Tuesday, March 14, 2017

TARA PITH WEST BENGAL तारापीठ तारा महाविद्या

TARA PITH WEST BENGAL तारापीठ तारा  महाविद्या 


ॐ प्रत्यालीढ़ पदार्पिताग्ध्रीशवहृद घोराटटहासा परा
खड़गेन्दीवरकर्त्री खर्परभुजा हुंकार बीजोद्भवा,
खर्वा नीलविशालपिंगलजटाजूटैकनागैर्युता
जाड्यन्न्यस्य कपालिके त्रिजगताम हन्त्युग्रतारा स्वयं

महाविद्यायों में द्वितीय स्थान पर विद्यमान 'तारा', मोक्ष दात्री।

सर्व विघ्नों का नाश करने वाली महाविद्या तारा, स्वयं भगवान शिव को अपना स्तन दुग्ध पान करा, पीड़ा मुक्त करने वाली।
'आद्या शक्ति महा-काली' ने, हयग्रीव नमक दैत्य के वध हेतु नीला वर्ण धारण किया तथा वे उग्र तारा के नाम से जानी जाने लगी।
ये शक्ति, प्रकाश बिंदु के रूप, आकाश के तारे की तरह स्वरूप में विद्यमान हैं, फलस्वरूप देवी तारा नाम से विख्यात हैं। आद्या शक्ति काली का ये स्वरूप सर्वदा मोक्ष प्रदान करने वाली तथा अपने भक्तों को समस्त प्रकार के घोर संकटो से मुक्ति प्रदान करने वाली हैं। देवी का घनिष्ठ सम्बन्ध मुक्ति से हैं, फिर वो जीवन और मरण रूपी चक्र हो या अन्य किसी प्रकार के संकट मुक्ति हेतु।

भगवान शिव द्वारा, समुद्र मंथन के समय हलाहल विष का पान करने पर, उनके शारीरिक पीड़ा (जलन) के निवारण हेतु, इन्हीं देवी 'तारा' ने माता के स्वरूप मैं शिव को अपना अमृतमय दुग्ध स्तन पान कराया। फलस्वरूप, भगवान शिव को समस्त प्रकार शारीरिक पीड़ा से मुक्ति मिली, ये जगत जननी माता के रूप में तथा घोर से घोर संकटो कि मुक्ति हेतु प्रसिद्ध हुई।

देवी के भैरव, हलाहल विष का पान करने वाले अक्षोभ्य शिव हुए, जिनको उन्होंने अपना दुग्ध स्तन पान कराया। जिस प्रकार इन महा शक्ति ने, शिव के शारीरक कष्ट का निवारण किया, वैसे ही ये देवी अपने उपासको के घोर कष्टो और संकट का निवारण करने मैं समर्थ हैं तथा करती हैं।
मुख्यतः देवी की आराधना, साधना मोक्ष प्राप्त करने हेतु, वीरा चार या तांत्रिक पद्धति से की जाती हैं। संपूर्ण ब्रह्माण्ड में, जितना भी ज्ञान इधर उधर फैला हुआ हैं, वे सब इन्हीं देवी का स्वरूप ही हैं। देवी का निवास स्थान घोर महा श्मशान हैं, जहाँ सर्वदा चिता जलती रहती हो तथा ज्वलंत चिता के ऊपर, देवी नग्न अवस्था या बाघाम्बर पहन कर खड़ी हैं। देवी, नर खप्परों तथा हड्डीओं के मालाओं से अलंकृत हैं तथा सर्पो को आभूषण के रूप में धारण करती हैं। तीन नेत्रों वाली देवी उग्र तारा स्वरूप से अत्यंत ही भयानक प्रतीत होती हैं।

देवी तारा अपने मुख्य तीन स्वरूप से विख्यात हैं, उग्र तारा, नील सरस्वती तथा एक-जटा।

