Friday, April 14, 2017

भगवती स्वाहा (स्वाहा देवी) का उपाख्यान BHAGWATI SWAHA DEVI UPAKHYAN

भगवती स्वाहा (स्वाहा देवी) का उपाख्यान BHAGWATI SWAHA DEVI UPAKHYAN

 श्रीब्रह्मवैवर्त्त-पुराण के प्रकृति-खण्ड के 40 वें अध्याय में भगवती ‘स्वाहा’ का सुन्दर उपाख्यान वर्णित है । 

नारदजी के पुछे जाने पर भगवान् नारायण कहते है – 


मुने ! सृष्टि के प्रारम्भिक समय की बात है – देवता भोजन की व्यवस्था के लिये ब्रह्मलोक की मनोहारिणी सभा में गये । मुने ! वहाँ जाकर उन्होंने अपने आहार के लिये ब्रह्माजी से प्रार्थना की । उनकी बात सुनकर ब्रह्माजी ने उन्हें भोजन देने की प्रतिज्ञा करके श्रीहरि के चरणों की आराधना की । तब भगवान् श्रीहरि अपनी कला से ‘यज्ञ’-रुप में प्रकट हुए । उस यज्ञ में जिस-जिस हविष्य की आहुति दी गयी, वह सब ब्रह्माजी ने देवताओं को दिया; किन्तु ब्राह्मण और क्षत्रिय आदि वर्ण भक्तिपूर्वक जो हवन करते थे, वह देवताओं को उपलब्ध नहीं होता था । इसीसे वे सब उदास होकर ब्रह्मसभा में गये थे और वहाँ जाकर उन्होंने आहार न मिलने की बात बतलायी । ब्रह्माजी ने देवताओं की प्रार्थना सुनकर ध्यान के द्वारा ‘भगवान् श्रीकृष्ण’ की शरण ली । फिर भगवान् की आज्ञा से उन्होंने ध्यान के द्वारा ही ‘मूल-प्रकृति’ की पूजा की । तब सर्व-शक्ति-स्वरुपिणी भगवती प्रकृति अपनी कला द्वारा अग्नि की दाहिका-शक्ति ‘स्वाहा’ के रुप में प्रकट हुई । उन परम सुन्दरी देवी के विग्रह की सुन्दर श्याम कान्ति थी । वे मनोहारिणी देवी मुस्कुरा रही थी । भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये व्यग्र-चित्त वाली उन भगवती स्वाहा ने ब्रह्माजी के सम्मुख उपस्थित होकर उनसे कहा – ‘पद्मयोने ! तुम वर माँगो !’ तदनन्तर ब्रह्माजी ने भगवती का वचन सुनकर सम्भ्रम-पूर्वक कहा । ब्रह्माजी बोले – तुम अग्नि की दाहिका-शक्ति तथा उनकी परम सुन्दरी पत्नी होने की कृपा करो । तुम्हारे बिना अग्नि आहुतियों को भस्म करने में असमर्थ है । जो मानव मन्त्र के अन्त में तुम्हारे नाम का उच्चारण करके देवताओं के लिये हवनीय पदार्थ अर्पण करें, उनका वह हविष्य देवताओं को सहज ही उपलब्ध हो जाय । अम्बिके ! तुम अग्निदेव की सर्वसम्पत्-स्वरुपा एवं श्रीरुपिणी गृह-स्वामिनी बनो । देवता और मनुष्य सदा तुम्हारी पूजा करेंगे । ब्रह्माजी की बात सुनकर भगवती स्वाहा देवी उदास हो गयी । उन्होंने स्वयं ब्रह्माजी से अपना अभिप्राय इस प्रकार व्यक्त किया । स्वाहा बोली – ब्रह्मन् ! मैं दीर्घ-काल तक तपस्या करके भगवान् श्रीकृष्ण की सेवा का सौभाग्य प्राप्त करुँगी । उन परब्रह्म भगवान् श्रीकृष्ण के अतिरिक्त जो कुछ भी है सब स्वप्न के समान भ्रम-मात्र है । तुम जो जगत् की सृष्टि