Tuesday, July 30, 2019

राम रक्षा स्त्रोत

राम रक्षा स्त्रोत


राम रक्षा स्त्रोत को ग्यारह बार एक बार में पढ़ लिया जाए तो पूरे दिन तक इसका प्रभाव रहता है। अगर आप रोज ४५ दिन तक राम रक्षा स्त्रोत का पाठ करते हैं तो इसके फल की अवधि बढ़ जाती है। इसका प्रभाव दुगुना तथा दो दिन तक रहने लगता है और भी अच्छा होगा यदि कोई राम रक्षा स्त्रोत को नवरात्रों में प्रतिदिन ११ बार पढ़े । सरसों के दाने एक कटोरी में रख लें। कटोरी के नीचे कोई ऊनी वस्त्र या आसन होना चाहिए। राम रक्षा मन्त्र को ११ बार पढ़ें और इस दौरान आपको अपनी उँगलियों से सरसों के दानों को कटोरी में घुमाते रहना है। ध्यान रहे कि आप किसी आसन पर बैठे हों और राम रक्षा यंत्र आपके सम्मुख हो या फिर श्री राम कि प्रतिमा या फोटो आपके आगे होनी चाहिए जिसे देखते हुए आपको मन्त्र पढ़ना है। ग्यारह बार के जाप से सरसों सिद्ध हो जायेगी और आप उस सरसों के दानों को शुद्ध और सुरक्षित पूजा स्थान पर रख लें। जब आवश्यकता पड़े तो कुछ दाने लेकर आजमायें। सफलता अवश्य प्राप्त होगी।वाद विवाद या मुकदमा हो तो उस दिन सरसों के दाने साथ लेकर जाएँ और वहां दाल दें जहाँ विरोधी बैठता है या उसके सम्मुख फेंक दें। सफलता आपके कदम चूमेगी। खेल या प्रतियोगिता या साक्षात्कार में आप सिद्ध सरसों को साथ ले जाएँ और अपनी जेब में रखें। अनिष्ट की आशंका हो तो भी सिद्ध सरसों को साथ में रखें। यात्रा में साथ ले जाएँ आपका कार्य सफल होगा।राम रक्षा स्त्रोत से पानी सिद्ध करके रोगी को पिलाया जा सकता है परन्तु पानी को सिद्ध करने कि विधि अलग है। इसके लिए ताम्बे के बर्तन को केवल हाथ में पकड़ कर रखना है और अपनी दृष्टि पानी में रखें और महसूस करें कि स्त्रोत की सारी शक्ति पानी में जा रही है। इस समय अपना ध्यान श्री राम की स्तुति में लगाये रखें। मन्त्र बोलते समय प्रयास करें कि आपको हर वाक्य का अर्थ ज्ञात रहे।


॥ श्रीरामरक्षास्तोत्रम्‌ ॥

श्रीगणेशायनम: ।
अस्य श्रीरामरक्षास्तोत्रमन्त्रस्य ।
बुधकौशिक ऋषि: ।
श्रीसीतारामचंद्रोदेवता ।
अनुष्टुप्‌ छन्द: । सीता शक्ति: ।
श्रीमद्‌हनुमान्‌ कीलकम्‌ ।
श्रीसीतारामचंद्रप्रीत्यर्थे जपे विनियोग: ॥
अर्थ: — इस राम रक्षा स्तोत्र मंत्र के रचयिता बुध कौशिक ऋषि हैं, सीता और रामचंद्र देवता हैं, अनुष्टुप छंद हैं, सीता शक्ति हैं, हनुमान जी कीलक है तथा श्री रामचंद्र जी की प्रसन्नता के लिए राम रक्षा स्तोत्र के जप में विनियोग किया जाता हैं |

॥ अथ ध्यानम्‌ ॥

ध्यायेदाजानुबाहुं धृतशरधनुषं बद्दद्पद्‌मासनस्थं ।
पीतं वासोवसानं नवकमलदलस्पर्धिनेत्रं प्रसन्नम्‌ ॥
वामाङ्‌कारूढसीता मुखकमलमिलल्लोचनं नीरदाभं ।
नानालङ्‌कारदीप्तं दधतमुरुजटामण्डनं रामचंद्रम्‌ ॥
ध्यान धरिए — जो धनुष-बाण धारण किए हुए हैं,बद्द पद्मासन की मुद्रा में विराजमान हैं और पीतांबर पहने हुए हैं, जिनके आलोकित नेत्र नए कमल दल के समान स्पर्धा करते हैं, जो बाएँ ओर स्थित सीताजी के मुख कमल से मिले हुए हैं- उन आजानु बाहु, मेघश्याम,विभिन्न अलंकारों से विभूषित तथा जटाधारी श्रीराम का ध्यान करें |

॥ इति ध्यानम्‌ ॥

चरितं रघुनाथस्य शतकोटिप्रविस्तरम्‌ ।
एकैकमक्षरं पुंसां महापातकनाशनम्‌ ॥१॥
श्री रघुनाथजी का चरित्र सौ करोड़ विस्तार वाला हैं | उसका एक-एक अक्षर महापातकों को नष्ट करने वाला है |

ध्यात्वा नीलोत्पलश्यामं रामं राजीवलोचनम्‌ ।
जानकीलक्ष्मणॊपेतं जटामुकुटमण्डितम्‌ ॥२॥
नीले कमल के श्याम वर्ण वाले, कमलनेत्र वाले , जटाओं के मुकुट से सुशोभित, जानकी तथा लक्ष्मण सहित ऐसे भगवान् श्री राम का स्मरण करके,

सासितूणधनुर्बाणपाणिं नक्तं चरान्तकम्‌ ।
स्वलीलया जगत्त्रातुमाविर्भूतमजं विभुम्‌ ॥३॥
जो अजन्मा एवं सर्वव्यापक, हाथों में खड्ग, तुणीर, धनुष-बाण धारण किए राक्षसों के संहार तथा अपनी लीलाओं से जगत रक्षा हेतु अवतीर्ण श्रीराम का स्मरण करके,

रामरक्षां पठॆत्प्राज्ञ: पापघ्नीं सर्वकामदाम्‌ ।
शिरो मे राघव: पातु भालं दशरथात्मज: ॥४॥
मैं सर्वकामप्रद और पापों को नष्ट करने वाले राम रक्षा स्तोत्र का पाठ करता हूँ | राघव मेरे सिर की और दशरथ के पुत्र मेरे ललाट की रक्षा करें |
कौसल्येयो दृशौ पातु विश्वामित्रप्रिय: श्रुती ।
घ्राणं पातु मखत्राता मुखं सौमित्रिवत्सल: ॥५॥
कौशल्या नंदन मेरे नेत्रों की, विश्वामित्र के प्रिय मेरे कानों की, यज्ञरक्षक मेरे घ्राण की और सुमित्रा के वत्सल मेरे मुख की रक्षा करें |

जिव्हां विद्दानिधि: पातु कण्ठं भरतवंदित: ।
स्कन्धौ दिव्यायुध: पातु भुजौ भग्नेशकार्मुक: ॥६॥
मेरी जिह्वा की विधानिधि रक्षा करें, कंठ की भरत-वंदित, कंधों की दिव्यायुध और भुजाओं की महादेवजी का धनुष तोड़ने वाले भगवान् श्रीराम रक्षा करें |

करौ सीतपति: पातु हृदयं जामदग्न्यजित्‌ ।
मध्यं पातु खरध्वंसी नाभिं जाम्बवदाश्रय: ॥७॥
मेरे हाथों की सीता पति श्रीराम रक्षा करें, हृदय की जमदग्नि ऋषि के पुत्र (परशुराम) को जीतने वाले, मध्य भाग की खर (नाम के राक्षस) के वधकर्ता और नाभि की जांबवान के आश्रयदाता रक्षा करें |

सुग्रीवेश: कटी पातु सक्थिनी हनुमत्प्रभु: ।
ऊरू रघुत्तम: पातु रक्ष:कुलविनाशकृत्‌ ॥८॥
मेरे कमर की सुग्रीव के स्वामी, हडियों की हनुमान के प्रभु और रानों की राक्षस कुल का विनाश करने वाले रघुश्रेष्ठ रक्षा करें |

जानुनी सेतुकृत्पातु जङ्‌घे दशमुखान्तक: ।
पादौ बिभीषणश्रीद: पातु रामोSखिलं वपु: ॥९॥
मेरे जानुओं की सेतुकृत, जंघाओं की दशानन वधकर्ता, चरणों की विभीषण को ऐश्वर्य प्रदान करने वाले और सम्पूर्ण शरीर की श्रीराम रक्षा करें |

एतां रामबलोपेतां रक्षां य: सुकृती पठॆत्‌ ।
स चिरायु: सुखी पुत्री विजयी विनयी भवेत्‌ ॥१०॥
शुभ कार्य करने वाला जो भक्त भक्ति एवं श्रद्धा के साथ रामबल से संयुक्त होकर इस स्तोत्र का पाठ करता हैं, वह दीर्घायु, सुखी, पुत्रवान, विजयी और विनयशील हो जाता हैं |

पातालभूतलव्योम चारिणश्छद्‌मचारिण: ।
न द्र्ष्टुमपि शक्तास्ते रक्षितं रामनामभि: ॥११॥
जो जीव पाताल, पृथ्वी और आकाश में विचरते रहते हैं अथवा छद्दम वेश में घूमते रहते हैं , वे राम नामों से सुरक्षित मनुष्य को देख भी नहीं पाते |

रामेति रामभद्रेति रामचंद्रेति वा स्मरन्‌ ।
नरो न लिप्यते पापै भुक्तिं मुक्तिं च विन्दति ॥१२॥
राम, रामभद्र तथा रामचंद्र आदि नामों का स्मरण करने वाला रामभक्त पापों से लिप्त नहीं होता. इतना ही नहीं, वह अवश्य ही भोग और मोक्ष दोनों को प्राप्त करता है |
जगज्जेत्रैकमन्त्रेण रामनाम्नाभिरक्षितम्‌ ।
य: कण्ठे धारयेत्तस्य करस्था: सर्वसिद्द्दय: ॥१३॥
जो संसार पर विजय करने वाले मंत्र राम-नाम से सुरक्षित इस स्तोत्र को कंठस्थ कर लेता हैं, उसे सम्पूर्ण सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं |

वज्रपंजरनामेदं यो रामकवचं स्मरेत्‌ ।
अव्याहताज्ञ: सर्वत्र लभते जयमंगलम्‌ ॥१४॥
जो मनुष्य वज्रपंजर नामक इस राम कवच का स्मरण करता हैं, उसकी आज्ञा का कहीं भी उल्लंघन नहीं होता तथा उसे सदैव विजय और मंगल की ही प्राप्ति होती हैं |

आदिष्टवान्यथा स्वप्ने रामरक्षामिमां हर: ।
तथा लिखितवान्‌ प्रात: प्रबुद्धो बुधकौशिक: ॥१५॥
भगवान् शंकर ने स्वप्न में इस रामरक्षा स्तोत्र का आदेश बुध कौशिक ऋषि को दिया था, उन्होंने प्रातः काल जागने पर उसे वैसा ही लिख दिया |

आराम: कल्पवृक्षाणां विराम: सकलापदाम्‌ ।
अभिरामस्त्रिलोकानां राम: श्रीमान्‌ स न: प्रभु: ॥१६॥
जो कल्प वृक्षों के बगीचे के समान विश्राम देने वाले हैं, जो समस्त विपत्तियों को दूर करने वाले हैं (विराम माने थमा देना, किसको थमा देना/दूर कर देना ? सकलापदाम = सकल आपदा = सारी विपत्तियों को) और जो तीनो लोकों में सुंदर (अभिराम + स्+ त्रिलोकानाम) हैं, वही श्रीमान राम हमारे प्रभु हैं |

