Sunday, September 2, 2018

गोगा वीर चौहान कथा

गोगा वीर चौहान कथा

सातवीँ शताब्दी के आसपास भारतवर्ष मेँ मरुभूमि की राजधानी राजस्थान प्रान्त मेँ सांभर के राजा गंगाराव चौहान राज्य करते थे । राजा बहुत ही सुन्दर, हष्ट-पुष्ट शरीर, अस्त्र-शस्त्र विद्या मेँ निपुण अचूक निशानेबाज थे । साथ ही परम दयालु , न्यायी और शिकार खेलने के शौकीन थे । उनकी सेना भी काफी बड़ी थी और ईश्वर कृपा से खजाना भी भरपूर था । परन्तु औलाद न होने के कारण राजा बड़े दुखी रहते थे । ये राजपाट धन दौलत बिना औलाद किस काम आवेगा ।
एक दिन राजा शिकार खेलता वन मेँ दूर चला आया । और राजा के साथी, मन्त्री, अहेलकार आदि पीछे छूट गये । अपने साथियोँ के पीछे छूट जाने और प्यास लगने के कारण राजा बेचैन हो गया । पानी कहाँ से मिले, राजा ने चारोँ तरफ नजर घुमाई तो सिवाय वन और पेड़ पौधोँ के, कुछ दिखाई न दिया तो राजा गंगाराव ने निराश होकर ऊपर की ओर निगाह उठाकर कहा, “हे प्रभु ! तेरा ही आसरा है ।” इतना कहते ही राजा देखता है कि बहुत सारे पक्षी एक जगह इकट्ठे आकाश मेँ मंडरा रहे हैँ । पक्षियोँ को उड़ता देख राजा गंगाराव को ढाढस बन्धी कि जहाँ ये पक्षी मन्डरा रहे हैँ वहाँ पानी अवश्य होना चाहिए ।
ऐसा विचार मन मेँ उठते ही राजा गंगाराव ने उसी तरफ अपना घोड़ा बढा दिया और चन्द घड़ियोँ मेँ अपने लक्ष्य के पास जा पहुंचा । तो राजा गंगाराव क्या देखता है कि एक सुन्दर सरोवर बना है । उसी के ऊपर पक्षी मन्डरा रहे हैँ और इन्द्र लोक की चार अप्सारायेँ एक से बढकर एक सुन्दरी जिनके चेहरोँ की चमक चन्द्रमा से बढ चढकर थी । जवानी मेँ दिवानी एक दूसरे के मुख पर छीँटे मार रही हैँ । और हंसनी के समान हँस हँसकर दुहरी हो रही हैँ । जिनके कपड़े पास ही सरोवर के निकट धरे थे ।
राजा गंगाराव अप्सराओँ को मदहोशी की हालत मेँ देखकर उनमेँ जो सबसे छोटी अप्सरा थी उस पर मोहित हो गया । मदहोश अप्सराओँ को अपने जाल मेँ फाँसने के लिए विचार कि ये सब की सब नंगी सरोवर मेँ स्नान कर रही हैँ अगर मैँ इन के वस्त्रोँ का हरण कर लूं तो मेरी मनोकामना पूर्ण हो सकती है । राजा गंगाराव इस प्रकार अपनी मनो-इच्छा पूर्ति का उपाय विचार बड़ा खुश हुआ और परमपिता परमेश्वर का ध्यान कर घोड़े को एक पेड़ से बाँधकर उसे घास खाने मेँ लगा दिया और आप पेड़ो की आड़ लेकर धीरे धीरे सरकता हुआ सरोवर के निकट जा पहुंचा । जहाँ पर अप्सराओँ के वस्त्र धरे हुए थे।
राजा गंगाराव ने अपना हाथ बढ़ाकर चारोँ अप्सराओँ के वस्त्र उठा लिए । जैसे ही राजा गंगाराव ने अपनी पीठ घुमाई अप्सराओँ को राजा की बगल मेँ अपने वस्त्र नजर पड़ गए। और अपने को नंगा समझ नीचे का दम नीचे और ऊपर का ऊपर रह गया । हँसी दिल्लगी सब भूल गई । अपना सारा जिस्म सरोवर के पानी मेँ एक दम छिपा सिर्फ गरदन जल से बाहर रख गिड़गिड़ाती हुई प्रार्थना के सुर मेँ राजा गंगाराव से बङी अप्सरा जिसका नाम तिलोत्मा था दोनोँ हाथ जोड़कर बोली, “हे राजन्! हम चारोँ इन्द्रलोक की अपसरायेँ यहाँ सरोवर के ठण्डे स्वच्छ जल मेँ स्नान करने आई थीँ और आप हम सब के वस्त्र ले जा रहे हो। आप विचारेँ कि हम बिना वस्त्रोँ के नंगी जल से बाहर कैसे निकलेँगी और बिना वस्त्रोँ के किस प्रकार इन्द्रलोक जायेँगी। हे राजन! हम अबलाओँ की लाज आपके हाथ है। आप हमारे वस्त्र हमेँ तुरन्त देने की दया करेँ।”
राजा गंगाराव बोले, “बात तो तुम्हारी ठीक है। किसी ने ठीक कहा है, बिना विचारे जो करे, सो पाछे पछताय। काम बिगाड़े आपनो, जग मेँ होत हँसाय। सो हे अप्सराओँ की सरदार ! गिड़गिड़ाने से ही काम बन जाता तो मैँ भी अपनी मनोकामना पूरी कर लेता। वस्त्र हरण करने की जरूरत ही मुझे क्योँ पड़ती। अच्छा अपना नाम तो बतावेँ ।”
बड़ी अप्सरा लजाती हुई बोली, “हे राजन ! मेरा नाम तिलोत्मा है।” बाकी तीनोँ अप्सरायेँ भी राजा गंगाराव के खूबसूरत चेहरे को टकटकी बांध कर निहार रही थीँ। छोटी अप्सरा का हाल तो सबसे बुरा था। उसके तो पलक झपकते ही नहीँ थे।
ये सब बातेँ राजा गंगाराव से छिपी नहीँ रहीँ और अप्सरा के मुंह से तिलोत्मा नाम सुनकर राजा बोले, “तुम्हारी बोली बड़ी प्यारी है और तुम ही इन सबकी सरदार मालूम होती हो। मैँने सुना है कि इन्द्रलोक की अप्सरायेँ नाचने गाने मेँ बड़ी निपुण होती हैँ। क्या ये बात ठीक है ?” बड़ी अप्सरा तिलोत्मा बोली, “पहले आप हमारे वस्त्र देने की कृपा करेँ। हमेँ ठण्ड लग रही है। वस्त्र पहनने के बाद आपको गाना भी सुनवा दिया जायेगा।”
बड़ी अप्सरा तिलोत्मा की बात सुनकर राजा गंगाराव बोले, “हमारी इतनी जानिसारी के बदले सिर्फ एक गाना। नहीँ, हमेँ तुम चारोँ के कपड़े देकर एक गाना नही सुनना है। आपको हमारी बात नहीँ माननी है तो हम ही आपकी बात क्योँ मानने लगे। अगर तुम्हेँ अपने वस्त्र लेकर अपनी लाज बचानी होती और ठण्ड से बचना होता तो हमारी बात मान कर फैसला कर लेतीँ। गाना क्या हमको नहीँ आता, आप जैसा भी राग सुनना चाहेँ और जितनी तरह का मैँ सुना सकता हूँ। अच्छा अब हमारा तुम्हारा कोई फैसला होता नजर नहीँ आता इसलिए मैँ चलता हूँ।”



