Wednesday, September 18, 2019

श्राद्ध

श्राद्ध पक्ष में कैसे दें पितरों को धूप  

* सर्वप्रथम एक कंडा जलाएं। फिर कुछ देर बाद जब उसके अंगारे ही रह जाएं तब गुड़ और घी बराबर मात्रा में लेकर उक्त अंगारे पर रख दें और उसके आस-पास अंगुली से जल अर्पण करें। 
* अंगुली से देवताओं को और अंगूठे से अर्पण करने से वह धूप पितरों को लगती है। जब देवताओं के लिए करें तब ब्रह्मा, विष्णु और महेश का ध्यान करें और जब पितरों के लिए अर्पण करें तब अर्यमा सहित अपने पितरों का ध्यान करें और उनसे सुख-शांति की कामना करें।


श्राद्ध में पढ़ें यह पवित्र मंत्र 


हमारे धार्मिक कार्यों की पूर्णता बगैर मंत्र तथा स्तोत्र के नहीं होती है। श्राद्ध में भी इनका विशेष महत्व है। स्तोत्र कई हैं। दो का उल्लेख पर्याप्त होगा। पहला है पुरुष सूक्त तथा दूसरा है पितृ सूक्त।

इनके उपलब्ध न होने पर निम्न मंत्रों के प्रयोग से कार्य की पूर्णता हो सकती है।

1. ॐ कुलदेवतायै नम: (21 बार) ।

2. ॐ कुलदैव्यै नम: (21 बार) ।

3. ॐ नागदेवतायै नम: (21 बार) ।

4. ॐ पितृ दैवतायै नम: (108 बार) ।

इनका प्रयोग कर पितरों को प्रसन्न कर समस्याओं से निजात पाई जा सकती है। ब्राह्मण भोजन के लिए ब्राह्मण को बैठाकर पैर धोएं तथा भोजन कराएं। संकल्प पहले लें तथा ब्राह्मण को भोजन करवाकर दक्षिणा दें, वस्त्रादि दें। यदि शक्ति सामर्थ्य हो तो गौ-भूमि दान दें। न हो तो भूमि गौ के लिए द्रव्य दें। इनका भी संकल्प होता है।


हर अमावस्या को घर में एक छोटा सा आहुति प्रयोग करें

सामग्री : 


१. काले तिल, २. जौं, ३. चावल, ४. गाय का घी, ५. चंदन पाउडर, ६. गुगल, ७. गुड़, ८. देशी कपूर, गौ चंदन या कण्डा…

विधि: गौ चंदन या कण्डें को किसी बर्तन में डालकर हवनकुंड बना लें, फिर उपरोक्त ८ वस्तुओं के मिश्रण से तैयार सामग्री से, घर के सभी सदस्य एकत्रित होकर नीचे दिये गये देवताओं की १-१ आहुति दें।

आहुति मंत्र

१. ॐ कुल देवताभ्यो नमः
२. ॐ ग्राम देवताभ्यो नमः
३. ॐ ग्रह देवताभ्यो नमः
४. ॐ लक्ष्मीपति देवताभ्यो नमः
५. ॐ विघ्नविनाशक देवताभ्यो नमः 

यह करें इस दिन

1. इस दिन आप पितरों का ध्यान करते हुए पीपल के पेड़ पर कच्ची लस्सी, थोड़ा गंगाजल, काले तिल, चीनी, चावल, जल तथा पुष्प अर्पित करें और 'ॐ पितृभ्य: नम: मंत्र  का जाप करें।

2. इस दिन आप सूर्य देव को ताम्र बर्तन में लाल चंदन, गंगा जल और शुद्ध जल मिलाकर ॐ पितृभ्य: नम:' का बीज मंत्र पढ़ते हुए तीन बार अघ्र्य दें।

3. इस दिन दक्षिणाभिमुख होकर दिवंगत पितरों के लिए पितृ तर्पण करना चाहिए। पितृस्तोत्र या पितृसूक्त का पाठ करना चाहिए।


श्राद्ध में पंचबलि की विधि

श्राद्ध में पंचबलि की विधि
श्राद्ध पक्ष में मृत्यु तिथि को पार्वण श्राद्ध करना चाहिए- "पर्वणि भव: पार्वण:।" महालय में एकोदिष्ट श्राद्ध नहीं होता हैं। जो पार्वणश्राद्ध न कर सके, वह कम से कम पञ्चबलि निकालकर ब्राह्मण-भोजन ही कराये, जिसका विधान हम यहाँ बता रहे है। बहुत से व्यक्ति पार्वणश्राद्ध नहीं कराकर केवल ब्राह्मण-भोजन ही करा देते हैं, हम सभी को पञ्चबलि अवश्य ही करनी चाहिए, उसका नियम इस प्रकार है :-

