नाग देवता
दक्षिणा 2100 /- ज्योतिष तंत्र मंत्र यंत्र टोटका वास्तु कुंडली हस्त रेखा राशि रत्न,भूत प्रेत जिन जिन्नात बुरे गंदे सपने का आना, कोर्ट केस, लव मैरिज, डाइवोर्स, वशीकरण पितृ दोष कालसर्प दोष चंडाल दोष गृह क्लेश बिजनस विदेश यात्रा, अप्सरा परी साधना, अघोर साधनायें , समशान तांत्रिक साधनायें, सास बहु, सास ससुर, पति पत्नी, जेठ जेठानी, देवर देवरानी, नन्द नन्दोई, साला साली, सभी झगड़े विवाद का हल व वशीकरण कार्य किया जाता हैनाग देवता का धर्मग्रंथों में उल्लेख
धर्मग्रन्थों में नाग को देवता माना गया है और इनका विभिन्न जगहों पर उल्लेख भी किया गया है। हिन्दू धर्म में कालिया, शेषनाग, कद्रू (साँपों की माता) पिलीवा आदि बहुत प्रसिद्ध हैं।
कथाओं के अनुसार दक्ष प्रजापति की पुत्री तथा कश्यप ऋषि (जिनके नाम से कश्यप गोत्र चला) की पत्नी ‘कद्रू’ नाग माता के रूप में आदरणीय रही हैं। कद्रू को सुरसा के नाम से भी जाना जाता है।
गोस्वामी तुलसीदास की श्रीरामचरितमानस के अनुसार जब हनुमानजी समुद्र पार कर रहे थे, तब देवताओं ने उनकी शक्ति की परख करने की इच्छा से नागमाता ‘सुरसा’ को भेजा था। बल-बुद्धि का परिचय देकर हनुमानजी उनके मुख में प्रवेश कर कान की ओर से बाहर आ गए थे।
पहले हनुमानजी और सुरसा ने अपना-अपना शरीर विराट कर लिया था। तब हनुमानजी ने लघु रूप धारण कर सुरसा को संतुष्ट किया था।
महाभारत में एक ऋषि आस्तीक का नाम भी सर्प कथा से जुड़ा है। आस्तीक ने जनमेजय के सर्पयज्ञ में पातालवासी तक्षक सर्प को भस्म होने से बचाया था। ये ऋषि वासुकी नाग की बहन जरत्कारू की संतान थे। इसलिए ऐसा माना जाता है कि ‘आस्ती, आस्ती पुकारने से सर्प क्रोध शांत हो जाता है।’
वैज्ञानिक भी इस तर्क को स्वीकार करते हैं कि कंपन की गूँज से साँप प्रभावित होता है इसलिए संगीत की लय पर सर्प थिरकता है। बृहदारण्यक उपनिषद् में भी नागों का उल्लेख मिलता है।
नागपूजा या सर्पपूजा किसी न किसी रूप में विश्व में सब जगह की जाती है। दक्षिण अफ्रीका में कई जातियों में नाग को कुलदेवता के रूप में पूजा जाता है। ऐसा समझा जाता है कि कुल की रक्षा का भार सर्पदेव पर है।
कई जातियों ने नाग को अपना धर्मचिह्न स्वीकार किया है। सर्प का वध करना घोर पाप समझा जाता है। ऐसा भी मान्यता है कि पूर्वज सर्प के रूप में अवतरित होते हैं।
शिव की आराधना भी नागपंचमी के पूजन से जुड़ी है। पशुओं के पालनहार होने की वजह से शिव की पूजा पशुपतिनाथ के रूप में भी की जाती है। शिव की आराधना करने वालों को पशुओं के साथ सहृदयता का बर्ताव करना जरूरी है।
उत्तरप्रदेश के अनेक भागों में नागपंचमी का पर्व शिव के ‘रिखेश्वर स्वरूप’ की पूजा के रूप में मनाया जाता है। शिव ने नाग को धारण किया है और समुद्र मंथन के दौरान जब विष निकला था तब उस कालकूट का उन्होंने पान किया था, जो उनके गले में ही अटक गया था। इसलिए उन्हें नीलकंठ नाम से भी पूजते हैं।
विषपान करने वाला ही मृत्युंजय हो सकता है। इसलिए शिव में सच्चिदानंद का स्वरूप प्रकट है। इसलिए नागपूजा और नागपंचमी विशेष रूप से शिव से और विष्णु से भी जुड़ी है।
