Sunday, June 9, 2019

शाबर योगिनी मंत्र

शाबर योगिनी मंत्र

एक साधक के लिए काल ज्ञान अत्यधिक आवश्यक है क्यों की सिद्ध योगो मे उर्जा का प्रवाह अत्यधिक वेगवान होता है , विशेष काल मे विशेष देवी देवता अपने पूर्ण रूप मे जागृत होते है. तथा ब्रम्हांड मे शक्ति का संचार स्वतः बढ़ जाता है . साधको के लिए इन विशेष काल मे साधना करने से साधना मे सफलता की संभावना अत्यधिक बढ़ जाती है . इस दिशा मे ग्रहण का समय अपने आप मे साधको के लिए महत्वपूर्ण है .इस काल मे साधक किसी भी मंत्र जाप को करे तो उस मंत्र और प्रक्रिया से सबंधित योग्य परिणाम प्राप्त करना सहज हो जाता है,जो साधक ग्रहण मे साधना नही कर सकते उनको अमावस्या या पूर्णिमा के दिन साधना अवश्य करनी चाहिये.यु तो इस काल मे कोई भी साधना या मंत्र जाप किया जा सकता है लेकिन कुछ विशेष शाबर साधनाए ग्रहण काल के लिए ही निहित है , जिसे मात्र और मात्र ग्रहण के समय ही किया जाता है . इस क्रम मे ऐसे कई दुर्लभ विधान है जो की साधक को सफलता के द्वार तक ले के जाता है . वस्तुतः हमारा जीवन इच्छाओ के आधीन है , और अगर मनुष्य की इच्छाए ही ना रहे तो फिर जीवन ही ना रहे क्यों की इच्छा मुख्य त्रिशक्ति मे से एक है ,क्रियाज्ञानइच्छा च शक्तिः . अपनी इच्छाओ की पूर्ति करना किसी भी रूप मे अनुचित नहीं है . तंत्र तो श्रृंगार की प्रक्रिया है, जो नहीं प्राप्त किया है उसे प्राप्त करना और जो प्राप्त हुआ है उसे और भी निखारना. यु भी तन्त्र दमन का समर्थन नहीं करता. अपनी योग्य इच्छाओ की साधक पूर्ति करे और अपने आपको पूर्णता के पथ पर आगे बढ़ने के लिए कदम भरता जाए . ग्रहण काल से सबंधित कई दुर्लभ विधानों मे इच्छापूर्ति के लिए भी विधान है . अगर इन विधानों को साधक विधिवत पूर्ण कर ले तब साधक के लिए निश्चित रूप से सफलता मिलती ही है. ऐसे ही विधानों मे से एक विधान है ‘

तीव्र योगिनी इच्छापूर्ति प्रयोग:

इस साधना के लिए साधक को अपने आसान की ज़मीं को गाय के गोबर से लिप दे और उस पर आसान लगा कर बैठ जाए.अगर साधक के लिए यह संभव नहीं हो तो वह भूमि पर बैठ जाए .यह साधना निर्वस्त्र हो कर करे , अगर यह संभव नहीं है तो सफ़ेद वस्त्रों को धारण करे .
साधना कक्ष मे और कोई व्यक्ति ना हो तो
उत्तम है . साधक अपने सामने तेल का बड़ा दीपक लगाए और ६४ योगिनी को मन ही मन प्रणाम करते हुए मिठाई का भोग लगाये और अपनी इच्छा को साफ साफ ३ बार दुहराए तथा योगोनियो से उसकी पूर्ति के लिए प्रार्थना करे . इसके बाद साधक निम्न मंत्र का जाप प्रारंभ कर दे . इसमें किसी भी प्रकार की माला की ज़रूरत नहीं है फिर भी अगर साधक
चाहे तो रुद्राक्ष की माला उपयोग कर सकता है. साधक को यह प्रक्रिया ग्रहण काल शुरू होने से एक घंटे पहले ही शुरू कर देनी चाहिए तथा जितना भी संभव हो जाप करना चाहिए, यु उत्तम तो ये रहता है की साधक ग्रहण समाप्त हो जाने के बाद भी एक घंटे तक जाप करता रहे .