श्राद्ध के निमित्त भोजन तैयार होने पर एक थाली में पाँच जगह थोड़े-थोड़े सभी प्रकार के भोज्य-पदार्थ परोसकर हाथ में जल, अक्षत, पुष्प, चन्दन लेकर निम्रलिखित सङ्कल्प करे :- अद्य अमुक गोत्र: अमुक शर्मा (वर्मा/गुप्तो वा) अहम् अमुकगोत्रस्य मम पितु: (मातु: भ्रातु: पितामहस्य वा) वार्षिक श्राद्धे (महालय श्राद्धे) कृतस्य पाकस्य शुद्ध्यर्थं पञ्चसूनाजनितदोषपरिहारार्थं च पञ्चबलिदानं करिष्ये।

 पञ्चबलि-विधि -

 १. गाय हेतु बलि (पत्ते पर) :- मण्डल के बाहर पश्चिम की ओर निम्रलिखित मन्त्र (यदि मन्त्र याद न रहे तो "गोभ्यो नम:" आदि मन्त्र से बलि प्रदान कर सकते हैं।) पढ़ते हुए सव्य (दक्षिणाभिमुख) होकर गोबलि पत्ते पर देवे - "सौरभेय्य: सर्वहिता पवित्रा: पुण्यराशय:। प्रतिगृहणन्तु मे ग्रासं गावस्त्रैलोक्यमातर: ॥ इदं गोभ्यो न मम।

 2. श्वान हेतु बलि (पत्ते पर) :- जनेऊ को कण्ठी करके निम्रलिखित मन्त्र से कुत्ते को बलि देवे - दौ श्वानौ श्यामशबलौ वैवस्वतकुलोद्भवौ। ताभ्यामन्नं प्रयच्छामि स्यातामेतावहिंसकौ ॥ इदं श्वाभ्यां न मम।

 ३. काक हेतु बलि (पृथ्वी पर) :- अपसव्य (उत्तराभिमुख) होकर निम्नलिखित मन्त्र पढ़कर कौओं को भूमि पर अन्न देवे - "ऐन्द्रवारुणवायव्या याम्या वै नैर्ऋतास्तथा। वायसा प्रतिगृहणन्तु भूमौ पिण्डं मयोज्झितम् ॥ इदम् अन्नं वायसेभ्यो न मम।

 ४. देवताओं हेतु बलि (पत्ते पर) :- सव्य होकर निम्नलिखित मन्त्र पढ़कर देवता आदि के लिए अन्न देवे - "देवा मनुष्या: पशवो वयांसि, सिद्धा: सयक्षोरगदैत्यसङ्घा:। प्रेता: पिशाचास्तरव: समस्ता:, ये चान्नमिच्छन्ति मया प्रदत्तम् ॥ इदं देवादिभ्यो न मम।

 ५. पिपीलिका हेतु बलि (पत्ते पर) :- इसी प्रकार निम्रलिखित मन्त्र से चींटी आदि को बलि देवे - पिपीलिका: कीटपतङ्गकाद्या, बुभुक्षिता: कर्मनिबन्धबद्धा:। तेषां हि तृप्त्यर्थमिदं मयान्नं, तेभ्यो विसृष्टं सुखिनो भवन्तु ॥ इदं पिपीलिकादिभ्यो न मम।

 पञ्चबलि देने के बाद एक थाली में सभी पकवान परोसकर अपसव्य और दक्षिणाभिमुख होकर निम्र सङ्कल्प करे - अद्य अमुक गोत्र: अमुक शर्माऽहममुकगोत्रस्य मम पितु: (पितामहस्य मातु: वा) वार्षिकश्राद्धे (महालयश्राद्धे वा) अक्षयतृप्त्यर्थमिदमन्नं तस्मै (तस्यै वा) स्वधा।

 उपर्युक्त सङ्कल्प करने के बाद "ॐ इदमन्नम्", " ॐ इमा आप:", " ॐ इदमाज्यम्", " ॐ इदं हवि:" इस प्रकार बोलते हुए अन्न, जल, घी तथा पुन: अन्न को दाहिने हाथ के अङ्गुष्ठ से स्पर्श करे। तत्पश्चात् दाहिने हाथ में जल, अक्षत आदि लेकर निम्र सङ्कल्प करे -