राजा गंगाराव की बातेँ सुनकर चारोँ अप्सराओँ को कंपकंपी आ गई। आँखोँ के आगे अंधेरा छा गया और चारोँ ही गिड़गिड़ा कर एक साथ बोलीँ, “कृपा करके हमेँ बतावेँ हमारे वस्त्र देने मेँ आपकी क्या शर्त है। और आप हम अबलाओँ से क्या चाहते हैं। हमारे बस की जो भी बात होगी हम सब वायदा करती हैँ उसे जरूर मान लेँगी।”
अप्सराओँ की घबराहट देख कर राजा गंगाराव बोले, “आपने वायदा किया है कि आप मेरी शर्त मान लेँगी तो मैँ आपको बताने मेँ हर्ज नहीँ समझता। मैँ आप से सिर्फ ये चाहता हूँ कि आपके साथ जो ये सबसे छोटी अप्सरा है इनकी कजरारी आँखोँ ने मेरे हृदय को छलनी कर दिया है। मैँ चाहता हूँ कि एक तो इनका नाम मुझे बताया जाये। दूसरे मैँ इन से शादी करके इन्हेँ अपनी महारानी बनाना चाहता हूँ मेरी सिर्फ ये ही इच्छा है। अगर आप मेरी मनोकामना की पूर्ति करदेँ तो मुझे आप लोगोँ के वस्त्र देने मेँ कतई इन्कार नहीँ है।”
राजा गंगाराव की बात सुनकर बड़ी अप्सरा तिलोत्मा बोली, “हे राजन् ! ये जो सबसे छोटी अप्सरा है इसका नाम उर्वशी है और ये नाचने मेँ कमाल करती है। सारे इन्द्रलोक की शान है। इसे हम आपके पास छोड़ जायेँ तो राजा इन्द्र हमेँ जिन्दा जमीदोज करवा देँगे। हाँ, हम तीनोँ मेँ से आप जिसे कहेँ आपके पास रुक जाये। इसे तो आप हमारे साथ चलकर और अपना गाना सुनाकर राजा इन्द्र को खुश करके ही उनसे मांगकर ला सकते हैँ।”
अप्सरा तिलोत्मा की बात सुनकर राजा गंगाराव ने चारोँ अप्सराओँ को कसम धर्म उठाने के बाद स्वर्गलोक मेँ उनके साथ जाने की उनकी उपरोक्त शर्त मान ली। चारोँ अप्सराओँ के वस्त्र उनके सुपुर्द कर दिये। जिन्हेँ उन्होँने राजा के मुँह फेर लेने पर एक दूसरे की ओट करके होशियारी से पहन लिए। चारोँ ने अपने उड़न खटोले पर बैठकर अपने वचन के अनुसार राजा को भी अपने साथ मेँ बिठा लिया।
राजा गंगाराव की खुशी का ठिकाना नहीँ था। वह अपनी तकदीर को देख परमपिता परमात्मा का धन्यवाद करके प्रार्थना करने लगा कि हे दीनबन्धु जहाँ इतनी दया की है कि जीते जी स्वर्गलोग जा रहा हूँ वहाँ इतनी दया और करना कि स्वर्गलोक का राजा इन्द्र मेरा गाना सुनकर प्रसन्न हो जावे और इस अप्सरा उर्वशी को मेरी रानी बनने को मेरे सुपुर्द कर दे। इसी तरह राजा गंगाराव विचारमग्न उड़न खटोले मेँ बैठा जा रहा था कि स्वर्गलोक के सुन्दर दरवाजे पर जाकर उड़न खटोला रूका। चारोँ अप्सरायेँ और राजा गंगाराव को उतारकर उड़न खटोला अपने स्थान पर जाकर खूंटी पर टंग गया।
राजा गंगाराव को गवैये का भेष बनवाकर और आप चारोँ नाचने वाली का भेष बना शृंगार कर राजा इन्द्र के सभाभवन के भीतर जा मुजरा बजाया। राजा इन्द्र इन चारोँ को देखते ही बहुत प्रसन्न हुआ और नृत्य करने का आदेश दिया। चारोँ अप्सराओँ ने राजा इन्द्र की आज्ञा सुनते ही अपने जिस्म को लचका लचका कर नाचना शुरु कर दिया। चारोँ अप्सरायेँ ऐसी नाची कि सारी इन्द्र सभा मोहित हो गई। कोई नाच देखने वाला ये ही अन्दाज नहीँ लगा पाया ये चारोँ अप्सरायेँ स्वर्गलोक की धरती मेँ नाच रही हैँ या धरती से ऊपर अधर मेँ।
राजा गंगाराव ने भी गाने मेँ कमाल ही कर दिया। उन्होँने अप्सराओँ के नाच के माफिक ही तराना गाया। राजा गंगाराव के सुरीले कण्ठ से तराने को सुनकर सारी इन्द्रसभा मोहित हो गई। स्वर्गलोक मेँ चारोँ तरफ से वाह वाह की आवाजेँ गूंजने लगी। जब नाच गाना बन्द हो गया तब राजा इन्द्र ने नाचने वालियोँ को इनाम देने के बाद गवैये(राजा गंगाराव) को बुलाकर कहा, “हम तुम्हारा गाना सुनकर बेहद खुश हुए बोलो तुम्हेँ क्या इनाम दिया जावे।”
स्वर्ग के राजा इन्द्र के मुख से इनाम की बात सुनकर राजा गंगाराव बड़े प्रसन्न हुए और अपने दोनोँ हाथ जोड़कर बोले, “आपको देवता की पदवी लोगोँ ने इसीलिए दे रखी है कि आप सारे संसार को खुशी ही बांटते रहते हैँ। हवा, पानी, धूप, छाया आदि आप ही की दी हुई जीवन क्रियायेँ हैँ और आप देवताओँ का दिया हुआ सब कुछ मेरे पास है फिर भी आपके भरे भण्डार से जब खाली हाथ कोई जाता ही नहीँ तो मैँ ही क्योँ निराश जाऊंगा। आपने भरी सभा मेँ मन इच्छा वस्तु मांगने की मुझे आज्ञा दी है। सो मेरी इच्छा है कि ये जो सबसे छोटी अप्सरा उर्वशी है इसने मेरा मन मोह लिया है सो आप उर्वशी को मुझे इनायत करने की दया करेँ। मैँ इन्हेँ महारानी के पद पर आसीन करूँगा। मैँ बागड़ देश के सांभर प्रांत का राजा गंगाराव के नाम से राज काज करता हूँ।”
राजा गंगाराव की बात सुनकर राजा इन्द्र के पैरोँ तले की धरती हिल गई। उन्हेँ बेहद अफसोस हुआ कि इस राजस्थानी नरेश ने स्वर्ग की जो अपार शोभा है उसी उर्वशी को मांगा है। इस सुन्दर राजा के साथ उर्वशी चली जायेगी तो रहेगी काफी सुखी परन्तु स्वर्गलोक की अनुपम शोभा, सुषमा और कला सभी यहाँ से चली जावेँगी। उर्वशी स्वर्गलोक का मधुमय सिँगार है। उर्वशी के गाने को क्या भुलाया जा सकता है।



राजा इन्द्र सोच विचार मेँ डूबे थे कि उर्वशी व राजा गंगाराव की चारोँ आँखेँ आपस मेँ टकरा गईं। एक दूसरे की मनोभावना एक दूसरे ने समझीँ। एक के हृदय को दूसरे ने पहचाना। मानव के वास्ते अप्सरा और अप्सरा के वास्ते मानव बेचैन बन गया। उर्वशी सोचने लगी देवलोक को छोड़कर मानव लोक मेँ रहना ही ठीक है। यहाँ सदा से भोग विलास की एक परम्परा है। यहाँ हर समय वासना का ही उन्माद छाया रहता है। इससे सच्चे आनन्द का भान नहीँ होता, बिना विरह वेदना को जाने संयोग की रस माधुरी एकदम फीकी है। उर्वशी स्वर्ग की एकरसता से ऊब गई थी। वह मृत्युलोक की विचित्रता का स्वाद चखना चाहती थी।
राजा इन्द्र ने सोच विचार करने के बाद जब अपनी नजर उर्वशी पर डाली तो उसके दिल की खुशी व दुःख को बिल्कुल न समझ सका। फिर गंगाराव की तरफ आँख उठा कर देखा और स्वर्गलोक का राजा इन्द्र बोला, “राजा गंगाराव जी चौहान हम अपने वचनबद्ध होने के कारण उर्वशी तो आपको भेँट मेँ दे देँगे पर हमारी भी शर्त आपको माननी पड़ेगी, वह सिर्फ यह है कि एक तो, उर्वशी केवल घृत का ही आहार किया करेगी। दूसरे, दोनोँ प्यारे मेष उसकी चारपाई के पास ही बन्धे रहेँगे जिससे उनकी चोरी न होने पाये और सबसे भारी शर्त यह है कि अगर वह तुम्हेँ जब भी नग्न अवस्था मेँ देख लेगी उसी क्षण वह रूहपोश (गायब) हो जायेगी।”
राजा गंगाराव ने बिना आगा पीछा सोचे राजा इन्द्र की शर्तेँ मान लीँ। मानव तथा अप्सरा का स्वर्ग लोक से गमन हुआ। राजा गंगाराव ने उसी सरोवर के निकट विमान से उतरकर अपने घोड़े को खोला जहाँ उसे बांध कर गये थे और गोद मेँ भरकर अप्सरा को भी घोड़े की पीठ पर बिठा दिया। उसके बाद आप उछल कर घोड़े पर सवार हो राजधानी की ओर चल दिये।
इधर उर्वशी के गमन करते ही स्वर्गलोक अन्धकार मेँ डूब गया। बसन्त आया परन्तु लताओँ ने उसका स्वागत नहीँ किया। रसाल वृक्षोँ मेँ मन्जरी लगी पर कोई सरसता नहीँ थी, कोयल कूकती थी पर उसके कण्ठ मेँ कामिनियोँ को मोहने की योग्यता नहीँ थी। गन्धर्वोँ से यह सब वीरानगी देखी न गई। वे मृत्यु लोक से उर्वशी के लौटाने का उपाय सोचने लगे।
उधर, राजा गंगाराव व उर्वशी दोनोँ हँसी खुशी मेँ मग्न घोड़े की पीठ पर चढे बातेँ करते अपनी राजधानी मेँ इतनी जल्दी किस प्रकार आन पहुँचे कि पता ही नहीँ चला। जब अपने राजमहल के दरवाजे पर घोड़े से उतरे तो उर्वशी ने देखा कि सोने के बने कंगूरोँ वाला राजमहल सूर्य की प्रभा से चमक रहा था। जिससे उर्वशी की आँखेँ चौँध गईँ। प्रत्येक स्थान सजावट से भरपूर था। प्रजाजन अपनी साम्राज्ञी अप्सरा उर्वशी को देखने उमड़ पड़े और राज परिवार उर्वशी के सत्कार के लिए अपनी आँखेँ बिछाने मेँ पीछे न था।
आज इस सुहाने समय पर उर्वशी का भूतल पर आना स्वर्ण अवसर था। सारी नगरी मेँ घर-घर अप्सरा उर्वशी की ही चर्चा थी। राजा गंगाराव ने तुरन्त ही कुल पुरोहित को बुलाकर अप्सरा उर्वशी से विधिपूर्वक विवाह किया और गाजे बाजे के साथ सारी नगरी की ज्यौनार की। सैँकड़ोँ गऊओँ का ब्राह्मणोँ को दान किया और फकीरोँ के लिए खजाना खोलकर मोहर अशरफी बांट कर सबसे आशीष ली।
अब राजा गंगाराव के दिन भी उर्वशी के साथ ऐशो आराम से गुजरने लगे और उर्वशी अप्सरा से क्रमवार राजा को तीन राजकुमारोँ की प्राप्ति हुई। काफी दिनोँ से स्वर्गलोक के गन्धर्व उर्वशी को स्वर्गलोक मेँ लाना चाहते थे। एक दिन मध्य रात्रि को मौका देखकर गन्धर्व लोग एक मेष को चुराकर आकाश मेँ ले गए। उसकी करुण पुकार जब उर्वशी के कानोँ मेँ पड़ी तो वह रोने लगी। दूसरे मेष की आवाज सुनते ही वह अपने को अनाथ कहकर फूट-फूट कर रोने लगी। उर्वशी का रोना सुनकर राजा उन्मत्त हो गया और अपनी नग्नता पर बिना ध्यान दिए वह गन्धर्वोँ के पीछे दौड़ा। वे सब तो इसी प्रतीक्षा मेँ थे ही। राजा के दुर्भाग्य से अन्धेरे मेँ बिजली भी चमक उठी। राजा का नग्न शरीर उर्वशी के सामने प्रकट हो गया। उर्वशी उसी समय अन्तर्ध्यान हो गई। राजा पागल हो उसे खोजने मेँ ही मर गया और उसका कोई पता नहीँ चला।
उर्वशी ने जिन तीन राजकुमारोँ को जन्म दिया था, उनके नाम-इन्द्र, चन्द्र और कलेन्द्र थे। जब वे तीनोँ राजकुमार बड़े हो गए तब इन्होँने अपनी बहादुरी से अपनी वीरता को चार चाँद लगाए और अपने लिये बड़े-बड़े नगर बसाये। राजकुमार इन्द्र ने इन्दौर नगर को बसाकर अपनी राजधानी कायम की और चन्द्र ने भी अपने नाम से चन्दावर उर्फ चन्देरी तथा कलेन्द्र अपने पिता गंगाराव के ही राज्य के अधिकारी बने रहे। इनके पुत्र हुए कुँवरपाल सिँह। कुँवरपाल सिँह के उम्मरपाल सिँह यानी राजा उम्मर। उम्मर के पिता कुँवरपाल सिँह ने बागड़ देश पर चढाई करके सांभर व ददरेड़ा जीतकर अपनी राजधानी बसाई। इसी लड़ाई मेँ कुँवरपाल सिँह मारे गये थे जिससे राजा उमरपालसिँह राजा बने। इनकी रानी ने तीन सन्तानोँ को जन्म दिया जिन्मेँ दो लड़के जिनका लाड़ का नाम जेवर व नेवर रखा गया। उनके असली नाम बड़े बेटे का जेवर सिँह (जोरावर सिँह) और छोटे बेटे का नाम नेवर सिँह तथा बेटी का नाम छबीलदे था।




