श्री देवी महिम्न स्तोत्रम्
चंद्रचूड़ उवाच –
त्वमंतस्त्वं पश्चात्वमसि पुरतस्त्वं च परतः ।
त्वमूर्ध्वं त्वंचाधस्त्वमसि खलु लोकांतरचरी ।
त्वमिन्द्रस्त्वंचन्द्र स्त्वमसि निगामाना मुपनिषत् ।
तवाहं दासोऽस्मि त्रिपुरहर रामे कुरु कृपाम् ।।1।।
भावार्थ –
हे जगज्जननि ! तुम सृष्टि की अंतिम सीमा हो, तुम ही पीछे और आगे हो जहाँ हम नहीं देख पाते हैं वहां भी तुम हो. सब से दूर भी और सबसे पास भी तुम हो, ऊपर और नीचे भी तुम हो और लोक-लोकान्तरों में विचरण करने वाली भी तुम हो. तुम ही इंद्र हो और चन्द्र हो (ऐश्वर्य शालिनी और अत्यंत सौन्दर्य से परिपूर्ण )समस्त वैदिक वांग्मय के निचोड़ के रूप में ब्रह्म विद्या स्वरुप उपनिषद हो. हे त्रिपुरासुर का नाश करने वाली भगवान् शिव की भामिनी! मैं तुम्हारा सेवक हूँ अपने कृपानुग्रह से मुझे अनुग्रहीत करो.
इयान् कालः सृष्टेः प्रभृति बहु कष्टेन गमितः ।
बिना यत् त्वत् सेवां करुण रस कल्लोलिनि शिवे ।।
तदेतद्दौर्भाग्यं मम विषय तृष्णाख्य रिपुणा ।
हतः शुद्धानन्दं स्पृशिमि तव सिद्देश्वरि पदम् ।। २ ।।
भावार्थ –
जन्म से लेकर बहुत समय तक मेरा जीवन आपकी भक्ति से रहित होने से यह जीवन कठिनाईयों से घिरा हुआ कष्ट पूर्ण विधि से व्यतीत हुआ, विषयों की मृग तृष्णा रुपी शत्रु से घिरा हुआ मेरा शुद्ध चैतन्य मलिनताओं से अच्छादित होकर मृतवत था . यह मेरा दुर्भाग्य था अब तुम्हारे चरणों के संस्पर्श से वह अन्धकार समाप्त हो रहा है .
सुधा धारा वृष्टे स्तव जननि दृष्टे विषयताम् ।
वयं यामो दामोदर भगिनी भाग्येन फलितम् ।
इदानीं भूतानां ध्रुव मुपरि भूताः पर मुदा ।
न वांछामो मोक्षं विपिन पथि कक्षं जर दिव ।।3।।
भावार्थ –
हे जगज्जननि !! आपकी अमृत धारामयी कृपा दृष्टि के विषय में आना हमारे भाग्य का प्रतिफल है. हे विष्णु भगिनी आपकी परम प्रसन्नता जो इस समाया प्राणियों पर बरस रही है वह ध्रुव लोक से उन्नत है जैसे वृद्धजन घर के निवास शतान को छोड़ कर वन की ओर नहीं जाना चाहते हैं उसी प्रकार हम भी आपकी कृपा का आश्रय छोड़ कर मोक्ष पाने की अभिलाषा नहीं करते हैं .
