Wednesday, September 26, 2018

पितृ पक्ष पर श्राद्ध जानकारी

पितृ पक्ष पर श्राद्ध जानकारी


हिन्दू धर्म में मृत्यु के बाद श्राद्ध करना बेहद जरूरी माना जाता है। मान्यतानुसार अगर किसी मनुष्य का विधिपूर्वक श्राद्ध और तर्पण ना किया जाए तो उसे इस लोक से मुक्ति नहीं मिलती और वह भूत के रूप में इस संसार में ही रह जाता है।

पितृ पक्ष का महत्त्व -

ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार देवताओं को प्रसन्न करने से पहले मनुष्य को अपने पितरों यानि पूर्वजों को प्रसन्न करना चाहिए। हिन्दू ज्योतिष के अनुसार भी पितृ दोष को सबसे जटिल कुंडली दोषों में से एक माना जाता है। पितरों की शांति के लिए हर वर्ष भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से आश्विन कृष्ण अमावस्या तक के काल को पितृ पक्ष श्राद्ध होते हैं। मान्यता है कि इस दौरान कुछ समय के लिए यमराज पितरों को आजाद कर देते हैं ताकि वह अपने परिजनों से श्राद्ध ग्रहण कर सकें ।

श्राद्ध क्या है ?

ब्रह्म पुराण के अनुसार जो भी वस्तु उचित काल या स्थान पर पितरों के नाम उचित विधि द्वारा ब्राह्मणों को श्रद्धापूर्वक दिया जाए वह श्राद्ध कहलाता है। श्राद्ध के माध्यम से पितरों को तृप्ति के लिए भोजन पहुंचाया जाता है। पिण्ड रूप में पितरों को दिया गया भोजन श्राद्ध का अहम हिस्सा होता है।

क्यों जरूरी है श्राद्ध देना ?

मान्यता है कि अगर पितर रुष्ट हो जाए तो मनुष्य को जीवन में कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है। पितरों की अशांति के कारण धन हानि ग्रह कलेश आर्थिक समस्या मंगल कार्य में अड़चन  जैसे शादी विवाह शुभ कार्य और संतान पक्ष से समस्याओं का सामना करना पड़ता है। संतान-हीनता के मामलों में ज्योतिषी पितृ दोष को अवश्य देखते हैं। ऐसे लोगों को पितृ पक्ष के दौरान श्राद्ध अवश्य करना चाहिए।

क्या दिया जाता है श्राद्ध में ?

श्राद्ध में तिल, चावल, जौ आदि को अधिक महत्त्व दिया जाता है। साथ ही पुराणों में इस बात का भी जिक्र है कि श्राद्ध का अधिकार केवल योग्य ब्राह्मणों को है। श्राद्ध में तिल और कुशा का सर्वाधिक महत्त्व होता है। श्राद्ध में पितरों को अर्पित किए जाने वाले भोज्य पदार्थ को पिंडी रूप में अर्पित करना चाहिए। श्राद्ध का अधिकार पुत्र, भाई, पौत्र, प्रपौत्र समेत महिलाओं को भी होता है।

श्राद्ध में कौओं का महत्त्व

कौए को पितरों का रूप माना जाता है। मान्यता है कि श्राद्ध ग्रहण करने के लिए हमारे पितर कौए का रूप धारण कर नियत तिथि पर दोपहर के समय हमारे घर आते हैं। अगर उन्हें श्राद्ध नहीं मिलता तो वह रुष्ट हो जाते हैं। इस कारण श्राद्ध का प्रथम अंश कौओं को दिया जाता है ।

किस तारीख में करना चाहिए श्राद्ध ?

सरल शब्दों में समझा जाए तो श्राद्ध दिवंगत परिजनों को उनकी मृत्यु की तिथि पर श्रद्धापूर्वक याद किया जाना है । अगर किसी परिजन की मृत्यु प्रतिपदा को हुई हो तो उनका श्राद्ध प्रतिपदा के दिन ही किया जाता है ।
 इसी प्रकार अन्य दिनों में भी ऐसा ही किया जाता है । इस विषय में कुछ विशेष मान्यता भी है जो निम्न हैं -
पिता का श्राद्ध अष्टमी के दिन और माता का नवमी के दिन किया जाता है ।
जिन परिजनों की अकाल मृत्यु हुई जो यानि किसी दुर्घटना या आत्महत्या के कारण हुई हो उनका श्राद्ध चतुर्दशी के दिन किया जाता है।
साधु और संन्यासियों का श्राद्ध द्वाद्वशी के दिन किया जाता है ।
जिन पितरों के मरने की तिथि याद नहीं है, उनका श्राद्ध अमावस्या के दिन किया जाता है।  इस दिन को सर्व पितृ श्राद्ध कहा जाता है ।

 पितृ पक्ष - श्राद्ध

जिन लोगों को अपने परिजनों की मृत्यु की तिथि ज्ञात नहीं होती उनके लिये भी श्राद्ध-पक्ष में कुछ विशेष तिथियाँ निर्धारित की गई हैं । उन तिथियों पर वे लोग पितरों के निमित श्राद्ध कर सकते है ।

1. प्रतिपदा :
इस तिथि को नाना-नानी के श्राद्ध के लिए सही बताया गया है । इस तिथि को श्राद्ध करने से उनकी आत्मा को शांति मिलती है ।
यदि नाना-नानी के परिवार में कोई श्राद्ध करने वाला न हो और उनकी मृत्युतिथि याद न हो, तो आप इस दिन उनका श्राद्ध कर सकते हैं ।

2. पंचमी :
जिन लोगों की मृत्यु अविवाहित स्थिति में हुई हो, उनका श्राद्ध इस तिथि को किया जाना चाहिये ।

3. नवमी : 
सौभाग्यवती यानि पति के रहते ही जिनकी मृत्यु हो गई हो, उन स्त्रियों का श्राद्ध नवमी को किया जाता है ।
यह तिथि माता के श्राद्ध के लिए भी उत्तम मानी गई है । इसलिए इसे मातृ-नवमी भी कहते हैं ।
मान्यता है कि - इस तिथि पर श्राद्ध कर्म करने से कुल की सभी दिवंगत महिलाओं का श्राद्ध हो जाता है ।

