Monday, July 24, 2017

कुंडली में त्रिक स्थान

कुंडली में त्रिक स्थान


कुंडली में छटवा,आठवा,तथा बारवा स्थान अशुभ माने जाते है,इन भावो पर यदि किसी शुभ स्थान का स्वामी बैठ जाये तो उसके फलो में तथा उस भाव के फलो में कमी आ जाती है,

छटवा भाव:-
यह रोग और क़र्ज़ आदि से सम्बंधित स्थान है यहाँ से शत्रु का विचार किया जाता है,इस स्थान में पाप ग्रह अच्छा फल देते है,तथा शुभ ग्रह अच्छा फल नहीं देते मानले की यदि किसी व्यक्ति के धन का स्वामी इस स्थान में बैठा हो तो उसके ऊपर क़र्ज़ बना ही रहता है

आठवा भाव
इस स्थान से विशेषकर मृत्यु,आयु,तथा पेट के विकार और गुप्त रोग आदि का विचार करते है यहाँ पर भी पाप ग्रह ही फलदायी है अन्यथा शुभ ग्रह यदि यहाँ बैठे तो उसका पूरा फल नष्ट हो जाता है यदि किसी के अष्टम स्थान में अग्नि तत्व राशी हो और कोई अग्नि तत्व ग्रह वहा हो तो पाइल्स जैसी बीमारी होने की सम्भावना है

बारहवाँ भाव
यह व्यय का स्थान है पर यहाँ से यात्रा और विदेश यात्रा का भी विचार किया जाता है इस स्थान में यदि कोई शुभ स्थान का स्वामी बैठता है तो उस स्थान का फल व्यय हो जाता है

किन्तु इन भावो की यह विशेषता है की यदि इन भावो का स्वामी स्वगृही हो या एक अशुभ स्थान का स्वामी दुसरे अशुभ स्थान में हो तो विपरीत राजयोग भी बनता है

उतना सत्य यह भी है की इन स्थानों में बैठे ग्रहों का उपाय आव्यशक होता है क्युकी वह समय समय पर मनुष्य को परेशान करते रहते है..

बिल्वपत्र की महत्ता

बिल्वपत्र की महत्ता



 बिल्वाष्टक स्तोत्रम्

●त्रिदलं त्रिगुणाकारं त्रिनेत्रं च त्रयायुधम्।
त्रिजन्मपापसंहार बिल्वपत्रं शिवार्पणम्॥१॥

●त्रिशाखैर्बिल्वपत्रैश्च ह्यच्छिद्रै: कोमलै: शुभै:।
शिवपूजां करिष्यामि बिल्वपत्रं शिवार्पणम्॥२॥

●अखण्डबिल्वपत्रेण पूजिते नन्दिकेश्वरे ।
शुद्ध्यन्ति सर्वपापेभ्यो बिल्वपत्रं शिवार्पणम् ॥३॥

●शालग्रामशिलामेकां विप्राणां जातु अर्पयेत् ।
सोमयज्ञ महापुण्यं बिल्वपत्रं शिवार्पणम् ॥४॥

●दन्तिकोटिसहस्राणि वाजपेयशतानि च ।
कोटिकन्यामहादानं बिल्वपत्रं शिवार्पणम् ॥५॥

●लक्ष्म्या: स्तनत उत्पन्नं महादेवस्य च प्रियम्।
बिल्ववृक्षं प्रयच्छामि बिल्वपत्रं शिवार्पणम् ॥६॥

●दर्शनं बिल्ववृक्षस्य स्पर्शनं पापनाशनम् ।
अघोरपापसंहारं बिल्वपत्रं शिवार्पणम् ॥७॥

●मूलतो ब्रह्मरूपाय मध्यतो विष्णुरूपिणे ।
अग्रत: शिवरूपाय बिल्वपत्रं शिवार्पणम् ॥८॥

●बिल्वाष्टकमिदं पुण्यं य: पठेच्छिवसन्निधौ ।
सर्वपापविनिर्मुक्त: शिवलोकमवाप्नुयात् ॥९॥

★शिव पुराण के अनुसार शिवलिंग पर कई प्रकार की सामग्री फूल-पत्तियां चढ़ाई जाती हैं। इन्हीं में से सबसे महत्वपूर्ण है बिल्वपत्र। बिल्वपत्र से जुड़ी खास बातें जानने के बाद आप भी मानेंगे कि बिल्व का पेड बहुत चमत्कारी है—

●पुराणों के अनुसार रविवार के दिन और द्वादशी तिथि पर बिल्ववृक्ष का विशेष पूजन करना चाहिए। इस पूजन से व्यक्ति ब्रह्महत्या जैसे महापाप से भी मुक्त हो जाता है।

●क्या आप जानते हैं कि बिल्वपत्र छ: मास तक बासी नहीं माना जाता। इसका मतलब यह है कि लंबे समय तक शिवलिंग पर एक बिल्वपत्र धोकर पुन: चढ़ाया जा सकता है या बर्फीले स्थानों के शिवालयों में अनुपलब्धता की स्थिति में बिल्वपत्र चूर्ण भी चढाने का विधान मिलता है।

●आयुर्वेद के अनुसार बिल्ववृक्ष के सात पत्ते प्रतिदिन खाकर थोड़ा पानी पीने से स्वप्न दोष की बीमारी से छुटकारा मिलता है। इसी प्रकार यह एक औषधि के रूप में काम आता है।

●शिवलिंग पर प्रतिदिन बिल्वपत्र चढ़ाने से सभी समस्याएं दूर हो जाती हैं। भक्त को जीवन में कभी भी पैसों की कोई समस्या नहीं रहती है।

●शास्त्रों में बताया गया है जिन स्थानों पर बिल्ववृक्ष हैं वह स्थान काशी तीर्थ के समान पूजनीय और पवित्र है। ऐसी जगह जाने पर अक्षय्य पुण्य की प्राप्ति होती है।

●बिल्वपत्र उत्तम वायुनाशक, कफ-निस्सारक व जठराग्निवर्धक है। ये कृमि व दुर्गन्ध का नाश करते हैं। इनमें निहित उड़नशील तैल व इगेलिन, इगेलेनिन नामक क्षार-तत्त्व आदि औषधीय गुणों से भरपूर हैं। चतुर्मास में उत्पन्न होने वाले रोगों का प्रतिकार करने की क्षमता बिल्वपत्र में है।

●ध्यान रखें इन कुछ तिथियों पर बिल्वपत्र नहीं तोडना चाहिए। ये तिथियां हैं चतुर्थी, अष्टमी, नवमी, द्वादशी, चतुर्दशी, अमावस्या, पूर्णिमा, संक्रान्ति और सोमवार तथा प्रतिदिन दोपहर के बाद बिल्वपत्र नहीं तोडना चाहिए। ऐसा करने पर पत्तियां तोडऩे वाला व्यक्ति पाप का भागी बनता है।

●शास्त्रों के अनुसार बिल्व का वृक्ष उत्तर-पश्चिम में हो तो यश बढ़ता है, उत्तर दक्षिण में हो तो सुख शांति बढ़ती है और मध्य में हो तो मधुर जीवन बनता है।

●घर में बिल्ववृक्ष लगाने से परिवार के सभी सदस्य कई प्रकार के पापों के प्रभाव से मुक्त हो जाते हैं। इस वृक्ष के प्रभाव से सभी सदस्य यशस्वी होते हैं, समाज में मान-सम्मान मिलता है। ऐसा शास्त्रों में वर्णित है।

●बिल्ववृक्ष के नीचे शिवलिंग पूजा से सभी मनोकामना पूरी होती है।

●बिल्व की जड़ का जल सिर पर लगाने से सभी तीर्थों की यात्रा का पुण्य मिल जाता है।

●गंध, फूल, धतूरे से जो बिल्ववृक्ष के जड़ की पूजा करता है, उसे संतान और सभी सुख मिल जाते हैं।

●बिल्ववृक्ष की बिल्वपत्रों से पूजा करने पर सभी पापों से मुक्ति मिल जाती हैं।

●जो बिल्व की जड़ के पास किसी शिव भक्त को घी सहित अन्न या खीर दान देता है, वह कभी भी धनहीन या दरिद्र नहीं होता। क्योंकि यह श्रीवृक्ष भी पुकारा जाता है। यानी इसमें देवी लक्ष्मी का भी वास होता है।

चमत्कारी रक्त गुंजा के कुछ प्रयोग

चमत्कारी रक्त गुंजा के कुछ प्रयोग

गुंजा तंत्र शास्त्र में जितनी मशहूर है उतनी ही आयुर्वेद में भी। आयुर्वेद में श्वेत गूंजा का ही अधिक प्रयोग होता है औषध रूप में साथ ही इसके मूल का भी जो मुलैठी के समान ही स्वाद और गुण वाली होती है। इसीकारण कई लोग मुलैठी के साथ इसके मूल की भी मिलावट कर देते हैं।

प्रयोग:-

1• सम्मान प्रदायक :
शुद्ध जल (गंगा का, अन्य तीर्थों का जल या कुएं का) में गुंजा की जड़ को चंदन की भांति घिसें। अच्छा यही है कि किसी ब्राह्मण या कुंवारी कन्या के हाथों से घिसवा लें। यह लेप माथे पर चंदन की तरह लगायें। ऐसा व्यक्ति सभा-समारोह आदि जहां भी जायेगा, उसे वहां विशिष्ट सम्मान प्राप्त होगा।

2• कारोबार में बरकत
किसी भी माह के शुक्ल पक्ष के प्रथम बुधवार के दिन 1 तांबे का सिक्का, 6 लाल गुंजा लाल कपड़े में बांधकर प्रात: 11 बजे से लेकर 1 बजे के बीच में किसी सुनसान जगह में अपने ऊपर से 11 बार उसार कर 11 इंच गहरा गङ्ढा खोदकर उसमें दबा दें। ऐसा 11 बुधवार करें। दबाने वाली जगह हमेशा नई होनी चाहिए। इस प्रयोग से कारोबार में बरकत होगी, घर में धन रूकेगा।

3• ज्ञान-बुद्धि वर्धक :

(क) गुंजा-मूल को बकरी के दूध में घिसकर हथेलियों पर लेप करे, रगड़े कुछ दिन तक यह प्रयोग करते रहने से व्यक्ति की बुद्धि, स्मरण-शक्ति तीव्र होती है, चिंतन, धारणा आदि शक्तियों में प्रखरता व तीव्रता आती है।

(ख) यदि सफेद गुंजा के 11 या 21 दाने अभिमंत्रित करके विद्यार्थियों के कक्ष में उत्तर पूर्व में रख दिया जाये तो एकाग्रता एवं स्मरण शक्ति में लाभ होता है।

4• वर-वधू के लिए :
विवाह के समय लाल गुंजा वर के कंगन में पिरोकर पहनायी जाती है। यह तंत्र का एक प्रयोग है, जो वर की सुरक्षा, समृद्धि, नजर-दोष निवारण एवं सुखद दांपत्य जीवन के लिए है। गुंजा की माला आभूषण के रूप में पहनी जाती है।

5• पुत्रदाता :
शुभ मुहुर्त में श्वेत गुंजा की जड़ लाकर दूध से धोकर, सफेद चन्दन पुष्प से पूजा करके सफेद धागे में पिरोकर। “ऐं क्षं यं दं” मंत्र के ग्यारह हजार जाप करके स्त्री या पुरूष धारण करे तो संतान सुख की प्राप्ती होती है।

6• वशीकरण –

(क) आप जिस व्यक्ति का वशीकरण करना चाहते हों उसका चिंतन करते हुए मिटटी का दीपक लेकर अभिमंत्रित गुंजा के ५ दाने लेकर शहद में डुबोकर रख दें. इस प्रयोग से शत्रु भी वशीभूत हो जाते हैं. यह प्रयोग ग्रहण काल, होली, दीवाली, पूर्णिमा, अमावस्या की रात में यह प्रयोग में करने से बहुत फलदायक होता है.

(ख) गुंजा के दानों को अभिमंत्रित करके जिस व्यक्ति के पहने हुए कपड़े या रुमाल में बांधकर रख दिया जायेगा वह वशीभूत हो जायेगा. जब तक कपड़ा खोलकर गुंजा के दाने नहीं निकले जायेंगे वह व्यक्ति वशीकरण के प्रभाव में रहेगा.  गुंजा की माला गले में धारण करने से सर्वजन वशीकरण का प्रभाव होता है.

7• विष-निवारण :
गुंजा की जड़ धो-सुखाकर रख ली जाये। यदि कोई व्यक्ति विष-प्रभाव से अचेत हो रहा हो तो उसे पानी में जड़ को घिसकर पिलायें। इसको पानी में घिस कर पिलाने से हर प्रकार का विष उतर जाता है।

8• दिव्य दृष्टि :-

(क) अलौकिक तामसिक शक्तियों के दर्शन :
भूत-प्रेतादि शक्तियों के दर्शन करने के लिए मजबूत हृदय वाले व्यक्ति, गुंजा मूल को रवि-पुष्य योग में या मंगलवार के दिन- शुद्ध शहद में घिस कर आंखों में अंजन (सुरमा/काजल) की भांति लगायें तो भूत, चुडैल, प्रेतादि के दर्शन होते हैं।

(ख) गुप्त धन दर्शन :
अंकोल या अंकोहर के बीजों के तेल में गुंजा-मूल को घिस कर आंखों पर अंजन की तरह लगायें। यह प्रयोग रवि-पुष्य योग में, रवि या मंगलवार को ही करें। इसको आंजने से पृथ्वी में गड़ा खजाना तथा आस पास रखा धन दिखाई देता है।

9• शत्रु दमन प्रयोग :
यदि लड़ाई झगड़े की नौबत हो तो काले तिल के तेल में गुंजामूल को घिस कर, उस लेप को सारे शरीर में मल लें। ऐसा व्यक्ति शत्रुओं को बहुत भयानक तथा सबल दिखाई देगा। फलस्वरूप शत्रुदल चुपचाप भाग जायेगा।

10• रोग – बाधा

(क) कुष्ठ निवारण प्रयोग :
गुंजा मूल को अलसी के तेल में घिसकर लगाने से कुष्ठ (कोढ़) के घाव ठीक हो जाते हैं।

(ख)अंधापन समाप्त :
गुंजा-मूल को गंगाजल में घिसकर आंखों मे लगाने से आंसू बहुत आते हैं।नेत्रों की सफाई होती है आँखों का जाल कटता है।
देशी घी (गाय का) में घिस कर लगाते रहने से इन दोनों प्रयोगों से अंधत्व दूर हो जाता है।

(ग) वाजीकरण:
श्वेत गुंजा की जड को गाय के शुद्ध घृत में पीसकर लेप तैयार करें। यह लेप शिश्न पर मलने से कामशक्ति की वृद्धि के साथ स्तंभन शक्ति में भी वृद्धि होती है।

11. नौकरी में बाधा
राहु के प्रभाव के कारण व्यवसाय या नौकरी में बाधा आ रही हो तो लाल गुंजा व सौंफ को लाल वस्त्र में बांधकर अपने कमरे में रखें।

चाण्डाल योग

चाण्डाल योग

कहीं आपकी कुण्डली में भी तो  नहीं है चाण्डाल योग
चांडाल शब्द का अर्थ होता है क्रूर कर्म करनेवाला, नीच कर्म करनेवाला
राहू और केतु दोनों छाया ग्रह है. पुराणों में यह राक्षस है. राहू और केतु के लिए बड़े सर्प या अजगर की कल्पना करने में आती है. राहू सर्प का मस्तक है तो केतु सर्प की पूंछ. ज्योतिषशास्त्र में राहू -केतु दोनों पाप ग्रह है. अत: यह दोनों ग्रह जिस भाव में या जिस ग्रह के साथ हो उस भाव या उस ग्रह संबंधी अनिष्ठ फल दर्शाता है. यह दोनों ग्रह चांडाल जाती के है. इसलिए इनकी युति को चांडाल ( राहू-केतु ) योग कहा जाता है.

कैसे होता है चाण्डाल योग

जब कुण्डली में राहु या केतु जिस गृह के साथ बैठ जाते है तो उसकी युति को ही चाण्डाल योग कहा जाता है ये मुख्य रूप से सात प्रकार का होता है

1- रवि-चांडाल योग -सूर्य के साथ राहू या केतु हो तो इसे रवि चांडाल योग कहते है. इस युति को सूर्य ग्रहण योग भी कहा जाता है. इस योग में जन्म लेनेवाला अत्याधिक गुस्सेवाला और जिद्दी होता है. उसे शारीरिक कष्ठ भी भुगतना पड़ता है. पिता के साथ मतभेद रहता है और संबंध अच्छे नहीं होते. पिता की तबियत भी अच्छी नहीं रहती.

2- चन्द्र-चांडाल योग – चन्द्र के साथ राहू या केतु हो तो इसे चन्द्र चांडाल योग कहते है. इस युति को चन्द्र ग्रहण योग भी कहा जाता है. इस योग में जन्म लेनेवाला शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य नहीं भोग पाता. माता संबंधी भी अशुभ फल मिलता है. नास्तिक होने की भी संभावना होती है.

3- भौम-चांडाल योग – मंगल के साथ राहू या केतु हो तो इसे भौम चांडाल योग कहते है. इस युति को अंगारक योग भी कहा जाता है. इस योग में जन्म लेनेवाला अत्याधिक क्रोधी, जल्दबाज, निर्दय और गुनाखोर होता है. स्वार्थी स्वभाव, धीरज न रखनेवाला होता है. आत्महत्या या अकस्मात् की संभावना भी होती है.