तरुणौ रूपसंपन्नौ सुकुमारौ महाबलौ ।
पुण्डरीकविशालाक्षौ चीरकृष्णाजिनाम्बरौ ॥१७॥
जो युवा,सुन्दर, सुकुमार,महाबली और कमल (पुण्डरीक) के समान विशाल नेत्रों वाले हैं, मुनियों की तरह वस्त्र एवं काले मृग का चर्म धारण करते हैं |

फलमूलशिनौ दान्तौ तापसौ ब्रह्मचारिणौ ।
पुत्रौ दशरथस्यैतौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ ॥१८॥
जो फल और कंद का आहार ग्रहण करते हैं, जो संयमी , तपस्वी एवं ब्रह्रमचारी हैं , वे दशरथ के पुत्र राम और लक्ष्मण दोनों भाई हमारी रक्षा करें |

शरण्यौ सर्वसत्वानां श्रेष्ठौ सर्वधनुष्मताम्‌ ।
रक्ष:कुलनिहन्तारौ त्रायेतां नो रघुत्तमौ ॥१९॥
ऐसे महाबली – रघुश्रेष्ठ मर्यादा पुरूषोतम समस्त प्राणियों के शरणदाता, सभी धनुर्धारियों में श्रेष्ठ और राक्षसों के कुलों का समूल नाश करने में समर्थ हमारा त्राण करें |

आत्तसज्जधनुषा विषुस्पृशा वक्षया शुगनिषङ्‌ग सङि‌गनौ ।
रक्षणाय मम रामलक्ष्मणा वग्रत: पथि सदैव गच्छताम्‌ ॥२०॥
संघान किए धनुष धारण किए, बाण का स्पर्श कर रहे, अक्षय बाणों से युक्त तुणीर लिए हुए राम और लक्ष्मण मेरी रक्षा करने के लिए मेरे आगे चलें |

संनद्ध: कवची खड्‌गी चापबाणधरो युवा ।
गच्छन्‌मनोरथोSस्माकं राम: पातु सलक्ष्मण: ॥२१॥
हमेशा तत्पर, कवचधारी, हाथ में खडग, धनुष-बाण तथा युवावस्था वाले भगवान् राम लक्ष्मण सहित आगे-आगे चलकर हमारी रक्षा करें |

रामो दाशरथि: शूरो लक्ष्मणानुचरो बली ।
काकुत्स्थ: पुरुष: पूर्ण: कौसल्येयो रघुत्तम: ॥२२॥
भगवान् का कथन है की श्रीराम, दाशरथी, शूर, लक्ष्मनाचुर, बली, काकुत्स्थ , पुरुष, पूर्ण, कौसल्येय, रघुतम,

वेदान्तवेद्यो यज्ञेश: पुराणपुरुषोत्तम: ।
जानकीवल्लभ: श्रीमानप्रमेय पराक्रम: ॥२३॥
वेदान्त्वेघ, यज्ञेश,पुराण पुरूषोतम , जानकी वल्लभ, श्रीमान और अप्रमेय पराक्रम आदि नामों का

इत्येतानि जपेन्नित्यं मद्‌भक्त: श्रद्धयान्वित: ।
अश्वमेधाधिकं पुण्यं संप्राप्नोति न संशय: ॥२४॥
नित्यप्रति श्रद्धापूर्वक जप करने वाले को निश्चित रूप से अश्वमेध यज्ञ से भी अधिक फल प्राप्त होता हैं |

रामं दूर्वादलश्यामं पद्‌माक्षं पीतवाससम्‌ ।
स्तुवन्ति नामभिर्दिव्यैर्न ते संसारिणो नर: ॥२५॥
दूर्वादल के समान श्याम वर्ण, कमल-नयन एवं पीतांबरधारी श्रीराम की उपरोक्त दिव्य नामों से स्तुति करने वाला संसारचक्र में नहीं पड़ता |

रामं लक्शमण पूर्वजं रघुवरं सीतापतिं सुंदरम्‌ ।
काकुत्स्थं करुणार्णवं गुणनिधिं विप्रप्रियं धार्मिकम्‌
राजेन्द्रं सत्यसंधं दशरथनयं श्यामलं शान्तमूर्तिम्‌ ।
वन्दे लोकभिरामं रघुकुलतिलकं राघवं रावणारिम्‌ ॥२६॥
लक्ष्मण जी के पूर्वज , सीताजी के पति, काकुत्स्थ, कुल-नंदन, करुणा के सागर , गुण-निधान , विप्र भक्त, परम धार्मिक , राजराजेश्वर, सत्यनिष्ठ, दशरथ के पुत्र, श्याम और शांत मूर्ति, सम्पूर्ण लोकों में सुन्दर, रघुकुल तिलक , राघव एवं रावण के शत्रु भगवान् राम की मैं वंदना करता हूँ |

रामाय रामभद्राय रामचंद्राय वेधसे ।
रघुनाथाय नाथाय सीताया: पतये नम: ॥२७॥
राम, रामभद्र, रामचंद्र, विधात स्वरूप , रघुनाथ, प्रभु एवं सीताजी के स्वामी की मैं वंदना करता हूँ |

श्रीराम राम रघुनन्दन राम राम ।
श्रीराम राम भरताग्रज राम राम ।
श्रीराम राम रणकर्कश राम राम ।
श्रीराम राम शरणं भव राम राम ॥२८॥
हे रघुनन्दन श्रीराम ! हे भरत के अग्रज भगवान् राम! हे रणधीर, मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ! आप मुझे शरण दीजिए |

श्रीरामचन्द्रचरणौ मनसा स्मरामि ।
श्रीरामचन्द्रचरणौ वचसा गृणामि ।
श्रीरामचन्द्रचरणौ शिरसा नमामि ।
श्रीरामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्ये ॥२९॥
मैं एकाग्र मन से श्रीरामचंद्रजी के चरणों का स्मरण और वाणी से गुणगान करता हूँ, वाणी द्धारा और पूरी श्रद्धा के साथ भगवान् रामचन्द्र के चरणों को प्रणाम करता हुआ मैं उनके चरणों की शरण लेता हूँ |

माता रामो मत्पिता रामचंन्द्र: ।
स्वामी रामो मत्सखा रामचंद्र: ।
सर्वस्वं मे रामचन्द्रो दयालु ।
नान्यं जाने नैव जाने न जाने ॥३०॥
श्रीराम मेरे माता, मेरे पिता , मेरे स्वामी और मेरे सखा हैं | इस प्रकार दयालु श्रीराम मेरे सर्वस्व हैं. उनके सिवा में किसी दुसरे को नहीं जानता |

दक्षिणे लक्ष्मणो यस्य वामे तु जनकात्मजा ।
पुरतो मारुतिर्यस्य तं वन्दे रघुनंदनम्‌ ॥३१॥
जिनके दाईं और लक्ष्मण जी, बाईं और जानकी जी और सामने हनुमान ही विराजमान हैं, मैं उन्ही रघुनाथ जी की वंदना करता हूँ |

लोकाभिरामं रनरङ्‌गधीरं राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम्‌ ।
कारुण्यरूपं करुणाकरंतं श्रीरामचंद्रं शरणं प्रपद्ये ॥३२॥
मैं सम्पूर्ण लोकों में सुन्दर तथा रणक्रीड़ा में धीर, कमलनेत्र, रघुवंश नायक, करुणा की मूर्ति और करुणा के भण्डार की श्रीराम की शरण में हूँ |

मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम्‌ ।
वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये ॥३३॥
जिनकी गति मन के समान और वेग वायु के समान (अत्यंत तेज) है, जो परम जितेन्द्रिय एवं बुद्धिमानों में श्रेष्ठ हैं, मैं उन पवन-नंदन वानारग्रगण्य श्रीराम दूत की शरण लेता हूँ |

कूजन्तं रामरामेति मधुरं मधुराक्षरम्‌ ।
आरुह्य कविताशाखां वन्दे वाल्मीकिकोकिलम्‌ ॥३४॥
मैं कवितामयी डाली पर बैठकर, मधुर अक्षरों वाले ‘राम-राम’ के मधुर नाम को कूजते हुए वाल्मीकि रुपी कोयल की वंदना करता हूँ |

आपदामपहर्तारं दातारं सर्वसंपदाम्‌ ।
लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो भूयो नमाम्यहम्‌ ॥३५॥
मैं इस संसार के प्रिय एवं सुन्दर उन भगवान् राम को बार-बार नमन करता हूँ, जो सभी आपदाओं को दूर करने वाले तथा सुख-सम्पति प्रदान करने वाले हैं |
भर्जनं भवबीजानामर्जनं सुखसंपदाम्‌ ।
तर्जनं यमदूतानां रामरामेति गर्जनम्‌ ॥३६॥
‘राम-राम’ का जप करने से मनुष्य के सभी कष्ट समाप्त हो जाते हैं | वह समस्त सुख-सम्पति तथा ऐश्वर्य प्राप्त कर लेता हैं | राम-राम की गर्जना से यमदूत सदा भयभीत रहते हैं |

रामो राजमणि: सदा विजयते रामं रमेशं भजे ।
रामेणाभिहता निशाचरचमू रामाय तस्मै नम: ।
रामान्नास्ति परायणं परतरं रामस्य दासोSस्म्यहम्‌ ।
रामे चित्तलय: सदा भवतु मे भो राम मामुद्धर ॥३७॥
राजाओं में श्रेष्ठ श्रीराम सदा विजय को प्राप्त करते हैं | मैं लक्ष्मीपति भगवान् श्रीराम का भजन करता हूँ | सम्पूर्ण राक्षस सेना का नाश करने वाले श्रीराम को मैं नमस्कार करता हूँ | श्रीराम के समान अन्य कोई आश्रयदाता नहीं | मैं उन शरणागत वत्सल का दास हूँ | मैं हमेशा श्रीराम मैं ही लीन रहूँ | हे श्रीराम! आप मेरा (इस संसार सागर से) उद्धार करें |

राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे ।
सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने ॥३८॥
(शिव पार्वती से बोले –) हे सुमुखी ! राम- नाम ‘विष्णु सहस्त्रनाम’ के समान हैं | मैं सदा राम का स्तवन करता हूँ और राम-नाम में ही रमण करता हूँ |

इति श्रीबुधकौशिकविरचितं श्रीरामरक्षास्तोत्रं संपूर्णम्‌ ॥

॥ श्री सीतारामचंद्रार्पणमस्तु ॥

भैरव जी द्वारा समस्त कामनाओ का ज्ञान

भैरव जी द्वारा समस्त कामनाओ का ज्ञान 

ॐ क्षां क्षीं क्षुं क्ष: क्षेत्र-पालाय नम:

रात्री मेॆ सोते समय नो प्यालों में जल भरे तथा गुग्गल की धुणी दे १०८ बार जाप करे तीन दिवस करे पश्चात रात्री मेॆ जिस बात को जानना हो उसका स्मरण कर मन्त्र जाप कर सो जाये स्वप्न में भैरव जी द्वारा समस्त कामनाओ का ज्ञान हो जाता है

बग्लामुखि जगद वश्ंकरी

बग्लामुखि जगद वश्ंकरी


ॐ ह्लीं बग्लामुखि जगद वश्ंकरी मां बग्ले पिताम्बरे प्रसीद प्रसीद मम सर्व मनोरथान पूरय पूरय ह्लीं ॐ

अयुत जाप से सिद्धी होती है
दस दिन तक एक हजार जाप और दक्षांश आहुती दे .

हवन सामग्री 

हल्दी ,हरताल मालकांगनी ,को मिलाकर निम की लकडी या खदिर की लकडी की समिधा प्रज्वलित कर आहुति दे अभिष्ट सिद्धी प्राप्त होती है
हवन पश्चात बग्ला स्तुती अवश्य करे प्रतिदिन करना है

श्री गणेश जी के दुर्लभ पंचबाण मन्त्र

श्री गणेश जी के दुर्लभ पंचबाण मन्त्र 


१)ॐ गुरुजी समरुं ,गुणपति साधूं ,लाण डाकण मांरु ,चार सिकोत्तरे पाए लगाडूँ,गुणपति राजा घोडे चडीयां भूत पलित में विघन हमेशा होंकारा पिछा फरे तो माई पार्वती जी का दुध हराम करे

२)ॐ गुरुजी गुणेश बोले भोले,सवा सैर लाडू खावे ,होंकारा सो कोस जावे हमेशा होंकारा ,पिछा फरे तो माई पार्वती जी का दुध हराम करे .