करते हो, भगवान् शंकर ने जो मृत्यु पर विजय प्राप्त की है, शेषनाग जो अखिल विश्व को धारण करते हैं, धर्म जो समस्त देहधारियों के साक्षी हैं, गणेशजी जो सम्पूर्ण देव-समाज में सर्व-प्रथम पूजा प्राप्त करते हैं तथा जगदम्बा प्रकृति देवी जो सर्व-पूज्या हुई है – यह सब उन भगवान् श्रीकृष्ण के कृपा-प्रसाद का ही फल है । भगवान् श्रीकृष्ण के सेवक होने से ही ऋषियों और मुनियों का सर्वत्र सम्मान है । अतः पद्मज ! मैं भी एकमात्र उन्हीं परम प्रभु श्रीकृष्ण के चरण-कमलों का सानुराग चिन्तन करती हूँ । ब्रह्माजी से इस प्रकार कहकर वे कमलमुखी देवी स्वाहा निरामय भगवान् श्रीकृष्ण के उद्देश्य से तपस्या करने के लिये चल दी । फिर एक पैर से खड़ी होकर उन्होंने श्रीकृष्ण का ध्यान करते हुए बहुत वर्षों तक तप किया । तब प्रकृति से परे निर्गुण परब्रह्म श्रीकृष्ण के दर्शन उन्हें प्राप्त हुए । भगवान् के परम कमनीय सौन्दर्य को देखकर सुरुपिणी देवी स्वाहा मूर्छित-सी हो गयी; क्योंकि वे उन कामेश्वर प्रभु को कान्ता-भाव से चाहने लगी थी । चिरकाल तक तपस्या करने के कारण क्षीण शरीर वाली देवी स्वाहा के अभिप्राय को वे सर्वज्ञ प्रभु समझ गये । उन्होंने उन्हें उठाकर अपने अंक में बैठा लिया और कहा । भगवान् श्रीकृष्ण बोले – कान्ते ! तुम वाराह-कल्प में अपने अंश से मेरी प्रिया बनोगी । तुम्हारा नाम ‘नाग्नजिती’ होगा । राजा ‘नग्नजित्’ तुम्हारे पिता होंगे । इस समय तुम दाहिका-शक्ति के रुप में अग्नि की प्रिय पत्नी बनो । मेरे प्रसाद से तुम मन्त्रों की अंगभूता एवं परम पवित्र होओगी । अग्निदेव तुम्हें अपनी गृहस्वामिनी बनाकर भक्ति-भाव के साथ तुम्हारी पूजा करेंगे । तुम परम रमणीया देवी के साथ सानन्द विहार करेंगे । नारद ! देवी स्वाहा से इस प्रकार सम्भाषण करके उन्हें आश्वासन दे भगवान् श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये । फिर ब्रह्माजी की आज्ञा के अनुसार डरते हुए अग्निदेव वहाँ आये और ‘सामवेद’ में कही हुई विधि से जगज्जननी भगवती का ध्यान करके उन्होंने देवी भली-भाँति पूजा और स्तुति की । तत्पश्चात् अग्निदेव ने मन्त्रोच्चारणपूर्वक स्वाहा देवी का पाणिग्रहण किया । देवताओं के वर्ष से सौ वर्ष तक वे उनके साथ आनन्द करते रहे । परम सुखप्रद निर्जन देश में रहते समय देवी स्वाहा अग्निदेव के तेज से गर्भवती हो गयी । बारह दिव्य वर्षों तक वे उस गर्भ को धारण किये रही, तत्पश्चात् ‘दक्षिणाग्नि’, ‘गार्हपत्याग्नि’ और ‘आहवनीयाग्नि’ के क्रम से उनके मन को मुग्ध करने वाले परम सुन्दर तीन पुत्र उनसे उत्पन्न हुए । तब ऋषि, मुनि, ब्राह्मण तथा क्षत्रिय आदि सभी श्रेष्ठ वर्ण ‘स्वाहान्त’ मन्त्रों का उच्चारण करके अग्नि में हवन करने लगे और देवताओं