प्रथम 'उग्र तारा', अपने उग्र तथा भयानक रूप से जनि जाती हैं। देवी का यह स्वरूप अत्यंत उग्र तथा भयानक हैं, ज्वलंत चिता के ऊपर, शव रूपी शिव या चेतना हीन शिव के ऊपर, देवी प्रत्यालीढ़ मुद्रा में खड़ी हैं। उग्र तारा, तमो गुण सम्पन्न हैं। देवी उग्र तारा, अपने साधको, भक्तों को कठिन से कठिन परिस्थितियों में पथ प्रदर्शित तथा छुटकारा पाने में सहायता करती हैं।

द्वितीय 'नील सरस्वती, देवी इस स्वरुप में संपूर्ण ब्रह्माण्ड के समस्त ज्ञान कि ज्ञाता हैं। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में, जो भी ज्ञान ईधर-उधर बिखरा हुआ पड़ा हैं, उन सब को एकत्रित करने पर जिस ज्ञान की उत्पत्ति होती हैं, वे ये देवी नील सरस्वती ही हैं। इस स्वरूप में देवी राजसिक या रजो गुण सम्पन्न हैं। देवी परम ज्ञानी हैं, अपने असाधारण ज्ञान के परिणाम स्वरूप, ज्वलंत चिता के शव को शिव स्वरूप में परिवर्तित करने में समर्थ हैं।

एकजटा, देवी तारा के तीसरे स्वरूप न नाम हैं, पिंगल जटा जुट वाली ये देवी सत्व गुण सम्पन्न हैं तथा अपने भक्त को मोक्ष प्रदान करती हैं मोक्ष दात्री हैं। ज्वलंत चिता मैं सर्वप्रथम देवी तारा, उग्र तारा के रूप में खड़ी हैं, द्वितीय नील सरस्वती देवी शव को जीवित शिव बनाने में सक्षम हैं तथा तीसरे स्वरूप में देवी एकजटा जीवित शिव को अपने पिंगल जटा में धारण करती हैं या मोक्ष प्रदान करती हैं। देवी अपने भक्तों को मृत्युपरांत, अपनी जटाओं में विराजित अक्षोभ्य शिव के साथ स्थान प्रदान करती हैं या कहे तो मोक्ष प्रदान करती हैं।

देवी अन्य आठ स्वरूपों में 'अष्ट तारा' समूह का निर्माण करती है तथा जानी जाती हैं,
१. तारा
२. उग्र तारा
३. महोग्र तारा
४. वज्र तारा
५. नील तारा
६. सरस्वती
७. कामेश्वरी
८. भद्र काली

सभी स्वरूप गुण तथा स्वभाव से भिन्न भिन्न है तथा भक्तों की समस्त प्रकार के मनोकामनाओ को पूर्ण करने में समर्थ तथा सक्षम हैं।

देवी उग्र तारा के स्वरुप का वर्णन।
देवी तारा, प्रत्यालीढ़ मुद्रा (जैसे की एक वीर योद्धा, अपने दाहिने पैर आगे किये युद्ध लड़ने हेतु उद्धत हो) में, प्रेत या चेतना रहित शिव के आसन पर आरूढ़ हैं। देवी, मस्तक में पंच कपालो से सुसज्जित हैं, नील कमल के समान तीन नेत्रों से युक्त, उन्नत स्तन मंडल तथा नूतन मेघ के सामन कांति वाली, विकट दन्त पंक्ति तथा घोर अटृहास करने के कारण देवी का स्वरूप अत्यंत उग्र प्रतीत होता हैं। देवी का स्वरूप बहुत डरावना और भयंकर हैं, तथा वास्तविक रूप से देवी एक ज्वलंत चिता के ऊपर रखी हुई शव पर आरूढ़ हैं। देवी तारा ने अपना दाहिना पैर, शव रूपी शिव के छाती पर रखा हैं। देवी घोर नील वर्ण की हैं, महा-शंख (मानव खोपड़ियों) की माला धारण किये हुए हैं, वह छोटे कद की हैं तथा कही-कही देवी अपनी लज्जा निवारण हेतु बाघाम्बर धारण करती हैं। देवी की आभूषण तथा पवित्र यज्ञोपवीत सर्प हैं, रुद्राक्ष तथा हड्डीओं की बानी हुई आभूषणनों को भी, देवी धारण करती हैं। वह अपनी छोटी लपलपाती हुई जीभ मुँह से बाहर निकले हुए तथा अपने विकराल दन्त पंक्तियो से दबाये हुए हैं। देवी के शरीर से सर्प लिपटे, सिर के बाल चारों ओर उलझे हुए भयंकर प्रतीत होते हैं। देवी चार हाथो से युक्त हैं तथा नील कमल, खप्पर (मानव खोपड़ी से निर्मित कटोरी), कैंची और तलवार धारण करती हैं। देवी, सर्वदा ज्वलंत चिता या जहाँ सर्वदा ही चिता जलती रहती हैं, हड्डियाँ, खोपड़ी इत्यादि इधर उधर बिखरी पड़ी हुई श्मशान में निवास करती हैं।