३)ॐ गुरुजी बोडोया वीर !तुं बोलीया वीर ,जब जग तारी सेवा करुं लीला थई शिर धरुं ,माथे मांडु पलाण गसाण मांथी मुठी करुं , कहोने संतो राम राम

४)ॐ गुरुजी तम गणेश गोरी का पुत ,ज्यां समरुं त्या आयो जीत ,तमारा पिता ईश्वर महादेव ,साची तमारी सेवा करुं हमेश कामे पधारो लाडु ,सिन्दुरनी पडी लविंग सुपारी पान बिडूं ,श्री गणपती उर मां धरुं

५)ॐ गुरुजी ,सोधबाई से चला आय , राजा प्रजा लागे पाई ,वाटे घाटे न मारी ओजवाई ,ज्यां समरुं त्या आगेवान .

विधी
गणेश चतुर्थि को लाल लंगोट पहन कर गणपति जी की मुर्ती को अक्षत और दुर्वा के उपर रखे फिर दुध दही जल से क्रमवार स्नान कराये स्नान करवाते समय ॐ गुरुजी गं गणपतये नम: ह्रीं गं गणपतये नम: यह मन्त्र पढते रहें स्नान के पश्चात सिन्दुर लगाऐ गुडहल का पुष्प चढाऐं चुरमे के लड्डु का नैवेद्य और पान का बीडा, लोंग ,सुपारी ,दक्षिणा (रुपये /पैसे )सम्मुख रखें,गुग्गुल की धुप देकर आरती करे उसके पश्चात पांचो बाण मन्त्र का जाप करे पांच माला जाप के पश्चात चुरमे के लड्डु का भोग स्वयं लगाए शैष सारी सामग्री भुमी मे गाड देवे आसन के उपर के अक्षत सम्भाल कर रखे इच्छित कार्य में लाते समय गुग्गुल की धुप देकर पांचो बाणो का पांच बार जाप कर अक्षत में चिन्तन करे कार्य अवश्य पुर्ण होगा

श्रीविचित्र-वीर-हनुमन्-माला-मन्त्र

श्रीविचित्र-वीर-हनुमन्-माला-मन्त्र

विनियोगः-

ॐ अस्य श्रीविचित्र-वीर-हनुमन्माला-मन्त्रस्य श्रीरामचन्द्रो भगवान् ऋषिः। अनुष्टुप छन्दः। श्रीविचित्र-वीर-हनुमान्-देवता। ममाभीष्ट-सिद्धयर्थे माला-मन्त्र-जपे विनियोगः।

ऋष्यादि-न्यासः-
श्रीरामचन्द्रो भगवान् ऋषये नमः शिरसि। अनुष्टुप छन्दसे नमः मुखे। श्रीविचित्र-वीर-हनुमान्-देवतायै नमः हृदि। ममाभीष्ट-सिद्धयर्थे माला-मन्त्र-जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे।

षडङ्ग-न्यासः-

ॐ ह्रां अंगुष्ठाभ्यां नमः (हृदयाय नमः)। ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः (शिरसे स्वाहा)। ॐ ह्रूं मध्यमाभ्यां नमः (शिखायै वषट्)। ॐ ह्रैं अनामिकाभ्यां नमः (कवचाय हुं)। ॐ ह्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः (नेत्र-त्रयाय वौषट्)। ॐ ह्रः करतल-करपृष्ठाभ्यां नमः (अस्त्राय फट्)।

ध्यानः-
वामे करे वैर-वहं वहन्तम्, शैलं परे श्रृखला-मालयाढ्यम्।
दधानमाध्मातमु्ग्र-वर्णम्, भजे ज्वलत्-कुण्डलमाञ्नेयम्।।

माला-मन्त्रः-
“ॐ नमो भगवते, विचित्र-वीर-हनुमते, प्रलय-कालानल-प्रभा-ज्वलत्-प्रताप-वज्र-देहाय, अञ्जनी-गर्भ-सम्भूताय, प्रकट-विक्रम-वीर-दैत्य-दानव-यक्ष-राक्षस-ग्रह-बन्धनाय, भूत-ग्रह, प्रेत-ग्रह, पिशाच-ग्रह, शाकिनी-ग्रह, डाकिनी-ग्रह ,काकिनी-ग्रह ,कामिनी-ग्रह ,ब्रह्म-ग्रह, ब्रह्मराक्षस-ग्रह, चोर-ग्रह बन्धनाय, एहि एहि, आगच्छागच्छ, आवेशयावेशय, मम हृदयं प्रवेशय प्रवेशय, स्फुट स्फुट, प्रस्फुट प्रस्फुट, सत्यं कथय कथय, व्याघ्र-मुखं बन्धय बन्धय, सर्प-मुखं बन्धय बन्धय, राज-मुखं बन्धय बन्धय, सभा-मुखं बन्धय बन्धय, शत्रु-मुखं बन्धय बन्धय, सर्व-मुखं बन्धय बन्धय, लंका-प्रासाद-भञ्जक। सर्व-जनं मे वशमानय, श्रीं ह्रीं क्लीं श्रीं सर्वानाकर्षयाकर्षय, शत्रून् मर्दय मर्दय, मारय मारय, चूर्णय चूर्णय, खे खे श्रीरामचन्द्राज्ञया प्रज्ञया मम कार्य-सिद्धिं कुरु कुरु, मम शत्रून् भस्मी कुरु कुरु स्वाहा। ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्रः फट् श्रीविचित्र-वीर-हनुमते। मम सर्व-शत्रून् भस्मी-कुरु कुरु, हन हन, हुं फट् स्वाहा।।”

सरल धनप्राप्ती साधना

सरल धनप्राप्ती साधना


एक अर्धखिली कमल की कली लेकर कमल के केसर और पँखुडियों के बिच नवनित (मक्खन)भर कर श्री सुक्त की १५ ऋचा का १०८बार जाप करके कमल की कली का अंत में अग्नि में हवन कर आहुति दे देवे ऐसा ४४ शुक्रवार तक करने से साधक को लक्ष्मी की प्राप्त होती है

ऋचा इस प्रकार से है ....

श्रीं तां म आवह जातवेदो लक्ष्मी मन पगामिनीम् ।
यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योअश्र्वान् विन्देयं पुरुषानहम्।।

ऋचा को लिखने मेंं शब्दो की त्रुटि हो सकती है आप सभी श्री सुक्त की पुस्तक बाजार से लाकर त्रुटि दुर कर जाप कर लाभ प्राप्त करे |

सर्वकामना सिद्धि

सर्वकामना सिद्धि


ॐ नमो भगवते पञ्चवदनाय महाभीमपराक्रमाय सकलशत्रुसंहारणाय स्वाहा।
ॐ नमो भगवते पञ्चवदनाय महाबलप्रचण्डाय सकलब्रह्माण्डनायकाय सकलभूत-प्रेत-पिशाच-शाकिनी-डाकिनी-यक्षिणी-पूतना-महामारी-सकलविघ्ननिवारणाय स्वाहा।
ॐ आञ्जनेयाय विद्महे महाबलाय धीमहि तन्नो हनुमान् प्रचोदयात् (गायत्री)
ॐ नमो हनुमते महाबलप्रचण्डाय महाभीम पराक्रमाय गजक्रान्तदिङ्मण्डलयशोवितानधवलीकृतमहाचलपराक्रमाय पञ्चवदनाय नृसिंहाय वज्रदेहाय ज्वलदग्नितनूरुहायरुद्रावताराय महाभीमाय, मम मनोरथपरकायसिद्धिं देहि देहि स्वाहा।
ॐ नमो भगवते पञ्चवदनाय महाभीमपराक्रमाय सकलसिद्धिदाय वाञ्छितपूरकाय सर्वविघ्ननिवारणाय मनो वाञ्छितफलप्रदाय सर्वजीववशीकराय दारिद्रयविध्वंसनायपरममंगलाय सर्वदुःखनिवारणाय अञ्जनीपुत्राय सकलसम्पत्तिकराय जयप्रदाय ॐ ह्रीं श्रीं ह्रां ह्रूं फट् स्वाहा।”

विधिः-

सर्वकामना सिद्धि का संकल्प करके उपर्युक्त पूरे मन्त्र का १३ दिनों में ब्राह्मणों द्वारा ३३००० जप पूर्ण कराये।

या स्वयं करे तेरहवें दिन १३ पान के पत्तों पर १३ सुपारी रखकर शुद्धरोली अथवा पीसी हुई हल्दी रखकर स्वयं १०८ बार उक्त मन्त्र का जाप करके एक पान को उठाकर अलग रख दे। तदन्तर पञ्चोपचार से पूजन करके गाय का घृत, सफेददूर्वा तथा सफेद कमल का भाग मिलाकर उसके साथ उस पान का अग्नि में हवन कर दे। इसी प्रकार १३ पानों का हवन करे।

तदन्तर ब्राह्मणों द्वारा उक्त मन्त्र से ३२००० आहुतियाँ दिलाकर हवन करायें।या स्वंय करे तथा ब्राह्मणों को भोजन कराये।

जैन धन धान्य ऐश्वर्य रिद्धी सिद्धी मन्त्र

जैन धन धान्य ऐश्वर्य रिद्धी सिद्धी मन्त्र


ॐ क्रां क्रीं ह्रां ह्रीं उसभमजियं च वन्दे,संभव मभिणं दण च सुमइं,पउयप्पह सुपोस जिणं च।पंदप्पह वन्दे स्वाहा।

विधी

एक माला जाप, शुभ मुहुर्त में करे पद्मासन में बैठकर कमलगट्टे की माला से उत्तर मुख होकर बैठे धुप दिप करे , दुध दही चावल खोया भोजन में ग्रहण करे भुमिशयन करे ब्रह्मचर्य से रहे सत़्य वचन कहे सात दिवस मे सिद्धी हो धन धान्य ऐश्वर्य रिद्धी सिद्धी मिले डुबा धन पुन:प्राप्त हो मनोईच्छा ,रुका ,खोया दिया हुआ धन वापस आयेगा यह जैन मत का मन्त्र है सटिक कार्य करता है

Sunday, July 28, 2019

नवम्बर 2019 के त्यौहार

नवम्बर 2019 के त्यौहार

2 शनिवार
छठ पूजा
कार्तिक, शुक्ल षष्ठी

7 बृहस्पतिवार
कंस वध
कार्तिक, शुक्ल दशमी

8 शुक्रवार
देवुत्थान एकादशी
कार्तिक, शुक्ल एकादशी

9 शनिवार
तुलसी विवाह
कार्तिक, शुक्ल द्वादशी

12 मंगलवार
कार्तिक पूर्णिमा
कार्तिक, शुक्ल पूर्णिमा

17 रविवार
वृश्चिक संक्रान्ति सूर्य का तुला से वृश्चिक राशि में प्रवेश

19 मंगलवार
कालभैरव जयन्ती
पौष, कृष्ण चतुर्थी

22 शुक्रवार
उत्पन्ना एकादशी
मार्गशीर्ष, कृष्ण एकादशी

23 शनिवार
गौण उत्पन्ना एकादशी
मार्गशीर्ष, कृष्ण एकादशी

Tuesday, July 16, 2019

गणपति अथर्वशीर्ष

गणपति अथर्वशीर्ष

गणेश चतुर्थी को करे आप गणपति जी का अथर्वशीर्ष का पाठ जिससे आप की कुंडली मे अनिष्ट ग्रह बुध जो कि धन सुख समृद्धि बुद्धि वाणी जनपद में मान सम्मान, व केतु ग्रह जो मानसिक जीवन की समस्या ,द्रव्यों के नाश रोग और ग्रहस्थ में दुखी इनके प्रभाव को शुभ करना गणपति जी के इस पाठ के स्मरण से ही मानव कल्याण हो जाता हैं । बुध और केतु का शुभ फल तथा जीवन मे श्री गणेश के जैसे सभी कार्य बहुत शीघ्रता से पूर्ण होना इनकी कृपा से प्राप्त होता हैं । तो आप सभी जिन्हें धन, परिवार, संतान, शिक्षा, पैसे में अड़चन , सुखों में कमी हैं तो आप गणेश जी के इस पाठ को उनके सम्मुख करे और उन्हें लड्ड़ू का भोग लगाये बप्पा जीवन को खुशियों से भर देंगे ।। गणपति बप्पा मोरिया