जब राजा उम्मरसिँह के दोनोँ लड़के सयाने हो गए तो उन्होँने राजकुमार जेवर का विवाह सिरसा पाटन के राजा कुमारपाल की बड़ी लड़की बाछल से और नेवरसिँह का छोटी लड़की काछल से (दोनोँ भाइयोँ की शादी दोनोँ बहनोँ से) करदी। जो तीसरी बहन आछल थी उसकी शादी बाद मेँ हरियाणा प्रान्त मेँ हुई थी। जब दस बारह वर्ष ब्याह को बीत गए और संतान का मुख देखना दोनोँ रानियोँ मेँ से एक को भी नसीब न हुआ, तो राजा उम्मरसिँह और उनके दोनोँ बेटोँ को बड़ी चिन्ता हुई कि कहीँ ये दोनोँ रानियाँ बाँझ तो नहीँ हैँ। अगर ऐसी ही बात है तो क्या हम दोनोँ भाई निसन्तान मरेँगे। क्या हमारे कुल मेँ कोई नाम लेवा और पानी देवा पैदा ही नहीँ होगा। क्या हमारा वंश हमारे बाद ही मिट जायेगा। राजा उम्मरसिँह के दोनोँ बेटे रात–दिन इसी फिकर मेँ घुलने लगे। ना दिन को चैन पड़ता न रात को निन्द्रा आती।
अपने पतियोँ को चिन्ता मेँ डूबा देख रानी बाछल व काछल का भी बहुत बुरा हाल था। दोनोँ बहनेँ दोनोँ दासियोँ से छिप छिपकर आँसू ढ़लका ढ़लका कर अपने नैना दुखाया करती थीँ। इन दोनोँ की ऐसी गमगीन दशा देखकर इनकी ननद छबीलदे भी अपनी दोनोँ भाभियोँ को बोल कुबोल बोला करती। कभी मनहूस शक्ल वाली कहती, कभी कलमुँही, कभी ओछे कुल की, कभी कुलक्षणा बाँझ। ये रानियां ननद छबीलदे के तानोँ से भी बड़ी दुखी हो गईँ थीँ। वे भगवान से यही प्रार्थना दिन रात करती थीँ कि हे भगवान! इस निसन्तान जीवन से तो मौत ही भली।
दोनोँ राजकुमारोँ को राज्यभार सौँपकर राजा उम्मरसिँह राम नाम तो जरूर जपते थे, मगर अपने घर को बिना बालक के, सूना देखकर और अपनी दोनोँ बहुओँ की सूनी गोद देखकर, भगवान से प्रार्थना भी करते थे कि “हे प्रभु! क्या मैँ बिना पोते-पोती का मुँह देखे ही काल के कराल गाल मेँ चला जाऊँगा? क्या मेरे दोनोँ राजकुमारोँ जेवर नेवर के भाग्य मेँ, अपनी सन्तान का सुख नहीँ लिखा है? प्रभू तेरी माया अपरम्पार है, मुझे एक पोता न दे तो एक पोती ही देकर अपनी दयालुता दिखादे।”
जिस प्रकार राजा उम्मरसिँह दुखी थे, उसी प्रकार रानी बाछल व रानी काछल का भी जीना हराम था। वे भी महा दुखी थी और रात–दिन रोने व ईश्वर से प्रार्थना करने के सिवा दूसरा कोई चारा नहीँ था। यही हाल राजा जेवरसिँह व नेवरसिँह का भी था।
एक दिन ब्राह्म मुहूर्त मेँ राजा जेवरसिँह हवाखोरी के वास्ते अपने महल से निकले तो सामने ही मेहतरानी झाड़ू से सड़क साफ कर रही थी। उसकी नज़र राजा जेवरसिँह पर पड़ी। राजा को देखते ही मेहतरानी, नाक सिकोड़कर मुँह फेर कर कहने लगी, “हे भगवान! दया करना, आज सुबह–सुबह निरबन्सी का मुँह देखा है। दिन भर रोटी मिलेगी या नहीँ।” राजा जेवरसिँह ने भी मेहतरानी की आधी परदी बात सुनी, परन्तु समझ सब गए कि ये नीच जाति की कमीनी औरत क्या कुछ कह रही है। राजा जेवरसिँह बड़े समझदार और दयालु प्रकृति के थे, उन्होँने मेहतरानी की बात सुनकर, अपने पूर्वजन्म के कर्मोँ तथा अपनी भाग्य हीनता को दोषी ठहराया। मेहतरानी को कुछ भी न कहा। अगर कोई दूसरा राजा होता तो, मेहतरानी को जिन्दी जमीन मे गढ़वा देता या कोड़ोँ से पिटाई करवाता, सारे नगर मेँ तहलका मच जाता। और किसी को भी इस प्रकार की शरारत भरी बात कहने की हिम्मत न पड़ती। परन्तु मेहतरानी से कुछ न कहकर राजा जेवरसिँह अपने महल मेँ आन कर पड़े रहे।
महान दुखी हो कहने लगे, “प्रभु! अब और नहीँ सहा जाता। नीच लोग तक बेईज्जती करते हैँ, इससे बड़ा दुख और कौनसा होगा। भगवान, मेरे पापोँ को क्षमा करो और मुझे एक बेटा या बेटी देकर मुझ कर्महीन के क्लेश काटो। तुम्हारे दरबार मेँ क्या कमी है, जिसका सारा परिवार दुखी है उसके जीवन को लाख बार धिक्कार है।” जेवरसिँह को दुखी देखकर राजा उम्मरसिँह ने, जेवरसिँह का राजतिलक करके शीशमेड़ी ददरेड़ा का राजा बना दिया और अपने छोटे बेटे नेवरसिँह को सांभर का इलाका देकर राज का बँटवारा कर दिया। दोनोँ को राज्यभार सौँपकर आप प्रभु भजन करने मेँ मन लगाने लगे। दोनोँ भाइयोँ मेँ से किसी ने भी अपने पूज्य पिता जी की आज्ञा का उल्लंघन नहीँ किया। इन दोनोँ को भी राज काज से मोह ममता नहीँ रही थी, जब उसको भोगने वाला राजकुमार ही जन्मा तब राजकाज का मोह किसलिए होता।
जब सारा ही राजभवन जिन्दगी से उकता गया तो राजा जेवरसिँह ने अपने राजपुरोहित को महल मेँ बुलाकर उनसे सलाह की कि “पुरोहित जी, हम बिना सन्तान के बहुत दुखी हैँ। हमारी जीने को इच्छा नहीँ करती। आप कोई उपाय बतावेँ जिससे जीवन सुखमय हो, जिन्दगी भारी मालूम न पड़े और हमारे महलोँ मे एक कुँवर पैदा हो जावे।” इतना कहकर राजा जेवरसिँह ने पुरोहितजी के पैर पकड़ लिए।
कुल पुरोहित ने राजा को उठा कर गले लगाया और आशीर्वाद देकर कहने लगे, “राजन्! चिन्ता फिकर छोड़ दो, दुखी होने की कोई जरूरत नहीँ। दुनिया मेँ कोई भी दुख ऐसा नहीँ जिसका उपाय न हो। अपने पापोँ का प्रायश्चित करने के लिए ही धर्म-कर्म ईश्वर ने बनाए हैँ। दान पुण्य करने से कैसा ही अपराध हो, प्रभू कृपा से क्षमा हो जाता है। मेरी राय मेँ आप सब राजपरिवार धर्म-कर्म, दान-पुण्य मेँ जी–जान से लग जाओ। धर्म की जड़ हमेशा हरी रहती है। सबसे पहले बाग बगीचा लगवाओ, धर्मशाला बनवाओ, कुए खुदवाओ। पानी की प्याऊ लगवाओ। सन्त महात्माओँ की सेवा करो, दान के लिए दरवाजे खोल दो। कोई भी भिखारी निराश न जावे। इससे ये होगा कि कोई सन्त महात्मा आवेगा और उसके आशीर्वाद से रानियोँ की गोदेँ भर जावेँगी।” राजा जेवरसिँह को अपने कुलपुरोहित की बात जंच गई और उन्होँने उसी वक्त डोँडी पिटवाकर ठेकेदार लोग बुलवा लिए और नौलखा बाग बनवाने का ठेका दे दिया तथा बाग मेँ ही धर्मशाला व कुए का निर्माण करवाया। कुए पर ही प्याऊ का भी इन्तजाम किया गया। उसी के पास पूजा के लिए मंदिर भी बनवाया जिसमेँ शिव-पार्वती, भैरव, हनुमान, दुर्गा व अन्नपूर्णा माँ की मूर्तियाँ स्थापित की गईँ।