योगिनी मंत्र:-

" ओम जोगिनी जोगिनी आवो आवो मेरा कल्याण करो मेरी इच्छा पूरो,आण दुर्गा माई की,गुरू गोरखनाथ बाबा की दुहाई  "

मंत्र जाप की समाप्ति पर मिठाई का भोग
स्वयं ग्रहण करे तथा स्नान करे . साधक की इच्छा शीघ्र ही निश्चित रूप से पूरी होती है .

Friday, June 7, 2019

श्राद्ध की गूढ़ बाते

श्राद्ध की गूढ़ बाते

श्राद्ध क्यों कैसे करे? पितृ दोष ,राहू ,सर्प दोष शांति ?तर्पण? विधि

श्राद्ध कब नहीं करें :
१. मृत्यु के प्रथम वर्ष श्राद्ध नहीं करे ।
२. पूर्वान्ह में शुक्ल्पक्ष में रात्री में और अपने जन्मदिन में श्राद्ध नहीं करना चाहिए ।
३. कुर्म पुराण के अनुसार जो व्यक्ति अग्नि विष आदि के द्वारा आत्महत्या करता है उसके निमित्त श्राद्ध नहीं तर्पण का विधान नहीं है ।
४. चतुदर्शी तिथि की श्राद्ध नहीं करना चाहिए, इस तिथि को मृत्यु प्राप्त पितरों का श्राद्ध दूसरे दिन अमावस्या को करने का विधान है ।
५. जिनके पितृ युद्ध में शस्त्र से मारे गए हों उनका श्राद्ध चतुर्दशी को करने से वे प्रसन्न होते हैं और परिवारजनों पर आशीर्वाद बनाए रखते हैं ।

श्राद्ध कब, क्या और कैसे करे जानने योग्य बाते
किस तिथि की श्राद्ध नहीं -
१. जिस तिथी को जिसकी मृत्यु हुई है, उस तिथि को ही श्राद्ध किया जाना चाहिए । पिता जीवित हो तो, गया श्राद्ध न करें ।
२. मां की मृत्यु (सौभाग्यवती स्त्री) किसी भी तिथि को हुईं हो, श्राद्ध केवल नवमी को ही करना है ।
३. श्राद्ध चतुर्दशी को नहीं करना चाहिए ।इस दिन जिनकी तिथि ज्ञात नहीं हो, उनका श्राद्ध विधान है ।
४. श्राद्ध का समय दोपहर 1 2 बजे से सायं 5 बजे का होता हैं ।

जनेऊ,चन्दन जल विधि
पितर पूजा / कार्य करते समय क्या विशेष सावधानी रखना चाहिए ?
पितरों की पूजा के समय उपनयन या जनेऊ अपशब्द या बाएं से दाहिने करना चाहिए वामावर्त या विपरीत क्रम से गंध जल धूप आगे उनको प्रदान करना चाहिए|
पितरों को चंदन तर्जनी से ही लगाना चाहिए अनामिका उंगली का प्रयोग केवल देवताओं के लिए प्रयोग किया जाता है|

वर्ष में कितने अवसर श्राद्ध के होते हैं?
वर्ष में श्राद्ध के 96 अवसर होते हैं जैसे 12 अमावस्या चार युग तिथि 14 मनुवादी तिथि 12 संक्रांति 12 विद्युत योग 12 व्यतिपात योग 15 महालय श्राद्ध का तथा पांच पर्व वेद्य|