जपादौ नो सक्ता हरगृहिणि भक्ताः करुणया ।
भवत्या होमत्या कति कति न भावेन गमिताः ।
चिदानंदाकारं भवजलधिपारं निज पदम् ।
न ते मातु गर्भे जननि तव गर्भेयदि गताः ।।4।।
भावार्थ –
हे शिव प्राण प्रिये हम आपकी आराधना तो कर रहे हैं किन्तु आपके चरणारविन्द विविध प्रकार के यज्ञानुष्ठानों के द्वारा उपासित होकर प्राप्त होते हैं जो सच्चिनानद पर ब्रह्म स्वरुप है और इस संसार समुद्र को पारा कराने वाले हैं . हे माता वे साधक कभी माता के गर्भ में नहीं आते जो आपके हार्दिक प्रेम के कृपा पात्र हो जाते हैं जिन पर आपकी कृपा दृष्टि हो जाती है वह जन्म मरण से छुटकारा प्राप्त कर लेता है
चिदेवेदं सर्वं श्रुतिरिति भवत्याः स्तुति कथा ।
प्रियं भात्यस्तीति त्रिविधमपि रूपं तव शिवे ।
अणु दीर्घं ह्रस्व महदजरं मन्तादि रहितनम् ।
त्वमेव ब्रह्मासि त्वद्परमुदारं न गिरजे ।।5।।
भावार्थ –
वेदों ने इस सम्पूर्ण सृष्टि को आपके चैतन्य स्वरुप में बतलाया है आपकी स्तुति और महिमा का गुणगान अत्यंत प्रिय और मनोरम है. हे शिवे ! तुम्हारे तीन प्रकार के रूप हैं – जो अत्यंत अणु सदृश सूक्ष्म रूप है वह अत्यंत अगम्य है. एक स्थूल रूप है वह बहुत विशाल (सहस्त्र शीर्ष वाला ) है और एक ह्रस्व आकार रूप है ..आप वृद्धावस्था से रहित, मृत्यु रहित, अजर और अमर हैं. आप ही साक्षात परब्रह्म हैं. हे पर्वत राज पुत्रि !! आप से श्रेष्ठ कोई दूसरा सेवक के ऊपर कृपा करने वाला नहीं है.
त्वयाऽन्तर्या मिन्या भगवति वशिन्यादि सहिते ।
विधीयंते भावा मनसि जगतामित्युपनिषत् ।
अहं कर्तेत्यंतर्विशतु मम बुद्धिः कथमुमे ।
सबुद्धिस्त्वदभक्तो न भवति कुबुद्धि क्वचिदपि ।।6।।
भावार्थ –
हे भगवति तुम अंतर्यामिनी के द्वारा अपनी वाशिन्यादि शक्तियों के साथ सांसारिक मनुष्यों के हृदय में शुभ अशुभ भावों का निर्माण किया जाता है . इस प्रकार से उपनिषदों का कथन है . मैंने किया ऐसा कुबुद्धि युक्त विचार मेरी बुद्धि में न आये. हे पार्वती !! मुझे तुम सद्बुद्धि प्रदान करना , जो आपका भक्त होता है वह कभी भी दुर्बुद्धि युक्त नहीं होता.
न मन्त्रं तंत्रं वा किमपि खलु विद्मोगिरिसुते ।
क्व यामः किं कुर्म स्तव चरण सेवा न रचिता।
अये मातः प्रातः प्रभृति दिवसास्तवधि वयम् ।
कुबुध्याऽहं कार्यी शिव शिव न यामो निज वयः।।7।।
भावार्थ –
हे पर्वतराज पुत्रि पार्वती !! हम न तो मन्त्र और न तंत्र जानते , हम कहाँ जांए..और क्या करें ? हम संशय ग्रस्त इसलिए हैं क्योंकि हमने आप के चरणों की सेवा नहीं की. हे माता प्रातः काल से लेकर सूर्यास्त पर्यंत हम सदैव दुर्बुद्धि युक्त कार्यों को ही कर करते रहते हैं. हे शिव ! हे शिव !! हमारी आयु ऐसे ही नष्ट हो रही है.
इहामुष्मिँल्लोके ह्यपि न विषये प्रेम करणे ।
न मे वैरी कश्चिद भगवति भवानि त्रिभुवेन ।
गुणान्नामाधारं निगमगण सारं तव पदम् ।
मनो वारं वारं जपति च विनोदं च भजेत ।।8।।
भावार्थ –
इस विषय वासना भरे संसार में भी मेरा लगाव नहीं है.
हे ऐश्वर्य शालिनी शिवप्रिये मेरा तीनों लोको में कोई वैरी नहीं है. तुम्हारे कल्याण दायक वेदों के सारभूत नामों को जानकर मैं तुम्हारे चरणों की सेवा में निरत हूँ उन नामों का बार बार जप करते हुए मैं आनंद का अनुभव प्राप्त कर रहा हूँ.