बाग के पेड़ोँ को पानी देने की पूरी व्यवस्था हो जाने पर अनुकूल समय पर फल-फूल, आम, अमरूद, लीची, जामुन वगैरह के पेड़ पौधोँ से बाग हरा भरा हो गया। पेड़ोँ की डालियोँ को फलोँ से लदी देखकर माली मालिन बड़ा हर्ष मनाते।
इधर तो ये हर्ष मनाते थे और उधर राजा जेवरसिँह राज्य के बड़े बड़े विद्वानोँ को बुलाकर हवन कुण्ड बनवाकर महायज्ञ करवाने लगे। जब यज्ञ कराते और दान पुण्य करते, भण्डारे करवाते, साधुसन्तोँ की सेवा करते काफी समय व्यतीत हो गया तो स्वर्ग लोक मेँ बड़ी खलबली मच गई। राजा इन्द्र ने एक दिन नारद मुनि व शनिदेव को बुलाकर विनती की कि मृत्युलोक मेँ जो राजस्थान प्रान्त मेँ बागड़ शहर के ददरेड़ा नगर शीशमेड़ी का राजा जेवरसिँह बड़े बड़े यज्ञ कर रहा है उसे किसी उपाय से रोकना चाहिए। अगर वह इसी तरह यज्ञ हवन करता रहा और उसके सौ यज्ञ पूरे हो गये तो वह इन्द्रासन को छीनकर इन्द्रलोक पर कब्जा कर लेगा और इन्द्रासन पर अपना अधिकार कर लेगा। स्वर्ग के राजा इन्द्र की विनती सुनकर नारद मुनि व शनिदेव दोनोँ ब्राह्मण के वेश मेँ वीणा बजाते, हरि गुण गाते मृत्यु लोक मेँ राजा जेवरसिँह के दरबार मेँ आन पहुँचे।
उन्होने देखा कि राजा जेवरसिँह के महलोँ मेँ पंडितगण वेदपठन कर रहे हैँ। जय जयकार के साथ यज्ञ की बड़ी धूम मची है, तो हिम्मत जुटाकर शनिदेव राजा की पगड़ी मेँ घुस गए। तब नारद मुनि बोले, “हे राजन्! तुम इधर व्यर्थ मेँ इतना घृत और धन बरबाद कर रहे हो और उधर गरीब लोग भूखे मर रहे हैँ तो यह यज्ञ करना निरर्थक है। तुम्हेँ क्या दुख है, हमेँ बताओ। हम काशी के ज्ञानी पंडित हैँ जो तीन जन्मोँ का हाल बता देते हैँ।”
नारद मुनि की वाणी सुनकर राजा जेवरसिँह बड़े प्रसन्न हुए। वे तुरन्त ही सिँहासन त्याग खड़े हो, दोनोँ महात्माओँ के चरण स्पर्श और नमस्कार कर अपने दोनोँ हाथ जोड़ कर कहने लगे, “हे ब्रह्मज्ञानी ऋषियो ! मैँ भाग्यहीन निसन्तान होने के कारण ही हवन यज्ञ तथा दान पुण्य करके किसी महात्मा के दर्शन लाभ व सन्तान प्राप्ति के वरदान मिलने के कारण ही अपने राजपुरोहित की आज्ञानुसार ये पूजन वृत कर रहा हूँ। सो आज अनायास ही आप लोगोँ के दर्शन हो गए। अब मुझे आप महानुभावोँ से पुत्र प्राप्ति का वरदान मिलने की पूरी आशा है। हे ब्रह्मज्ञानी देव, मेरी मनोइच्छा पूरी होने का वरदान देने की कृपा करेँ और मेरे लायक जो सेवा हो वह बताने की दया करेँ। हे देवोँ के देव, मेरी हाथ जोड़कर पैर छूकर आपसे प्रार्थना है कि दुख को अतिशीघ्र हरो।”
इस प्रकार राजा जेवरसिँह को अधीर देख देवर्षि नारद बोले, “हे राजन् ! अधीर मत हो, धीरज धरो। तुम अगर मेरे बताये मार्ग पर चलोगे तो मेरा आशीर्वाद जरूर फलीभूत होगा और पुत्र प्राप्ति की तुम्हारी मनोकामना अवश्य पूरी होगी। हवन यज्ञ मेँ तो घी सामग्री फूंकना, मेरी समझ मेँ वृथा है। इसी घी से भांति-भांति के पकवान, सामग्री बनवाकर, गरीब दुखी लोगोँ को खिलाओ। साधु सन्तोँ को जिमाओ, इसके अलावा बात ये है कि सूर्यपुत्र गोरखनाथ ने इस पृथ्वी पर अवतार लिया है, जो भक्तोँ का उद्धार करने की खातिर अपने चौदह सौ चेलोँ की जमात के साथ नगर-नगर का भ्रमण करते हैँ। और अपने भक्तोँ का कष्ट हरकर उनकी मनोकामना पूरी करते हैँ।
सबसे सरल उपाय उनके अति शीघ्र दर्शनोँ का एक ही है कि गोरख गुरु के नाम की जोत, तुम या तुम्हारी रानी नित्य नियम से सुबह शाम दोनोँ वक्त बाले। गोरख गुरु के नाम की ज्योत बालने से वे तुम्हारे यहाँ पधारकर शीघ्र दर्शन देँगे और तुम्हेँ वरदान देकर तुम्हारी मनोकामना पूरी कर देँगे। उनके लिए अनहोनी को होनी मेँ बदल देना कोई मुश्किल बात नहीँ है। बड़े बड़े राजा महाराजा, हेला पट्टन का राजा गोपीचन्द, उज्जैन का राजा भर्तृहरि, स्यालकोट का राजकुमार पूरनमल जति के समान उनके चौदह सौ चेले हैँ।”
नारद मुनि के श्रीमुख से जो बचन निकले वे सब राजा जेवरसिँह के मन मेँ बैठ गये। उन्होँने नारद मुनि के चरणोँ मेँ शीश झुका दिया और पंडितोँ से यज्ञ हवन बन्द करवा दिये। उन्हेँ दिल खोलकर दक्षिणा दी। किसी को हीरा, किसी को मोती, किसी को मोहर-अशरफी, किसी को कंचन कड़े और किसी को शाल दुशाले दये तथा दुधारू गाय सोने के सींग मँढ़वाकर सब यज्ञकर्ताओँ को दीँ। अपने पुरोहित जी को जागीर देकर उनका मान बढ़ाया और शनीदेव व नारद मुनि को भी केवड़े गुलाब मेँ बनी खीर खांड के भोजन करवाये। शनीदेव की माया अपरम्पार है, उन्होँने राजा जेवरसिँह की मति हरकर राजा इन्द्र का सदमा दूर कर दिया और पुत्र प्राप्ति का उपाय बताकर, राजा जेवरसिँह का क्लेश भी हल्का कर दिया।
दोनोँ महात्माओँ ने राजा को आशीर्वाद दिया, “हे राजन् ! जगतपिता आपकी मनोकामना पूरी करेँ।” इतना कह शनीदेव व देवर्षि नारद इन्द्रलोक को गमन कर गये और वहाँ पहुँचकर राजा इन्द्र को यज्ञ हवन बन्द करवाने की खुशखबरी सुनाई।



राजा जेवरसिँह दोनोँ देवताओँ को विदा करके अपने महल मेँ पधारे। ये देख रानी बाछल दुखी हृदय से अपने दोनोँ हाथ जोड़कर राजा के सामने आन खड़ी हुई। रानी बाछल का उदास मुख देख, राजा जेवरसिँह ने शनीदेव व देवर्षि नारद के आशीर्वाद और गुरु गोरखनाथ की जोत बालने की सब वार्ता रानी बाछल को सुना दी। रानी बाछल ने एक मुद्दत के बाद राजा जेवरसिँह के चेहरे पर खुशी देखी थी। अपने पति के चेहरे पर खुशी देखकर रानी बाछल का भी रोम रोम खुशी से भर गया। जिसके कारण बाछल रानी के चेहरे पर भी रौनक की झलक आ गई। वह झटपट अपने पति के चरण पकड़कर बोली, “हे पिया प्यारे ! मैँ तुम पर वारि जाऊँ। आपने जो खुशखबरी मुझे सुनाई है उससे हमेँ अपनी मनोकामना पूरी होने मेँ कतई भी सन्देह नहीँ करना चाहिए। संन्यासियोँ, योगियोँ के वचन मिथ्या नहीँ जाते। मुझे अफसोस इसी बात का है कि मैँ अभागिन उनके दर्शन भी न कर पाई, आपको मुझे दर्शन जरूर कराने चाहिए थे। देव दर्शन से कष्ट उसी तरह भाग जाते हैँ, जिस तरह उजाले को देख कर अन्धेरा भाग जाता है।”
रानी बाछल की वार्ता सुनकर राजा जेवरसिँह बोले, “रानी ! बात तो आपकी ठीक ही है, मगर उन दोनोँ देवोँ के चेहरे पर इतना भारी तेज था कि मेरी आँखेँ उनसे ठीक प्रकार नजर भी न मिला सकीँ। मेरी विधाता ने ऐसी मति हरली, कि तुमको दर्शन कराने की बात तो दूर, मैँ उनका परिचय भी न पूछ पाया। उनकी मौजूदगी मेँ मेरी तर्क बुद्धि एकदम क्षीण हो गई थी। ऐसे महात्माओँ के दर्शन से तुम वंचित रह गई, इसका मुझे भी काफी दुख है परन्तु ईश्वर इच्छा समझकर सन्तोष कर लो, और गुरु गोरखनाथ जी महाराज की जोत नित नियम से दोनोँ समय बालने का जिम्मा भी तुम्हेँ ही लेना पड़ेगा। ये काम मर्दोँ के वश का नहीँ है। औरतेँ ही ऐसे कामोँ को समझदारी के साथ निभा लेती हैँ। हम लोग राज काज के झन्झटोँ के कारण चूक भी सकते हैँ। और रानी महात्मा लोग ये भी कहते थे कि गोरखनाथ भगवान हरि नारायण का अवतार है। उनकी जोत दोनोँ समय बालने से वे अपने चौदह सौ चेलोँ के साथ हमारे नगर मेँ पधारकर सबको दर्शन देकर हमारी मनोकामना पूरी करेँगे। पुत्र होने का वरदान भी तुम्हेँ ही मिलेगा और राजकुमार की मातेश्वरी का दर्जा पाकर फूली फूली फिरोगी।”
अपने पति राजा जेवरसिँह की मुस्कान भरी बातेँ सुनकर रानी बाछल फूली नहीँ समाई। उसकी खुशी का ठिकाना नहीँ रहा। उसके गुलाब जैसे चेहरे पर लाली छा गई। वह राजा जेवरसिँह से प्यार भरे लहजे मेँ मधुर मुस्कान भर कर बोली, “हटो भी, तुम्हेँ मसखरी की बातेँ करते लाज नहीँ लगती?”
रानी बाछल ने नित्य नियम से सुबह शाम दोनोँ वक्त गुरु गोरखनाथ की जोत बालनी शुरू कर दी और अपने दोनोँ हाथ जोड़कर, दण्डवत् कर गुरु गोरखनाथ से प्रार्थना करती थी और जगत् पिता परमात्मा को शीश झुका कहती थी, “हे प्रभु ! सिर्फ इतनी दया मुझ दुखियारी पर करना कि मैँ अपने गुरु गोरखनाथ की जोत बालने से किसी समय भी चूक न जाऊँ। प्रभु, आप सदा से ही भक्तोँ की टेक निभाते आये हैँ। फिर रानी बाछल की प्रार्थना क्योँ नहीँ सुनते?”
इस प्रकार से रानी बाछल को गुरु गोरखनाथ की नित्य नियम से जोत बालते व प्रार्थना करते, मुद्दत गुजर गई। तब एक दिन गौड़ बंगाले प्रान्त के जंगल मेँ गुरु गोरखनाथ की समाधि टूटती है, तो वे परमपिता परमात्मा का स्मरण कर सृष्टि पर नजर घुमाते हैँ कि कोई प्रभु का प्यारा नर-नारी दुखी तो नहीँ है। चौतरफा दृष्टि घुमाने से योगमाया द्वारा पता चला कि राजस्थान प्रान्त के बागड़ देश मेँ ददरेवा नगर के धर्मात्मा राजा जेवरसिँह की महारानी बाछल बिना सन्तान बड़ी दुखी है। वह एक मुद्दत से उनकी जोत बालकर उन्हेँ अपने यहाँ बुला रही है। तब गुरु गोरख ने विचार किया कि मुझे जल्द से जल्द बागड़ देश पहुँचकर उसे धीर बँधानी चाहिए और उसे पुत्र का वरदान देकर उसका दुख हरना चाहिए।
गुरु गोरखनाथ अपने प्रमुख चेले औघड़नाथ को आज्ञा देते हैँ कि बेटा औघड़, जल्दी से डेरे तम्बू उखाड़कर सब जमात को तैयार करो। हमेँ बहुत जल्द बागड़ देश पहुँचना है। इतनी बात अपने गुरु के श्रीमुख से सुनकर औघड़नाथ बोले, “हे गुरुदेव ! आप मुझे ये बताने की कृपा करेँ कि हमारे कौन जन्म के पाप उदय हो रहे हैँ, जो आप इस कड़ी गर्मी मेँ, बीहड़ के जंगल मेँ भेजकर हम लोगोँ को बिना मौत मरने को कह रहे हैँ। जहाँ मीलोँ तक न पानी है, न पेड़ोँ का नामोनिशान।”
औघड़नाथ की वाणी सुनकर गुरु गोरखनाथ बोले, “बेटा औघड़, चिन्ता न कर, वहाँ रत्ती भर भी तकलीफ न होगी। वहाँ के राजा रानी बड़े भक्त लोग हैँ। नौलखा बाग लगवाया है, वहाँ हम लोगोँ को मीठे मीठे फल खाने मिलेँगे। इसके अलावा देशी घी के पूड़ी पकवान।” अपने गुरु की आज्ञा मान औघड़नाथ ने चौदह सौ सन्तोँ को गुरु आज्ञा सुनाई। और डेरे तम्बू उखड़वा, बैलगाड़ियोँ मेँ भरवा दिया तथा हाथी वगैरह सजवा कर बागड़ देश रवाना होने का पूरा इन्तजाम कर दिया।