4- बुध-चांडाल योग -बुध के साथ राहू या केतु हो तो इसे बुध चांडाल योग कहते है. बुद्धि और चातुर्य के ग्रह के साथ राहू-केतु होने से बुध के कारत्व को हानी पहुचती है. और जातक अधर्मी. धोखेबाज और चोरवृति वाला होता है.
5- गुरु-चांडाल योग – गुरु के साथ राहू या केतु हो तो इसे गुरु चांडाल योग कहते है.ऐसा जातक नास्तिक, धर्मं में श्रद्धा न रखनेवाला और नहीं करने जेसे कार्य करनेवाला होता है.

6- भृगु-चांडाल योग – शुक्र के साथ राहू या केतु हो तो इसे भृगु चांडाल योग कहते है. इस योग में जन्म लेनेवाले जातक का जातीय चारित्र शंकास्पद होता है. वैवाहिक जीवन में भी काफी परेशानिया रहती है. विधुर या विधवा होने की सम्भावना भी होती है.

7- शनि-चांडाल योग – शनि के साथ राहू या केतु हो तो इसे शनि चांडाल योग कहते है. इस युति को श्रापित योग भी कहा जाता है. यह चांडाल योग भौम चांडाल योग जेसा ही अशुभ फल देता है. जातक झगढ़ाखोर, स्वार्थी और मुर्ख होता है. ऐसे जातक की वाणी और व्यव्हार में विवेक नहीं होता. यह योग अकस्मात् मृत्यु की तरफ भी इशारा करता है.

अस्तु आप भी देखे कहीं आपकी कुण्डली में भी चाण्डाल योग तो नहीं है यदि हो तो इसकी शांति अवश्य करवाएं क्योंकि कहा जाता है की शान्ति का उपाय करके जीवन को खुशहाल बनाया जा सकता है

चमत्कारी श्रीराम रक्षा स्तोत्रम्‌

चमत्कारी श्रीराम रक्षा स्तोत्रम्‌

श्रीबुधकौशिकविरचितं श्रीरामरक्षास्तोत्रं

राम रक्षा स्त्रोत को ग्यारह बार एक बार में पढ़ लिया जाए तो पूरे दिन तक इसका प्रभाव रहता है। अगर आप रोज ४५ दिन तक राम रक्षा स्त्रोत का पाठ करते हैं तो इसके फल की अवधि बढ़ जाती है। इसका प्रभाव दुगुना तथा दो दिन तक रहने लगता है और भी अच्छा होगा यदि कोई राम रक्षा स्त्रोत को नवरात्रों में प्रतिदिन ११ बार पढ़े ।

सरसों के दाने एक कटोरी में दाल लें। कटोरी के नीचे कोई ऊनी वस्त्र या आसन होना चाहिए। राम रक्षा मन्त्र को ११ बार पढ़ें और इस दौरान आपको अपनी उँगलियों से सरसों के दानों को कटोरी में घुमाते रहना है। ध्यान रहे कि आप किसी आसन पर बैठे हों और राम रक्षा यंत्र आपके सम्मुख हो या फिर श्री राम कि प्रतिमा या फोटो आपके आगे होनी चाहिए जिसे देखते हुए आपको मन्त्र पढ़ना है। ग्यारह बार के जाप से सरसों सिद्ध हो जायेगी और आप उस सरसों के दानों को शुद्ध और सुरक्षित पूजा स्थान पर रख लें। जब आवश्यकता पड़े तो कुछ दाने लेकर आजमायें। सफलता अवश्य प्राप्त होगी।

वाद विवाद या मुकदमा हो तो उस दिन सरसों के दाने साथ लेकर जाएँ और वहां दाल दें जहाँ विरोधी बैठता है या उसके सम्मुख फेंक दें। सफलता आपके कदम चूमेगी।

खेल या प्रतियोगिता या साक्षात्कार में आप सिद्ध सरसों को साथ ले जाएँ और अपनी जेब में रखें।

अनिष्ट की आशंका हो तो भी सिद्ध सरसों को साथ में रखें।
यात्रा में साथ ले जाएँ आपका कार्य सफल होगा।

राम रक्षा स्त्रोत से पानी सिद्ध करके रोगी को पिलाया जा सकता है परन्तु पानी को सिद्ध करने कि विधि अलग है। इसके लिए ताम्बे के बर्तन को केवल हाथ में पकड़ कर रखना है और अपनी दृष्टि पानी में रखें और महसूस करें कि आपकी सारी शक्ति पानी में जा रही है। इस समय अपना ध्यान श्री राम की स्तुति में लगाये रखें। मन्त्र बोलते समय प्रयास करें कि आपको हर वाक्य का अर्थ ज्ञात रहे।

॥ श्रीरामरक्षास्तोत्रम्‌ ॥

श्रीगणेशायनम: 
।अस्य श्रीरामरक्षास्तोत्रमन्त्रस्य ।
बुधकौशिक ऋषि: ।
श्रीसीतारामचंद्रोदेवता ।
अनुष्टुप्‌ छन्द: । सीता शक्ति: ।
श्रीमद्‌हनुमान्‌ कीलकम्‌ ।
श्रीसीतारामचंद्रप्रीत्यर्थे जपे विनियोग: ॥

अर्थ: — इस राम रक्षा स्तोत्र मंत्र के रचयिता बुध कौशिक ऋषि हैं, सीता और रामचंद्र देवता हैं, अनुष्टुप छंद हैं, सीता शक्ति हैं, हनुमान जी कीलक है तथा श्री रामचंद्र जी की प्रसन्नता के लिए राम रक्षा स्तोत्र के जप में विनियोग किया जाता हैं |

॥ अथ ध्यानम्‌ ॥

ध्यायेदाजानुबाहुं धृतशरधनुषं बद्दद्पद्‌मासनस्थं ।
पीतं वासोवसानं नवकमलदलस्पर्धिनेत्रं प्रसन्नम्‌ ॥
वामाङ्‌कारूढसीता मुखकमलमिलल्लोचनं नीरदाभं ।
नानालङ्‌कारदीप्तं दधतमुरुजटामण्डनं रामचंद्रम्‌ ॥

ध्यान धरिए — जो धनुष-बाण धारण किए हुए हैं,बद्द पद्मासन की मुद्रा में विराजमान हैं और पीतांबर पहने हुए हैं, जिनके आलोकित नेत्र नए कमल दल के समान स्पर्धा करते हैं, जो बाएँ ओर स्थित सीताजी के मुख कमल से मिले हुए हैं- उन आजानु बाहु, मेघश्याम,विभिन्न अलंकारों से विभूषित तथा जटाधारी श्रीराम का ध्यान करें |

॥ इति ध्यानम्‌ ॥

चरितं रघुनाथस्य शतकोटिप्रविस्तरम्‌ ।
एकैकमक्षरं पुंसां महापातकनाशनम्‌ ॥१॥

श्री रघुनाथजी का चरित्र सौ करोड़ विस्तार वाला हैं | उसका एक-एक अक्षर महापातकों को नष्ट करने वाला है |

ध्यात्वा नीलोत्पलश्यामं रामं राजीवलोचनम्‌ ।
जानकीलक्ष्मणॊपेतं जटामुकुटमण्डितम्‌ ॥२॥

नीले कमल के श्याम वर्ण वाले, कमलनेत्र वाले , जटाओं के मुकुट से सुशोभित, जानकी तथा लक्ष्मण सहित ऐसे भगवान् श्री राम का स्मरण करके,

सासितूणधनुर्बाणपाणिं नक्तं चरान्तकम्‌ ।
स्वलीलया जगत्त्रातुमाविर्भूतमजं विभुम्‌ ॥३॥

जो अजन्मा एवं सर्वव्यापक, हाथों में खड्ग, तुणीर, धनुष-बाण धारण किए राक्षसों के संहार तथा अपनी लीलाओं से जगत रक्षा हेतु अवतीर्ण श्रीराम का स्मरण करके,

रामरक्षां पठॆत्प्राज्ञ: पापघ्नीं सर्वकामदाम्‌ ।
शिरो मे राघव: पातु भालं दशरथात्मज: ॥४॥

मैं सर्वकामप्रद और पापों को नष्ट करने वाले राम रक्षा स्तोत्र का पाठ करता हूँ | राघव मेरे सिर की और दशरथ के पुत्र मेरे ललाट की रक्षा करें |

कौसल्येयो दृशौ पातु विश्वामित्रप्रिय: श्रुती ।
घ्राणं पातु मखत्राता मुखं सौमित्रिवत्सल: ॥५॥

कौशल्या नंदन मेरे नेत्रों की, विश्वामित्र के प्रिय मेरे कानों की, यज्ञरक्षक मेरे घ्राण की और सुमित्रा के वत्सल मेरे मुख की रक्षा करें |

जिव्हां विद्दानिधि: पातु कण्ठं भरतवंदित: ।
स्कन्धौ दिव्यायुध: पातु भुजौ भग्नेशकार्मुक: ॥६॥

मेरी जिह्वा की विधानिधि रक्षा करें, कंठ की भरत-वंदित, कंधों की दिव्यायुध और भुजाओं की महादेवजी का धनुष तोड़ने वाले भगवान् श्रीराम रक्षा करें |

करौ सीतपति: पातु हृदयं जामदग्न्यजित्‌ ।
मध्यं पातु खरध्वंसी नाभिं जाम्बवदाश्रय: ॥७॥

मेरे हाथों की सीता पति श्रीराम रक्षा करें, हृदय की जमदग्नि ऋषि के पुत्र (परशुराम) को जीतने वाले, मध्य भाग की खर (नाम के राक्षस) के वधकर्ता और नाभि की जांबवान के आश्रयदाता रक्षा करें |

सुग्रीवेश: कटी पातु सक्थिनी हनुमत्प्रभु: ।
ऊरू रघुत्तम: पातु रक्ष:कुलविनाशकृत्‌ ॥८॥

मेरे कमर की सुग्रीव के स्वामी, हडियों की हनुमान के प्रभु और रानों की राक्षस कुल का विनाश करने वाले रघुश्रेष्ठ रक्षा करें |

जानुनी सेतुकृत्पातु जङ्‌घे दशमुखान्तक: ।
पादौ बिभीषणश्रीद: पातु रामोSखिलं वपु: ॥९॥

मेरे जानुओं की सेतुकृत, जंघाओं की दशानन वधकर्ता, चरणों की विभीषण को ऐश्वर्य प्रदान करने वाले और सम्पूर्ण शरीर की श्रीराम रक्षा करें |

एतां रामबलोपेतां रक्षां य: सुकृती पठॆत्‌ ।
स चिरायु: सुखी पुत्री विजयी विनयी भवेत्‌ ॥१०॥

शुभ कार्य करने वाला जो भक्त भक्ति एवं श्रद्धा के साथ रामबल से संयुक्त होकर इस स्तोत्र का पाठ करता हैं, वह दीर्घायु, सुखी, पुत्रवान, विजयी और विनयशील हो जाता हैं |

पातालभूतलव्योम चारिणश्छद्‌मचारिण: ।
न द्र्ष्टुमपि शक्तास्ते रक्षितं रामनामभि: ॥११॥

जो जीव पाताल, पृथ्वी और आकाश में विचरते रहते हैं अथवा छद्दम वेश में घूमते रहते हैं , वे राम नामों से सुरक्षित मनुष्य को देख भी नहीं पाते |

रामेति रामभद्रेति रामचंद्रेति वा स्मरन्‌ ।
नरो न लिप्यते पापै भुक्तिं मुक्तिं च विन्दति ॥१२॥

राम, रामभद्र तथा रामचंद्र आदि नामों का स्मरण करने वाला रामभक्त पापों से लिप्त नहीं होता. इतना ही नहीं, वह अवश्य ही भोग और मोक्ष दोनों को प्राप्त करता है |

जगज्जेत्रैकमन्त्रेण रामनाम्नाभिरक्षितम्‌ ।
य: कण्ठे धारयेत्तस्य करस्था: सर्वसिद्द्दय: ॥१३॥

जो संसार पर विजय करने वाले मंत्र राम-नाम से सुरक्षित इस स्तोत्र को कंठस्थ कर लेता हैं, उसे सम्पूर्ण सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं |

वज्रपंजरनामेदं यो रामकवचं स्मरेत्‌ ।
अव्याहताज्ञ: सर्वत्र लभते जयमंगलम्‌ ॥१४॥

जो मनुष्य वज्रपंजर नामक इस राम कवच का स्मरण करता हैं, उसकी आज्ञा का कहीं भी उल्लंघन नहीं होता तथा उसे सदैव विजय और मंगल की ही प्राप्ति होती हैं |

आदिष्टवान्यथा स्वप्ने रामरक्षामिमां हर: ।
तथा लिखितवान्‌ प्रात: प्रबुद्धो बुधकौशिक: ॥१५॥

भगवान् शंकर ने स्वप्न में इस रामरक्षा स्तोत्र का आदेश बुध कौशिक ऋषि को दिया था, उन्होंने प्रातः काल जागने पर उसे वैसा ही लिख दिया |

आराम: कल्पवृक्षाणां विराम: सकलापदाम्‌ ।
अभिरामस्त्रिलोकानां राम: श्रीमान्‌ स न: प्रभु: ॥१६॥

जो कल्प वृक्षों के बगीचे के समान विश्राम देने वाले हैं, जो समस्त विपत्तियों को दूर करने वाले हैं (विराम माने थमा देना, किसको थमा देना/दूर कर देना ? सकलापदाम = सकल आपदा = सारी विपत्तियों को) और जो तीनो लोकों में सुंदर (अभिराम + स्+ त्रिलोकानाम) हैं, वही श्रीमान राम हमारे प्रभु हैं |

तरुणौ रूपसंपन्नौ सुकुमारौ महाबलौ ।
पुण्डरीकविशालाक्षौ चीरकृष्णाजिनाम्बरौ ॥१७॥

जो युवा,सुन्दर, सुकुमार,महाबली और कमल (पुण्डरीक) के समान विशाल नेत्रों वाले हैं, मुनियों की तरह वस्त्र एवं काले मृग का चर्म धारण करते हैं |

फलमूलशिनौ दान्तौ तापसौ ब्रह्मचारिणौ ।
पुत्रौ दशरथस्यैतौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ ॥१८॥

जो फल और कंद का आहार ग्रहण करते हैं, जो संयमी , तपस्वी एवं ब्रह्रमचारी हैं , वे दशरथ के पुत्र राम और लक्ष्मण दोनों भाई हमारी रक्षा करें |

शरण्यौ सर्वसत्वानां श्रेष्ठौ सर्वधनुष्मताम्‌ ।
रक्ष:कुलनिहन्तारौ त्रायेतां नो रघुत्तमौ ॥१९॥

ऐसे महाबली – रघुश्रेष्ठ मर्यादा पुरूषोतम समस्त प्राणियों के शरणदाता, सभी धनुर्धारियों में श्रेष्ठ और राक्षसों के कुलों का समूल नाश करने में समर्थ हमारा त्राण करें |

आत्तसज्जधनुषा विषुस्पृशा वक्षया शुगनिषङ्‌ग सङि‌गनौ ।
रक्षणाय मम रामलक्ष्मणा वग्रत: पथि सदैव गच्छताम्‌ ॥२०॥

संघान किए धनुष धारण किए, बाण का स्पर्श कर रहे, अक्षय बाणों से युक्त तुणीर लिए हुए राम और लक्ष्मण मेरी रक्षा करने के लिए मेरे आगे चलें |

संनद्ध: कवची खड्‌गी चापबाणधरो युवा ।
गच्छन्‌मनोरथोSस्माकं राम: पातु सलक्ष्मण: ॥२१॥

हमेशा तत्पर, कवचधारी, हाथ में खडग, धनुष-बाण तथा युवावस्था वाले भगवान् राम लक्ष्मण सहित आगे-आगे चलकर हमारी रक्षा करें |

रामो दाशरथि: शूरो लक्ष्मणानुचरो बली ।
काकुत्स्थ: पुरुष: पूर्ण: कौसल्येयो रघुत्तम: ॥२२॥

भगवान् का कथन है की श्रीराम, दाशरथी, शूर, लक्ष्मनाचुर, बली, काकुत्स्थ , पुरुष, पूर्ण, कौसल्येय, रघुतम,

वेदान्तवेद्यो यज्ञेश: पुराणपुरुषोत्तम: ।
जानकीवल्लभ: श्रीमानप्रमेय पराक्रम: ॥२३॥

वेदान्त्वेघ, यज्ञेश,पुराण पुरूषोतम , जानकी वल्लभ, श्रीमान और अप्रमेय पराक्रम आदि नामों का

इत्येतानि जपेन्नित्यं मद्‌भक्त: श्रद्धयान्वित: ।
अश्वमेधाधिकं पुण्यं संप्राप्नोति न संशय: ॥२४॥

नित्यप्रति श्रद्धापूर्वक जप करने वाले को निश्चित रूप से अश्वमेध यज्ञ से भी अधिक फल प्राप्त होता हैं |

रामं दूर्वादलश्यामं पद्‌माक्षं पीतवाससम्‌ ।
स्तुवन्ति नामभिर्दिव्यैर्न ते संसारिणो नर: ॥२५॥