महामाये काये मम भवति यादृक् खलु मनः ।
मनस्ते संख्याने न हि भवति तादृक् कथामुमे ।
त्वमेवांतर्भातर्निगमयसि बुद्धिं त्रिजगताम् ।
न जाने श्री जाने रपि न विदितस्तेऽय महिमा ।। 9।।
भावार्थ –
हे महामाये !! तुम्हारे सौंदर्य का वर्णन अच्छी प्रकार से करने में मेरी बुद्धि शक्ति सफल होती है उसी प्रकार से हे पार्वती ! आतंरिक गुणों का वर्णन क्यों नहीं कर पाती है ? हे माता ! तीनों लोकों की तुम अंतर्यामिनी हो और समस्त त्रिलोकी को बौद्धिक शक्तियों को प्रदान करने वाली हो फिर भी महालक्ष्मी नामों से सुविख्यात नाम की महिमा का वर्णन करना यहाँ पर असंभव है. मैं जानते हुए भी नहीं जानता हूँ.
अमीषा वर्नानां क्रतुकरण सम्पूर्ण वयसाम् ।
निकाम्यं काव्यानां मुरसि समुदायं प्रकटितम् ।
स्तनौ मेरुमत्वा स्थागित ममृतोपाक्यमुभयम् ।
दयाधाराधारं मम जननि हारं तव भजे ।।10।।
भावार्थ –
हे जगज्जननि ! ये चारों वर्णों के लोग जीवन पर्यंत यज्ञों के द्वारा (तुम्हारा) आराधन करते हैं और सुन्दरता से परिपूर्ण काव्यों के अंतर्गत तुम्हारे अनंत गुणों की महिमा का गुणगान करते हैं. अमृतमय पयोरस की धारा को प्रवाहित करने वाले तुम्हारे ये दोनों स्तन हैं ..उन्हें पाषाण हृदय वाले मेरु पर्वत के सामान मानना अनुचित है . हे जगदम्बा ! मैं उन स्तनों के ऊपर विराजमान सुन्दर कंठहार की आराधना करता हूँ.
स्तन द्वन्द्वं स्कन्द-द्विपमुखमुखे यत् स्नुत मुखम् ।
कदाचिनन्मे मातर्वितरतु मुखे स्तन्य कणिकाम् ।
अनेनायं धन्यो जगदुपरि मान्योऽपि भवताम् ।
कुपुत्रे सत् -पुत्रे नहि भवति मातुर्विषमता ।।11।।
भावार्थ –
जो तुम्हारे दोनो स्तन कार्तिकेय और गणेश को दूध पिलाते हैं, उन स्तनों से निकले हुए दूध का एक कण भी मेरे मुख में पड़ जाए तो मैं संसार में धन्य होकर आपके प्रेम का पात्र बन जाऊंगा क्योंकि हे माता !! आप सुपुत्र और कुपुत्र में भेदभाव नहीं रखती हैं .****
जगन्मूलं शूलं ह्यनुभवति कूलं कथमिदम् ।द्विधा कुर्वे सर्वेश्वरि ममतु गर्वेण फलितम् ।
पद द्वन्द्वं द्वन्द्व व्यतिकर हरं द्वन्द्व सुखदम् ।
गुणा रामे रामे कलय हृदि कामेश्वरि सदा ।।12।।
भावार्थ –
संसार में उत्पन्न होना ही कष्ट दायक है फिर भी मैं अनुकूलता और शान्ति का अनुभव प्राप्त कर रहा हूँ. संसार की द्विविधा जन्य स्थिति का अवलोकन किया जाय तो मेरे जीवन के सभी कार्य सफल हुए क्योंकि मैं आपके चरणारविन्द युगल का ध्यान करता हूँ और वे चरण युगल सांसारिक द्वंद्वों को मिटाने में सक्षम और सुखदायक हैं.
हे सर्वेश्वरि !! तुम समस्त गुणों की भण्डार हो सुन्दरतम देहयष्टि को धारण करने वाली माता मेरे हृदय रूपी उद्यान में सदैव विराजमान रहने की कृपा करो.
अहोरात्रं गात्रं समजनि न पात्रं मम मुदा।
धनायत्तं चित्तं तृणमपि तु निश्चित्तमभवत्।
इदानीमानीता कथमपि भवनी हृदि मया।
स्थितं मन्ये धन्ये पथि कथमधन्येऽह मुचितः।।13।।
भावार्थ –
धन की तृष्णा से ओतप्रोत और लालायित मेरा हृदय थोडा भी एकाग्र नहीं हो पाया इसलिये आपकी सेवा करने वाला सत्पात्र नहीं हो सका. अभी मैं किसी भी प्रकार से माँ भवानी को अपने हृदय में बसा सका हूँ .