देवी तारा के प्रादुर्भाव से सम्बंधित कथा।

स्वतंत्र तंत्र के अनुसार, देवी तारा की उत्पत्ति मेरु पर्वत के पश्चिम भाग में, चोलना नदी के तट पर हुई। हयग्रीव नाम के दैत्य के वध हेतु महा काली ने ही, नील वर्ण धारण किया। महाकाल संहिता के अनुसार, देवी चैत्र शुक्ल अष्टमी तारा अष्टमी कहलाती हैं, इस दिन देवी की उत्पत्ति हुई, चैत्र शुक्ल नवमी की रात्रि तारा-रात्रि कहलाती हैं।
एक और उत्पत्ति संदर्भ कथा तारा-रहस्य नमक तंत्र ग्रन्थ से प्राप्त होता हैं; भगवान विष्णु के अवतार, राम द्वारा लंका पति दानव राज दशानन रावण का वध हुआ।

सर्वप्रथम स्वर्ग-लोक के रत्नद्वीप में वैदक कल्पोक्त तथ्यों तथा वाक्यों को देवी काली के मुख से सुनकर, शिव जी अपनी पत्नी काली पर बहुत प्रसन्न हुए। शिव जी ने महाकाली से पूछा, आदि काल में अपने, भयंकर मुख वाले रावण का विनाश किया, तब आश्चर्य मय आप का वो रूप तारा नाम से विख्यात हुआ। समस्त देवताओं ने आप की स्तुति की थी, तथा आप अपने हाथों में खड़ग, नर मुंड, वार तथा अभय मुद्रा धारण की हुई थी, मुख से चंचल जिह्वा बहार कर आप भयंकर रुपवाली प्रतीत हो रही थी। आप का वो विकराल रूप देख सभी देवता भय से आतुर हो काँप रहे थे। देवी के विकराल भयंकर रुद्र रूप को देख, उन्हें शांत करने के निमित्त ब्रह्मा जी के पास गए। समस्त देवताओं को ब्रह्मा जी के साथ देख, देवी लज्जित हो अपने खड़ग से लज्जा निवारण की चेष्टा करने लगी। रुद्र रूप में देवी नग्न हो गए थी तथा लज्जा निवारण हेतु, ब्रह्मा जी ने उन्हें व्याघ्र चर्म प्रदान किया। इसी रूप में देवी लम्बोदरी के नाम से विख्यात हुई। इस कथा के अनुसार, भगवान राम केवल निमित्त मात्र ही थे, वास्तव में भगवान राम की विध्वंसक शक्ति देवी तारा ही थी, जिन्होंने लंका पति रावण का वध किया।

