क्लूं क्रौं च्छ्रीं म्लूं क्लूं शां ल्हीं स्त्रूं ल्लीं लीं सं लूं हस्त्रूं श्रूं जूं हस्ल्रीं स्कीं क्लां श्रूं हं ह्लीं क्स्त्रूं द्रौं क्लूं गां सं ल्स्त्रां फ्रीं स्लां ल्लूं फ्रें ओं स्म्लीं ह्रां ऊं ल्हूं हूं नं स्त्रां वं मं म्क्लीं शां लं भैं ल्लूं हौं ईं चें क्ल्रीं ल्ह्रीं क्ष्म्ल्रीं पूं श्रौं ह्रौं भ्रूं क्स्त्रीं आं क्रूं त्रूं डूं जां ल्ह्रूं फ्रौं क्रौं किं ग्लूं छ्रंक्लीं रं क्सैं स्हुं श्रौं श्रीं ओं लूं ल्हूं ल्लूं स्क्रीं स्स्त्रौं स्भ्रूं क्ष्मक्लीं व्रीं सीं भूं लां श्रौं स्हैं ह्रीं श्रीं फ्रें रूं च्छ्रूं ल्हूं कं द्रें श्रीं सां ह्रौं ऐं स्कीं

ओम श्री दुर्गार्पणमस्तु|

(६) श्रौं ओं त्रूं ह्रौं क्रौं श्रौं त्रीं क्लीं प्रीं ह्रीं ह्रौं श्रौं अरैं अरौं श्रीं क्रां हूं छ्रां क्ष्मक्ल्रीं ल्लुं सौः ह्लौं क्रूं सौं
|ओम श्री दुर्गार्पणमस्तु|

(७) श्रौं कुं ल्हीं ह्रं मूं त्रौं ह्रौं ओं ह्सूं क्लूं क्रें नें लूं ह्स्लीं प्लूं शां स्लूं प्लीं प्रें अं औं म्ल्रीं श्रां सौं श्रौं प्रीं हस्व्रीं

ओम श्री दुर्गार्पणमस्तु|

(८) श्रौं म्हल्रीं प्रूं एं क्रों ईं एं ल्रीं फ्रौं म्लूं नों हूं फ्रौं ग्लौं स्मौं सौं स्हों श्रीं ख्सें क्ष्म्लीं ल्सीं ह्रौं वीं लूं व्लीं त्स्त्रों ब्रूं श्क्लीं श्रूं ह्रीं शीं क्लीं फ्रूं क्लौं ह्रूं क्लूं तीं म्लूं हं स्लूं औं ल्हौं श्ल्रीं यां थ्लीं ल्हीं ग्लौं ह्रौं प्रां क्रीं क्लीं न्स्लुं हीं ह्लौं ह्रैं भ्रं सौं श्रीं प्सूं द्रौं स्स्त्रां ह्स्लीं स्ल्ल्रीं

ओम श्री दुर्गार्पणमस्तु|

(९) रौं क्लीं म्लौं श्रौं ग्लीं ह्रौं ह्सौं ईं ब्रूं श्रां लूं आं श्रीं क्रौं प्रूं क्लीं भ्रूं ह्रौं क्रीं म्लीं ग्लौं ह्सूं प्लीं ह्रौं ह्स्त्रां स्हौं ल्लूं क्स्लीं श्रीं स्तूं च्रें वीं क्ष्लूं श्लूं क्रूं क्रां स्क्ष्लीं भ्रूं ह्रौं क्रां फ्रूं

ओम श्री दुर्गार्पणमस्तु|

(१०) श्रौं ह्रीं ब्लूं ह्रीं म्लूं ह्रं ह्रीं ग्लीं श्रौं धूं हुं द्रौं श्रीं त्रों व्रूं फ्रें ह्रां जुं सौः स्लौं प्रें हस्वां प्रीं फ्रां क्रीं श्रीं क्रां सः क्लीं व्रें इं ज्स्हल्रीं

ओम श्री दुर्गार्पणमस्तु|

(११) श्रौं क्रूं श्रीं ल्लीं प्रें सौः स्हौं श्रूं क्लीं स्क्लीं प्रीं ग्लौं ह्स्ह्रीं स्तौं लीं म्लीं स्तूं ज्स्ह्रीं फ्रूं क्रूं ह्रौं ल्लूं क्ष्म्रीं श्रूं ईं जुं त्रैं द्रूं ह्रौं क्लीं सूं हौं श्व्रं ब्रूं स्फ्रूं ह्रीं लं ह्सौं सें ह्रीं ल्हीं विं प्लीं क्ष्म्क्लीं त्स्त्रां प्रं म्लीं स्त्रूं क्ष्मां स्तूं स्ह्रीं थ्प्रीं क्रौं श्रां म्लीं

ओम श्री दुर्गार्पणमस्तु|


(१२) ह्रीं ओं श्रीं ईं क्लीं क्रूं श्रूं प्रां स्क्रूं दिं फ्रें हं सः चें सूं प्रीं ब्लूं आं औं ह्रीं क्रीं द्रां श्रीं स्लीं क्लीं स्लूं ह्रीं व्लीं ओं त्त्रों श्रौं ऐं प्रें द्रूं क्लूं औं सूं चें ह्रूं प्लीं क्षीं

ओम श्री दुर्गार्पणमस्तु|

(१३) श्रौं व्रीं ओं औं ह्रां श्रीं श्रां ओं प्लीं सौं ह्रीं क्रीं ल्लूं ह्रीं क्लीं प्लीं श्रीं ल्लीं श्रूं ह्रूं ह्रीं त्रूं ऊं सूं प्रीं श्रीं ह्लौं आं ओं ह्रीं

ओम श्री दुर्गार्पणमस्तु|

दुर्गा दुर्गर्तिशमनी दुर्गापद्विनिवारिणी | दुर्गमच्छेदिनी दुर्गसाधिनी दुर्गनाशिनी ||
दुर्गतोद्धारिणी दुर्गनिहन्त्री दुर्गमापहा | दुर्गमग्यानदा दुर्गदैत्यलोकदवानला ||
दुर्गमा दुर्गमालोका दुर्गमात्मस्वरूपिणी | दुर्गमार्गप्रदा दुर्गमविद्या दुर्गमाश्रिता ||
दुर्गमग्यानसंस्थाना दुर्गमध्यानभासिनी | दुर्गमोहा दुर्गमगा दुर्गमार्थस्वरूपिणी ||
दुर्गमासुरसंहन्त्री दुर्गमायुधधारिणी | दुर्गमाँगी दुर्गमता दुर्गम्या दुर्गमेश्वरी ||
दुर्गभीमा दुर्गभामा दुर्गभा दुर्गदारिणी ||

|ओम नमश्चण्डिकायै||

ओम श्री दुर्गार्पणमस्तु|

भगवान् नरसिंह मंत्र

भगवान् नरसिंह गायत्री मंत्र

दक्षिणा 2100 /- ज्योतिष तंत्र मंत्र यंत्र टोटका वास्तु कुंडली हस्त रेखा राशि रत्न,भूत प्रेत जिन जिन्नात बुरे गंदे सपने का आना, कोर्ट केस, लव मैरिज, डाइवोर्स, वशीकरण पितृ दोष कालसर्प दोष चंडाल दोष गृह क्लेश बिजनस विदेश यात्रा, अप्सरा परी साधना, अघोर साधनायें , समशान तांत्रिक साधनायें, सास बहु, सास ससुर, पति पत्नी, जेठ जेठानी, देवर देवरानी, नन्द नन्दोई, साला साली, सभी झगड़े विवाद का हल व वशीकरण कार्य किया जाता है      
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भगवान नरसिंह के प्रमुख 10 रूप है

१) उग्र नरसिंह २) क्रोध नरसिंह ३) मलोल नरसिंह ४) ज्वल नरसिंह ५) वराह नरसिंह ६) भार्गव नरसिंह ७) करन्ज नरसिंह ८) योग नरसिंह ९) लक्ष्मी नरसिंह १०) छत्रावतार नरसिंह/पावन नरसिंह/पमुलेत्रि नरसिंह

दस नामों का उच्चारण करने से कष्टों से मुक्ति और गंभीर रोगों के नाश में लाभ मिलाता है
उनकी प्रतिमा या चित्र की विधिबत पूजा सभी कष्टों का नाश करती है
भगवान नरसिंह जी की पूजा के लिए गूगल,जटामांसी, फल, पुष्प, पंचमेवा, कुमकुम केसर, नारियल, अक्षत व पीताम्बर रखें
गंगाजल, काले तिल, शहद, पञ्च गव्य, व हवन सामग्री का पूजन में प्रयोग सकल लाभ देता है
मूर्ती या चित्र को लकड़ी के बाजोट या पटड़े पर वस्त्र बिछा कर स्थापित करना चाहिए
अखंड दीपक की स्थापना मूर्ती की दाहिनी और करनी चाहिए

नरसिंह गायत्री मंत्र 

ॐ वज्रनखाय विद्महे तीक्ष्ण दंष्ट्राय धीमहि | तन्नो नरसिंह प्रचोदयात ||


पांच माला के जाप से आप पर भगवान नरसिंह की कृपा होगी
इस महा मंत्र के जाप से क्रूर ग्रहों का ताप शांत होता है
कालसर्प दोष, मंगल, राहु ,शनि, केतु का बुरा प्रभाव नहीं हो पाटा
एक माला सुबह नित्य करने से शत्रु शक्तिहीन हो जाते हैं
संध्या के समय एक माला जाप करने से कवच की तरह आपकी सदा रक्षा होती है
यज्ञ करने से भगवान् नरसिंह शीघ्र प्रसन्न होते हैं
जो बिधि-विधान से पूजा नहीं कर पाते और जो मनो कामना पूरी करना चाहते है, उन्हें बीज मंत्र द्वारा साधना करनी चाहिए

विरह-ज्वर-विनाशकं ब्रह्म-शक्ति स्तोत्रम्

विरह-ज्वर-विनाशकं ब्रह्म-शक्ति स्तोत्रम्

दक्षिणा 2100 /- ज्योतिष तंत्र मंत्र यंत्र टोटका वास्तु कुंडली हस्त रेखा राशि रत्न,भूत प्रेत जिन जिन्नात बुरे गंदे सपने का आना, कोर्ट केस, लव मैरिज, डाइवोर्स, वशीकरण पितृ दोष कालसर्प दोष चंडाल दोष गृह क्लेश बिजनस विदेश यात्रा, अप्सरा परी साधना, अघोर साधनायें , समशान तांत्रिक साधनायें, सास बहु, सास ससुर, पति पत्नी, जेठ जेठानी, देवर देवरानी, नन्द नन्दोई, साला साली, सभी झगड़े विवाद का हल व वशीकरण कार्य किया जाता है      
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।।श्रीशिवोवाच।।
ब्राह्मि ब्रह्म-स्वरूपे त्वं, मां प्रसीद सनातनि ! परमात्म-स्वरूपे च, परमानन्द-रूपिणि !।।
ॐ प्रकृत्यै नमो भद्रे, मां प्रसीद भवार्णवे। सर्व-मंगल-रूपे च, प्रसीद सर्व-मंगले !।।
विजये शिवदे देवि ! मां प्रसीद जय-प्रदे। वेद-वेदांग-रूपे च, वेद-मातः ! प्रसीद मे।।
शोकघ्ने ज्ञान-रूपे च, प्रसीद भक्त वत्सले। सर्व-सम्पत्-प्रदे माये, प्रसीद जगदम्बिके!।।
लक्ष्मीर्नारायण-क्रोडे, स्त्रष्टुर्वक्षसि भारती। मम क्रोडे महा-माया, विष्णु-माये प्रसीद मे।।
काल-रूपे कार्य-रूपे, प्रसीद दीन-वत्सले। कृष्णस्य राधिके भदे्र, प्रसीद कृष्ण पूजिते!।।
समस्त-कामिनीरूपे, कलांशेन प्रसीद मे। सर्व-सम्पत्-स्वरूपे त्वं, प्रसीद सम्पदां प्रदे!।।
यशस्विभिः पूजिते त्वं, प्रसीद यशसां निधेः। चराचर-स्वरूपे च, प्रसीद मम मा चिरम्।।
मम योग-प्रदे देवि ! प्रसीद सिद्ध-योगिनि। सर्वसिद्धिस्वरूपे च, प्रसीद सिद्धिदायिनि।।
अधुना रक्ष मामीशे, प्रदग्धं विरहाग्निना। स्वात्म-दर्शन-पुण्येन, क्रीणीहि परमेश्वरि !।।

।।फल-श्रुति।।

एतत् पठेच्छृणुयाच्चन, वियोग-ज्वरो भवेत्। न भवेत् कामिनीभेदस्तस्य जन्मनि जन्मनि।।

इस स्तोत्र का पाठ करने अथवा सुनने वाले को वियोग-पीड़ा नहीं होती और जन्म-जन्मान्तर तक कामिनी-भेद नहीं होता।

विधि

पारिवारिक कलह, रोग या अकाल-मृत्यु आदि की सम्भावना होने पर इसका पाठ करना चाहिये। प्रणय सम्बन्धों में बाधाएँ आने पर भी इसका पाठ अभीष्ट फलदायक होगा।
अपनी इष्ट-देवता या भगवती गौरी का विविध उपचारों से पूजन करके उक्त स्तोत्र का पाठ करें। अभीष्ट-प्राप्ति के लिये कातरता, समर्पण आवश्यक है.