हे धन्ये, पाप नाशिनी माँ !! मैं आधे मार्ग में उलझा पडा हूँ. इसे मैं कैसे उचित मान सकता हूँ.
निराकारामारादधि हृदयमाराधितवता ।
मया मायातीता सितसकल कायापहतये ।
अहं कोऽहं सोऽहं मतिरिति विमोहं हतवति ।
कृता हन्तानन्तामुपनयति संतानकवति ।।14।।
भावार्थ –
गंभीरता पूर्वक हृदय से आराधन करते हुए मैंने हृदय की कालिमा को दूर कर दिया और निर्गुण स्वरूपा जगदम्बा को हृदय के अंतस्तल में धारण कर दिया।
हृदय के मायामल को दूर कर लेने पर, मैं कौन हूँ ? मैं कौन हूँ ? इस प्रकार से बुद्धि के जड़वादी विशेष मोह के नष्ट हो जाने पर जैसे प्राणी अपनी संतान से प्रेम करता है, उसी प्रकार मैंने भी श्रद्धा भक्ति से जगदम्बा को अपना बना लिया है ।
त्वंदध्रे रुद्योतादरुण किरण श्रेणिर्निगमनात्।
समुद्भूता ये ये जगति जयिनः शोणमणयः।
त एते सर्वेषां शिरसि विदुषां भांति भुवने।
त्वदीयादन्यः को भवति जन वन्द्योऽद्य गिरजे।।15।।
भावार्थ –
हे पर्वत राज पुत्रि !! तुम्हारे चरण कमल से निकलने वाले लाल रंग के प्रकाश ने निखरी कान्ति वाली मणियों को अपनी चमक से जीत लिया है , उन्ही चरणारविन्दों के प्रकास को सभी विद्वानों ने अपनी बुद्धिशक्ति के रूप सर पर धारण कर रखा है . हे पार्वति !! तुम्हारे से अतिरिक्त कोई भी दूसरा व्यक्ति इस संसार में सभी लोगों के लिए वन्दनीय नहीं है .
अकार्षीत् सोऽमर्षी भुवनमपरं गाधितनयः ।
शशापान्यो लक्ष्मी मपि वदपरो ह्यर्णव मिति ।
सपर्यामाहात्म्यं तवजननि तादात्म्य फलदम् ।
कियद् वक्ष्ये यक्शेश्वर किरण दत्तं भगवति ।।16।।
भावार्थ –
हे भगवति !! क्रोधी विश्वामित्र ने आपकी आराधना के प्रभाव से दूसरी सृष्टि निर्माण कर लिया और महर्षि और्व ने महालक्ष्मी को शापित किया और अगस्त्य जी ने समुद्र को भी पी डाला था ..आपकी सेवा का प्रभाव साधना के अनुकूल फल देने में समर्थ है भगवान् शिव के ऊपर अनुग्रह करने वाली हे माता !! आपके सम्बन्ध में कितने कहा जाय वह बहुत थोड़ा है.
अमी देवा सेवां वदधति यतो मं च कतया ।
शिवोऽप्यच्छच्छाया रचित रुचिर प्रच्छदतया ।
कृतार्थी कर्तुंमां परम शिव वामांक मित्रया ।
परब्रह्म स्फूर्ति स्तव जयति मूर्तिः सकरुणा ।।17।।
भावार्थ –
ये देव गण दीन हीन स्थिति के कारण ही आपकी सेवा करते हैं क्योंकि भगवान् शिव भी आपके मुखारविंद की निष्पाप छाया को पाकर धन्यता युक्त हैं. भगवान् भूत भावन की बायीं ओर विराजमान रहने वाली माता तुम मुझे कृतार्थ करने वाली साक्षात् परब्रह्म स्वरूपा हो ..
आपकी करूणामयी मूर्ति की सदैव जय जयकार हो !!