श्राद्ध कार्य में प्रयोग होने वाले कुछ कूट शब्द एवं उनके अर्थ क्या है|
जनसामान्य संस्कृत भाषा से बहुत अधिक परिचित नहीं होने के कारण श्राद्ध में प्रयोग होने वाले शब्दों के अर्थ नहीं समझ पाता है| जैसे उदक अर्थात अर्घदान पूजा के लिए जल प्रदान करना, अमन्न= अर्थात कच्चा अन्य, आलोड़न= जल को घुमाना, एक्को दृष्टि= पिता एक व्यक्ति के लिए किए जाने वाले श्राद्ध |
जो विश्वेदेव रहित पूजा की जाती है एक कुदृष्टि कहलाता है|
कव्य= पितरों के लिए प्रदान किए जाने वाला द्रव्य वस्तु, तर्पण= पितर देवता ऋषि इनको जल प्रदान करना तर्पण क्रिया कहलाती है| दोहित्र=पुत्री का पुत्र गेंडे के सिंग से बना हुआ पात्र एवं कपिला गाय का घी यह तीनों श्राद्धकर्म में विशेष महत्व रखते हैं तथा इनको दोहित्र की संज्ञा या नाम दिया गया है|

नारायण बलि
दुर्गति से बचने के लिए किया जाने वाला प्रायश्चित स्वरूप अनुष्ठान कोविधि संगत पूजा पाठ|
पवित्री= कृष्ण उसके द्वारा बनाई गई अंगूठी जो अनामिका उंगली में पहनी जाती है| महालय= भाद्र शुक्ल पक्ष पूर्णिमा से आश्विन कृष्ण पक्ष अमावस्या तक की अवधि| मार्जन= जल का छोटा देकर किसी चीज को पवित्र करना| सपिंड= स्वयं से लेकर पूर्व की सात पीढ़ी तक के पुरुष, सोदक= 8 पीढ़ी से लेकर 14 पीढ़ी तक के पुरुष,
सगोत्र= 15 पीढ़ी से 21 वीं पीढ़ी तक के पूर्व पुरुष| सव्य= जनेऊ को बाएं कंधे पर डालना दाने हाथ के नीचे करना है इसके विपरीत अपसव्य विधि कहलाती है अर्थात जनेऊ को दाहिने कंधे पर डालकर बाए हाथ के नीचे करना| दूध, शहद, गंगाजल, केसर, गंध वस्त्र कुश प्रमुख है ।

बच्चों का श्राद्ध?
१. दो या उससे कम आयु के बच्चे की वार्षिक तिथि और श्राद्ध नहीं किया जाता है ।
२. यदि मृतक दो सै छह वर्ष आयु का है तो भी उसका श्राद्ध नहीं किया जाता है । उसका केवल मृत्यु के १० दिन के अन्दर सोलह पिण्डो (मलिन षोडशी) का दान किथा जाता है ।
३. छह वर्ष से अधिक आयु में मृत्यु होने पर श्राद्ध की सम्पूर्ण प्रक्रिया की जाती है ।
४. कन्या की दो से दस वर्ष की अवथि में मृत्यु होने की स्थिति में उसका श्राद्ध नहीं करते है । केवल मलिन षोडशी तक की क्रिया की जाती है ।
५. अविवाहित कन्या की दस बर्ष से अधिक आयु में मृत्यु होने पर मलिन षोडशी, एकादशाह, सपिण्डन आदि की क्रियाएं की जाती हैं ।
६. विवाहित कन्या को मृत्यु होने पर माता पिता के घर में श्राद्ध आदि की क्रिया नहीं की जाती है ।

श्राद्ध के भोज्य पदार्थ : 
गेंहूं, जो, उड़द, फल, चावल, शाक, आम, करोंदा, ईख, अंगूर, किशमिश, बिदारिकंद, शहद, लाजा, शक्कर, सत्तू, सिंघाड़ा, केसर, सुपाडी ।
अक्षत श्राद्ध स्थल /कहाँ करे : गंगा, प्रयाग, अमरकंटक, उग्रद्ध ,बदरीनाथ ।
श्राद्ध के प्रकार :
१. शुभ या मंगल कर्म के प्रारंभ में -आभ्युदिक श्राद्ध । २.पर्व के दिन : पार्वण श्राद्ध ।
३. प्रतिदिन : नित्य श्राद्ध । ४. ग्रहण रिश्तेदार मृत्यु : नैमित्तिक -काम्य श्राद्ध ।
५. संक्रांति जन्मसमय : श्राद्ध अक्षय फल प्रद । ६. सभी नक्षत्र में काम्य श्राद्ध ।
दैवताओ से पूर्व पितरों कों तर्पण दें । गृहस्थों के प्रथम देवता पितर होते है । (१६ वां अध्याय)