चामुंडा स्वप्न सिद्धि मंत्र साधना

चामुंडा स्वप्न सिद्धि मंत्र साधना

दक्षिणा 2100 /- ज्योतिष तंत्र मंत्र यंत्र टोटका वास्तु कुंडली हस्त रेखा राशि रत्न,भूत प्रेत जिन जिन्नात बुरे गंदे सपने का आना, कोर्ट केस, लव मैरिज, डाइवोर्स, वशीकरण पितृ दोष कालसर्प दोष चंडाल दोष गृह क्लेश बिजनस विदेश यात्रा, अप्सरा परी साधना, अघोर साधनायें , समशान तांत्रिक साधनायें, सास बहु, सास ससुर, पति पत्नी, जेठ जेठानी, देवर देवरानी, नन्द नन्दोई, साला साली, सभी झगड़े विवाद का हल व वशीकरण कार्य किया जाता है      
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ॐ ह्रीम आगच्छा गच्छ चामुंडे श्रीं स्वाहा ।।


विधि 

सबसे पहले मिट्टी ओर गोबर से जमीन को लीप ले ओर वो जगह पर कोई बिछोना बिछाले । फिर पंचोपचार से मटा का पूजन करके देवी मटा को नेवेध्य अर्पण करे । उसके बाद रुद्राक्ष की माला से उपरोक्त मंत्र का जाप 10,000 बार करे ओर देवी का द्यान करे इस तरह मंत्र सिद्धि कारले फिर उसके बाद जब कभी भी कोई प्रश्न मन मे हो तो मंत्र का 1 माला यानि 108 बार मंत्र का जाप करके सो जाए तो देवी अर्धरात्रि को स्वप्न मे आकार प्रश्न का उत्तर प्रदान करती हे …

माँ काली कृपा प्राप्ति मंत्र साधना

माँ काली कृपा प्राप्ति मंत्र साधना


दक्षिणा 2100 /- ज्योतिष तंत्र मंत्र यंत्र टोटका वास्तु कुंडली हस्त रेखा राशि रत्न,भूत प्रेत जिन जिन्नात बुरे गंदे सपने का आना, कोर्ट केस, लव मैरिज, डाइवोर्स, वशीकरण पितृ दोष कालसर्प दोष चंडाल दोष गृह क्लेश बिजनस विदेश यात्रा, अप्सरा परी साधना, अघोर साधनायें , समशान तांत्रिक साधनायें, सास बहु, सास ससुर, पति पत्नी, जेठ जेठानी, देवर देवरानी, नन्द नन्दोई, साला साली, सभी झगड़े विवाद का हल व वशीकरण कार्य किया जाता है      
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मंत्र :- 

ॐ काली-काली, महा-काली, इन्द्र की बेटी ब्रह्मा की साली, कुचेपान बजावे ताली, चल काली कल्कत्ते वाली, आल बांधू-ताल बांधू ओर बांधू तलैया, शिवजी का मंदिर बांधू, हनुमान जी की दुहेया, शब्द साँचा पिंड काचा, फुरे मंत्र ईश्वरो वाचा ।।

विधि :-

 इस मंत्र का अनुस्थान 21 दिन का हे । साधक को नदी के किनारे एकांत स्थान पे बेठकर शुद्ध घी का दीपक जलाकर सुगंधित धूप करके ऋतुफल ओर मिठाई का नेवेध करे ओर रोज 2 माला का जाप करे तो ये मंत्र सिद्ध हो जाएगा ।
मंत्र जाप के दोहरन जब माँ कालि प्रत्यक्ष दर्शन दे तब दो पान एक पान सीधा ओर एक पान उल्टा (पान का चिकास वाला जो बाग हो उसको ऊपर रखे) रखके उसके ऊपर कपूर जलाकर साधक को अपनी अनामिका उंगली से खून की दो बूंद जमीन पे गिरा के माँ कालि से 3 वचन ले .।।

अक्षय-धन-प्राप्ति मन्त्र

अक्षय-धन-प्राप्ति मन्त्र

दक्षिणा 2100 /- ज्योतिष तंत्र मंत्र यंत्र टोटका वास्तु कुंडली हस्त रेखा राशि रत्न,भूत प्रेत जिन जिन्नात बुरे गंदे सपने का आना, कोर्ट केस, लव मैरिज, डाइवोर्स, वशीकरण पितृ दोष कालसर्प दोष चंडाल दोष गृह क्लेश बिजनस विदेश यात्रा, अप्सरा परी साधना, अघोर साधनायें , समशान तांत्रिक साधनायें, सास बहु, सास ससुर, पति पत्नी, जेठ जेठानी, देवर देवरानी, नन्द नन्दोई, साला साली, सभी झगड़े विवाद का हल व वशीकरण कार्य किया जाता है      
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प्रार्थना

हे मां लक्ष्मी, शरण हम तुम्हारी।
पूरण करो अब माता कामना हमारी।।
धन की अधिष्ठात्री, जीवन-सुख-दात्री।
सुनो-सुनो अम्बे सत्-गुरु की पुकार।
शम्भु की पुकार, मां कामाक्षा की पुकार।।
तुम्हें विष्णु की आन, अब मत करो मान।
आशा लगाकर अम देते हैं दीप-दान।।

मन्त्र- 

“ॐ नमः विष्णु-प्रियायै, ॐ नमः कामाक्षायै। ह्रीं ह्रीं ह्रीं क्रीं क्रीं क्रीं श्रीं श्रीं श्रीं फट् स्वाहा।”

विधि- 

दीपावली’ की सन्ध्या को पाँच मिट्टी के दीपकों में गाय का घी डालकर रुई की बत्ती जलाए। ‘लक्ष्मी जी’ को दीप-दान करें और ‘मां कामाक्षा’ का ध्यान कर उक्त प्रार्थना करे। मन्त्र का १०८ बार जप करे। ‘दीपक’ सारी रात जलाए रखे और स्वयं भी जागता रहे। नींद आने लगे, तो मन्त्र का जप करे। प्रातःकाल दीपों के बुझ जाने के बाद उन्हें नए वस्त्र में बाँधकर ‘तिजोरी’ या ‘बक्से’ में रखे। इससे श्रीलक्ष्मीजी का उसमें वास हो जाएगा और धन-प्राप्ति होगी। प्रतिदिन सन्ध्या समय दीप जलाए और पाँच बार उक्त मन्त्र का जप करे।

नवग्रह कवच

नवग्रह कवच

दक्षिणा 2100 /- ज्योतिष तंत्र मंत्र यंत्र टोटका वास्तु कुंडली हस्त रेखा राशि रत्न,भूत प्रेत जिन जिन्नात बुरे गंदे सपने का आना, कोर्ट केस, लव मैरिज, डाइवोर्स, वशीकरण पितृ दोष कालसर्प दोष चंडाल दोष गृह क्लेश बिजनस विदेश यात्रा, अप्सरा परी साधना, अघोर साधनायें , समशान तांत्रिक साधनायें, सास बहु, सास ससुर, पति पत्नी, जेठ जेठानी, देवर देवरानी, नन्द नन्दोई, साला साली, सभी झगड़े विवाद का हल व वशीकरण कार्य किया जाता है      
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नवग्रहों की प्रसन्नता एवं आत्मरक्षा हेतु


ॐ शिरो में पातु मार्तंड: कपालं रोहिणी पतिः ।
मुखम् अंगारकः पातु कण्ठम च शाशिः नन्दनः ।।
बुद्धि जीवः सदा पातु हृदयम् भृगु नन्दनः।
जठरं च शनि पातु जिह्वाम में दिति नन्दनः ।।
पादो केतु: सदा पातु वारा: सर्वाङ्ग्मेव च,
तिथयो अश्टो दिशः पातु नक्षत्रांणि वपु सदा,
अंशो राशिः सदा पातु योगक्ष स्थेयमेव च ।
                             इति

योनिस्तोत्रम्

योनिस्तोत्रम्

दक्षिणा 2100 /- ज्योतिष तंत्र मंत्र यंत्र टोटका वास्तु कुंडली हस्त रेखा राशि रत्न,भूत प्रेत जिन जिन्नात बुरे गंदे सपने का आना, कोर्ट केस, लव मैरिज, डाइवोर्स, वशीकरण पितृ दोष कालसर्प दोष चंडाल दोष गृह क्लेश बिजनस विदेश यात्रा, अप्सरा परी साधना, अघोर साधनायें , समशान तांत्रिक साधनायें, सास बहु, सास ससुर, पति पत्नी, जेठ जेठानी, देवर देवरानी, नन्द नन्दोई, साला साली, सभी झगड़े विवाद का हल व वशीकरण कार्य किया जाता है      
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ॐभग-रूपा जगन्माता सृष्टि-स्थिति-लयान्विता ।
दशविद्या – स्वरूपात्मा योनिर्मां पातु सर्वदा ।।१।।
कोण-त्रय-युता देवि स्तुति-निन्दा-विवर्जिता ।
जगदानन्द-सम्भूता योनिर्मां पातु सर्वदा ।।२।।
कात्र्रिकी – कुन्तलं रूपं योन्युपरि सुशोभितम् ।
भुक्ति-मुक्ति-प्रदा योनि: योनिर्मां पातु सर्वदा ।।३।।
वीर्यरूपा शैलपुत्री मध्यस्थाने विराजिता ।
ब्रह्म-विष्णु-शिव श्रेष्ठा योनिर्मां पातु सर्वदा ।।४।।
योनिमध्ये महाकाली छिद्ररूपा सुशोभना ।
सुखदा मदनागारा योनिर्मां पातु सर्वदा ।।५।।
काल्यादि-योगिनी-देवी योनिकोणेषु संस्थिता ।
मनोहरा दुःख लभ्या योनिर्मां पातु सर्वदा ।।६।।
सदा शिवो मेरु-रूपो योनिमध्ये वसेत् सदा ।
वैâवल्यदा काममुक्ता योनिर्मां पातु सर्वदा ।।७।।
सर्व-देव स्तुता योनि सर्व-देव-प्रपूजिता ।
सर्व-प्रसवकत्र्री त्वं योनिर्मां पातु सर्वदा ।।८।।
सर्व-तीर्थ-मयी योनि: सर्व-पाप प्रणाशिनी ।
सर्वगेहे स्थिता योनि: योनिर्मां पातु सर्वदा ।।९।।
मुक्तिदा धनदा देवी सुखदा कीर्तिदा तथा ।
आरोग्यदा वीर-रता पञ्च-तत्व-युता सदा ।।१०।।
योनिस्तोत्रमिदं प्रोत्तंâ य: पठेत् योनि-सन्निधौ ।
शक्तिरूपा महादेवी तस्य गेहे सदा स्थिता ।।११।

भगवती काली की कृपा-प्राप्ति का मन्त्र

भगवती काली की कृपा-प्राप्ति का मन्त्र

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“काली-काली महा-काली कण्टक-विनाशिनी रोम-रोम रक्षतु सर्वं मे रक्षन्तु हीं हीं छा चारक।।”

विधिः 

आश्विन-शुक्ल-प्रतिपदा से नवमी तक देवी का व्रत करे। उक्त मन्त्र का १०८ बार जप करे। जप के बाद इसी मन्त्र से १०८ आहुति से। घी, धूप, सरल काष्ठ, सावाँ, सरसों, सफेद-चन्दन का चूरा, तिल, सुपारी, कमल-गट्टा, जौ (यव), इलायची, बादाम, गरी, छुहारा, चिरौंजी, खाँड़ मिलाकर साकल्य बनाए। सम्पूर्ण हवन-सामग्री को नई हांड़ी में रखे। भूमि पर शयन करे। समस्त जप-पूजन-हवन रात्रि में ११ से २ बजे के बीच करे। देवी की कृपा-प्राप्ति होगी।

Saturday, December 30, 2017

ग्रह दोष ख़त्म करने की हनुमान कवच मंत्र साधना

ग्रह दोष ख़त्म करने  की हनुमान  कवच  मंत्र  साधना 


दक्षिणा 2100 /- ज्योतिष तंत्र मंत्र यंत्र टोटका वास्तु कुंडली हस्त रेखा राशि रत्न,भूत प्रेत जिन जिन्नात बुरे गंदे सपने का आना, कोर्ट केस, लव मैरिज, डाइवोर्स, वशीकरण पितृ दोष कालसर्प दोष चंडाल दोष गृह क्लेश बिजनस विदेश यात्रा, अप्सरा परी साधना, अघोर साधनायें , समशान तांत्रिक साधनायें, सास बहु, सास ससुर, पति पत्नी, जेठ जेठानी, देवर देवरानी, नन्द नन्दोई, साला साली, सभी झगड़े विवाद का हल व वशीकरण कार्य किया जाता है      
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शुक्ल पक्ष के पहले मंगलवार से आरम्भ करें
उत्तर अभिमुख होकर कुशासन पर बैठें
चौकी पर लाल वस्त्र पर ताम्बे की थाली पर केसर से ॐ लिख कर प्राणप्रतिष्ठित  हनुमान यंत्र स्थापित करें
गुरु गणेश शिव गोरा राम दरबार का विधि वैट पूजन करें
सिंदूर का तिलक लगाकर पांचो  उपचार पूजन करें
संकल्प ले
रुद्राक्ष की माला से ४१ माला ४१ दिन तक करें

 ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं सर्व दुष्टग्रह निवारणाय स्वाहा ||

सिद्ध राम हनुमान मंत्र धन प्राप्ति के लिए

सिद्ध  राम  हनुमान  मंत्र  धन प्राप्ति के लिए

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नित्य १०८ बार जप करें पूर्ण विधि विधान से २१ दिन तक फिर चमत्कार देखें


मंत्र

ॐ हनुमते नमः |
आपदामपहर्तारं दातारं सर्वसंपदाम् ।
लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो भूयो नमाम्यहम् |
श्री हनुमते नमः ||

हनुमान द्वादश नाम स्तोत्रम प्रयोग

हनुमान  द्वादश  नाम  स्तोत्रम  प्रयोग


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यह सर्व कार्य सम्पन्न करता है 

विधि 

ब्रह्म मुहूर्त शुक्ल पक्ष मंगलवार से आरम्भ करें
पूर्वाभिमुख कुशासन पर बैठें
चौकी पर लाल वस्त्र बिछा कर हनुमान की दास मूर्ति या संकट मोचन रूप को स्थापित करें
साथ ही राम दरबार स्थापित करें
गुरु गणेश शिव गोरा की विधिवत पूजन कर राम दरबार  व हनुमान पूजन करें
अपने कार्यसिद्धि का संकल्प लेकर नित्य १०८ बार स्तोत्र का जाप १०८ दिनतक करें
ब्रह्मचर्य का कड़ाई से पालन करें 


हनुमान  द्वादश  नाम  स्तोत्रम


||उल्लङ्घ्य सिन्धोः सलिलं सलीलं यः शोकवह्निं जनकात्मजायाः।
आदाय तेनैव ददाह लङ्कां नमामि तं प्राञ्जलिराञ्जनेयम्॥
।। ॐ हनुमान अंजनीसूनुः वायुपुत्रो महाबलः ।
रामेष्टः फल्गुणसखः पिंगाक्षोऽमितविक्रमः ॥ १॥
उदधिक्रमणश्चैव सीताशोकविनाशकः ।
लक्ष्मण प्राणदाताच दशग्रीवस्य दर्पहा ॥ २॥
द्वादशैतानि नामानि कपींद्रस्य महात्मनः ।
स्वापकाले पठेन्नित्यं यात्राकाले विशेषतः ।
तस्यमृत्यु भयं नास्ति सर्वत्र विजयी भवेत् ॥
धनं धान्यं भवेत् तस्य दुःख नैव कदा च न ।।

शिव धन साधना

शिव धन साधना

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साधना विधि:- 
इस साधना में किसी विशेष विधि विधान की जरूरत नहीं है! आप हररोज सुबह मंदिर में शिवलिंग
पर दूध जल और बेलपत्र चढ़ाएं और घर आकर २ घंटे मन्त्र जप करे! रात को १० बजे गऊ के घी का
दीपक जलाये और गुरु पूजन और गणेश पूजन के बाद मन्त्र जाप शुरू कर दे! दो घंटे पन्दरा मिनट
( २ घंटे १५ मिनट ) तक जप करे! यह क्रिया आपको ४१ दिन करनी है!