गणपति अथर्वशीर्ष

ॐ नमस्ते गणपतये।
त्वमेव प्रत्यक्षं तत्वमसि
त्वमेव केवलं कर्ताऽ सि
त्वमेव केवलं धर्ताऽसि
त्वमेव केवलं हर्ताऽसि
त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि
त्व साक्षादात्माऽसि नित्यम्।।1।।

ऋतं वच्मि। सत्यं वच्मि।।2।।
अव त्व मां। अव वक्तारं।
अव श्रोतारं। अव दातारं।
अव धातारं। अवानूचानमव शिष्यं।

अव पश्चातात। अव पुरस्तात।
अवोत्तरात्तात। अव दक्षिणात्तात्।
अवचोर्ध्वात्तात्।। अवाधरात्तात्।।
सर्वतो माँ पाहि-पाहि समंतात्।।3।।

त्वं वाङ्‍मयस्त्वं चिन्मय:।
त्वमानंदमसयस्त्वं ब्रह्ममय:।
त्वं सच्चिदानंदाद्वितीयोऽषि।
त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्माषि।
त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽषि।।4।।

सर्वं जगदिदं त्वत्तो जायते।
सर्वं जगदिदं त्वत्तस्तिष्ठति।
सर्वं जगदिदं त्वयि लयमेष्यति।
सर्वं जगदिदं त्वयि प्रत्येति।
त्वं भूमिरापोऽनलोऽनिलो नभ:।
त्वं चत्वारिकाकूपदानि।।5।।

त्वं गुणत्रयातीत: त्वमवस्थात्रयातीत:।
त्वं देहत्रयातीत:। त्वं कालत्रयातीत:।
त्वं मूलाधारस्थितोऽसि नित्यं।
त्वं शक्तित्रयात्मक:।
त्वां योगिनो ध्यायंति नित्यं।
त्वं ब्रह्मा त्वं विष्णुस्त्वं
रूद्रस्त्वं इंद्रस्त्वं अग्निस्त्वं
वायुस्त्वं सूर्यस्त्वं चंद्रमास्त्वं
ब्रह्मभूर्भुव:स्वरोम्।।6।।

गणादि पूर्वमुच्चार्य वर्णादिं तदनंतरं।
अनुस्वार: परतर:। अर्धेन्दुलसितं।
तारेण ऋद्धं। एतत्तव मनुस्वरूपं।
गकार: पूर्वरूपं। अकारो मध्यमरूपं।
अनुस्वारश्चान्त्यरूपं। बिन्दुरूत्तररूपं।
नाद: संधानं। सँ हितासंधि:
सैषा गणेश विद्या। गणकऋषि:
निचृद्गायत्रीच्छंद:। गणपतिर्देवता।
ॐ गं गणपतये नम:।।7।।

एकदंताय विद्‍महे।
वक्रतुण्डाय धीमहि।
तन्नो दंती प्रचोदयात।।8।।

एकदंतं चतुर्हस्तं पाशमंकुशधारिणम्।
रदं च वरदं हस्तैर्विभ्राणं मूषकध्वजम्।
रक्तं लंबोदरं शूर्पकर्णकं रक्तवाससम्।
रक्तगंधाऽनुलिप्तांगं रक्तपुष्पै: सुपुजितम्।।
भक्तानुकंपिनं देवं जगत्कारणमच्युतम्।
आविर्भूतं च सृष्टयादौ प्रकृ‍ते पुरुषात्परम्।
एवं ध्यायति यो नित्यं स योगी योगिनां वर:।।9।।

नमो व्रातपतये। नमो गणपतये।
नम: प्रमथपतये।
नमस्तेऽस्तु लंबोदरायैकदंताय।
विघ्ननाशिने शिवसुताय।
श्रीवरदमूर्तये नमो नम:।।10।।

एतदथर्वशीर्ष योऽधीते।
स ब्रह्मभूयाय कल्पते।
स सर्व विघ्नैर्नबाध्यते।
स सर्वत: सुखमेधते।
स पञ्चमहापापात्प्रमुच्यते।।11।।

सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति।
प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति।
सायंप्रात: प्रयुंजानोऽपापो भवति।
सर्वत्राधीयानोऽपविघ्नो भवति।
धर्मार्थकाममोक्षं च विंदति।।12।।

इदमथर्वशीर्षमशिष्याय न देयम्।
यो यदि मोहाद्‍दास्यति स पापीयान् भवति।
सहस्रावर्तनात् यं यं काममधीते तं तमनेन साधयेत्।13।।

अनेन गणपतिमभिषिंचति
स वाग्मी भवति
चतुर्थ्यामनश्र्नन जपति
स विद्यावान भवति।
इत्यथर्वणवाक्यं।
ब्रह्माद्यावरणं विद्यात्
न बिभेति कदाचनेति।।14।।

यो दूर्वांकुरैंर्यजति
स वैश्रवणोपमो भवति।
यो लाजैर्यजति स यशोवान भवति
स मेधावान भवति।
यो मोदकसहस्रेण यजति
स वाञ्छित फलमवाप्रोति।
य: साज्यसमिद्भिर्यजति
स सर्वं लभते स सर्वं लभते।।15।।

अष्टौ ब्राह्मणान् सम्यग्ग्राहयित्वा
सूर्यवर्चस्वी भवति।
सूर्यग्रहे महानद्यां प्रतिमासंनिधौ
वा जप्त्वा सिद्धमंत्रों भवति।
महाविघ्नात्प्रमुच्यते।
महादोषात्प्रमुच्यते।
महापापात् प्रमुच्यते।
स सर्वविद्भवति से सर्वविद्भवति।
य एवं वेद इत्युपनिषद्‍।।16।।

सर्व-कामना-सिद्धि स्तोत्

सर्व-कामना-सिद्धि स्तोत्


श्री हिरण्य-मयी हस्ति-वाहिनी, सम्पत्ति-शक्ति-दायिनी।
मोक्ष-मुक्ति-प्रदायिनी, सद्-बुद्धि-शक्ति-दात्रिणी।।१
सन्तति-सम्वृद्धि-दायिनी, शुभ-शिष्य-वृन्द-प्रदायिनी।
नव-रत्ना नारायणी, भगवती भद्र-कारिणी।।२
धर्म-न्याय-नीतिदा, विद्या-कला-कौशल्यदा।
प्रेम-भक्ति-वर-सेवा-प्रदा, राज-द्वार-यश-विजयदा।।३
धन-द्रव्य-अन्न-वस्त्रदा, प्रकृति पद्मा कीर्तिदा।
सुख-भोग-वैभव-शान्तिदा, साहित्य-सौरभ-दायिका।।४
वंश-वेलि-वृद्धिका, कुल-कुटुम्ब-पौरुष-प्रचारिका।
स्व-ज्ञाति-प्रतिष्ठा-प्रसारिका, स्व-जाति-प्रसिद्धि-प्राप्तिका।।५
भव्य-भाग्योदय-कारिका, रम्य-देशोदय-उद्भाषिका।
सर्व-कार्य-सिद्धि-कारिका, भूत-प्रेत-बाधा-नाशिका।
अनाथ-अधमोद्धारिका, पतित-पावन-कारिका।
मन-वाञ्छित॒फल-दायिका, सर्व-नर-नारी-मोहनेच्छा-पूर्णिका।।७
साधन-ज्ञान-संरक्षिका, मुमुक्षु-भाव-समर्थिका।
जिज्ञासु-जन-ज्योतिर्धरा, सुपात्र-मान-सम्वर्द्धिका।।८
अक्षर-ज्ञान-सङ्गतिका, स्वात्म-ज्ञान-सन्तुष्टिका।
पुरुषार्थ-प्रताप-अर्पिता, पराक्रम-प्रभाव-समर्पिता।।९
स्वावलम्बन-वृत्ति-वृद्धिका, स्वाश्रय-प्रवृत्ति-पुष्टिका।
प्रति-स्पर्द्धी-शत्रु-नाशिका, सर्व-ऐक्य-मार्ग-प्रकाशिका।।१०
जाज्वल्य-जीवन-ज्योतिदा, षड्-रिपु-दल-संहारिका।
भव-सिन्धु-भय-विदारिका, संसार-नाव-सुकानिका।।११
चौर-नाम-स्थान-दर्शिका, रोग-औषधी-प्रदर्शिका।
इच्छित-वस्तु-प्राप्तिका, उर-अभिलाषा-पूर्णिका।।१२
श्री देवी मङ्गला, गुरु-देव-शाप-निर्मूलिका।
आद्य-शक्ति इन्दिरा, ऋद्धि-सिद्धिदा रमा।।१३
सिन्धु-सुता विष्णु-प्रिया, पूर्व-जन्म-पाप-विमोचना।
दुःख-सैन्य-विघ्न-विमोचना, नव-ग्रह-दोष-निवारणा।।१४
ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं श्रीसर्व-कामना-सिद्धि महा-यन्त्र-देवता-स्वरुपिणी श्रीमहा-माया महा-देवी महा-शक्ति महालक्ष्म्ये नमो नमः।
ॐ ह्रीं श्रीपर-ब्रह्म परमेश्वरी। भाग्य-विधाता भाग्योदय-कर्त्ता भाग्य-लेखा भगवती भाग्येश्वरी ॐ ह्रीं।
कुतूहल-दर्शक, पूर्व-जन्म-दर्शक, भूत-वर्तमान-भविष्य-दर्शक, पुनर्जन्म-दर्शक, त्रिकाल-ज्ञान-प्रदर्शक, दैवी-ज्योतिष-महा-विद्या-भाषिणी त्रिपुरेश्वरी। अद्भुत, अपुर्व, अलौकिक, अनुपम, अद्वितीय, सामुद्रिक-विज्ञान-रहस्य-रागिनी, श्री-सिद्धि-दायिनी। सर्वोपरि सर्व-कौतुकानि दर्शय-दर्शय, हृदयेच्छित सर्व-इच्छा पूरय-पूरय ॐ स्वाहा।
ॐ नमो नारायणी नव-दुर्गेश्वरी। कमला, कमल-शायिनी, कर्ण-स्वर-दायिनी, कर्णेश्वरी, अगम्य-अदृश्य-अगोचर-अकल्प्य-अमोघ-अधारे, सत्य-वादिनी, आकर्षण-मुखी, अवनी-आकर्षिणी, मोहन-मुखी, महि-मोहिनी, वश्य-मुखी, विश्व-वशीकरणी, राज-मुखी, जग-जादूगरणी, सर्व-नर-नारी-मोहन-वश्य-कारिणी, मम करणे अवतर अवतर, नग्न-सत्य कथय-कथय।
अतीत अनाम वर्तनम्। मातृ मम नयने दर्शन। ॐ नमो श्रीकर्णेश्वरी देवी सुरा शक्ति-दायिनी। मम सर्वेप्सित-सर्व-कार्य-सिद्धि कुरु-कुरु स्वाहा। ॐ श्रीं ऐं ह्रीं क्लीं श्रीमहा-माया महा-शक्ति महा-लक्ष्मी महा-देव्यै विच्चे-विच्चे श्रीमहा-देवी महा-लक्ष्मी महा-माया महा-शक्त्यै क्लीं ह्रीं ऐं श्रीं ॐ।
ॐ श्रीपारिजात-पुष्प-गुच्छ-धरिण्यै नमः। ॐ श्री ऐरावत-हस्ति-वाहिन्यै नमः। ॐ श्री कल्प-वृक्ष-फल-भक्षिण्यै नमः। ॐ श्री काम-दुर्गा पयः-पान-कारिण्यै नमः। ॐ श्री नन्दन-वन-विलासिन्यै नमः। ॐ श्री सुर-गंगा-जल-विहारिण्यै नमः। ॐ श्री मन्दार-सुमन-हार-शोभिन्यै नमः। ॐ श्री देवराज-हंस-लालिन्यै नमः। ॐ श्री अष्ट-दल-कमल-यन्त्र-रुपिण्यै नमः। ॐ श्री वसन्त-विहारिण्यै नमः। ॐ श्री सुमन-सरोज-निवासिन्यै नमः। ॐ श्री कुसुम-कुञ्ज-भोगिन्यै नमः। ॐ श्री पुष्प-पुञ्ज-वासिन्यै नमः। ॐ श्री रति-रुप-गर्व-गञ्हनायै नमः। ॐ श्री त्रिलोक-पालिन्यै नमः। ॐ श्री स्वर्ग-मृत्यु-पाताल-भूमि-राज-कर्त्र्यै नमः।
श्री लक्ष्मी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीशक्ति-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीदेवी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्री रसेश्वरी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्री ऋद्धि-यन्त्रेभ्यो नमः। श्री सिद्धि-यन्त्रेभ्यो नमः। श्री कीर्तिदा-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीप्रीतिदा-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीइन्दिरा-यन्त्रेभ्यो नमः। श्री कमला-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीहिरण्य-वर्णा-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीरत्न-गर्भा-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीसुवर्ण-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीसुप्रभा-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीपङ्कनी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीराधिका-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीपद्म-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीरमा-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीलज्जा-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीजया-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीपोषिणी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीसरोजिनी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीहस्तिवाहिनी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीगरुड़-वाहिनी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीसिंहासन-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीकमलासन-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीरुष्टिणी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीपुष्टिणी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीतुष्टिनी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीवृद्धिनी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीपालिनी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीतोषिणी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीरक्षिणी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीवैष्णवी-यन्त्रेभ्यो नमः।
श्रीमानवेष्टाभ्यो नमः। श्रीसुरेष्टाभ्यो नमः। श्रीकुबेराष्टाभ्यो नमः। श्रीत्रिलोकीष्टाभ्यो नमः। श्रीमोक्ष-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीभुक्ति-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीकल्याण-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीनवार्ण-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीअक्षस्थान-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीसुर-स्थान-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीप्रज्ञावती-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीपद्मावती-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीशंख-चक्र-गदा-पद्म-धरा-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीमहा-लक्ष्मी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीलक्ष्मी-नारायण-यन्त्रेभ्यो नमः। ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं श्रीं श्रीमहा-माया-महा-देवी-महा-शक्ति-महा-लक्ष्मी-स्वरुपा-श्रीसर्व-कामना-सिद्धि महा-यन्त्र-देवताभ्यो नमः।
ॐ विष्णु-पत्नीं, क्षमा-देवीं, माध्वीं च माधव-प्रिया। लक्ष्मी-प्रिय-सखीं देवीं, नमाम्यच्युत-वल्लभाम्। ॐ महा-लक्ष्मी च विद्महे विष्णु-पत्नि च धीमहि, तन्नो लक्ष्मी प्रचोदयात्। मम सर्व-कार्य-सिद्धिं कुरु-कुरु स्वाहा।