समय : 
तृतीय प्रहर, अभिजित मुहूर्त, रोहिनी नक्षत्र उदय काल में अक्षयफल दानकर्त्ता को मिलता है । जल अर्पण के लिए श्राद्ध के लिए कुतुप काल दिन में 11: 36 बजे से लेकर 12:24 तक होता है|
अपराहन काल 1:12 से 3: 36 मिनट तक होता है
मध्यान काल दिन में 10:45 से 1:12 तक लगभग होता है
रोहिण काल दिन का नवा मुहूर्त 12:24 से 1:12 तक माना जाता है|
संगव काल दिन में 10:48 से पहले का समय|
माघ में शुक्ल दशमी (९ फरवरी) घी, तिल मिश्रित जल से स्नान ।रविवार को पुष्प, इत्र, पुनवर्सु, नवग्रह औषधियों से मिश्रित जल से स्नान करे ।
प्रत्येक माह श्राद्ध करने का क्या फल

अष्टमी चर्तुदशी, अमावस्या/पूर्णिमा, संकांति को सुगंध, जल व तिल पितरों कों दे।
किस दिन श्राद्ध करने का क्या फल :
रविवार-आरोग्य, सोमवारसौभाग्य , मंगलवार विजय , बुघ मनोकामना , गुरूवार ज्ञान , शुक्रवार धन , शनवार आयु |
माघ में शुक्ल दशमी (९ फरवरी) घी, तिल मिश्रित जल से स्नान ।रविवार को पुष्प, इत्र, पुनवर्सु, नवग्रह औषधियों से मिश्रित जल से स्नान करे ।
श्राद्ध में क्या नहीं करें /वर्जित -
१. सामाजिक या व्यापारिक संबंध स्थापित न करें ।
२. श्राद्ध के दिन दही नहीं बिलाएं ,चक्की नहीं चलाएं तथा बाल न कटवाऐ ।

श्राद्ध के दिन क्या नहीं खाएं ?
१--बैंगन, गाजर, मसूर, अरहर, गोल लौकी, शलजम, हींग, प्याज, लहसुन, काला नमक, काला जीरा, सिधाङा, जामुन, पिपली, सुपाड़ी, कुलपी, महुआ, असली पिली सरसों और चना का प्रयोग श्राद्ध में निषिद्ध है ।
२-हींग, लोकी, लहसुन, काला नमक, धनिया, अम्लवेतस, राजगिरा, सौंफ, कचनार, श्वेत चावल, बड़ा नीबू, बैगन, चोई साग, नारियल, जामुन, जीरा, चिरौंजी, लोहे के पात्र में बना
निमंत्रित : ब्राह्मणों को पिप्त मिश्रित जल देना चाहिए। इसके बाद पिंड अंश देवे।
निमंत्रित ब्राहम्णो से कहे (भोजन उपरांत) अभिलाषा कथन / याचना-"
हे , पितरगण हमारे दाताओ की अभिवृद्धि है। वेदज्ञान, संतान, श्रद्धा की संख्या बढे। हमसे सब याचना करे हमे याचना न करना पडे।आमंत्रित ब्राहम्ण तथास्तु कहकर आशीर्वाद दे। "
श्राद्ध कर्म के पश्चात् - पिंड गाय, बकरी, ब्राहम्ण अग्नि जल पक्षि को दे।
संतान की अभिलाषा -
बीच वाले पिंड को। खाने से पूर्व याचना करे। हे पितरगण वंश वृद्धि करने वाली संतान का मुझमे गर्भाधान करे।
पितृकर्म की समाप्ति के पश्चात वेश्वदेव का पूजन करे।
इसके बाद पिंड अंश देवे।
तर्पण- विधि
दोनों हाध से करें तर्जनी व अंगूठे के मध्य कुश हो ।
दक्षिण दिशा की ओर मुंह हो हाथ मैं कुश, जौ, शहद, जल, काले तिल एवं अनामिका में स्वर्ण अंगूठी हो ।