दूर्वादल के समान श्याम वर्ण, कमल-नयन एवं पीतांबरधारी श्रीराम की उपरोक्त दिव्य नामों से स्तुति करने वाला संसारचक्र में नहीं पड़ता |

रामं लक्शमण पूर्वजं रघुवरं सीतापतिं सुंदरम्‌ ।
काकुत्स्थं करुणार्णवं गुणनिधिं विप्रप्रियं धार्मिकम्‌
राजेन्द्रं सत्यसंधं दशरथनयं श्यामलं शान्तमूर्तिम्‌ ।
वन्दे लोकभिरामं रघुकुलतिलकं राघवं रावणारिम्‌ ॥२६॥

लक्ष्मण जी के पूर्वज , सीताजी के पति, काकुत्स्थ, कुल-नंदन, करुणा के सागर , गुण-निधान , विप्र भक्त, परम धार्मिक , राजराजेश्वर, सत्यनिष्ठ, दशरथ के पुत्र, श्याम और शांत मूर्ति, सम्पूर्ण लोकों में सुन्दर, रघुकुल तिलक , राघव एवं रावण के शत्रु भगवान् राम की मैं वंदना करता हूँ |

रामाय रामभद्राय रामचंद्राय वेधसे ।
रघुनाथाय नाथाय सीताया: पतये नम: ॥२७॥

राम, रामभद्र, रामचंद्र, विधात स्वरूप , रघुनाथ, प्रभु एवं सीताजी के स्वामी की मैं वंदना करता हूँ |

श्रीराम राम रघुनन्दन राम राम ।
श्रीराम राम भरताग्रज राम राम ।
श्रीराम राम रणकर्कश राम राम ।
श्रीराम राम शरणं भव राम राम ॥२८॥

हे रघुनन्दन श्रीराम ! हे भरत के अग्रज भगवान् राम! हे रणधीर, मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ! आप मुझे शरण दीजिए |

श्रीरामचन्द्रचरणौ मनसा स्मरामि ।
श्रीरामचन्द्रचरणौ वचसा गृणामि ।
श्रीरामचन्द्रचरणौ शिरसा नमामि ।
श्रीरामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्ये ॥२९॥

मैं एकाग्र मन से श्रीरामचंद्रजी के चरणों का स्मरण और वाणी से गुणगान करता हूँ, वाणी द्धारा और पूरी श्रद्धा के साथ भगवान् रामचन्द्र के चरणों को प्रणाम करता हुआ मैं उनके चरणों की शरण लेता हूँ |

माता रामो मत्पिता रामचंन्द्र: ।
स्वामी रामो मत्सखा रामचंद्र: ।
सर्वस्वं मे रामचन्द्रो दयालु ।
नान्यं जाने नैव जाने न जाने ॥३०॥

श्रीराम मेरे माता, मेरे पिता , मेरे स्वामी और मेरे सखा हैं | इस प्रकार दयालु श्रीराम मेरे सर्वस्व हैं. उनके सिवा में किसी दुसरे को नहीं जानता |

दक्षिणे लक्ष्मणो यस्य वामे तु जनकात्मजा ।
पुरतो मारुतिर्यस्य तं वन्दे रघुनंदनम्‌ ॥३१॥

जिनके दाईं और लक्ष्मण जी, बाईं और जानकी जी और सामने हनुमान ही विराजमान हैं, मैं उन्ही रघुनाथ जी की वंदना करता हूँ |

लोकाभिरामं रनरङ्‌गधीरं राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम्‌ ।
कारुण्यरूपं करुणाकरंतं श्रीरामचंद्रं शरणं प्रपद्ये ॥३२॥

मैं सम्पूर्ण लोकों में सुन्दर तथा रणक्रीड़ा में धीर, कमलनेत्र, रघुवंश नायक, करुणा की मूर्ति और करुणा के भण्डार की श्रीराम की शरण में हूँ |

मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम्‌ ।
वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये ॥३३॥

जिनकी गति मन के समान और वेग वायु के समान (अत्यंत तेज) है, जो परम जितेन्द्रिय एवं बुद्धिमानों में श्रेष्ठ हैं, मैं उन पवन-नंदन वानारग्रगण्य श्रीराम दूत की शरण लेता हूँ |

कूजन्तं रामरामेति मधुरं मधुराक्षरम्‌ ।
आरुह्य कविताशाखां वन्दे वाल्मीकिकोकिलम्‌ ॥३४॥

मैं कवितामयी डाली पर बैठकर, मधुर अक्षरों वाले ‘राम-राम’ के मधुर नाम को कूजते हुए वाल्मीकि रुपी कोयल की वंदना करता हूँ |

आपदामपहर्तारं दातारं सर्वसंपदाम्‌ ।
लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो भूयो नमाम्यहम्‌ ॥३५॥

मैं इस संसार के प्रिय एवं सुन्दर उन भगवान् राम को बार-बार नमन करता हूँ, जो सभी आपदाओं को दूर करने वाले तथा सुख-सम्पति प्रदान करने वाले हैं |

भर्जनं भवबीजानामर्जनं सुखसंपदाम्‌ ।
तर्जनं यमदूतानां रामरामेति गर्जनम्‌ ॥३६॥

‘राम-राम’ का जप करने से मनुष्य के सभी कष्ट समाप्त हो जाते हैं | वह समस्त सुख-सम्पति तथा ऐश्वर्य प्राप्त कर लेता हैं | राम-राम की गर्जना से यमदूत सदा भयभीत रहते हैं |

रामो राजमणि: सदा विजयते रामं रमेशं भजे ।
रामेणाभिहता निशाचरचमू रामाय तस्मै नम: ।
रामान्नास्ति परायणं परतरं रामस्य दासोSस्म्यहम्‌ ।
रामे चित्तलय: सदा भवतु मे भो राम मामुद्धर ॥३७॥

राजाओं में श्रेष्ठ श्रीराम सदा विजय को प्राप्त करते हैं | मैं लक्ष्मीपति भगवान् श्रीराम का भजन करता हूँ | सम्पूर्ण राक्षस सेना का नाश करने वाले श्रीराम को मैं नमस्कार करता हूँ | श्रीराम के समान अन्य कोई आश्रयदाता नहीं | मैं उन शरणागत वत्सल का दास हूँ | मैं हमेशा श्रीराम मैं ही लीन रहूँ | हे श्रीराम! आप मेरा (इस संसार सागर से) उद्धार करें |

राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे ।
सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने ॥३८॥

(शिव पार्वती से बोले –) हे सुमुखी ! राम- नाम ‘विष्णु सहस्त्रनाम’ के समान हैं | मैं सदा राम का स्तवन करता हूँ और राम-नाम में ही रमण करता हूँ |

इति श्रीबुधकौशिकविरचितं श्रीरामरक्षास्तोत्रं संपूर्णम्‌ ॥

॥ श्री सीतारामचंद्रार्पणमस्तु ॥

श्री देवी महिम्न स्तोत्रम्

श्री देवी महिम्न स्तोत्रम्


चंद्रचूड़ उवाच –

त्वमंतस्त्वं पश्चात्वमसि पुरतस्त्वं च परतः ।
त्वमूर्ध्वं त्वंचाधस्त्वमसि खलु लोकांतरचरी ।
त्वमिन्द्रस्त्वंचन्द्र स्त्वमसि निगामाना मुपनिषत् ।
तवाहं दासोऽस्मि त्रिपुरहर रामे कुरु कृपाम् ।।1।।

भावार्थ –
हे जगज्जननि ! तुम सृष्टि की अंतिम सीमा हो, तुम ही पीछे और आगे हो जहाँ हम नहीं देख पाते हैं वहां भी तुम हो. सब से दूर भी और सबसे पास भी तुम हो, ऊपर और नीचे भी तुम हो और लोक-लोकान्तरों में विचरण करने वाली भी तुम हो. तुम ही इंद्र हो और चन्द्र हो (ऐश्वर्य शालिनी और अत्यंत सौन्दर्य से परिपूर्ण )समस्त वैदिक वांग्मय के निचोड़ के रूप में ब्रह्म विद्या स्वरुप उपनिषद हो. हे त्रिपुरासुर का नाश करने वाली भगवान् शिव की भामिनी! मैं तुम्हारा सेवक हूँ अपने कृपानुग्रह से मुझे अनुग्रहीत करो.

इयान् कालः सृष्टेः प्रभृति बहु कष्टेन गमितः ।
बिना यत् त्वत् सेवां करुण रस कल्लोलिनि शिवे ।।
तदेतद्दौर्भाग्यं मम विषय तृष्णाख्य रिपुणा ।
हतः शुद्धानन्दं स्पृशिमि तव सिद्देश्वरि पदम् ।। २ ।।

भावार्थ –
जन्म से लेकर बहुत समय तक मेरा जीवन आपकी भक्ति से रहित होने से यह जीवन कठिनाईयों से घिरा हुआ कष्ट पूर्ण विधि से व्यतीत हुआ, विषयों की मृग तृष्णा रुपी शत्रु से घिरा हुआ मेरा शुद्ध चैतन्य मलिनताओं से अच्छादित होकर मृतवत था . यह मेरा दुर्भाग्य था अब तुम्हारे चरणों के संस्पर्श से वह अन्धकार समाप्त हो रहा है .
सुधा धारा वृष्टे स्तव जननि दृष्टे विषयताम् ।
वयं यामो दामोदर भगिनी भाग्येन फलितम् ।
इदानीं भूतानां ध्रुव मुपरि भूताः पर मुदा ।
न वांछामो मोक्षं विपिन पथि कक्षं जर दिव ।।3।।

भावार्थ –
हे जगज्जननि !! आपकी अमृत धारामयी कृपा दृष्टि के विषय में आना हमारे भाग्य का प्रतिफल है. हे विष्णु भगिनी आपकी परम प्रसन्नता जो इस समाया प्राणियों पर बरस रही है वह ध्रुव लोक से उन्नत है जैसे वृद्धजन घर के निवास शतान को छोड़ कर वन की ओर नहीं जाना चाहते हैं उसी प्रकार हम भी आपकी कृपा का आश्रय छोड़ कर मोक्ष पाने की अभिलाषा नहीं करते हैं .

जपादौ नो सक्ता हरगृहिणि भक्ताः करुणया ।
भवत्या होमत्या कति कति न भावेन गमिताः ।
चिदानंदाकारं भवजलधिपारं निज पदम् ।
न ते मातु गर्भे जननि तव गर्भेयदि गताः ।।4।।

भावार्थ –
हे शिव प्राण प्रिये हम आपकी आराधना तो कर रहे हैं किन्तु आपके चरणारविन्द विविध प्रकार के यज्ञानुष्ठानों के द्वारा उपासित होकर प्राप्त होते हैं जो सच्चिनानद पर ब्रह्म स्वरुप है और इस संसार समुद्र को पारा कराने वाले हैं . हे माता वे साधक कभी माता के गर्भ में नहीं आते जो आपके हार्दिक प्रेम के कृपा पात्र हो जाते हैं जिन पर आपकी कृपा दृष्टि हो जाती है वह जन्म मरण से छुटकारा प्राप्त कर लेता है

चिदेवेदं सर्वं श्रुतिरिति भवत्याः स्तुति कथा ।
प्रियं भात्यस्तीति त्रिविधमपि रूपं तव शिवे ।
अणु दीर्घं ह्रस्व महदजरं मन्तादि रहितनम् ।
त्वमेव ब्रह्मासि त्वद्परमुदारं न गिरजे ।।5।।

भावार्थ –
वेदों ने इस सम्पूर्ण सृष्टि को आपके चैतन्य स्वरुप में बतलाया है आपकी स्तुति और महिमा का गुणगान अत्यंत प्रिय और मनोरम है. हे शिवे ! तुम्हारे तीन प्रकार के रूप हैं – जो अत्यंत अणु सदृश सूक्ष्म रूप है वह अत्यंत अगम्य है. एक स्थूल रूप है वह बहुत विशाल (सहस्त्र शीर्ष वाला ) है और एक ह्रस्व आकार रूप है ..आप वृद्धावस्था से रहित, मृत्यु रहित, अजर और अमर हैं. आप ही साक्षात परब्रह्म हैं. हे पर्वत राज पुत्रि !! आप से श्रेष्ठ कोई दूसरा सेवक के ऊपर कृपा करने वाला नहीं है.

त्वयाऽन्तर्या मिन्या भगवति वशिन्यादि सहिते ।
विधीयंते भावा मनसि जगतामित्युपनिषत् ।
अहं कर्तेत्यंतर्विशतु मम बुद्धिः कथमुमे ।
सबुद्धिस्त्वदभक्तो न भवति कुबुद्धि क्वचिदपि ।।6।।

भावार्थ –
हे भगवति तुम अंतर्यामिनी के द्वारा अपनी वाशिन्यादि शक्तियों के साथ सांसारिक मनुष्यों के हृदय में शुभ अशुभ भावों का निर्माण किया जाता है . इस प्रकार से उपनिषदों का कथन है . मैंने किया ऐसा कुबुद्धि युक्त विचार मेरी बुद्धि में न आये. हे पार्वती !! मुझे तुम सद्बुद्धि प्रदान करना , जो आपका भक्त होता है वह कभी भी दुर्बुद्धि युक्त नहीं होता.

न मन्त्रं तंत्रं वा किमपि खलु विद्मोगिरिसुते ।
क्व यामः किं कुर्म स्तव चरण सेवा न रचिता।
अये मातः प्रातः प्रभृति दिवसास्तवधि वयम् ।
कुबुध्याऽहं कार्यी शिव शिव न यामो निज वयः।।7।।

भावार्थ –
हे पर्वतराज पुत्रि पार्वती !! हम न तो मन्त्र और न तंत्र जानते , हम कहाँ जांए..और क्या करें ? हम संशय ग्रस्त इसलिए हैं क्योंकि हमने आप के चरणों की सेवा नहीं की. हे माता प्रातः काल से लेकर सूर्यास्त पर्यंत हम सदैव दुर्बुद्धि युक्त कार्यों को ही कर करते रहते हैं. हे शिव ! हे शिव !! हमारी आयु ऐसे ही नष्ट हो रही है.

इहामुष्मिँल्लोके ह्यपि न विषये प्रेम करणे ।
न मे वैरी कश्चिद भगवति भवानि त्रिभुवेन ।
गुणान्नामाधारं निगमगण सारं तव पदम् ।
मनो वारं वारं जपति च विनोदं च भजेत ।।8।।

भावार्थ –
इस विषय वासना भरे संसार में भी मेरा लगाव नहीं है.
हे ऐश्वर्य शालिनी शिवप्रिये मेरा तीनों लोको में कोई वैरी नहीं है. तुम्हारे कल्याण दायक वेदों के सारभूत नामों को जानकर मैं तुम्हारे चरणों की सेवा में निरत हूँ उन नामों का बार बार जप करते हुए मैं आनंद का अनुभव प्राप्त कर रहा हूँ.

महामाये काये मम भवति यादृक् खलु मनः ।
मनस्ते संख्याने न हि भवति तादृक् कथामुमे ।
त्वमेवांतर्भातर्निगमयसि बुद्धिं त्रिजगताम् ।
न जाने श्री जाने रपि न विदितस्तेऽय महिमा ।। 9।।

भावार्थ –
हे महामाये !! तुम्हारे सौंदर्य का वर्णन अच्छी प्रकार से करने में मेरी बुद्धि शक्ति सफल होती है उसी प्रकार से हे पार्वती ! आतंरिक गुणों का वर्णन क्यों नहीं कर पाती है ? हे माता ! तीनों लोकों की तुम अंतर्यामिनी हो और समस्त त्रिलोकी को बौद्धिक शक्तियों को प्रदान करने वाली हो फिर भी महालक्ष्मी नामों से सुविख्यात नाम की महिमा का वर्णन करना यहाँ पर असंभव है. मैं जानते हुए भी नहीं जानता हूँ.

अमीषा वर्नानां क्रतुकरण सम्पूर्ण वयसाम् ।
निकाम्यं काव्यानां मुरसि समुदायं प्रकटितम् ।
स्तनौ मेरुमत्वा स्थागित ममृतोपाक्यमुभयम् ।
दयाधाराधारं मम जननि हारं तव भजे ।।10।।

भावार्थ –
हे जगज्जननि ! ये चारों वर्णों के लोग जीवन पर्यंत यज्ञों के द्वारा (तुम्हारा) आराधन करते हैं और सुन्दरता से परिपूर्ण काव्यों के अंतर्गत तुम्हारे अनंत गुणों की महिमा का गुणगान करते हैं. अमृतमय पयोरस की धारा को प्रवाहित करने वाले तुम्हारे ये दोनों स्तन हैं ..उन्हें पाषाण हृदय वाले मेरु पर्वत के सामान मानना अनुचित है . हे जगदम्बा ! मैं उन स्तनों के ऊपर विराजमान सुन्दर कंठहार की आराधना करता हूँ.