4. एकादशी और द्वादशी :
एकादशी में वैष्णव संन्यासी का श्राद्ध करते हैं ।
अर्थात् इस तिथि को उन लोगों का श्राद्ध किए जाने का विधान है, जिन्होंने संन्यास लिया हो ।

5. चतुर्दशी :
इस तिथि में शस्त्र, आत्म-हत्या, विष और दुर्घटना यानि जिनकी अकाल मृत्यु हुई हो उनका श्राद्ध किया जाता है ।
जबकि बच्चों का श्राद्ध कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को करने के लिए कहा गया है ।

6. सर्वपितृमोक्ष अमावस्या : 
किसी कारण से पितृपक्ष की अन्य तिथियों पर पितरों का श्राद्ध करने से चूक गये हैं या पितरों की तिथि याद नहीं है । तो इस तिथि पर सभी पितरों का श्राद्ध किया जा सकता है ।

शास्त्र अनुसार - 
इस दिन श्राद्ध करने से कुल के सभी पितरों का श्राद्ध हो जाता है । यही नहीं जिनका मरने पर संस्कार नहीं हुआ हो, उनका भी अमावस्या तिथि को ही श्राद्ध करना चाहिये ।

7. बाकी तो जिनकी जो तिथि हो, श्राद्धपक्ष में उसी तिथि पर श्राद्ध करना चाहिये - यही उचित भी है ।

पिंडदान करने के लिए सफेद या पीले वस्त्र ही धारण करें । जो इस प्रकार श्राद्धादि कर्म संपन्न करते हैं, वे समस्त मनोरथों को प्राप्त करते हैं और अनंत काल तक स्वर्ग का उपभोग करते हैं ।

विशेष: श्राद्ध कर्म करने वालों को निम्न मंत्र तीन बार अवश्य पढ़ना चाहिये ।

 यह मंत्र ब्रह्मा जी द्वारा रचित आयु, आरोग्य, धन, लक्ष्मी प्रदान करने वाला अमृतमंत्र है --

देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिश्च एव च।
नमः स्वधायै स्वाहायै नित्यमेव भवन्त्युत ।। 
वायु पुराण ।

श्राद्ध सदैव दोपहर के समय ही करें। प्रातः एवं सायंकाल के समय श्राद्ध निषेध कहा गया है। हमारे धर्म-ग्रंथों में पितरों को देवताओं के समान संज्ञा दी गई है ।
‘सिद्धांत शिरोमणि’
ग्रंथ के अनुसार चंद्रमा की ऊर्ध्व कक्षा में पितर लोक है जहां पितर रहते हैं ।
उस स्थिति को मृत्यु कहते हैं ।
यह भौतिक शरीर 27 तत्वों के संघात से बना है । स्थूल पंच महाभूतों एवं स्थूल कर्मेन्द्रियों को छोड़ने पर अर्थात मृत्यु को प्राप्त हो जाने पर भी 17 तत्वों से बना हुआ सूक्ष्म शरीर  विद्यमान रहता है ।
हिंदू मान्यताओं के अनुसार एक वर्ष तक प्रायः सूक्ष्म जीव को नया शरीर नहीं मिलता । मोहवश वह सूक्ष्म जीव स्वजनों व घर के आसपास घूमता रहता है।
श्राद्ध कार्य के अनुष्ठान से सूक्ष्म जीव को तृप्ति मिलती है । इसीलिए श्राद्ध कर्म किया जाता है ।
ऐसा कुछ भी नहीं है कि इस अनुष्ठान में ब्राह्मणों को जो भोजन खिलाया जाता है वही पदार्थ ज्यों का त्यों उसी आकार, वजन और परिमाण में मृतक पितरों को मिलता है।
वास्तव में श्रद्धापूर्वक श्राद्ध में दिए गए भोजन का सूक्ष्म अंश परिणत होकर उसी अनुपात व मात्रा में प्राणी को मिलता है ।
पितर लोक में गया हुआ प्राणी श्राद्ध में दिए हुए अन्न का स्वधा रूप में परिणत हुए को खाता है ।
सच्चे मन, विश्वास, श्रद्धा के साथ किए गए संकल्प की पूर्ति होने पर पितरों को आत्मिक शांति मिलती है। तभी वे हम पर आशीर्वाद रूपी अमृत की वर्षा करते हैं ।
श्राद्ध की संपूर्ण प्रक्रिया दक्षिण दिशा की ओर मुंह करके की जाये तो अच्छा - क्योंकि पितर-लोक को दक्षिण दिशा में बताया गया है ।
इस अवसर पर तुलसी दल का प्रयोग अवश्य करना चाहिए । गया, पुष्कर, प्रयाग, हरिद्वार आदि तीर्थों में श्राद्ध करने का विशेष महत्व है ।
जिस दिन श्राद्ध करें उस दिन पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करें । श्राद्ध के दिन क्रोध, चिड़चिड़ापन और कलह से दूर रहें।

