Monday, August 12, 2019

परिक्रमा-प्रदक्षिणा

परिक्रमा-प्रदक्षिणा


ईश्वर पूजा में अगाध श्रद्धा होनी चाहिये। श्रद्धारहित पूजा-अर्चना एवं परिक्रमा सदैव निष्फल हो जाती है। श्रद्धा का ही चमत्कार था, जिसके बल पर श्रीगणेशजीने सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को शिव स्वरूप और माता को शक्ति रूप मानकर अपने ही माता-पिता की परिक्रमा कर भगवान शिव एवं माता पार्वती से सर्वप्रथम पूजेजाने का आशीर्वाद प्राप्त किया।

प्रदक्षिणा या परिक्रमा करने का मूल भाव स्वयं को शारीरिक तथा मानसिक रूप से भगवान के समक्ष पूर्णरूप से समर्पित कर देना होता है।

भारतीय संस्कृति में परिक्रमा या प्रदक्षिणा का अपना एक विशेष महत्व एवं स्थान है। परिक्रमा से अभिप्राय है कि स्थान या किसी व्यक्ति के चारों ओर उसके बांयी तरफ से घूमना। इसे ही प्रदक्षिणा कहते हैं। यह हमारी संस्कृति में अतिप्राचीन काल से चली आ रही है। खानाए काबा मक्का में परिक्रमा करते हैं, बोध गया में भी परिक्रमा की परम्परा आज भी यथावत है। विश्व के सभी धर्मों में परिक्रमा का प्रचलन हिन्दू धर्म की देन है।

‘‘प्रगतं दक्षिणमिति प्रदक्षिणां’’ इसका अर्थ है कि अपने दक्षिण भाग की ओर गति करना प्रदक्षिणा कहलाता है। प्रदक्षिणा (परिक्रमा) में व्यक्ति का दाहिना अंग देवता की ओर होता है। इसे ही परिक्रमा या प्रदक्षिणा कहा जाता है। ‘शब्दकल्पद्रुम’ में बताया गया है कि देवता को श्रद्धा-आस्था एवं उद्देश्य से दक्षिणावर्त भ्रमण करना ही प्रदक्षिणा है। वैदिक दार्शनिकों-विचारकों के अनुसार अपने धार्मिक कृत्यों को बाधा-विघ्नविहीन भाव से सम्पादित करने के लिये प्रदक्षिणा का विधान किया गया है।

परिक्रमा करने का व्यावहारिक और वैज्ञानिक पक्ष वास्तु और वातावरण में व्याप्त सकारात्मक ऊर्जा से जुड़़ा है। वास्तव में ईश्वर की पूजा-अर्चना, आरती के पश्चात् भगवान के उनके आसपास के वातावरण में चारों ओर सकारात्मक ऊर्जा का विकास होता है और नकारात्मकता घटती है। इससे हमारे हृदय में पूर्ण आत्मविश्वास का संचार होता है तथा जीवेष्णा में वृद्धि होती है।
परिक्रमा का धार्मिक पहलू यह है कि इससे अक्षय पुण्य प्राप्त होता है। जीवन में कष्ट-दुःख का निवारण हो जाता है। पापों का नाश हो जाता है।

किसी भी देव की परिक्रमा या प्रदक्षिणा करने पर अश्वमेघ यज्ञ का फल प्राप्त होता है। परिक्रमा से शीघ्र ही मनवांछित मनोकामना पूर्ण हो जाती है। परिक्रमा प्रारम्भ करने के पश्चात् बीच में रूकना निषेध है। परिक्रमा वहीं पूर्ण करें जहाँ से प्रारम्भ की गई थी। परिक्रमा करते समय आपस में वार्तालाप नहीं करना चाहिये। जिस देवता की आप परिक्रमा कर रहें हैं उनका ध्यान करें तभी आपको परिक्रमा का शीघ्र मनोवांछित फल प्राप्त होगा। परिक्रमा पूर्ण हो जाने पर भगवान को दण्डवत प्रणाम करें।
परिक्रमा करते समय देव पीठ को प्रणाम करना चाहिये। परिक्रमा का पूरे ब्रह्माण्ड के लिये भी विशेष महत्व है। पृथ्वी सूर्य के चारों ओर परिक्रमा करती है, इसलिये ऋतुएँ आती-जाती हैं। ब्रह्माण्ड के अन्य ग्रह भी अपने-अपने पथ (कक्षा) पर परिक्रमा करते हैं और पूरी व्यवस्था का एक सन्तुलन बना रहता है। इसी प्रकार देव मंदिरों के दर्शन करने के बाद परिक्रमा का विधान है। इससे मानव मन एवं हृदय देवत्व से जुड़ जाता है और जीवन में परम् पिता परमेश्वर की कृपा का संचार होने लगता है। परिक्रमा से मन पवित्र हो जाता है। विकार नष्ट हो जाते हैं। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का प्रत्येक ग्रह-नक्षत्र किसी न किसी तारे की परिक्रमा कर रहा है। यह परिक्रमा ही जीवन का शाश्वत सत्य है। व्यक्ति का सम्पूर्ण जीवन ही एक चक्र है। इस चक्र को आसानी से समझने के लिए परिक्रमा जैसे प्रतीक को निर्मित किया गया है। भगवान में ही सारी सृष्टि समाई है, उनसे ही सब उत्पन्न हुए हैं, हम उनकी परिक्रमा लगाकर यह मान सकते हैं कि हमने सम्पूर्ण सृष्टि की परिक्रमा कर ली है।