राजा जेवरसिँह द्वारा बनवाये गये नौलखे बाग मेँ शिव मन्दिर, कुंआ, प्याऊ सब खूब सुन्दर बनकर तैयार हो गये थे। राजा ने नौ लाख सोने की मोहरेँ तो पेड़ पौधोँ पर ही खर्च की थी। देश विदेश मेँ जहाँ भी बढ़िया से बढ़िया फलोँ के पौधे जिस मूल्य पर मिले वहीँ से मुँहमांगी कीमत देकर मँगवाये। ऐसे ऐसे फल फूल मेवे बाग मेँ लगे थे जिनकी महक कोसोँ तक जाती थी। धर्मशाला, मन्दिर की शान ही निराली थी। देखने वाले लोगोँ का कहना है कि धर्मशाला के सामने राजमहल की शान फीकी दिखाई देती थी। कुँए का जल गंगा के जल के समान एक दम मीठा था। पेड़ोँ की डालियोँ पर फल-फर्रूट पक कर गुच्छोँ मेँ लटक रहे थे।
माली मालिन की खुशी का ठिकाना नहीँ था। उन्हेँ अपने दिन फिरते नजर आते थे। माली मालिन ने आपस मेँ सलाह की कि फल, फलूट, मेवोँ की पहली डाली राज दरबार मेँ पहुँचानी चाहिए। ऐसा करने से भारी इनाम मिलेगा और हमारी गरीबी दूर हो जावेगी। इस प्रकार माली मालिन ने विचार कर खूब बढ़िया डाली सजाकर फल फूल मेवोँ से भरपूर कर खूब बड़ी डलिया सजाई और हँसी खुशी अपने शीश पर धर, राज दरबार मेँ पहुँचा, राजा जेवरसिँह को शीश झुका प्रणाम कर अपने दोनोँ हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। राजा ने जब निगाहेँ उठाकर माली के शीश पर भारी डल्ला देखा जिसकी खुशबू से भरे दरबार मेँ महक फैल गई थी, कहने लगे इसमेँ क्या लाया है?
राजा जेवरसिँह की बात सुनकर माली अपने दोनोँ हाथ जोड़कर, मधुर मुस्कान बिखेरता हुआ बोला, “श्री महाराज! ये आपके नौलखे बाग के फल मेवा की डाली लाया हूँ, जो सर्व प्रथम राजा को भेँट की जाती है।” अपने माली के मुख से वचन सुन, राजा जेवरसिँह फूलकर कूप्पा हो गये। मारे खुशी के मुख से बोल न निकला, झटपट अपने गले से माणिक मोतियोँ की कीमती माला माली को पकड़ा दी। और खजांची को हुक्म दिया कि एक सौ एक सोने की मोहरेँ माली को और इनाम दे दो तथा माली को आज्ञा दी अब तुम इस डाली को राजमहल मेँ पहुँचा दो, वहाँ तुम्हेँ और इनाम मिलेगा। राजा जेवरसिँह की बात सुन और अपना इनाम ले, डाली उठा, सब दरबारियोँ को प्रणाम कर खुशी खुशी राजमहल को चल दिया।
माली राजमहल मेँ पहुँचा और रानी बाछल को प्रणाम कर, हाथ जोड़ कहने लगा, “हे महारानी जी! मैँ नौलखे बाग का माली हूँ। प्रभु की कृपा से बाग खूब फल फूल रहा है, जिसकी महक चारोँ और फैल रही है। हे महारानी, मुझे ऐसा लगता है कि आपके अच्छे दिन आने वाले हैँ। प्रभु के घर देर है पर अन्धेर नहीँ है। मैँ नौलखे बाग के फलोँ की यह पहली डाली लेकर दरबार मेँ गया तो महाराज ने कहा कि तुम इसे लेकर महलोँ मेँ जाओ, वहाँ तुम्हेँ इनाम मिलेगा इसलिए मैँ यहाँ चला आया हूँ।”
अपने माली की वार्ता सुनकर बाछल रानी बड़ी खुश हुई और बाँदी को आज्ञा दे बोली, “इसके सिर से फल फलूट की डलिया उतरवा दो।” फिर माली से कहने लगी, “अच्छा! तो ये हमारे नौलखे बाग की डाली है। अब मुझे बताओ, धर्मशाला कैसी बनी है? शिवजी महाराज का मन्दिर कैसा बना है? कुँए का जल मीठा है या खारा? प्याऊ पर कहार तैनात किया है या पण्डित? मुझे सारा हाल ब्यौरेवार सुनाओ।”
रानी बाछल की इतनी बात सुन, माली हाथ जोड़कर कहने लगा, “महारानी जी! मैँ अपने इस छोटे मुँह से किस प्रकार बड़ाई करुँ, शिव मन्दिर व धर्मशाला आपके महल से भी सुन्दर बने हैँ। शिव मन्दिर के खम्बोँ मेँ जड़ी जवाहरात से एक दीवा जलाने से ही सूरज के समान रोशनी हो जाती है, जिस पर नजर जमाये से भी नहीँ जमती है। धर्मशाला की शान भी निराली ही है। साधू-सन्त, महन्त जो आ कर ठहरते हैँ, तारीफ करते नहीँ अघाते। मैँ अपनी जबान से तारीफ करने की लियाकत नहीँ रखता। जब आप अपनी नजर से देखेँगी तभी आप खुश होँगी।”
बाछल रानी खुश हो बोली, “ठीक है भैया, जब भगवान दिखायेगा तब ही देखूँगी। मेरा मन तो अभी देखने को अधीर हो रहा है, मगर हम राजपरिवार की नारियोँ को ये अधिकार कहाँ? जब राजा जी पण्डित जी को बुलाकर मुहूर्त निकलवायेँगे, तभी उनके साथ शंकर भगवान के दर्शन नसीब होँगे। भगवान चाहेँगे तो जग ज्यौनार भी होगी और जोर शोर से भण्डारा भी। अब तुम इनाम लेकर बाग को जाओ, मालिन तुम्हारा इन्तजार कर रही होगी।”
महारानी बाछल ने माली को थाली भर कर मोती दिए, चलनी भर कर पुखराज दिए। चढ़ने के लिए सुनहरी साज वाला घोड़ा दिया, हाथोँ के कंगन और छविदार कपड़े दिए तथा मालिन के लिए लहँगा दिया जिसमेँ सुनहरी तार जड़े हुए थे। इस प्रकार से खूब इनाम देकर रानी बाछल कहने लगीँ, “जब हम नौलखे बाग का मुहूर्त करेँगे, तब भी इसी प्रकार इनाम इकराम देँगे।”
इतना इनाम पाकर माली की खुशी का ठिकाना नहीँ रहा। वह खुशी से भरकर बाछल रानी को आशीर्वाद देते हुए कहने लगा, “महारानी जी! दूधो नहाओ पूतोँ फलो, आपकी रोज जय जयकार होती रहे। जब महलोँ मेँ राजकुमार जन्म लेगा तब मैँ मनचाही इनाम लूँगा और भगवान की कृपा से वह दिन जल्दी ही आयेगा।” इतना कह माली हाथ जोड़, शीश नवा कर, हँसता मुस्कराता बाग की ओर चल दिया।




माली रानी बाछल से इनाम ले हँसी खुशी बाग मेँ अपनी मालिन के पास आया और सब इनाम खुशी से दिखाया। सिर्फ लंहगा दुपट्टा उसे पकड़ा दिया बाकी सारी दौलत अपने कब्जे मेँ रखी। अपने मालिक की ये हरकत देखकर मालिन लड़ने झगड़ने लगी। कहने लगी, “जब, मेरी तुम्हारी शादी हो गई तब तुम्हारे कमाये माल मेँ मैँ आधे की अधिकारी बन गई। या तो सीधी तरह आधा माल लौटा दो वरना मैँ अभी राज दरबार मेँ जाकर तुम्हारा फजीता करूँगी और राजा जेवरसिँह व रानी बाछल से कहकर सारे माल पर अधिकार जमा लूँगी। अभी तो आधे पर ही राजी हो रही हूँ।”
माली ने सोचा, बात तो इसकी ठीक ही है, आजकल राजदरबारोँ मेँ भी औरतोँ की ही सुनाई होती है। इससे भलाई इसी मेँ है जब सारा जाता दिखता हो, तब आधा दीजे बाँट। जब मालिन ने माली को सोच विचार करते देखा और अपनी बात का उत्तर न पाया तो त्यौरी मेँ बल गिराकर बोली, “अब मैँ आधा नहीँ लेने की, अब तो सारा ही लेकर दिखाऊँगी। जब राजा जी के यहाँ महारानी बाछल की चलती है तो मेरी अपने घर मेँ कैसे न चलेगी। तुम देख लेना रानी बाछल मेरे ही हक मेँ फैसला देँगी। वह भली भाँति जानती हैँ कि मर्द तो उड़ाऊ – खाऊ होते हैँ। और घरवाली ही घर बनाना जानती हैँ। अब हम बालक नहीँ रह गई हैँ, जो बहला फुसला कर सारा माल दबा जाओगे।”
अपनी मालिन की बात सुनकर माली बोला, “भाग्यवान! मैँने तुमसे कब बेईमानी की थी, जो झूठी तोहमत लगाकर अपने को ईमानदार साबित करना चाहती हो।” इतनी बात सुन मालिन भड़क कर बोली, “हमारे ब्याह मेँ, मेरे माँ–बाप ने जो रुपया–पैसा और जेवर दिया था, वह तुमने सब जुए और शराब मेँ उड़ा दिया। जब हमेँ समझ होती तो तुम्हारी मीठी चुपड़ी बातोँ मेँ आनकर नंगी न हो बैठती। मैँ अब अच्छी तरह जान गई हूँ, तुम इस इनाम की रकम की भी वही गत करोगे।” इतनी बात मालिन की सुन माली बोला, “क्या रानी बाछल और राजा जेवर से ये अगली–पिछली बातेँ भी कहोगी?” इस पर मालिन फिर तड़क कर बोली, “कहूँगी नहीँ तो क्या यूँ ही छोड़ दूँगी? तुम्हारी पिछली बातेँ सुनकर ही तो, सारा माल तुमसे निकलवाकर मुझे दिलाया जायेगा।”
अपनी मालिन की वार्ता सुनकर माली घबरा गया और इनाम का मिला सारा माल मालिन के सामने उलट कर कहने लगा, “मैँ तो तुमसे हँसी मजाक कर रहा था। तुम्हारा कहा ही ठीक है। घर की मालकिन तुम ही हो। मैँने बचपने की नादानी मेँ गलत काम किए थे उनका मुझे खुद पश्चाताप है।” इस पर मालिन मुस्करा कर बोली, “अगर मैँ ही कुछ समझदार होती तो, तुम्हारी मीठी चुपड़ी बातोँ मेँ आकर ये बरबाद न कर बैठती। चलो, अब भगवान ने हमारी सुन ली। काफी माल आ गया है अब प्रेम पूर्वक रहकर आनन्द से जिन्दगी काटेँगे।” अपनी मालिन की प्यार भरी वार्ता सुनकर माली बोला, “बड़ी चालाक हो, इनाम का सारा माल कब्जे मेँ करके अब मीठी मीठी बातेँ करती हो।” फिर अपने मेँ विचार करने लगा कि सारी गलती मेरी है जो सारा इनाम का मिला माल इसके कब्जे मेँ कर दिया। अब आगे जो इनाम मिलेगा उसकी हवा भी न लगने दूँगा।
अपने मन मेँ निराश हो कहने लगा, “अब पछताये क्या होत, जब चिड़िया चुग गई खेत। चलो ये भी अच्छ ही हुआ अगर राजा जेवरसिँह व रानी बाछल के सामने ये फजीता करती तो मुझे डूब मरने के सिवा कोई चारा नहीँ था। चलो बात तो न बिगड़ी, दुनिया मेँ मुँह दिखाने की जगह तो रह गई।” इस प्रकार अपने मन को तसल्ली दे, अपनी मालिन के साथ हँसी–खुशी से रहने लगा।