मन्त्र:-  
आद अंत धरती
आद अंत परमात्मा
दोना वीच बैठे शिवजी महात्मा
खोल घड़ा दे दडा
देखा शिवजी महाराज
तेरे  शब्द दा तमाशा 

लौन्कडिया वीर साधना

लौन्कडिया वीर साधना


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लौन्कडिया वीर साधना एक दुर्लभ साधना है बहुत कम लोग इस साधना के विषय में जानते है ! लौन्कडिया वीर महापण्डित रावण जी की एक विशेष सेना के सेनापति थे ! उन्हें माँ जगदम्बा का वरदान था और माँ जगदम्बा की कृपा से लौन्कडिया वीर तंत्र में अमर हो गए ! मेरे गुरुदेव सिद्ध रक्खा रामजी ने यह साधना मुझे सिखाई थी ! इस साधना के दम पर आप अपने शत्रुओं को परास्त कर सकते है और अपने बहुत से रुके हुए कार्य करवा सकते है ! यह साधना बहुत उग्र है इसलिए गुरु आज्ञा से ही करे ! साधना के दौरान कुछ आवाजें सुनाई देगी पर कुछ दिनों के बाद सब शांत हो जायेगा !

।। मन्त्र ।।

लौन्कडिया वीर भागे भागे आओ
दौड़े दौड़े आओ, जैसे दुर्गा द्वारे कूदे
वैसे मेरे द्वारे कूदो
रावण जी के सेनापति पाताल के राजा
देखा लौन्कडिया वीर तेरी हजारी का तमाशा!

।। साधना विधि ।।
इस साधना को आप किसी भी दिन से शुरू कर सकते है ! आसन पर बैठकर आसन जाप पढ़े और शरीर कीलन कर रक्षा घेरा बनाये ! एक तेल का दीपक जलाएं और  गुरुदेव से आज्ञा लेकर गुरुमंत्र जपे और गणेश जी का पूजन करे , फिर इस मन्त्र का 15 माला जाप करे ! यह क्रिया आपको 41 दिन करनी है ! हररोज दूध में जलेबी उबालकर पूजा के समय पास रखले और बाद में उजाड़ स्थान पर रख आये ! अंतिम दिन किसी ११ साल के लड़के को एक गुली डंडा और दक्षिणा दे!


।। प्रयोग विधि ।।
लौन्कडिया वीर से जब भी कोई काम करवाना हो तो जलेबी को दूध में उबालकर भोग तैयार करले और एक माला मन्त्र की जपकर कार्य बोल दे और सामग्री उजाड़ स्थान में रखदे ! आपका कार्य सिद्ध हो जायेगा !    

पीर सखी सुलतान जी साधना ( लालां वाले पीर )

पीर सखी सुलतान जी साधना ( लालां वाले पीर )

दक्षिणा 2100 /- ज्योतिष तंत्र मंत्र यंत्र टोटका वास्तु कुंडली हस्त रेखा राशि रत्न,भूत प्रेत जिन जिन्नात बुरे गंदे सपने का आना, कोर्ट केस, लव मैरिज, डाइवोर्स, वशीकरण पितृ दोष कालसर्प दोष चंडाल दोष गृह क्लेश बिजनस विदेश यात्रा, अप्सरा परी साधना, अघोर साधनायें , समशान तांत्रिक साधनायें, सास बहु, सास ससुर, पति पत्नी, जेठ जेठानी, देवर देवरानी, नन्द नन्दोई, साला साली, सभी झगड़े विवाद का हल व वशीकरण कार्य किया जाता है      

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|| मंत्र ||

बिस्मिल्लाहरहमानअरहीम
काला भैरो कबरीयाँ जटा
हत्थ कड़की मोड़े मढ़ा
यहाँ भेजूं भैरों यती
वही हाज़िर खड़ा
कक्की घोड़ी सब्ज लगाम
उत्ते चढ़ सखी सुलतान
सखी सुलतान की दुहाई
चले मन्त्र फुरे वाचा
देखां बाबा लक्ख दाता पीर
तेरे ईलम का तमाशा
मेरे गुरु का शब्द सांचा !

|| विधि ||

इस मंत्र को 41 दिन 5 माला जप करे ! जप के दौरान ब्रह्मचारी रहे , भूमि-शयन करे ! हर रोज 5 तेल के दीपक जलाएं और पांच रोटियों का चूरमा बनाकर बच्चो में बांटे ! जप गुरुवार से शुरू करे और हर गुरुवार को पीले चावल बनाकर किसी पीर की मजार पर पीर सखी सुलतान के नाम से चढ़ाये ! हर रोज थोड़े से कच्चे आटे में थोडा सा गुड और सरसों का तेल मिलाकर अच्छे से घोल ले , जप पूरा होने पर यह किसी कुत्ते को खिला दे ! जिस दिन जप पूरा हो उस दिन 21 किलो का रोट बनाकर उसका भोग लगायें ! मंत्र सिद्ध हो जायेगा और आपके कानो में आवाज़ पड़ने लगेगी !

|| प्रयोग विधि ||

इस मंत्र को सिद्ध करने के बाद यदि किसी विशेष कार्य को करवाना हो तो गुरुवार के दिन पांच चिराग लगाये और इस मंत्र का जप शुरू कर दे ! आपके कानो में आवाज़ पड़ने लगेगी ! उस समय पीर से जो भी प्रार्थना की जाएगी , पीर उसका उत्तर देंगे और उस समय पीर से कहे कि अमुक कार्य सिद्ध होने पर मैं 21 किलो का रोट लगाऊंगा ! कार्य पूरा होने पर ऐसा करे !

नोट – यह जो रोट लगाया जाता है उसका अधिकार सिर्फ एक ही जाति के पास है , उस जाति को भराई कहते है ! यदि रोट लगवाना हो तो इस जाति से लगवाएं क्योंकि इस जाति के अलावा यदि कोई और रोट लगता है तो पीर स्वीकार नहीं करते ! यह जाति एक मुस्लिम जाति है !

सिद्धि प्राप्त करने की विभिन्न विधिया

सिद्धि प्राप्त करने की विभिन्न विधिया

कालीतंत्र – पुरश्चरण विधि  काली तंत्र शास्त्र हिन्दी पुरश्चरण विधि


दक्षिणा 2100 /- ज्योतिष तंत्र मंत्र यंत्र टोटका वास्तु कुंडली हस्त रेखा राशि रत्न,भूत प्रेत जिन जिन्नात बुरे गंदे सपने का आना, कोर्ट केस, लव मैरिज, डाइवोर्स, वशीकरण पितृ दोष कालसर्प दोष चंडाल दोष गृह क्लेश बिजनस विदेश यात्रा, अप्सरा परी साधना, अघोर साधनायें , समशान तांत्रिक साधनायें, सास बहु, सास ससुर, पति पत्नी, जेठ जेठानी, देवर देवरानी, नन्द नन्दोई, साला साली, सभी झगड़े विवाद का हल व वशीकरण कार्य किया जाता है      

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देव्युवाच

कथयस्व महाभाग पुरश्चरणमुत्तमम् ।
कस्मिन् काले च कर्त्तव्यं कलौ सिद्धिदमद्‌भुतम् ॥

भावार्थः देवी बोलीं, हे महाभाग ! अब आप मुझे पुरश्चरण का सदुपदेश करें । यह भी बताएं कि कलिकाल में अपूर्व सिद्धि देनेवाले पुरश्चरण का अनुष्ठान कब करना चाहिए ।

ईश्वरोवाच

सामान्यतः प्रवक्ष्यामि पुरश्चर्याविधिं श्रृणु ।
नाशुभो विद्यते कालो नाशुभो विद्यते क्वचित् ॥
न विशेषो दिवारात्रौ न संध्यायां महानिशि ।
कालाकालं महेशानी भ्रांतिमात्रं न संशयः ॥

भावार्थः शिव बोले, हे पार्वती ! अब मैं तुम्हें पुरश्चरण की सामान्य विधि बताता हूं । श्रद्धापूर्वक श्रवण करो । इसके अनुष्ठान के लिए समय, स्थान आदि अशुभ नहीं होते । अहर्निश का भी विचार नहीं किया जाता । महारात्रि-संध्या आदि का भी महत्त्व नहीं है । अनुष्ठान के समय-असमय का सोच-विचार करना तो पूर्णतया भ्रांति ही है ।

प्रलये महति प्राप्ते सर्वं गच्छति ब्रह्मणि ।
तत्कालं च महाभीमे को गच्छति शुभाशुभम् ॥
कलिकाले महामाये भवंत्यल्पायुषो जनाः ।
अनिर्दिष्टायुषः सर्वे कालचिंता कथं प्रिये ॥

भावार्थः हे प्रिये ! प्रलयकाल में सभी ब्रह्म में विलीन हो जाते हैं । तब उस काल में शुभाशुभ के आकलन का औचित्य क्या है? और फिर कलियुग में तो वैसे ही मनुष्यों की आयु सीमा का कोई निश्चय नहीं है । ऐसे में काल का विचार करना क्या उचित है?

यत्कालं ब्रह्मचिंतायां  तत्कालं सफलं प्रिये ।
पुरश्चर्याविधौ देवी कालचिंता न चाचरेत् ॥
नात्र शुद्धाद्यपेक्षास्ति न निषिद्धयादि भूषणम् ।
दिक्‌कालनियमो नात्र स्थित्यादिनियमो न हि ॥
न जपेत् कालनियमो नार्चादिष्वपि सुंदरी ।
स्वेच्छाचारोऽत्र नियमो महामंत्रस्य साधने ॥

भावार्थः हे प्रिये ! जिस काल में ब्रह्म का चिंतन किया जाए वही शुभ या उचित है । पुरश्चरण के लिए काल-चिंतन नहीं करना चाहिए । इसके लिए शुद्धि आदि की भी अपेक्षा नहीं करनी चाहिए । क्योंकि निषिद्ध कुछ भी नहीं है और न ही दिशा, काल, नियम, स्थान आदि का कोई बंधन है । जाप व पूजा कार्य के लिए समय व नियम आदि का भी कोई प्रतिबंध नहीं है । निष्कर्षतः इस महामंत्र की साधना का आधारा स्वेच्छाचार ही है । स्वेच्छाचार ही नियम है ।

नाधर्मो विद्यते सुभ्रु प्रचरेत् दुष्टमानसः ।
जंबूद्वीपे च वर्षे च कलौ भारतसंज्ञके ॥
षण्मासादपि गिरिजे जपात् सिद्धिर्न संशयः ।
मंत्रोक्तं सर्वतंत्रेषु तदद्य कथयामि ते ॥
सुभगे श्रृणु चार्वंगी कल्याणी कमलेक्षणे ।
कलौ च भारतवर्षे ये न सिद्धिः प्रजायते ॥

भावार्थः हे सुनेत्री ! जंबूद्वीप के भारतवर्ष में अधर्म है ही नहीं । यह तो केवल दुष्टजनों के मन की भ्रांति मात्र है अथवा दुष्ट मन ही भ्रमित होता है । यह सत्य है कि छह माह जाप करने से ही सिद्धि की प्राप्ति हो जाती है । सभी तंत्रों में जो मंत्र कहा गया है, मैं तुम्हें वही बता रहा हूं । हे सुभगे ! कमलनयनी ! कल्याणी ! कलियुग में भारतवर्ष में किस प्रकार सिद्धि मिल सकती है वह सुनो ।

तत् सर्वं कथयाम्यद्य सावधानावधारय ।
कलिकाले वरारोहे जपमात्रं प्रशस्यते ॥
न तिथिर्न व्रतः होमं स्नानं संध्या प्रशस्यते ।
पुरश्चर्यां विना देवी कलौ मंत्रं न साधयेत् ॥

भावार्थः हे पार्वती ! मैं तुमसे उन सभी तत्त्वों को कहता हूं । सावधान होकर सुनो । कलियुग में केवल जाप ही प्रशस्त कहा गया है । इस काल में तिथि, व्रत, होम, स्नान, संध्यादि कर्म का कोई बंधन नहीं है । कलियुग में पुरश्चरण के बिना कोई भी मंत्र सिद्ध नहीं होता है ।

सत्यत्रेतायुगं देवि द्वापरं सुखसाधनम् ।
कलिकाले दुराधर्षं सर्वदुःखमयं सदा ॥
सारं हि सर्व तंत्राणां महाकालीषु कथ्यते ।
प्रातः कृत्यादिकं कृत्वा ततः स्नानं समाचरेत् ॥
कृत्वा संध्या तर्पणं च संक्षेपेण वरानने ।
पूजां चैव वरारोहे यस्य यत् पटलक्रमात् ॥

भावार्थः हे देवी ! सत्ययुग, त्रेता व द्वापर युग में साधना करना सरल है । लेकिन कलियुग में कष्टदायी व असाध्य है । महाकाली साधना में सभी तंत्रों का तत्त्व समाविष्ट है । अतः साधक को प्रातः नित्य कर्मादिकों से निवृत्त होकर स्नानादि करने के बाद संध्या-तर्पण कर चतुर्थ संवाद में उपदेशित रीति के अनुसार महाकाली की पूजा करनी चाहिए ।

पूपाद्वारे च विन्यस्य बलिं दद्यात् यथाक्रमम् ।
प्राणायाम त्रयं चैव माषभक्तबलिं तथा ॥

भावार्थः पूजन द्वार पर क्रम से बलि देकर तीन बार प्राणायाम करने के बाद माष (उडद की दाल) की खिचडी महाकाली को अर्पित करनी चाहिए ।

संकल्पोपास्य देवेशी बलिदानस्य साधकः ।
आदौ गणपतेर्बीजं गमित्येकाक्षरं विदुः ।
भूमौ विलिख्य गुप्तेन बलिं पिंडोपमं ततः ॥
ॐ गं गणपतये स्वाहा इति मंत्रेण साधकः ।
बलिमित्थं च सर्वत्र बीजोपरि प्रदापयेत् ॥

भावार्थः हे पार्वती ! साधक को चाहिए कि वह बलिदान के लिए संकल्प कर पहले गणपति के बीज मंत्र गं को गुप्त रूप से भूमि पर अंकित करे । फिर उडद की दाल की खिचडी का पिंड बनाए और ॐ गं गणपतये स्वाहा मंत्र बोलकर उस अंकित बीजमंत्र पर पिंड की बलि दे ।

ॐ भैरवाय ततः स्वाहा भैरवाय बलिस्ततः ।
ॐ क्षं क्षेत्रपालाय स्वाहा क्षेत्रपाल बलिं ततः ॥
ॐ यां योगिनिभ्यो नमः स्वाहा च योगिनी बलिम् ।
संपूज्य विधिना दद्यात् पूर्ववत् क्रमतो बलिम् ।
कथोपकथनं देवि त्यजेदत्र सुरालये ॥