पितृ-पक्ष - श्राद्ध

 इस सृष्टि में हर चीज का अथवा प्राणी का जोड़ा है । जैसे - रात और दिन, अँधेरा और उजाला, सफ़ेद और काला, अमीर और गरीब अथवा नर और नारी इत्यादि बहुत गिनवाये जा सकते हैं । सभी चीजें अपने जोड़े से सार्थक है अथवा एक-दूसरे के पूरक है । दोनों एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं । इसी तरह दृश्य और अदृश्य जगत का भी जोड़ा है । दृश्य जगत वो है जो हमें दिखता है और अदृश्य जगत वो है जो हमें नहीं दिखता । ये भी एक-दूसरे पर निर्भर है और एक-दूसरे के पूरक हैं । पितृ-लोक भी अदृश्य-जगत का हिस्सा है और अपनी सक्रियता के लिये दृश्य जगत के श्राद्ध पर निर्भर है ।
 धर्म ग्रंथों के अनुसार श्राद्ध के सोलह दिनों में लोग अपने पितरों को जल देते हैं तथा उनकी मृत्युतिथि पर श्राद्ध करते हैं। ऐसी मान्यता है कि पितरों का ऋण श्राद्ध द्वारा चुकाया जाता है। वर्ष के किसी भी मास तथा तिथि में स्वर्गवासी हुए पितरों के लिए पितृपक्ष की उसी तिथि को श्राद्ध किया जाता है ।
 पूर्णिमा पर देहांत होने से भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा को श्राद्ध करने का विधान है। इसी दिन से महालय (श्राद्ध) का प्रारंभ भी माना जाता है। श्राद्ध का अर्थ है श्रद्धा से जो कुछ दिया जाए। पितृपक्ष में श्राद्ध करने से पितृगण वर्षभर तक प्रसन्न रहते हैं। धर्म शास्त्रों में कहा गया है कि पितरों का पिण्ड दान करने वाला गृहस्थ दीर्घायु, पुत्र-पौत्रादि, यश, स्वर्ग, पुष्टि, बल, लक्ष्मी, पशु, सुख-साधन तथा धन-धान्य आदि की प्राप्ति करता है।
 श्राद्ध में पितरों को आशा रहती है कि हमारे पुत्र-पौत्रादि हमें पिण्ड दान तथा तिलांजलि प्रदान कर संतुष्ट करेंगे। इसी आशा के साथ वे पितृलोक से पृथ्वीलोक पर आते हैं। यही कारण है कि हिंदू धर्म शास्त्रों में प्रत्येक हिंदू गृहस्थ को पितृपक्ष में श्राद्ध अवश्य रूप से करने के लिए कहा गया है।
 श्राद्ध से जुड़ी कई ऐसी बातें हैं जो बहुत कम लोग जानते हैं। मगर ये बातें श्राद्ध करने से पूर्व जान लेना बहुत जरूरी है क्योंकि कई बार विधिपूर्वक श्राद्ध न करने से पितृ श्राप भी दे देते हैं।

1- श्राद्धकर्म में गाय का घी, दूध या दही काम में लेना चाहिए। यह ध्यान रखें कि गाय को बच्चा हुए दस दिन से अधिक हो चुके हैं। दस दिन के अंदर बछड़े को जन्म देने वाली गाय के दूध का उपयोग श्राद्ध कर्म में नहीं करना चाहिए।

2- श्राद्ध में चांदी के बर्तनों का उपयोग व दान पुण्यदायक तो है ही राक्षसों का नाश करने वाला भी माना गया है। पितरों के लिए चांदी के बर्तन में सिर्फ पानी ही दिए जाए तो वह अक्षय तृप्तिकारक होता है। पितरों के लिए अर्घ्य, पिण्ड और भोजन के बर्तन भी चांदी के हों तो और भी श्रेष्ठ माना जाता है।

3- श्राद्ध में ब्राह्मण को भोजन करवाते समय परोसने के बर्तन दोनों हाथों से पकड़ कर लाने चाहिए, एक हाथ से लाए अन्न पात्र से परोसा हुआ भोजन राक्षस छीन लेते हैं।

4- ब्राह्मण को भोजन मौन रहकर एवं व्यंजनों की प्रशंसा किए बगैर करना चाहिए क्योंकि पितर तब तक ही भोजन ग्रहण करते हैं जब तक ब्राह्मण मौन रह कर भोजन करें।

5- जो पितृ शस्त्र आदि से मारे गए हों उनका श्राद्ध मुख्य तिथि के अतिरिक्त चतुर्दशी को भी करना चाहिए। इससे वे प्रसन्न होते हैं। श्राद्ध गुप्त रूप से करना चाहिए। पिंडदान पर साधारण या नीच मनुष्यों की दृष्टि पडने से वह पितरों को नहीं पहुंचता।

6- श्राद्ध में ब्राह्मण को भोजन करवाना आवश्यक है, जो व्यक्ति बिना ब्राह्मण के श्राद्ध कर्म करता है, उसके घर में पितर भोजन नहीं करते, श्राप देकर लौट जाते हैं। ब्राह्मण हीन श्राद्ध से मनुष्य महापापी होता है।

7- श्राद्ध में जौ, कांगनी, मटरसरसों का उपयोग श्रेष्ठ रहता है। तिल की मात्रा अधिक होने पर श्राद्ध अक्षय हो जाता है। वास्तव में तिल पिशाचों से श्राद्ध की रक्षा करते हैं। कुशा (एक प्रकार की घास) राक्षसों से बचाते हैं।

8- दूसरे की भूमि पर श्राद्ध नहीं करना चाहिए। वन, पर्वत, पुण्यतीर्थ एवं मंदिर दूसरे की भूमि नहीं माने जाते क्योंकि इन पर किसी का स्वामित्व नहीं माना गया है। अत: इन स्थानों पर श्राद्ध किया जा सकता है।

9- चाहे मनुष्य देवकार्य में ब्राह्मण का चयन करते समय न सोचे, लेकिन पितृ कार्य में योग्य ब्राह्मण का ही चयन करना चाहिए क्योंकि श्राद्ध में पितरों की तृप्ति ब्राह्मणों द्वारा ही होती है।

10- जो व्यक्ति किसी कारणवश एक ही नगर में रहनी वाली अपनी बहिन, जमाई और भानजे को श्राद्ध में भोजन नहीं कराता, उसके यहां पितर के साथ ही देवता भी अन्न ग्रहण नहीं करते।

11- श्राद्ध करते समय यदि कोई भिखारी आ जाए तो उसे आदरपूर्वक भोजन करवाना चाहिए। जो व्यक्ति ऐसे समय में घर आए याचक को भगा देता है उसका श्राद्ध कर्म पूर्ण नहीं माना जाता और उसका फल भी नष्ट हो जाता है।

12- शुक्लपक्ष में, रात्रि में, युग्म दिनों (एक ही दिन दो तिथियों का योग)में तथा अपने जन्मदिन पर कभी श्राद्ध नहीं करना चाहिए। धर्म ग्रंथों के अनुसार सायंकाल का समय राक्षसों के लिए होता है, यह समय सभी कार्यों के लिए निंदित है। अत: शाम के समय भी श्राद्धकर्म नहीं करना चाहिए।

