Tuesday, September 24, 2019

कश्मीर कैशे बना कैंसर

कश्मीर कैशे बना कैंसर


जय माता दी बहनों और भाइयों शुभ प्रभात
कश्मीर कैसे कैन्सर बना इसका इतिहास सबको जानना चाहिए दोस्तों-
कश्यप मुनि की पहाड़ी अर्थात कश्यपमीर यानी कश्मीर हिन्दू राजा सुहादेव (१३०१-१३२२) के समय तक ज्ञान, विज्ञान,कला,संस्कृति,दर्शन,धर्म एवं आध्यात्म का केन्द्र बनी रही। अलबरूनी ने लिखा है कि किसी भी संदिग्ध व्यक्ति को कश्मीर में तब तक प्रवेश नहीं करने दिया जाता था, जब तक की उसका परिचय वहाँ के किसी सामंत से नहीं होता था।
लेकिन सन १३१३ में ईरान से आये शाहमीर नामक एक मुसलमान को सुहादेव ने उदारतापूर्वक अपने दरबार में शरण दी और उसे अंदरकोट का भार सौंप दिया। बस यहीं से धरती के स्वर्ग में जहरीली विषबेल का बीजारोपण हो गया। इस काल में कश्मीर शैवमत का केन्द्र माना जाता था।
सन १३२२ में मंगोल सरदार दलूचा ने ६०००० सैनिकों के साथ कश्मीर पर भयंकर आक्रमण कर दिया ।
दलूचा ने काफिर पुरुषों के क़त्लेआम का हुक़्म जारी कर दिया जबकि स्त्रियों और बच्चों को ग़ुलाम बनाकर मध्य एशिया के व्यापारियों को बेच दिया। शहर और गाँव नष्ट करके जला दिए गए और भारी तबाही मचाई। शांतिप्रिय राजा सुहादेव इसके विरुद्ध कुछ न कर सका और किश्तवाड़ भाग गया।
उस समय लद्दाख के बौद्ध राजकुमार रिनचन ने लुटे-पिटे कश्मीर को संभाला। लेकिन उसकी मृत्यु के पश्चात पिछले १८ सालों से मन ही मन में कश्मीर को दारूल इस्लाम बनाने के सपने देखते एहसानफरामोश शाहमीर ने अनेक षडयंत्र रच कर शासन करती उसकी विधवा बहू कोटारानी को उसके अल्पायु बच्चों के साथ कैद कर गद्दी हथिया ली और सुल्तान शम्सुद्दीन के नाम से १३३१ ई. में सिंहासन पर जा बैठा।
  
सिंहासन पर बैठते ही वो असली रूप में आ गया और उसने कश्मीर में कट्टर सुन्नी मुस्लिम सिद्धांतों का प्रचार प्रारंभ कर दिया।
हालांकि कश्मीर की अंतिम हिन्दू शासक कोटारानी के समय में ही कश्मीर में अरब देशों के मुस्लिम व्यापारियों, इस्लामी धर्मगुरूओं और विशेषकर सैय्यदों का आगमन शुरू हो चुका था एवं हिन्दूराज्य की धर्मनिरपेक्ष नीतियों के कारण वो बड़ी संख्या में वहाँ बस भी चुके थे परंतु शाहमीर के समय में हमदान (तुर्कीस्तान-फारस) से मुस्लिम सईदों की बाढ़ कश्मीर में पहुंचने लगी।
मौके का फायदा उठाकर सईद अली हमदानी और सईद शाहे हमदानी, इन दो मजहबी नेताओं के साथ हजारों इस्लामिक मत प्रसारक सईद भी कश्मीर में घुस आये (1372)। इन्होंने और सैय्यदों को बुलाया। इन लोगों ने धीरे-धीरे सुल्तानों पर प्रभाव जमा लिया और मुस्लिम शासकों की मदद से कश्मीर के गांव-गांव में मस्जिदें, खानकाहें, दरगाहें, मदरसे और इसी प्रकार के इस्लामिक केन्द्र खोले। ऊपर से दिखने वाले इन मानवीय प्रयासों के पीछे ही वास्तव में कश्मीरी हिन्दुओं के जबरन धर्मान्तरण की नापाक दास्तान छिपी है।