स्तन द्वन्द्वं स्कन्द-द्विपमुखमुखे यत् स्नुत मुखम् ।
कदाचिनन्मे मातर्वितरतु मुखे स्तन्य कणिकाम् ।
अनेनायं धन्यो जगदुपरि मान्योऽपि भवताम् ।
कुपुत्रे सत् -पुत्रे नहि भवति मातुर्विषमता ।।11।।

भावार्थ –
जो तुम्हारे दोनो स्तन कार्तिकेय और गणेश को दूध पिलाते हैं, उन स्तनों से निकले हुए दूध का एक कण भी मेरे मुख में पड़ जाए तो मैं संसार में धन्य होकर आपके प्रेम का पात्र बन जाऊंगा क्योंकि हे माता !! आप सुपुत्र और कुपुत्र में भेदभाव नहीं रखती हैं .****
जगन्मूलं शूलं ह्यनुभवति कूलं कथमिदम् ।
द्विधा कुर्वे सर्वेश्वरि ममतु गर्वेण फलितम् ।
पद द्वन्द्वं द्वन्द्व व्यतिकर हरं द्वन्द्व सुखदम् ।
गुणा रामे रामे कलय हृदि कामेश्वरि सदा ।।12।।

भावार्थ –
संसार में उत्पन्न होना ही कष्ट दायक है फिर भी मैं अनुकूलता और शान्ति का अनुभव प्राप्त कर रहा हूँ. संसार की द्विविधा जन्य स्थिति का अवलोकन किया जाय तो मेरे जीवन के सभी कार्य सफल हुए क्योंकि मैं आपके चरणारविन्द युगल का ध्यान करता हूँ और वे चरण युगल सांसारिक द्वंद्वों को मिटाने में सक्षम और सुखदायक हैं.
हे सर्वेश्वरि !! तुम समस्त गुणों की भण्डार हो सुन्दरतम देहयष्टि को धारण करने वाली माता मेरे हृदय रूपी उद्यान में सदैव विराजमान रहने की कृपा करो.

अहोरात्रं गात्रं समजनि न पात्रं मम मुदा।
धनायत्तं चित्तं तृणमपि तु निश्चित्तमभवत्।
इदानीमानीता कथमपि भवनी हृदि मया।
स्थितं मन्ये धन्ये पथि कथमधन्येऽह मुचितः।।13।।

भावार्थ –
धन की तृष्णा से ओतप्रोत और लालायित मेरा हृदय थोडा भी एकाग्र नहीं हो पाया इसलिये आपकी सेवा करने वाला सत्पात्र नहीं हो सका. अभी मैं किसी भी प्रकार से माँ भवानी को अपने हृदय में बसा सका हूँ .
हे धन्ये, पाप नाशिनी माँ !! मैं आधे मार्ग में उलझा पडा हूँ. इसे मैं कैसे उचित मान सकता हूँ.

निराकारामारादधि हृदयमाराधितवता ।
मया मायातीता सितसकल कायापहतये ।
अहं कोऽहं सोऽहं मतिरिति विमोहं हतवति ।
कृता हन्तानन्तामुपनयति संतानकवति ।।14।।

भावार्थ –
गंभीरता पूर्वक हृदय से आराधन करते हुए मैंने हृदय की कालिमा को दूर कर दिया और निर्गुण स्वरूपा जगदम्बा को हृदय के अंतस्तल में धारण कर दिया।
हृदय के मायामल को दूर कर लेने पर, मैं कौन हूँ ? मैं कौन हूँ ? इस प्रकार से बुद्धि के जड़वादी विशेष मोह के नष्ट हो जाने पर जैसे प्राणी अपनी संतान से प्रेम करता है, उसी प्रकार मैंने भी श्रद्धा भक्ति से जगदम्बा को अपना बना लिया है ।

त्वंदध्रे रुद्योतादरुण किरण श्रेणि‍र्निगमनात्।
समुद्भूता ये ये जगति जयिनः शोणमणयः।
त एते सर्वेषां शिरसि विदुषां भांति भुवने।
त्वदीयादन्यः को भवति जन वन्द्योऽद्य गिरजे।।15।।

भावार्थ –
हे पर्वत राज पुत्रि !! तुम्हारे चरण कमल से निकलने वाले लाल रंग के प्रकाश ने निखरी कान्ति वाली मणियों को अपनी चमक से जीत लिया है , उन्ही चरणारविन्दों के प्रकास को सभी विद्वानों ने अपनी बुद्धिशक्ति के रूप सर पर धारण कर रखा है . हे पार्वति !! तुम्हारे से अतिरिक्त कोई भी दूसरा व्यक्ति इस संसार में सभी लोगों के लिए वन्दनीय नहीं है .

अकार्षीत् सोऽमर्षी भुवनमपरं गाधितनयः ।
शशापान्यो लक्ष्मी मपि वदपरो ह्यर्णव मिति ।
सपर्यामाहात्म्यं तवजननि तादात्म्य फलदम् ।
कियद् वक्ष्ये यक्शेश्वर किरण दत्तं भगवति ।।16।।

भावार्थ –
हे भगवति !! क्रोधी विश्वामित्र ने आपकी आराधना के प्रभाव से दूसरी सृष्टि निर्माण कर लिया और महर्षि और्व ने महालक्ष्मी को शापित किया और अगस्त्य जी ने समुद्र को भी पी डाला था ..आपकी सेवा का प्रभाव साधना के अनुकूल फल देने में समर्थ है भगवान् शिव के ऊपर अनुग्रह करने वाली हे माता !! आपके सम्बन्ध में कितने कहा जाय वह बहुत थोड़ा है.

अमी देवा सेवां वदधति यतो मं च कतया ।
शिवोऽप्यच्छच्छाया रचित रुचिर प्रच्छदतया ।
कृतार्थी कर्तुंमां परम शिव वामांक मित्रया ।
परब्रह्म स्फूर्ति स्तव जयति मूर्तिः सकरुणा ।।17।।

भावार्थ –
ये देव गण दीन हीन स्थिति के कारण ही आपकी सेवा करते हैं क्योंकि भगवान् शिव भी आपके मुखारविंद की निष्पाप छाया को पाकर धन्यता युक्त हैं. भगवान् भूत भावन की बायीं ओर विराजमान रहने वाली माता तुम मुझे कृतार्थ करने वाली साक्षात् परब्रह्म स्वरूपा हो ..
आपकी करूणामयी मूर्ति की सदैव जय जयकार हो !!

समुद्धर्तुं भक्तान् प्रभवति विहर्तुं जगदिदम् ।
गतिं वायोर्बद्ध्वा विनियमयति च रूपं नियमात् ।
यदृच्छा यस्येच्छा न च भजन विच्छेद भयतः ।
नमस्ते भक्ताय ध्रुव भजन सक्ताय गिरजे ।।18।।

भावार्थ –
भक्तों के उद्धार हेतु आप इस संसार में विचरण करती है. आप चाहे तो हवा के नियमित प्रवाह को रोक कर स्वयं सबके लिए नियमित प्राण वायु प्रदान कर सकती हैं ..जिन भक्तों के भजन और सेवा भाव में कभी अवरोध नहीं होता केवल आप उन्हीं भक्तों पर कृपा दृष्टि नहीं रखती अपितु हे पार्वती स्वभावतः आप सब पर कृपा दृष्टि रखती हैं . हे जगदम्बे !! मैं तुम्हारी भक्ति में अटल रहने वाले भक्त जन को प्रणाम करता हूँ.

उमा माया माता कमलनयना कृष्णभगिनी ।
भवानी दुर्गाम्बा मति रमल लक्ष्मी तितरला ।
महाविद्या देवी प्रकृति रजजायेति जपताम् ।
भवन्ति श्रीविद्ये तव जननि नामानि निधयः।।19।।

भावार्थ –
अतिशय तप करने के कारण तुम्हारा नाम उमा है, चमत्कारकारिणी होने के कारण माया है , सबका प्रतिपालन करने के कारण माता है, अतिशय सुन्दर आँखों वाली कमलनयना जगत के प्रतिपालक विष्णु की तत्सदृश कृष्ण भगिनी अविनाशी शिव प्राण प्रिया भवानी, दुखों को दूर करने वाले दुर्गा, पुत्र व स्नेह देने वाले अम्बा, अत्यंत मननशीला मति दोषों से रहित लक्ष्मी और प्राणिमात्र पर दया बरसाने वाली तरला हो. समस्त ज्ञान विज्ञान की भण्डार, महाविद्या सृष्टि क्रीडा स्थल में क्रीडा करने वाली देवी हो. सृष्टि की रचना करने वाली परा प्रकृति हो, सृष्टि रचियिता ब्रह्मा की पत्नी हो, इस प्रकार से तुम्हारे नाम, आराधकों के लिए समस्त ऐश्वर्य को प्रदान करने वाली निधियाँ है.

दिशां पाला पाला हर हरि सरोजासन मुखाः ।
त्वया दुर्गे सर्वे कति कति न भक्ताः अधिकृताः ।
स्वयं रक्ता भक्तावहमधिकृतो नाधिमगमम् ।
सुखे वा दुःखे वा मम समतया यान्तु दिवसाः ।।20।।

भावार्थ –
हे जगदम्बे !! शिव विष्णु और ब्रह्मा को आपने ही दिशाओं के प्रतिपालन करने के अधिकार से संपन्न किया और अन्य कितने ही भक्तों को अपनी भक्ति का आधार दे कर सत्पात्र बनाया . आप स्वयं ही भक्तों के ऊपर कृपा करती हो या भक्तों की आराधना से प्रसन्न होकर, यह मैं नहीं समझ पाया . आपकी कृपा से कुछ भी पाना असंभव नहीं है . इस प्रकार आपके अनुग्रह स्वरुप मेरे जीवन का समय सुख और दुःख में एक सामान रूप से व्यतीत हो रहा है.

भवत्या भक्तानां यदि किमपि कश्चिद् विधिकृते ।
पुरोवा पश्चाद्वा कपट दुरि तेर्षा परवशः ।
जनश्चेत्संन्यासादपि जपति नारायणपदम् ।
ततोप्येनं देवी नयन पथवीथीं गमयति ।।21।।

भावार्थ –
यदि कोई विधि विधान अनुसार आपके सेवक के साथ सामने या पीठ पीछे से कपट पूर्ण पाप भावना की ईर्ष्या से द्वेष करता है अथवा कोई शाक्त भावना का परित्याग करके संन्यास ग्रहण कर ले और नारायण मन्त्र का जाप करने लग जाए तो भी भगवती जगदम्बा अपनी कृपा मय दृष्टि से उसका उद्धार कर देती है .

क्रिया वा कर्ता वा करणमपि वा कर्म यदि वा ।
प्रणीयंते चेष्टा जगति पुरुषैर्भाव – कलुषैः ।
सपर्प्य स्वात्मानं तव तु पदयोरिन्द्र पदवीम् ।
इदं तद् विष्णोर्गगयति न भक्तोऽयमचलः ।।22।।

भावार्थ –
संसार में दुष्ट भावना से युक्त मनुष्यों के द्वारा अनेक दूषित क्रियाएं की जाती हैं और वे अपने कर्ता होने के अभिमान से भरे हुए, किये हुए अपने कार्यों का बखान बड़े जोर शोर से करते हैं और स्वयं को श्रेष्ठ कार्यों का संचालक बतलाते हैं . यदि मनुष्य अपने जीवन को अविचल भाव से श्री जगदम्बा के चरणों में समर्पित कर देता है तो उस के लिए देवराज इंद्र का सिंहासन और विष्णु का जन्म मरण रहित बैकुंठ भी नगण्य हो जाता है .

स्वयं माया कार्याद्युदय करणे कौतुक वती।
शिवादीनां सर्ग स्थिति विलय कर्माणि विभृषे ।
अयं भक्तो नाम्ना भगवति शुभस्यात्तव यदा ।
भवान्या भक्तानाम शुभमपरं तेऽपि न कृतम् ।।23।।

भावार्थ –
सृष्टि रचना हेतु स्वयं मोह जंजाल रचकर खेल की तमाशबीन बनकर जगदम्बा ने ब्रह्मा विष्णु और शिव को सृष्टि रचना पालन और संहार के कार्यों में नियुक्त किया . भक्त कवि कहता है कि वह तो केवल नाम मात्र का भक्त है. यदि आपकी कृपा हो जाए तो नाम मात्र का भक्त भी पराभक्ति से संपन्न हो जाएगा. आपके भक्तों का ब्रह्मा विष्णु और शिव भी किंचिन्मात्र अमंगल नहीं कर सकते हैं.

धरित्री ह्यम्मोधि स्त्वमपि दहन स्त्वं च पवनः ।
त्वमाकाश स्त्वं च ग्रसति पुरुष स्तेन सहितम् ।
ग्रसन्ती ब्रह्माण्डं प्रकृतिरपि दासी पशुपतेः ।
यदासीत्संहारे जननि तव संहार महिमा ।।24।।

भावार्थ –
हे जगज्जननी ! तुम पृथ्वी जल तेज वायु और आकाश हो . तुम ही आत्म तत्व रूप पुरुष हो . उस पुरुष तत्व के साथ प्रकृति पुरुषात्मक जगत को आच्छादित कर समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त हो प्रकृष्ट रचना करने वाली आद्या प्रकृति कहलाती हो. फिर भी तुम महादेव की सेविका (दासी) हो. जब भगवान् शंकर सृष्टि का संहार करते हैं ..वह संहार भी आपकी संहारक शक्ति का ही चमत्कार है.

स्फ़ुरत्तरामाल्यं ग्रहनि वह नीराजन विधिः ।
हविर्धूमो धूपो मलयपवमानः परिमलः ।
इदं ते नैवेद्यं विविध रस वेद्यं खलु सुखे ।
सपर्या मर्यादा ध्रुव नियमुमे ब्रह्म निलये ।।25।।

भावार्थ –
हे जगदम्बे !! आकाश में तारे जो चमक रहे हैं वे मानों आपके गले की मालाएं हैं, सूर्य चंद्रादि ग्रह समूहों का प्रकाश मानों आपकी जगमगाती हुयी आरती का विधान है. यज्ञों में दी जाने आहुतियों का धुवाँ मानों आपके पीठ पर जलने वाला धूप है. मलयाचल की शीतल मंद और सुगन्धित हवा मानों अर्पित होने वाला नाना परिमल द्रव्य है, अनेक पदार्थों से प्राप्त होने वाला सर्वोत्तम आस्वाद रस ही मानो आपका नैवेद्य है. वेद विहित नियमानुकूल जीवन का सदाचार ही मानो आपकी सुखदायक पूजा है. सभी सांसारिक पदार्थ आपके हैं. इस प्रकार परब्रह्म स्वरूपा हैं.

नवाधारा सृष्टि स्फुटित नवधा शब्द रचना ।
नवानां खेटाना मुपरि नवधाप्यर्चित पदे ।।
नवानां संख्यानां प्रकृति रग राजन्य तनये।
नव द्वीपी देवी त्व्मसि नव चक्रेश्वरि शिवे ।।26।।

भावार्थ –
सृष्टि नौ आधारों वाली है पृथ्वी -जल -तेज -वायु -आकाश -काल -दिग् -आत्म और मन शब्दों से होने वाली काव्य रचनाएँ नौ रसों से युक्त होती हैं, नवग्रहों से ऊपर विराजमान रहने वाली भगवती के चरणारविन्दों की नवधा भक्ति के द्वारा अर्चना होती है .
हे गिरि राज पुत्रि !! तुम्हारी नौ संख्याओं वाली नौ प्रकृतियाँ शैल पुत्र्यादि रूप में हैं, जो नव दुर्गा कहलाती हैं. तुम्हारी पूजा नौ आवरणों से होती है जिन्हें द्वीप भी कहा जाता है इसी कारण से नव द्वीपी भगवती का नाम है. नौ त्रिकोणों से अथवा चक्रों से श्री महा यंत्र बनाता है .
हे शिवे !! इस लिए तुम्हारा नाम नव चक्रेश्वरी भी कहा जाता है .

यदा कृष्या कृष्यातपति भवदम्बा क्वनुगता ।
बलात्कारा दारादिति यमभटे नाम विधया ।।
तदैवैन दीनं स्पृशति वदने प्रश्रयवती ।
विधूयाम्बा धूर्तं गुहमपि धयन्तं भगवती ।।27।।

भावार्थ –
जब यमदूत हठ पूर्वक खींच- खींच कर प्राणियों को कष्ट पहुंचाते हैं और कहते हैं कि बोलो अब कहाँ गयी तुम्हारी जगदम्बा ? उसी समय अपने पुत्र कार्तिकेय को दूध पिलाती हुयी आश्रय दायिनी भगवती दीन भक्त के सिर को चूमती है और धूर्त यमदूतों को दूर भगा देती है .

हविर्धाने गीतं श्रुति शिरसि निर्धारितमितम् ।
शिवस्यार्धाङ्गस्थं परम महदद्धा मम मनः ।।
यदा चक्षाणस्ते चरण तल लाक्षा रस जलैः ।
मुखं प्रक्षाल्यां गणयति लक्षाणि कृतिनाम् ।।28।।

भावार्थ –
यज्ञों में गाये जाने वाले श्रेष्ठ वेद मन्त्रों द्वारा तुम्हारी श्रेष्ठता का निर्धारण हो चुका है. भगवान् शिव के आधे अंग में विराजमान जो उत्तम श्रेष्ठ अंग ज्योति है उस में मेरा मन लग गया है . जब देखते देखते उस के चरणों पर दृष्टि पड़ती है तो चरण तलों पर लगे महावर से युक्त जल से मानसिक रूप में मूह धोता हूँ और संसार में लाखों श्रेष्ठता युक्त व्यक्तियों को भी अपने समक्ष कुछ गिनता हूँ.