श्री दुर्गा सप्तशति बीज मंत्र साधना

श्री दुर्गा सप्तशति बीज मंत्र साधना

प्रथमचरित्र
ॐ अस्य श्री प्रथमचरित्रस्य ब्रह्मा रूषिः महाकाली देवता गायत्री छन्दः नन्दा शक्तिः रक्तदन्तिका बीजम् अग्निस्तत्त्वम् रूग्वेद स्वरूपम् श्रीमहाकाली प्रीत्यर्थे प्रथमचरित्र जपे विनियोगः|
(१) श्रीं ह्रीं क्लीं श्रीं प्रीं ह्रां ह्रीं सौं प्रें म्रें ल्ह्रीं म्लीं स्त्रीं क्रां स्ल्हीं क्रीं चां भें क्रीं वैं ह्रौं युं जुं हं शं रौं यं विं वैं चें ह्रीं क्रं सं कं श्रीं त्रों स्त्रां ज्यैं रौं द्रां द्रों ह्रां द्रूं शां म्रीं श्रौं जूं ल्ह्रूं श्रूं प्रीं रं वं व्रीं ब्लूं स्त्रौं ब्लां लूं सां रौं हसौं क्रूं शौं श्रौं वं त्रूं क्रौं क्लूं क्लीं श्रीं व्लूं ठां ठ्रीं स्त्रां स्लूं क्रैं च्रां फ्रां जीं लूं स्लूं नों स्त्रीं प्रूं स्त्रूं ज्रां वौं ओं श्रौं रीं रूं क्लीं दुं ह्रीं गूं लां ह्रां गं ऐं श्रौं जूं डें श्रौं छ्रां क्लीं
।। हूं श्रीं ह्रीं वज्र वैरोचनीयै हूं हूं फट स्वाहा: ऐं ।।
|ॐ श्री दुर्गार्पणमस्तु||ॐ श्री महाविद्यार्पणमस्तु ||
मध्यमचरित्र
ॐ अस्य श्री मध्यमचरित्रस्य विष्णुर्रूषिः महालक्ष्मीर्देवता उष्णिक छन्दः शाकम्भरी शक्तिः दुर्गा बीजम् वायुस्तत्त्वम् यजुर्वेदः स्वरूपम् श्रीमहालक्ष्मी प्रीत्यर्थे मध्यमचरित्र जपे विनियोगः
(२) श्रौं श्रीं ह्सूं हौं ह्रीं अं क्लीं चां मुं डां यैं विं च्चें ईं सौं व्रां त्रौं लूं वं ह्रां क्रीं सौं यं ऐं मूं सः हं सं सों शं हं ह्रौं म्लीं यूं त्रूं स्त्रीं आं प्रें शं ह्रां स्मूं ऊं गूं व्र्यूं ह्रूं भैं ह्रां क्रूं मूं ल्ह्रीं श्रां द्रूं द्व्रूं ह्सौं क्रां स्हौं म्लूं श्रीं गैं क्रूं त्रीं क्ष्फीं क्सीं फ्रों ह्रीं शां क्ष्म्रीं रों डुं•
।। हूं श्रीं ह्रीं वज्र वैरोचनीयै हूं हूं फट स्वाहा: ऐं ।।
|ॐ श्री दुर्गार्पणमस्तु||ॐ श्री महाविद्यार्पणमस्तु ||
(३) श्रौं क्लीं सां त्रों प्रूं ग्लौं क्रौं व्रीं स्लीं ह्रीं हौं श्रां ग्रीं क्रूं क्रीं यां द्लूं द्रूं क्षं ह्रीं क्रौं क्ष्म्ल्रीं वां श्रूं ग्लूं ल्रीं प्रें हूं ह्रौं दें नूं आं फ्रां प्रीं दं फ्रीं ह्रीं गूं श्रौं सां श्रीं जुं हं सं
।। हूं श्रीं ह्रीं वज्र वैरोचनीयै हूं हूं फट स्वाहा: ऐं ।।
|ॐ श्री दुर्गार्पणमस्तु||ॐ श्री महाविद्यार्पणमस्तु ||
(४) श्रौं सौं दीं प्रें यां रूं भं सूं श्रां औं लूं डूं जूं धूं त्रें ल्हीं श्रीं ईं ह्रां ल्ह्रूं क्लूं क्रां लूं फ्रें क्रीं म्लूं घ्रें श्रौं ह्रौं व्रीं ह्रीं त्रौं हलौं गीं यूं ल्हीं ल्हूं श्रौं ओं अं म्हौं प्रीं
।। हूं श्रीं ह्रीं वज्र वैरोचनीयै हूं हूं फट स्वाहा: ऐं ।।
|ॐ श्री दुर्गार्पणमस्तु||ॐ श्री महाविद्यार्पणमस्तु ||
उत्तमचरित्र
ॐ अस्य श्री उत्तरचरित्रस्य रुद्र रूषिः महासरस्वती देवता अनुष्टुप् छन्दः भीमा शक्तिः भ्रामरी बीजम सूर्यस्तत्त्वम सामवेदः स्वरूपम श्री महासरस्वती प्रीत्यर्थे उत्तरचरित्र जपे विनियोगः
(५) श्रौं प्रीं ओं ह्रीं ल्रीं त्रों क्रीं ह्लौं ह्रीं श्रीं हूं क्लीं रौं स्त्रीं म्लीं प्लूं ह्सौं स्त्रीं ग्लूं व्रीं सौः लूं ल्लूं द्रां क्सां क्ष्म्रीं ग्लौं स्कं त्रूं स्क्लूं क्रौं च्छ्रीं म्लूं क्लूं शां ल्हीं स्त्रूं ल्लीं लीं सं लूं हस्त्रूं श्रूं जूं हस्ल्रीं स्कीं क्लां श्रूं हं ह्लीं क्स्त्रूं द्रौं क्लूं गां सं ल्स्त्रां फ्रीं स्लां ल्लूं फ्रें ओं स्म्लीं ह्रां ऊं ल्हूं हूं नं स्त्रां वं मं म्क्लीं शां लं भैं ल्लूं हौं ईं चें क्ल्रीं ल्ह्रीं क्ष्म्ल्रीं पूं श्रौं ह्रौं भ्रूं क्स्त्रीं आं क्रूं त्रूं डूं जां ल्ह्रूं फ्रौं क्रौं किं ग्लूं छ्रंक्लीं रं क्सैं स्हुं श्रौं श्रीं ओं लूं ल्हूं ल्लूं स्क्रीं स्स्त्रौं स्भ्रूं क्ष्मक्लीं व्रीं सीं भूं लां श्रौं स्हैं ह्रीं श्रीं फ्रें रूं च्छ्रूं ल्हूं कं द्रें श्रीं सां ह्रौं ऐं स्कीं
।। हूं श्रीं ह्रीं वज्र वैरोचनीयै हूं हूं फट स्वाहा: ऐं ।।
|ॐ श्री दुर्गार्पणमस्तु||ॐ श्री महाविद्यार्पणमस्तु ||
(६) श्रौं ओं त्रूं ह्रौं क्रौं श्रौं त्रीं क्लीं प्रीं ह्रीं ह्रौं श्रौं अरैं अरौं श्रीं क्रां हूं छ्रां क्ष्मक्ल्रीं ल्लुं सौः ह्लौं क्रूं सौं
।। हूं श्रीं ह्रीं वज्र वैरोचनीयै हूं हूं फट स्वाहा: ऐं ।।
|ॐ श्री दुर्गार्पणमस्तु||ॐ श्री महाविद्यार्पणमस्तु ||
(७) श्रौं कुं ल्हीं ह्रं मूं त्रौं ह्रौं ओं ह्सूं क्लूं क्रें नें लूं ह्स्लीं प्लूं शां स्लूं प्लीं प्रें अं औं म्ल्रीं श्रां सौं श्रौं प्रीं हस्व्रीं
।। हूं श्रीं ह्रीं वज्र वैरोचनीयै हूं हूं फट स्वाहा: ऐं ।।
|ॐ श्री दुर्गार्पणमस्तु||ॐ श्री महाविद्यार्पणमस्तु ||
(८) श्रौं म्हल्रीं प्रूं एं क्रों ईं एं ल्रीं फ्रौं म्लूं नों हूं फ्रौं ग्लौं स्मौं सौं स्हों श्रीं ख्सें क्ष्म्लीं ल्सीं ह्रौं वीं लूं व्लीं त्स्त्रों ब्रूं श्क्लीं श्रूं ह्रीं शीं क्लीं फ्रूं क्लौं ह्रूं क्लूं तीं म्लूं हं स्लूं औं ल्हौं श्ल्रीं यां थ्लीं ल्हीं ग्लौं ह्रौं प्रां क्रीं क्लीं न्स्लुं हीं ह्लौं ह्रैं भ्रं सौं श्रीं प्सूं द्रौं स्स्त्रां ह्स्लीं स्ल्ल्रीं
।। हूं श्रीं ह्रीं वज्र वैरोचनीयै हूं हूं फट स्वाहा: ऐं ।।
|ॐ श्री दुर्गार्पणमस्तु||ॐ श्री महाविद्यार्पणमस्तु ||
(९) रौं क्लीं म्लौं श्रौं ग्लीं ह्रौं ह्सौं ईं ब्रूं श्रां लूं आं श्रीं क्रौं प्रूं क्लीं भ्रूं ह्रौं क्रीं म्लीं ग्लौं ह्सूं प्लीं ह्रौं ह्स्त्रां स्हौं ल्लूं क्स्लीं श्रीं स्तूं च्रें वीं क्ष्लूं श्लूं क्रूं क्रां स्क्ष्लीं भ्रूं ह्रौं क्रां फ्रूं
।। हूं श्रीं ह्रीं वज्र वैरोचनीयै हूं हूं फट स्वाहा: ऐं ।।
|ॐ श्री दुर्गार्पणमस्तु||ॐ श्री महाविद्यार्पणमस्तु ||
(१०) श्रौं ह्रीं ब्लूं ह्रीं म्लूं ह्रं ह्रीं ग्लीं श्रौं धूं हुं द्रौं श्रीं त्रों व्रूं फ्रें ह्रां जुं सौः स्लौं प्रें हस्वां प्रीं फ्रां क्रीं श्रीं क्रां सः क्लीं व्रें इं ज्स्हल्रीं
।। हूं श्रीं ह्रीं वज्र वैरोचनीयै हूं हूं फट स्वाहा: ऐं ।।
|ॐ श्री दुर्गार्पणमस्तु||ॐ श्री महाविद्यार्पणमस्तु ||
(११) श्रौं क्रूं श्रीं ल्लीं प्रें सौः स्हौं श्रूं क्लीं स्क्लीं प्रीं ग्लौं ह्स्ह्रीं स्तौं लीं म्लीं स्तूं ज्स्ह्रीं फ्रूं क्रूं ह्रौं ल्लूं क्ष्म्रीं श्रूं ईं जुं त्रैं द्रूं ह्रौं क्लीं सूं हौं श्व्रं ब्रूं स्फ्रूं ह्रीं लं ह्सौं सें ह्रीं ल्हीं विं प्लीं क्ष्म्क्लीं त्स्त्रां प्रं म्लीं स्त्रूं क्ष्मां स्तूं स्ह्रीं थ्प्रीं क्रौं श्रां म्लीं
।। हूं श्रीं ह्रीं वज्र वैरोचनीयै हूं हूं फट स्वाहा: ऐं ।।
|ॐ श्री दुर्गार्पणमस्तु||ॐ श्री महाविद्यार्पणमस्तु ||
(१२) ह्रीं ओं श्रीं ईं क्लीं क्रूं श्रूं प्रां स्क्रूं दिं फ्रें हं सः चें सूं प्रीं ब्लूं आं औं ह्रीं क्रीं द्रां श्रीं स्लीं क्लीं स्लूं ह्रीं व्लीं ओं त्त्रों श्रौं ऐं प्रें द्रूं क्लूं औं सूं चें ह्रूं प्लीं क्षीं
।। हूं श्रीं ह्रीं वज्र वैरोचनीयै हूं हूं फट स्वाहा: ऐं ।।
|ॐ श्री दुर्गार्पणमस्तु||ॐ श्री महाविद्यार्पणमस्तु ||
(१३) श्रौं व्रीं ओं औं ह्रां श्रीं श्रां ओं प्लीं सौं ह्रीं क्रीं ल्लूं ह्रीं क्लीं प्लीं श्रीं ल्लीं श्रूं ह्रूं ह्रीं त्रूं ऊं सूं प्रीं श्रीं ह्लौं आं ओं ह्रीं
।। हूं श्रीं ह्रीं वज्र वैरोचनीयै हूं हूं फट स्वाहा: ऐं ।।
|ॐ श्री दुर्गार्पणमस्तु||ॐ श्री महाविद्यार्पणमस्तु ||
दुर्गा दुर्गर्तिशमनी दुर्गापद्विनिवारिणी | दुर्गमच्छेदिनी दुर्गसाधिनी दुर्गनाशिनी ||
दुर्गतोद्धारिणी दुर्गनिहन्त्री दुर्गमापहा | दुर्गमग्यानदा दुर्गदैत्यलोकदवानला ||
दुर्गमा दुर्गमालोका दुर्गमात्मस्वरूपिणी | दुर्गमार्गप्रदा दुर्गमविद्या दुर्गमाश्रिता ||
दुर्गमग्यानसंस्थाना दुर्गमध्यानभासिनी | दुर्गमोहा दुर्गमगा दुर्गमार्थस्वरूपिणी ||
दुर्गमासुरसंहन्त्री दुर्गमायुधधारिणी | दुर्गमाँगी दुर्गमता दुर्गम्या दुर्गमेश्वरी ||
दुर्गभीमा दुर्गभामा दुर्गभा दुर्गदारिणी ||
|ॐ नमश्चण्डिकायै|||ॐ श्री दुर्गार्पणमस्तु||ॐ श्री महाविद्यार्पणमस्तु ||