देवी तारा से सम्बंधित अन्य तथ्य।
बंगाल प्रान्त के बीरभूम जिले में वो स्थान आज भी विद्यमान हैं, जिसे जगत जननी तारा माता के सिद्ध पीठ 'तारा पीठ' के नाम से जाना जाता हैं।
तारा नाम के रहस्य से ज्ञात होता हैं, ये तारने वाली हैं, मोक्ष प्रदाता हैं। जीवन तथा मृत्यु के चक्र से तारने हेतु, देवी के नाम रहस्य को उजागर करता हैं। महाविद्याओं में देवी दूसरे स्थान पर हैं तथा देवी अपने भक्तों को वाक्-शक्ति प्रदान करने में, भयंकर विपत्तिओ से अपने भक्तों की रक्षा करने में समर्थ हैं। शत्रु नाश, भोग तथा मोक्ष, वाक् शक्ति प्राप्ति हेतु देवी कि साधना विशेष लाभकारी सिद्ध होती हैं। तंत्रोक्त पद्धति से साधना करने पर ही देवी की कृपा प्राप्त की जा सकती हैं।

देवी का घनिष्ठ सम्बन्ध तथा निवास स्थान श्मशान भूमि से हैं। साथ ही श्मशान से सम्बंधित समस्त वस्तुओं, तत्वों से भी सम्बन्ध हैं। मृत देह, हड्डी, चिता, चिता भस्म, भूत, प्रेत, कंकाल, खोपड़ी, उल्लू, कुत्ता, लोमड़ी से इन का घनिष्ठ सम्बन्ध हैं। देवी गुण तथा स्वभाव से बहुत कुछ महा काली से मिलती हुई हैं।

उग्र तारा रूप में देवी, अपने भक्तों के जीवन में व्याप्त हर कठिन परिस्थितियों से रक्षा करती हैं। देवी तारा के साधक, समस्त प्रकार के सिद्धियो के साथ, गद्ध-पद्ध-मयी वाणी साधक के मुख का कभी परित्याग नहीं करती हैं, त्रिलोक मोहन, सुवक्ता, विद्याधर, समस्त जगत को क्षुब्ध तथा हल-चल पैदा करने में साधक पूर्णतः समर्थ होता हैं। कुबेर के धन के समान धनवान्, निश्चल भाव से लक्ष्मी वास तथा काव्य-आगम आदि शास्त्रों में शुक तथा बृहस्पति के तुल्य हो जाते हैं, मूर्ख या जड़ भी बृहस्पति के समान हो जाता हैं। साधक ब्रह्म-वेत्ता होने का सामर्थ रखता हैं तथा ब्रह्मा, विष्णु और शिव के की साम्यता को प्राप्त कर, समस्त पाशो से मुक्त हो, ब्रह्मरूप को प्राप्त करते हैं। पशु भय वाले संसार से मुक्त या अष्ट पाशों (घृणा, लज्जा, भय, शंका, जुगुप्सा, कुल, शील तथा जाति) में बंधे हुए पशु आचरण से मुक्त हो, मोक्ष (तारिणी पद) को प्राप्त करने में समर्थ होता हैं।