गुरूणां सर्वेषामयमुपरि विद्या गुरुरभूत् ।
मनूनां सर्वेषामयमुपरि जातो भुव मनुः ।।
कलानां सर्वासामियमुपरि लक्ष्मीः परकला ।
महिम्नां सर्वेषामयमुपरि जागर्ति महिमा ।।29।।

भावार्थ –
सभी गुरुओं में विद्या गुरु सर्वश्रेष्ठ कहलाता है, चौदह मनुओं में स्वयंभुव मनु सर्वश्रेष्ठ कहे जाते हैं. कलाओं धन – ऐश्वर्य दात्री लक्ष्मी कला सर्वश्रेष्ठ है और बहुत सारे महिम स्तोत्रों देवी का महिम्न सबसे अधिक चमकदार है.

यदालापादापादित विविध-विद्यापरिणतिः।
करे कृत्वा मोक्षं व्यवहरति लोकं प्रभुतया।।
प्रणादेवाशाये प्रभवति दुराये च पुरुषः।
तदेतन्माहात्म्य विरलजन साम्यं तव शिवे।।30।।

भावार्थ –
जो इस महिम्न स्तोत्र का पाठ करता है वह चाहे पापी भी क्यों न हो उसे अनेक विद्याओं के ज्ञान का लाभ होता है. उसे मोक्ष प्राप्ति आसानी से हो जाति है वह संसार में राजा के सामान विचरण करता है, हे जगदम्बे ! तुम्हारे भक्त जन की समानता कोई विरला कर सकता है ?

याभिः शङ्कर काल कृत्य दहन ज्वाला समुत्सारणम् ।
याभिः शुम्भ निशुम्भदर्प दलनं याभिर्जगन्मोहनम् ।।
याभिर्भैरव भीम रूप दलनं सद्यः कृतं मेऽन्वहम् ।
दारिद्रयं दलयन्तु तास्तव दृशो दुर्गे दयमेदुराः ।।31।।

भावार्थ –
जिन शक्तियों से शंकर के द्वारा किये जाने वाले प्रलयकालिक विनाश का प्रसार होता है, जिन शक्तियों के द्वारा शुम्भ और निशुम्भ के अहंकार का विनाश हुआ, जिन शक्तियों ने भयंकर गर्जना करने वाले भयानक राक्षसों को तत्काल मिटाया था, जिन शक्तियों ने नारी रूप में समस्त जगत को मोहित किया हुआ है , हे दुर्गे !! वे शक्तियां हमेशा अत्यंत दयामयी आँखों की दृष्टि से मेरी दरिद्रता का नाश करें.

याभिदुर्गतया कुशासन पुनः स्वाराज्यं दानं कृतम् ।
याभि भारत संसदि द्रुपदजा लज्जा जवाद्रक्षिता ।।
याभिः कृष्ण गृहीत हस्त कमलै स्त्राण कृतं मेऽन्वहम्।
दारिद्रयं दलयन्तु तास्तव दृशो दुर्गे दयमेदुराः ।।32।।

भावार्थ –
जिन शक्तियों ने अत्यंत दुर्दशा को प्राप्त विश्व को दुर्ग नामक राक्षस को मार कर स्वतंत्रता प्रदान की जिन शक्तियों ने कौरव और पांडवों की सभा में द्रौपदी की लज्जा की अत्यंत तीव्रता के साथ रक्षा की , जिन शक्तियों ने कृष्ण कृष्ण के कमलों में विराजमान सुदर्शन चक्र से उत्तरा के गर्भ गत शिशु की रक्षा करवाई , हे दुर्गे वे शक्तियां हमेशा अत्यंत दयामयी आँखों की दृष्टि से मेरी दरिद्रता का नाश करें .

यामिर्विष्णुकृते कृतं कुरु कुल प्रध्वंसनं संगरे ।
प्रद्युम्ने हृदि मुद्गरस्य कुसुम स्रग्याभिराकल्पिता ।।
कंसाद्याभिरपि व्याधायि वसुधा गोपाल गोपायनम् ।
दारिद्र्यं दलयन्तु स्तास्तव दृशो दुर्गे दयामेदुराः ।।33।।

भावार्थ –
जिन शक्तियों ने कृष्ण के द्वारा रचाए गए युद्ध में कुरु कुल का संहार कराया गया, जिन शक्तियों ने कृष्ण पुत्र प्रद्युम्न की छाती पर हुए मुद्गर के प्रहार को फूलों की माला के सामान बना दिया था, जिन शक्तियों ने कंसादि दुष्टों का संहार करवाया और पृथ्वी को भारहीन बनाया और ब्रजवासी गोपालों को संरक्षण देकर मान बढाया .. हे दुर्गे ! तुम्हारी वे शक्तियां अत्यंत दयामयी आँखों की दृष्टि से, मेरी दरिद्रता का नाश करे.

याभिः स्थावर जङ्गमं कृतमिदं याभिः सदापलितम् ।
याभिभीसित मा क्रमेण च पुनर्याभि
सदा संहृतम् ।
याभिर्दुःख महाम्मसो भव महासिन्धोर्न केतारिताः ।।
दारिद्रद्य दलयन्तु ता स्तव दृशो दुर्गे दयामेदुराः ।।34।।

भावार्थ –
जिन शक्तियों ने स्थावर और जंगम सृष्टि निर्माण किया और जिनके द्वारा ही इन का प्रतिपादन होता है जिन शक्तियों से सृष्टि का आरम्भ किया और जिन के द्वारा ही उपसंहार होता है जो शक्तियां दुःख के महासमुद्र के जल से और संसार सागर से कितनों का उद्धार करती है वे शक्तियां अत्यंत दयामयी आँखों की दृष्टि से, मेरी दरिद्रता का नाश करे.।।

प्रत्येक व्यक्ति अलग से मरता है

प्रत्येक व्यक्ति अलग से मरता है

किसी की मौत आंख से होती है,
तो आंख खुली रह जाती है—हंस आंख से उड़ा।
किसी की मृत्यु कान से होती है। किसी की मृत्यु मुंह से होती है,
तो मुंह खुला रह जाता है। अधिक लोगों की मृत्यु जननेंद्रिय से होती है, क्योंकि अधिक लोग जीवन में जननेंद्रिय के आसपास ही भटकते रहते हैं, उसके ऊपर नहीं जा पाते।

तुम्हारी जिंदगी जिस इंद्रिय के पास जीयी गई है, उसी इंद्रिय से मौत होगी। औपचारिक रूप से हम मरघट ले जाते हैं किसी को तो उसकी कपाल—क्रिया करते हैं, उसका सिर तोड़ते हैं।
वह सिर्फ प्रतीक है। समाधिस्थ व्यक्ति की मृत्यु उस तरह होती है। समाधिस्थ व्यक्ति की मृत्यु सहस्रार से होती है।
जननेंद्रिय सबसे नीचा द्वार है। जैसे कोई अपने घर की नाली में से प्रवेश करके बाहर निकले। सहस्रार, जो तुम्हारे मस्तिष्क में है द्वार, वह श्रेष्ठतम द्वार है।

जननेंद्रिय पृथ्वी से जोड़ती है, सहस्रार आकाश से। जननेंद्रिय देह से जोड़ती है, सहस्रार आत्मा से। जो लोग समाधिस्थ हो गए हैं, जिन्होंने ध्यान को अनुभव किया है, जो बुद्धत्व को उपलब्ध हुए हैं, उनकी मृत्यु सहस्रार से होती है।

उस प्रतीक में हम अभी भी कपाल—क्रिया करते हैं। मरघट ले जाते हैं, बाप मर जाता है, तो बेटा लकड़ी मारकर सिर तोड़ देता है। मरे—मराए का सिर तोड़ रहे हो!

प्राण तो निकल ही चुके, अब काहे के लिए दरवाजा खोल रहे हो? अब निकलने को वहां कोई है ही नहीं। मगर प्रतीक, औपचारिक, आशा कर रहा है बेटा कि बाप सहस्रार से मरे; मगर बाप तो मर ही चुका है। यह दरवाजा मरने के बाद नहीं खोला जाता, यह दरवाजा जिंदगी में खोलना पड़ता है।

इसी दरवाजे की तलाश में सारे योग, तंत्र की विद्याओं का जन्म हुआ। इसी दरवाजे को खोलने की कुंजियां हैं योग में, तंत्र में। इसी दरवाजे को जिसने खोल लिया, वह परमात्मा को जानकर मरता है। उसकी मृत्यु समाधि हो जाती है। इसलिए हम साधारण आदमी की कब्र को कब्र कहते हैं, फकीर की कब्र को समाधि कहते हैं—समाधिस्थ होकर जो मरा है।

प्रत्येक व्यक्ति उस इंद्रिय से मरता है, जिस इंद्रिय के पास जीया। जो लोग रूप के दीवाने हैं, वे आंख से मरेंगे; इसलिए चित्रकार, मूर्तिकार आंख से मरते हैं। उनकी आंख खुली रह जाती है।

जिंदगी—भर उन्होंने रूप और रंग में ही अपने को तलाशा, अपनी खोज की। संगीतज्ञ कान से मरते हैं। उनका जीवन कान के पास ही था। उनकी सारी संवेदनशीलता वहीं संगृहीत हो गई थी। मृत्यु देखकर कहा जा सकता है—आदमी का पूरा जीवन कैसा बीता।

अगर तुम्हें मृत्यु को पढ़ने का ज्ञान हो, तो मृत्यु पूरी जिंदगी के बाबत खबर दे जाती है कि आदमी कैसे जीया; क्योंकि मृत्यु सूचक है, सारी जिंदगी का सार—निचोड़ है—आदमी कहां जीया।

MANTRON KE DUS SANSKAR मन्त्रो के दस संस्कार

MANTRON KE DUS SANSKAR मन्त्रो के दस संस्कार

मन्त्रो के दस संस्कार ये है :-
जनन, दीपन, बोधन, ताड़न, अभिषेचन, विमलीकरण, जीवन, तर्पण, गोपन, और आप्यायन।
इनकी विधि इस प्रकार है :–

जनन :-

भोजपत्र गोरोचन कुंकुम चंदनादि से आत्माभिमुख त्रिकोण लिखे, फिर तीनो कोणों में छः छः समान रेखाएं खीचे। ऐसा करने पर 49 त्रिकोण कोष्ठ बनेंगे। उसमे ईशानकोण से मातृका वर्ण लिख कर देवता का आवाहन-पूजन करके मन्त्र का एक एक वर्ण उच्चारण करके अलग पत्र पर लिखे। ऐसा करने पर “जनन” नाम का प्रथम संस्कार होगा।

दीपन:-

हँसमन्त्र का सम्पुट करने से एक हजार जप द्वारा मन्त्र का दूसरा “दीपन” संस्कार होता है। जैसे – हंसः रामाय नमः सोऽहं।

बोधन :-

हूँ बीज सम्पुटित मन्त्र का पाँच हजार जप करने से “बोधन” नामक तीसरा संस्कार होता है। जैसे- हूँ रामाय नमः हूँ ।

ताड़न :-

फट् सम्पुटित मन्त्र का एक हजार जप करने से “ताड़न” नामक चतुर्थ संस्कार होता है। जैसे – फट् रामाय नमः फट् ।

अभिषेचन :-

भोजपत्र पर मन्त्र लिखकर ” रों हंसः ओं ” इस मन्त्र से जल को अभिमंत्रित करे और उस अभिमंत्रित जल से अश्वत्थपत्रादि द्वारा मन्त्र का अभिषेक करे। ऐसा करने पर “अभिषेक” नामक पाँचवा संस्कार होता है।

विमलीकरण :-

“ओं त्रों वषट् ” इन वर्णों से सम्पुटित मन्त्र का एक हजार जप करने से “विमलीकरण” नामक छठा संस्कार होता है। जैसे- ओं त्रों वषट् रामाय नमः वषट् त्रों ओं ।

जीवन :-

स्वधा वषट् सम्पुटित मूलमन्त्र का एक हजार जप करने से “जीवन” नामक सातवाँ संस्कार होता है। जैसे – स्वधा वषट् रामाय नमः वषट् स्वधा।

तर्पण :-

दुग्ध, जल, एवं घृत के द्वारा मूलमन्त्र से सौ बार तर्पण करना ही “तर्पण” संस्कार है।

गोपन :-

ह्रीं बीज से सम्पुटित एक हजार मूलमन्त्र का जप करने से “गोपन” नामक नवम् संस्कार होता है। जैसे – ह्रीं रामाय नमः ह्रीं ।

आप्यायन :-

ह्रौं बीज सम्पुटित मूलमन्त्र का एक हजार जप करने से “आप्यायन” नामक दसवाँ संस्कार होता है। जैसे – ह्रौं रामाय नमः ह्रौं ।
इस प्रकार संस्कृत किया हुआ मन्त्र शीघ्र सिद्धिप्रद होता है।


किन्तु दशो महाविद्या स्वम् सिद्ध है अतः उनके कुलानुसारेन पूजन में किसी भी संस्कार की आवश्यक्ता नहीं..मन्त्र महोदधि.

Sunday, July 23, 2017

कोर्ट केस में जीत प्राप्त करना चाहते हैं तो

कोर्ट केस में जीत प्राप्त करना चाहते हैं तो



उपाय :-
21 दिन का गणपति का अनुष्ठान करने से समस्त विघ्नों का नाश होता है।

मंत्र :
“ॐ गं गणपतये नम: ॐ गं गणपतये नम: ॐ गं गणपतये नम: ॐ गं गणपतये नम: ॐ गं गणपतये नम: ॐ गं गणपतये नम: ॐ गं गणपतये नम: ॐ गं गणपतये नम: ॐ गं गणपतये नम:”

नित्य गणेशजी को लाल चंदन, लाल अक्षत, लालपुष्प, 21 दुर्वा, धूप दीप, लड्डुओं का भोग रखकर लाल आसन पर बैठकर पूजन करें। सर्वत्र सफलता मिलेगी।

6 माह तक “संकटमोचन गणेश स्त्रोत” का तीन बार पाठ सुबह दोपहर शाम को करें। सभी परेशानी दूर हो जाएगी। 6 माह बाद 8 ब्राह्मणों को ये स्त्रोत लिखकर दान करने से कार्य पूरे हो जाते हैं।

“दीनदयाल बिरदु संभारी, हरहू नाथ मम संकट भारी”
इस चौपाई का 108 बार नित्य पाठ 3 माह करने से सफलता मिलती है।
तत्कालिक समस्या दूर हो जाती है।


7 मंगलवार 100 पाठ हनुमान चालीसा के करने से बंधन से मुक्ति मिल जाती है। कार्य मंगलता की ओर चला जाता है। मंगलवार को घी का दीपक हनुमान जी के सामने रखकर लाल पुण्प एवं गुड चना का भोग लगाकर ये पाठ करें।

पंचक-दोष दूर करने के लिए उपाय

पंचक-दोष दूर करने के लिए उपाय


लकड़ी का समान खरीदना अनिवार्य होने पर गायत्री यग्य करें।

दक्षिण दिशा की यात्रा अनिवार्य हो तो हनुमान मंदिर में पांच फल चढ़ाएं।

मकान पर छत डलवाना अनिवार्य हो तो मजदूरों को मिठाई खिलाने के पश्चात छत डलवाएं।

पलंग या चारपाई बनवानी अनिवार्य हो तो पंचक समाप्ति के बाद ही इस्तेमाल करें।

शव का क्रियाकर्म करना अनिवार्य होने पर शव दाह करते समय कुशा के पंच पुतले बनाकर चिता के साथ जलाएं।

विशेष: किसी भी उपाय को आरंभ करने से पहले अपने इष्ट देव का मंत्र जाप अवश्य करें।

Saturday, July 22, 2017

विद्या प्राप्ति के प्रभावशाली प्रज्ञावर्धन -स्तोत्र

विद्या प्राप्ति के प्रभावशाली प्रज्ञावर्धन -स्तोत्र


इस स्तोत्र का पाठ प्रात: [ सूर्योदय के लगभग ] रविपुष्य या गुरु पुष्य नक्षत्र से प्रारम्भ करके आगामी पुष्य नक्षत्र तक [ पीपल वृक्ष की जड़ में ] करना चाहिये! पाठ करते समय कार्तिकेय जी का ध्यान करना चाहिये! २७ दिन में एक पश्चरण होगा! फिर हर रोज घर में इसका पाठ करना चाहिये! याद शक्ति बढ़ती है
दायें हाथ में जल लेकर विनियोग के बाद जल त्याग करके, स्तोत्र पाठ को शुरू करें!

विनियोग
ॐ अथास्य प्रज्ञावर्धन — स्तोत्रस्य भगवान शिव ऋषि:, अनुष्टुप छंद:, स्कन्द – कुमारो देवता, प्रज्ञा सिद्धयर्थे जपे विनिटिग:

[ यहाँ जल का त्याग कर दें! ]


अथ स्तोत्रम
ॐ योगेश्वरो महासेन: कार्तिकेयोSग्निननन्दन!
स्कन्द: कुमार : सेनानी स्वामी शंकरसंभव !!१!!
गांगेयस्ता म्रचूडश्च ब्रह्मचारी शिखिध्वज:!
तारकारिरुमापुत्र: क्रौंचारिश्च षडानन:!!२!!
शब्दब्रह्मसमूहश्च सिद्ध: सारस्वतो गुह:!
सनत्कुमारो भगवांन भोग- मोक्षप्रद प्रभु:!!३!!
शरजन्मा गणाधीशं पूर्वजो मुक्तिमार्गकृत !
सर्वांगं – प्रणेता च वांछितार्थप्रदर्शक:!!४!!
अष्टाविंशति नामानि मदीयानीति य: पठेत !
प्रत्यूषे श्रद्धया युक्तो मूको वाचस्पतिर्भवेत् !!५!!
महामन्त्रमयानीति नामानि कीर्तयत !
महाप्रज्ञावाप्नोति नात्र कार्य विचारणा!!६!!
पुष्यनक्षत्रमारम्भय कपून: पुष्ये समाप्य च!
अश्वत्त्थमूले प्रतिदिनं दशवारं तु सम्पठेत!!७!!
!! प्रज्ञावर्धन स्तोत्रों सम्पूर्णम !!