भावार्थः इसके बाद ॐ भैरवाय स्वाहा कहकर भैरव को, ॐ क्षं क्षेत्रपालाय स्वाहा कहकर क्षेत्रपाल को, ॐ यां योगिनिभ्यो नमः स्वाहा कहकर योगिनी को बलि देनी चाहिए । इस तरह विधिवत पूजन के बाद ही बलि देने का विधान है । हे देवी ! सुरालय में वार्तालाप नहीं करना चाहिए ।

पूर्वे गणपतेर्भद्रे उत्तरे भैरवाय च ।
पश्चिमे क्षेत्रपालाय योगिन्यै दक्षिणे ददेत् ॥
इंद्रादिभ्यो बलिं दद्यात् आत्मकल्याणहेतवे ।
तदा सिद्धिमवाप्नोति चान्यथा हास्य केवलम् ॥

भावार्थः हे भद्रें ! गणपति की निमित्त पूर्व दिशा में, भैरव के निमित्त उत्तर दिशा में, क्षेत्रपाल के निमित्त पश्चिम दिशा में और योगिनी के निमित्त दक्षिण दिशा में बलि देनी चाहिए । इसके अलावा अपने कल्याण के लिए इंद्रादि देवताओं को भी बलि देनी चाहिए । इससे सिद्धि की प्राप्ति होती है । ऐसा न करने पर सभी साधन व्यर्थ रहने की संभावना रहती है ।

पलैकं माषकल्पं च पलकेमं च तंडुलम् ।
अर्धतोलं घृतं चैव दक्षिमर्धार्द्धतोलकम् ॥
शर्करैकतोलकेन बलिं दद्यात् सुसिद्धये ।
एतेषां सहयोगेन बलिर्भवति शांभवी ॥

भावार्थः हे शांभवी ! एक पल उडद की दाल, एक पल अक्षत, आधा तोला घृत, चौथाई तोला दही को मिलाकर बलि देनी चाहिए । यदि श्रेष्ठ सिद्धि की कामना है तो उक्त द्रव्यों में एक तोला शर्करा मिलाकर द्रव्य की बलि देनी चाहिए ।

पूजास्थाने तथा भद्रे कूर्मबीजं लिखेत्ततः ।
चंद्रविंदुमयं बीजं कूर्मबीजं इतीरितम् ॥
स्थापयेदासनं तत्र पूजयेत् पटलक्रमात् ।
भूतशुद्धं ततः कृत्वा प्राणायामै ततः परम् ॥
अंगन्यासं करन्यासं मातृकान्यासमेव च ।
यः कूर्यान्मातृकान्यासं स शिवो नात्र संशयः ॥
ततस्तु भस्मतिलकं रुद्राक्षं धारयेत्ततः ।
रुद्राक्षस्य च माहात्म्यं भस्मनं च श्रृणु प्रिये ॥

भावार्थः हे भद्रें ! बलि क्रियोपरांत पूजास्थल पर कूर्मबीज (ॐ) अंकित कर वहां आसन लगाकर चतुर्थ संवाद में दी गई विधि के अनुसार पूजा करनी चाहिए । पहले भूतशुद्धि फिर प्राणायाम क्रिया करनी चाहिए । अनंतर अंगन्यास, करन्यास, मातृकान्यास करने से साधक शिव के समान हो जाता है । इसमें किसी भी प्रकार का संशय नहीं है । न्यास के बाद भस्म का तिलक व रुद्राक्ष धारण करना चाहिए । हे देवी ! अब तुम रुद्राक्ष व भस्म का माहात्म्य सुनो ।

आग्नेयमुच्यते भस्म दुग्धगोमय संभवम् ।
शोधयेन्मूलमंत्रेण अष्टोत्तरशतं जपेन् ॥
शिरोदेशे ललाटे च स्कन्धयोर्ध प्रदेशके ।
बाहवोः पार्श्वद्वये देवि कंठदेशे हृदि प्रिये ।
श्रुतियुग्मे पृष्ठदेशे नाभौ तुंडे महेश्वरी ॥
कर्पूराब्दाहुपर्यन्तं कक्षे ग्रीवासु पार्वती ।
सर्वांगे लेपयेत देवी किमन्यत कथयामि ते ॥

भावार्थः गोदुग्ध व गोमय (गोबर) को मिलाकर जलाने से बननेवाली आग्नेय भस्म को १०८ बार मूल मंत्र जपकर शुद्ध कर लेना चाहिए । फिर उस भस्म को शीश, ललाट, स्कंध (कंधे), भ्रू प्रदेश, भुजाओं के पीछे की ओर दोनों तरफ, कंठ, हृदय, कर्णों, पृष्ठभागा, नाभि, मणिबंध (कलाई) से भुजाओं तक लगाना चाहिए । हे पार्वती ! भस्म को सारे शरीर में लगाना चाहिए । इसके बारे में और क्या कहूं ।

मध्यमानामिकांगुष्ठेन तिलकं ततः ।
तिलकं तिस्त्ररेखा स्यात् रेखानां नवधा मतः ।
पृथिव्यग्निस्तथा शक्तिः क्रियाशक्तिर्महेश्वरः ॥
देवः प्रथमरेखायां भक्त्या ते प्रकीर्तितः ।
नभस्वांश्चैव सुभगे द्वितीया चैव देवता ॥
परमात्मा शिवो देव देवस्तृतीयायाश्च देवता ।
एतान्नित्यं नमस्कृत्य त्रिपुंड्रं धारयेत् यदि ॥
महेश्वर व्रतमिदं कृत्त्वा सिद्धिश्वरो भवेत् ।
ब्रह्मचारी गृहस्थो वा वनस्थो वा यतिस्तथा ॥

भावार्थः हे देवी ! भस्म से तीन रेखाओं का तिलक (त्रिपुंड्र) करना चाहिए । नौ संख्या की रेखाएं तंत्र में स्वीकार की गई हैं । ये रेखाएं पृथ्वी, अग्नि व शक्ति की प्रतीक मानी गई हैं । हे देवी ! प्रथम रेखा के देवता महादेव, द्वितीय रेखा के देवता नभस्वान, तृतीय रेखा के देवता परमात्मा शिव हैं । इनको नमस्कार करने के बाद ही त्रिपुंड्र धारण करना चाहिए । ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ या योगी में से जो कोई भी इस महेश्वर व्रत को करता है, उसे सिद्धि की प्राप्ति होती है ।

महापातक संघातैर्मुच्यते सर्वपातकात् ।
तथान्यक्षत्रविट्‌शूद्रा स्त्रीहत्यादिषु पातकैः ॥
वीर ब्राह्मण हत्याभ्यां मुच्यते सुभगेश्वरी ।
अमंत्रेणापि यः कुर्यात् ज्ञात्वा च महिमोन्नतिम् ॥
त्रिपुंड्र भाल तिलको मुच्यते सर्वपातकैः ।
परद्रव्यापहरणं परदाराभिमर्षणम् ॥
परनिंदा परक्षेत्रे हरणं परपीडनम् ।
असत्य वाक्य पैशून्यं पारुष्यं देवविक्रयम् ॥
कूटसाक्ष्यं व्रतत्यागं कृत्वा नीचसेवनम् ।
गो मृगाणां हिरण्यस्य तिल कंबूलं वाससाम् ॥
अन्न धान्य कुशादीनां नीचेभ्योऽपि परिग्रहम् ।
दासीवेश्यासु कृष्णासु वृषलीसु नटीसु चा ॥
रजस्वलासु कन्यासु विधवासु च संगमे ।
मांसचर्मरसादीनां लवणस्य च विक्रयम् ॥

भावार्थः इस प्रकार के अनुष्ठान द्वारा दोषों से मुक्ति मिलती है । यहां तक कि क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र व स्त्री हत्या का दोष भी दूर होता है । हे सुंदरी ! भस्म धारण के महत्त्व को जानकर जो कोई बिना मंत्रोच्चार के ही भस्म धारण करता है वह ब्रह्महत्या दोष से मुक्त हो जाता है । जिसके ललाट पर त्रिपुंड्र बना है वह दोषमुक्त ही समझा जाना चाहिए । ऐसा मनुश्य चोरी, परस्त्रीगमन, परनिंदा, भूहरण, परपीडा, मिथ्या व कटु वचन, देव विक्रय, कूटमाक्षय, व्रत, त्याग, नीच की सेवा, वस्त्र-अन्न का नीच से दान लेना, वेश्य, दासी, नारी, रजस्वला, कन्या, विधवा से समागम, मांस, चर्म, रस, लवण विक्रय आदि दोषों से मुक्त होता है ।

एवं रूपाण्यसंख्यानि पापानि विविधानि च ।
सद्य एव विनश्यंति त्रिपुंड्रस्य च धारणात् ॥
शिवंद्रव्यपहरणात् शिवनिंदां च कुत्रचिंत् ।
निंदायाः शिवभक्तानां पायश्चित्तैर्न शुद्धयति ॥
त्रिपुड्रं शिरसा धृत्वा तत्क्षणादेव शुद्धयति ।
देवद्रव्यापहरणे ब्रह्मस्वहरणेन च ॥

भावार्थः हे देवी ! त्रिपुंड्र धारण करने से असंक्य पापों का क्षय हो जाता है । शिव के द्रव्य का हरण व शिवनिंदा करने या शिवभक्त की निंदा करने से उत्पन्न दोष प्रायश्चित करने से दूर होता है । इसी तरह देवद्रव्य का हरण करने से जो दोष लगता है वह भी त्रिपुंड्र धारण से दूर हो जाता है ।

कुलान्यग्नय एवात्र विनश्यंति सदाशिवे ।
महादेवि महाभागे ब्राह्मणातिक्रमेण च ।
कुलरक्षा भवत्यस्मात् त्रिपुंड्रस्य च सेवनात् ॥
रुद्राक्षै यस्य देहेषु ललाटेषु त्रिपुंड्रकम् ।
यदि स्त्यात् स च चंडालः सर्ववर्णोत्तमोत्तमः ॥
यानि तीर्थानि लोकेऽस्मिन् गंगाद्या सरितश्च याः ।
स्नातो भवति सर्वत्र यल्ललाटे त्रिपुंड्रकम् ॥

भावार्थः हे सदाशिवे ! हे महादेवी ! हे महाभागे ! ब्राह्मण का अपमान करने से इसी जन्म में विनाश संभव होता है । ऐसी स्थिति में त्रिपुंड्र धारण का विशेष महत्त्व है । हे देवी ! जिसके शरीर पर रुद्राक्ष और ललाट पर त्रिपुंड्र हो यदि वह चांडाल है तब भी श्रेष्ठ है । जो मनुष्य ललाट पर त्रिपुंड्र धारण करता है, उसे तीर्थों का फल स्वतः ही मिल जाता है ।

सप्तकोटिमहामंत्रा उपमंत्रास्तथैव च ।
श्री विष्णोः कोटि मंत्रश्च कोटि मंत्रः शिवस्य च ।
ते सर्वे तेन जप्ता च यो विभर्ति त्रिपुंड्रकम् ॥
सहस्रं पूर्व्व जातानां सहस्रं च जनिष्यताम् ।
स्ववंशजातान् मर्त्यानां उद्धरेत् यस्त्रिपुंड्रकृत् ।
षडैश्वर्य गुणोपेत्तः प्राप्य दिव्यवपुस्ततः ।
दिव्यं विमानमारुह्‌य दिव्यस्त्रीशतसेवितः ।
विद्याधराणां सिद्धानां गंधर्वाणां महौजसाम् ।
इंद्रादिलोकपालानां लोकेषु च यथाक्रमम् ॥
भुक्त्त्वा भोगान् सुविपुलं प्रदेशानां पुरेषु च ।
ब्रह्मणः पदमासाद्य तत्र कल्पायुतं वसेत् ॥
विष्णुलोके च रमते आब्रह्मणः शतायुषम् ।
शिवलोके ततः प्राप्य रमते कालमक्षयम् ॥

भावार्थः ललाट पर त्रिपुंड्र धारण करने से विष्णु के महामंत्र व शिव के मंत्र का करोड्रों बार जाप करने का फल मिलता है । हे देवी ! जो मनुष्य त्रिपुंड्र धारण करता है उसकी पिछली व अगली पीढी के हजारों वंशजों का उद्धार होता है । इसके अतिरिक्त उसे सभी प्रकार का ऐश्वर्य मिलता है, वह दिव्य विमान पर रोहण करता है तथा देवांगनाएं उसकी सेवा करती हैं । ऐसा मनुष्य विद्याधर, सिद्धि. गंधर्व, इंद्रादि लोकों का सुख भोगकर १० हजार कल्पों तक (अयुत कल्प तक) ब्रह्मा बनता है । फिर विष्णुलोक में १०० ब्रह्माओं के काल तक निवास कर अक्षय काल तक शिवलोक में निवास करता है ।

शिवसायुज्यमाप्नोति न स भूयोऽपि जायते ।
शैवे विष्णो च सौरे च गाणपत्येषु पार्वती ॥
शक्तिरूपा च या गौः स्यात् तस्या गोमयसंभवम् ।
भस्म तेषु महेशानि विशिष्ठं प्रकीर्तितम ॥
शैवोऽपि च वरारोहे सागुण्यं वरवर्णिनी ।
शक्तौ प्रशस्तमोक्षं हि भस्म यौवन जीवने ॥
अन्येषां गोकरीषेण भस्म शक्यादिकेष्वपि ।
सामान्यमेतत् सुश्रोणि विशेषं श्रृणु मत्प्रिये ॥

भावार्थः हे पार्वती ! किसी भी संप्रदाय का मनुष्य जो त्रिपुंड्र धारण करता है वह शिव सायुज्य पाता है तथा फिर से सांसारिक प्रपंचों में नहीं पडता । हे देवी ! गाय को शक्तिरूपा माना गया है । अतः गोमय (गोबर) से बनी भस्म शक्ति प्रदायिनी है । ऐसा तंत्रशास्त्रों में कहा गया है । हे प्रिये ! शैव मत के अनुयायी सागुण्य प्राप्त करते हैं । शक्ति के उपासकों के लिए भस्म यौवन व जीवनदायिनी है । या अन्यों के लिए भी कल्याणकारिणी है । हे सुंदरी ! भस्म के ये सामान्य गुण कहे गए हैं । अब विशिष्ट गुणों का श्रवण करो ।

करीषभस्मादनघे होमं भस्म महाफलम् ।
होमं भस्मात् कोटिगुणं विष्णुयोगं महेश्वरी ॥
शिव होमं तद्विगुणं तस्मात्तु शृणु सुंदरी ।
स्वीयेष्ट देवता होम मनंतं प्रियवादिनी ॥
तन्माहात्म्यमंह वक्तुं वक्त्रकोटिशतैरपि ।
न समर्थो योगमार्गे मिमन्यत् कथयामि ते ॥