 ब्राह्मण भोजन का सङ्कल्प :- अद्य अमुकगोत्र: अमुकोऽहं मम पितु: (मातु: वा) वार्षिकश्राद्धे यथासंख्यकान् ब्राह्मणान् भोजयिष्ये। पञ्चबलि निकालकर कौओं के निमित्त निकाला गया अन्न कोएं को, कुत्ते का अन्न कुत्ते को, देवताओं का अन्न देवताओं को, चींटियों का अन्न चींटियोंं को तथा गाय का अन्न गाय को देने के बाद निम्रलिखित मन्त्र से ब्राह्मणों के पैर धोकर भोजन करायें। यत् फलं कपिलादाने कार्तिक्यां ज्येष्ठपुष्करे। तत्फलं पाण्डवश्रेष्ठ विप्राणां पादसेचने ॥

 इसके बाद उन्हें अन्न, वस्त्र और द्रव्य-दक्षिणा देकर तिलक करके नमस्कार करे, तत्पश्चात् नीचे लिखे वाक्य यजमान व ब्राह्मण दोनों बोले -

 यजमान :- शेषान्नेन किं कत्र्तव्यम्। (श्राद्ध में बचे अन्न का क्या करूं ?)

 ब्राह्मण :- इष्टै: सह भोक्तव्यम्। (अपने इष्ट-मित्रों के साथ भोजन करें।)

 इसके बाद अपने परिवार वालों के साथ स्वयं भी भोजन करे तथा निम्र मन्त्र द्वारा भगवान को नमस्कार करें - प्रमादात् कुर्वतां कर्म प्रच्यवेताध्वरेषु यत्।

स्मरणादेव तद्विष्णो: सम्पूर्णं स्यादिति श्रुति:।।

श्राद्ध के समय किए जाने वाले पाठ

अमावस्या
पितृ पक्ष श्राद्ध 15 दिन तक मनाए जाते हैं जहाँ व्यक्ति अपने पूर्वजों अथवा पितरों का तर्पण करता है. जिस दिन भी श्राद्ध मनाया जाए उस दिन ब्राह्मण भोजन के समय पितृ स्तोत्र का पाठ किया जाना चाहिए जिसे सुनकर पितर प्रसन्न होते हैं और आशीर्वाद प्रदान करते हैं. इस पाठ को भोजन करने वाले ब्राह्मण के सामने खड़े होकर किया जाता है जिससे इस स्तोत्र को सुनने के लिए पितर स्वयं उस समय उपस्थित रहते हैं और उनके लिए किया गया श्राद्ध अक्षय होता है.
जो व्यक्ति सदैव निरोग रहना चाहता है, धन तथा पुत्र-पौत्र की कामना रखता है, उसे इस पितृ स्तोत्र से सदा पितरों की स्तुति करते रहनी चाहिए.

पितृस्तोत्र – Pitrustotra

अर्चितानाममूर्तानां पितृणां दीप्ततेजसाम् ।
नमस्यामि सदा तेषां ध्यानिनां दिव्यचक्षुषाम्।।
इन्द्रादीनां च नेतारो दक्षमारीचयोस्तथा ।
सप्तर्षीणां तथान्येषां तान् नमस्यामि कामदान् ।।
मन्वादीनां मुनीन्द्राणां सूर्याचन्द्रमसोस्तथा ।
तान् नमस्याम्यहं सर्वान् पितृनप्सूदधावपि ।।
नक्षत्राणां ग्रहाणां च वाय्वग्न्योर्नभसस्तथा।
द्यावापृथिवोव्योश्च तथा नमस्यामि कृताञ्जलि:।।
देवर्षीणां जनितृंश्च सर्वलोकनमस्कृतान्।
अक्षय्यस्य सदा दातृन् नमस्येsहं कृताञ्जलि:।।
प्रजापते: कश्यपाय सोमाय वरुणाय च ।
योगेश्वरेभ्यश्च सदा नमस्यामि कृताञ्जलि:।।
नमो गणेभ्य: सप्तभ्यस्तथा लोकेषु सप्तसु ।
स्वयम्भुवे नमस्यामि ब्रह्मणे योगचक्षुषे ।।
सोमाधारान् पितृगणान् योगमूर्तिधरांस्तथा ।
नमस्यामि तथा सोमं पितरं जगतामहम् ।।
अग्रिरूपांस्तथैवान्यान् नमस्यामि पितृनहम् ।
अग्नीषोममयं विश्वं यत एतदशेषत:।।
ये तु तेजसि ये चैते सोमसूर्याग्निमूर्तय:।
जगत्स्वरूपिणश्चैव तथा ब्रह्मस्वरूपिण:।।
तेभ्योsखिलेभ्यो योगिभ्य: पितृभ्यो यतमानस:।
नमो नमो नमस्ते मे प्रसीदन्तु स्वधाभुज:।।
पितृ स्तोत्र के अलावा श्राद्ध के समय “पितृसूक्त” तथा “रक्षोघ्न सूक्त” का पाठ भी किया जा सकता है. इन पाठों की स्तुति से भी पितरों का आशीर्वाद सदैव व्यक्ति पर बना रहता है.