सर्पों की माताओं में सुरसा के साथ मनसा माता का भी नाम आता है। भारत के अनेक हिस्सों में मनसा माता के मंदिर बने हुए। जहाँ इनकी आराधना होती है और नागपंचमी को मेले भी लगते हैं। इन्हें शक्ति के रूप में भी पूजा जाता है। ये ‘मनसा मंगल’ के नाम से भी विख्यात हैं। ऐसी मान्यता है कि इनकी पूजा से सर्पों का क्रोध शांत हो जाता है और कोई जनहानि नहीं होती है।
जिस तरह से सोमवार, एकादशी व अन्य व्रत रखे जाते हैं, उसी तरह कार्तिक शुक्ल चतुर्थी को नागव्रत रखने का भी शास्त्रों में उल्लेख है। इस दिन निराहार रहकर व्रत किया जाता है। अलग-अलग नागों का पूजन किया जाता है।
अनेक स्थानों पर नागमूर्तियों का भी पंचामृत से पूजन किया जाता है। मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी को नागपूजा का अनुष्ठान होता है। पुराणों में जितने भी प्रकार के सर्पों का उल्लेख है, विशेष रूप से वासुकी, तक्षक, मणिभद्र, धृतराष्ट्र, कार्कोटक, धनंजय आदिसर्पों को दूध से स्नान कराया जाता है या इनकी प्रतिमा की पूजा की जाती है।
यदि वर्षभर पूजा न भी हो पाए तो नागपूजन की तिथि के दिन नागों की पूजा करने से सभी दिन पूजन के बराबर फल मिलता है।
इतने विशाल पैमाने पर विश्व में नागपूजा होने के बावजूद नागों की कई नस्लें विनाश की कगार पर हैं। नागरक्षा के बारे में पर्यावरणवादियों ने निश्चित ही जनजागरण किया है परंतु यदि हम एक दिन नाग की पूजा करें और बाकी तीन सौ चौंसठ दिन नाग को मारें तो हमारी पूजा भी व्यर्थ है।
कृषि पंडित नागों को खेती के लिए उपयोगी मानते हैं। धर्म सही मायने में तभी फलदायी होता है जबकि उसके प्रति वैज्ञानिक रवैया अपनाया जाए और नागपूजा के साथ नागरक्षा के प्रति भी हम वचनबद्ध रहें।
पूज्य नागदेवता
सूर्य, गौ, वृक्ष, नदी की तरह सर्प भी प्रत्यक्ष देवता हैं। प्राय: बाकी देवता जिनकी परिकल्पना हमारे शास्त्रों ने की है उनका स्वरूप कल्पित है किंतु सर्प साक्षात दर्शन देते हैं। जल की भांति सर्प की उपस्थिति धरती से आकाश तक स्वीकारी गई है। संभवत: पूरी सृष्टि पर एकमात्र सर्प ही हैं जो जल, थल, वृक्ष, झाड़ियों, पहाड़ों, बर्फ, बिल, खेत आदि हर स्थान पर अपना अस्तित्व सिद्ध करते हैं। इतिहास में नाग राजाओं का उल्लेख है तो पुराणों में नाग कन्याओं से कई नायकों-प्रतिनायकों के विवाह या प्रेम संबंधों की चर्चा आती है। नागों का लोक पाताल माना गया है।
इतिहास और पुराण सहित धर्म की सभी धाराओं तथा ज्ञान की शाखाओं में सर्प की चर्चा किसी न किसी रूप में उपलब्ध है जो सर्पो की चिरकालिकता को प्रदर्शित करती है। यही कारण है कि सर्प प्रारंभ से पूजनीय माने गए हैं और उनकी पूजा के निमित्त भारतीय मनीषा में श्रावण शुक्ल पंचमी का दिन निश्चित किया गया है। पौराणिक, ऐतिहासिक संदर्भो के साथ सर्प के रहस्यमय शारीरिक स्वरूप और उसकी विषधारी वृत्ति ने कालांतर में कई लौकिक-अलौकिक, रहस्य-इंद्रजाल से भरी कथाओं को जन्म दिया और लोकमानस में सर्प के प्रति एक अजीब से भय को भी स्थापित कर दिया। परिणाम यह कि आज भी सर्प हमारे लिए भय, आश्चर्य और रहस्य का केंद्र बने हुए हैं। इसीलिए धर्मालु भारतीय सर्प की पूजा कर उसके संभावित क्रोध से मुक्ति के उपाय खोजते हैं।