भावार्थः हे अनघे ! करीष (सूखे गोबर) की तुलना में होम की भस्म अधिक फलदायी कही गई है । इसी तरह होम भस्म की अपेक्षा विष्णु योग की भस्म करोडों गुणा फल देनेवाली है । इससे दुगुना फल देनेवाली शिवयोग भस्म है । इष्टदेव के निमित्त होम करने से बनी भस्म अनंत फलदायी मानी गई है । इसका महत्त्व सैकडों-करोडों मुखों से भी नहीं बखाना जा सकता । हे देवी ! योग मार्ग के संबंध में अधिक क्या कहूं ।

होमः कलियुगे देवि जंबूद्विपस्य वर्षके ।
भारताख्ये महाकाली दशांशं क्रमतः शिवे ॥
नास्तिकास्ते महामोहे केवलं होममाचरेत् ।
लक्षस्वाप्ययुतस्वापि सहस्रम्बा वरानने ॥
अष्टाधिकशतम्वापि काम्यहोमं प्रकल्पयेत् ।
नित्यहोमं च कर्त्तव्यं शक्त्या च परमेश्वरी ॥
प्रजपेन्नित्य पूजायामष्टोत्तर सहस्रकम् ।
अष्टोत्तरशतं वापि अष्टं पंचाशतं चरेत् ॥
अष्टत्रिंशत् संख्यकंबा अष्टाविंशतिमेव च ।
अष्टादशा द्वादशं च दशाष्टो च विधानतः ॥
होमं चैव महेशानि एतत् संख्याविधानतः ।
एवं सर्वत्र देवेशि नित्यकर्म महोत्सवः ॥
इत्थं प्रकारं यत् भस्म अंगे संलिप्य साधकः ।
मालां चैव महेशानि नरास्थ्यद्‌भुत पूजितम् ॥

भावार्थः हे देवी ! कलियुग में जंबूदीप के भारतवर्ष में दशांशं हवन फलदायी कहा गया है । जो नास्तिक हैं उन्हें होम करना चाहिए । उस होम को लाख, १० हजार या १००० बार भी किया जा सकता है । हे देवी ! कामनापूर्ति के लिए १०८ बार भी होम किया जा सकता है । होम सदैव शक्त्यानुसार ही करना चाहिए । नित्यपूजा में १००८ बार होम-जाप करना चाहिए । इतना जाप करना यदि संभव न हो तो १०८ अथवा ५८ बार या फिर ३८,२८ बार ही जाप करना चाहिए । इतना करना भी संभव न हो तो १८,१२,१० या ८ बार ही जाप करना चाहिए । होम के अनुसार ही जाप की संख्या निर्धारित करनी चाहिए । हे देवेशी ! सदैव नित्य कर्म उत्सव हवलादि करना चाहिए । इस प्रकार जो भस्म बनती है उसको अंग में लेपकर रुद्राक्ष माला धारण कर मानव अस्थियों की माला पहननी चाहिए ।

गले दद्याद्वरारोहे शक्तश्चेत् दिव्यनासिके ।
रुद्राक्ष माल्यं संधार्यं ततः श्रृणु मम प्रिये ॥
एवं कृत्वो तया सार्द्ध पितृभूमौ स्थितं मया ।
सुभगे श्रृणु सुश्रोणि रुद्राक्षं परमं पदम् ॥

भावार्थः हे दिव्य नासिकावाली ! मानव अस्थि धारण करने के बाद ही रुद्राक्ष की माला धारण करनी चाहिए । क्योकिं ऐसी माला धारण करके है मैं तुम्हारे साथ श्मशान में वास करता हूं । हे देवी ! साधक का मुख्य़ लक्ष्म रुद्राक्ष ही है ।

सर्वपापक्षयकरं रुद्राक्षं ब्रह्मणीश्वरी ।
अभुक्तो वापि भुक्तो वा नीचा नीचतरोऽपि वा ॥
रुद्राक्षं धारयेत् यस्तु मुच्यते सर्वपातकात् ।
रुद्राक्षधारणं पुण्यं कैवल्यं सदृशं भवेत् ॥
महाव्रतमिदं पुण्यं त्रिकोटितीर्थ संयुतम् ।
सहस्रं धारयेत् यस्तु रुद्राक्षाणां शुचिस्मिते ॥
तं नवंति सुराः सर्वे यथा रुद्रस्तथैव सः ।
अभावे तु सहस्रस्य बाहवोः षोडश षोडशः ॥

भावार्थः हे ब्रह्मणेश्वरी ! रुद्राक्ष सभी दोषों का क्षय करनेवाला है । किसी भी अवस्था में नीच मनुष्य भी रुद्राक्ष धारण करने से दोषमुक्त हो जाता है । यह महत् पुण्य कर्म कहा गया है । रुद्राक्ष धारण करना मोक्ष के समान माना गया है । इसको धारण करने से तीन करोड तीर्थों के भ्रमण का फल मिलता है । हे शुचिस्मिते ! जो मनुष्य १००० रुद्राक्ष धारण करता है, वह देवगणों द्वारा पूजित होता है । उसमें व रुद्र में अभेद भाव रहता है । एक सहस्र रुद्राक्ष धारण न कर सके तो भुजाओं में १६-१६ रुद्राक्ष ही धारण करने चाहिए ।

एकं शिखायां कवचयोर्द्वादश द्वादश क्रमात् ।
द्वात्रिंशत् कंठदेशे तु चत्वारिंशत् शिरे तथा ॥
उभयो कर्णयोः षट् षट् हृदि अष्टोत्तर शतम् ।
यो धारयति रुद्राक्षान् रुद्रवत् स च पूजितः ॥
मुक्ता-प्रवाल-स्फटिकैः सूर्येन्दु-माणि कांचनैः ।
समेतान् धारयेत यस्तु रुद्राक्षान् शिव एव सः ॥
केवलानामपि रुद्राक्षान् यो विभर्त्ति वरानने ।
तं न स्पृशंति पापनि तिमिराणीव भास्करः ॥

भावार्थः एक रुद्राक्ष चोटी में, १२-१२ रुद्राक्ष कवच में, ३२ रुद्राक्ष कंठ में व ४४ रुद्राक्ष मस्तक पर धारण करने चाहिए । छह-छ्ह रुद्राक्ष कानों में, १०८ रुद्राक्ष ह्र्दय पर धारण करनेवाला साधक संसार में रुद्र के समान पूजा जाता है । मुक्ता, प्रवाल, स्फटिक, सूर्यकांतमणि, चंद्रकांतमणि या स्वर्ण के साथ रुद्राक्ष धारण करनेवाला मनुष्य शिव समान हो जाता है । हे सुमुखी ! जो साधक केवल रुद्राक्ष धारण करता है । उसे पाप उसी प्रकार नहीं छू पाता जैसे तिमिर कभी सूर्य को नहीं छू सकता ।

रुद्राक्षमालया जप्तो मंत्रोऽनन्त फलप्रदः ।
यस्यांगे नास्ति रुद्राक्षं एकोऽपि वरवर्णिनी ।
तस्य जन्म निरर्थं स्यात् त्रिपुंड् रहितं यथा ॥
रुद्राक्षं मस्तके बद्धा शिर-स्नानं करोति यः ।
गंगास्नान-फलं तस्य जायते नात्र संशयः ॥
रुद्राक्षं पूजयेत् यस्तु विना तोयाभिषेचनैः ।
यत् फलं शिव पूजायां तदेवाप्नोति निश्चितम् ॥

भावार्थः हे वरवर्णिनी ! रुद्राक्ष की माला पर जाप करने से अनन्त फल की प्राप्ति होती है । यदि कोई एक भी रुद्राक्ष धारण नहीं करता है तो उसका जीवन वैसे ही व्यर्थ है जैसे त्रिपुंड्र रहित मनुष्य का होता है । जो मनुष्यं मस्तक पर रुद्राक्ष बांधकर शीश भाग से स्नान करता है उसे गंगा स्नान का फल मिलता है, इसमें तनिक भी संशय नहीं है । जो मनुष्य जल अभिषेक से रुद्राक्ष का पूजन करता है, उसे शिव-पूजा करने का फल मिलता है, यह भी सत्य है ।

एकवक्त्रैः पंचवक्त्रैः त्रयोदश मुखैस्तथा ।
चतुर्द्दश मुखैर्ज्जप्त्वा सर्वसिद्धिः प्रजायते ॥
किं बहूक्त्या वरारोहे कृत्वा गतिकमद्‌भुतम् ।
रुद्राक्षं यत्नतो धृत्वा शिव एव स साधकः ॥

भावार्थः हे देवी ! एकमुखी, पांचमुखी, तेरहमुखी या चौदहमुखी रुद्राक्ष से जाप करने पर सभी प्रकार की सिद्धियां हस्तगत होती हैं । हे पार्वती ! अधिक क्या कहूं ? रुद्राक्ष धारण करनेवाला शिव के सदृश हो जाता है ।

भस्मना तिलकं कृत्वा पश्चात् रुद्राक्ष धारणम् ।
प्राणायामं ततः कृत्वा संकल्प्योवास्य साधकः ॥
मूलमंत्रसिद्धिकामः कुर्यांच्च वर्णपूजनम् ।
षट्‌त्रिंशत् वर्ण मालार्च्चा विस्तारोन्नति शालिनी ॥

भावार्थः भस्म का त्रिपुंड्र व रुद्राक्ष धारण कर साधक को प्राणायाम व संकल्पपूर्वक उपासना करनी चाहिए । साधक को चाहिए कि वह मूलमंत्र की सिद्धि के लिए वर्णमाला की भी पूजा करे । हे विस्तारोन्नतिशालिनी !३६ वर्णमालाओं की पूजा शास्त्र सम्मत कही गई है ।

विलिप्य चंदनं शुद्धं सर्ववर्णात्मके घटे ।
सर्वावयवसंयुक्तान् विलिख्य मातृकाक्षरान् ॥

भावार्थः सर्ववर्णात्मक घट में चंदन का लेप कर सारे अंग में मातृकाक्षर लिखना चाहिए ।

टिप्पणीः यहां घट का आशय पंचतत्त्वों से निर्मित मानव देह से भी है । तंत्र रीति के अनुसार इस देह में सर्ववर्णयुक्त मातृका के अक्षरों की कल्पना करनी चाहिए ।

गुरु संपूज्य विधिवत् घटस्थापनमाचरेत् ।
पंचाशन्मातृकावर्णान् पूजयेत् विभवक्रमात् ॥

भावार्थः साधक को चाहिए कि वह विधिवत् गुरुपूजा के बाद घट (कलश) की स्थापना करे । फिर अनुलोम क्रमानुसार ५० मातृकाओं की पूजा करे ।

सत्व स्वरूपिणी ध्यानम्
शुक्लविद्युत् प्रतीकाशां द्विभुजां लोललोचनाम् ।
कृष्णांबरपरिधानां शुक्ल वस्त्रोत्तरीयिणीम् ॥
नाना आभरणं भूषाड्‌यां सिंदूर तिलकोज्वलाम् ।
कटाक्षिविशिखोद्दीप्त अंजनांजित लोचनाम् ॥
मंत्रसिद्धि प्रदां नित्यां ध्यायेत् सत्वस्वरूपिणीम् ।
रक्त विद्युत् प्रतीकांशा द्विभुजां लोललोचनाम् ॥

भावार्थः सत्वस्वरूपिणी देवी का ध्यान पंचोपचार पूजा के बाद इस प्रकार करना चाहिए कि वह देवी दिद्युत सदृश प्रकाश से युक्त, सुंदर नेत्रोंवाली, दो भुजाओंवाली हैं तथा देवी ने काले वस्त्र पहन रखे हैं । काले वस्त्रों पर श्वेत वर्ण की उत्तरीय है । देवी विविध आभूषणों से शोभायमान हैं । ललाट पर सिंदूरी तिलक है । तीखे नयन बाणवत् हैं जिनमें अजंन सुशोभित है । मंत्र सिद्धिदात्री, रक्त विद्युत के समान प्रभावाली, दो भुजाधारिणी, सुंदर नेत्रोंवाली हैं ।

रजः स्वरूपिणी ध्यानम्
शुक्लंबरपरीधानां कृष्णवस्त्रोत्तरीयिणीम् ।
नाना आभरण भूषाड्‌यां सिंदूर तिलकोज्वलाम् ॥
कटाक्ष विशिखोदीप्त अंजनांजित लोचनाम् ।
मंत्र सिद्धि प्रदां नित्यां ध्यायेत् रजः स्वरूपिणीम् ॥

भावार्थः साधक को रजः स्वरूपिणी देवी का ध्यान इस प्रकार करना चाहिए कि देवी ने श्वेत वस्त्र धारण कर रखे हैं तथा काले रंग का उत्तरीय उन पर सुशोभित है । अनेक आभूषणों से शोभायमान देवी के ललाट पर सिंदूर शोभा पा रहा है । तीखे बाणवत् नयनों में अंजन लगा है । यह मंत्र सिद्धि देनेवाली हैं ।

तमः स्वरूपिणी ध्यानम्
भ्रमत् भ्रमर संकाशां द्विभुजां लोललोचनाम् ।
रक्त वस्त्र परिधानां कृष्ण वस्त्रोत्तरीयिणीम् ॥
नाना आभरण भूषाड्‌यां सिंदूर तिलकोज्वलाम् ।
कटाक्ष विशिखोद्दीप्त भ्रू लता परिसेविताम् ।
मंत्र सिद्धि प्रदां नित्यां ध्यायेत्तमः स्वरूपिणीम् ॥

भावार्थः साधक को तमः स्वरूपिणी देवी का ध्यान इस प्रकार करना चाहिए कि देवी का वर्ण (रंग) भ्रमरवत् काला है, उनकी दो भुजाएं हैं तथा नेत्र सुंदर हैं । देवी ने लाल रंग के वस्त्र परिधान कर रखे हैं । जिन पर काले वस्त्र का उत्तरीय शोभा पा रहा है । वह आभूषणों से सुसज्जित हैं, ललाट पर सिंदूर का तिलक लगा है । उनके नयन तीखे हैं, वह वृक्षों की शाखा व तलाओं का ही उपयोग करती हैं । मंत्रसिद्धि देनेवाली हैं ।

ध्यात्वा पाद्यादिकं दत्वा त्रिगुणां पूजयेत् क्रमात् ।

भावार्थः उपरोक्य वर्णमालाओं की यथाक्रम अर्घ्य, पाद्य आदि से पूजा करनी चाहिए ।

ॐ अंगार रूपिण्यै नमः पाद्यैः प्रपूजयेत् ।
आदि ध्यानेन सुभगे यजेत् सत्वमयीं पराम् ॥
ॐ कंकार रुपिण्यै नमः पाद्यादिभिर्यजेत् ।
क्रमात् सप्त दशार्णं हि द्वितीयं ध्यानमाचरन् ॥