सईद अली हमदानी ने कश्मीर की एक प्रभावशाली संन्यासिनी लल्लेश्वरी देवी को मानवता के नाम पर अपने पक्ष में किया और उनके प्रभाव का इस्तेमाल करके इस्लामिक सूफी मत का प्रचार शुरू किया। सादात लिखित "बुलबुलशाह" के अनुसार सिर्फ हमदानी ने सूफीवाद के माध्यम से इंसानियत का ढोंग करके ३७००० लोगों को मुसलमान बनाया।
  
हमदानी ने कश्मीर के तत्कालीन सुल्तान कुतुबुद्दीन (१३७३-१३८९) को मजहबी फतवा सुनाकर इस्लामी देशों की वेषभूषा, राज्य का इस्लामी माडल, शासन प्रणाली में शरियत के कानून लागू करवाये और राज्य के भवनों पर हरे इस्लामी झंडे लगाने जैसी व्यवस्थाएं लागू करवा दीं। इन सबका विरोध करने वाले हिन्दुओं को सताने और सजाये मौत देने का सिलसिला यहीं से शुरू हो गया।
इन सईदों के मजहबी जुनून को मुस्लिम इतिहासकार एम.डी.सूफी ने अपनी पुस्तक "कश्मीर" में स्पष्ट किया है-
"सईदों ने मुस्लिम राजाओं में बहुत प्रसिद्धि प्राप्त की। इन्होंने अनेक प्रचार केन्द्र स्थापित किए जहां लोगों को नि:शुल्क भोजन दिया जाता था और बाद में उनसे जबरदस्ती इस्लाम कबूल करवाया जाता था।"
वास्तव में इसी जबरदस्ती ने बाद के कालखंड में खून
की नदियां बहाकर हिन्दुओं को मुसलमान बनाना शुरू
किया।
इसे कश्मीर, भारत, हिन्दू समाज और सम्पूर्ण मानवता का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि इन्हीं के द्वारा धर्मान्तरित कश्मीरियों ने अपनी ही प्राचीन हिन्दू मान्यताओं को तहस नहस करके इस्लामी मान्यताओं की प्रतिष्ठा करने में जितना उत्साह दिखाया वह कश्मीर के इतिहास का एक अति कलंकित अध्याय है। इन्होंने अपने ही पुरखों के बनाये मठ-मंदिरों को तोड़कर उन्हें मस्जिदों में बदलने में जरा भी शर्म महसूस नहीं की।
मुस्लिम सुल्तानों ने पढ़े लिखे कश्मीरी हिन्दुओं को मुसलमान बनाकर अपने राज दरबारों में वजीर बनाया। ऊंचे-ऊंचे पदों पर रखा और बाद में इन वजीरों को जागीरें देकर राजा शमसुद्दीन और राजा सैफुद्दीन बनाकर इन्हीं के द्वारा हिन्दुओं पर जुल्म की चक्की चलवाई।
कुत्बुद्दीन के पुत्र सिकन्दर बुतशिकन ने (१३८९-१४१३) सूफी मीर अली हमदानी, सहभट्ट सैयदों तथा मूसा रैना के साथ मिलकर हर प्रकार से कश्मीर के सम्पूर्ण इस्लामीकरण की योजना बनाई एवं हिन्दुओं पर अमानवीय अत्याचार करना आरम्भ कर दिया।
सिकन्दर बुतशिकन के समय समस्त प्रतिमाएँ भंग कर दी गयी थीं। हिन्दू जबर्दस्ती मुसलमान बना लिये गये थे।
इस सुल्तान के विषय में कल्हण 'राज तरंगिणी' में लिखता है :