श्रावण शुक्ल पंचमी को नागपंचमी के रूप में सर्प की पूजा के पीछे हमारी अर्थव्यवस्था का दर्शन भी जुड़ा हुआ है। ये दिन बारिश के होते हैं और इसी दौरान खेतों में काम चलता है। आषाढ़ की रिमझिम वर्षा धरती को भिगों पाती है लेकिन जब श्रावण में वर्षा अपना रंग दिखाती है और सर्प के बिल पानी से भर जाते हैं तब सर्प बिल से निकलकर खेतों में आ जाते हैं। तब हमारे सामने दो विकल्प होते हैं – भयभीत होकर सर्प को मार दिया जाए या बड़ी होती फसल की कीटों-चूहों से रक्षा के लिए उसे पर्यावरण का एक अभिन्न अंग स्वीकार कर छोड़ दिया जाए। भारतीय दूसरा विकल्प स्वीकारते हैं और सर्प की पूजा कर उसे अपना मित्र बना लेते हैं। इसीलिए इन्हीं दिनों सर्प की पूजा पंचमी के बहाने की जाती है।
जहां तक ज्योतिष का प्रश्न है, सर्प यहां भी उपस्थित हैं। नवग्रहों में राहु के दोष से पीड़ित सर्प का पूजन करते हैं। ज्योतिष कहता है कि हर ग्रह के दो देवता होते हैं। उदाहरणार्थ सूर्य के अधिदेवता ईश्वर हैं और प्रतिदेवता अग्नि। ठीक इसी तरह राहु के अधिदेवता काल और प्रतिदेवता सर्प माने गए हैं। यही कारण है कि जिन लोगों की कुंडली में राहु के दोष होता है उन्हें अधिदेवता काल और प्रतिदेवता सर्प की पूजा कर कालसर्प दोष को दूर करने का उपाय करना पड़ता है। राहु दोष में जिस कालसर्पदोष की चर्चा है उसका आशय है कि यदि वह दोष है तो मनुष्य का स्वभाव चंचल हो जाता है। यानी उसके कार्य विघ्न वाले होते हैं और उसकी निर्णय क्षमता प्रभावित होती है। कहते हैं यदि किसी की कुंडली में कोई दोष हो तो उसे साक्षात ब्रrा भी दूर नहीं कर सकते, किंतु उपायों के माध्यम से उसका शमन अवश्य किया जा सकता है। आशय है कि ज्योतिष में सर्प है। राहु के साथ भी और नक्षत्रों के संदर्भ में भी। 27 नक्षत्रों में अश्लेषा नक्षत्र के देवता के रूप में भी सर्प उपस्थिति दर्ज कराते हैं। अश्लेषा का स्वामी सर्प ही माना गया है। ठीक इसी तरह बारिश के दिनों में सूर्य जब रोहिणी से हस्त नक्षत्र के बीच गमन करता है तो इन नक्षत्रों में एक का वाहन सर्प भी होता है और इन्हीं वाहनों से ज्योतिषी वर्षा का होना, न होना, कम या ज्यादा होना आदि का आकलन करते हैं।
इतिहास, पुराण, वास्तु, धर्म, ज्योतिष आदि के संदर्भ भले किसी ठोस वैज्ञानिक आधार के साथ सर्प के स्वरूप, स्वभाव पर फोकस न करें, लेकिन नागपंचमी को सर्पपूजन की परंपरा उसके प्रति आस्था और उसे अपने प्राकृतिक मित्र समझने की परंपरा के पीछे ठोस आधार अवश्य हैं और वह यह कि सर्प भी इस सृष्टि की प्राणी हैं और सृष्टि के सौदंर्य का अंग। हम लाठी उठाएं तो वह शत्रु हैं और शीश झुकाए तो मित्र, देवता। बेहतर होगा हम उसे मित्र मानकर देवता के आसन पर ही रखकर पूजे।
प्रमुख पूज्यनीय नाग देवता
प्राचीन काल से ही भारत में नाग पूजा की परंपरा रही है। माना जाता है कि 3000 ईसा पूर्व आर्य काल में भारत में नागवंशियों के कबीले रहा करते थे, जो सर्प की पूजा करते थे। उनके देवता सर्प थे। यही कारण रहा कि प्रमुख नाग वंशों के नाम पर ही जमीन पर रेंगने वाले नागों के नाम है।
पुराणों अनुसार कश्मीर में कश्यप ऋषि का राज था। कश्यप ऋषि की पत्नि कद्रू से उन्हें आठ पुत्र मिले जिनके नाम क्रमश: इस प्रकार हैं- 1. अनंत (शेष), 2. वासुकी, 3. तक्षक, 4. कर्कोटक, 5. पद्म, 6. महापद्म, 7. शंख और 8. कुलिक। कश्मीर का अनंतनाग इलाका अनंतनाग समुदायों का गढ़ था उसी तरह कश्मीर के बहुत सारे अन्य इलाके भी दूसरे पुत्रों के अधिन थे।