भावार्थः ॐ अंगाररूपिण्यै नमः मंत्रोच्चारण कर पाद्यादि से पूजन कर सत्वमयी प्रथम वर्णमाला का ध्यान करना चाहिए । ॐ कंकार रूपिण्यै नमः मंत्रोच्चारण कर पाद्यादि से पूजन कर यथाक्रम १७ वर्णमयी द्वितीय रजःमयी वर्णमाला का ध्यान करना चाहिए ।

ॐ दंकार रूपिण्यै नमः पाद्यादिभिर्यजेत् ।
क्रमात् सप्त दशार्णं हि तृतीयं ध्यानमाचरम् ॥

भावार्थः ॐ ऊंकार रूपिण्यै नमः मंत्रोच्चारण कर पाद्यादि से पूजन कर १७ वर्णयुक्ता तृतीय वर्णमाला तामसी का पूजन कर ध्यान करना चाहिए ।

एवं क्रमेण पंचाशत् वर्णं हि परिपूजयेत् ।
इति ते कथितं भद्रे पंचाशद्वर्णपूजनम् ॥

भावार्थः इसी क्रम से ५० वर्णों क पूजन करना चाहिए । हे भद्रे ! इस तरह मैंने तुम्हें ५० वर्णों की पूजा विधि का उपदेश किया है ।

वर्णानां पूजनात् भद्रे देव पूजा प्रजायते ।
अणिमाद्यष्ट सिद्धिनां पूजा स्यात् वर्ण पूजनात् ॥

भावार्थः हे भद्रे ! वर्णमाला पूजा ही देवपूजा कही गई है । इस पूजा के द्वारा अणिमा, गरिमा आदि अष्ट सिद्धियों की भी पूजा संपूर्ण हो जाती है ।

सप्त कोटि महाविद्या उपविद्या तथैव च ।
श्री विष्णोः कोटि मंत्रश्च कोटि मंत्रः शिवस्य च ॥
पूजनात् पूजितं सर्वं वर्णानां सिद्धि दायकम् ।
प्रथमं प्रणवं दत्त्वा सहस्रं कुंडली मुखे ॥
मूलविद्यां ततो भद्रे सहस्र युगलं जपेत् ।
ततस्तु सुभगे मातर्ज्जयेच्च दीपनौ पराम् ॥

भावार्थः सात करोड महाविद्य, उपविद्या, श्री विष्णु व शिव के करोड मंत्र आदि की पूजा भी वर्णपूजा द्वारा ही पूरी हो जाती है । सबसे पहले कुंडली मुख में १००० प्रणव का उच्चारण-जाप करना चाहिए । अर्थात प्रणव का एक सहस्र मानसिक जाप कर मूलाधारास्थ कुंडली के मुख में आहुत कर देना चाहिए । इसके बाद २००० बार मूलमंत्र का जाप कर श्रेष्ठ दीपनी नामक मंत्र का जाप करना चाहिए ।

आदौ गायत्रीमुच्चार्य मूलमंत्रं ततः परम् ।
प्रणवं च ततो भीमे त्रयाणां सहयोगतः ॥
सदैवेनां महेशानि दीपनीं परिकीर्त्तितम् ।
एतामपि सहस्रं च प्रजपेत् कुंडली मुखे ॥

भावार्थः हे भीमे ! सर्वप्रथम गायत्री मंत्र का उच्चारण कर मूलमंत्र का उच्चारण करना चाहिए । फिर प्रणव का उच्चारण करना चाहिए । इसके अनंतर गायत्री, मूलमंत्र, प्रणव तीनों का जपा करना चाहिए । इस प्रकार तीनों मंत्रों का एकसाथ जाप जरना ही दीपनी जाप कहलाता है । इस प्रकार कुंडली के मुख में दीपनों मंत्र का ही जाप करना चाहिए ।

प्रणवादौ जपे द्विधां गायत्रीं दीपनीं पराम् ।
गायत्री श्रृणु वक्ष्यामि अं ङं ञं णं नं मं मे प्रिये ॥

भावार्थः हे प्रिये ! प्रणव के प्रारंभ में गायत्री मंत्र अर्थात दीपनी विद्या का ही जाप करना चाहिए । गायत्री मंत्र हैः अं ङं ञं णं नं मं ।

षडक्षर मिदं मंत्रं गायत्री समुदीरितम् ।
अस्याश्च फलमाप्नोति तदैव वर्णिनी ॥
स्मरणं कुंडली मध्ये मनसी उन्मनी सह ।
सहस्त्रारे कर्णिकायां चंद्रमंडल मध्यगाम् ॥

भावार्थः हे सुमुखी ! उपरोक्त षडक्षर मंत्र ही गायत्री है । इसके जाप का प्रतिफल शीघ्र ही प्राप्त होता है । इस गायत्री का कुंडली में उन्मनी के साथ ध्यान करना चाहिए जो सहस्रार की कर्णिका में चंद्रमंडल के बीच में अवस्थित है ।

सर्वसंकल्प रहिता कला सप्तदशी भवेत् ।
उन्मनी नाम तस्य हि भव पाश निकृन्तनी ॥
उन्मन्या सहितो योगी न योगी उन्मनीं विना ।
बुद्धिमंकुश संयुक्तामुन्मनीं कुसुमान्विताम् ॥

भावार्थः हे महेशानी ! सभी प्रकार के संकल्पों से रहित १७ कला ही उन्मनी कहलाती है । यही सांसारिक बंधनों को कटनेवाली है । जो उन्मनी में अवस्थित है वह योगी है । इस अवस्था से रहित को योगी नहीं कहा जाता । बुद्धिरूप अंकुश से अंकुशित उन्मनी कुसुमों से (कमल पुष्पों से) ढंकी हूई है ।

उन्मनीं च मनोवर्णं स्मरणात् सिद्धि दायिनीम् ।
स्मरते कुंडली योगादमृतं रक्त रोचिषम् ।
उन्मनी कुसुमं तंतु ज्ञेयं परमदुर्लभम् ॥

भावार्थः हे पर्वतपुत्री ! सिद्धि देनेवाली उन्मनी और मन रूप वर्ण का ध्यान करते हुए रक्त कांतिवत् अमृत का कुंडली योग से ध्यान करना चाहिए । उन्मनी कुसुमान्वित होकर दुर्लभ होती है ।

हंसं नित्यमनंत मध्यमं गुणं स्वाधारतो निर्गता ।
शक्तिः कुंडलिनी समस्त जननी हस्ते गृहीत्वा च तम् ।
वांती स्वाश्रममर्क कोटि रूचिरा नामामृतोल्लासिनी ॥
देवीं तां गमनागमैः स्थिर मतिर्ध्यायेत् जगन्मोहिनीम् ।
इति ते कथितं ध्यानं मृत्युंजयमनामयम् ॥

भावार्थः हे प्रिये ! कुंडलिनी करोडों सुर्यों के समान प्रकाशवाली है । वह सदैव नामामृत से प्रमुदित होती रहती है । कुंडलिनी मूलाधार से निकल कर मध्यम गुण अर्थात श्वास या हंस का वमन करती है । मध्य नाडी सुषुम्ना के मार्ग से अनवरत हं और सः शब्द श्वास के सहारे आते-जाते रहते हैं । इसी हंसः को जीवात्मा कहते हैं । सृष्टि को मोह लेनेवाली कुंडलिनी का दिन-रात स्मरण करना चाहिए । निरोगी रहने का मृत्युंजय योग यही है ।

विना मनोन्मनी मंत्रं विना ध्यानं जपं वृथा ।
ततः संकल्प ध्यात्वैव मूलमंत्रस्य सिद्धये ॥
गायत्रीमयुतं जप्त्वः तदर्द्धं प्रणवं जपेत् ।
दीपनं प्रणवस्यार्द्धं जपेत् पंच दिनावधि ॥

भावार्थः उन्मनी मंत्र व ध्यान विधि के बिना जाप निष्फल रहता है । इसलिए मूल मंत्र की सिद्धि के लिए संकल्पपूर्वक १० हजार बार गायत्री का जाप करना चाहिए । इतना जाप करने के बाद इसका आधा प्रणव का जाप करना चाहिए और प्रणव से आधा जाप पांच दिन तक दीपन विद्या का करना चाहिए ।

शूद्राणां प्रणवं देवि चतुर्दश स्वर प्रिये ।
नाद विंदु समायुक्तं स्त्रीणां चैव वरानने ॥
मनौ स्वाहा च या देवी शूद्रोच्चार्या न संशयः ।
होमकार्ये महेशानि शूद्रः स्वाहां न चोच्चरेत् ॥

भावार्थः हे सुमुखी ! शुद्र व स्त्री जाति को नादयुक्त १४ स्वरों का ही प्रणव के स्थान पर जाप करना चाहिए । १४ स्वर हैं-अं आं इं ईं उं ऊं ऋं ऋं लृं एं ऐं ओं औं । शूद्रों को मंत्र में तो स्वाहा का उच्चारण करना चाहिए लेकिन होमानुष्ठान में स्वाहा का उच्चारण नहीं करना चाहिए ।

मंत्रोप्यूहो नास्ति शूद्रे विपबीजं विना प्रिये ।
गणपत्यादौ यत् दत्तं बलिदानं दिने-दिने ॥
तेतैव बलिना भद्रे हविष्यं सम्मतं सदा ।
शेष इष्टं प्रपूज्याथ हविष्याशी स्त्रिया सह ॥

भावार्थः हे देवी ! शुद्र के लिए प्रणव के अतिरिक्त कोई भी मंत्र जपनीय नहीं है । गणेश को नित्यप्रति बलिदान भी देना चाहिए । उस बलिदान के अन्न से ही तांत्रिकों को हविष्य बनाना चाहिए । तत्पश्चात इष्ट की पूजा कर साधक पत्नी को साथ बैठाकर हविष्य का भक्षण करे । लेकिन ध्यान रहे कि पत्नी इस हविष्य का भक्षण न करे ।

जापकस्य च यन्मंत्रमेकवर्णं ततः प्रिये ।
तस्य पत्नी शक्तिरूपा प्रत्यहं प्रजपेत् यदि ॥
तदा फलमवाप्नोति साधकः शक्ति संगतः ।
शक्तिहीने भवेद् दुखं कोटि पुरश्चरणेन् किम् ॥

भावार्थः हे प्रिये ! जापकर्ता जिस एक वर्ण के मंत्र का जाप करता है, उसकी पत्नी को भी उसी मंत्र का जाप करना चाहिए । यदि साधक या जापकर्ता की पत्नी स्वयं ही एकवर्णी मंत्र का जाप करती है तो उसका फल साधक को भी मिलता है । शक्ति (पत्नी) के बिना कष्टप्राप्ति होती है, जो करोडों पुश्चरणों से भी दूर नहीं होती ।

साधकस्य हविष्याशी साधिका तद्विवर्जिता ।
यथेच्छाभोजनं तस्यास्तांबूल पूरितानना ॥

भावार्थः हे देवी ! साधक को तो हविष्याशी होना चाहिए । लोकिन साधिका को इच्छानुसार भोजन कर तांबूल सेवन करना चाहिए ।

नाना आभरण वेशाडया धूपामोदनमोदिता ।
शिवहीना तु या नारी दूरे तां परिवर्जयेत् ॥

भावार्थः हे देवी ! साधिका को अनेक आभूषण परिधान कर धूप आदि सुगंधमय वातावरन का सेवन करना चाहिए । केवल नारी का सान्निध्य इस साधना में वर्जित है ।

देव्युवाच

गायत्री जापकाले तु साधिका किं जापेत् प्रभो ।

भावार्थः देवी बोलीं, हे देव ! गायत्री के जापकाल में साधिका को किस मंत्र का जाप करना चाहिए ।

ईश्वरोवाच

गायत्रीमजपा विद्यां प्रजापेत् यदि साधिका ।
पूर्वोक्तेन विधानेन ध्यात्वा कृत्वा च पूजनम् ॥
मानसं परमेशानि जापेत्तद्‌गतमानसा ।
ततः षष्टदिनं प्राप्य प्रातः स्नानं समाचरेत् ॥
कुंकुमागुरु पंकेन कस्तूरीचंदनेन च ।
कूर्मबीजं लिखेत् भद्रे अथवा श्वेत चंदनैः ॥

भावार्थः शिव बोले, हे देवी ! यदि साधिका अजपा गायत्री का जाप करती है तो उसे पूर्वविधि के अनुसार पूजा व ध्यान करना चाहिए । साधिका को इष्टदेव में ध्यान एकाग्र कर मंत्र का मानसिक जाप करना चाहिए । तदोपरांत छठे दिन स्नान करना चाहिए । फिर कुंकुम, अगर व चंदन से कूर्मबीज अंकित करना चाहिए ।

तत्रासनं समास्थाय विशेत् साधकसन्निधौ ।
एवं विधाय या साध्वी साधकोऽपि प्रसन्नधीः ॥
संकल्प्य विधिना भक्त्या मूलमंत्रस्य सिद्धये ।
लक्षं जापेत् पुरश्वर्या विधौ विधि विधानतः ॥
तद्विधानं वदामीशे श्रुत्वा त्वमवधारय ॥

भावार्थः तत्पश्चात साधिका साधक के समीप आसन बिछाकर बैठे । साधक को भी चाहिए कि वह प्रसन्न चित्त से उसे स्वीकार करे । फिर मूल मंत्र की सिद्धि के लिए संकल्पपूर्वक एक लाख बार मंत्र जाप करना चाहिए । हे देवी ! जाप विधान मैं तुम्हें बताता हूं । तुम उसका श्रव्ण व धारण करो ।

ॐ ॐ कं हूं भं सं देवि प्रातः स्नानोत्तरं परम्‌ ।
दशधा प्रजापेन्मंत्रं जिह्वा शोधन कारकम् ॥
ततश्च प्रजापेन्मंत्रं मौनी मध्यन्दिनावधि ।
तस्य वामे तस्य पत्नी तस्य एकाक्षरं जापेत् ॥

भावार्थः साधक प्रातः स्नान कर जिह्वा की शुद्धि करे । फिर उसे ऊं ऊं कं हूं भं सं मंत्र का दस बार जाप करना चाहिए । इसके बाद मध्याह्न तक मौन रहकर मंत्र का जाप करे । साधिका को भी साधक के वाम भाग में बैठकर एकाक्षर मंत्र का जाप करना चाहिए ।

साधकः शिवरूपश्च साधिका शिवरूपिणी ।
अन्योन्य चिंतनाच्चैव देवत्वं जायते ध्रुवम् ॥
अदावंते च प्रणवं दत्त्वा मंत्रं जापेत् सुधीः ।
दशधा वा सप्तदशं जप्त्वा मंत्रं जापेत्तुसः ॥