समुद्धर्तुं भक्तान् प्रभवति विहर्तुं जगदिदम् ।
गतिं वायोर्बद्ध्वा विनियमयति च रूपं नियमात् ।
यदृच्छा यस्येच्छा न च भजन विच्छेद भयतः ।
नमस्ते भक्ताय ध्रुव भजन सक्ताय गिरजे ।।18।।
भावार्थ –
भक्तों के उद्धार हेतु आप इस संसार में विचरण करती है. आप चाहे तो हवा के नियमित प्रवाह को रोक कर स्वयं सबके लिए नियमित प्राण वायु प्रदान कर सकती हैं ..जिन भक्तों के भजन और सेवा भाव में कभी अवरोध नहीं होता केवल आप उन्हीं भक्तों पर कृपा दृष्टि नहीं रखती अपितु हे पार्वती स्वभावतः आप सब पर कृपा दृष्टि रखती हैं . हे जगदम्बे !! मैं तुम्हारी भक्ति में अटल रहने वाले भक्त जन को प्रणाम करता हूँ.
उमा माया माता कमलनयना कृष्णभगिनी ।
भवानी दुर्गाम्बा मति रमल लक्ष्मी तितरला ।
महाविद्या देवी प्रकृति रजजायेति जपताम् ।
भवन्ति श्रीविद्ये तव जननि नामानि निधयः।।19।।
भावार्थ –
अतिशय तप करने के कारण तुम्हारा नाम उमा है, चमत्कारकारिणी होने के कारण माया है , सबका प्रतिपालन करने के कारण माता है, अतिशय सुन्दर आँखों वाली कमलनयना जगत के प्रतिपालक विष्णु की तत्सदृश कृष्ण भगिनी अविनाशी शिव प्राण प्रिया भवानी, दुखों को दूर करने वाले दुर्गा, पुत्र व स्नेह देने वाले अम्बा, अत्यंत मननशीला मति दोषों से रहित लक्ष्मी और प्राणिमात्र पर दया बरसाने वाली तरला हो. समस्त ज्ञान विज्ञान की भण्डार, महाविद्या सृष्टि क्रीडा स्थल में क्रीडा करने वाली देवी हो. सृष्टि की रचना करने वाली परा प्रकृति हो, सृष्टि रचियिता ब्रह्मा की पत्नी हो, इस प्रकार से तुम्हारे नाम, आराधकों के लिए समस्त ऐश्वर्य को प्रदान करने वाली निधियाँ है.
दिशां पाला पाला हर हरि सरोजासन मुखाः ।
त्वया दुर्गे सर्वे कति कति न भक्ताः अधिकृताः ।
स्वयं रक्ता भक्तावहमधिकृतो नाधिमगमम् ।
सुखे वा दुःखे वा मम समतया यान्तु दिवसाः ।।20।।
भावार्थ –
हे जगदम्बे !! शिव विष्णु और ब्रह्मा को आपने ही दिशाओं के प्रतिपालन करने के अधिकार से संपन्न किया और अन्य कितने ही भक्तों को अपनी भक्ति का आधार दे कर सत्पात्र बनाया . आप स्वयं ही भक्तों के ऊपर कृपा करती हो या भक्तों की आराधना से प्रसन्न होकर, यह मैं नहीं समझ पाया . आपकी कृपा से कुछ भी पाना असंभव नहीं है . इस प्रकार आपके अनुग्रह स्वरुप मेरे जीवन का समय सुख और दुःख में एक सामान रूप से व्यतीत हो रहा है.
भवत्या भक्तानां यदि किमपि कश्चिद् विधिकृते ।
पुरोवा पश्चाद्वा कपट दुरि तेर्षा परवशः ।
जनश्चेत्संन्यासादपि जपति नारायणपदम् ।
ततोप्येनं देवी नयन पथवीथीं गमयति ।।21।।
भावार्थ –
यदि कोई विधि विधान अनुसार आपके सेवक के साथ सामने या पीठ पीछे से कपट पूर्ण पाप भावना की ईर्ष्या से द्वेष करता है अथवा कोई शाक्त भावना का परित्याग करके संन्यास ग्रहण कर ले और नारायण मन्त्र का जाप करने लग जाए तो भी भगवती जगदम्बा अपनी कृपा मय दृष्टि से उसका उद्धार कर देती है .