श्री सिद्ध सरस्वती स्तोत्रम्

श्री सिद्ध सरस्वती स्तोत्रम्


श्री सिद्ध सरस्वती स्तोत्र विद्यार्थी वर्ग सहित प्रत्येक वर्ग के लिए अत्यंत उपयोगी सिद्ध हुआ है।

इसके विधिवत अनुष्ठान-पाठ से भगवती शारदा की महती कृपा प्राप्ति के साथ-साथ व्यक्ति वाग्वैभव सपन्न, वाक्पटु हो जाता है, उसके समस्त बुद्धिगत विकार नष्ट होकर शुद्ध-बुद्धि की प्राप्ति होती है।

विद्यार्थी वर्ग के अध्ययन में आने वाले समस्त अवरोध समाप्त हो जाते है। भगवती सरस्वती उसका पुत्रवत पालन व रक्षा करती है। यह सब इस स्तोत्र कि फलश्रुति से स्पष्ट हो जाता है।

पाठ विधि

प्रातः काल सूर्योदय से पूर्व स्नानादि पूर्ण कर, प्रारंभिक पूजा-अर्चना, संकल्पादि करने के पश्चात् हाथ में जल लेकर विनियोग करें -

ॐ अस्य श्रीसरस्वतीस्तोत्रमन्त्रस्य । ब्रह्मा ऋषिः । गायत्री छन्दः । श्रीसरस्वती देवता । धर्मार्थकाममोक्षार्थे जपे विनियोगः ।

जल को भगवती के वाम भाग की ओर भूमि पर गिरा दे।

पश्चात् भगवती का पञ्चोपचार से पूजन कर इस दिव्य स्तोत्र का ( वसंत पञ्चमी ९ फरवरी २०१९ शनिवार ) से प्रतिदिन विषम संख्या में ( १-३-५-७ आदि क्रम का निर्धारण कर ) पाठ करे व मास की दोनों त्रयोदशी को ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए, सात्विक भोजन एक ही बार ग्रहण करें। तथा २१ पाठ करे। यह क्रम अगली वसंत पञ्चमी तक रहेगा। एक वर्ष में आप स्वयं परिवर्तन अनुभव करें।

श्री सिद्ध सरस्वती स्तोत्रम्

आरूढा श्वेतहंसे भ्रमति च गगने दक्षिणे चाक्षसूत्रं
वामे हस्ते च दिव्याम्बरकनकमयं पुस्तकं ज्ञानगम्या ।
सा वीणां वादयन्ती स्वकरकरजपैः शास्त्रविज्ञानशब्दैः
क्रीडन्ती दिव्यरूपा करकमलधरा भारती सुप्रसन्ना ॥ १॥

श्वेतपद्मासना देवी श्वेतगन्धानुलेपना ।
अर्चिता मुनिभिः सर्वैः ऋर्षिभिः स्तूयते सदा ।
एवं ध्यात्वा सदा देवीं वाञ्छितं लभते नरः ॥ २॥

शुक्लां ब्रह्मविचारसारपरमामाद्यां जगद्व्यापिनीं
वीणापुस्तकधारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम् ।
हस्ते स्फाटिकमालिकां विदधतीं पद्मासने संस्थितां
वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम् ॥ ३॥

या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना ।
या ब्रह्माच्युतशङ्करप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा ॥ ४॥

ह्रीं ह्रीं हृद्यैकबीजे शशिरुचिकमले कल्पविस्पष्टशोभे
भव्ये भव्यानुकूले कुमतिवनदवे विश्ववन्द्यांघ्रिपद्मे ।
पद्मे पद्मोपविष्टे प्रणतजनमनोमोदसम्पादयित्रि
प्रोत्फुल्लज्ञानकूटे हरिनिजदयिते देवि संसारसारे ॥ ५॥

ऐं ऐं ऐं दृष्टमन्त्रे कमलभवमुखाम्भोजभूतस्वरूपे
रूपारूपप्रकाशे सकलगुणमये निर्गुणे निर्विकारे ।
न स्थूले नैव सूक्ष्मेऽप्यविदितविभवे नापि विज्ञानतत्वे
विश्वे विश्वान्तरात्मे सुरवरनमिते निष्कले नित्यशुद्धे ॥ ६॥

ह्रीं ह्रीं ह्रीं जाप्यतुष्टे हिमरुचिमुकुटे वल्लकीव्यग्रहस्ते
मातर्मातर्नमस्ते दह दह जडतां देहि बुद्धिं प्रशस्ताम् ।
विद्ये वेदान्तवेद्ये परिणतपठिते मोक्षदे मुक्तिमार्गे ।
मार्गातीतस्वरूपे भव मम वरदा शारदे शुभ्रहारे ॥ ७॥

धीं धीं धीं धारणाख्ये धृतिमतिनतिभिर्नामभिः कीर्तनीये
नित्येऽनित्ये निमित्ते मुनिगणनमिते नूतने वै पुराणे ।
पुण्ये पुण्यप्रवाहे हरिहरनमिते नित्यशुद्धे सुवर्णे
मातर्मात्रार्धतत्वे मतिमति मतिदे माधवप्रीतिमोदे ॥ ८॥

ह्रूं ह्रूं ह्रूं स्वस्वरूपे दह दह दुरितं पुस्तकव्यग्रहस्ते
सन्तुष्टाकारचित्ते स्मितमुखि सुभगे जृम्भिणि स्तम्भविद्ये ।
मोहे मुग्धप्रवाहे कुरु मम विमतिध्वान्तविध्वंसमीडे
गीर्गौर्वाग्भारति त्वं कविवररसनासिद्धिदे सिद्धिसाध्ये ॥ ९॥

स्तौमि त्वां त्वां च वन्दे मम खलु रसनां नो कदाचित्त्यजेथा
मा मे बुद्धिर्विरुद्धा भवतु न च मनो देवि मे यातु पापम् ।
मा मे दुःखं कदाचित्क्वचिदपि विषयेऽप्यस्तु मे नाकुलत्वं
शास्त्रे वादे कवित्वे प्रसरतु मम धीर्मास्तु कुण्ठा कदापि ॥ १०॥