पितृसूक्त – Pitrusukta

उदीरतामवर उत्परास उन्मध्यमा: पितर: सोम्यास:।
असुं य ईयुरवृका ऋतज्ञास्ते नोsवन्तु पितरो हवेषु ।।
अंगिरसो न: पितरो नवग्वा अथर्वाणो भृगव: सोम्यास:।
तेषां वयँ सुमतौ यज्ञियानामपि भद्रे सौमनसे स्याम ।।
ये न: पूर्वे पितर: सोम्यासोsनूहिरे सोमपीथं वसिष्ठा:।
तोभिर्यम: सँ रराणो हवीँ ष्युशन्नुशद्भि: प्रतिकाममत्तु ।।
त्वँ सोम प्र चिकितो मनीषा त्वँ रजिष्ठमनु नेषि पन्थाम् ।
तव प्रणीती पितरो न इन्दो देवेषु रत्नमभजन्त धीरा: ।।
त्वया हि न: पितर: सोम पूर्वे कर्माणि चकु: पवमान धीरा:।
वन्वन्नवात: परिधी१ँ रपोर्णु वीरेभिरश्वैर्मघवा भवा न: ।।
त्वँ सोम पितृभि: संविदानोsनु द्यावापृथिवी आ ततन्थ।
तस्मै त इन्दो हविषा विधेम वयँ स्याम पतयो रयीणाम।।
बर्हिषद: पितर ऊत्यर्वागिमा वो हव्या चकृमा जुषध्वम्।
त आ गतावसा शन्तमेनाथा न: शं योररपो दधात।।
आsहं पितृन्सुविदत्रा२ँ अवित्सि नपातं च विक्रमणं च विष्णो:।
बर्हिषदो ये स्वधया सुतस्य भजन्त पितृवस्त इहागमिष्ठा:।।
उपहूता: पितर: सोम्यासो बर्हिष्येषु निधिषु प्रियेषु।
त आ गमन्तु त इह श्रुवन्त्वधि ब्रुवन्तु तेsवन्त्वस्मान् ।।
आ यन्तु न: पितर: सोम्यासोsग्निष्वात्ता: पथिभिर्देवयानै:।
अस्मिनन् यज्ञे स्वधया मदन्तोsधि ब्रुवन्तु तेsवन्त्वस्मान्।।
अग्निष्वात्ता: पितर एह गच्छत सद: सद: सदत सुप्रणीतय:।
अत्ता हवीँ षि प्रयतानि बर्हिष्यथा रयिँ सर्ववीरं दधातन ।।
ये अग्निष्वात्ता ये अनग्निष्वात्ता मध्ये दिव: स्वधया मादयन्ते ।
तेभ्य: स्वराडसुनीतिमेतां यथावशं तन्वं कल्पयाति ।।
अग्निष्वात्तानृतुमतो हवामहे नाराशँ से सोमपीथं य आशु:।
ते नो विप्रास: सुहवा भवन्तु वयँ स्याम पतयो रयीणाम् ।।

रक्षोघ्न सूक्त – Rakshoghna Sukta

कृणुष्व पाज: प्रसितिं न पृथ्वीं याहि राजेवामवाँ२ इभेन ।
तृष्वीमनु प्रसितिं द्रूणानोsस्ताsसि विध्य रक्षसस्तपिष्ठै:।।
तव भ्रमास आशुया पतन्त्यनुस्पृश धृषता शोशुचान:।
तपुँ ष्यग्ने जुह्वा पतंगानसन्दितो वि सृज विष्वगुल्का:।।
प्रति स्पशो वि सृज तूर्णितमो भवा पायुर्विशो अस्या अदब्ध:।
यो नो दूरे अघशँ सो यो अर्न्तयग्ने मा किष्टे व्यथिरा दधर्षीत्।।
उदग्ने तिष्ठ प्रत्या तनुष्व न्यमित्राँ२ ओषतात्तिग्महेते।
यो नो अरार्तिँ समिधान चक्रे नीचा तं धक्ष्यतसं न शुष्कम्।।
ऊर्ध्वो भव प्रति विध्याध्यस्मदाविष्कृणुष्व दैव्यान्यग्ने ।
अव स्थिरा तनुहि यातुजूनां जामिमजामिं प्र मृणीहि शत्रुन्।।
अग्नेष्ट्वा तेजसा सादयामि ।।
(शु. यजुर्वेद 13।9-13)

स्वधा स्तोत्रम्

ब्रह्मोवाच –
स्वधोच्चारणमात्रेण तीर्थस्नायी भवेन्नर:।
मुच्यते सर्वपापेभ्यो वाजपेयफलं लभेत्।।1।।
अर्थ – ब्रह्मा जी बोले – ‘स्वधा’ शब्द के उच्चारण से मानव तीर्थ स्नायी हो जाता है. वह सम्पूर्ण पापों से मुक्त होकर वाजपेय यज्ञ के फल का अधिकारी हो जाता है.