13- श्राद्ध में प्रसन्न पितृगण मनुष्यों को पुत्र, धन, विद्या, आयु, आरोग्य, लौकिक सुख, मोक्ष और स्वर्ग प्रदान करते हैं। श्राद्ध के लिए शुक्लपक्ष की अपेक्षा कृष्णपक्ष श्रेष्ठ माना गया है।

14- रात्रि को राक्षसी समय माना गया है। अत: रात में श्राद्ध कर्म नहीं करना चाहिए। दोनों संध्याओं के समय भी श्राद्धकर्म नहीं करना चाहिए। दिन के आठवें मुहूर्त (कुतपकाल) में पितरों के लिए दिया गया दान अक्षय होता है।

15- श्राद्ध में ये चीजें होना महत्वपूर्ण हैं- गंगाजल, दूध, शहद, दौहित्र, कुश और तिल। केले के पत्ते पर श्राद्ध भोजन निषेध है। सोने, चांदी, कांसे, तांबे के पात्र उत्तम हैं। इनके अभाव में पत्तल उपयोग की जा सकती है।

16- तुलसी से पितृगण प्रसन्न होते हैं। ऐसी धार्मिक मान्यता है कि पितृगण गरुड़ पर सवार होकर विष्णु लोक को चले जाते हैं। तुलसी से पिंड की पूजा करने से पितर लोग प्रलयकाल तक संतुष्ट रहते हैं।

17- रेशमी, कंबल, ऊन, लकड़ी, तृण, पर्ण, कुश आदि के आसन श्रेष्ठ हैं। आसन में लोहा किसी भी रूप में प्रयुक्त नहीं होना चाहिए।

18- चना, मसूर, उड़द, कुलथी, सत्तू, मूली, काला जीरा, कचनार, खीरा, काला उड़द, काला नमक, लौकी, बड़ी सरसों, काले सरसों की पत्ती और बासी, अपवित्र फल या अन्न श्राद्ध में निषेध हैं।

19- भविष्य पुराण के अनुसार श्राद्ध 12 प्रकार के होते हैं, जो इस प्रकार हैं-
1- नित्य, 2- नैमित्तिक, 3- काम्य, 4- वृद्धि, 5- सपिण्डन, 6- पार्वण, 7- गोष्ठी, 8- शुद्धर्थ, 9- कर्मांग, 10- दैविक, 11- यात्रार्थ, 12- पुष्टयर्थ

20- श्राद्ध के प्रमुख अंग इस प्रकार :
तर्पण- इसमें दूध, तिल, कुशा, पुष्प, गंध मिश्रित जल पितरों को तृप्त करने हेतु दिया जाता है। श्राद्ध पक्ष में इसे नित्य करने का विधान है।
भोजन व पिण्ड दान-- पितरों के निमित्त ब्राह्मणों को भोजन दिया जाता है। श्राद्ध करते समय चावल या जौ के पिण्ड दान भी किए जाते हैं।
वस्त्रदान-- वस्त्र दान देना श्राद्ध का मुख्य लक्ष्य भी है।
दक्षिणा दान-- यज्ञ की पत्नी दक्षिणा है जब तक भोजन कराकर वस्त्र और दक्षिणा नहीं दी जाती उसका फल नहीं मिलता।

21 - श्राद्ध तिथि के पूर्व ही यथाशक्ति विद्वान ब्राह्मणों को भोजन के लिए बुलावा दें। श्राद्ध के दिन भोजन के लिए आए ब्राह्मणों को दक्षिण दिशा में बैठाएं।

22- पितरों की पसंद का भोजन दूध, दही, घी और शहद के साथ अन्न से बनाए गए पकवान जैसे खीर आदि है। इसलिए ब्राह्मणों को ऐसे भोजन कराने का विशेष ध्यान रखें।

23- तैयार भोजन में से गाय, कुत्ते, कौए, देवता और चींटी के लिए थोड़ा सा भाग निकालें। इसके बाद हाथ जल, अक्षत यानी चावल, चन्दन, फूल और तिल लेकर ब्राह्मणों से संकल्प लें।

24- कुत्ते और कौए के निमित्त निकाला भोजन कुत्ते और कौए को ही कराएं किंतु देवता और चींटी का भोजन गाय को खिला सकते हैं। इसके बाद ही ब्राह्मणों को भोजन कराएं। पूरी तृप्ति से भोजन कराने के बाद ब्राह्मणों के मस्तक पर तिलक लगाकर यथाशक्ति कपड़े, अन्न और दक्षिणा दान कर आशीर्वाद पाएं।

25- ब्राह्मणों को भोजन के बाद घर के द्वार तक पूरे सम्मान के साथ विदा करके आएं। क्योंकि ऐसा माना जाता है कि ब्राह्मणों के साथ-साथ पितर लोग भी चलते हैं। ब्राह्मणों के भोजन के बाद ही अपने परिजनों, दोस्तों और रिश्तेदारों को भोजन कराएं।

26- पिता का श्राद्ध पुत्र को ही करना चाहिए। पुत्र के न होने पर पत्नी श्राद्ध कर सकती है। पत्नी न होने पर सगा भाई और उसके भी अभाव में सपिंडो (परिवार के) को श्राद्ध करना चाहिए । एक से अधिक पुत्र होने पर सबसे बड़ा पुत्र श्राध्दकर्म करें या सबसे छोटा ।

Sunday, September 23, 2018

पितृ-सूक्त का महत्त्व

पितृ-सूक्त का महत्त्व 

आज के समय में ‘पितृ-दोष’ लगातार फैलता जा रहा है। किसी के घर में ‘पितृ-दोष’ है, तो कहीं किसी की ‘जन्म-कुण्ड़ली’ में ‘पितृ-दोष’ पाया जाता है। इसका सबसे बड़ा कारण तो यह है कि ‘कुल-पुरोहित’ का न होना।
दो, तीन दशक पहले तक सभी घरों के अपने-अपने ‘कुल-पुरोहित’ होते थे और आम व्यक्ति अपने पितरों के निमित्त जो भी श्राद्ध या दान करते थे, उसमें ‘कुल-पुरोहित’ प्रधान होता था, किन्तु समय के साथ-साथ जहाँ बहुत कुछ बदला, वहीं ‘कुल-पुरोहित’ परम्परा भी लुप्त सी हो गई है। गिने-चुने घरों में ही ‘कुल-पुरोहित’ बचे हुऐ हैं।