इत्येतैः श्लोकमुख्यैः प्रतिदिनमुषसि स्तौति यो भक्तिनम्रो
वाणी वाचस्पतेरप्यविदितविभवो वाक्पटुर्मृष्टकण्ठः ।
सः स्यादिष्टाद्यर्थलाभैः सुतमिव सततं पातितं सा च देवी
सौभाग्यं तस्य लोके प्रभवति कविता विघ्नमस्तं व्रयाति ॥ ११॥

र्निविघ्नं तस्य विद्या प्रभवति सततं चाश्रुतग्रन्थबोधः
कीर्तिस्रैलोक्यमध्ये निवसति वदने शारदा तस्य साक्षात् ।
दीर्घायुर्लोकपूज्यः सकलगुणनिधिः सन्ततं राजमान्यो
वाग्देव्याः सम्प्रसादात्त्रिजगति विजयी जायते सत्सभासु ॥ १२॥

ब्रह्मचारी व्रती मौनी त्रयोदश्यां निरामिषः ।
सारस्वतो जनः पाठात्सकृदिष्टार्थलाभवान् ॥ १३॥

पक्षद्वये त्रयोदश्यामेकविंशतिसंख्यया ।
अविच्छिन्नः पठेद्धीमान्ध्यात्वा देवीं सरस्वतीम् ॥ १४॥

सर्वपापविनिर्मुक्तः सुभगो लोकविश्रुतः ।
वाञ्छितं फलमाप्नोति लोकेऽस्मिन्नात्र संशयः ॥ १५॥

ब्रह्मणेति स्वयं प्रोक्तं सरस्वत्याः स्तवं शुभम् ।
प्रयत्नेन पठेन्नित्यं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥ १६॥

॥ इति श्रीमद्ब्रह्मणा विरचितं सरस्वतीस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

पाठ करने के पश्चात् हाथ में जल लेकर भगवती के वामांग में निवेदित कर दे। क्षमा प्रार्थना कर प्रसन्न मन से अपने कर्तव्य कर्म को पूरा करें।

कल्याणवृष्टिस्तवः

॥ कल्याणवृष्टिस्तवः 

कल्याणवृष्टिभिरिवामृतपूरिताभि-
र्लक्ष्मीस्वयंवरणमङ्गलदीपिकाभिः ।
सेवाभिरम्ब तव पादसरोजमूले
नाकारि किं मनसि भाग्यवतां जनानाम् ॥ १॥
एतावदेव जननि स्पृहणीयमास्ते
त्वद्वन्दनेषु सलिलस्थगिते च नेत्रे ।
सान्निध्यमुद्यदरुणायुतसोदरस्य
त्वद्विग्रहस्य परया सुधयाप्लुतस्य ॥ २॥
ईशात्वनामकलुषाः कति वा न सन्ति
ब्रह्मादयः प्रतिभवं प्रलयाभिभूताः ।
एकः स एव जननि स्थिरसिद्धिरास्ते
यः पादयोस्तव सकृत्प्रणतिं करोति ॥ ३॥
लब्ध्वा सकृत्त्रिपुरसुन्दरि तावकीनं
कारुण्यकन्दलितकान्तिभरं कटाक्षम् ।
कन्दर्पकोटिसुभगास्त्वयि भक्तिभाजः
संमोहयन्ति तरुणीर्भुवनत्रयेऽपि ॥ ४॥
ह्रींकारमेव तव नाम गृणन्ति वेदा
मातस्त्रिकोणनिलये त्रिपुरे त्रिनेत्रे ।
त्वत्संस्मृतौ यमभटाभिभवं विहाय
दीव्यन्ति नन्दनवने सह लोकपालैः ॥ ५॥
हन्तुः पुरामधिगलं परिपीयमानः
क्रूरः कथं न भविता गरलस्यवेगः ।
नाश्वासनाय यदि मातरिदं तवार्धं
देवस्य शश्वदमृताप्लुतशीतलस्य ॥ ६॥
सर्वज्ञतां सदसि वाक्पटुतां प्रसूते
देवि त्वदङ्घ्रिसरसीरुहयोः प्रणामः ।
किं च स्फुरन्मुकुटमुज्ज्वलमातपत्रं
द्वे चामरे च महतीं वसुधां ददाति ॥ ७॥
कल्पद्रुमैरभिमतप्रतिपादनेषु
कारुण्यवारिधिभिरम्ब भवत्कटाक्षैः ।
आलोकय त्रिपुरसुन्दरि मामनाथं
त्वय्येव भक्तिभरितं त्वयि बद्धतृष्णम् ॥ ८॥
हन्तेतरेष्वपि मनांसि निधाय चान्ये
भक्तिं वहन्ति किल पामरदैवतेषु ।
त्वामेव देवि मनसा समनुस्मरामि
त्वामेव नौमि शरणं जननि त्वमेव ॥ ९॥
लक्ष्येषु सत्स्वपि कटाक्षनिरीक्षणाना-
मालोकय त्रिपुरसुन्दरि मां कदाचित् ।
नूनं मया तु सदृशः करुणैकपात्रं
जातो जनिष्यति जनो न च जायते वा ॥ १०॥
ह्रींह्रीमिति प्रतिदिनं जपतां तवाख्यां
किं नाम दुर्लभमिहत्रिपुराधिवासे ।
मालाकिरीटमदवारणमाननीया
तान्सेवते वसुमती स्वयमेव लक्ष्मीः ॥ ११॥
सम्पत्कराणि सकलेन्द्रियनन्दनानि
साम्राज्यदाननिरतानि सरोरुहाक्षि ।
त्वद्वन्दनानि दुरिताहरणोद्यतानि
मामेव मातरनिशं कलयन्तु नान्यम् ॥ १२॥
कल्पोपसंहृतिषु कल्पितताण्डवस्य
देवस्य खण्डपरशोः परभैरवस्य ।
पाशाङ्कुशैक्षवशरासनपुष्पबाणा
सा साक्षिणी विजयते तव मूर्तिरेका ॥ १३॥
लग्नं सदा भवतु मातरिदं तवार्धं
तेजः परं बहुलकुङ्कुम पङ्कशोणम् ।
भास्वत्किरीटममृतांशुकलावतंसं
मध्ये त्रिकोणनिलयं परमामृतार्द्रम् ॥ १४॥
ह्रींकारमेव तव नाम तदेव रूपं
त्वन्नाम दुर्लभमिह त्रिपुरे गृणन्ति ।
त्वत्तेजसा परिणतं वियदादिभूतं
सौख्यं तनोति सरसीरुहसम्भवादेः ॥ १५॥
ह्रींकारत्रयसम्पुटेन महता मन्त्रेण सन्दीपितं
स्तोत्रं यः प्रतिवासरं तव पुरो मातर्जपेन्मन्त्रवित् ।
तस्य क्षोणिभुजो भवन्ति वशगा लक्ष्मीश्चिरस्थायिनी
वाणी निर्मलसूक्तिभारभरिता जागर्ति दीर्घं वयः ॥ १६॥
इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य
श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य
श्रीमच्छङ्करभगवतः कृतौ
कल्याणवृष्टिस्तवः सम्पूर्णः ॥

गायत्री गुप्त मन्त्र और सम्पुट

गायत्री गुप्त मन्त्र और सम्पुट



गायत्री मन्त्र के साथ कौन सा सम्पुट लगाने पर क्या फल मिलता है!!

ॐ भूर्भुव: स्व : ॐ ह्रीं तत्सवितुर्वरेण्यं ॐ
श्रीं भर्गो देवस्य धीमहि ॐ क्लीं धियो यो न: प्रचोदयात ॐ नम:! ॐ भूर्भुव: स्व : ॐ ह्रीं तत्सवितुर्वरेण्यं ॐ श्रीं भर्गो देवस्य धीमहि ॐ क्लीं धियो यो न: प्रचोदयात ॐ नम:! ॐ भूर्भुव: स्व : ॐ ऐं तत्सवितुर्वरेण्यं ॐ क्लीं भर्गो देवस्य
धीमहि ॐ सौ: धियो यो न: प्रचोदयात
ॐ नम:! ॐ श्रीं ह्रीं ॐ भूर्भुव:
स्व: ॐ ऐं ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं ॐ क्लीं ॐ भर्गोदेवस्य धीमहि ॐ सौ: ॐ धियो यो न: प्रचोदयात ॐ ह्रीं श्रीं ॐ !!

गायत्री जपने का अधिकार जिसे नहीं है वे निचे लिखे मन्त्र का जप करें!

ह्रीं यो देव: सविताSस्माकं मन: प्राणेन्द्रियक्रिया:!
प्रचोदयति तदभर्गं वरेण्यं समुपास्महे !!

सम्पुट प्रयोग
〰〰〰〰
गायत्री मन्त्र के आसपास कुछ बीज मन्त्रों का सम्पुट लगाने का भी विधान है जिनसे विशिष्ट कार्यों की सिद्धि होती है ! बीज मन्त्र इस प्रकार हैं----

१- ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं --- का सम्पुट लगाने से
लक्ष्मी की प्राप्ति होती है!

२- ॐ ऐं क्लीं सौ:-- का सम्पुट लगाने से
विद्या प्राप्ति होती है!

३-- ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं --
का सम्पुट लगाने से संतान प्राप्ति, वशीकरण और मोहन होता है!

४-- ॐ ऐं ह्रीं क्लीं -- का सम्पुट के
प्रयोग से शत्रु उपद्रव, समस्त विघ्न बाधाएं और संकट दूर होकर भाग्योदय होता है!

५-- ॐ ह्रीं --- इस सम्पुट के प्रयोग से रोग नाश होकर सब प्रकार के ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है!

६-- ॐ आँ ह्रीं क्लीं -- इस सम्पुट के प्रयोग से पास के द्रव्य की रक्षा होकर
उसकी वृद्धि होती है तथा इच्छित वस्तु की प्राप्ति होती है! इसी प्रकार किसी भी मन्त्र की सिद्धि और विशिष्ट कार्य की शीघ्र सिद्धि के लिए भी दुर्गा सप्तशती के मन्त्रों के साथ सम्पुट देने का भी विधान है! गायत्री मन्त्र समस्त मन्त्रों का मूल है तथा यह आध्यात्मिक शान्ति देने वाले हैं!!

गायत्री शताक्षरी मन्त्र
〰〰〰〰〰〰
" ॐ भूर्भुव: स्व : तत्सवितुर्वरेण्यं, भर्गो देवस्य धीमहि! धियो यो न: प्रचोदयात! ॐ जातवेदसे सुनवाम सोममराती यतो निदहाति वेद:! स न: पर्षदतिदुर्गाणि विश्वानावेव सिंधु दुरितात्यग्नि:!
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धि पुष्टिवर्धनम! उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात !!"

शास्त्र में कहा गया है कि गायत्री मन्त्र जपने से पहले गायत्री शताक्षरी मन्त्र
की एक माला अवश्य कर लेनी चाहीये! माला करने पर मन्त्र में चेतना आ जाती है!!