स्वधा स्वधा स्वधेत्येवं यदि वारत्रयं स्मरेत्।
श्राद्धस्य फलमाप्नोति कालस्य तर्पणस्य च।।2।।
अर्थ – स्वधा, स्वधा, स्वधा – इस प्रकार यदि तीन बार स्मरण किया जाए तो श्राद्ध, काल और तर्पण के फल पुरुष को प्राप्त हो जाते हैं.

श्राद्धकाले स्वधास्तोत्रं य: श्रृणोति समाहित:।
लभेच्छ्राद्धशतानां च पुण्यमेव न संशय:।।3।।
अर्थ – श्राद्ध के अवसर पर जो पुरुष सावधान होकर स्वधा देवी के स्तोत्र का श्रवण करता है, वह सौ श्राद्धों का पुण्य पा लेता है, इसमें संशय नहीं है.

स्वधा स्वधा स्वधेत्येवं त्रिसन्ध्यं य: पठेन्नर:।
प्रियां विनीतां स लभेत्साध्वीं पुत्रं गुणान्वितम्।।4।।
अर्थ – जो मानव स्वधा, स्वधा, स्वधा – इस पवित्र नाम का त्रिकाल सन्ध्या समय पाठ करता है, उसे विनीत, पतिव्रता एवं प्रिय पत्नी प्राप्त होती है तथा सद्गुण संपन्न पुत्र का लाभ होता है.

पितृणां प्राणतुल्या त्वं द्विजजीवनरूपिणी।
श्राद्धाधिष्ठातृदेवी च श्राद्धादीनां फलप्रदा।।5।।
अर्थ – देवि! तुम पितरों के लिए प्राणतुल्य और ब्राह्मणों के लिए जीवनस्वरूपिणी हो. तुम्हें श्राद्ध की अधिष्ठात्री देवी कहा गया है. तुम्हारी ही कृपा से श्राद्ध और तर्पण आदि के फल मिलते हैं.

बहिर्गच्छ मन्मनस: पितृणां तुष्टिहेतवे।
सम्प्रीतये द्विजातीनां गृहिणां वृद्धिहेतवे।।6।।
अर्थ – तुम पितरों की तुष्टि, द्विजातियों की प्रीति तथा गृहस्थों की अभिवृद्धि के लिए मुझ ब्रह्मा के मन से निकलकर बाहर जाओ.

नित्या त्वं नित्यस्वरूपासि गुणरूपासि सुव्रते।
आविर्भावस्तिरोभाव: सृष्टौ च प्रलये तव।।7।।
अर्थ – सुव्रते! तुम नित्य हो, तुम्हारा विग्रह नित्य और गुणमय है. तुम सृष्टि के समय प्रकट होती हो और प्रलयकाल में तुम्हारा तिरोभाव हो जाता है.

ऊँ स्वस्तिश्च नम: स्वाहा स्वधा त्वं दक्षिणा तथा।
निरूपिताश्चतुर्वेदे षट् प्रशस्ताश्च कर्मिणाम्।।8।।
अर्थ – तुम ऊँ, नम:, स्वस्ति, स्वाहा, स्वधा एवं दक्षिणा हो. चारों वेदों द्वारा तुम्हारे इन छ: स्वरूपों का निरूपण किया गया है, कर्मकाण्डी लोगों में इन छहों की मान्यता है.

पुरासीस्त्वं स्वधागोपी गोलोके राधिकासखी।
धृतोरसि स्वधात्मानं कृतं तेन स्वधा स्मृता।।9।।
अर्थ – हे देवि! तुम पहले गोलोक में ‘स्वधा’ नाम की गोपी थी और राधिका की सखी थी, भगवान कृष्ण ने अपने वक्ष: स्थल पर तुम्हें धारण किया इसी कारण तुम ‘स्वधा’ नाम से जानी गई.

इत्येवमुक्त्वा स ब्रह्मा ब्रह्मलोके च संसदि।
तस्थौ च सहसा सद्य: स्वधा साविर्बभूव ह।।10।।
अर्थ – इस प्रकार देवी स्वधा की महिमा गाकर ब्रह्मा जी अपनी सभा में विराजमान हो गए. इतने में सहसा भगवती स्वधा उनके सामने प्रकट हो गई.