देवी काली तथा तारा में समानतायें।

देवी काली ही, नील वर्ण धारण करने के कारण तारा नाम से जानी जाती हैं तथा दोनों का घनिष्ठ सम्बन्ध हैं। जैसे दोनों शिव रूपी शव पर प्रत्यालीढ़ मुद्रा धारण किये हुए आरूढ़ हैं, दोनों का निवास स्थान श्मशान भूमि हैं, दोनों देविओ की जिह्वा मुँह से बाहर हैं, दोनों रक्त प्रिया हैं, भयानक तथा डरावने स्वरूप वाली हैं, भूत-प्रेतों से सम्बंधित हैं, दोनों देविओ का वर्ण गहरे रंग का हैं एक गहरे काले वर्ण की हैं तथा दूसरी गहरे नील वर्ण की। दोनों देवियाँ नग्न विचरण करने वाली हैं, कही कही देवी काली कटे हुई हाथों की करधनी धारण करती हैं, नर मुंडो की माला धारण करती हैं तो देवी तारा व्यग्र चर्म धारण करती हैं तथा नर खप्परों की माला धारण करती हैं। दोनों की साधना तंत्रानुसार पंच-मकार विधि से की जाती हैं, सामान्यतः दोनों एक ही हैं इनमें बहुत काम भिन्नताएं दिखते हैं। दोनों देविओ का वर्णन शास्त्रानुसार शिव पत्नी के रूप में किया गया हैं तथा दोनों के नाम भी एक जैसे ही हैं जैसे, हर-वल्लभा, हर-प्रिया, हर-पत्नी इत्यादि, 'हर' भगवान शिव का एक नाम हैं। परन्तु देवी तार ने ही, भगवान शिव को बालक रूप में परिवर्तित कर, अपना स्तन दुग्ध पान कराया था। समुद्र मंथन के समय, कालकूट विष का पान करने के परिणाम स्वरूप, भगवान शिव के शरीर में जलन होने लगी तथा वो तड़पने लगे, देवी ने उन के शारीरिक कष्ट को शांत करने हेतु अपने अमृतमय स्तन दुग्ध पान कराया। देवी काली के सामान ही देवी तारा का सम्बन्ध निम्न तत्वों से हैं।

श्मशान वासिनी या वासी :तामसिक, विध्वंसक प्रवृत्ति से सम्बंधित रखने वाले देवी देवता, मुख्यतः श्मशान भूमि में वास करते हैं। व्यवहारिक दृष्टि से श्मशान वो स्थान हैं, जहाँ शव के दाह का कार्य होता हैं। परन्तु आध्यात्मिक या दार्शनिक दृष्टि से श्मशान का अभिप्राय कुछ और ही हैं, ये वो स्थान हैं, जहाँ पंच या पञ्च महाभूत, चिद-ब्रह्म में विलीन होते हैं। आकाश, पृथ्वी, जल, वायु तथा अग्नि इन महा भूतो से, संसार के समस्त जीवो के देह का निर्माण होता हैं, तथा शरीर या देह इन्हीं पंच महाभूतों का मिश्रण हैं। श्मशान वो स्थान हैं जहाँ, पांचो भूतो के मिश्रण से निर्मित देह, अपने अपने तत्व में मिल जाते हैं। तामसी गुण से सम्बद्ध रखने वाले देवी-देवता, श्मशान भूमि को इसी कारण वश अपना निवास स्थान बनाते हैं। देवी काली, तारा, भैरवी इत्यादि देवियाँ श्मशान भूमि को अपना निवास स्थान बनती हैं, इसका एक और महत्त्वपूर्ण कारण हैं। आध्यात्मिक दृष्टि से श्मशान विकार रहित ह्रदय या मन का प्रतिनिधित्व करता हैं। मानव देह कई प्रकार के विकारो का स्थान हैं, काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, स्वार्थ इत्यादि, अतः देवी उसी स्थान को अपना निवास स्थान बनती हैं जहाँ इन विकारो या व्यर्थ के आचरणों का दाह होता हैं। तथा मन या ह्रदय वो स्थान हैं जहाँ इन समस्त विकारो का दाह होता हैं अतः देवी काली अपने उपासको के विकार शून्य ह्रदय पर ही वास करती हैं।