भावार्थः हे देवी ! साधक शिवरूप तथा साधिका शक्तिरूपा होती है । यदि साधक-साधिका एक-दूसरे का ध्यान करें तो निश्चित रूप से देवत्व की प्राप्ति होती है । साधक को मूलमंत्र के साथ आदि व अंत में प्रणव सहित जाप करना चाहिए । साधक को चाहिए कि वह पहले १० या १७ बार प्रणव जाप करने के बाद मूलमंत्र का जाप करे ।

एवं हि प्रत्यहं कुर्यात् यावल्लक्षं समाप्यते।
प्रातःकाले समारभ्य जपेन्मध्यन्दिनावधि ॥
द्वितीय प्रहरादूर्ध्वं नित्य पूजादिकं चरेत् ।
स्नानं कृत्वा ततो धामान् हविष्यं बुभुक्ते ततः ॥
तत्पत्नी शक्तिरूपा च पातिव्रत्य परायणा ।
तस्या चेच्छा भवेत् येषु बुभुजे पानभूषिता ॥
दशदंड गते रात्रौ शय्यायां प्रजपेन्मनूम् ।
तांबुल पूरितमुखो धूपामोदन मोदितः ॥

भावार्थः साधक को प्रातः से शुरू कर मध्याह्न तक जाप करना चाहिए अथवा जब तक एक लाख जाप पूरा न हो जाए तब तक जाप करना चाहिए ! फिर दूसरा प्रहर जब शुरू हो तब नित्य पूजा करनी चाहिए । श्रेष्ठ साधक स्नान के बाद ही हविष्यान्न का भक्षण करे । जबकि साधिका को स्वेच्छानुसार भोजन करना चाहिए । यह बात पूर्व में भी बताई गई है । रात्रि के दश दंड बीत जाने पर मुख में तांबूल रखकर धूप-गंध आदि से सुवासित वातावरण बनाकर शय्या पर बैठकर मंत्र जाप करना चाहिए ।

टिप्पणीः दश दंड का तात्पर्य ४ घंटे हुए क्योंकि एक दंड में २४ मिनट या ६० पल होते हैं । जबकि रात्रिकाल आमतौर पर आठ बजे से माना जाता है अतः यह क्रिया बारह बजे रात्रि में ही करनी चाहिए ।

वामेः श्रीशक्तिरूपा च जपेच्च साधकाक्षरम् ।
दक्षिणे साधकः सिद्धो दिवामाने जपेन्मनूम् ॥
आद्यंत गोपनं कृत्वा प्रत्यहं प्रजपेत् यदि ।
ततः सिद्धिमवाप्नोति प्रकाशाद्धानिरेव च ॥

भावार्थः शक्तिस्वरूपा साधिका साधक के वाम भाग में बैठकर एकाग्र मन से मंत्र जाप करे तथा स्वयं साधक सक्षिण भाग में प्रारंभ से अंत तक गुप्त रीति से मंत्र जपे तो निश्चित ही सिद्धि की प्राप्ति होती है । इस साधना में गोपनीयता परम आवश्यक है ।

मातृका पुटिकां कृत्वा चंद्रबिंदु समन्वितम् ।
प्रत्यहं प्रजपेन्मंत्रमनुलोम विलोमतः ॥
जपादौ सुभगे प्रौढ प्रत्यहं प्रजपेन्मतूम् ।
तेन हे सुभगे मातः पुरश्चरणमीरितम् ॥
समाप्ते पुरश्चरणे गुरुदेवं प्रपूजयेत् ।
तदा सिद्धौ भवेन्मंत्रो गुरुदेवस्य पूजनात् ॥

भावार्थः मातृका में चंद्रबिंदु का संपुट देकर नित्य लोम-विलोम रीति से मंत्र जाप करना चाहिए । हे सुंदरी ! इस तरह नित्य जाप करने को ही पुरश्चरण कहा जाता है । पुरश्चरण के बाद गुरु की पूजा करनी चाहिए । ऐसा करने से कलियुग में भी सिद्धि प्राप्त की जा सकती है ।

जंबूद्वीपस्य वर्षे च कलिकाले च भारते ।
दशांशं वर्जयेत भद्रे भास्ति होमः कदाचन ॥
दशांशं क्रमतो देवि पंचागं विधिना कलौ ।
नाचरेत् कुत्रचिन्मंत्री पुरश्चर्याविधिं शुभे ॥
भ्रमात् यदि महेशानि कारयेत् साधकोत्तमः ।
सिद्धिहानिर्महानिष्ठं जायते भारतेऽनघे ॥

भावार्थः हे देवी ! कलियुग में दशांश क्रम से कभी भी अनुष्ठान नहीं किया जाता । लोकिन विधिवत पंचांगयुक्त पुरश्चरण अवश्य करना चाहिए । पंचांग पुरश्चरण में जाप का द्शांश होम, होम का दशांश तर्पण, तर्पण का दशांश अभिषेक और अभिषेक का दशांश ब्राह्मण भोजन कराया जाता है । यदि साधक भ्रमवश भारतवर्ष में दशांशयुक्त पुरश्चरण करने की किसी को सीख देता है तो उसका महान अनिष्ट होता है । दशांशयुक्त पुरश्चरण भारतवर्ष से बाहर किया जा सकता है, भारतवर्ष में नहीं ।

दशांशं जायते पूर्णं गुरुदेवस्य पूजनात् ।
अतएव महेशानि भक्त्या गुरुपदं यजेत् ॥
दक्षिणां गुरवे दद्यात् सुवर्णं वाससान्वितम् ।
धानं तिलं तथा दद्यात् धेनुं वापि पयस्विनीम् ॥
अन्यथा विफलं सर्वं कोटिपुरश्चरणेन किम् ।
कुमारी भोजनं येन त्रैलोक्यं तेन भोजितम् ॥
पूजनात् दर्शनात् तस्या रमणात ! स्पर्शनात् प्रिये ।
सर्वं संपूर्णमायाति साधको भक्तिमानसः ॥

भावार्थः ग्रुरु पूजा से दशांश पुरश्चरण संपन्न हो जाता है । अतः श्रद्धाभाव से गुरुपूजा अवश्य करनी चाहिए । पूजा के बाद गुरु को वस्त्र सहित स्वर्ण, धान (तिल) व दूध देनेवाली गाय का दान करना चाहिए । ऐसा न करने से सभी कृत्य निष्फल हो जाते हैं । फिर करोडों पुरश्चरण करने पर भी फलप्राप्ति नहीं होती । हे देवी ! साधना में कुमारी भोजन का भी महत्त्व है । जो साधक कुमारी भोजन कराता है उसे तीनों लोकों में फलरूप में भोजन मिलता है । कुमारी दर्शन भक्तिवत करने से साधक को सभी सिद्धियां हस्तगत होती हैं ।

पुरश्चरण संपन्नो वीर साधनमाचरेत् ।
यस्यानुष्ठान मात्रेण मंदभाग्योपि सिध्यति ॥

भावार्थः हे देवी! पुरश्चरण रीति से यदि मंदबुद्धि साधक भी साधना करता है तो वह सिद्धि प्राप्त कर लेता है ।

पुत्रदाराधनस्नेह लोभमोह विवर्जितः ।
मंत्रं वा साधयिष्यामि देहं वा पातयाम्यहम् ॥
एवं प्रतिज्ञामासाद्य गुरुमाराध्य यत्नतः ।
बलिदानादि सर्वं मानसैः परिपूज्य च ॥
शरत्‌काले महापूजा क्रियते या च वार्षिकी ।
तस्मिन् पक्षे विशेषेण पुरश्चरणमाचरेत् ॥
देव्या बोधं समारभ्य यावत् स्यात् नवमी तिथिः ।
प्रत्यहं प्रजपेन्मंत्रं सहस्रं भक्ति भावतः ॥
होमपूजादिकं चैव यथाशक्त्या विधिं चरेत् ॥
सप्तम्यादौ विशेषेण पूजयेदिष्ट देवताम् ।
अष्टम्यादि नवम्यंतमुपवासपरो भवेत् ॥
अष्टमी नममी रात्रौ पूजां कुर्जात् महोत्सवैः ।
इत्थं जपादिकं कुर्यात् साधकः स्थिरमानसः ॥

भावार्थः स्त्री, पुत्र, धन, स्नेह, लोभ, मोह सादि का त्याग कर साधक को प्रण करना चाहिए कि या तो वह सिद्धि प्राप्त करेगा अन्यथा शरीर त्याग देशा । ऐसी कठोर प्रतिज्ञा करके गुरु की साराधना, बलि आदि से सर्वतोभावेन मानस पूजा करनी चाहिए तथा उसी काल में विशेष रूप से पुरश्चरण भी करना चाहिए । देवी के बोधन से शुरू करके नवमी तक श्रद्धापूर्वक नित्य १००० बार इष्टदेव के मंत्र का जाप करना चाहिए । जाप के बाद सामर्थ्य के असुसार होम करते हुए सप्तमी आदि तिथियों में इष्टदेव की विशेष पूजा करनी चाहिए । अष्टमी से नवमी तक उपवास कर इन्हीं तिथियों में रात्रि को हर्षोल्लास से पूजा करनी चाहिए । फिर एकाग्र मन से जपादि करना चाहिए ।

शक्त्या सह वरारोहे कुमारी पूजनं चरेत् ।
दशम्यां पारणं कुर्यान्मत्स्या मांसादिभिः प्रिये ॥
एवं पुरस्क्रिया कृत्वा साधकः शिवतां व्रजेत् ।
अथवान्य प्रकारेण पुरश्चरणमुच्यते ॥
शरत्‌काले महादेव्या बोधने च महोत्सवे ।
प्रतिपत्तिथिमारभ्य नवम्यंतं मम प्रिये ॥
पूर्वोक्त विधिना मंत्री कुर्यात् पुरक्रियां धिया ॥
अथवान्य प्रकारेण पुरश्चरणमुच्यते ॥
शरत्काले चतुर्थ्यादि नवम्यंतं सहस्रकम् ।
जपित्वा प्रत्यहं भद्रे सप्तम्यादौ प्रपूजयेत् ॥
तथा सर्वोपचारैस्तु वस्त्रालंकार भूषणैः ।
महिषैश्छागलैर्मेषैश्चतुर्वर्गं लभेन्नरः ॥

भावार्थः हे पार्वती ! साधक को चाहिए कि वह सामर्थ्यानुसार कुमारी पूजन कर दशमी तिथि को मत्स्य (मछली) के मांस का भक्षण करे । जो साधक इस रीति से पुरश्चरण करता है वह शिव स्वरूप हो जाता है । एक अन्य पुरश्चरण यह है कि साधक शरतकाल में शारदीय पूजा महोत्सव (नवरात्र) में महादेवी की प्रतिपदा से नवमी तक पूर्व रीति से पूजा करे अथवा शरत्‌कालीन चतुर्थी से नवमी तक नित्य १००० मंत्र जपे । हे देवी ! सप्तमी, अष्टमी, नवमी को तो देवी की पूजा अवश्य ही करनी चाहिए । पूजा के बाद देवी को वस्त्र व अलंकारों से भूषित कर महिष (भैंसा), छाग (बकरा), मेष (मेढा) आदि से संतुष्ट करे तो साधक को धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति होती है ।

अष्टमी संधि बेलायां तेनैव विधिना पशुम् ।
छित्वा तस्योपरि स्थित्वा मध्यनक्तं जपेत् सुधिः ॥
विधिर्ध्यानपरो भूत्वा वांछितां सिद्धिमाप्नुयात् ।
नवम्यां नियतं जप्त्वा पूजयित्वा यथाविधि ॥

भावार्थः हे देवी ! अष्टमी तिथि को संध्याकाल में जो साधक पशु का वध करके मध्य रात्रि में उस पर आरूढ होकर मंत्र जाप करता है तथा नवमी तिथि को विधिवत पूजा कर इष्ट का अनवरत ध्यान करता है वह निश्चित ही अभीष्ट पाता है ।

गुरवे दक्षिणां दद्यात् दशम्यां पारयेत्ततः ।
एवं कृत्वा पुरश्चर्यां किं न साधयति साधकः ॥
अष्टमी संधि बेलायामष्टोत्तर लता गृहे ॥
प्रविश्य मंत्री विधिवत्तासामभ्यर्च्य यत्नतः ।
पूर्वोक्त कल्पमासाद्य पूजादिकमथाचरन् ॥
केवलं कामदेवो‍ऽसौ जपेदष्टोत्तरं शतम् ।
महासिद्धौ भवेत् सद्यो लता दर्शन पूजनात् ॥

भावार्थः गुरु को दक्षिणा से संतुष्ट कर दशमी तिथि को जो साधक भोजन पारण करता है वह वांछित फल पाता है । एक अन्य पुश्चरण विधि यह है कि अष्टमी तिथि की संध्या में साधक १०८ लताओं के गृह में जाकर लतागण (शक्ति) की पूर्वविधि से पूजा करे और साथ ही इष्टदेव के मंत्र का १०८ बार जाप करे तो वह कामदेव के समान हो जाता है । अथवा लतागण (शक्ति) के पूजन-दर्शन से साधक को महासिद्धि प्राप्त हो जाती है ।

लता गृहं श्रृणु प्रौढे कामकौतुक लालसे ।
अष्टौ संख्या अतिक्रम्य नव संख्यादि सांख्यिका ॥
यौवनादि गुणैर्युक्ताः साधिकाः काम गर्विता ।
स्त्रियो यत्र गृहे संति तद्‌गृहं हि लता गृहम् ॥

भावार्थः हे प्रौढे ! लतागृह किसे कहते हैं ? वह सुनो । आठ से अधिक नौ संख्या तक यौवन आदि गुणों से युक्त कामगर्विता साधिका ही लता कहलाती है और जहां यह साधिका रहती है वह लतागृह कहलाता है ।

अथवान्य प्रकारेण पुरश्चरणमुच्यते ।
पूर्वोक्तानि महेशानि हेमंतादि गतौ चरेत् ॥
साधकः पूर्णतां प्राप्त सर्व भोगेश्वरो भवेत् ॥
अथवान्य प्रकारेण पुरश्चरण मुच्यते ॥
चतुर्दशीं समारभ्य यावदन्या चतुर्दशी ।
तावज्जप्ते महेशानि मंत्री वांछितमाप्नुयात् ॥
अथवान्य प्रकारेण पुरश्चरणमुच्यते ।
कृष्णाष्टम्यां समारभ्य यावत् कृष्णाष्टमी भवेत् ॥
सहस्र संख्या जप्ते तु पुरश्चरणमिष्यते ।
यत् कृत्वा परमेशानि सिद्धिः स्यान्नात्र संशयः ॥

