Friday, March 6, 2020

कुडंली के दोष

कुडंली के दोष


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जीवन की गति चलाते हैं ग्रह
शास्त्रों के अनुसार, जन्म कुंडली में कई प्रकार के शापित दोष हो सकते हैं. कोई माने या न माने लेकिन जीवन की गति और चाल केवल ग्रह ही चलाते हैं. ज्योतिष विद्या के अनुसार ही हम भविष्य को जान सकते है.

काम रूक जाए तो है कुंडली दोष का प्रभाव
ज्योतिष गणना में दोष को बहुत माना जाता है.कुछ दोष शुभ स्थिति बताते हैं तो कुछ अस्थिरता. जैसे सूर्य को ग्रहण लग जाने पर अंधकार फैल जाता है और चन्द्रमा को ग्रहण लगने पर चांदनी खो जाती है उसी प्रकार जीवन में बनता हुआ काम अचानक रूक जाता हो तो इसे कुंडली दोष का प्रभाव समझ सकते हैं.

कुडंली बनने के बाद देखे जाते हैं कुंडली के दोष
जन्म कुंडली बनाने के बाद ज्योतिषी और पंडित जिस चीज पर सबसे ज्यादा ध्यान देते हैं वह है कुंडली में मौजूद दोष. किसी ग्रह का नीच भाव में होना या पाप ग्रहों द्वारा सीधा देखा जाना कुंडली में दोष उत्पन्न करता है.

दोष पूर्व जन्म के या इसी ज्न्मे के हो सकते हैं
यह दोष पूर्व जन्म के भी हो सकते हैं या फिर इसी जन्म के भी. कुंडली दोषपूर्ण होने की स्थिति में जिस ग्रह को प्रभावित करती है उसके शुभ फल जातक को नहीं मिल पाते. ज्योतिष शास्त्र के अनुसार ऐसा ग्रहों की चाल से उस जातक को मिलने वाले अशुभ प्रभाव के कारण होता है. इसके प्रभाव क्षणिक हो सकते हैं और दीर्घकाल तक भी जारी रह सकते हैं.

शनि दोष
अगर कुंडली में शनि का दोष हो तो जातक को अपयश और अपमान भी सहना पड़ता है. ऐसी स्थिति में धैर्य की बहुत आवश्यकता होती है. अगर शनि की साढ़े साती या ढैया चल रहा है तो ऐसी घटनाओं की आशंका बढ़ जाती है. ऐसे जातक व्यापार में नुकसान, अपयश, बदनामी और उस सजा को भी प्राप्त करते हैं जिसके वे हकदार नहीं होते.

प्रेत दोष
लग्नेश या चंद्र से युक्त राहु लग्न में हो, तो प्रेत दोष होता है. यदि दशम भाव का स्वामी आठवें या एकादश भाव में हो और संबंधित भाव के स्वामी से दृष्ट हो, तो उस स्थिति में भी प्रेत दोष होता है.

मांगलिक दोष
कुंडली में यदि मंगल दोष है जिसकी वजह से व्यक्ति को विवाह संबंधी परेशानियों, रक्त संबंधी बीमारियों और भूमि-भवन के सुख में कमियां रहती हैं. कुंडली में जब लग्न भाव, चतुर्थ भाव, सप्तम भाव, अष्टम भाव और द्वादश भाव में मंगल स्थित होता है तब कुंडली में मंगल दोष माना जाता है.

काल सर्प दोष
ज्योतिष् शास्त्र के मुताबिक, अगर किसी की कुंडली में सर्प दोष बनता है तो ऐसी योग में उत्पन्न जातक के व्यवसाय, धन, परिवार, संतान आदि के कारण जीवन अशांत हो जाता है. राहु केतु को छाया ग्रह कहा जाता है. राहु केतु के कारण ही कालसर्प दोष बनता है क्योंकि राहु का नक्षत्र भारणी है.
भारणी का स्वामी काल है. केतु का नक्षत्र आश्लेशा है और इस नक्षत्र के स्वामी सर्प है. इसलिए इनके प्रभाव में आते ही काल सर्प दोष कुंडली में बन जाता है. कालसर्प दोष में जीवन में उतार-चढ़ाव दोनों आते हैं

आंशिक ग्रहण दोष
कुंडली में ग्रहण दोष बनता है तो उस स्थिति में अपर समस्या जीवन को घेर लेती है. कुण्डली के द्वादश भावों में से किसी भाव में सूर्य अथवा चन्द्रमा के साथ राहु व केतु में से कोई एक साथ बैठा हो या फिर सूर्य या चन्द्रमा की राशी में राहु केतु में से कोई ग्रह हो तो इसे आंशिक ग्रहण दोष कहेंगे.
राहु अगर लग्न में किसी भी राशि का हो तो भी आंशिक सूर्य ग्रहण माना जाता है, ग्रहण दोष जिस भाव में लगता है उस भाव से सम्बन्धित चीजों या उसके रिश्‍तों में यह अशुभ प्रभाव डालता है.