चिता : मृत देह के दाह संस्कार हेतु, लकड़ियों के ढेर के ऊपर शव को रख कर जला देना, चिता कहलाता हैं। साधक को अपने श्मशान रूपी ह्रदय में सर्वदा ज्ञान रूपी अग्नि जलाये रखना चाहिए, ताकि अज्ञान रूपी अंधकार को दूर किया जा सके।
देवी का आसन : देवी शव रूपी शिव पर विराजमान हैं या कहे तो शव को अपना आसन बनाती हैं, जिसके परिणाम स्वरूप ही शव में चैतन्य का संचार होता हैं। बिना शक्ति के शिव, शव के ही सामान हैं, चैतन्य हीन हैं। देवी की कृपा लाभ से ही, देह पर प्राण रहते हैं।
करालवदना या घोररूपा : देवी काली का वर्ण घनघोर या अत्यंत काला हैं तथा स्वरूप से भयंकर तथा डरावना हैं। परन्तु देवी के साधक या देवी जिन के ह्रदय में स्थित हैं, उन्हें डरने के आवश्यकता नहीं हैं, स्वयं काल या यम भी देवी से भय-भीत रहते हैं।
पीनपयोधरा : देवी काली के स्तन बड़े तथा उन्नत हैं, यहाँ तात्पर्य हैं कि देवी प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से तीनो लोको का पालन करती हैं। अपने अमृतमय दुग्ध को आहार रूप में दे कर देवी अपने साधक को कृतार्थ करती हैं।
प्रकटितरदना : देवी काली के विकराल दन्त पंक्ति बहार निकले हुए हैं तथा उन दाँतो से उन्होंने अपने जिह्वा को दबा रखा हैं। यहाँ देवी रजो तथा तमो गुण रूपी जिह्वा को, सत्व गुण के प्रतिक उज्वल दाँतो से दबाये हुऐ हैं।

मुक्तकेशी : देवी के बाल, घनघोर काले बादलो की तरह बिखरे हुए हैं और ऐसे प्रतीत होते हैं जैसे कोई भयंकर आँधी आने वाली हो।

संक्षेप में देवी तारा से सम्बंधित मुख्य तथ्य।

मुख्य नाम : तारा।
अन्य नाम : उग्र तारा, नील सरस्वती, एकजटा।
भैरव : अक्षोभ्य शिव, बिना किसी क्षोभ के हल हल विष का पान करने वाले।
भगवान विष्णु के २४ अवतारों से सम्बद्ध : भगवान राम।
कुल : काली कुल।
दिशा : पूर्व।
स्वभाव : सौम्य उग्र, तामसी गुण सम्पन्न।
वाहन : गीदड़।
तीर्थ स्थान या मंदिर : तारापीठ, रामपुरहाट, बीरभूम, पश्चिम बंगाल।
कार्य : मोक्ष दात्री, भव-सागर से तारने वाली, जन्म तथा मृत्यु रूपी चक्र से मुक्त करने वाली।
शारीरिक वर्ण : नीला।

द्वितीय महाविद्या तारा की कृपा से सभी शास्त्रों का पांडित्य, कवित्व प्राप्त होता हैं, बृहस्पति के समान ज्ञानी हो जाता हैं। वाक् सिद्धि प्रदान करने से ये नील सरस्वती कही जाती हैं, सुख तथा मोक्ष प्रदान करने के कारण तारा तथा उग्र आपत्ति हरण करने के कारण इन्हें उग्र तारा कहा जाता हैं।
देवी की साधना एकलिंग शिव मंदिर में पाँच कोस क्षेत्र के मध्य एक शिव-लिंग, श्मशान भूमि में, शून्य गृह में, चौराहे, शवासन, मुंडों के आसन, गले तक जल में खड़े हो कर, वन में, तारिणी देवी की साधना का शास्त्रों में विधान हैं। इन स्थानों पर देवी की साधना शीघ्र फल प्रदायक होती हैं, विशेषकर सर्व शास्त्र वेत्ता होकर परमोक में ब्रह्म निर्वाण प्राप्त करता हैं।
मत्स्य सूक्त के अनुसार कोमलासन (जिसका मुंडन संस्कार न हुआ हो या छः से दस मास के भीतर के गर्भच्युत मृत बालक), कम्बल का आसन, कुशासन अथवा विशुद्ध आसन पर बैठ कर ही देवी तारा की आराधना करना उचित हैं। नील तंत्र के अनुसार पाँच वर्ष तक के बालक का मृत देह भी कोमलासन की श्रेणी में आता हैं, कृष्ण मृग या मृग तथा व्याघ्र चर्म आसन पूजा में विहित हैं।
लक्ष्मी, सरस्वती, रति, प्रीति, कीर्ति, शांति, तुष्टि, पुष्टि रूपी आठ शक्तियां नील सरस्वती की पीठ शक्ति मानी जाती हैं, देवी का वाहन शव हैं।
ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, ईश्वर, सदाशिव तथा परमशिव को षट्-शिव (६ शिव) कहा जाता हैं।
तारा, उग्रा, महोग्रा, वज्रा, काली, सरस्वती, कामेश्वरी तथा चामुंडा ये अष्ट तारा नाम से विख्यात हैं। देवी के मस्तक में स्थित अक्षोभ्य शिव अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं।