दाई अनामिका मे दो कुश पवित्री, बाई अनामिका में तीन कुश पवित्री पहने ।
जल दोनों हाथ मिलाकर तर्जनी एवं अंगूठे के मध्य छेत्र से निचे की ओर छोड़ना चाहिए, तीन अंजलि छोड़े ।
हाथ जितना ऊपर (कम से कम ह्रदय तक) हो उतना ऊपर का जल, काले तिल छोड़े । संभव हो तो नाभि के बराबर पानी (जलाशय, नदी आदि में खड़े होकर) पितरो का ध्यान करते हुए जो तिल व पानी छोड़ना चहिए ।
जनेऊ दाहिने कन्धे पर बाएं हाथ के निचे हो ।

सप्तमी को तिल वर्जित श्राद्ध के दिन जन्म दिन हो तो तिल वर्जित । मंत्र पढ़े तो और भी उत्तम है ।

ॐ उशन्त स्तवा नि धीमहयुशन्त:समिधीमही ।
उशन्नुशत आ वह पितृन हविषे अन्तवे ।
अथवा ॐ आगच्छन्तु में पित्तरंइमं गृहणन्तु जलांजालिम् ।

विशेष ध्यान रखने योग्य तथ्य
१. श्राद्ध की सम्पूर्ण क्रिया दक्षिण की ओर मुंह करके तथा अपव्यय (जनेऊ को दाहिने कंधे पर डालकर बाएं हाथ के नीचे करलेने की स्थिति) होकर की जाती हैं ।
२. श्राद्ध में पितरों को भोजन सामग्री देने के लिए मिट्टी के बर्तनों का प्रयोग करना चाहिए । मिट्टी के बर्तनों के अलावा लकड़ी के बर्तन, पत्तों के दौनों (केले के पत्ते को छोड़कर) का भी प्रयोग कर सकते हैं ।
३. श्राद्ध में तुलसीजल का प्रयोग आवश्यक हैं ।
४. श्राद्ध बिना आसन के न करें ।
५. श्राद्ध में अग्नि पर घी, तिल के साथ डालें, निर्धनता की स्थिति में केवल शाक से श्राद्ध करें । यदि शाक न हो तो गाय को खिलाने से श्राद्ध सम्पन्न हो जाता है ।

६. मृत्यु के समय जो तिथि होती है, उसे ही मरण तिथि माना जाता है । (मरण तिथि के निर्धारण में सूर्योदय कालीन तिथि ग्राह नहीं है ।) श्राद्ध मरण तिथि के दिन ही किया जाता है । पति के रहते मृत नारी के श्राद्ध में ब्राम्हण के साथ सौभाग्यवती ब्राम्हणी को पति के साथ भी भोजन कराना |

श्राद्ध काल में जपनीय मंत्र.
१. ऊँ क्री क्ली ऐ सर्बपितृभयो स्वात्मा सिद्धये ऊँ फट । 
२. ऊँ सर्ब पितृ प्र प्रसन्नो भव ऊँ ।
३. ऊँ पितृभ्य: स्वघाचिंभ्य: स्वधानम: पितामहेम्यस्वधायिम्यर: स्वधा नमर: । 

जिनकी जन्म पत्रिका में पितृदोष हो तो उन्हें पितृ पक्ष में नित्य श् ऊँ ऐ पितृदोष शमन हीं ऊँस्वधा ।।
मंत्र जाप के पश्चात तिलांजलि से अधर्य दें व निर्धन को तिल दान अवश्य करे ।

सुख वैभव वृद्धि , पितृ दोष बाधा शमन मन्त्र –
ॐ श्रे सर्व पितृदोष निवारण क्लेश हन हन सुख शांति देहि फट् स्वाहा ।

पितृ दोष शमन और घर में सुख शांति क्या करे ?
दूध का बना प्रसाद का भोग लगाएं और नित्य मंत्रजप के बाद पश्चिम दिशा की तरफ वह फेंक दें । इस प्रकार ग्यारह दिन तक प्रयोग करें । इस प्रकार जब प्रयोग समाप्त हो जाए तब बारहवे दिन उस मिटटी के पात्र को विसर्जित कर नारियल पूजा के स्थान में रख दें । इस प्रकार करने से पितृ दोष शमन और घर में सुख शांति होती है ।