तदा पितृभ्य: प्रददौ तामेव कमलाननाम्।
तां सम्प्राप्य ययुस्ते च पितरश्च प्रहर्षिता:।।11।।
अर्थ – तब पितामह ने उन कमलनयनी देवी को पितरों के प्रति समर्पण कर दिया. उन देवी की प्राप्ति से पितर अत्यन्त प्रसन्न होकर अपने लोक को चले गए.

स्वधास्तोत्रमिदं पुण्यं य: श्रृणोति समाहित:।
स स्नात: सर्वतीर्थेषु वेदपाठफलं लभेत्।।12।।
अर्थ – यह भगवती स्वधा का पुनीत स्तोत्र है. जो पुरुष समाहित चित्त से इस स्तोत्र का श्रवण करता है, उसने मानो सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान कर लिया और वह वेद पाठ का फल प्राप्त कर लेता है.
।।इति श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे ब्रह्माकृतं स्वधास्तोत्रं सम्पूर्णम्।।
विशेष – पितृ पक्ष श्राद्ध के दिनों में इस स्वधा स्तोत्र का पाठ करना चाहिए. यदि पूरा स्तोत्र समयाभाव के कारण नहीं पढ़ पाते हैं तब केवल तीन बार स्वधा, स्वधा, स्वधा बोलने से ही सौ श्राद्धों के समान पुण्य फल मिलता है.


सर्व पितृ शांति प्रयोग

पितृ पक्ष शुरू होने वाला है और इन 15 दिन में प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन को सवार सकता है क्योंकि इन 15 दिनों में पितृ लोक से हमारे पितृ धरती पर आते है और यदि हम श्राद्ध आदि विधि से उन्हें संतुष्ट कर दे तो श्राद्ध से संतुष्ट पितृ हमे आशीर्वाद देते है ! इन 15 दिनों में यदि हम श्राद आदि क्रियाये ना करे तो हमारे पितृ भूखे ही पितृ लोक को वापिस चले जाते है और हमे श्राप दे देते है जिससे अनेकों प्रकार की विपदाए हमारे जीवन को घेर लेती है और जीवन एक तरह की नीरसता से भर जाता है ! पितरों के रुष्ट हो जाने पर घर में कलेश की स्थिति बन जाती है ! व्यक्ति का अध्यात्मिक विकास रुक जाता है ! पितरों के रुष्ट हो जाने पर घर में प्रेत बाधाए उत्पन्न हो जाती है और व्यक्ति का सारा धन बीमारीओं में ही निकल जाता है ! पितरों को संतुष्ट करने के अनेकों उपाएँ है !
उपाए
1. यदि हम कौवे की सेवा करे तो हमारे पितृ संतुष्ट होते है !
2. पितृ पक्ष में श्रीमद्भागवत गीता का पाठ करे और उस पाठ का दान अपने गौत्र के पितरों के नाम पर दान करने से पितृ संतुष्ट होते है और उन्हें मोक्ष प्राप्त होता है !
3. यदि पितृ पक्ष में गरुड़ पुराण का पाठ किया जाए और पाठ के फल का दान अपने गौत्र के पितरों के नाम पर दान करने से पितृ संतुष्ट होते है और नरक की यातनाओं से बच जाते है एवं मोक्षगामी होते है !
4. पीपल वृक्ष की जड़ में मीठा जल अर्पित करने से और दिया जलाने से भी पितृ संतुष्ट होते है !
5. कुत्तों की सेवा करने और मछलियो को आटा खिलाने से भी पितृ संतुष्ट होते है !
6. यदि व्यक्ति अपने कुलदेवता कुलदेवी या कुलगुरु का पूजन करे तो कुल में उत्पन्न होने वाले सभी पितृ संतुष्ट हो जाते है !
7. यदि देवी भागवत का पाठ किया जाए और पाठ का पुण्य अपने पितरों के लिए दान किया जाए तो भी पितृ संतुष्ट होते है !
ऐसे अनेकों उपाएँ है जिससे पितृ संतुष्ट होते है ! श्रीमद्भागवत गीता के 10वे अध्याय के 29वे श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण कहते है कि पितरों में अर्यमा पितृ मैं हूँ ! पितृ अर्यमा को सभी पितरों का पितृ माना जाता है ! अत: यदि केवल अर्यमा पितृ को संतुष्ट कर दिया जाए तो हमारे पितृ संतुष्ट हो जायेंगे !

अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम्।
पितृणामर्यमा चास्मि यम: संयमतामहम्।।29।।

मैं नागों में शेषनाग और जलचरों का अधिपति वरुण देवता हूँ और
पिंतरों में अर्यमा नामक पितर तथा शासन करने वालों में यमराज मैं हूँ।(10.29)
यहाँ मैं एक बहुत ही सरल विधान बता रहा हूँ ! आप इसे करे और अपने जीवन को धन्य बनाये !