'सुल्तान अपने तमाम राजसी कर्तव्यों को भुलाकर दिन रात मूर्तियों को तोड़ने का आनंद उठाता रहता था। उसने मार्तण्ड, विष्णु, ईशन, चक्रवर्ती और त्रिपुरेश्वर की मूर्तियाँ तोड़ डाली। कोई भी वन, ग्राम, नगर तथा महानगर ऐसा न था जहाँ तुरुश्क और उसके मंत्री सुहा ने मंदिर तोड़ने से छोड़ दिये हों।' सुहा हिन्दू था जो मुसलमान हो गया था।
मुस्लिम इतिहासकार हसन ने अपनी पुस्तक "हिस्ट्री आफ कश्मीर" में इस एकतरफा धर्मान्तरण का जिक्र इस तरह से किया है-
"सुल्तान सिकंदर बुतशिकन ने हिन्दुओं को सबसे ज्यादा सताया। शहरों में यह घोषणा कर दी गई कि जो हिन्दू मुसलमान नहीं बनेगा वह या तो देश छोड़ दे अन्यथा मार डाला जाएगा। परिणामस्वरूप कई हिन्दू कश्मीर छोड़कर भाग गये और हजारों ने इस्लाम कबूल कर लिया। अनेक ब्राह्मणों ने मरना बेहतर समझा और नदियों तथा गहरी घाटियों में कूदकर प्राण दे दिये। इस तरह सुल्तान सिकंदर ने लगभग तीन खिर्बार (सात मन) जनेऊ हिन्दू मत परिवर्तन करने वालों से जमा किये और जला दिये।
एक मजहबी नेता हजरत अमीर कबीर ने सिकंदर को समझाया कि हिन्दुओं की क्रूरतापूर्वक हत्याएं करने के बजाय वह उन पर जजिया (हिन्दू होने का टैक्स) लगा दे परन्तु सुल्तान सिकंदर यह नहीं माना। हिन्दुओं के सारे धर्म ग्रंथ डल झील (सतीसर) में फेंक दिये गये और
कइयों को जला दिया गया। कइयों को मिट्टी और
पत्थरों के नीचे दबा दिया गया।"
इतिहासकार हसन लिखते हैं- "इस देश (कश्मीर) में
हिन्दू राजाओं के समय में अनेक मंदिर थे जो संसार के
आश्चर्यों की तरह थे। उनकी कला इतनी बढ़िया और कोमल थी कि देखने वाला ठगा सा रह जाता था। सुल्तान सिकंदर ने ईर्ष्या ओर घृणा से भरकर मंदिरों को नष्ट करके मिट्टी में मिला दिया। मंदिरों के मलबे से ही अनेक मस्जिदें और खानकाहें बनवाईं।"
  
कश्मीर के अधिकृत इतिहास राजतरंगिणी के दूसरे लेखक जोनराज के अनुसार- "कोई भी ऐसा नगर, कस्बा, गांव और वन नहीं बचा जहां हिन्दू देवताओं के मठ मंदिर टूटने से बचे हों। इन गैर इनसानी जुल्मों के आगे अनेक हिन्दुओं ने हार मान ली और धर्मान्तरित हो गये और अनेकों ने आत्महत्याएं कर लीं।"
एक अंग्रेज इतिहासकार डा.अर्नेस्ट ने अपनी पुस्तक
"बियोंड द पीर पंजाल" में सुल्तानों के अत्याचारों को इस तरह लिखा है-"दो-दो हिन्दुओं को जीवित ही एक बोरे में बंद करके झील में फेंक दिया जाता था। उनके सामने केवल तीन मार्ग शेष थे। या तो वे मुसलमान बनें या मौत को स्वीकार करें या फिर संघर्ष करें। सिकंदर ने सरकारी आदेश जारी कर दिया था इस्लाम, मौत अथवा देश निकाला।"
इन क्रूर और पाश्विक प्रवृति वाले सुल्तानों ने हिन्दुओं के