क्रिया वा कर्ता वा करणमपि वा कर्म यदि वा ।
प्रणीयंते चेष्टा जगति पुरुषैर्भाव – कलुषैः ।
सपर्प्य स्वात्मानं तव तु पदयोरिन्द्र पदवीम् ।
इदं तद् विष्णोर्गगयति न भक्तोऽयमचलः ।।22।।
भावार्थ –
संसार में दुष्ट भावना से युक्त मनुष्यों के द्वारा अनेक दूषित क्रियाएं की जाती हैं और वे अपने कर्ता होने के अभिमान से भरे हुए, किये हुए अपने कार्यों का बखान बड़े जोर शोर से करते हैं और स्वयं को श्रेष्ठ कार्यों का संचालक बतलाते हैं . यदि मनुष्य अपने जीवन को अविचल भाव से श्री जगदम्बा के चरणों में समर्पित कर देता है तो उस के लिए देवराज इंद्र का सिंहासन और विष्णु का जन्म मरण रहित बैकुंठ भी नगण्य हो जाता है .
स्वयं माया कार्याद्युदय करणे कौतुक वती।
शिवादीनां सर्ग स्थिति विलय कर्माणि विभृषे ।
अयं भक्तो नाम्ना भगवति शुभस्यात्तव यदा ।
भवान्या भक्तानाम शुभमपरं तेऽपि न कृतम् ।।23।।
भावार्थ –
सृष्टि रचना हेतु स्वयं मोह जंजाल रचकर खेल की तमाशबीन बनकर जगदम्बा ने ब्रह्मा विष्णु और शिव को सृष्टि रचना पालन और संहार के कार्यों में नियुक्त किया . भक्त कवि कहता है कि वह तो केवल नाम मात्र का भक्त है. यदि आपकी कृपा हो जाए तो नाम मात्र का भक्त भी पराभक्ति से संपन्न हो जाएगा. आपके भक्तों का ब्रह्मा विष्णु और शिव भी किंचिन्मात्र अमंगल नहीं कर सकते हैं.
धरित्री ह्यम्मोधि स्त्वमपि दहन स्त्वं च पवनः ।
त्वमाकाश स्त्वं च ग्रसति पुरुष स्तेन सहितम् ।
ग्रसन्ती ब्रह्माण्डं प्रकृतिरपि दासी पशुपतेः ।
यदासीत्संहारे जननि तव संहार महिमा ।।24।।
भावार्थ –
हे जगज्जननी ! तुम पृथ्वी जल तेज वायु और आकाश हो . तुम ही आत्म तत्व रूप पुरुष हो . उस पुरुष तत्व के साथ प्रकृति पुरुषात्मक जगत को आच्छादित कर समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त हो प्रकृष्ट रचना करने वाली आद्या प्रकृति कहलाती हो. फिर भी तुम महादेव की सेविका (दासी) हो. जब भगवान् शंकर सृष्टि का संहार करते हैं ..वह संहार भी आपकी संहारक शक्ति का ही चमत्कार है.
स्फ़ुरत्तरामाल्यं ग्रहनि वह नीराजन विधिः ।
हविर्धूमो धूपो मलयपवमानः परिमलः ।
इदं ते नैवेद्यं विविध रस वेद्यं खलु सुखे ।
सपर्या मर्यादा ध्रुव नियमुमे ब्रह्म निलये ।।25।।
भावार्थ –
हे जगदम्बे !! आकाश में तारे जो चमक रहे हैं वे मानों आपके गले की मालाएं हैं, सूर्य चंद्रादि ग्रह समूहों का प्रकाश मानों आपकी जगमगाती हुयी आरती का विधान है. यज्ञों में दी जाने आहुतियों का धुवाँ मानों आपके पीठ पर जलने वाला धूप है. मलयाचल की शीतल मंद और सुगन्धित हवा मानों अर्पित होने वाला नाना परिमल द्रव्य है, अनेक पदार्थों से प्राप्त होने वाला सर्वोत्तम आस्वाद रस ही मानो आपका नैवेद्य है. वेद विहित नियमानुकूल जीवन का सदाचार ही मानो आपकी सुखदायक पूजा है. सभी सांसारिक पदार्थ आपके हैं. इस प्रकार परब्रह्म स्वरूपा हैं.