माली को विदा करके रानी बाछल ने खुशी से अपनी ननद छबीलदे को बुलाया तथा अपनी सहेलियोँ से मिलकर मंगल गीत गाने लगी। महल मेँ ढोलक, मंजीरे बजने लगे, नाच गान होने लगा। रानी बाछल ने मिठाई बँटवाई और ननद छबील दे को खूब नेग दिया तो वह खुशी से फूली नहीँ समाई।
रानी बाछल आज अति प्रसन्न है, और दुखी दरिद्र लोगोँ को खूब धन-दौलत लुटा, मिठाई पकवान व पूड़ी कचौड़ी बँटवा रही है। और मन ही मन खुश हो कह रही है, “मैँ अपने राजा जी के संग नौलखा बाग देखने जाऊँगी। और बाग का ब्याह कराकर भारी भण्डारा कराऊँगी।” दिन छिपे शाम के वक्त दरबार बरखास्त कर राजा जेवरसिँह महल मेँ पधारे और रानी बाछल से कहने लगे, “रानीजी! हमारे नौलखे बाग का माली, जो फल-मेवा की डाली लाया था, क्या वह हमेँ नहीँ चखाओगी? जैसे हमारे बाग मेँ फल-फूल आये हैँ, वैसे ही भगवान तुम्हारी गोद हरी भरी करने की दया करेँगे। और महलोँ मेँ किलकारियोँ की गूंज करने के लिए बहादुर वीर राजकुमार को भी भेजेँगे।”
अपने पति की रसभरी बातेँ सुनकर रानी बाछल ने बिना देर किए फलोँ की डलिया लाकर राजा जेवरसिँह के आगे रख दी। जैसे ही राजा हाथ मेँ फल लेकर चाकू से काटने लगा तो रानी बाछल ने उनका हाथ पकड़ लिया और कहने लगी, “हे पतिदेव! आप क्षत्रिय हैँ, इसलिए कुँवारे पेड़ के, कुँवारे फल खाना उचित नहीँ है। मेरी सलाह मानो, पहले बाग का ब्याह रचाओ फिर फल खायेँगे तो अच्छा लगेगा।”
अपनी महारानी बाछल के कहने से राजा जेवरसिँह ने फल को टोकरी मेँ ज्योँ का त्योँ रख दिया परन्तु फल खाने की इच्छा बनी ही रही। राजा अपनी रानी बाछल से कहने लगे, “फिर हमेँ जल्दी ही पंडित को बुलवा, बाग का ब्याह सुधवाना चाहिए। हमेँ धन दौलत की कोई चिन्ता नहीँ है, चाहे कितना ही खर्च हो जाय। सात पुश्त की दौलत खजाने मेँ भरी पड़ी है। तुम्हारे सुख के लिए धन दौलत का सदुपयोग करने मेँ मैँ पीछे नहीँ रहूँगा।” इतना सुनते ही रानी बाछल फूली न समाई। उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। झटपट अपनी बाँदी मूंगादे को बुला, राज पुरोहित व राज ज्योतिषी को लिवा लाने को कहा। बाँदी रानी बाछल का हुक्म सुन तुरन्त ही चल पड़ी।
बाँदी मूंगादे बिना देर लगाए पंडितजी के घर पहुँची और उनको प्रणाम कर कहने लगी, “हे पंडित जी! मैँ रानी बाछल की दासी मूंगादे हूँ। किसी जरूरी काम से महारानी जी आपको बुलाया है। यदि वे खुश हो जायेँगी तो आपको खूब धन भी देँगी और आपकी दरिद्रता दूर हो जायेगी।” पंडित ने बाँदी मूंगादे की बात सुन पल भर भी देर करना उचित नहीँ समझा। झटपट पूजा अर्चना कर, अपने माथे पर चंदन का तिलक लगाया और राम नामी दुपट्टा कंधे पर धर, पोथी पत्रा बगल मेँ दबाया फिर गौरी सुत का ध्यान कर , खड़ाऊ पहन बाँदी के पीछे पीछे हो लिए।
राजा रानी ने जब ड्यौढ़ी मेँ मूंगादे बाँदी व पंडित जी का बोल सुना तो तुरन्त दोनोँ ने अपने दोनोँ हाथ जोड़कर पंडित जी को प्रणाम किया। बदले मेँ पंडित जी ने आशीर्वाद दे कहा, “खुश रहो, फूलो फलो।” बाँदी ने रानी बाछल का इशारा मिलते ही पंडित जी को मूंढ़े पर बिठाया। तब पंडित जी बोले, “हे राजन! सेवक को कैसे याद किया, बताने की कृपा करेँ।”
पंडित जी की वाणी सुनकर राजा जेवरसिँह कहने लगे, “पुरोहित जी महाराज ! हमारी रानी जी का विचार है कि पहले नौलखे बाग का ब्याह करो तब फल फलूट मेवा खाना। हमारे बाग का माली जो फल लाया था, रानी जी ने उसके खाने मेँ अड़चन पैदा कर डाली। कहने लगी कि बिना बाग का ब्याह किए कुँवारे बाग के फल खाना क्षत्री धर्म के लिए निषेध माना गया है। कृपा करके आप बतावेँ कि रानी जी की ये बुढ़िया पुराण की बातेँ कहाँ तक ठीक हैँ। मेरी शंका का निवारण कीजिए।”
राजा जेवरसिँह की वार्ता सुनकर पंडित जी बोले, “राजन ! और तो सब पुराणोँ के नाम मुझे याद हैँ पर ये बुढ़िया पुराण आज ही आपके मुख से सुन रहा हूँ।” इस पर राजा बोले, “पुरोहित जी, ये सब बहुत पुराने पुराण हैँ जिन्हेँ आप लोग भूल बैठे हैँ। बुढ़िया पुराण, गड़बड़ पुराण आदि ये बहुत पुराने जमाने के पुराण हैँ।” पंडित जी बोले, “ठीक है, ये सब पुराण कथा के योग न होने के कारण हमारे बुजुर्गोँ ने इन्हेँ निषेध मान लिया होगा। अब रही बाग के मुहूर्त की बात, सो पंचांग देखकर ज्योतिष द्वारा सब ठीक ठीक बतलाये देता हूँ।”
पंडित जी ने गौरीसुत का ध्यान कर पोथी पत्रा खोला। राहू, चन्द्रमा व बृहस्पति की स्थिति जान कहने लगे, “हे राजन ! मेरी बात ध्यान से सुनो। इस समय ग्रह हमारे अनुकूल नहीँ हैँ। भगवान कृष्ण मुरारी जी नाराज जान पड़ते हैँ, ऐसे समय मेँ अगर तुम बाग मेँ जाओगे तो नौलक्खा बाग सूख जायेगा, कुंए का मीठा पानी खारा हो जायेगा। हमारी इस बात को तुम सत्य समझना।”
अपने पुरोहित जी की बात सुनकर जेवरसिँह व रानी बाछल को बड़ा दुख हुआ और वे बहुत बेचैन हो पंडित जी से बोले, “गुरुदेव! इसके पलट का उपाय भी क्या तुम्हारे चारोँ वेदोँ मेँ से किसी मेँ नहीँ लिखा है?” इतनी बात राजा जेवरसिँह की सुनकर पंडित जी भयभीत हो गए और अपने मन मेँ कहने लगे, यह राजा का राजमहल है जिसकी सदा से उल्टी रीति होती है। किसी ने ठीक ही कहा है कि राजा, योगी, अग्नि, जल, इनकी उल्टी रीति, इनसे बचकर चलिए थोड़ी पाले प्रीति। ऐसा मन मेँ विचार पंडित जी बोले, “राजन! उपाय क्योँ नहीँ है? महारानी बाछल और आप दोनोँ प्राणी आँखोँ पर पट्टी बाँध बाग मेँ जावेँ। बाकी ब्याह, भोजन-भण्डारे, ज्यौनार व नाच-कूद, गाने-बजाने, खेल-तमाशोँ का इन्तजाम दूसरे लोग करेँ। आपको मेरी प्रार्थना स्वीकार हो तो आप बेशक ब्याह का इन्तजाम करवा सकते हैँ। आपको ब्याह देखना निषेध है।”