आध्यात्मिक श्रद्धा केन्द्रों पर भी अपनी आंखें गड़ाईं। सूफी मोहम्मद अमदानी ने सुल्तान बुतशिकन को समझाया कि "जब तक इन बुत परस्त काफिरों के मंदिरों में लगे हुये बुतों को समाप्त नहीं किया जाता तब तक इनके धर्मान्तरण का लाभ नहीं होगा क्योंकि यही मन्दिर इनकी प्रेरणा के केंद्र हैं। यही इन्हें भविष्य में संगठित होकर इस्लाम को त्यागने की प्रेरणा दे सकते हैं। अत: इन नये मुसलमानों को भारत राष्ट्र की मूल धारा से तोड़ने हेतु इन मन्दिरों को समाप्त करना बहुत जरूरी है।"
सईद की इस भारत और हिन्दू विरोधी सूझबूझ को सुल्तान ने बहुत पसंद किया और मानव इतिहास की सर्वश्रेष्ठ कृतियों को बर्बाद करने के कुकृत्य शुरू कर दिये।
इतिहासकार हसन ने लिखा है कि सबसे पहले सुल्तान
सिकंदर की दृष्टि कश्मीर के विश्व प्रसिद्ध मार्तंड सूर्य मंदिर पर पड़ी। इस भव्य मार्तण्ड सूर्य मंदिर को तोड़कर पूर्णत: बर्बाद करने में एक वर्ष का समय लगने के बाद भी सुल्तान जब अपने काम में सफल नहीं हो सका। तब कला, संस्कृति और ईश्वरीय सौंदर्य के इस शत्रु ने मंदिर को लकड़ियों से भरकर आग लगवा दी। मंदिर के स्वर्ण जड़ित गुम्बद की अलौकिक आभा को बर्बाद होते देख, सुल्तान हंसता रहा और उसे खुदा का हुकुम मानकर तबाही के आदेश देता रहा। मंदिर की नींव में से पत्थरों को निकलवाया गया। मंदिर के चारों ओर के गांवों को इस्लाम कबूल करने के आदेश दे दिये गये।
जो नहीं माने उनको परिवारों सहित मौत के घाट उतार दिया गया। इस तरह से सैकड़ों गांव इस्लाम में धर्मान्तरित कर दिये गये। इस मार्तण्ड मंदिर के खंडहरों को देखकर आज भी इसके निर्माणकर्ताओं के कला कौशल पर आश्चर्य होता है।
इसी प्रकार कश्मीर के प्रसिद्ध विजबिहार नामक स्थान पर एक विशाल और सुंदर विजवेश्वर मंदिर और उसके आसपास के तीन सौ से भी ज्यादा मंदिरों को सुल्तान के आदेश से तुड़वा दिया गया।
इतिहासकार मोहम्मद हसन के अनुसार इस विजवेश्वर मंदिर की मूर्तियों और पत्थरों से वहीं एक मस्जिद का निर्माण किया गया और उसी क्षेत्र में एक खनक बनवाई गई जिसे आज भी विजवेश्वर खनक कहते हैं।
हिन्दू उत्पीड़न और जबरन धर्मान्तरण का यह खूनी खेल
प्रत्येक मुस्लिम सुल्तान के समय में तेजी से चला परंतु
औरंगजेब के समय में तो हिन्दुओं के हाथ-पांव काटने,
उनकी सम्पति हथियाने, तरह-तरह के बहाने बनाकर उन्हें कारावास में डालने, सजाए मौत देने और अपहरण करके मुसलमान बनाने के अत्यंत बेरहम और अमानवीय हथकंडे शुरू हो गये।
औरंगजेब ने अपने शासनकाल के 49 वर्षों में 14 सूबेदार कश्मीर में अपने नापाक इरादे पूरे करने के लिए भेजे, उनमें सबसे निर्मम निकला इफ्तार खाँ(1671-75) जिसने कश्मीर में हिन्दुओं पर अत्याचारों के पिछले सभी रिकार्ड तोड़ डाले।
