PURUSH SUKTAM WITH HINDI TRANSLATION पुरुष सूक्त हिंदी अनुवाद सहित
चातुर्मास में जो भगवन विष्णु के समक्ष पुरुष सूक्त का पाठ करता है उसकी बुद्धि बढ़ेगी | कैसा भी दबू विद्यार्थी हो बुद्धिमान बनेगा |
ॐ श्री गुरुभ्यो नमः
हरी ॐ
सहस्त्रशीर्षा पुरुष:सहस्राक्ष:सहस्रपात् |
स भूमि सर्वत: स्पृत्वाSत्यतिष्ठद्द्शाङ्गुलम् ||१||
जो सहस्रों सिरवाले, सहस्रों नेत्रवाले और सहस्रों चरणवाले विराट पुरुष हैं, वे सारे ब्रह्मांड को आवृत करके भी दस अंगुल शेष रहते हैं ||१||
पुरुषSएवेदं सर्व यद्भूतं यच्च भाव्यम् |
उतामृतत्यस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ||२||
जो सृष्टि बन चुकी, जो बननेवाली है, यह सब विराट पुरुष ही हैं | इस अमर जीव-जगत के भी वे ही स्वामी हैं और जो अन्न द्वारा वृद्धि प्राप्त करते हैं, उनके भी वे ही स्वामी हैं ||२||
एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः |
पादोSस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यावि ||३मृतं दि||
विराट पुरुष की महत्ता अति विस्तृत है | ç
1;स श्रेष्ठ पुरुष के एक चरण में सभी प्राणी हैं और तीन भाग अनंत अंतरिक्ष में स्थित हैं ||३||
त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुष:पादोSस्येहाभवत्पुनः |
ततो विष्वङ् व्यक्रामत्साशनानशनेSअभि ||४||
चार भागोंवाले विराट पुरुष के एक भाग में यह सारा संसार, जड़ और चेतन विविध रूपों में समाहित है | इसके तीन भाग अनंत अंतरिक्षमें समाये हुए हैं ||४||
ततो विराडजायत विराजोSअधि पूरुषः |
स जातोSअत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुर: ||५||
उस विराट पुरुष से यह ब्रह्मांड उत्पन्न हुआ | उस विराट से समष्टि जीव उत्पन्न हुए | वही देहधारी रूप में सबसे श्रेष्ठ हुआ, जिसने सबसे पहले पृथ्वी को, फिर शरीरधारियों को उत्पन्न किया ||५||
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत: सम्भृतं पृषदाज्यम् |
पशूंस्न्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये ||६||
उस सर्वश्रेष्ठ विराट प्रकृति यज्ञ से दधियुक्त घृत प्राप्त हुआ(जिससे विराट पुरुष की पूजा होती है) | वायुदेव से संबंधित पशु हरिण, गौ, अश्वादि की उत्पत्ति उस विराट पुरुष के द्वारा ही हुई ||६||
तस्माद्यज्ञात् सर्वहुतSऋचः सामानि जज्ञिरे |
छन्दाँसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत ||७||
उस विराट यज्ञ पुरुष से ऋग्वेद एवं सामवेद का प्रकटीकरण हुआ | उसी से यजुर्वेद एवं अथर्ववेद का प्रादुर्भाव हुआ अर्थात् वेद की ऋचाओं का प्रकटीकरण हुआ ||७||
तस्मादश्वाSअजायन्त ये के चोभयादतः |
गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाताSअजावयः ||८||
उस विराट यज्ञ पुरुष से दोनों तरफ दाँतवाले घोड़े हुए और उसी विराट पुरुष से गौए, बकरिया और भेड़s आदि पशु भी उत्पन्न हुए ||८||
तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पूरुषं जातमग्रत:|
तेन देवाSअयजन्त साध्याSऋषयश्च ये ||९||
मंत्रद्रष्टा ऋषियों एवं योगाभ्यासियों ने सर्वप्रथम प्रकट हुए पूजनीय विराट पुरुष को यज्ञ (सृष्टि के पूर्व विद्यमान महान ब्रह्मांड रूपयज्ञ अर्थात् सृष्टि यज्ञ) में अभिषिक्त करके उसी यज्ञरूप परम पुरुष से ही यज्ञ (आत्मयज्ञ ) का प्रादुर्भाव किया ||९||