राजा जेवरसिँह व रानी बाछल को अपने पुरोहित की बात भा गई। पंडित जी ने भादो बदी नवमी का शुभ दिन बाग के ब्याह के लिए निश्चित किया। बाग के ब्याह की तैयारी बड़ी धूम धाम के साथ होने लगी। नाते रिश्तेदारोँ को न्योते भेजे गये। गोती भाइयोँ पर सवार दौड़ाये। बाग मेँ साले साढ़ू की देख रेख मेँ तम्बू तनवाये। दावत व भण्डारे का इन्तजाम करवाया। गाने बजाने व झूला झूलने का भी प्रबन्ध हुआ। नेवरसिँह व हरियाणे वाले साढ़ू खजांची का काम कर रहे थे। जो नजर भेँट आती थी, ये दोनोँ लिख पढ़ कर संभाल कर संगवा लेते थे। बाग मेँ बड़ा भारी मेला सा लगा था। जग ज्यौनार हुई। ढोल मृदंग बजने से और दूसरे खेल तमाशे लगने से सारे नगर मेँ धूम मच गई। राजा ने घोड़े पर सवार हो आँखोँ पर पट्टी बाँध ली। रानी बाछल को भी आँखोँ पर पट्टी बँधवा, सच्चे मोतियोँ के झालरदार डोले मेँ बिठा नौलक्खे बाग को रवाना हुए और चन्द मिन्टोँ मेँ बाग के दरवाजे पर पहुँच गए।
लीली घोड़ी पर असवार राजा को बाग मेँ आता देख बाग का माली भी दौड़ा आया। बाग मेँ तम्बू तने देखे तथा राजा–रानी की आँखोँ पर पट्टी बँधी देखकर प्रजा को बड़ी हैरानी हुई। लोग विचार करने लगे कि राजा के अपनी आँखोँ पर पट्टी बाँधने का क्या कारण है? रानी जी की आँखोँ पर भी पट्टी बँधी है तो क्या दोनोँ की आँखेँ एक साथ ही दुखने को आई हैँ? इससे जनता को बड़ा मलाल था। सब अपना अपना अन्दाज लगा रहे थे। सच्ची बात का किसी को कोई पता न था और न किसी को पूछने की जुर्रत थी, न मजाल थी।
बाग का ब्याह हो रहा था। राजा जेवर दिल खोल कर दान कर रहे थे। मूंगा, मोती, हीरा, पन्ना लूटा रहे थे और मेहमान, भिखारी आदि खुश हो खजाना लूट रहे थे। चारोँ और खुशी का माहोल था पर राजा के आँखोँ पर पट्टी बँधी थी तो लोगोँ की खुशी कैसे देखे? अपने को ऐसे खुशी के मौके पर नहीँ देख पाने के कारण राजा को गुस्सा आ गया और वे रानी बाछल से कहने लगे, “महारानी! मैँ तुमसे क्या कहूँ? दुनिया बाग की बहार लूट रही है और मैँ देख भी नहीँ सकता। मेरे कौनसे जन्म के पाप आड़े आ रहे हैँ। मेरा जी कर रहा है कि मैँ घोड़े पर बाग की सैर करूँ। फल मेवे खाना तो दूर, हमने बाग के कुएँ का पानी भी नहीँ पिया। हमने तो कभी खोटे कर्म भी नहीँ किए, अपना धर्म नहीँ छोड़ा, रात–दिन पुण्य किया है फिर भी पूर्व जन्म के कौनसे कुकर्मोँ का फल हमेँ विधाता दे रहा है? हे रानी, जबसे बाग लगाया है, एक बार भी उसे देख नहीँ पाया। ऐसे ब्याह करने को मुझे लाखोँ बार धिक्कार है। अब मैँ किसी की एक नहीँ मानूँगा, चाहे पाखण्डी जमाना कुछ भी कहे। आँखोँ पर बँधी इस पट्टी को मैँ अभी खोल फेँकता हूँ। रानी, झटपट घोड़ा मंगवाओ और तुम भी डोले मेँ बैठ कर हमारे पीछे पीछे आओ हम बाग की सैर करेँगे।”
राजा जेवर सिँह की वार्ता सुनकर रानी बाछल के पैरोँ तले की धरती निकल गई। बेचारी पतिव्रता नारी का धर्म है कि अपने पति की आज्ञा का उल्लंघन न करे। वह तन-मन से आज्ञा का पालन करे। वह हाथ जोड़कर राजा जेवरसिँह से कहने लगी, “हे स्वामी! आपकी बात बिल्कुल ठीक है। मेरा मन भी अपने नौलक्खे बाग की सैर करने को बेचैन है। मैँ भी आपके घोड़े के पीछे पीछे बाग की सैर करूँगी।”
राजा जेवरसिँह अपनी नीली घोड़ी पर सवार हो जाते हैँ और रानी बाछल, डोले मेँ सवार हो जाती है। आगे-आगे राजा-रानी, दायेँ-बायेँ वजीर उमराओ और सबसे आगे बाजे वाले। राजा-रानी ने अपनी आँखोँ की पट्टी खोल दी और पेड़ पौधोँ पर अपनी नजर घुमाई। बाग के पेड़ोँ पर राजा की नजर पड़ते ही पौधे मुरझा कर सूख जाते हैँ और कुएँ का जल भी मीठे के स्थान पर खारा हो जाता है। जब राजा-रानी ने पेड़ पौधोँ को मुरझाते देखा तो उन्हेँ बड़ा दुख हुआ और सोचने लगे कि कर्म गति से कुछ बस नहीँ चलता। हमारे कोई बेटा-बेटी तो है नही, तो सोचा चलो बाग का ब्याह करके ही मन की निकाल लेँ। सो हमारे अभाग्य से, पेड़ पौधे भी सूख कर मुर्झा गये। कुएँ का मीठा पानी भी खारा हो गया। अब इस बाग मेँ कौन आवेगा? कौन धर्मशाला मेँ आकर ठहरेगा? ऐसे खारे पानी को कौन पियेगा? बिना पानी तो भजन पूजन भी दुर्लभ है। कोई दूर से भगवान को हाथ जोड़कर माथा भले ही नवा जावे। मुसाफिर प्याऊ का पानी पीकर हमेँ कोसेगा और पंडित से भी लड़ेगा।
राजा जेवरसिँह सोचते हैँ, “इस जिन्दगी से मौत ही भली। अब हमारा मरना ही भला है।” और वह म्यान मेँ से कटार निकाल कर अपनी गरदन मेँ मारना चाहते हैँ। रानी बाछल हैरान हो जाती है। वह एकदम डोले से निकलकर और आगे बढ़ झटपट अपने राजा के हाथ से कटार छीन लेती है और हाथ जोड़कर कहती है कि राजाजी, पहले मुझे मारो फिर आप मरना। रानी बाछल राजा को धैर्य बँधाते हुए कहती है, “महाराज! आप नाहक ही क्योँ मरना चाहते हैँ। सभी दिन एकसार नहीँ रहते। राजा नल पर भी भारी विपदा पड़ी थी तब वे दमयन्ती को आधे चीर मेँ जंगल मेँ छोड़कर चले गये। तेली के बैल हाँके और खूँटी भी हार निगल गई थी फिर भी वो सत्य पर डटे रहे। हे महाराज, विपदा सदा नहीँ रहती है, अच्छे बुरे दिन धूप छाया के समान हैँ। आज हमारे बुरे दिन हैँ तो कल को अच्छे दिन भी आयेँगे। मैँ रात-दिन गुरु गोरख को मनाती हूँ। वे आने वाले हैँ तथा हमारे दुख हरने वाले हैँ। राजा जी, मेरा कहा मान कर महल को चलो। मेरा भी गुरु गोरख की जोत बालने का वक्त हो आया है। इसलिए अब यहाँ देर करना ठीक नहीँ।”
इस प्रकार चतुर रानी बाछल राजा जेवरसिँह को समझा बुझा कर महलोँ को लौटा लाई और अपने प्रीतम को पंचरंग पलंग बिछा कर आराम करने को कह कर, आप गुरु गोरखनाथ की जोत जलाने व आरती करने मेँ लग गई।