अधिकतर व्यक्ति ‘पितृ-पूजा’ छोड़ चुके हैं। कुछ व्यक्ति पितरों के नाम पर इधर-उधर दान करते है, जिससे कि उन्हे थोड़ा-बहुत फायदा तो होता है, किन्तु सम्पूर्ण रूप से लाभ नहीं मिल पाता। ‘पितर-दोष’ से परेशान व्यक्ति उपाय हेतु जब किसी के भी पास जाता है, तो अधिकतर पंडित-पुरोहित ‘पूरे-परिवार’ (खानदान) को मिलकर ‘पितर-दोष निवारण पूजा’ करने को कहतें हैं, या फिर ‘गया-श्राद्ध’ करने को कहते हैं। आज का समय ऐसा हो गया है कि सम्पूर्ण परिवार पूजा के नाम पर एकत्रित होना मुश्किल है।

‘गया-श्राद्ध’ भी सभी व्यक्ति नहीं करा पाते। कुछ लोग जो ‘गया-श्राद्ध’ करवाते भी हैं, तो सम्पूर्ण नियमों का प्रयोग नहीं करते। जिससे कि उन्हें वो फायदा नहीं मिलता जो कि उन्हें मिलना चाहिये।

‘पितर-दोष निवारण’ की सबसे प्राचीन एवं श्रेष्ठ पद्धति ‘नारायणबलि’ है। ‘नारायणबलि को आज के समय में सही ढ़ंग से करने एवं कराने वाले भी बहुत ही कम ‘पंड़ित’ रह गये है।

जो साधक ‘एकादशी’ या ‘अमावस्या’ के दिन, ‘पितृ-पक्ष’ में, या प्रतिदिन ‘पितृ-सूक्त’ का पाठ करता है, उसके ‘घर’ में या ‘जन्म-कुण्ड़ली’ में कैसा भी ‘पितृ-दोष’ क्यों न हो, हमेशा के लिए समाप्त हो जाता है और ‘पितरों’ की असीम-कृपा ‘साधक और उसके परिवार’ पर हो जाती है।

स्कंद-पुराण’ के अनुसार ब्राह्मणों के पितर ‘ॠषि वसिष्ठ’ के पुत्र माने गये हैं, अतः ब्राह्मणों को उनकी पूजा करनी चाहिये।

क्षत्रियों के पितर ‘अंगिरस- ॠषि’ के पुत्र माने गये है, अतः क्षत्रियों को उनकी पूजा करनी चाहिये।

वैश्यों को ‘पुलह-ऋषि’ के पुत्रों की पितर रूप में पूजा करनी चाहिये।

शुद्रों को ‘हिरण्यगर्भ’ के पुत्रों की पितर रूप में पूजा करनी चाहिये।

प्रत्येक व्यक्ति अपने पितरों के निमित्त जो भी दान या श्राद्ध करें, उस वक्त यदि वह ‘पितृ-सूक्त’ का पाठ करेंगे, तो उनकी सभी मनोकामनायें पूर्ण हों जाऐंगी।

॥ पितर कवचः ॥

कृणुष्व पाजः प्रसितिम् न पृथ्वीम् याही राजेव अमवान् इभेन । 
तृष्वीम् अनु प्रसितिम् द्रूणानो अस्ता असि विध्य रक्षसः तपिष्ठैः ॥ 

तव भ्रमासऽ आशुया पतन्त्यनु स्पृश धृषता शोशुचानः । 
तपूंष्यग्ने जुह्वा पतंगान् सन्दितो विसृज विष्व-गुल्काः ॥ 

प्रति स्पशो विसृज तूर्णितमो भवा पायु-र्विशोऽ अस्या अदब्धः । 
यो ना दूरेऽ अघशंसो योऽ अन्त्यग्ने माकिष्टे व्यथिरा दधर्षीत् ॥ 

उदग्ने तिष्ठ प्रत्या-तनुष्व न्यमित्रान् ऽओषतात् तिग्महेते । 
यो नोऽ अरातिम् समिधान चक्रे नीचा तं धक्ष्यत सं न शुष्कम् ॥ 

ऊर्ध्वो भव प्रति विध्याधि अस्मत् आविः कृणुष्व दैव्यान्यग्ने । 
अव स्थिरा तनुहि यातु-जूनाम् जामिम् अजामिम् प्रमृणीहि शत्रून् । 
अग्नेष्ट्वा तेजसा सादयामि॥ 

॥ पितृ-सूक्तम् ॥

उदिताम् अवर उत्परास उन्मध्यमाः पितरः सोम्यासः। 
असुम् यऽ ईयुर-वृका ॠतज्ञास्ते नो ऽवन्तु पितरो हवेषु॥1॥ 

अंगिरसो नः पितरो नवग्वा अथर्वनो भृगवः सोम्यासः। 
तेषां वयम् सुमतो यज्ञियानाम् अपि भद्रे सौमनसे स्याम्॥2॥ 

ये नः पूर्वे पितरः सोम्यासो ऽनूहिरे सोमपीथं वसिष्ठाः। 
तेभिर यमः सरराणो हवीष्य उशन्न उशद्भिः प्रतिकामम् अत्तु॥3॥

त्वं सोम प्र चिकितो मनीषा त्वं रजिष्ठम् अनु नेषि पंथाम्। 
तव प्रणीती पितरो न देवेषु रत्नम् अभजन्त धीराः॥4॥ 

त्वया हि नः पितरः सोम पूर्वे कर्माणि चक्रुः पवमान धीराः। 
वन्वन् अवातः परिधीन् ऽरपोर्णु वीरेभिः अश्वैः मघवा भवा नः॥5॥ 

त्वं सोम पितृभिः संविदानो ऽनु द्यावा-पृथिवीऽ आ ततन्थ। 
तस्मै तऽ इन्दो हविषा विधेम वयं स्याम पतयो रयीणाम्॥6॥ 