Tuesday, July 2, 2019

PURUSH SUKTAM WITH HINDI TRANSLATION पुरुष सूक्त हिंदी अनुवाद सहित

PURUSH SUKTAM WITH HINDI TRANSLATION पुरुष सूक्त हिंदी अनुवाद सहित



चातुर्मास में जो भगवन विष्णु के समक्ष पुरुष सूक्त का पाठ करता है उसकी बुद्धि बढ़ेगी | कैसा भी दबू विद्यार्थी हो बुद्धिमान बनेगा |

ॐ श्री गुरुभ्यो नमः

हरी ॐ

सहस्त्रशीर्षा पुरुष:सहस्राक्ष:सहस्रपात् |
स भूमि सर्वत: स्पृत्वाSत्यतिष्ठद्द्शाङ्गुलम् ||१||

जो सहस्रों सिरवाले, सहस्रों नेत्रवाले और सहस्रों चरणवाले विराट पुरुष हैं, वे सारे ब्रह्मांड को आवृत करके भी दस अंगुल शेष रहते हैं ||१||

पुरुषSएवेदं सर्व यद्भूतं यच्च भाव्यम् |
उतामृतत्यस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ||२||

जो सृष्टि बन चुकी, जो बननेवाली है, यह सब विराट पुरुष ही हैं | इस अमर जीव-जगत के भी वे ही स्वामी हैं और जो अन्न द्वारा वृद्धि प्राप्त करते हैं, उनके भी वे ही स्वामी हैं ||२||

एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः |
पादोSस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यावि ||३मृतं दि||

विराट पुरुष की महत्ता अति विस्तृत है | ç
1;स श्रेष्ठ पुरुष के एक चरण में सभी प्राणी हैं और तीन भाग अनंत अंतरिक्ष में स्थित हैं ||३||

त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुष:पादोSस्येहाभवत्पुनः |
ततो विष्वङ् व्यक्रामत्साशनानशनेSअभि ||४||

चार भागोंवाले विराट पुरुष के एक भाग में यह सारा संसार, जड़ और चेतन विविध रूपों में समाहित है | इसके तीन भाग अनंत अंतरिक्षमें समाये हुए हैं ||४||

ततो विराडजायत विराजोSअधि पूरुषः |
स जातोSअत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुर: ||५||

उस विराट पुरुष से यह ब्रह्मांड उत्पन्न हुआ | उस विराट से समष्टि जीव उत्पन्न हुए | वही देहधारी रूप में सबसे श्रेष्ठ हुआ, जिसने सबसे पहले पृथ्वी को, फिर शरीरधारियों को उत्पन्न किया ||५||

तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत: सम्भृतं पृषदाज्यम् |
पशूंस्न्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये ||६||

उस सर्वश्रेष्ठ विराट प्रकृति यज्ञ से दधियुक्त घृत प्राप्त हुआ(जिससे विराट पुरुष की पूजा होती है) | वायुदेव से संबंधित पशु हरिण, गौ, अश्वादि की उत्पत्ति उस विराट पुरुष के द्वारा ही हुई ||६||

तस्माद्यज्ञात् सर्वहुतSऋचः सामानि जज्ञिरे |
छन्दाँसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत ||७||

उस विराट यज्ञ पुरुष से ऋग्वेद एवं सामवेद का प्रकटीकरण हुआ | उसी से यजुर्वेद एवं अथर्ववेद का प्रादुर्भाव हुआ अर्थात् वेद की ऋचाओं का प्रकटीकरण हुआ ||७||

तस्मादश्वाSअजायन्त ये के चोभयादतः |
गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाताSअजावयः ||८||

उस विराट यज्ञ पुरुष से दोनों तरफ दाँतवाले घोड़े हुए और उसी विराट पुरुष से गौए, बकरिया और भेड़s आदि पशु भी उत्पन्न  हुए ||८||

तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पूरुषं जातमग्रत:|
तेन देवाSअयजन्त साध्याSऋषयश्च ये ||९||

मंत्रद्रष्टा ऋषियों एवं योगाभ्यासियों ने सर्वप्रथम प्रकट हुए पूजनीय विराट पुरुष को यज्ञ (सृष्टि के पूर्व विद्यमान महान ब्रह्मांड रूपयज्ञ अर्थात् सृष्टि यज्ञ) में अभिषिक्त करके उसी यज्ञरूप परम पुरुष से ही यज्ञ (आत्मयज्ञ ) का प्रादुर्भाव किया ||९||

यत्पुरुषं व्यदधु: कतिधा व्यकल्पयन् |
मुखं किमस्यासीत् किं बाहू किमूरू पादाSउच्येते ||१०||

संकल्प द्वारा प्रकट हुए जिस विराट पुरुष का, ज्ञानीजन विविध प्रकार से वर्णन करते हैं, वे उसकी कितने प्रकार से कल्पना करते हैं ? उसका मुख क्या है ? भुजा, जाघें और पाँव कौन-से हैं ? शरीर-संरचना में वह पुरुष किस प्रकार पूर्ण बना ? ||१०||

ब्राह्मणोSस्य मुखमासीद् बाहू राजन्य: कृत: |
ऊरू तदस्य यद्वैश्य: पद्भ्या शूद्रोSअजायत ||११||

विराट पुरुष का मुख ब्राह्मण अर्थात् ज्ञानी (विवेकवान) जन हुए | क्षत्रिय अर्थात पराक्रमी व्यक्ति, उसके शरीर में विद्यमान बाहुओं के समान हैं | वैश्य अर्थात् पोषणशक्ति-सम्पन्न व्यक्ति उसके जंघा एवं सेवाधर्मी व्यक्ति उसके पैर हुए ||११||

चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षो: सूर्यो अजायत |
श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत ||१२||

विराट पुरुष परमात्मा के मन से चन्द्रमा, नेत्रों से सूर्य, कर्ण से वायु एवं प्राण तथा मुख से अग्नि का प्रकटीकरण हुआ ||१२||

नाभ्याSआसीदन्तरिक्ष शीर्ष्णो द्यौः समवर्त्तत |
पद्भ्यां भूमिर्दिश: श्रोत्रात्तथा लोकांर्Sअकल्पयन् ||१३||

विराट पुरुष की नाभि से अंतरिक्ष, सिर से द्युलोक, पाँवों से भूमि तथा कानों से दिशाएँ प्रकट हुईं | इसी प्रकार (अनेकानेक) लोकों को कल्पित किया गया है (रचा गया है) ||१३||

यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत |
वसन्तोSस्यासीदाज्यं ग्रीष्मSइध्म: शरद्धवि: ||१४||

जब देवों ने विराट पुरुष रूप को हवि मानकर यज्ञ का शुभारम्भ किया, तब घृत वसंत ऋतु, ईंधन(समिधा) ग्रीष्म ऋतु एवं हवि शरद ऋतु हुई ||१४||

सप्तास्यासन् परिधयस्त्रि: सप्त: समिध: कृता:|
देवा यद्यज्ञं तन्वानाSअबध्नन् पुरुषं पशुम् ||१५||

देवों ने जिस यज्ञ का विस्तार किया, उसमें विराट पुरुष को ही पशु (हव्य) रूप की भावना से बाँधा (नियुक्त किया), उसमें यज्ञ की सात परिधियाँ (सात समुद्र) एवं इक्कीस (छंद) समिधाएँ हुईं ||१५||

यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् |
ते ह नाकं महिमान: सचन्त यत्र पूर्वे साध्या: सन्ति देवा: ||१६||

आदिश्रेष्ठ धर्मपरायण देवों ने, यज्ञ से यज्ञरूप विराट सत्ता का यजन किया | यज्ञीय जीवन जीनेवाले धार्मिक महात्माजन पूर्वकाल के साध्य देवताओं के निवास, स्वर्गलोक को प्राप्त करते हैं ||१६||



चातुर्मास का अर्थ है चार महीने । आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक के चार मास का समय चातुर्मास कहलाता है । शास्त्रों में इस दौरान आने वाले सावन, भादौ, आश्विन और कार्तिक मास में खान-पान और व्रत के नियम और संयम बताए गए हैं । इनमें स्वेच्छा से नियमित उपयोग के पदार्थों का त्याग एवं ग्रहण करने का विधान है । जैसे मधुर स्वर के लिये गुड़, लंबी उम्र एवं संतान प्राप्ति के लिये तेल, शत्रु बाधा से मुक्ति के लिये कड़वा तेल, सौभाग्य के लिये मीठा तेल आदि का त्याग किया जाता है । 

धर्मग्रंथों के अनुसार आषाढ मास के शुक्लपक्ष की एकादशी की रात्रि से श्रीहरि चार मास के लिए योगनिद्रा में लीन हो जाते हैं । तत्पश्चात वे कार्तिक मास में शुक्लपक्ष की एकादशी के दिन जगते हैं, इन चार महीनों को चातुर्मास कहते हैं । चातुर्मास का सनातन धर्म में विशेष आध्यात्मिक महत्व माना गया है l विष्णुधर्मोत्तर पुराणमें लिखा गया है कि भगवान विष्णु वर्षाऋतु के चारों मास में लक्ष्मी जी की सेवा पाकर शेषनाग की शय्यापर शयन करते हैं । 

इसी प्रकार सुंदरता के लिए नियत मात्रा में पंचगव्य यानि गाय के दूध, दही आदि पांच पदार्थों से बने खाद्य का सेवन करना चाहिए । वंश वृद्धि के लिये नियमित दूध का सेवन, बुरे कर्म फल से मुक्ति के लिये एक समय भोजन या उपवास करने का व्रत लिया जाता है ।चातुर्मास में शास्त्रीय नियमों का पालन करने से अनगिनत पुण्य प्राप्त किए जाते हैं । इसके अतिरिक्त विभिन्न नियमों के पालन से विशिष्ट फल भी मिलते हैं, जो मनुष्य केवल शाकाहार करके चातुर्मास व्यतीत करता है वह धनी हो जाता है । जो श्रद्धालु प्रतिदिन तारे देखने के बाद मात्र एक बार भोजन करता है, वह धनवान, रूपवान और गणमान्य होता है । जो चातुर्मास में एक दिन का अंतर करके भोजन करता है, वह बैकुंठ जाने का अधिकारी बनता है । जो मनुष्य चातुर्मास में तीन रात उपवास करके चौथे दिन भोजन करने का नियम साधता है, वह पुनर्जन्म नहीं लेता । जो साधक पांच दिन उपवास करके छठे दिन भोजन करता है, उसे राजसूय तथा अश्वमेध यज्ञों का संपूर्ण फल मिलता है । जो व्यक्ति भगवान मधुसूदन के शयनकाल में अयाचित [बिना मांगे] अन्न का सेवन करता है, उसका अपने भाई-बंधुओं से कभी वियोग नहीं होता है । चौमासे में विष्णुसूक्त के मंत्रों में स्वाहा संयुक्त करके नित्य हवन में तिल और चावल की आहुतियां देने वाला आजीवन स्वस्थ एवं निरोगी रहता है । हाथ में फल लेकर जो मौन रहकर भगवान नारायण की नित्य 108 परिक्रमा करता है, वह कभी पाप में लिप्त नहीं होता । चौमासे के चार महीनों में धर्मग्रंथों के स्वाध्याय से बडा पुण्य फल मिलता है। सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी देवर्षि नारद को चातुर्मास के नियम बताते हुए कहते हैं - श्रीहरि के शयनकाल में वैष्णव को अपनी किसी प्रिय वस्तु का त्याग अवश्य करना चाहिए । मनुष्य जिस वस्तु को त्यागता है वह उसे अक्षय रूप में प्राप्त होती है । 

वस्तुत: भगवान विष्णु का योगनिद्राकाल [चातुर्मास] आध्यात्मिक साधना का पर्व काल है । इसका सदुपयोग आत्मोन्नति के लिए करना चाहिए । चातुर्मास के नियम मनुष्य में त्याग और संयम की भावना उत्पन्न करने के लिए ही बनाए गए हैं । जो लोग चातुर्मास का व्रत करते हैं, उनको सावन में हरी सब्जी़, भादौ में दही, आश्विन में दूध और कार्तिक में दाल नहीं खाना चाहिए । इसके अलावा पलंग पर सोना, सहचर्य, झूठ बोलना, मांस, शहद और दूसरे से मिले दही-भात का भोजन करना, मूली एवं बैंगन का भी त्याग के भी शास्त्रोक्त विधान है । वास्तव में चातुर्मास धर्म के जरिए सफल जीवन के लिए जरूरी धीरज और संयम का पाठ सिखाता है ।

विशेष सुचना

( जो भी मंत्र तंत्र टोटका इत्यादि ब्लॉग में दिए गए है वे केवल सूचनार्थ ही है, अगर साधना करनी है तो वो पूर्ण जानकार गुरु के निर्देशन में ही करने से लाभदायक होंगे, किसी भी नुक्सान हानि के लिए प्रकाशक व लेखक जिम्मेदार नहीं होगा। )