को वह आहार-रुप से प्राप्त होने लगा । जो पुरुष स्वाहायुक्त प्रशस्त मन्त्र का उच्चारण करता है, उसे केवल मन्त्र पढ़ने-मात्र से ही सिद्धि प्राप्त हो जाती है । जिस प्रकार विषहीन सर्प, वेदहीन ब्राह्मण, पतिसरवा-विहीन स्त्री, विद्याहीन पुरुष तथा फल एवं शाखाहीन वृक्ष निन्दा के पात्र हैं, वैसे ही स्वाहा-हीन मन्त्र भी निन्द्य है । ऐसे मन्त्र से किया हुआ हवन शीघ्र फल नहीं देता । फिर तो सभी ब्राह्मण संतुष्ट हो गये । देवताओं को आहुतियाँ मिलने लगी । स्वाहान्त मन्त्र से ही उनके सारे कर्म सफल होने लगे । भगवान् नारायण भगवती स्वाहा के ध्यान, स्तोत्र और पूजा के विधान के विषय में कहते हैं – …….पुरुष को चाहिये कि फल प्राप्त करने के लिये सम्पूर्ण यज्ञों के आरम्भ में शालग्राम की प्रतिमा अथवा कलश पर यत्न-पूर्वक भगवती स्वाहा का पूजन करके यज्ञ आरम्भ करे । ध्यान इस प्रकार करना चाहिये – ‘देवी स्वाहा मन्त्रों की अंगभूता होने से पवित्र है । ये मन्त्र-सिद्धि-स्वरुपिणी हैं । सिद्ध एवं सिद्धिदायिनी हैं तथा मनुष्यों को उनके सम्पूर्ण कर्मों का फल देने वाली हैं । मैं उनका भजन करता हूँ ।’ मुने ! इस प्रकार ध्यान करके मूलमन्त्र से पाद्य आदि अर्पण करने के पश्चात् स्तोत्र का पाठ करने से मनुष्य को सम्पूर्ण सिद्धियाँ सुलभ हो जाती है । मूल-मन्त्र इस प्रकार है – “ॐ ह्रीं श्रीं वह्निजायायै देव्यै स्वाहा” इस मन्त्र से भक्ति-पूर्वक जो भगवती स्वाहा की पूजा करता है, उसके सारे मनोरथ अवश्य पूर्ण हो जाते हैं । ।।वह्निरुवाच।। स्वाहाद्या प्रकृतेरंशा मन्त्र-तन्त्रांङ्ग-रुपिणी । मन्त्राणां-फलदात्री च धात्री च जगतां सती ।। सिद्धि-स्वरुपा सिद्धा च सिद्धिदा सर्वदा नृणाम् । हुताशदाहिकाशक्तिस्तत्प्राणाधिक-रुपिणीं ।। संसार-सार-रुपा च घोर-संसार-तारिणी । देवजीवन-रुपा च देवपोषण-कारिणी ।। षोडशैतानि नामानि यः पठेद्-भक्ति-संयुतः । सर्वसिद्धिर्भवेत्तस्य इहलोके परत्र च ।। (प्रकृति-खण्ड 40 / 51-54) अग्निदेव बोले – स्वाहा, आद्या, प्रकृत्यंशा, मन्त्र-तन्त्रांङ्ग-रुपिणी, मन्त्र-फलदात्री, जगद्धात्री, सती, सिद्धि-स्वरुपा, सिद्धा, सदानृणांसिद्धिदा, हुताशदाहिकाशक्ति, हुताशप्राणाधिक-रुपिणी, संसार-सार-रुपा, घोर-संसार-तारिणी, देवजीवन-रुपा और देवपोषण-कारिणी – ये सोलह नाम भगवती स्वाहा के हैं । जो भक्ति-पूर्वक इनका पाठ करता है, उसे इस लोक और परलोक में भी सम्पूर्ण सिद्धयों की प्राप्ति होती है । उसका कोई भी कर्म अंगहीन नहीं होता । उसे सब कर्मों में शुभ फल की प्राप्ति होती है । इन सोलह नामों के प्रभाव से पुत्रहीन को पुत्र तथा भार्याहीन को प्रिय भार्या प्राप्त हो जाती है ।

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