जन्म कुंडली का सबसे महत्वपूर्ण भाव दशम भाव

जन्म कुंडली का सबसे महत्वपूर्ण भाव दशम भाव

जन्म कुंडली का सबसे महत्वपूर्ण भाव दशम भाव होता है। दशम भाव पिता, व्यापार, उच्च नौकरी, राजनीति, राजसुख, प्रतिष्ठा, विश्वविख्याति का कारक भाव माना जाता है। इसे कर्म भाव भी कहते हैं। जातक अपने कर्म से महान विख्यात एवं यशस्वी भी होता है और अपने पिता का नाम रोशन करने वाला भी होता है। यदि इस भाव का स्वामी बलवान होकर कहीं भी हो उस प्रकार से फल प्रदाता होता है।

दशमेश का मतलब होता है दशम भाव में जो भी राशि नंबर होगा, उस भाव के स्वामी को दशमेश कहा जाएगा। यथा दशम भाव में कुंभ यानी 11 नंबर लिखे होंगे तो उसका स्वामी शनि होगा। यदि इस भाव में 5 नंबर लिखा है तो सिंह राशि होगी, यदि 12 नंबर लिखा है तो मीन राशि होगी।

दशमेश नवांश कुंडली में जिस ग्रह की राशि में होता है उसी ग्रह के कारकत्व अनुरूप व्यवसाय व्यक्ति के लिए लाभदायक होता है। ग्रहों के कारकत्व निम्न प्रकार है -

*सूर्य राज्य, फल-फूल, वृक्ष, पशु, वन, दवा, चिकित्सा, नेत्र, कंबल, लकड़ी, भूषण, मंत्र, भूमि, यात्रा, अग्नि, आत्मा, पिता, लाल चंदन, पराक्रम, धैर्य, साहस, न्याय प्रियता, गेहूं, घी ।

*चंद्र जलीय पदार्थ, पशुपालन, डेरी उद्योग, कपड़ा, सुगंधित पदार्थ, कल्पना शक्ति, नेत्र, स्त्री सहयोग, भेड़, बकरी, स्त्री संबंधी पदार्थ, कृषि, गन्ना, चांदी, चावल, सफेद वस्त्र, सिल्क का कपड़ा, चमकीली वस्तु, यात्रा, तालाब, क्षय रोग, खारी वस्तुएं, माता, मन, प्रजा।

*मंगल भूमि, अग्नि, गरमी, घाव, राज्य सेवा, पुलिस, फौज, शस्त्र, युद्ध, बिजली, राज दरबार, मिट्टी से बनी वस्तुएं, डैंटिस्ट, अनुशासन, स्पोर्ट्स, तांबा, रक्त चंदन, मसूर, गुड़, ज्वलनशील पदार्थ।

*बुध विद्या, गणित ज्ञान, लेखन वृत्ति, काव्यगम, ज्योतिष, हरी वस्तुएं, शिल्प, दलाली, कमीशन, वाक शक्ति, त्वचा, चिकित्सा, वकालत, अध्यापन, संपादन, प्रकाशन, अभिनय, हास परिहास, व्याकरण, रत्न पारखी, कांसा, डाक्टर, गला, नाचना, पुरोहित।

*गुरु शिक्षक, तर्क, मंदिर, मठ, देवालय, धर्म, नीतिज्ञ, राजा, सेना, तप, दान, परोपकार, पीला रंग, वेद-पुराण आदि से उपदेश, धन, न्याय, वाहन, परमार्थ, स्वास्थ्य, घी, चने, गेहूं, हल्दी, जौ, प्याज, लहसून, मोम, ऊन, पुखराज।