बर्हिषदः पितरः ऊत्य-र्वागिमा वो हव्या चकृमा जुषध्वम्। 
तऽ आगत अवसा शन्तमे नाथा नः शंयोर ऽरपो दधात॥7॥ 

आहं पितृन्त् सुविदत्रान् ऽअवित्सि नपातं च विक्रमणं च विष्णोः। 
बर्हिषदो ये स्वधया सुतस्य भजन्त पित्वः तऽ इहागमिष्ठाः॥8॥ 

उपहूताः पितरः सोम्यासो बर्हिष्येषु निधिषु प्रियेषु। 
तऽ आ गमन्तु तऽ इह श्रुवन्तु अधि ब्रुवन्तु ते ऽवन्तु-अस्मान्॥9॥ 

आ यन्तु नः पितरः सोम्यासो ऽग्निष्वात्ताः पथिभि-र्देवयानैः। 
अस्मिन् यज्ञे स्वधया मदन्तो ऽधि ब्रुवन्तु ते ऽवन्तु-अस्मान्॥10॥ 

अग्निष्वात्ताः पितर एह गच्छत सदःसदः सदत सु-प्रणीतयः। 
अत्ता हवींषि प्रयतानि बर्हिष्य-था रयिम् सर्व-वीरं दधातन॥11॥ 

येऽ अग्निष्वात्ता येऽ अनग्निष्वात्ता मध्ये दिवः स्वधया मादयन्ते। 
तेभ्यः स्वराड-सुनीतिम् एताम् यथा-वशं तन्वं कल्पयाति॥12॥ 

अग्निष्वात्तान् ॠतुमतो हवामहे नाराशं-से सोमपीथं यऽ आशुः। 
ते नो विप्रासः सुहवा भवन्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम्॥13॥ 

आच्या जानु दक्षिणतो निषद्य इमम् यज्ञम् अभि गृणीत विश्वे। 
मा हिंसिष्ट पितरः केन चिन्नो यद्व आगः पुरूषता कराम॥14॥ 

आसीनासोऽ अरूणीनाम् उपस्थे रयिम् धत्त दाशुषे मर्त्याय। 
पुत्रेभ्यः पितरः तस्य वस्वः प्रयच्छत तऽ इह ऊर्जम् दधात॥15॥ 

पुरुष सूक्त

|| पुरुष सूक्त ||

सूत्र संकेत- 
पुरुष सूक्त का प्रयोग विशेष पूजन के क्रम में किया जाता है। षोडशोपचार पूजन के एक- एक उपचार के साथ क्रमशः एक- एक मन्त्र बोला जाता है। जहाँ कहीं भी किसी देवशक्ति का पूजन विस्तार से करना हो, तो पुरुष सूक्त के मन्त्रों के साथ षोडशोपचार पूजन करा दिया जाता है। पंचोपचार पूजन में भी इस सूक्त से सम्बन्धित मन्त्रों का प्रयोग किया जा सकता है। यज्ञादि के विस्तृत देवपूजन में, पर्वों पर, पर्व से सम्बन्धित देव शक्ति के पूजन में बहुधा इसका प्रयोग किया जाता है। वातावरण में पवित्रता और श्रद्धा के संचार के लिए भी पुरुष सूक्त का पाठ सधे हुए कण्ठ वाले व्यक्ति सामूहिक रूप से करते हैं।

शिक्षण एवं प्रेरणा- 
पुरुष सूक्त में परमात्मा की विराट् सत्ता का वर्णन किया गया है। उस महत् चेतना के विस्तार के सङ्कल्प से ही इस जड़- चेतन की सृष्टि हुई है। किसी भी प्रतीक देव विग्रह का पूजन करते यही चिन्तन उभरता रहता है कि हम उसी एक विराट्, सनातन, अविनाशी का पूजन कर रहे हैं।

क्रिया और भावना- 
पुरुष सूक्त से पूजन प्रारम्भ करने के पूर्व उपस्थित श्रद्धालुओं को उक्त सिद्धान्त बतलाया जाना चाहिए, ताकि पूजन में उनका भी भाव- संयोग हो सके। यदि सम्भव हो, तो सभी के हाथ में अथवा पूजन वेदी के निकटवर्ती प्रतिनिधियों के हाथ में अक्षत, पुष्प दे देने चाहिए। उसे पूरे पूजन के साथ हाथ में रखें, भाव पूजन में सम्मिलित रहें और वे पुष्पाञ्जलि के साथ उन्हें अर्पित करें। भावना करें कि हमारे पास जो कुछ भी है, उसी का दिया हुआ है। उसके विराट् स्वरूप एवं उद्देश्यों को हम पहचानें और उनके निमित्त अपने साधनों को, क्षमताओं को अर्पित करते हुए उन्हें सार्थक करें, धन्य बनाएँ। उस सर्वव्यापी को, उसके आदर्शों को हर कदम पर, हर स्तर पर, हर प्रसङ्ग में प्रत्यक्ष की तरह देखते हुए श्रद्धासिक्त होकर पूजन भाव से सक्रिय रहें। उसके दिये साधनों को उसके उद्देश्यों में लगाने में कृपणता न बरतें, उदार भक्ति भावना का परिचय प्रमाण दें।

सम्बन्धित सामग्री हाथ में लेकर मन्त्र बोला जाए। मन्त्र पूरा होने पर जिस देवशक्ति का पूजन है, उसका नाम लेते हुए षोडशोपचार के आधार पर स्थापयामि, समर्पयामि आदि कहते हुए उसे चढ़ाते चलें।