कुछ पुराणों अनुसार नागों के प्रमुख पाँच कुल थे- अनंत, वासुकी, तक्षक, कर्कोटक और पिंगला। कुछ पुराणों के अनुसार नागों के अष्टकुल क्रमश: इस प्रकार हैं:- वासुकी, तक्षक, कुलक, कर्कोटक, पद्म, शंख, चूड़, महापद्म और धनंजय।
अग्निपुराण में 80 प्रकार के नाग कुलों का वर्णन है, जिसमें वासुकी, तक्षक, पद्म, महापद्म प्रसिद्ध हैं। नागों का पृथक नागलोक पुराणों में बताया गया है। अनादिकाल से ही नागों का अस्तित्व देवी-देवताओं के साथ वर्णित है। जैन, बौद्ध देवताओं के सिर पर भी शेष छत्र होता है। असम, नागालैंड, मणिपुर, केरल और आंध्रप्रदेश में नागा जातियों का वर्चस्व रहा है।
भारत में उपरोक्त आठों के कुल का ही क्रमश: विस्तार हुआ जिनमें निम्न नागवंशी रहे हैं- नल, कवर्धा, फणि-नाग, भोगिन, सदाचंद्र, धनधर्मा, भूतनंदि, शिशुनंदि या यशनंदि तनक, तुश्त, ऐरावत, धृतराष्ट्र, अहि, मणिभद्र, अलापत्र, कम्बल, अंशतर, धनंजय, कालिया, सौंफू, दौद्धिया, काली, तखतू, धूमल, फाहल, काना, गुलिका, सरकोटा इत्यादी नाम के नाग वंश हैं।
यहाँ प्रस्तुत है प्रमुख नागों का परिचय
1. शेषनाग :
शेषनाग के बारे में कहा जाता है कि इसी के फन पर धरती टिकी हुई है यह पाताल लोक में ही रहता है। चित्रों में अक्सर हिंदू देवता भगवान विष्णु को शेषनाग पर लेटे हुए चित्रित किया गया है। मान्यता है कि शेषनाग के हजार मस्तक हैं। दो मुँह वाला सर्प तो आम बात हैं। हाल ही में एक खबर छपी थी कि हैदराबाद में पाँच मुँह वाला सर्प देखा गया जिसके देश भर में चित्र जारी किए गए थे।
शेष को ही अनंत कहा जाता है ये कद्रू के बेटों में सबसे पराक्रमी और प्रथम नागराज थे। कश्मीर के अनंतनाग जिला इनका गढ़ था।
2. वासुकी :
नागों के दूसरे राजा वासुकी का इलाका कैलाश पर्वत के आसपास का क्षेत्र था। पुराणों अनुसार वासुकी नाग अत्यंत ही विशाल और लंबे शरीर वाले माने जाते हैं। समुद्र मंथन के दौरान देव और दानवों ने मंदराचल पर्वत को मथनी तथा वासुकी को ही नेती (रस्सी) बनाया था।
3. तक्षक : तक्षक ने शमीक मुनि के शाप के आधार पर राजा परीक्षित को डंसा था। उसके बाद परीक्षित के पुत्र जनमेजय ने नाग जाति का नाश करने के लिए नाग यज्ञ करवाया था। माना जाता है कि तक्षक का राज तक्षशिला में था।
4. कर्कोटक : कर्कोटक और ऐरावत नाग कुल का इलाका पंजाब की इरावती नदी के आसपास का माना जाता है। कर्कोटक शिव के एक गण और नागों के राजा थे। नारद के शाप से वे एक अग्नि में पड़े थे, लेकिन नल ने उन्हें बचाया और कर्कोटक ने नल को डस लिया, जिससे राजा नल का रंग काला पड़ गया। लेकिन यह भी एक शाप के चलते ही हुआ तब राजा नल को कर्कोटक वरदान देकर अंतर्ध्यान हो गए।
शिवजी की स्तुति के कारण कर्कोटक जनमेजय के नाग यज्ञ से बच निकले थे और उज्जैन में उन्होंने शिव की घोर तपस्या की थी। कर्कोटेश्वर का एक प्राचीन उपेक्षित मंदिर आज भी चौबीस खम्भा देवी के पास कोट मोहल्ले में है। वर्तमान में कर्कोटेश्वर मंदिर हरसिद्धि के प्रांगण में है।
5. पद्म : पद्म नागों का गोमती नदी के पास के नेमिश नामक क्षेत्र पर शासन था। बाद में ये मणिपुर में बस गए थे। असम के नागावंशी इन्हीं के वंश से है।
6. महापद्म,
7. शंख
8. कुलिक नामक नागों के कुल का उल्लेख भी मिलता है। उक्त सभी के मंदिर भारत के प्रमुख तीर्थ स्थानों पर पाए जाते हैं
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