*शुक्र रूप सौंदर्य, भोग विलास एवं सांसारिक सुख, सुगंधित एवं श्रंगारिक प्रसाधन, श्वेत एवं रेशमी वस्त्र, चांदी, आभूषण, गीत-संगीत, नृत्य, गायन, वाद्य, सिनेमा, अभिनेता, उत्तम वस्त्रों का व्यवसाय, मंत्री पद, सलाहकार, जलीय स्थान, दक्षिण पूर्व दिशा।

*शनि मजदूर एवं दास वर्ग, शारीरिक परिश्रम, कारखाने, वनस्पति, नौकरी, निंदित कार्यो से धनोपार्जन, हाथी, घोड़ा, चमड़ा, लोहा, मिथ्या भाषण, कृषि, शस्त्रागार, सीसा, तेल, लकड़ी, विष, पशु, ठेकेदारी।

*राहु गुप्त धन, लॉटरी, शेयर, विष, तिल, तेल, लोहा, वायुयान संबंधी ज्ञान, मशीनरी, चित्रकारी, फोटोग्राफी, वैद्यक, जासूसी अनुसंधान, कंबल, गोमेद।

*केतु गुप्त विद्या, वैराग्य, तीर्थाटन, भिक्षावृत्ति, चर्म रोग, काले वस्त्र, कंबल, विष, शस्त्र, फोड़ा, फुंसी, गर्भपात, चेचक, अत्यंत कठिन कार्य, मंत्रसिद्धि, तत्वज्ञान, दु:ख, शोक, संघर्ष।

कारकत्व शब्दों तक ही सीमित नहीं इनकी परिधि अत्यंत विस्तृत है - जैसे ‘राज्य’ शब्द सूर्य का कारकत्व है। इस छोटे से शब्द में राजा, मंत्री, गवर्नर, राष्ट्रपति, छोटे-मोटे तमाम सरकारी कर्मचारी व अधिकारी, राजनेता, विधायक, सांसद आदि सभी वर्ग जिनका परोक्ष अथवा अपरोक्ष रूप में सरकार से किसी न किसी प्रकार से कोई संबंध है, शामिल हैं। जन्म कुंडली का एकादश भाव ‘आय भाव’ तथा द्वितीय भाव ‘धन भाव’ कहलाता है। इनके स्वामियों के बलाबल और आपस में संबंध के आधार पर व्यवसाय संबंधी आय व धन का विचार किया जाता है।

दशम स्थान स्थित राशि की दिशा में अथवा दशमेश जिस नवांश में होगा, उस नवांश संबंधी राशि की दिशा में व्यवसाय संबंधी लाभ होगा। मेष, सिंह व धनु राशियां ‘पूर्व’ दिशा की स्वामी है। मिथुन, तुला व कुंभ राशियां ‘पश्चिम’ दिशा की स्वामी है। कर्क, वृश्चिक व मीन राशियां ‘उत्तर’ दिशा की स्वामी है तथा वृष, कन्या तथा मकर राशियां ‘दक्षिण’ दिशा की स्वामी है। उपरोक्त विचार ‘लग्न कुंडली’ के साथ ‘चंद्र कुंडली’ व ‘सूर्य कुंडली’ से भी करने पर सूक्ष्म निष्कर्ष पर पहुंचने में काफी सहायता मिलेगी।

कुछ रोचक बाते :

* लग्न का स्वामी और दशम भाव का स्वामी यदि एक साथ हों तो ऐसा जातक नौकरी में विशेष उन्नति पाता है।

* दशमेश के साथ शुक्र हो और द्वादश भाव में बुध हो तो वह जातक महात्मा, पुण्यात्मा होता है, लेकिन दशमेश व शुक्र केंद्र में होना चाहिए।

* दशम भाव का स्वामी केंद्र या त्रिकोण (पंचम, नवम भाव को कहते है) में हो तो वह जातक राजपत्रित अधिकारी होता है।

* दशम भाव में स्वराशिस्थ सूर्य पिता से धन लाभ दिलाता है।

* दशम भाव में मीन या धनु राशि हो और उसका स्वामी गुरु यदि त्रिकोण में हो तो वह सभी सुखों को पाने वाला होता है।

* दशम भाव का स्वामी उच्च का होकर कहीं भी हो तो वह अपने बल-पराक्रम से सभी कार्यों में सफलता पाता है।