नवाधारा सृष्टि स्फुटित नवधा शब्द रचना ।
नवानां खेटाना मुपरि नवधाप्यर्चित पदे ।।
नवानां संख्यानां प्रकृति रग राजन्य तनये।
नव द्वीपी देवी त्व्मसि नव चक्रेश्वरि शिवे ।।26।।
भावार्थ –
सृष्टि नौ आधारों वाली है पृथ्वी -जल -तेज -वायु -आकाश -काल -दिग् -आत्म और मन शब्दों से होने वाली काव्य रचनाएँ नौ रसों से युक्त होती हैं, नवग्रहों से ऊपर विराजमान रहने वाली भगवती के चरणारविन्दों की नवधा भक्ति के द्वारा अर्चना होती है .
हे गिरि राज पुत्रि !! तुम्हारी नौ संख्याओं वाली नौ प्रकृतियाँ शैल पुत्र्यादि रूप में हैं, जो नव दुर्गा कहलाती हैं. तुम्हारी पूजा नौ आवरणों से होती है जिन्हें द्वीप भी कहा जाता है इसी कारण से नव द्वीपी भगवती का नाम है. नौ त्रिकोणों से अथवा चक्रों से श्री महा यंत्र बनाता है .
हे शिवे !! इस लिए तुम्हारा नाम नव चक्रेश्वरी भी कहा जाता है .
यदा कृष्या कृष्यातपति भवदम्बा क्वनुगता ।
बलात्कारा दारादिति यमभटे नाम विधया ।।
तदैवैन दीनं स्पृशति वदने प्रश्रयवती ।
विधूयाम्बा धूर्तं गुहमपि धयन्तं भगवती ।।27।।
भावार्थ –
जब यमदूत हठ पूर्वक खींच- खींच कर प्राणियों को कष्ट पहुंचाते हैं और कहते हैं कि बोलो अब कहाँ गयी तुम्हारी जगदम्बा ? उसी समय अपने पुत्र कार्तिकेय को दूध पिलाती हुयी आश्रय दायिनी भगवती दीन भक्त के सिर को चूमती है और धूर्त यमदूतों को दूर भगा देती है .
हविर्धाने गीतं श्रुति शिरसि निर्धारितमितम् ।
शिवस्यार्धाङ्गस्थं परम महदद्धा मम मनः ।।
यदा चक्षाणस्ते चरण तल लाक्षा रस जलैः ।
मुखं प्रक्षाल्यां गणयति लक्षाणि कृतिनाम् ।।28।।
भावार्थ –
यज्ञों में गाये जाने वाले श्रेष्ठ वेद मन्त्रों द्वारा तुम्हारी श्रेष्ठता का निर्धारण हो चुका है. भगवान् शिव के आधे अंग में विराजमान जो उत्तम श्रेष्ठ अंग ज्योति है उस में मेरा मन लग गया है . जब देखते देखते उस के चरणों पर दृष्टि पड़ती है तो चरण तलों पर लगे महावर से युक्त जल से मानसिक रूप में मूह धोता हूँ और संसार में लाखों श्रेष्ठता युक्त व्यक्तियों को भी अपने समक्ष कुछ गिनता हूँ.
गुरूणां सर्वेषामयमुपरि विद्या गुरुरभूत् ।
मनूनां सर्वेषामयमुपरि जातो भुव मनुः ।।
कलानां सर्वासामियमुपरि लक्ष्मीः परकला ।
महिम्नां सर्वेषामयमुपरि जागर्ति महिमा ।।29।।
भावार्थ –
सभी गुरुओं में विद्या गुरु सर्वश्रेष्ठ कहलाता है, चौदह मनुओं में स्वयंभुव मनु सर्वश्रेष्ठ कहे जाते हैं. कलाओं धन – ऐश्वर्य दात्री लक्ष्मी कला सर्वश्रेष्ठ है और बहुत सारे महिम स्तोत्रों देवी का महिम्न सबसे अधिक चमकदार है.
यदालापादापादित विविध-विद्यापरिणतिः।
करे कृत्वा मोक्षं व्यवहरति लोकं प्रभुतया।।
प्रणादेवाशाये प्रभवति दुराये च पुरुषः।
तदेतन्माहात्म्य विरलजन साम्यं तव शिवे।।30।।
भावार्थ –
जो इस महिम्न स्तोत्र का पाठ करता है वह चाहे पापी भी क्यों न हो उसे अनेक विद्याओं के ज्ञान का लाभ होता है. उसे मोक्ष प्राप्ति आसानी से हो जाति है वह संसार में राजा के सामान विचरण करता है, हे जगदम्बे ! तुम्हारे भक्त जन की समानता कोई विरला कर सकता है ?