१- आवाहनम् 
ॐ सहस्त्रशीर्षा पुरुष:सहस्राक्ष:सहस्रपात् |
 भूमि सर्वतस्पृत्वाSत्यतिष्ठद्द्शाङ्गुलम् ||||
२- आसनम् 
 पुरुषSएवेदं सर्व यद्भूतं यच्च भाव्यम् |
उतामृतत्यस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ||||
३- पाद्यम् 
ॐ एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः |
 पादोSस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि |||| 
४- अर्घ्यम् 
ॐ त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुष:पादोSस्येहाभवत्पुनः |
ततो विष्वङ् व्यक्रामत्साशनानशनेSअभि ||||
५- आचमनम् 
ॐ ततो विराडजायत विराजोSअधि पूरुषः |
 जातोSअत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुर: ||||
६ - स्नानम् 
ॐ तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतसम्भृतं पृषदाज्यम् |
पशूंस्न्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये |||| 
७- वस्त्रम् 
ॐ तस्माद्यज्ञात् सर्वहुतSऋचः सामानि जज्ञिरे |
छन्दाँसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत ||||
८- यज्ञोपवीतम् 
ॐ तस्मादश्वाSअजायन्त ये के चोभयादतः |
गावो  जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाताSअजावयः |||| 
९- गन्धम् 
ॐ तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पूरुषं जातमग्रत:|
तेन देवाSअयजन्त साध्याSऋषयश्च ये ||||
१०- पुष्पाणि 
ॐ यत्पुरुषं व्यदधुकतिधा व्यकल्पयन् |
मुखं किमस्यासीत् किं बाहू किमूरू पादाSउच्येते ||१०||
११- धूपम् 
ॐ ब्राह्मणोSस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यकृत: |
ऊरू तदस्य यद्वैश्यपद्भ्या शूद्रोSअजायत ||११||
१२- दीपम् 
ॐ चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोसूर्यो अजायत |
श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत ||१२||
१३- नैवेद्यम् 
ॐ नाभ्याSआसीदन्तरिक्ष शीर्ष्णो द्यौः समवर्त्तत |
पद्भ्यां भूमिर्दिशश्रोत्रात्तथा लोकांर्Sअकल्पयन् ||१३||
१४- ताम्बूलपूगीफलानि 
ॐ यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत |
वसन्तोSस्यासीदाज्यं ग्रीष्मSइध्मशरद्धवि: ||१४||
१५- दक्षिणा 
ॐ सप्तास्यासन् परिधयस्त्रिसप्तसमिधकृता:|
देवा यद्यज्ञं तन्वानाSअबध्नन् पुरुषं पशुम् ||१५||
१६- मन्त्र पुष्पाञ्जलिः 
ॐ यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् |
ते  नाकं महिमानसचन्त यत्र पूर्वे साध्यासन्ति देवा: ||१६||



चातुर्मास में जो भगवन विष्णु के समक्ष पुरुष सूक्त का पाठ करता है उसकी बुद्धि बढ़ेगी | कैसा भी दबू विद्यार्थी हो बुद्धिमान बनेगा |

  श्री गुरुभ्यो नमः हरी

सहस्त्रशीर्षा पुरुष:सहस्राक्ष:सहस्रपात् |
भूमि सर्वत: स्पृत्वाSत्यतिष्ठद्द्शाङ्गुलम् ||||

जो सहस्रों सिरवाले, सहस्रों नेत्रवाले और सहस्रों चरणवाले विराट पुरुष हैं, वे सारे ब्रह्मांड को आवृत करके भी दस अंगुल शेष रहते हैं ||||

पुरुषSएवेदं सर्व यद्भूतं यच्च भाव्यम् |
उतामृतत्यस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ||||

जो सृष्टि बन चुकी, जो बननेवाली है, यह सब विराट पुरुष ही हैं | इस अमर जीव-जगत के भी वे ही स्वामी हैं और जो अन्न द्वारा वृद्धि प्राप्त करते हैं, उनके भी वे ही स्वामी हैं ||||

एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः |
 पादोSस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ||||

विराट पुरुष की महत्ता अति विस्तृत है |
श्रेष्ठ पुरुष के एक चरण में सभी प्राणी हैं और तीन भाग अनंत अंतरिक्ष में स्थित हैं ||||

त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुष:पादोSस्येहाभवत्पुनः |
ततो विष्वङ् व्यक्रामत्साशनानशनेSअभि ||||

चार भागोंवाले विराट पुरुष के एक भाग में यह सारा संसार, जड़ और चेतन विविध रूपों में समाहित है | इसके तीन भाग अनंत अंतरिक्षमें समाये हुए हैं ||||

ततो विराडजायत विराजोSअधि पूरुषः |
जातोSअत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुर: ||||

उस विराट पुरुष से यह ब्रह्मांड उत्पन्न हुआ | उस विराट से समष्टि जीव उत्पन्न हुए | वही देहधारी रूप में सबसे श्रेष्ठ हुआ, जिसने सबसे पहले पृथ्वी को, फिर शरीरधारियों को उत्पन्न किया ||||

तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत: सम्भृतं पृषदाज्यम् |
पशूंस्न्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये ||||

उस सर्वश्रेष्ठ विराट प्रकृति यज्ञ से दधियुक्त घृत प्राप्त हुआ(जिससे विराट पुरुष की पूजा होती है) | वायुदेव से संबंधित पशु हरिण, गौ, अश्वादि की उत्पत्ति उस विराट पुरुष के द्वारा ही हुई ||||

तस्माद्यज्ञात् सर्वहुतSऋचः सामानि जज्ञिरे |
छन्दाँसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत ||||

उस विराट यज्ञ पुरुष से ऋग्वेद एवं सामवेद का प्रकटीकरण हुआ | उसी से यजुर्वेद एवं अथर्ववेद का प्रादुर्भाव हुआ अर्थात् वेद की ऋचाओं का प्रकटीकरण हुआ ||||

तस्मादश्वाSअजायन्त ये के चोभयादतः |
गावो जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाताSअजावयः ||||

उस विराट यज्ञ पुरुष से दोनों तरफ दाँतवाले घोड़े हुए और उसी विराट पुरुष से गौए, बकरिया और भेड़s आदि पशु भी उत्पन्न  हुए ||||

तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पूरुषं जातमग्रत:|
तेन देवाSअयजन्त साध्याSऋषयश्च ये ||||

मंत्रद्रष्टा ऋषियों एवं योगाभ्यासियों ने सर्वप्रथम प्रकट हुए पूजनीय विराट पुरुष को यज्ञ (सृष्टि के पूर्व विद्यमान महान ब्रह्मांड रूपयज्ञ अर्थात् सृष्टि यज्ञ) में अभिषिक्त करके उसी यज्ञरूप परम पुरुष से ही यज्ञ (आत्मयज्ञ ) का प्रादुर्भाव किया ||||