चाण्डाल दोष
जिस जातक की कुंडली में गुरु चांडाल दोष यानि कि गुरु-राहु की युति हो वह व्यक्ति क्रूर, धूर्त, मक्कार, दरिद्र और कुचेष्टाओं वाला होता है. ऐसा व्यक्ति षडयंत्र करने वाला, ईष्या-द्वेष, छल-कपट आदि दुर्भावना रखने वाला एवं कामुक प्रवत्ति का होता है, उसकी अपने परिवारजनों से भी नहीं बन पाती. वह खुद को अकेला महसूस करने लग जाता है.

पितृ दोष
भारतीय ज्योतिष में सूर्य को पिता का कारक व मंगल को रक्त का कारक माना गया है. अतः जब जन्मकुंडली में सूर्य या मंगल, पाप प्रभाव में होते हैं तो पितृदोष का निर्माण होता है. पितृ दोष वाली कुंडली में समझा जाता है कि जातक अपने पूर्व जन्म में भी पितृदोष से युक्त था. वर्तमान समय में भी जातक पितृदोष से युक्त है.
कई लोग इसे पितृ यानि पूर्वजों के बुरे कर्मों का फल मानते हैं तो कुछ का मानना है कि अगर पित्ररों का दाह-संस्कार सही ढंग से ना हो तो वह नाखुश होकर हमें परेशान करते हैं. कुंडली में पितृ दोष तब होता है जब सूर्य, चन्द्र, राहु या शनि में दो कोई दो एक ही घर में मौजूद हो.
जन्म कुण्डली के पहले, दूसरे, चौथे, पांचवें, सातवें, नौवें या दसवें भाव में यदि सूर्य-राहु या सूर्य-शनि एक साथ स्थित हों तब यह पितृ दोष माना जाता है.

अमावस्या दोष
जब सूर्य और चन्द्रमा दोनों कुण्डली के एक ही घर में विराजित हो जावे तब इस दोष का निर्माण होता है. जैसे की आप सब जानते है की अमावस्या को चन्द्रमा किसी को दिखाई नहीं देता उसका प्रभाव क्षीण हो जाता है. ठीक उसी प्रकार किसी जातक की कुंडली में यह दोष बन रहा हो तो उसका चन्द्रमा प्रभावशाली नही रहता. और चन्द्रमा को ज्योतिष में कुण्डली का प्राण माना जाता है और जब चन्द्रमा ही प्रभाव हीन हो जाए तो यह किसी भी जातक के लिए कष्टकारी हो जाता है क्योंकि यही हमारे मन और मस्तिक का कारक ग्रह है.

ग्रहण दोष
जब सूर्य या चन्द्रमा की युति राहू या केतु से हो जाती है तो इस दोष का निर्माण होता है. चन्द्र ग्रहण और सूर्य ग्रहण दोष की अवस्था में जातक डर व घबराहट महसूस करता है. चिड़चिड़ापन उसके स्वभाव का हिस्सा बन जाता है. माँ के सुख में कमी आती है. किसी भी कार्य को शुरू करने के बाद उसे सदा अधूरा छोड़ देना व नए काम के बारे में सोचना इस दोष के लक्षण हैं.

केमद्रुम दोष
चन्द्रमा से बनने वाला ये दोष अपने आप में महासत्यानाशी दोष है यदि चंद्रमा से द्वितीय और द्वादश दोनों स्थानों में कोई ग्रह नहीं हो तो केमद्रुम नामक या दोष बनता है या फिर आप इसे इस प्रकार समझे चन्द्रमा कुंडली के जिस भी घर में हो, उसके आगे और पीछे के घर में कोई ग्रह न हो.
इसके अलावा चन्द्रमा की किसी ग्रह से युति न हो या चंद्र को कोई शुभ ग्रह न देखता हो तो कुण्डली में केमद्रुम दोष बनता है.

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विशेष सुचना

( जो भी मंत्र तंत्र टोटका इत्यादि ब्लॉग में दिए गए है वे केवल सूचनार्थ ही है, अगर साधना करनी है तो वो पूर्ण जानकार गुरु के निर्देशन में ही करने से लाभदायक होंगे, किसी भी नुक्सान हानि के लिए प्रकाशक व लेखक जिम्मेदार नहीं होगा। )