स्वामी कार्तिककेय द्वारा श्री गणेशस्तोत्रं
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स्वामी कार्तिककेय द्वारा श्री गणेश का स्तवन
भक्तमनोरथसिद्धीप्रद स्तोत्रं
नमस्ते योगरूपाय सम्प्रज्ञातशरीरिणे
असम्प्रज्ञातमूधर्ने ते तयोर्योगमयाय च
वामाङगे भ्रांतिरूपा ते सिद्धीः सर्वप्रदा प्रभो
भ्रांतिधारकरूपा वै बुद्धिस्ते दछिणाङगके
मायासिद्धीस्तथा देवो मायिको बुद्धि संज्ञीतः
तयोयो्रगे गणेशान त्वं स्थितोसि नमोस्तु ते
जगद्रूपो गकारश्च णकारो ब्राहावाचकः तयोयो्रगे गणेशाय नाम तुभ्यं नमो नमः चतुविर्धं
जगत्सर्वं ब्राह्मवाचकः हस्ताश्चत्वार एवं ते चतुर्भुज नमोस्तु ते स्वसंवेधं च
यद्ब्रह्म तत्र खेलकरो भवान्
तेन स्वानन्दवासी त्वं स्वानन्दपतये नमः
द्वन्द्वं चरसि भक्तानां तेषां हदिं समास्थितः
चौरवत्तेन तेभूद् वै मुषको वाहनं प्रभो
जगति ब्रह्मणि स्थित्वा भोगान् भुङ्छे स्वयोगतः जगदिभ्ब्ररहाभिस्तेन चेष्टितं ज्ञायते न च
चौरवदोभ्गकर्ता त्वं तेन ते वाहनं परम्
मूषको मूषकारूढ़ो हेरम्बाय नमो नमः
किं स्तौमि त्वां गणाधीश योगशांतिधरं परम
वेदादयो ययुः शांतिमतो देवं नमाम्यहम्
इति स्तोत्रं समाकर्णय गणेशस्तमुवाच ह
वरं वृणु महाभाग दास्यामि दुर्लभं हा्पि
त्वया कृतमिदं स्तोत्रं योगशांतिप्रदं भवेत्
मयि भक्तिकरं स्कंद सर्वसिद्धीप्रदं तथा
यं यमिच्छसि तं तं वै दास्यामि स्तोत्रयनत्रीतः
पठते श्रृण्वते नित्यं कार्तिकेय विशेषतः
।। इति श्री मुद्गलपुराणे भक्तमनोरथसिद्धिप्रदं नाम गणेशस्तोत्रं
सम्पूर्णम् ।।
स्कन्द बोले – गणेश्वर सम्प्रज्ञात समाधि आपका शरीर तथा असम्प्रज्ञात समाधि आपका मस्तक हैं
आप दोनों के योगमय होने के कारण योगस्वरूप हैं आपको नमस्कार हैं प्रभो आपके वामंग में भ्रांतिरूपा सिद्धि विराजमान हैं जो सब कुछ देने वाली हैं तथा आपके दाहिने अंग में भ्रांतिधारक रूपवाली बुद्धिदेवी स्थित हैं भ्रांति
अथवा माया सिद्धि हैं और उसे धारण करने वाले गणेश देव मायिक हैं बुद्धि संज्ञा भी उन्हींकी हैं गणेश्वर आप सिद्धि और बुद्धि दोनों योग में स्थित हैं आपको बारम्बार नमस्कार हैं गकार जगत्स्वरूप हैं और णकार ब्रह्म का वाचक हैं उन दोनों के योग में विधमान आप गणेश देवता को बारम्बार नमस्कार हैं जरायुज आदि भेद से चार प्रकार का जो जगत हैं वह सब ब्रह्म हैं
जगत में ब्रह्म ही उसके रूप में भास रहा हैं इस प्रकार चतुविरध जगत ही आपके चार हाथ हैं चतुर्भुज आपको नमस्कार हैं स्वसंवेध जो ब्रह्म हैं उसमें आप खेलते या आनंद लेते हैं इसलिए आप स्वानन्दवासी हैं स्वानन्दपते आप को नमस्कार हैं प्रभो आप भक्तों के ह्दय में रहकर उनके सुख दुख आदि द्वन्द्वों को चोर की भांति चरते या
चुराते हैं इसलिए मूषक (चुरानेवाला )आपका वाहन हैं आप जगत रूप ब्रह्म में स्थित रह कर भोगों को भोगते हैं तथापि अपने योग में विराजते हैं इसलिए ब्रह्मरूप जगत आपकी चेष्टा को नहीं जान पाता आप चौर की
भांति भोग कर्ता हैं इसलिए आपका उत्कृष्ट वाहन मूषक हैं आप मूषक पर आरूढ हैं हेरम्ब आपको बारम्बार नमस्कार हैं गणाधीश आप योगशांतिधारी उत्कृष्ट देवता हैं मै आपकी क्या स्तुति कर सकता हूँ आपकी स्तुति करने में तो वेद आदि भी शांति मौन धारण कर लेते हैं
यह स्तोत्र सुनकर गणेश जी ने स्कंद से कहा महाभाग वर मांगो वह दुर्लभ होने पर भी मैं तुम्हें दूंगा स्कन्द तुम्हारे द्वारा किया गया यह स्तोत्र योगशांतिदाता मुझमें भक्ति उत्पन्न करनेवाला तथा सम्पूर्ण सिद्धियों को देने वाला होगा कार्तिकेय तुम जो जो चाहोगे वह वह वस्तु तुम्हारे स्तोत्र से बंधकर मैं निश्चय ही देता रहूँगा विशेषतः उनको जो प्रतिदिन इसका पाठ और श्रवण करते होगें मै मनोवांछित वस्तु दूँगा इस प्रकार श्रीमुद्गलपुराण में भक्तमनोरथ सिद्धिप्रद गणेशस्तोत्र पूरा हुआ
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