कुन्जिका स्तोत्रम्

कुन्जिका स्तोत्रम्


शिव उवाच-
शृणु देवि प्रवक्ष्यामि कुंजिकास्तोत्रमुत्तमम्।
येन मन्त्रप्रभावेण चण्डीजापः भवेत्॥१॥
न कवचं नार्गलास्तोत्रं कीलकं न रहस्यकम्।
न सूक्तं नापि ध्यानं च न न्यासो न च वार्चनम्॥२॥
कुंजिकापाठमात्रेण दुर्गापाठफलं लभेत्।
अति गुह्यतरं देवि देवानामपि दुर्लभम्॥३॥
गोपनीयं प्रयत्नेन स्वयोनिरिव पार्वति।
मारणं मोहनं वश्यं स्तम्भनोच्चाटनादिकम्।
पाठमात्रेण संसिद्ध्येत् कुंजिकास्तोत्रमुत्तमम् ॥४॥

अथ मंत्रम्-
[ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे। ॐ ग्लौ हुं क्लीं जूं सः ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा ]

॥ इति मंत्रः॥
नमस्ते रुद्ररूपिण्यै नमस्ते मधुमर्दिनि।
नमः कैटभहारिण्यै नमस्ते महिषार्दिन ॥१॥
नमस्ते शुम्भहन्त्र्यै च निशुम्भासुरघातिनी ॥२॥
जाग्रतं हि महादेवि जपं सिद्धं कुरुष्व मे।
ऐंकारी सृष्टिरूपायै ह्रींकारी प्रतिपालिका॥३॥
क्लींकारी कामरूपिण्यै बीजरूपे नमोऽस्तु ते।
चामुण्डा चण्डघाती च यैकारी वरदायिनी॥ ४॥
विच्चे चाभयदा नित्यं नमस्ते मंत्ररूपिणि ॥५॥
धां धीं धू धूर्जटेः पत्नी वां वीं वूं वागधीश्वरी।
क्रां क्रीं क्रूं कालिका देवि शां शीं शूं मे शुभं कुरु॥६॥
हुं हु हुंकाररूपिण्यै जं जं जं जम्भनादिनी।
भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे भवान्यै ते नमो नमः॥७॥
अं कं चं टं तं पं यं शं बिन्दुराभिर्भव।
आविर्भव हंसं ळंक्षं मयि जाग्रय जाग्रय॥
त्रोटय त्रोटय दीप्तं कुरु कुरु स्वाहा।
पां पीं पूं पार्वती पूर्णा खां खीं खूं खेचरी तथा॥ ८॥
म्लां म्लीं म्लूं दीव्यती पूर्णा कुञ्जिकायै नमो नमः
सां सीं सप्तशतीं सिद्धिं कुरुष्व जप-मात्रतः॥९॥
इदं तु कुंजिकास्तोत्रं मंत्रजागर्तिहेतवे।
अभक्ते नैव दातव्यं गोपितं रक्ष पार्वति॥
यस्तु कुंजिकया देवि हीनां सप्तशतीं पठेत्।
न तस्य जायते सिद्धिररण्ये रोदनं यथा॥

। इति श्रीरुद्रयामले गौरीतंत्रे शिवपार्वती संवादे कुंजिकास्तोत्रं संपूर्णम् ।

नवरात्र में देवी पूजा करने से अधिक शुभत्व की प्राप्ति होती है और देवी माँ की भक्ति से कामना अनुसार भोग,मोक्ष दोनों की प्राप्ति होती है।

श्री दुर्गा सप्तसती में वर्णित अत्यंत प्रभावशली सिद्धि कुन्जिका स्त्रोत्र प्रस्तुत कर रहा हूँ इस सिद्धि कुन्जिका स्त्रोत्र का नित्य पाठ करने से संपूर्ण श्री दुर्गा सप्तशती पाठ का फल मिलता है | इस मंत्र का नित्य पाठ करने से माँ भगवती जगदम्बा की कृपा बनी रहती है.

यात्रा की बाधा दूर करने का मंत्र

यात्रा की बाधा दूर करने का मंत्र


सोमवार एवं शनिवार को पूर्व की यात्रा करने की परिस्थिति में यात्रा करने वाले को क्रमश: दूध का पान कर ‘ॐ नम: शिवाय’ मंत्र का जाप करते हुए यात्रा करनी चाहिए।

शनिवार को उड़द के दाने पूर्व दिशा में चढ़ाकर तथा कुछ दाने खाकर यात्रा करें एवं यात्रा के समय शनि-गायत्री का पाठ करता रहे- ‘ॐ भगभवाय विद्महे मृत्युरूपाय धीमहि तन्न: शनि प्रचोदयात्।’

मंगलवार एवं बुधवार को यात्रा करना जरूरी हो तो मंगलवार को गुड़ का दान करें, कुछ गुड़ मुख में धारण करें तथा मंगल-गायत्री का जप करें- ‘ॐ अंगारकाय विद्महे शक्तिहस्ताय धीमहि तन्नो भौम: प्रचोदयात्।’

बुधवार को उत्तर दिशा की यात्रा आवश्यक हो तो तिल एवं गुड़ का दान करें एवं उसी से बने पकवान का भोजन कर यात्रा करें। यात्रा से पूर्व पांच बार बुध-गायत्री का पाठ कर यात्रा करनी चाहिए- ‘ॐ सौम्यरूपाय विद्महे बाणेशाय धीमहि तन्न: सौम्य: प्रचोदयात्।’

वैसे तो रविवार एवं शुक्रवार को पश्चिम दिशा में यात्रा करना निषिद्ध बताया गया है, फिर भी अत्यंत आवश्यक हो जाने पर यात्रा करनी हो तो उपाय कर यात्रा की जा सकती है-

रविवार को पश्चिम में यात्रा करने के पूर्व शुद्ध गाय का घी लेकर पूर्व दिशा की ओर मुंह करके हवन करें तथा यात्रा से पूर्व घी का पान करें एवं कन्याओं को दक्षिणा देकर सूर्य गायत्री का जप करते हुए यात्रा प्रारंभ करें-
‘ॐ आदित्याय विद्महे प्रभाकराय धीमहि तन्न: सूर्य: प्रचोदयात्।’

गुरुवार को दक्षिण दिशा में यात्रा करना सर्वथा वर्जित है, किंतु आवश्यक शुभ कार्य हेतु यात्रा करना जरूरी हो गया हो तो निम्न उपाय कर यात्रा की जा सकता है-


गुरुवार को यात्रा के पूर्व दक्षिण दिशा में पांच पके हुए नीबू सूर्योदय से पूर्व स्नान कर गीले कपड़े में लपेटकर फेंक दें, यात्रा से पूर्व दही का सेवन करें तथा शहद, शकर एवं नमक तीनों को समभाग में मिलाकर हवन करें और गुरुगायत्री का जप कर यात्रा प्रारंभ करें-
‘ॐ आंगिरसाय विद्महे दिव्यदेहाय धीमहि तन्नो जीव: प्रचोदयात्।’

बिल्वपत्र चढाने के 108 मन्त्र

बिल्वपत्र चढाने के 108 मन्त्र


आदित्यवर्णे तपसोऽधि जातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽक्ष बिल्वः।
तस्य फलानि तपसा नुदन्तु या अन्तरा याश्च बाह्या अलक्ष्मीः।।६।। (श्रीसूक्त, ऋग्वेद)

हे सूर्य के समान कान्ति वाली मां लक्ष्मी!  वृक्षों में श्रेष्ठ मंगलमय बिना फूल के फल देने वाला बिल्ववृक्ष तुम्हारे ही तप से उत्पन्न हुआ। उस बिल्व वृक्ष के फल हमारे बाहरी और भीतरी (मन व संसार के) दारिद्रय को दूर करें।

जब आप शिवपुराण पढ़ते हो तो आप पाओगे कि शिवपुराण के अनुसार बिल्वपत्र की जड़ में सभी तीर्थस्थान विद्यमान है. इसीलिए बिल्वपत्र की पूजा करने से अनेक देवता प्रसन्न होते है और आपको अनेक आशीर्वाद देते है. सोमवार के दिन सुबह सुबह बिल्वपत्र से शिव जी की उपासना करना सबसे ज्यादा अच्छा माना जाता है और ये शिव जी को प्रसन्न करने का सबसे अचूक उपाय भी माना जाता है. इस उपाय को करने से आपकी सांसारिक जीवन से जुडी सारी इच्छाएं पूरी होती है. 

ऐसा माना जाता है कि अगर आप बिल्ववृक्ष की जड़ को सींचते हो तो आपको सभी तीर्थ स्थानों का पुण्य फल मिल जाता है. अगर आप इन्हें शिवलिंग पर चढाते हो तो आपको धन लक्ष्मी की प्राप्ति प्राप्ति होती है.

बिल्वपत्र से अचूक उपाय :
बिल्वपत्र से किये गये सभी उपाय अचूक होते है और इनका प्रभाव भी शीघ्र ही दिखाई देता है.
·         अगर आप बिल्ववृक्ष के नीचे शिवलिंग को रख कर शिवजी की पूजा करते हो तो आपकी सभी मनोकामनाएं पूरी होती है.

·         साथ ही आप किसी शिव भक्त को बिल्ववृक्ष के पास घी सहित अन्न और खीर दान करें. ऐसा करने से आप कभी भी दरिद्र स्थिति में नही आते और आपका जीवन हमेशा धन से भरा रहता है. ऐसा इसलिए होता है क्योंकि बिल्ववृक्ष को श्री वृक्ष भी कहा जाता है मतलब इसमें देवी लक्ष्मी जी स्वयं वास करती है.

·         इस वृक्ष के पत्तो से पूजा करने से जातक को सभी तरह के पापो से मुक्ति मिलती है.

·         इसके अलावा बिल्ववृक्ष के पेड़ की जड़ को सिर पर लगाने से आपको सभी तीर्थ स्थानों की यात्रा का सुख मिल जाता है.

·         माना जाता है कि अगर कोई जातक धतूरे, गंध, फूल और बिल्व के पत्तो से बिल्ववृक्ष की पूजा करता है तो उस जातक को संतान की प्राप्ति और जीवन का हर सुख मिलता है.

बिल्वपत्र को तोड़ने का दिन :

बिल्वपत्र को आप कभी भी ऐसे ही न तोड़े, ये बहुत ही पवित्र माने जाते है इसीलिए इनको तोड़ने के लिए कुछ दिन निर्धारित किये गये है जो निम्नलिखित है –

-    आप शिव जी की उपासना के लिए सोमवार के दिन तो बिल्वपत्र को बिलकुल न तोड़े.
-    किसी भी महीने की चतुर्थी, अष्टमी, नवमी, चतुर्दशी और अमावस्या के दिन भी बिल्वपत्र को तोडना वर्जित है. 

-    आप किसी भी माह की संक्राति के दिन भी इसे न तोड़े, ऐसा करना उचित नही है. 

अगर आप ऊपर दिए वर्जित दिनों में ही शिव जी की पूजा कर रहे हो और पूजा के लिए आप बिल्वपत्र का इस्तेमाल करना चाहते हो तो आप इन दिनों पर पहले से इस्तेमाल में किये गये बिल्वपत्रो को जल से अच्छी तरह धो कर उन्हें ही दुबारा इस्तेमाल करे या फिर आप इन दिनों को छोड़ कर बचे हुए दिनों में बिल्वपत्र को तोड कर अपने पास रख लें और उन्हें पूजा के समय इस्तेमाल करें.

बिल्वपत्र का पूजा में महत्व :
बेल के पेड़ को एक उपयोगी वनस्पति के रूप में माना जाता है क्योकि ये आपको कष्टों को दूर करती है. अगर आप पूजा के समय इस पेड़ के पत्तो को भगवान शिव को अर्पित करते हो तो इसका अर्थ ये होता है कि आप दुःख के समय में किसी के साथ हो और उनके संकटो को दूर करने का प्रयास करते हो. भगवान शिव को दुसरो की मदद करने वाले या दुसरो के दुःख में काम आने वाले व्यक्ति बहुत ही प्रिय होते है.

बिल्वपत्र का औषधीय गुण :
बिल्वपत्र के पत्ते का सेवन करने से आपको वात ( वायु ), पित ( ताप ), शीत और पाचन क्रिया से समबन्धित दोषों से पैदा होने वाली बिमारियों से रक्षा मिलती है. बिल्वपत्र के पत्ते आपको त्वचा रोग या फिर डायबिटीज जैसी बिमारियों के प्रभाव से भी बचाती है. ये आपके तन और मन दोनों को चुस्त और दुरुस्त रखती है.

तो इन सब बातो से पता चलता है कि बिल्ववृक्ष और इनके पत्ते का कितना महत्व है और ये भगवान शिव से किस प्रकार से जुड़े है. तो आप भी अपने कष्टों को दूर करने के लिए इनका उपयोग करे और अपने जीवन को सुगम बनाएं.