यत्पुरुषं व्यदधु: कतिधा व्यकल्पयन् |
मुखं किमस्यासीत् किं बाहू किमूरू पादाSउच्येते ||१०||
संकल्प द्वारा प्रकट हुए जिस विराट पुरुष का, ज्ञानीजन विविध प्रकार से वर्णन करते हैं, वे उसकी कितने प्रकार से कल्पना करते हैं ? उसका मुख क्या है ? भुजा, जाघें और पाँव कौन-से हैं ? शरीर-संरचना में वह पुरुष किस प्रकार पूर्ण बना ? ||१०||
ब्राह्मणोSस्य मुखमासीद् बाहू राजन्य: कृत: |
ऊरू तदस्य यद्वैश्य: पद्भ्या शूद्रोSअजायत ||११||
विराट पुरुष का मुख ब्राह्मण अर्थात् ज्ञानी (विवेकवान) जन हुए | क्षत्रिय अर्थात पराक्रमी व्यक्ति, उसके शरीर में विद्यमान बाहुओं के समान हैं | वैश्य अर्थात् पोषणशक्ति-सम्पन्न व्यक्ति उसके जंघा एवं सेवाधर्मी व्यक्ति उसके पैर हुए ||११||
चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षो: सूर्यो अजायत |
श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत ||१२||
विराट पुरुष परमात्मा के मन से चन्द्रमा, नेत्रों से सूर्य, कर्ण से वायु एवं प्राण तथा मुख से अग्नि का प्रकटीकरण हुआ ||१२||
नाभ्याSआसीदन्तरिक्ष शीर्ष्णो द्यौः समवर्त्तत |
पद्भ्यां भूमिर्दिश: श्रोत्रात्तथा लोकांर्Sअकल्पयन् ||१३||
विराट पुरुष की नाभि से अंतरिक्ष, सिर से द्युलोक, पाँवों से भूमि तथा कानों से दिशाएँ प्रकट हुईं | इसी प्रकार (अनेकानेक) लोकों को कल्पित किया गया है (रचा गया है) ||१३||
यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत |
वसन्तोSस्यासीदाज्यं ग्रीष्मSइध्म: शरद्धवि: ||१४||
जब देवों ने विराट पुरुष रूप को हवि मानकर यज्ञ का शुभारम्भ किया, तब घृत वसंत ऋतु, ईंधन(समिधा) ग्रीष्म ऋतु एवं हवि शरद ऋतु हुई ||१४||
सप्तास्यासन् परिधयस्त्रि: सप्त: समिध: कृता:|
देवा यद्यज्ञं तन्वानाSअबध्नन् पुरुषं पशुम् ||१५||
देवों ने जिस यज्ञ का विस्तार किया, उसमें विराट पुरुष को ही पशु (हव्य) रूप की भावना से बाँधा (नियुक्त किया), उसमें यज्ञ की सात परिधियाँ (सात समुद्र) एवं इक्कीस (छंद) समिधाएँ हुईं ||१५||
यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् |
ते ह नाकं महिमान: सचन्त यत्र पूर्वे साध्या: सन्ति देवा: ||१६||
आदिश्रेष्ठ धर्मपरायण देवों ने, यज्ञ से यज्ञरूप विराट सत्ता का यजन किया | यज्ञीय जीवन जीनेवाले धार्मिक महात्माजन पूर्वकाल के साध्य देवताओं के निवास, स्वर्गलोक को प्राप्त करते हैं ||१६||
चातुर्मास का अर्थ है चार महीने । आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक के चार मास का समय चातुर्मास कहलाता है । शास्त्रों में इस दौरान आने वाले सावन, भादौ, आश्विन और कार्तिक मास में खान-पान और व्रत के नियम और संयम बताए गए हैं । इनमें स्वेच्छा से नियमित उपयोग के पदार्थों का त्याग एवं ग्रहण करने का विधान है । जैसे मधुर स्वर के लिये गुड़, लंबी उम्र एवं संतान प्राप्ति के लिये तेल, शत्रु बाधा से मुक्ति के लिये कड़वा तेल, सौभाग्य के लिये मीठा तेल आदि का त्याग किया जाता है ।