विधान
काले और सफ़ेद तिलों को गाय के शुद्ध घी में मिला कर मिश्रण बना ले ! यदि गाय का घी न मिले तो साधारण देसी घी इस्तेमाल करे ! घी की ज्योत जलाए और एक गोबर के उपले को सुलगा ले ! उस सुलगते हुए उपले पर उस मिश्रण की 108 आहुति डाले ! फिर उस आहुति के बाद दही और शक्कर में 5 रोटीयो के छोटे-छोटे टुकड़े कर मिला ले ! अब इस मिश्रण की भी 21 आहुति दे ! और उसी उपले पर अंत में 5 आहुति देसी घी की दे और 5 बार गंगा जल का छींटा मारे ! यदि गंगाजल न हो तो साधारण जल या किसी तीर्थ के जल का छींटा भी लगा सकते है ! इस क्रिया के बाद अर्यमा नामक पितृ से प्रार्थना करे कि मेरे गौत्र के सभी पितरो को संतुष्ट करे ! दही शक्कर और रोटियों के बचे हुए उस मिश्रण को अपने घर की छत पर डाल दे और उसके चारो तरफ एक लोटा पानी से घेरा/गोला बना दे ! ऐसा 15 दिन मतलब पूरे पितृ पक्ष में करे ! और अंतिम दिन अपने पितरों के नाम से किसी ब्राह्मण को भोजन कराये एवं वस्त्र आदि देकर संतुष्ट करे ! यदि कोई ब्राह्मण ना मिले तो किसी गरीब व्यक्ति को भी दान कर सकते है !

आहुति देने का मंत्र
ओम् अर्यमाए नम: स्वधा 
नोट – मंत्र में स्वधा बोलते समय अग्नि में आहुति देनी है और यदि गोबर का उपला ना मिले तो आप आम की लकड़ी या लाल चन्दन और सफ़ेद चन्दन की लकड़ी का भी इस्तेमाल कर सकते है ! आप सब पर आपके पितरों की कृपा बनी रहेज्.!


पितृ दोष उपचार (Remedies of Pitra Dosha)


पितृ दोष शमन के लिए नियमित पितृ कर्म करना चाहिए अगर यह संभव नहीं हो तो पितृ पक्ष में श्राद्ध करना चाहिए. नियमित कौओं और कुत्तों का खाना देना चाहिए. पीपल में जल देना चाहिए. ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए. गौ सेवा और गोदान करना चाहिए. विष्णु भगवान की पूजा लाभकारी है.

शाम होने पर, एक देशी घी का मिट्टी का दीपक दक्षिणा दिशा मे लगाये और थोडा से गंगाजल मिलाकर पानी रख दे। फिर दक्षिण दिशा की और बाहे फैलाये यह प्रार्थना करे कि हे पितृ देवो आज के लिए बस इतना ही कर सकता हूँ इससे आप प्रसन्न हो,

फिर यह मंत्र पढे "सर्व पितृभ्यो नमः प्रेत मोक्ष प्रदोम्भवः" को तीन बार अपने मन में जपे।

झुक कर नमस्कार करे और आशीर्वाद ग्रहण करें। बाद मे ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमः का उच्चारण करते हुए यह कामना करे कि मेरे पितृ को मुक्ति प्राप्त हो।

बाद मे जब दीपक बुझ जाये तो वो जल किसी वृक्ष को अर्पित कर दे। यह ध्यान रखे कि जल किसी के पैरो मे ना आये। इस प्रयोग घर के मेल सदस्य करे तो ज्यादा अच्छा हैं।

लो हो गया उपाय, ऐसा रोज करते रहे जब तक आपके सभी काम बनने ना लग जाये। फिर सप्ताह मे एक बार या महीने मे अमावस्या के दिन करते रहे तो कल्याण ही होगा। मुश्किल समय मे अपने आप सहायता मिल जायेगी। ईश्वर ने चाहा तो मुश्किल समय आयेगा ही नहीं।

मोक्षदा एकादशी का उपाय करे।

पितृ की तृप्ति के लिए व्यक्ति को हर माह अमावस से पहले आने वाली चौदस के दिन बरगद के पेड़ या पीपल के पेड़ को दूध अर्पित करना चाहिए।

पितृ गायत्री मंत्र


ब्रह्म पुराण (२२०/१४३ )में पितृ गायत्री मंत्र दिया गया है ,इस मंत्र कि प्रतिदिन १ माला या अधिक जाप करने से पितृ
दोष में अवश्य लाभ होता है|

मंत्र :
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देवताभ्यः पित्रभ्यश्च महा योगिभ्य एव च | नमः स्वाहायै स्वधायै नित्यमेव नमो नमः || "