बिल्वपत्र चढाने के 108 मन्त्र  

त्रिदलं त्रिगुणाकारं त्रिनेत्रं च त्रियायुधम् ।
त्रिजन्म पापसंहारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१॥
त्रिशाखैः बिल्वपत्रैश्च अच्छिद्रैः कोमलैः शुभैः ।
तव पूजां करिष्यामि एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२॥
सर्वत्रैलोक्यकर्तारं सर्वत्रैलोक्यपालनम् ।
सर्वत्रैलोक्यहर्तारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥३॥
नागाधिराजवलयं नागहारेण भूषितम् ।
नागकुण्डलसंयुक्तं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥४॥
अक्षमालाधरं रुद्रं पार्वतीप्रियवल्लभम् ।
चन्द्रशेखरमीशानं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥५॥
त्रिलोचनं दशभुजं दुर्गादेहार्धधारिणम् ।
विभूत्यभ्यर्चितं देवं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥६॥
त्रिशूलधारिणं देवं नागाभरणसुन्दरम् ।
चन्द्रशेखरमीशानं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥७॥
गङ्गाधराम्बिकानाथं फणिकुण्डलमण्डितम् ।
कालकालं गिरीशं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥८॥
शुद्धस्फटिक सङ्काशं शितिकण्ठं कृपानिधिम् ।
सर्वेश्वरं सदाशान्तं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥९॥
सच्चिदानन्दरूपं च परानन्दमयं शिवम् ।
वागीश्वरं चिदाकाशं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१०॥
शिपिविष्टं सहस्राक्षं कैलासाचलवासिनम् ।
हिरण्यबाहुं सेनान्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥११॥
अरुणं वामनं तारं वास्तव्यं चैव वास्तवम् ।
ज्येष्टं कनिष्ठं गौरीशं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१२॥
हरिकेशं सनन्दीशं उच्चैर्घोषं सनातनम् ।
अघोररूपकं कुम्भं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१३॥
पूर्वजावरजं याम्यं सूक्ष्मं तस्करनायकम् ।
नीलकण्ठं जघन्यं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१४॥
सुराश्रयं विषहरं वर्मिणं च वरूधिनम् I
महासेनं महावीरं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१५॥
कुमारं कुशलं कूप्यं वदान्यञ्च महारथम् ।
तौर्यातौर्यं च देव्यं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१६॥
दशकर्णं ललाटाक्षं पञ्चवक्त्रं सदाशिवम् ।
अशेषपापसंहारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१७॥
नीलकण्ठं जगद्वन्द्यं दीननाथं महेश्वरम् ।
महापापसंहारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१८॥
चूडामणीकृतविभुं वलयीकृतवासुकिम् ।
कैलासवासिनं भीमं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१९॥
कर्पूरकुन्दधवलं नरकार्णवतारकम् ।
करुणामृतसिन्धुं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२०॥
महादेवं महात्मानं भुजङ्गाधिपकङ्कणम् ।
महापापहरं देवं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२१॥
भूतेशं खण्डपरशुं वामदेवं पिनाकिनम् ।
वामे शक्तिधरं श्रेष्ठं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२२॥
फालेक्षणं विरूपाक्षं श्रीकण्ठं भक्तवत्सलम् ।
नीललोहितखट्वाङ्गं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२३॥
कैलासवासिनं भीमं कठोरं त्रिपुरान्तकम् ।
वृषाङ्कं वृषभारूढं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२४॥
सामप्रियं सर्वमयं भस्मोद्धूलितविग्रहम् ।
मृत्युञ्जयं लोकनाथं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२५॥
दारिद्र्यदुःखहरणं रविचन्द्रानलेक्षणम् ।
मृगपाणिं चन्द्रमौळिं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२६॥
सर्वलोकभयाकारं सर्वलोकैकसाक्षिणम् ।
निर्मलं निर्गुणाकारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२७॥
सर्वतत्त्वात्मकं साम्बं सर्वतत्त्वविदूरकम् ।
सर्वतत्त्वस्वरूपं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२८॥
सर्वलोकगुरुं स्थाणुं सर्वलोकवरप्रदम् ।
सर्वलोकैकनेत्रं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II२९॥
मन्मथोद्धरणं शैवं भवभर्गं परात्मकम् ।
कमलाप्रियपूज्यं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥३०॥
तेजोमयं महाभीमं उमेशं भस्मलेपनम् ।
भवरोगविनाशं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II३१॥
स्वर्गापवर्गफलदं रघुनाथवरप्रदम् ।
नगराजसुताकान्तं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥३२॥
मञ्जीरपादयुगलं शुभलक्षणलक्षितम् ।
फणिराजविराजं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥३३॥
निरामयं निराधारं निस्सङ्गं निष्प्रपञ्चकम् ।
तेजोरूपं महारौद्रं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II३४॥
सर्वलोकैकपितरं सर्वलोकैकमातरम् ।
सर्वलोकैकनाथं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥३५॥
चित्राम्बरं निराभासं वृषभेश्वरवाहनम् ।
नीलग्रीवं चतुर्वक्त्रं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥३६॥
रत्नकञ्चुकरत्नेशं रत्नकुण्डलमण्डितम् ।
नवरत्नकिरीटं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II३७॥
दिव्यरत्नाङ्गुलीस्वर्णं कण्ठाभरणभूषितम् ।
नानारत्नमणिमयं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II३८॥
रत्नाङ्गुलीयविलसत्करशाखानखप्रभम् ।
भक्तमानसगेहं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II३९॥
वामाङ्गभागविलसदम्बिकावीक्षणप्रियम् ।
पुण्डरीकनिभाक्षं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥४०॥
सम्पूर्णकामदं सौख्यं भक्तेष्टफलकारणम् ।
सौभाग्यदं हितकरं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥४१॥
नानाशास्त्रगुणोपेतं स्फुरन्मङ्गल विग्रहम् ।
विद्याविभेदरहितं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II४२॥
अप्रमेयगुणाधारं वेदकृद्रूपविग्रहम् ।
धर्माधर्मप्रवृत्तं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II४३॥
गौरीविलाससदनं जीवजीवपितामहम् ।
कल्पान्तभैरवं शुभ्रं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥४४॥
सुखदं सुखनाशं च दुःखदं दुःखनाशनम् ।
दुःखावतारं भद्रं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥४५॥
सुखरूपं रूपनाशं सर्वधर्मफलप्रदम् ।
अतीन्द्रियं महामायं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥४६॥
सर्वपक्षिमृगाकारं सर्वपक्षिमृगाधिपम् ।
सर्वपक्षिमृगाधारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II४७॥
जीवाध्यक्षं जीववन्द्यं जीवजीवनरक्षकम् ।
जीवकृज्जीवहरणं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥४८॥
विश्वात्मानं विश्ववन्द्यं वज्रात्मावज्रहस्तकम् ।
वज्रेशं वज्रभूषं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II४९॥
गणाधिपं गणाध्यक्षं प्रलयानलनाशकम् ।
जितेन्द्रियं वीरभद्रं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥५०॥
त्र्यम्बकं मृडं शूरं अरिषड्वर्गनाशनम् ।
दिगम्बरं क्षोभनाशं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥५१॥
कुन्देन्दुशङ्खधवलं भगनेत्रभिदुज्ज्वलम् ।
कालाग्निरुद्रं सर्वज्ञं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥५२॥
कम्बुग्रीवं कम्बुकण्ठं धैर्यदं धैर्यवर्धकम् ।
शार्दूलचर्मवसनं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II५३॥
जगदुत्पत्तिहेतुं च जगत्प्रलयकारणम् ।
पूर्णानन्दस्वरूपं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥५४॥
सर्गकेशं महत्तेजं पुण्यश्रवणकीर्तनम् ।
ब्रह्माण्डनायकं तारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥५५॥
मन्दारमूलनिलयं मन्दारकुसुमप्रियम् ।
बृन्दारकप्रियतरं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II५६॥
महेन्द्रियं महाबाहुं विश्वासपरिपूरकम् ।
सुलभासुलभं लभ्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ ५७॥
बीजाधारं बीजरूपं निर्बीजं बीजवृद्धिदम् ।
परेशं बीजनाशं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II५८॥
युगाकारं युगाधीशं युगकृद्युगनाशनम् ।
परेशं बीजनाशं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II५९॥
धूर्जटिं पिङ्गलजटं जटामण्डलमण्डितम् ।
कर्पूरगौरं गौरीशं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II६०॥
सुरावासं जनावासं योगीशं योगिपुङ्गवम् ।
योगदं योगिनां सिंहं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥६१॥
उत्तमानुत्तमं तत्त्वं अन्धकासुरसूदनम् ।
भक्तकल्पद्रुमस्तोमं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥६२॥
विचित्रमाल्यवसनं दिव्यचन्दनचर्चितम् ।
विष्णुब्रह्मादि वन्द्यं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥६३॥
कुमारं पितरं देवं श्रितचन्द्रकलानिधिम् ।
ब्रह्मशत्रुं जगन्मित्रं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥६४॥
लावण्यमधुराकारं करुणारसवारधिम् ।
भ्रुवोर्मध्ये सहस्रार्चिं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥६५॥
जटाधरं पावकाक्षं वृक्षेशं भूमिनायकम् ।
कामदं सर्वदागम्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II६६॥
शिवं शान्तं उमानाथं महाध्यानपरायणम् ।
ज्ञानप्रदं कृत्तिवासं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥६७॥
वासुक्युरगहारं च लोकानुग्रहकारणम् ।
ज्ञानप्रदं कृत्तिवासं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥६८॥
शशाङ्कधारिणं भर्गं सर्वलोकैकशङ्करम् I
शुद्धं च शाश्वतं नित्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥६९॥
शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणम् ।
गम्भीरं च वषट्कारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥७०॥
भोक्तारं भोजनं भोज्यं जेतारं जितमानसम् I
करणं कारणं जिष्णुं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥७१॥
क्षेत्रज्ञं क्षेत्रपालञ्च परार्धैकप्रयोजनम् ।
व्योमकेशं भीमवेषं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥७२॥
भवज्ञं तरुणोपेतं चोरिष्टं यमनाशनम् ।
हिरण्यगर्भं हेमाङ्गं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥७३॥
दक्षं चामुण्डजनकं मोक्षदं मोक्षनायकम् ।
हिरण्यदं हेमरूपं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II७४॥
महाश्मशाननिलयं प्रच्छन्नस्फटिकप्रभम् ।
वेदास्यं वेदरूपं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II७५॥
स्थिरं धर्मं उमानाथं ब्रह्मण्यं चाश्रयं विभुम् I
जगन्निवासं प्रथममेकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II७६॥
रुद्राक्षमालाभरणं रुद्राक्षप्रियवत्सलम् ।
रुद्राक्षभक्तसंस्तोममेकबिल्वं शिवार्पणम् ॥७७॥
फणीन्द्रविलसत्कण्ठं भुजङ्गाभरणप्रियम् I
दक्षाध्वरविनाशं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥७८॥
नागेन्द्रविलसत्कर्णं महीन्द्रवलयावृतम् ।
मुनिवन्द्यं मुनिश्रेष्ठमेकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II७९॥
मृगेन्द्रचर्मवसनं मुनीनामेकजीवनम् ।
सर्वदेवादिपूज्यं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II८०॥
निधनेशं धनाधीशं अपमृत्युविनाशनम् ।
लिङ्गमूर्तिमलिङ्गात्मं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥८१॥
भक्तकल्याणदं व्यस्तं वेदवेदान्तसंस्तुतम् ।
कल्पकृत्कल्पनाशं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥८२॥
घोरपातकदावाग्निं जन्मकर्मविवर्जितम् ।
कपालमालाभरणं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥८३॥
मातङ्गचर्मवसनं विराड्रूपविदारकम् ।
विष्णुक्रान्तमनन्तं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥८४॥
यज्ञकर्मफलाध्यक्षं यज्ञविघ्नविनाशकम् ।
यज्ञेशं यज्ञभोक्तारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II८५॥
कालाधीशं त्रिकालज्ञं दुष्टनिग्रहकारकम् ।
योगिमानसपूज्यं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥८६॥
महोन्नतमहाकायं महोदरमहाभुजम् ।
महावक्त्रं महावृद्धं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥८७॥
सुनेत्रं सुललाटं च सर्वभीमपराक्रमम् ।
महेश्वरं शिवतरं एकबिल्वं शिवार्पणम् II८८॥
समस्तजगदाधारं समस्तगुणसागरम् ।
सत्यं सत्यगुणोपेतं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ ८९॥
माघकृष्णचतुर्दश्यां पूजार्थं च जगद्गुरोः ।
दुर्लभं सर्वदेवानां एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥९०॥
तत्रापि दुर्लभं मन्येत् नभोमासेन्दुवासरे ।
प्रदोषकाले पूजायां एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥९१॥
तटाकं धननिक्षेपं ब्रह्मस्थाप्यं शिवालयम्
कोटिकन्यामहादानं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥९२॥
दर्शनं बिल्ववृक्षस्य स्पर्शनं पापनाशनम् ।
अघोरपापसंहारं एकबिल्वं शिवार्पणम् II९३॥
तुलसीबिल्वनिर्गुण्डी जम्बीरामलकं तथा ।
पञ्चबिल्वमिति ख्यातं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥९४॥
अखण्डबिल्वपत्रैश्च पूजयेन्नन्दिकेश्वरम् ।
मुच्यते सर्वपापेभ्यः एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥९५॥
सालङ्कृता शतावृत्ता कन्याकोटिसहस्रकम् ।
साम्राज्यपृथ्वीदानं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥९६॥
दन्त्यश्वकोटिदानानि अश्वमेधसहस्रकम् ।
सवत्सधेनुदानानि एकबिल्वं शिवार्पणम् II९७॥
चतुर्वेदसहस्राणि भारतादिपुराणकम् ।
साम्राज्यपृथ्वीदानं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥९८॥
सर्वरत्नमयं मेरुं काञ्चनं दिव्यवस्त्रकम् ।
तुलाभागं शतावर्तं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥९९॥
अष्टोत्तरश्शतं बिल्वं योऽर्चयेल्लिङ्गमस्तके ।
अधर्वोक्तं अधेभ्यस्तु एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१००॥
काशीक्षेत्रनिवासं च कालभैरवदर्शनम् ।
अघोरपापसंहारं एकबिल्वं शिवार्पणम् II१०१॥
अष्टोत्तरशतश्लोकैः स्तोत्राद्यैः पूजयेद्यथा ।
त्रिसन्ध्यं मोक्षमाप्नोति एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१०२॥
दन्तिकोटिसहस्राणां भूः हिरण्यसहस्रकम्
सर्वक्रतुमयं पुण्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् II१०३॥
पुत्रपौत्रादिकं भोगं भुक्त्वा चात्र यथेप्सितम् ।
अन्ते च शिवसायुज्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१०४॥
विप्रकोटिसहस्राणां वित्तदानाच्च यत्फलम् ।
तत्फलं प्राप्नुयात्सत्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१०५॥
त्वन्नामकीर्तनं तत्त्वं तवपादाम्बु यः पिबेत्
जीवन्मुक्तोभवेन्नित्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१०६॥
अनेकदानफलदं अनन्तसुकृतादिकम् ।
तीर्थयात्राखिलं पुण्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१०७॥
त्वं मां पालय सर्वत्र पदध्यानकृतं तव ।
भवनं शाङ्करं नित्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१०८॥

तुलसी का यह विशेष मंत्र हर बीमारी को दूर करेगा

तुलसी का यह विशेष मंत्र हर बीमारी को दूर करेगा

धार्मिक पौराणिक ग्रंथों में तुलसी का बहुत महत्व माना गया है। तुलसी का पौधा जिसे शास्त्रों में पूजनीय, पवित्र और देवी स्वरूप माना गया है। प्राचीन काल से ही माना जाता रहा है कि प्रत्येक घर में तुलसी का एक पौधा जरूर होना चाहिए क्योंकि तुलसी की पूजा करने से सभी देवी-देवताओं का आशीर्वाद मिलता है।

तुलसी पत्र से पूजा करने से व्रत, यज्ञ, जप, होम, हवन करने का पुण्य प्राप्त होता है। घर में हरा-भरा तुलसी का पौधा परिवार की पवित्रता और समृद्धि का प्रतीक है। तुलसी पौधे को जल चढ़ाते हुए यह विशेष मंत्र बोला जाए तो समृद्धि का वरदान 100 गुना बढ़ जाता है। रोग, शोक, बीमारी-व्याधि आदि से छुटकारा मिलता है।


मंत्र :
महाप्रसाद जननी, सर्व सौभाग्यवर्धिनी
आधि व्याधि हरा नित्यं, तुलसी त्वं नमोस्तुते।।

Sunday, July 16, 2017

चौसठ योगिनियो के नाम और मंत्र

चौसठ योगिनियो के नाम और मंत्र 

चौंसठ योगिनी मंत्र :-
१. ॐ काली नित्य सिद्धमाता स्वाहा, 
२. ॐ कपलिनी नागलक्ष्मी स्वाहा
३. ॐ कुला देवी स्वर्णदेहा स्वाहा, 
४. ॐ कुरुकुल्ला रसनाथा स्वाहा
५. ॐ विरोधिनी विलासिनी स्वाहा, 
६. ॐ विप्रचित्ता रक्तप्रिया स्वाहा
७. ॐ उग्र रक्त भोग रूपा स्वाहा, 
८. ॐ उग्रप्रभा शुक्रनाथा स्वाहा
९. ॐ दीपा मुक्तिः रक्ता देहा स्वाहा, 
१०. ॐ नीला भुक्ति रक्त स्पर्शा स्वाहा
११. ॐ घना महा जगदम्बा स्वाहा, 
१२. ॐ बलाका काम सेविता स्वाहा
१३. ॐ मातृ देवी आत्मविद्या स्वाहा, 
१४. ॐ मुद्रा पूर्णा रजतकृपा स्वाहा
१५. ॐ मिता तंत्र कौला दीक्षा स्वाहा, 
१६. ॐ महाकाली सिद्धेश्वरी स्वाहा
१७. ॐ कामेश्वरी सर्वशक्ति स्वाहा, 
१८. ॐ भगमालिनी तारिणी स्वाहा
१९. ॐ नित्यकलींना तंत्रार्पिता स्वाहा, 
२०. ॐ भेरुण्ड तत्त्व उत्तमा स्वाहा
२१. ॐ वह्निवासिनी शासिनि स्वाहा, 
२२. ॐ महवज्रेश्वरी रक्त देवी स्वाहा
२३. ॐ शिवदूती आदि शक्ति स्वाहा, 
२४. ॐ त्वरिता ऊर्ध्वरेतादा स्वाहा
२५. ॐ कुलसुंदरी कामिनी स्वाहा, 
२६. ॐ नीलपताका सिद्धिदा स्वाहा
२७. ॐ नित्य जनन स्वरूपिणी स्वाहा, 
२८. ॐ विजया देवी वसुदा स्वाहा
२९. ॐ सर्वमङ्गला तन्त्रदा स्वाहा, 
३०. ॐ ज्वालामालिनी नागिनी स्वाहा
३१. ॐ चित्रा देवी रक्तपुजा स्वाहा, 
३२. ॐ ललिता कन्या शुक्रदा स्वाहा
३३. ॐ डाकिनी मदसालिनी स्वाहा, 
३४. ॐ राकिनी पापराशिनी स्वाहा
३५. ॐ लाकिनी सर्वतन्त्रेसी स्वाहा, 
३६. ॐ काकिनी नागनार्तिकी स्वाहा
३७. ॐ शाकिनी मित्ररूपिणी स्वाहा, 
३८. ॐ हाकिनी मनोहारिणी स्वाहा
३९. ॐ तारा योग रक्ता पूर्णा स्वाहा, 
४०. ॐ षोडशी लतिका देवी स्वाहा
४१. ॐ भुवनेश्वरी मंत्रिणी स्वाहा, 
४२. ॐ छिन्नमस्ता योनिवेगा स्वाहा
४३. ॐ भैरवी सत्य सुकरिणी स्वाहा, 
४४. ॐ धूमावती कुण्डलिनी स्वाहा
४५. ॐ बगलामुखी गुरु मूर्ति स्वाहा, 
४६. ॐ मातंगी कांटा युवती स्वाहा
४७. ॐ कमला शुक्ल संस्थिता स्वाहा, 
४८. ॐ प्रकृति ब्रह्मेन्द्री देवी स्वाहा
४९. ॐ गायत्री नित्यचित्रिणी स्वाहा, 
५०. ॐ मोहिनी माता योगिनी स्वाहा
५१. ॐ सरस्वती स्वर्गदेवी स्वाहा, 
५२. ॐ अन्नपूर्णी शिवसंगी स्वाहा
५३. ॐ नारसिंही वामदेवी स्वाहा, 
५४. ॐ गंगा योनि स्वरूपिणी स्वाहा
५५. ॐ अपराजिता समाप्तिदा स्वाहा, 
५६. ॐ चामुंडा परि अंगनाथा स्वाहा
५७. ॐ वाराही सत्येकाकिनी स्वाहा, 
५८. ॐ कौमारी क्रिया शक्तिनि स्वाहा
५९. ॐ इन्द्राणी मुक्ति नियन्त्रिणी स्वाहा, 
६०. ॐ ब्रह्माणी आनन्दा मूर्ती स्वाहा
६१. ॐ वैष्णवी सत्य रूपिणी स्वाहा, 
६२. ॐ माहेश्वरी पराशक्ति स्वाहा
६३. ॐ लक्ष्मी मनोरमायोनि स्वाहा, 
६४. ॐ दुर्गा सच्चिदानंद स्वाहा