प्रदक्षिणा या परिक्रमा का एक ओर रूप
प्रायः प्रदक्षिणा या परिक्रमा किसी भी देवमूर्ति के चारों ओर घूमकर की जाती है लेकिन कभी-कभी देवमूर्ति की पीठ दीवार की ओर रहने से प्रदक्षिणा के लिये फेरे लेने की जगह पर्याप्त नहीं होती है। हमारे घरों में भी पूजन करते समय देवमूर्ति की स्थापना किसी दीवार के सहारे से ही की जाती है। ऐसी दशा में देवमूर्ति के ही समक्ष अर्थात् आप जहाँ खड़े हैं वहीं दांयी तरफ से गोल घूमकर अपने खड़े रहने के स्थान पर भी परिक्रमा या प्रदक्षिणा कर लेना चाहिये। ऐसी परिक्रमा का फल भी मंदिर की पूरी की गई परिक्रमा के बराबर होता है।

परिक्रमा का मंत्र 
यानि कानि च पापानि जन्मांतर कृतानि च।
तानि सवार्णि नश्यन्तु प्रदक्षिणे पदे-पदे।।

इसका तात्पर्य यह है कि हे ईश्वर हमसे जाने अनजाने में किये गये और जन्मों के भी सारे पाप प्रदक्षिणा के साथ-साथ नष्ट हो जाए। हे ईश्वर मुझे सद्बुद्धि प्रदान करें। परिक्रमा के समय हाथ में रखे पुष्पों को ईश्वर से क्षमा मांग कर मंत्रपुष्पांजलि मंत्र बोलकर देव मूर्ति को समर्पित कर देना चाहिये।

किस देव मंदिर में कितनी परिक्रमा करें 
विघ्नहर्ता श्री गणेशजी की तीन परिक्रमा करनी चाहिये, जिससे गणेशजी भक्त को रिद्धि-सिद्धि सहित समृद्धि का वर देते हैं

सृष्टि पालनकर्ता भगवान विष्णु सभी सुखों के दाता है अतः शास्त्रों में उनकी चार परिक्रमा पर्याप्त मानी गई है। वे इससे प्रसन्न हो जाते हैं।

माँ भगवती जो पूरे जगत की जीवनदायिनी शक्ति हैं, उनके मंदिर में एक परिक्रमा का विधान है। माँ एक परिक्रमा से ही प्रसन्न हो जाती है। ऐसा संक्षिप्त नारदपुराण (कल्याण) पूर्वभाग-प्रथम भाग पृष्ठ 23 पर उल्लेख है।

पवनपुत्र हनुमानजी हर समय पद-पद पर अपने भक्तों का विशेष ध्यान रखकर सहायता करते हैं, इनके मंदिर की तीन परिक्रमा करनी चाहिये। इतना करने पर वे प्रसन्न हो जाते हैं तथा संकट-पाप नष्ट हो जाते हैं।

सूर्य मंदिर में सात परिक्रमा करना चाहिये। इससे तेज बढ़ता है तथा ऊर्जा का संचार होता है।

भगवान शिव तो आशुतोष हैं अर्थात् थोड़ी से प्रार्थना करने पर प्रसन्न हो जाते है। हमारे शास्त्रों में उल्लेख है कि शिवलिंग की पूजा के दौरान भगवान को जल चढ़ाया जाता है तथा जल जिस स्थान पर गिरता है, उसे पैरों से लांघना नहीं चाहिये। शिवजी अपने भक्तों पर पूरी नहीं मात्र आधी परिक्रमा से ही प्रसन्न हो जाते हैं। अतः आधी परिक्रमा कर उन्हें वहीं प्रणाम करने के बाद पुनः आ जाना चाहिये। भगवान शंकर की दक्षिण और वाम परिक्रमा करने से स्वर्ग प्राप्त होता है और वह वहाँ उनके धाम में लाखों वर्ष तक सुखपूर्वक रहता है।

अयोध्या, मथुरा, उज्जैन आदि पुण्यपुरियों की पंचकोसी, ब्रज में गोवर्धन पूजा की सप्तकोसी, नर्मदा की अमरकंटक से समुद्र तक की छः मासी परिक्रमा प्रसिद्ध है। वटवृक्ष की परिक्रमा करना सौभाग्य सूचक माना गया है।

इस प्रकार घड़ी की सूई की दिशा में परिक्रमा पापों का नाशकर मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करती है। जो लोग शारीरिक रूप से परिक्रमा करने में समर्थ या सक्षम न हो तो प्रार्थना-पूजा-अर्चना करें, उन्हें भी ईश्वर परिक्रमा या प्रदक्षिणा का पूरा-पूरा फल देता है।

महिलाओं द्वारा वटवृक्ष की परिक्रमा करना सौभाग्य सूचक होता है। विशेष कर वट-सावित्री अमावस्या/पूर्णिमा को महिलाएँ 108 फेरे या परिक्रमा लेती है। पीपल (अश्वत्थ) के वृक्ष की परिक्रमा दशा दशमी को महिलाएँ करती हैं।

आँवला नौमी को आँवले के वृक्ष की परिक्रमा करते हैं तथा आँवले के वृक्ष का पूजन कर वहीं भोजन भी करते हैं। इस तरह भारतीय संस्कृति पर्यावरण रक्षक है। हमारे पूर्वज वृक्ष तथा वनों का पर्यावरण में क्या महत्व होता है जानते थे। बड़े महापुरुष भी वटवृक्ष एवं पीपल वृक्ष के नीचे बैठकर ध्यान, योग करते थे। शिवजी को वटवृक्ष के नीचे बैठते हैं। बुद्ध को अश्वत्थ (पीपल) के नीचे ही ज्ञान प्राप्त हुआ था। हमें अन्य किसी देवता की प्रदक्षिणा ज्ञात न हो तो श्रद्धापूर्वक एक, तीन या पाँच प्रदक्षिणा कर सकते हैं। 

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