दुर्गाजी का विध्ननाशक शान्ति मूल मन्त्र
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सृष्टि, शिवजी की अर्धांग्नी पार्वती का ही सम्बोधन है। सृष्टि की उत्पत्ति सम्बंधित समस्त प्रक्रिया में जितना नियन्त्रण एवं प्रभाव शिवजी का है, उतना ही शक्ति का भी। वस्तुतः ‘शिव एवं शक्ति’ही सुष्टि के दो मूल आधार हैं।
शक्ति, दुर्गाजी का ही एक रूप स्वरुप है। दुर्गाजी के अनेक रूप, अनेक नाम, अनेक चरित्र एवं अनेक ध्यान मन्त्र हैं। दुर्गाजी के समस्त रूप रक्षाकारी, आपदानाशक, कल्याणकर एवं समृद्धिप्रदाता हैं। दुर्गाजी के किसी भी रूप की उपासना करके अभीष्ट सिद्धि प्राप्ति संभव है।
दुर्गाजी के जप विधान हेतु कठोर नियम पालन की अनिवार्यता है। इनके जप अथवा उच्चारण में लेस मात्र भी त्रुटि नहीं होनी चाहिए। दुर्गाजी के चाहे जिस भी मन्त्र का जप करें अथवा चाहे जो भी पूजा अर्चना अथवा अनुष्ठान करें, बहुत पवित्रता के साथ करें। मन्त्रोच्चारण में त्रुटि नहीं होनी चाहिए। मन्त्र जप आस्थापूर्ण, पवित्रता पूर्वक, नियमानुकूल एवं विधिवत् करने से तत्पश्चात दशमांश हवन करने से आश्चर्यजनक लाभ प्राप्त होता है। यदि ऐसा करना सम्भव न हो, तो दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती, काली में से किसी एक का चित्र अपनी आस्थानुसार ले लें। उसे एकान्त, पवित्र स्थान पर स्थापित करें। स्नान आदि के पश्चात् शुद्ध होकर चित्र का विधिवत पूजन करके, आसन पर बैठ जायें। शुद्ध घी का दीपक जलालें एवं निम्न दिए गए किसी भी मन्त्र की 1, 3, 5 माला, जैसी भी सुविधा हो, नित्य जपते रहें तो कल्याण हो जायेगा। यदि अनुष्ठान भी करना है, तब विधिपूर्वक संकल्प करके, वांछित संख्या में जप करें एवं तत्पश्चात दशमांश हवन करें ऐसा करने से निश्चित ही मनोवांछित लाभ की प्राप्ति होगी।
विध्ननाशक शान्ति मन्त्र
मानसिक अशान्ति, अस्थिर मनोदशा की धोतक है एवं जीवन में सफलता प्राप्ति में बहुत बड़ी बाधा होती है। अस्थिर मनोदशा में पीड़ित मानव जो भी कार्य करता है वे सारे कार्य असफल रहते हैं एवं मानव कोई भी कार्य पूरा नहीं कर पाता क्यूंकि भ्रम, भय, उचाट, चिन्ता एवं आवेग के कारण उसका मन मस्तिष्क स्थिर नहीं रह पाता। इस व्याधि के निवारण हेतु सिद्ध ऋषि मुनियों ने एक परम प्रभावी मन्त्र की रचना की है। सिद्ध शान्ति कल्प के नाम से प्रसिद्ध इस मन्त्र का विवरण निम्न दिया जा रहा है। इस मन्त्र को सिद्ध करके मानसिक अशान्ति एवं अस्थिर मनोदशा से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है।
मन्त्र सिद्धि हेतु नियम :-
शान्ति मन्त्र को सिद्ध करने के लिए निम्न दिए नियमों का पालन करना आवश्यक है :
♦ जप का प्रारम्भ शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा या दशमी से होना चाहिए। साथ ही उस दिन गुरुवार अथवा सोमवार का दिन हो।
♦ सामने देवासन पर श्वेत वस्त्र बिछाकर उस पर ओइम् (ओंकार) का चित्र स्थापित करें।
♦ चित्र के दाहिनी ओर घी का दीपक तथा बायीं ओर अगर बत्ती अथवा धूप बत्ती जलाकर रख दी जाय।
♦ साधक का मुँह उत्तर दिशा की ओर हो।
♦ मन्त्रजप प्रारम्भ करने से पूर्व चित्र की पूजा अर्चना की जाय।
♦ मन्त्र जप हेतु माला सफेद स्फटिक, चाँदी या सूत की होनी चाहिए।
♦ सवा लाख जप का संकल्प लेकर मन्त्रजप प्रारम्भ करें।
♦ जप 90 दिन में पूरा होना चाहिए।
♦ जप समाप्ति के पश्चात् यथा सामर्थ्य दशमांश हवन तथा ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए।
♦ जप स्थान एकान्त, शद्ध एवं स्वच्छ होना चाहिए। पूजा से पूर्व प्रतिदिन उस स्थान को भीगे कपड़े से पोंछकर स्वच्छ करना चाहिए।
मन्त्र जप विधि :-
⇒ ओंकार चित्र की पूजा - धूप - दीप कर चुकने के पश्चात् साधक को चाहिए कि पाँच बार निम्नलिखित मन्त्र का जप कर अन्तःकरण की शुद्धि करें-
‘क्षिप ओइम् स्वाहा’
⇒ इसके बाद एक बार निम्नलिखित मन्त्र का जप करके नमस्कार करे -
‘ओइम् नमः सिद्धेभ्यः ओइम् नमः सिद्धेभ्य, ओइम् नमः सिद्धेभ्य।’
⇒ नमस्कार के पश्चात् निम्नलिखित मन्त्र जपकर अपनी मंगलभावना व्यक्त करें -
सर्वे वै सुखिनः सन्तु, सर्वे सन्तु निरामया।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दुःख भाग भवेत्।
⇒ यह मन्त्रजप की प्रारम्भिक क्रिया है। इसे पूरी करके निम्नलिखित मन्त्र का लगातार जप करना चाहिए -
सर्वमंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके ।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोस्तुते ॥
सिद्धि एवं शान्ति का प्रदाता यही मन्त्र है। इस मन्त्र की 108 दाने युक्त माला नित्य 10 बार अवश्य पूजा के समय जपनी चाहिए। रात में भी, शमन से पूर्व, शुद्ध होकर शुद्ध वस्त्र धारण कर सबेरे की तरह तीन बार नमस्कार मन्त्र, तीन बार मंगल भावना का मन्त्र जपकर, फिर मूलमंत्र की भी तीन माला फेरनी चाहिए।
इस प्रकार प्रतिदिन (प्रातः रात्रि का योग) 13 माला जपनी चाहिए। सवा लाख जप पूरा हो जाने पर मन्त्र सिद्ध हो जायेगा। उसके पश्चात् यथा सामर्थ्य दशमांश हवन एवं दान अथवा ब्राह्मण को भोजन कराएं।
मन्त्र जप प्रभाव :-
इस शान्ति मन्त्र के प्रभाव से दैनिक जीवन की समस्त बाधायें टल जाती हैं। कलह, विद्रोह, उपद्रव का शमन करके यह साधक को सुख, शान्ति, समृद्धि एवं सम्मान प्रदान करता है।
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