विशिष्ट मनोकामना हेतु देव पूजन में दीपक विधान

विशिष्ट मनोकामना हेतु देव पूजन में दीपक विधान

1. आर्थिक लाभ के लिए नियम पूर्वक घर के मंदिर में शुद्ध घी का दीपक जलाना चाहिए।
2. शत्रु पीड़ा से राहत के लिए भैरवजी के सामने सरसों के तेल का दीपक जलाना चाहिये।
3.भगवान सूर्य की पूजा में घी का दीपक जलाना चाहिए।4.शनि के लिए सरसों के तेल का दीपक जलाना चाहिए।5.पति की दीर्घायु के लिए गिलोय के तेल का दीपक जलाना चाहिए।
6.राहु तथा केतु के लिए अलसी के तेल का दीपक जलाना चाहिए।
7.किसी भी देवी या देवता की पूजा में गाय का शुद्ध घी तथा एक फूल बत्ती या तिल के तेल का दीपक आवश्यक रूप से जलाना चाहिए।
8.भगवती जगदंबा व दुर्गा देवी की आराधना के समय एवं माता सरस्वती की आराधना के समय तथा शिक्षा-प्राप्ति के लिए दो मुखों वाला दीपक जलाना चाहिए।
9.भगवान गणेश की कृपा-प्राप्ति के लिए तीन बत्तियों वाला घी का दीपक जलाना चाहिए।
10.भैरव साधना के लिए सरसों के तेल का चैमुखी दीपक जलाना चाहिए।
11. मुकदमा जीतने के लिए पांच मुखी दीपक जलाना चाहिए।12.भगवान कार्तिकेय की प्रसन्नता के लिए गाय के शुद्ध घी या पीली सरसों के तेल का पांच मुखी दीपक जलाना चाहिए।13.भगवान शिव की प्रसन्नता के लिए आठ तथा बारह मुखी दीपक पीली सरसों के तेल का दीपक जलाना चाहिए।14.भगवान विष्णु की प्रसन्नता के लिए सोलह बत्तियों का दीपक जलाना चाहिए।
15.लक्ष्मी जी की प्रसन्नता केलिए घी का सात मुखी दीपक जलाना चाहिए।
16.भगवान विष्णु की दशावतार आराधना के समय दस मुखी दीपक जलाना चाहिए।
17.इष्ट-सिद्धि तथा ज्ञान-प्राप्ति के लिए गहरा तथा गोल दीपक प्रयोग में लेना चाहिए।
18.शत्रुनाश तथा आपत्ति निवारण के लिए मध्य में से ऊपर उठा हुआ दीपक प्रयोग में लेना चाहिए।
19.लक्ष्मी-प्राप्ति के लिए दीपक सामान्य गहरा होना चाहिए।20.हनुमानजी की प्रसन्नता के लिए तिकोने दीपक का प्रयोग करना चाहिए और उसमें चमेली के तेल का प्रयोग करना चाहिए। (भविष्य पुराण से)

श्री हनुमान चालीसा अर्थ सहित

श्री हनुमान चालीसा अर्थ सहित

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श्री गुरु चरण सरोज रज, निज मन मुकुरु सुधारि।
बरनऊँ रघुवर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि।
📯《अर्थ》→ गुरु महाराज के चरण.कमलों की धूलि से अपने मन रुपी दर्पण को पवित्र करके श्री रघुवीर के निर्मल यश का वर्णन करता हूँ, जो चारों फल धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को देने वाला हे।★
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बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरो पवन कुमार।
बल बुद्धि विद्या देहु मोहिं, हरहु कलेश विकार।★
📯《अर्थ》→ हे पवन कुमार! मैं आपको सुमिरन.करता हूँ। आप तो जानते ही हैं, कि मेरा शरीर और बुद्धि निर्बल है। मुझे शारीरिक बल, सदबुद्धि एवं ज्ञान दीजिए और मेरे दुःखों व दोषों का नाश कर दीजिए।★
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जय हनुमान ज्ञान गुण सागर, जय कपीस तिहुँ लोक उजागर॥1॥★
📯《अर्थ 》→ श्री हनुमान जी! आपकी जय हो। आपका ज्ञान और गुण अथाह है। हे कपीश्वर! आपकी जय हो! तीनों लोकों,स्वर्ग लोक, भूलोक और पाताल लोक में आपकी कीर्ति है।★
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राम दूत अतुलित बलधामा, अंजनी पुत्र पवन सुत नामा॥2॥★
📯《अर्थ》→ हे पवनसुत अंजनी नंदन! आपके समान दूसरा बलवान नही है।★
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महावीर विक्रम बजरंगी, कुमति निवार सुमति के संगी॥3॥★
📯《अर्थ》→ हे महावीर बजरंग बली! आप विशेष पराक्रम वाले है। आप खराब बुद्धि को दूर करते है, और अच्छी बुद्धि वालो के साथी, सहायक है।★
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कंचन बरन बिराज सुबेसा, कानन कुण्डल कुंचित केसा॥4॥★
📯《अर्थ》→ आप सुनहले रंग, सुन्दर वस्त्रों, कानों में कुण्डल और घुंघराले बालों से सुशोभित हैं।★
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हाथ ब्रज और ध्वजा विराजे, काँधे मूँज जनेऊ साजै॥5॥★
📯《अर्थ》→ आपके हाथ मे बज्र और ध्वजा है और कन्धे पर मूंज के जनेऊ की शोभा है।★
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शंकर सुवन केसरी नंदन, तेज प्रताप महा जग वंदन॥6॥★
📯《अर्थ 》→ हे शंकर के अवतार! हे केसरी नंदन! आपके पराक्रम और महान यश की संसार भर मे वन्दना होती है।★
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विद्यावान गुणी अति चातुर, राम काज करिबे को आतुर॥7॥★
📯《अर्थ 》→ आप प्रकान्ड विद्या निधान है, गुणवान और अत्यन्त कार्य कुशल होकर श्री राम काज करने के लिए आतुर रहते है।★
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प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया, राम लखन सीता मन बसिया॥8॥★
📯《अर्थ 》→ आप श्री राम चरित सुनने मे आनन्द रस लेते है। श्री राम, सीता और लखन आपके हृदय मे बसे रहते है।★
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सूक्ष्म रुप धरि सियहिं दिखावा, बिकट रुप धरि लंक जरावा॥9॥★
📯《अर्थ》→ आपने अपना बहुत छोटा रुप धारण करके सीता जी को दिखलाया और भयंकर रूप करके.लंका को जलाया।★
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भीम रुप धरि असुर संहारे, रामचन्द्र के काज संवारे॥10॥★
📯《अर्थ 》→ आपने विकराल रुप धारण करके.राक्षसों को मारा और श्री रामचन्द्र जी के उदेश्यों को सफल कराया।★
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लाय सजीवन लखन जियाये, श्री रघुवीर हरषि उर लाये॥11॥★
📯《अर्थ 》→ आपने संजीवनी बुटी लाकर लक्ष्मणजी को जिलाया जिससे श्री रघुवीर ने हर्षित होकर आपको हृदय से लगा लिया।★
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रघुपति कीन्हीं बहुत बड़ाई, तुम मम प्रिय भरत सम भाई॥12॥★
📯《अर्थ 》→ श्री रामचन्द्र ने आपकी बहुत प्रशंसा की और कहा की तुम मेरे भरत जैसे प्यारे भाई हो।★
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सहस बदन तुम्हरो जस गावैं, अस कहि श्री पति कंठ लगावैं॥13॥★
📯《अर्थ 》→ श्री राम ने आपको यह कहकर हृदय से.लगा लिया की तुम्हारा यश हजार मुख से सराहनीय है।★
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सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा, नारद,सारद सहित अहीसा॥14॥★
📯《अर्थ》→श्री सनक, श्री सनातन, श्री सनन्दन, श्री सनत्कुमार आदि मुनि ब्रह्मा आदि देवता नारद जी, सरस्वती जी, शेषनाग जी सब आपका गुण गान करते है।★
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जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते, कबि कोबिद कहि सके कहाँ ते॥15॥★
📯《अर्थ 》→ यमराज,कुबेर आदि सब दिशाओं के रक्षक, कवि विद्वान, पंडित या कोई भी आपके यश का पूर्णतः वर्णन नहीं कर सकते।★
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तुम उपकार सुग्रीवहि कीन्हा, राम मिलाय राजपद दीन्हा॥16॥★
📯《अर्थ 》→ आपनें सुग्रीव जी को श्रीराम से मिलाकर उपकार किया, जिसके कारण वे राजा बने।★
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तुम्हरो मंत्र विभीषण माना, लंकेस्वर भए सब जग जाना ॥17॥★
📯《अर्थ 》→ आपके उपदेश का विभिषण जी ने पालन किया जिससे वे लंका के राजा बने, इसको सब संसार जानता है।★
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जुग सहस्त्र जोजन पर भानू, लील्यो ताहि मधुर फल जानू॥18॥★
📯《अर्थ 》→ जो सूर्य इतने योजन दूरी पर है की उस पर पहुँचने के लिए हजार युग लगे। दो हजार योजन की दूरी पर स्थित सूर्य को आपने एक मीठा फल समझ कर निगल लिया।★
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प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहि, जलधि लांघि गये अचरज नाहीं॥19॥★
📯《अर्थ 》→ आपने श्री रामचन्द्र जी की अंगूठी मुँह मे रखकर समुद्र को लांघ लिया, इसमें कोई आश्चर्य नही है।★
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दुर्गम काज जगत के जेते, सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते॥20॥★
📯《अर्थ 》→ संसार मे जितने भी कठिन से कठिन काम हो, वो आपकी कृपा से सहज हो जाते है।★
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राम दुआरे तुम रखवारे, होत न आज्ञा बिनु पैसारे॥21॥★
📯《अर्थ 》→ श्री रामचन्द्र जी के द्वार के आप.रखवाले है, जिसमे आपकी आज्ञा बिना किसी को प्रवेश नही मिलता अर्थात आपकी प्रसन्नता के बिना राम कृपा दुर्लभ है।★
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सब सुख लहै तुम्हारी सरना, तुम रक्षक काहू.को डरना॥22॥★
📯《अर्थ 》→ जो भी आपकी शरण मे आते है, उस सभी को आन्नद प्राप्त होता है, और जब आप रक्षक. है, तो फिर किसी का डर नही रहता।★
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आपन तेज सम्हारो आपै, तीनों लोक हाँक ते काँपै॥23॥★
📯《अर्थ. 》→ आपके सिवाय आपके वेग को कोई नही रोक सकता, आपकी गर्जना से तीनों लोक काँप जाते है।★
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भूत पिशाच निकट नहिं आवै, महावीर जब नाम सुनावै॥24॥★
📯《अर्थ 》→ जहाँ महावीर हनुमान जी का नाम सुनाया जाता है, वहाँ भूत, पिशाच पास भी नही फटक सकते।★
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नासै रोग हरै सब पीरा, जपत निरंतर हनुमत बीरा॥25॥★
📯《अर्थ 》→ वीर हनुमान जी! आपका निरंतर जप करने से सब रोग चले जाते है,और सब पीड़ा मिट जाती है।★
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संकट तें हनुमान छुड़ावै, मन क्रम बचन ध्यान जो लावै॥26॥★
📯《अर्थ 》→ हे हनुमान जी! विचार करने मे, कर्म करने मे और बोलने मे, जिनका ध्यान आपमे रहता है, उनको सब संकटो से आप छुड़ाते है।★
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सब पर राम तपस्वी राजा, तिनके काज सकल तुम साजा॥ 27॥★
📯《अर्थ 》→ तपस्वी राजा श्री रामचन्द्र जी सबसे श्रेष्ठ है, उनके सब कार्यो को आपने सहज मे कर दिया।★
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और मनोरथ जो कोइ लावै, सोई अमित जीवन फल पावै॥28॥★
📯《अर्थ 》→ जिस पर आपकी कृपा हो, वह कोई भी अभिलाषा करे तो उसे ऐसा फल मिलता है जिसकी जीवन मे कोई सीमा नही होती।★
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चारों जुग परताप तुम्हारा, है परसिद्ध जगत उजियारा॥29॥★
📯《अर्थ 》→ चारो युगों सतयुग, त्रेता, द्वापर तथा कलियुग मे आपका यश फैला हुआ है, जगत मे आपकी कीर्ति सर्वत्र प्रकाशमान है।★
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साधु सन्त के तुम रखवारे, असुर निकंदन राम दुलारे॥30॥★
📯《अर्थ 》→ हे श्री राम के दुलारे ! आप.सज्जनों की रक्षा करते है और दुष्टों का नाश करते है।★
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अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता, अस बर दीन जानकी माता॥३१॥★
📯《अर्थ 》→ आपको माता श्री जानकी से ऐसा वरदान मिला हुआ है, जिससे आप किसी को भी आठों सिद्धियां और नौ निधियां दे सकते है।★
1.) अणिमा → जिससे साधक किसी को दिखाई नही पड़ता और कठिन से कठिन पदार्थ मे प्रवेश कर.जाता है।★
2.) महिमा → जिसमे योगी अपने को बहुत बड़ा बना देता है।★
3.) गरिमा → जिससे साधक अपने को चाहे जितना भारी बना लेता है।★
4.) लघिमा → जिससे जितना चाहे उतना हल्का बन जाता है।★
5.) प्राप्ति → जिससे इच्छित पदार्थ की प्राप्ति होती है।★
6.) प्राकाम्य → जिससे इच्छा करने पर वह पृथ्वी मे समा सकता है, आकाश मे उड़ सकता है।★
7.) ईशित्व → जिससे सब पर शासन का सामर्थय हो जाता है।★
8.)वशित्व → जिससे दूसरो को वश मे किया जाता है।★
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राम रसायन तुम्हरे पासा, सदा रहो रघुपति के दासा॥32॥★
📯《अर्थ 》→ आप निरंतर श्री रघुनाथ जी की शरण मे रहते है, जिससे आपके पास बुढ़ापा और असाध्य रोगों के नाश के लिए राम नाम औषधि है।★
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तुम्हरे भजन राम को पावै, जनम जनम के दुख बिसरावै॥33॥★
📯《अर्थ 》→ आपका भजन करने से श्री राम.जी प्राप्त होते है, और जन्म जन्मांतर के दुःख दूर होते है।★
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अन्त काल रघुबर पुर जाई, जहाँ जन्म हरि भक्त कहाई॥34॥★
📯《अर्थ 》→ अंत समय श्री रघुनाथ जी के धाम को जाते है और यदि फिर भी जन्म लेंगे तो भक्ति करेंगे और श्री राम भक्त कहलायेंगे।★
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और देवता चित न धरई, हनुमत सेई सर्व सुख करई॥35॥★
📯《अर्थ 》→ हे हनुमान जी! आपकी सेवा करने से सब प्रकार के सुख मिलते है, फिर अन्य किसी देवता की आवश्यकता नही रहती।★
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संकट कटै मिटै सब पीरा, जो सुमिरै हनुमत बलबीरा॥36॥★
📯《अर्थ 》→ हे वीर हनुमान जी! जो आपका सुमिरन करता रहता है, उसके सब संकट कट जाते है और सब पीड़ा मिट जाती है।★
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जय जय जय हनुमान गोसाईं, कृपा करहु गुरु देव की नाई॥37॥★
📯《अर्थ 》→ हे स्वामी हनुमान जी! आपकी जय हो, जय हो, जय हो! आप मुझपर कृपालु श्री गुरु जी के समान कृपा कीजिए।★
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जो सत बार पाठ कर कोई, छुटहि बँदि महा सुख होई॥38॥★
📯《अर्थ 》→ जो कोई इस हनुमान चालीसा का सौ बार पाठ करेगा वह सब बन्धनों से छुट जायेगा और उसे परमानन्द मिलेगा।★
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जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा, होय सिद्धि साखी गौरीसा॥39॥★
📯《अर्थ 》→ भगवान शंकर ने यह हनुमान चालीसा लिखवाया, इसलिए वे साक्षी है कि जो इसे पढ़ेगा उसे निश्चय ही सफलता प्राप्त होगी।★
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तुलसीदास सदा हरि चेरा, कीजै नाथ हृदय मँह डेरा॥40॥★
📯《अर्थ 》→ हे नाथ हनुमान जी! तुलसीदास सदा ही श्री राम का दास है।इसलिए आप उसके हृदय मे निवास कीजिए।★
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पवन तनय संकट हरन, मंगल मूरति रुप।
राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप॥★
📯《अर्थ 》→ हे संकट मोचन पवन कुमार! आप आनन्द मंगलो के स्वरुप है। हे देवराज! आप श्री राम, सीता जी और लक्ष्मण सहित मेरे हृदय मे निवास कीजिए।★
🌹सीता राम दुत हनुमान जी को समर्पित🌹

विशेष सुचना

( जो भी मंत्र तंत्र टोटका इत्यादि ब्लॉग में दिए गए है वे केवल सूचनार्थ ही है, अगर साधना करनी है तो वो पूर्ण जानकार गुरु के निर्देशन में ही करने से लाभदायक होंगे, किसी भी नुक्सान हानि के लिए प्रकाशक व लेखक जिम्मेदार नहीं होगा। )