पुराणोक्त पितृ -स्तोत्र :
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अर्चितानाममूर्तानां पितृणां दीप्ततेजसाम्।
नमस्यामि सदा तेषां ध्यानिनां दिव्यचक्षुषाम्।।
इन्द्रादीनां च नेतारो दक्षमारीचयोस्तथा।
तान् नमस्याम्यहं सर्वान् पितृनप्सूदधावपि।।
नक्षत्राणां ग्रहाणां च वाय्वग्न्योर्नभसस्तथा।
द्यावापृथिव्योश्च तथा नमस्यामि कृतांजलिः।।
देवर्षीणां जनितृंश्च सर्वलोकनमस्कृतान्।
अक्षय्यस्य सदा दातृन् नमस्येऽहं कृतांजलिः।।
प्रजापतं कश्यपाय सोमाय वरूणाय च।
योगेश्वरेभ्यश्च सदा नमस्यामि कृतांजलिः।।
नमो गणेभ्यः सप्तभ्यस्तथा लोकेषु सप्तसु।
स्वयम्भुवे नमस्यामि ब्रह्मणे योगचक्षुषे।।
सोमाधारान् पितृगणान् योगमूर्तिधरांस्तथा।
नमस्यामि तथा सोमं पितरं जगतामहम्।।
अग्निरूपांस्तथैवान्यान् नमस्यामि पितृनहम्।
अग्निषोममयं विश्वं यत एतदशेषतः।।
ये तु तेजसि ये चैते सोमसूर्याग्निमूर्तयः।
जगत्स्वरूपिणश्चैव तथा ब्रह्मस्वरूपिणः।।
तेभ्योऽखिलेभ्यो योगिभ्यः पितृभ्यो यतमानसः।
नमो नमो नमस्ते मे प्रसीदन्तु स्वधाभुजः।।

अर्थ:
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रूचि बोले - जो सबके द्वारा पूजित, अमूर्त, अत्यन्त तेजस्वी, ध्यानी तथा दिव्यदृष्टि सम्पन्न हैं, उन पितरों को मैं सदा नमस्कार करता हूँ।
जो इन्द्र आदि देवताओं, दक्ष, मारीच, सप्तर्षियों तथा दूसरों के भी नेता हैं, कामना की पूर्ति करने वाले उन पितरो को मैं प्रणाम करता हूँ।
जो मनु आदि राजर्षियों, मुनिश्वरों तथा सूर्य और चन्द्रमा के भी नायक हैं, उन समस्त पितरों को मैं जल और समुद्र
में भी नमस्कार करता हूँ।
नक्षत्रों, ग्रहों, वायु, अग्नि, आकाश और द्युलोक तथा पृथ्वी के भी जो नेता हैं, उन पितरों को मैं हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ।
जो देवर्षियों के जन्मदाता, समस्त लोकों द्वारा वन्दित तथा सदा अक्षय फल के दाता हैं, उन पितरों को मैं हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ।
प्रजापति, कश्यप, सोम, वरूण तथा योगेश्वरों के रूप में स्थित पितरों को सदा हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ।
सातों लोकों में स्थित सात पितृगणों को नमस्कार है। मैं योगदृष्टिसम्पन् न स्वयम्भू ब्रह्माजी को प्रणाम करता हूँ।
चन्द्रमा के आधार पर प्रतिष्ठित तथा योगमूर्तिधारी पितृगणों को मैं प्रणाम करता हूँ। साथ ही सम्पूर्ण जगत् के पिता सोम को नमस्कार करता हूँ।
अग्निस्वरूप अन्य पितरों को मैं प्रणाम करता हूँ, क्योंकि यह सम्पूर्ण जगत् अग्नि और सोममय है। जो पितर तेज में स्थित हैं, जो ये चन्द्रमा, सूर्य और अग्नि के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं तथा जो जगत्स्वरूप एवं ब्रह्मस्वरूप हैं, उन सम्पूर्ण योगी पितरो को मैं एकाग्रचित्त होकर प्रणाम करता हूँ। उन्हें बारम्बार नमस्कार है। वे स्वधाभोजी पितर मुझपर प्रसन्न हों।

विशेष - मार्कण्डेयपुराण में महात्मा रूचि द्वारा की गयी पितरों की यह स्तुति ‘पितृस्तोत्र’ कहलाता है। पितरों की प्रसन्नता की
प्राप्ति के लिये इस स्तोत्र का पाठ किया जाता है। इस स्तोत्र की बड़ी महिमा है। श्राद्ध आदि के अवसरों पर ब्राह्मणों के भोजन के समय भी इसका पाठ करने-कराने का विधान है।

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विशेष सुचना

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