यत्पुरुषं व्यदधु: कतिधा व्यकल्पयन् |
मुखं किमस्यासीत् किं बाहू किमूरू पादाSउच्येते ||१०||

संकल्प द्वारा प्रकट हुए जिस विराट पुरुष का, ज्ञानीजन विविध प्रकार से वर्णन करते हैं, वे उसकी कितने प्रकार से कल्पना करते हैं ? उसका मुख क्या है ? भुजा, जाघें और पाँव कौन-से हैं ? शरीर-संरचना में वह पुरुष किस प्रकार पूर्ण बना ? ||१०||

ब्राह्मणोSस्य मुखमासीद् बाहू राजन्य: कृत: |
ऊरू तदस्य यद्वैश्य: पद्भ्या शूद्रोSअजायत ||११||

विराट पुरुष का मुख ब्राह्मण अर्थात् ज्ञानी (विवेकवान) जन हुए | क्षत्रिय अर्थात पराक्रमी व्यक्ति, उसके शरीर में विद्यमान बाहुओं के समान हैं | वैश्य अर्थात् पोषणशक्ति-सम्पन्न व्यक्ति उसके जंघा एवं सेवाधर्मी व्यक्ति उसके पैर हुए ||११||

चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षो: सूर्यो अजायत |
श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत ||१२||

विराट पुरुष परमात्मा के मन से चन्द्रमा, नेत्रों से सूर्य, कर्ण से वायु एवं प्राण तथा मुख से अग्नि का प्रकटीकरण हुआ ||१२||

नाभ्याSआसीदन्तरिक्ष शीर्ष्णो द्यौः समवर्त्तत |
पद्भ्यां भूमिर्दिश: श्रोत्रात्तथा लोकांर्Sअकल्पयन् ||१३||

विराट पुरुष की नाभि से अंतरिक्ष, सिर से द्युलोक, पाँवों से भूमि तथा कानों से दिशाएँ प्रकट हुईं | इसी प्रकार (अनेकानेक) लोकों को कल्पित किया गया है (रचा गया है) ||१३||

यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत |
वसन्तोSस्यासीदाज्यं ग्रीष्मSइध्म: शरद्धवि: ||१४||

जब देवों ने विराट पुरुष रूप को हवि मानकर यज्ञ का शुभारम्भ किया, तब घृत वसंत ऋतु, ईंधन(समिधा) ग्रीष्म ऋतु एवं हवि शरद ऋतु हुई ||१४||

सप्तास्यासन् परिधयस्त्रि: सप्त: समिध: कृता:|
देवा यद्यज्ञं तन्वानाSअबध्नन् पुरुषं पशुम् ||१५||

देवों ने जिस यज्ञ का विस्तार किया, उसमें विराट पुरुष को ही पशु (हव्य) रूप की भावना से बाँधा (नियुक्त किया), उसमें यज्ञ की सात परिधियाँ (सात समुद्र) एवं इक्कीस (छंद) समिधाएँ हुईं ||१५||

यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् |
ते नाकं महिमान: सचन्त यत्र पूर्वे साध्या: सन्ति देवा: ||१६||

आदिश्रेष्ठ धर्मपरायण देवों ने, यज्ञ से यज्ञरूप विराट सत्ता का यजन किया | यज्ञीय जीवन जीनेवाले धार्मिक महात्माजन पूर्वकाल के साध्य देवताओं के निवास, स्वर्गलोक को प्राप्त करते हैं ||१६||

शांति: ! शांति: !! शांति: !!!

पुरुष सूक्त

सहस्त्रशीर्षा पुरुष:सहस्राक्ष:सहस्रपात् |
 भूमि सर्वतस्पृत्वाSत्यतिष्ठद्द्शाङ्गुलम् ||||

पुरुषSएवेदं सर्व यद्भूतं यच्च भाव्यम् |
उतामृतत्यस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ||||

एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः |
 पादोSस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ||||

त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुष:पादोSस्येहाभवत्पुनः |
ततो विष्वङ् व्यक्रामत्साशनानशनेSअभि ||||

ततो विराडजायत विराजोSअधि पूरुषः |
 जातोSअत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुर: ||||

तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतसम्भृतं पृषदाज्यम् |
पशूंस्न्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये ||||

तस्माद्यज्ञात् सर्वहुतSऋचः सामानि जज्ञिरे |
छन्दाँसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत ||||

तस्मादश्वाSअजायन्त ये के चोभयादतः |
गावो  जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाताSअजावयः ||||

तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पूरुषं जातमग्रत:|
तेन देवाSअयजन्त साध्याSऋषयश्च ये ||||

यत्पुरुषं व्यदधुकतिधा व्यकल्पयन् |
मुखं किमस्यासीत् किं बाहू किमूरू पादाSउच्येते ||१०||

ब्राह्मणोSस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यकृत: |
ऊरू तदस्य यद्वैश्यपद्भ्या शूद्रोSअजायत ||११||

चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोसूर्यो अजायत |
श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत ||१२||

नाभ्याSआसीदन्तरिक्ष शीर्ष्णो द्यौः समवर्त्तत |
पद्भ्यां भूमिर्दिशश्रोत्रात्तथा लोकांर्Sअकल्पयन् ||१३||

यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत |
वसन्तोSस्यासीदाज्यं ग्रीष्मSइध्मशरद्धवि: ||१४||

सप्तास्यासन् परिधयस्त्रिसप्तसमिधकृता:|
देवा यद्यज्ञं तन्वानाSअबध्नन् पुरुषं पशुम् ||१५||

यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् |
ते  नाकं महिमानसचन्त यत्र पूर्वे साध्यासन्ति देवा: ||१६||

 शांति: ! शांति: !! शांति: !!!

विशेष सुचना

( जो भी मंत्र तंत्र टोटका इत्यादि ब्लॉग में दिए गए है वे केवल सूचनार्थ ही है, अगर साधना करनी है तो वो पूर्ण जानकार गुरु के निर्देशन में ही करने से लाभदायक होंगे, किसी भी नुक्सान हानि के लिए प्रकाशक व लेखक जिम्मेदार नहीं होगा। )