रानी बाछल अपने पति राजा जेवरसिँह को समझा बुझा, धीरज बँधा, महलोँ मेँ ले तो आई परन्तु राजा का जी खट्टा हो चुका था। उन्हेँ ये दुनिया अच्छी नहीँ लग रही थी। सोचते थे कि क्या इसी का नाम जीवन है जो हवन करते हाथ जलते हैँ, क्या ये ही राजसुख है? मुझ राजा से तो वन के सन्त योगी संन्यासी लाखोँ गुना अच्छे हैँ। न आए का गम न गए की खुशी, अपनी नीँद सोना, अपनी नीँद उठना। जब जी चाहा भगवत् भजन किया, जब जी चाहा कुंडी सोटा ले भंग घोटनी शुरु कर दी। तभी तो उनकी देही सांड़ोँ जैसी होती है। एक मैँ हूँ, राजा होते हुए भी चिन्ता फिकर के कारण आँखेँ मगज मेँ धँस गई हैँ। मुँह पीला पड़ गया है, गाल पिचक गए हैँ। खाना पीना जहर सा लगता है। रात को नींद नहीँ आती है। सोना हराम हो गया है। इससे तो साधू बन कर वन मेँ रहना ही ठीक है।
फिर सोचने लगे कि रानी बाछल पर क्या बीतेगी, अपने भाई नेवर सिँह को राज का भार सौँपता हूँ तो रानी बाछल तो रो रोकर ही अपनी जान दे देगी। इसका रानीपना मिट्टी मेँ मिल जाएगा। कोई धीरज बँधाने वाला भी नहीँ दीखता, बांदी से भी बुरी इसकी दशा हो जाएगी क्योँकि रानी बाछल की बहन काछल बड़ी धूर्त व कपटी स्वभाव की औरत है। वह बाछल रानी के साथ बड़ी बहन की तरह बर्ताव नहीँ करती। रानी बाछल के साथ अच्छा बर्ताव होगा इसकी मुझे जरा भी आशा नहीँ है। एक साली भगवान राम की भी थीँ देवी उर्मिला, जिन्होँने अपने जीजा के वनवास के कारण दुखित हो अपने पति को अपनी बड़ी बहन व अपने बड़े जीजा की सेवा के लिए चौदह वर्ष को वन मेँ पठा दिया था। अपने स्वामी लक्ष्मण का विरह दुख हँसी खुशी से झेला था और एक ये मेरी साली काछल है जो हम लोगोँ को फूटी आँख से भी खाता पीता नहीँ देखना चाहती। हिन्दू जाति का कितना पतन हो गया।
इससे तो यही मुनासिब है कि रानी बाछल के सिर पर ताज रखा जाय और सारा अख्तियार राज काज व फौज पलटन का रानी बाछल को ही सौँप देना चाहिए। रानी बाछल पतिव्रता नारी, दयालु स्वभाव तथा मुन्शिफ मिज़ाज है और राज चलाने के काबिल पढ़ी-लिखी भी है। तीर-तलवार चलाने मेँ भी काफी चतुर है। चेहरे पर भी वीरता झलकती दिखाई देती है और वह दुश्मन का मुकाबला करने मेँ भी काफी तेज व चतुर है। दुष्टोँ के संग रियायत भी ठीक नहीँ है। किसी ने सच ही कहा है -
नीच न छोड़े नीचता कोटिन करो उपाय।
नाग जहर ही उगलता कितना ही दूध पिलाय।
राजा जेवरसिँह को जरा भी नीँद नहीँ आई। वह पलंग पर लेटे लेटे रात भर ये ही विचार करते रहे। रात बीत गई, दिन निकल आया। प्रभु का स्मरण कर शय्या का त्याग किया और नित्य कर्म से फारिग हो भगवान का भजन करने लगे। इधर रानी बाछल ने स्नान ध्यान से फारिग हो, अपने पति को शीश झुका, गुरु गोरखनाथ की जोत जला फारिग हो गई और राजा जेवरसिँह के चरणोँ की धूल अपने माथे पर लगाकर अपन पति से बोली, “अब आप की तबियत कैसी है? आपका चेहरा तो अब भी उदास है, रात को नीँद आयी या नहीँ? अब चिन्ता छोड़ो, राम-राम कहो और नाश्ता कर दरबार जाइये। गुरु गोरखनाथ जरूर कृपा करेँगे और जो भी दुख हमेँ है उसे जरूर दूर करेँगे।” रानी के वचन सुनकर राजा बोले, “रानी! मैँ तुमसे अपने मन की बात कहना चाहता हूँ। मुझे पूर्ण आशा है कि तुम मेरे इरादे मेँ विघ्न न डालोगी। पतिव्रता नारी कष्ट सहकर भी अपने पति के वचनोँ के मन-वचन-कर्म से पालन करती है। हे रानी, विधाता ने हमेँ ये कैसा दुख दिया है जो तुम जैसी नारी भी बाँझ है। लोगोँ हमेँ ताना मारते हैँ और उनकी बोली हमेँ गोली के समान लगती है। इससे दुख और दुगुना हो जाता है। रानी, मैँ अब राजपाट को छोड़ कर साधू बन प्रभु का नाम जपना चाहता हूँ जिससे चौरासी छूट जाती है।” राजा की बात सुन रानी बाछल कहने लगी, “हे राजा जी! आप दुखी न होँ। बुरे वक्त मेँ अपने भी गैर हो जाते हैँ, ये तो इस दुनिया की रीत है। ये संसार बड़ा खुद गरजी है। आप मेरी बात मानो और दूसरा ब्याह करलो। जब सौतन सन्तान को जन्म देगी तो मैँ हँस–हँसके उसे अपनी गोद मेँ खिलाऊँगी। बच्चे को अपने कलेजे से लगाकर रखूँगी और आपकी सेवा करूँगी।”
राजा जेवरसिँह कहने लगे, “रानी, मैँ दूसरी शादी कभी नहीँ करूँगा। राजा उत्तानपाद ने भी दूसरी शादी की थी तो सौतेली माँ ने बालक ध्रुव को घर से निकाल वन मेँ भेज दिया था। वहाँ ध्रुव को नारद मुनि मिले और उसे अपना चेला बनाकर ज्ञान प्रदान किया। ध्रुव की तपस्या से क्षीर सिन्धु मेँ प्रभु का सिँहासन हिलने लगा। तब प्रभु दौड़े आये और ध्रुव को दर्शन देकर उसे अमर तत्व प्रदान किया। उसे ध्रुव तारे के रूप मेँ सबसे ऊँचा दरजा दे दिया जिससे बड़ा कोई सितारा नहीँ है। इसलिए हे महारानी! ध्रुव वन मेँ नहीँ जाते तो भगवान के दर्शन कैसे करते। दूसरे ब्याह से आज तक कोई सुखी नहीँ हुआ है। मुझे ऐसा सन्तान सुख नहीँ चाहिए। मेरा तो अब पक्का विचार साधु बनकर वन मेँ भजन करने का है, और तुम्हारे शीश पर राज मुकुट धरने का है। मुझे पूरी तुमसे पूरी आशा है कि छोटा हो बड़ा सबसे न्याय पूर्वक बरताव करोगी। तुम्हारी पीठ हल्की नहीँ है। तुम्हारी मदद के वास्ते मेरे बूढ़े पिताजी और भाई नेवरसिँह व मेरी बहन छबीलदे और तुम्हारी बहन काछल है। परन्तु अपनी बहन काछल से होशियार रहना, वह तन की उजली और मन की काली है। ये लो खजाने की चाबियाँ और ये राज्य अंगूठी। और ये रहा आपके राजरानी के खुद मुखतारी का इकरारनामा। जिस पर पंचोँ के मन्त्री व खजान्ची के दस्तखत हैँ सो अभी तुम्हारे सामने बुलाकर इकरार कराये देता हूँ।”
अपने पति की वार्ता सुन कर रानी बाछल बुरी तरह घबरा गई और हाथ जोड़ शीश नवा कर बोली, “हे प्राणनाथ! क्या इस तरह किसी ने भरा भराया घर छोड़ा है? जो आप मुझ दुखिया नार के कन्धोँ पर राजभार छोड़कर वन को जाना चाहते हो। क्या घर पर रहकर रामभजन करने को कोई आपको मना करता है? क्या आपके पिताजी घर मेँ बैठकर रामभजन नहीँ करते हैँ? हम उन्हेँ क्या असुविधा पहुँचाते हैँ। अगर मेरी गोदी सूनी न होती, तो भी मैँ सबर कर लेती। ऐसी हालत मेँ तो नगरी के सब लोग-लुगाई कर्महीन, कमबख्त ही कहेँगे। मुझे इस तरह कौन जीने देगा। ननद छबीली व सासू रामकौर जी दोनोँ ही बहुत भली हैँ, परन्तु उनकी सीधी बात भी मेरा जिगर छील कर धर देगी। इसलिए मेरा कहा मानकर महल के एक हिस्से मेँ अपने संन्यासीपन का सब सामान धरवा लो। और खूब जी लगाकर तन-मन से रात-दिन प्रभु की पूजा करो जैसे आपके पिताजी करते हैँ। भोजन दोनो समय आपकी मन मरजी का आपके पास पहुँच जाया करेगा।”
रानी बाछल ने अपने पति राजा जेवरसिँह के, पैर पकड़कर रो रोकर काफी प्रार्थना अर्चना की। परन्तु राजा को बैराग हो जाने के कारण उनका मन नहीँ पसीजा। वह रानी बाछल से कहने लगे, “महारानी जी! तुम कैसी बातेँ करती हो। अपने मन को पक्का करके वीर धीर बनो, मोह ममता का त्याग करो। एक मैँ ही क्या, न जाने कितनोँ ने अधीर होकर घरोँ को त्यागा है। महाराजा भरथरी (भर्तृहरि), राजा गोपीचन्द, भक्त पूर्णमल और महात्मा बुद्ध देव वगैरह अनगिनत भूपोँ ने, दुखी हो राज्य का त्यागन किया है। अगर घर मेँ ही शांति का वास होता तो, इतने साधू संन्यासी बन वन मेँ क्योँ रहते। इन्हीँ सन्तोँ की तरह मुझे भी घर काटने को दौड़ता है। यहाँ मैँ अति शीघ्र मृत्यु के मुख मेँ समा जाऊँगा। तब भी तो तुम्हेँ राजकाज संभालना पड़ेगा। मुझे मेरे जी की करके कुछ दिन जीने दो। मेरी शांति मेँ रुकावट पैदा मत करो।”
अपने पति राजा जेवरसिँह की वार्ता सुनकर रानी बाछल ने अच्छी तरह समझ लिया, अब ये नहीँ मानने वाले हैँ। इन्हेँ वैराग हो गया है, इन्हेँ जब तक शांति से रहना न मिलेगा तब तक इनका मन अशांत रहेगा। शांत होने पर खुद घर लौट आयेँगे। परन्तु मन शान्त हो जाने का वचन भरवा लेना चाहिए। इस प्रकार रानी बाछल अपने मन मेँ सोच विचार कर, आँखोँ मेँ आँसू भरकर हाथ जोड़ कर बोली, “हे प्राणनाथ! अब आप नहीँ मानते तो, जब आपका मन शांत हो जावे, तब सीधे आकर मुझ अभागिन को शांति प्रदान करने की कृपा करना। मुझे गुरु गोरखनाथ की जोत जलाते, काफी अरसा हो गया है। वह मय जमात अपने चौदह सौ चेलोँ के साथ शीघ्र ही अपने नगर मेँ पधारने वाले हैँ, ऐसे मेँ आपका होना बहुत जरूरी है वरना गुरु गोरखनाथ के वरदान का कोई फायदा नहीँ होगा। आशा है आप मेरा मतलब अच्छी तरह समझ गये होँगे। न समझे तो अच्छी तरह समझ लो।”
“सत्यवान व सती सावित्री की कथा कौन नहीँ जानता? आखिरी वरदान मेँ सावित्री ने धर्मराज से ये ही वरदान मांगा था कि मेरे धर्म परायण सौ पुत्र होँ। धर्मराज की मति मारी गई और उन्होँने सौ पुत्रोँ का वरदान देकर चलने लगे तभी सती सावित्री ने शेरनी की तरह गरज कर, और अपने दोनोँ हाथ जोड़कर धर्मराज का रास्ता रोक लिया और आँखेँ लाल पीली करके बोली, “हे धर्मराज! क्या कहने तुम्हारे वरदान के। छोड़ो मेरे पति को, इन्हेँ कहाँ लेकर चले। श्रीमान् जरा सोचेँ, इनके बिना मेरे सौ धर्मपुत्र कैसे पैदा होँगे?” धर्मराज की आँखे खुल गईँ। सती सावित्री के पातिव्रत का तेज उनसे झेला नहीँ गया। बात सच्ची थी, धर्मराज हार मान गए और अपने नैन नीचे करके बोले, “धन्य हो भारतवर्ष की पतिव्रता देवी! तुम जीत गई और मैँ हार गया।” इस प्रकार अपने सौ पुत्रोँ के वरदान के साथ-साथ अपने पति को भी ले और चार सौ साल की इनकी आयु होने का वरदान भी सावित्री ले आयी। अब तो आप समझ गये होँगे कि दिन फिरते देर नहीँ लगती। अब आप अपने वन मेँ जाने की तैयारी जब चाहेँ कर सकते हैँ। अब आपको कुछ समझना बाकी नहीँ रह गया है।”
रानी बाछल की बात सुनकर राजा जेवरसिँह को बड़ी शांति मिली। थोड़ी देर के वास्ते उनकी ये ही इच्छा हो गई कि घर पर रहकर अपना काम ही देखना चाहिए। परन्तु तीर हाथ से छूट चुका था और साथ ही क्षत्री का कौल, और बड़े बूढ़ोँ की इज्जत का सवाल आन खड़ा हो गया। राजा विचार करने लगे, “भगवान राम अपनी माता के कहने से चौदह वर्षोँ के लिए वन मेँ जा सकते हैँ, तो क्या मैँ कुछ दिनोँ के लिए घर नहीँ छोड़ सकता। मुझे अपना विचार अब नहीँ बदलना चाहिए। जबकि रानी बाछल की भी इजाजत मिल चुकी है। इसलिए वन जाने मेँ ही बेहतरी है। मेँ हमेशा को थोड़े ही वन जा रहा हूँ। साल दो साल के लिए जब भी जी उकता जायेगा, तभी वापिस आ जाऊँगा।”

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विशेष सुचना

( जो भी मंत्र तंत्र टोटका इत्यादि ब्लॉग में दिए गए है वे केवल सूचनार्थ ही है, अगर साधना करनी है तो वो पूर्ण जानकार गुरु के निर्देशन में ही करने से लाभदायक होंगे, किसी भी नुक्सान हानि के लिए प्रकाशक व लेखक जिम्मेदार नहीं होगा। )