भावार्थः हे महेशानी ! अब एक और पुरश्चरण विधि बताता हूं । हेमंत ऋतु में पूर्व की भांति ही अनुष्ठान करने से सभी प्रकार के भोगों की प्राप्ति होति है । एक और पुरश्चरण यह है कि चतुर्दशी को जाप शुरू करके आनेवाली चतुर्दशी तक मंत्र जाप करने से भी मनोनुकूल फल मिलता है । कृष्णपक्ष की अष्टमी से अगले कृष्णपक्ष की अष्टमी तक अर्थात एक माह तक नित्य १००० मंत्र जपने से भी सभी प्रकार मी सिद्धियां प्राप्त होती हैं ।

अथवान्य प्रकारेण पुरश्चरणमुच्यते ।
कृष्णां चतुर्दशीं प्राप्य नवम्यंतं महोत्सवे ॥
अष्टमी नवमी रात्रौ पूजां कुर्याद्विशेषतः ।
दशम्यां पारणं कुर्यान्मत्स्य मांसादिभिः प्रिये ।
षट् सहस्रं जपेन्नित्यं भक्तिभाव परायणः ।

भावार्थः एक अन्य पुरश्चरण विधि यह है कि देवी पूजा काल में कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी से नवमी तिथि तक इष्टदेव का पूजन करना चाहिए । विशेष रूप से अष्टमी व नवमी तिथि की रात्रि में विशेष पूजा करनी चाहिए । फिर दशमी तिथि को मत्स्य (मछली) का मांस भक्षण करना चाहिए । इन दिनों (तिथियों) में नित्य श्रद्धा से ६००० मंत्र का जाप करना चाहिए ।

अथैवान्य प्रकारेण पुरश्चरण मुच्यते ।
अष्टम्यां च चतुर्दश्यां नवभ्यां वीरवंदिते ॥
सूर्योदयं समारभ्य यावत् सूर्योदयो भवेत् ।
तावज्जप्ते निरातंकः सर्व सिद्धिश्वरो भवेत् ॥
अथैवान्य प्रकारेण पुरश्चरण मुच्यते ॥
अष्टभ्याश्च चतुर्दश्यां पक्षयोरूभयोरपि ।
अस्तमारभ्य सूर्यस्य यावत् सुर्यास्तमं भवेत् ।
तावज्जप्तो निरातंकः सर्व सिद्धिश्वरो भवेत् ॥

भावार्थ – कुछ अन्य पुरश्चरण इस प्रकार हैं-अष्टमी, नवमी व चतुर्दशी तिथियों को सूर्योदय से दूसरे दिन सूर्योदय तक मंत्र का जाप करने से सभी प्रकार की सिद्धियां हस्तगत होती हैं । इसी प्रकार शुक्ल व कृष्णपक्ष की अष्टमी व चतुर्दशी तिथियों को सूर्यास्त से अगले दिन सूर्यास्त तक मंत्र जाप करने से भी सभी सिद्धियां मिलती हैं ।

अथवा निर्ज्जनस्थस्य अस्थिशय्यासनेन च ।
उदयांतं दिवा जप्त्वा सर्व सिद्धिश्वरो भवेत् ॥
तेनासनेन वा देवी अंतमारभ्य भास्वतः ।
जपित्वा चास्त पर्तंतं साधकः सिद्धिमाप्नुयात् ॥
जपान्ते पूजयित्वा च गुरवे दक्षिणां वदेत् ।
अथवान्य प्रकारेण पुरश्चरण मुच्यते ॥
सूर्योदयं समारभ्य घटिका च दश क्रमात् ।
ऋतवः स्युर्वसंताद्या अहोरात्रं दिने-दिने ॥
वसंतो ग्रीष्मो वर्षा च शरद्वेमन्त शिशिराः ।
वसंतश्चैव पूर्वान्हे ग्रीष्मो मध्यनंदिनं तथा ॥
अपरान्हे प्रावृषः स्युः प्रदोषे शरदाः स्मृताः ।
अर्धरात्रौ तु हेमंतः शेषे च शिशिरः स्मृतः ॥
सूर्योदयं समारभ्य वसंतांतं समाहितः ।
तावज्जप्ते महेशानि पुरश्चर्या हि सिद्धयति ॥
ततः पूजादिकं कृत्वा शक्तियुक्तश्च साधकः ।
गुरवे दक्षिणां दत्वा सर्व सिद्धिश्वरो भवेत् ॥

भावार्थः सूने स्थान (जहां एकांत हो) पर अस्थियों का आसन बनाकर सूर्योदय से सूर्यास्त तक जाप करने से भी सिद्धियां हस्तगत होती हैं । अथवा अस्थि-आसन पर पहले दिन सूर्यास्त से दूसरे दिन सूर्यास्त तक मंत्र का अनवरत जाप करने से भी साधक को सिद्धि प्राप्त होती है । साधक को चाहिए कि जाप के बाद वह गुरु को दक्षिणा देकर संतुष्ट करे । एक अन्य पुरश्चरण विधि यह है कि सूर्योदय से दस घटी (४ घंटे) तक वसंत ऋतु होती है । इसी क्रम से पूर्वान्ह में वसंत, मध्याह्न में ग्रीष्म, अपराह्न में वर्षा, प्रदोष में शरद् अर्द्धरात्रि में हेमंत व शेष रात्रि में शिशिर ऋतु माननी चाहिए । इस तरह सूर्योदय से वसंत समाप्त होने तक साधक जाप करे तो पुरश्चरण सफल रहता है । इसके बाद सामर्थ्यानुसार पूजा कर गुरु को दक्षिणा से संतुष्ट करने पर सभी सिद्धियां हस्तगत होती हैं ।

अथवान्य प्रकारेण पुरश्चरणमुच्यते ।
ग्रीष्मादिषु महेशानि पंचस्वर्त्तषु साधकः ।
पृथग् जप्त्वा वरारोहे पुरश्चर्या हि सिध्यति ॥

भावार्थः हे सुमुखी ! कोई साधक यदि ग्रीष्म आदि पांच ऋतुओं में अलग-अलग जाप करता है तो पुरश्चरण सफल रहता है ।

पूर्वोक्त विधिना सर्वं कर्त्तव्यं वीर वंदिते ।
ऋतौ जप्त्वा समस्ते तु शक्तितः पूजयेत् पराम् ॥
एवमांचार्य कृत्यं वै धनानामीश्वरो भवेत् ॥
अथवान्य प्रकारेण पुरश्चरण मुच्यते ।
कुमारी पूजनादेव पुरश्चर्यां विधि स्मृतः ॥

भावार्थः हे वीरवंदिनी ! पूर्व विधि के अनुसार सारे कर्म करने चाहिए । सभी ऋतुओं में (हर दिन में प्रत्येक चार घंटे के बाद ऋतु परिवर्तन होता है) श्रद्धानुसार देवी की पूजा करनी चाहिए । जो साधक इस तरह अनुष्ठान संपन्न करता है वह धनपति होता है अथवा मात्र कुमारी पूजा भी पुरश्चरण का प्रतिफल मिलता है ।

अथवान्य प्रकारेण पुरश्चरणमुच्यते ।
गुरुमानीय संस्थाप्य देववत् पूजयेद्विभुम् ।
वस्त्रालंकार भूषाद्यैः स्वयं संतोषयेद् गुरुम् ॥
तत्सुतं तत्सुतं वापि तत्पत्निं च विशेषतः ।
पूजयित्वा मनुं जप्त्वा सर्वं सिद्धिश्वरो भवेत् ॥

भावार्थः हे देवी ! पुरश्चरण की एक अन्य विधि यह है कि गुरु को सम्मुख आसन देकर देवतांओं की भांति उसकी पूजा कर वस्त्र, आभूषण, अलंकारादि से संतुष्ट करना चाहिए । अथवा गुरु पुत्र या पौत्र अथवा विशेषकर गुरुपत्नी की पूजा करनी चाहिए । पूजनोपरांत मंत्र जपने से अवश्य ही सिद्धि सुलभ होती है ।

गुरु संतोष मात्रेण दुष्ट मंत्रोऽपि सिद्धयति ।
मासि-मासि च मंत्रस्य संस्कारान् दशधा चरेत् ॥
एवं क्रम विधानेन कृत्वा नित्यं हि साधकः ।
षण्मासाभ्यंतरे वापि एक वर्षांतरेऽपि वा ॥
साधनैःअ सुभगे भद्रे यदि सिद्धिर्न जायते ।
उपायास्तत्र कर्त्तव्याः सत्ययेतन्मतं श्रृणु ॥

भावार्थः हे देवी ! गुरु की संतुष्टि से अनेक दुष्ट या क्रूर मंत्र भी सिद्ध हो जाते हैं । प्रत्येक मास में मंत्र का दशधा (यथा जीवन, जनन, बोधन, ताडन, विमलीकरण, अभिषेक, आप्यायन, तर्पण, गुप्ति व दीपन) संस्कार भी करना चाहिए । इस रीति से साधना करने से छह मास या एक वर्ष में सिद्धि मिल जाती है, हे प्राणप्रिये ! अब उस उपाय को सुनो ।

ख्यातिर्वाहन भूषादि लाभः सुचिर जीविता ।
नृपाणां तत् कुलानां च वात्सल्यं लोक वश्यता ॥
महर्द्यैंश्वर्य नित्यं च पुत्र-पौत्रादि संपदः ।
अधमा सिद्धयो भद्रे षण्मासाभ्यंतरे यदि ॥
एक वर्षांतरे वापि संति शंकर वंदिते ।
साधकाश्च तदा सिद्धा नात्र कार्या विचारणा ॥
अत्रोपायान् प्रवक्ष्यामि यदि सिद्धि विलम्बनम् ।
भ्रमणं बोधनं वश्यं पीडनश्च तथा प्रिये ॥
पोषणं तोषणं चैव दहनं च ततः परम् ।
उपायः संति सप्तैते कृत्वा त्रेता युगेषु च ॥

भावार्थः  प्रसिद्धि, वाहन, भूषण, लाभ, चिरायु, राजा, राजा की कृपा से लाभ, सभी लोकों का वशीकरण, महान ऐश्वर्य की उपलब्धि, पुत्र-पौत्रादि, संपत्ति आदि के लाभ को अधम सिद्धियां कहते हैं । ये छह मास या एक वर्ष में प्राप्त हो जाती है । यदि इस काल में ही ये सिद्धियां प्राप्त हो जाएं तभी साधक की सार्थकता है । इसके अतिरिक्त यदि सिद्धि प्राप्ति मेम विलंब होता है तब त्रेता युग के लिए भ्रामण, बोधन, वश्य, पीडन, पोषण, तोषण, दहनादि उपाय बताए गए हैं ।

द्वापरे च तथा भद्र उपायं सप्तमं स्मृतम् ।
न प्रशस्तं कलौ भद्रे सप्त शंकर भाषितम् ॥
डाकिन्यादि युतं कृत्वा लक्षं च प्रजपेन्मनुम् ॥
डाकिनी पुटिंत कृत्वा यदि सिद्धिर्न जायते ।
राकिनी पुटिंत कृत्वा लक्षं च प्रजपेन्मनूम् ॥
राकिनी पुटिंत कृत्वा यदि सिद्धिर्न जायते ।
लाकिनी पुटिंत कृत्वा लक्षं च प्रजपेन्मनूम् ॥
लाकिनी पुटिंत कृत्वा यदि सिद्धिर्न जायते ।
काकिनी पुटिंत कृत्वा लक्षं च प्रजपेन्मनूम् ॥
काकिनी पुटिंत कृत्वा यदि सिद्धिर्न जायते ।
शाकिनी पुटिंत कृत्वा लक्षं च प्रजपेन्मनूम् ॥
हाकिनी पुटिंत कृत्वा जपेल्लक्षं समाहितः ।
तदा सिद्धौ भवेन्मंत्रो नात कार्या विचारणा ॥
हाकिनी पुटित कृत्वा यदि सिद्धिर्न जायते ।
पुटितं सत्वरूपिण्या लक्षं च प्रजपेन्मनूम् ॥
पुटिंत सत्वरूपिण्या यदि सिद्धिर्न जायते ।
ककारादि क्षकारांता मातृका वर्ण रूपिणी ॥
तथा संपुटितं कृत्वा लक्षं च प्रजपेन्मनूम् ।
छिन्न-विद्यादयो मंत्रातंत्रे तंत्रे निरूपिताः ॥

भावार्थः हे देवी ! यही उपाय द्वापर में भी किए जाने चाहिए । लेकिन कलियुग में इन उपायों का औचित्य नहीं है । ऐसा मेरा (शिव) का मत है । तब डाकिनी आदि का एक लाख बार जाप करना चाहिए । यदि तब भी सिद्धिन मिले तो राकिनी का एक लाख बार जाप करना चाहिए । राकिनी से पुटित मंत्र से भी सिद्धि न मिले तो लाकिनी, काकिनी, शाकिनी आदि का लाख-लाख बार जाप करना चाहिए । शाकिनी के मंत्र का जाप एक लाख बार जपे या फिर डाकिनी का मंत्र एक लाख बार जपे तो सिद्धि अवश्य मिलती है । यदि इतने पर भी सिद्धि न मिले तब सत्वरूपिणी देवी के मंत्र का एक लाख बार जाप करना चाहिए । यदि इससे भी सिद्धि न मिले तो क से क्ष तक वर्णरूपिणी मातृका के मंत्र का एक लाख बार जाप करना चाहिए । छिन्न विद्या आदि मंत्रों को सभी तंतों ने एक स्वर से स्वीकार किया है ।

एते ते सिद्धि मायांति मातृकावर्ण भावतः ।
निश्चितं मंत्रसिद्धि स्यानात्र कार्या विचारणा ॥
वर्णमयी पुटीकृत्य यदि सिद्धिर्न जायते ॥
ततो गुरुं पुटीकृत्य लक्षं च संजपेन्मनूम् ।
गुरुदेव प्रसादेन अतुलां सिद्धिमान्प्नुयात् ॥

भावार्थः हे देवी ! मातृका से युक्त मंत्रों से विविध सिद्धियां मिलती हैं तथा मंत्र की सिद्धि भी होती है । वर्णरूपिणी मातृका युक्त जाप से भी यदि सिद्धि प्राप्त न हो तो गुरुबीज से युक्त मंत्र का एक लाख बार जाप करना चाहिए । ऐसा करने से ग्रुरुकृपा से अतुलनीय सिद्धियां प्राप्त होती हैं ।

विशेष सुचना

( जो भी मंत्र तंत्र टोटका इत्यादि ब्लॉग में दिए गए है वे केवल सूचनार्थ ही है, अगर साधना करनी है तो वो पूर्ण जानकार गुरु के निर्देशन में ही करने से लाभदायक होंगे, किसी भी नुक्सान हानि के लिए प्रकाशक व लेखक जिम्मेदार नहीं होगा। )