महा शंख माला जो मनुष्य के ललाट के हड्डियों की माला से निर्मित होती हैं तथा जिस में ५० मणियाँ होती हैं। कान तथा नेत्र के बीज के भाग को या ललाट का भाग महाशंख कहलाता हैं, इस माला का स्पर्श तुलसी, गोबर, गंगा-जल तथा शालग्राम से कभी नहीं करना चाहिये।
उग्र तारा, जगत जननी माता से सम्बन्धित तंत्र शक्तिपीठ, तारापीठ।
ॐ प्रत्यालीढ़ पदार्पिताग्ध्रीशवहृद घोराटटहासा परा
खड़गेन्दीवरकर्त्री खर्परभुजा हुंकार बीजोद्भवा,
खर्वा नीलविशालपिंगलजटाजूटैकनागैर्युता
जाड्यन्न्यस्य कपालिके त्रिजगताम हन्त्युग्रतारा स्वयं
भव-सागर से तारने वाली,
जन्म तथा मृत्यु के बंधन से मुक्त कर,

तारापीठ के दर्शनीय स्थल
तारा माँ का मंदिर, महाश्मशान, महाश्मशान में विद्यमान देवी माँ के चरण चिह्न (पाद पद्म) साथ ही 'बामा खेपा' की समाधी मंदिर जो पञ्च मुंडी आसन पर निर्मित हैं, जीवित कुण्ड तथा मुंड मालिनी तला, जहाँ देवी तारा अपनी मुंड माला रख कर स्नान करने हेतु द्वारका नदी में जाती थी।
तारापीठ जाने का मार्ग
देवी माँ उग्र तारा से सम्बद्ध पीठ, पश्चिम बंगाल के चण्डिपुर गांव, बिरभुम जिले में स्थापित हैं। कोलकाता से २२० कि. मी. रेल पथ की दुरी पर रामपुरहाट रेल-स्टेशन हैं, जहाँ से ७ कि. मी. सड़क मार्ग की दूरी पर देवी माँ का भव्य तथा अलौकिक मन्दिर विद्यमान है। सड़क मार्ग से बड़ी सुगमता से तारापीठ पहुँचा जा सकता है। रेलवे स्टेशन से २४ घंटे मंदिर जाने हेतु सड़क मार्ग द्वारा वाहन उपलब्ध हैं। देवी शक्ति पीठो से सम्बंधित अन्य चार शक्ति पीठ, तारापीठ के आस पास ही विद्यमान हैं। देवी नलहटेश्वरि, नलहाटी में, देवी नन्दिकेश्वरी, सैंथिया, देवी फुल्लौरा, लाभपुर तथा देवी कंकाली, कंकालीतला, ये शक्ति पीठ तारापीठ से आस पास ही अवस्थित हैं।

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( जो भी मंत्र तंत्र टोटका इत्यादि ब्लॉग में दिए गए है वे केवल सूचनार्थ ही है, अगर साधना करनी है तो वो पूर्ण जानकार गुरु के निर्देशन में ही करने से लाभदायक होंगे, किसी भी नुक्सान हानि के लिए प्रकाशक व लेखक जिम्मेदार नहीं होगा। )