याभिः शङ्कर काल कृत्य दहन ज्वाला समुत्सारणम् ।
याभिः शुम्भ निशुम्भदर्प दलनं याभिर्जगन्मोहनम् ।।
याभिर्भैरव भीम रूप दलनं सद्यः कृतं मेऽन्वहम् ।
दारिद्रयं दलयन्तु तास्तव दृशो दुर्गे दयमेदुराः ।।31।।
भावार्थ –
जिन शक्तियों से शंकर के द्वारा किये जाने वाले प्रलयकालिक विनाश का प्रसार होता है, जिन शक्तियों के द्वारा शुम्भ और निशुम्भ के अहंकार का विनाश हुआ, जिन शक्तियों ने भयंकर गर्जना करने वाले भयानक राक्षसों को तत्काल मिटाया था, जिन शक्तियों ने नारी रूप में समस्त जगत को मोहित किया हुआ है , हे दुर्गे !! वे शक्तियां हमेशा अत्यंत दयामयी आँखों की दृष्टि से मेरी दरिद्रता का नाश करें.
याभिदुर्गतया कुशासन पुनः स्वाराज्यं दानं कृतम् ।
याभि भारत संसदि द्रुपदजा लज्जा जवाद्रक्षिता ।।
याभिः कृष्ण गृहीत हस्त कमलै स्त्राण कृतं मेऽन्वहम्।
दारिद्रयं दलयन्तु तास्तव दृशो दुर्गे दयमेदुराः ।।32।।
भावार्थ –
जिन शक्तियों ने अत्यंत दुर्दशा को प्राप्त विश्व को दुर्ग नामक राक्षस को मार कर स्वतंत्रता प्रदान की जिन शक्तियों ने कौरव और पांडवों की सभा में द्रौपदी की लज्जा की अत्यंत तीव्रता के साथ रक्षा की , जिन शक्तियों ने कृष्ण कृष्ण के कमलों में विराजमान सुदर्शन चक्र से उत्तरा के गर्भ गत शिशु की रक्षा करवाई , हे दुर्गे वे शक्तियां हमेशा अत्यंत दयामयी आँखों की दृष्टि से मेरी दरिद्रता का नाश करें .
यामिर्विष्णुकृते कृतं कुरु कुल प्रध्वंसनं संगरे ।
प्रद्युम्ने हृदि मुद्गरस्य कुसुम स्रग्याभिराकल्पिता ।।
कंसाद्याभिरपि व्याधायि वसुधा गोपाल गोपायनम् ।
दारिद्र्यं दलयन्तु स्तास्तव दृशो दुर्गे दयामेदुराः ।।33।।
भावार्थ –
जिन शक्तियों ने कृष्ण के द्वारा रचाए गए युद्ध में कुरु कुल का संहार कराया गया, जिन शक्तियों ने कृष्ण पुत्र प्रद्युम्न की छाती पर हुए मुद्गर के प्रहार को फूलों की माला के सामान बना दिया था, जिन शक्तियों ने कंसादि दुष्टों का संहार करवाया और पृथ्वी को भारहीन बनाया और ब्रजवासी गोपालों को संरक्षण देकर मान बढाया .. हे दुर्गे ! तुम्हारी वे शक्तियां अत्यंत दयामयी आँखों की दृष्टि से, मेरी दरिद्रता का नाश करे.
याभिः स्थावर जङ्गमं कृतमिदं याभिः सदापलितम् ।
याभिभीसित मा क्रमेण च पुनर्याभि
सदा संहृतम् ।
याभिर्दुःख महाम्मसो भव महासिन्धोर्न केतारिताः ।।
दारिद्रद्य दलयन्तु ता स्तव दृशो दुर्गे दयामेदुराः ।।34।।
भावार्थ –
जिन शक्तियों ने स्थावर और जंगम सृष्टि निर्माण किया और जिनके द्वारा ही इन का प्रतिपादन होता है जिन शक्तियों से सृष्टि का आरम्भ किया और जिन के द्वारा ही उपसंहार होता है जो शक्तियां दुःख के महासमुद्र के जल से और संसार सागर से कितनों का उद्धार करती है वे शक्तियां अत्यंत दयामयी आँखों की दृष्टि से, मेरी दरिद्रता का नाश करे.।।
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