धर्मग्रंथों के अनुसार आषाढ मास के शुक्लपक्ष की एकादशी की रात्रि से श्रीहरि चार मास के लिए योगनिद्रा में लीन हो जाते हैं । तत्पश्चात वे कार्तिक मास में शुक्लपक्ष की एकादशी के दिन जगते हैं, इन चार महीनों को चातुर्मास कहते हैं । चातुर्मास का सनातन धर्म में विशेष आध्यात्मिक महत्व माना गया है l विष्णुधर्मोत्तर पुराणमें लिखा गया है कि भगवान विष्णु वर्षाऋतु के चारों मास में लक्ष्मी जी की सेवा पाकर शेषनाग की शय्यापर शयन करते हैं ।
इसी प्रकार सुंदरता के लिए नियत मात्रा में पंचगव्य यानि गाय के दूध, दही आदि पांच पदार्थों से बने खाद्य का सेवन करना चाहिए । वंश वृद्धि के लिये नियमित दूध का सेवन, बुरे कर्म फल से मुक्ति के लिये एक समय भोजन या उपवास करने का व्रत लिया जाता है ।चातुर्मास में शास्त्रीय नियमों का पालन करने से अनगिनत पुण्य प्राप्त किए जाते हैं । इसके अतिरिक्त विभिन्न नियमों के पालन से विशिष्ट फल भी मिलते हैं, जो मनुष्य केवल शाकाहार करके चातुर्मास व्यतीत करता है वह धनी हो जाता है । जो श्रद्धालु प्रतिदिन तारे देखने के बाद मात्र एक बार भोजन करता है, वह धनवान, रूपवान और गणमान्य होता है । जो चातुर्मास में एक दिन का अंतर करके भोजन करता है, वह बैकुंठ जाने का अधिकारी बनता है । जो मनुष्य चातुर्मास में तीन रात उपवास करके चौथे दिन भोजन करने का नियम साधता है, वह पुनर्जन्म नहीं लेता । जो साधक पांच दिन उपवास करके छठे दिन भोजन करता है, उसे राजसूय तथा अश्वमेध यज्ञों का संपूर्ण फल मिलता है । जो व्यक्ति भगवान मधुसूदन के शयनकाल में अयाचित [बिना मांगे] अन्न का सेवन करता है, उसका अपने भाई-बंधुओं से कभी वियोग नहीं होता है । चौमासे में विष्णुसूक्त के मंत्रों में स्वाहा संयुक्त करके नित्य हवन में तिल और चावल की आहुतियां देने वाला आजीवन स्वस्थ एवं निरोगी रहता है । हाथ में फल लेकर जो मौन रहकर भगवान नारायण की नित्य 108 परिक्रमा करता है, वह कभी पाप में लिप्त नहीं होता । चौमासे के चार महीनों में धर्मग्रंथों के स्वाध्याय से बडा पुण्य फल मिलता है। सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी देवर्षि नारद को चातुर्मास के नियम बताते हुए कहते हैं - श्रीहरि के शयनकाल में वैष्णव को अपनी किसी प्रिय वस्तु का त्याग अवश्य करना चाहिए । मनुष्य जिस वस्तु को त्यागता है वह उसे अक्षय रूप में प्राप्त होती है ।
वस्तुत: भगवान विष्णु का योगनिद्राकाल [चातुर्मास] आध्यात्मिक साधना का पर्व काल है । इसका सदुपयोग आत्मोन्नति के लिए करना चाहिए । चातुर्मास के नियम मनुष्य में त्याग और संयम की भावना उत्पन्न करने के लिए ही बनाए गए हैं । जो लोग चातुर्मास का व्रत करते हैं, उनको सावन में हरी सब्जी़, भादौ में दही, आश्विन में दूध और कार्तिक में दाल नहीं खाना चाहिए । इसके अलावा पलंग पर सोना, सहचर्य, झूठ बोलना, मांस, शहद और दूसरे से मिले दही-भात का भोजन करना, मूली एवं बैंगन का भी त्याग के भी शास्त्रोक्त विधान है । वास्तव में चातुर्मास धर्म के जरिए सफल जीवन के लिए जरूरी धीरज और संयम का पाठ सिखाता है ।
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