मोहम्मद हसन ने धर्मान्तरण के इन राक्षसी तौर तरीकों को अपनी पुस्तक हिस्ट्री आफ कश्मीर में इस प्रकार लिखा है-"कश्मीर में मजहबी आतंक चरम सीमा पर पहुंच गया। हिन्दुओं के विनाश के लिए एक क्रमबद्ध विधि अपनाई गई। उसने हिन्दुओं को बोरियो में बांधकर डल झील में डालकर मार डाला। बारामूला के अनेक प्रतिष्ठित हिन्दुओं को बंदी बनाकर यातनाएं दी गईं। उन्हें कारावास में कड़ी यातनाएं देने के बाद झेलम नदी (वितस्ता) में डुबो दिया गया। लेकिन जब उसे विश्वास हो गया कि पूरी हिन्दू जाति का विनाश संभव नहीं है तो सुल्तान ने बचे हुये हिन्दुओं का जीना ही असंभव कर दिया। हिन्दुओं पर भारी जजिया टैक्स लगा दिया। उस समय तक अत्यंत गरीब और असहाय हो चुके हिन्दू इसे सहन नहीं कर सके और लाचार होकर मुसलमान बन गये।
  
हिन्दू कश्मीर के धर्मान्तरण की यह दर्दनाक कहानी बहुत लम्बी है। १३३१ से शुरू हुआ कश्मीर का असली चेहरा बिगाड़ने वाला काला इतिहास १९८९ में कश्मीरी हिन्दुओं के सामूहिक पलायन तक जारी रहा।
प्राचीन काल से कश्मीर हिन्दू और बौद्ध संस्कृतियों का पालना रहा था। जहाँ इन दोनों ही धर्मों का विकास और प्रसार हुआ परन्तु दोनों धर्मों का आपस में कभी टकराव नहीं हुआ।
इसी प्रदेश में ‘शैव मत' का भी उद्भव और विकास हुआ। संभवत: शैव सिद्धों ने ही पहले कश्मीर के शैव दर्शन को आम लोगों के लिए सुलभ बनाया।
यहाँ के संस्कृत भाषा के मनीषियों में से महर्षि पतंज्जलि ने 'पातज्जल योगदर्शनम्', आनन्दवर्द्धन ने ‘ध्वन्यालोक', अभिनव गुप्त ने ‘काव्य मीमांसा', कल्हण ने ‘राजतरंगिणी', मुम्मट ने ‘काव्य प्रकाश',सोमदेव ने ‘कथा सरित्सागर' जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ लिखे ।
इनके अलावा दृढ़बल, वसुगुप्त ,क्षेमराज, जोनराज, बिल्हण आदि अन्य संस्कृत के विशिष्ट विद्वान भी यहीं के थे।
यह भी धारणा है कि ‘विष्णुधर्मोंतर पुराण' एवं ‘योगवसिष्ठ' ‘कथासरित संग्रह'यही लिखे गए।
कश्मीरी साहित्य का पहला नमूना ‘शितिकण्ठ' के महान प्रकाश १३वीं शताब्दी की ‘सर्वगोचर देश भाषा' में मिलता है।
कश्मीर सदियों से एशिया महाद्वीप में संस्कृति, ज्ञान, विज्ञान, साहित्य, दर्शनशास्त्र, धर्म एवं आध्यात्म का केन्द्र रहा था।
परन्तु बेबीलोन, फारस समेत विश्व की अनेक प्राचीन एवं उन्नत सभ्यताओं को तबाह और बर्बाद करता हुआ इस्लाम आखिर इस महान धरती पर भी आ पहुँचा और इसकी प्राचीन और गौरवशाली संस्कृति को बेरहमी से निगल लिया। आज कश्मीर में यदि कुछ बचा है तो वो है केवल इस्लाम, ठंडी फिजाओं में घुली बारूद की गंध के बीच बन्दूकों के साये में जिन्दगी और अतीत के उस स्वर्णिम काल के लोगों की स्मृतियाँ ..!!

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