* पंचम भाव में गुरु व दशम भाव में चंद्रमा शुभ स्थिति में हो तो वह जातक विवेकशील, बुद्धिमान व तपस्वी होता है।

* एकादश भाव का स्वामी दशम में व दशम भाव का स्वामी एकादश भाव में हो या नवम भाव का स्वामी दशम में और दशम भाव का स्वामी नवम भाव में हो तो ऐसा जातक लोकप्रिय, शासक यानी मंत्री या कलेक्टर भी हो सकता है।

* लग्न का स्वामी व दशम भाव का स्वामी बलवान यानी अपनी राशि में हो या उच्च राशि में हो तो वह जातक प्रतिष्ठित, विश्वविख्यात तथा यशस्वी होता है।

* दशम भाव में शुक्र-चंद्र की युति जातक को चिकित्सक बना देती है।

* कन्या या मीन लग्न हो और उसका स्वामी उच्च या अपनी राशि में हो तो वह जातक अपने द्वारा अर्जित धन से उत्तम कार्य करता हुआ संपूर्ण सुखों को भोगने वाला होता है।

* दशम भाव में उच्च का मंगल या स्वराशि का मंगल सप्तम भाव में मंत्री या पुलिस विभाग में उच्च पद दिलाता है।

* दशम भाव में उच्च का सूर्य कर्क लग्न में होगा तो उस जातक को धन, कुटुंब से परिपूर्ण बनाएगा व उच्च पदाधिकारी भी बनाएगा।

जन्म लग्न से जानिए क्या बीमारी हो सकती है

जन्म लग्न से जानिए क्या बीमारी हो सकती है

कुडंली के पहले घर में लिखा अंक लग्न माना जाता है। जैसे कुंडली के बीच में आने वाले घर को पहला घर माना जाता है और वहां जो संख्या अंकित होगी वही आपका लग्न होगा जैसे अगर वहां 1 लिखा है तो मेष लग्न, 2 लिखा है तो वृषभ लग्न और 3 लिखा होगा तो मिथुन लग्न...इसी तरह से 12 राशि के 12 लग्न होंगे। जानिए अपने लग्न से क्या बीमारी हो सकती है आपको...

1. मेष लग्न- जिनका जन्म मेष लग्न में हो, उनके रोग का स्वामी बुध स्वयं है। बुध अस्त होने या पाप पीड़ित होने पर एलर्जी, त्वचा रोग, फोड़े-फुंसी, मतिभ्रम जैसे रोग व गले की बीमारी दशा अंतरदशा में देते हैं।

2. वृषभ लग्न- जिनका जन्म वृषभ लग्न में हो, उनके छठे स्थान पर बुध के मित्र शुक्र की राशि तुला होती है। मूत्र रोग, पोस्टेट, प्रमेह आदि रोग होते हैं।

3. मिथुन लग्न- जिनका जन्म मिथुन लग्न में हो, उनके मंगल की राशि वृश्चिक होने से रक्त विकार, उच्च रक्तचाप, स्नायु तंत्र में दोष आदि प्रमुख लक्षण मंगल की दशा अंतरदशा में देते हैं।

4. कर्क लग्न- जिनका जन्म कर्क लग्न में हो, वे जातक प्राय: स्थूल शरीर होते हैं। छठे स्थान पर धनु राशि होने पर मधुमेह, जिगर की बीमारी, पीलिया रोग होते हैं।


5. सिंह लग्न- जिनका जन्म सिंह लग्न में हो उन्हें शनि वात रोग, गठिया, स्नायु रोग, विमंदातात तथा दीर्घकाल तक चलने वाले रोग होते हैं, क्योंकि बुध के मित्र शनि की मकर राशि षष्टम भाव में स्थित है।

6. कन्या लग्न- जिनका जन्म कन्या लग्न में हो उन्हें पांव में चोट, दर्द, राहु-शनि की युति हो तो तकलीफदायी जीभ रोग होते हैं। भ्रम रोग की भी आशंका रहती है।


7. तुला लग्न- जिनका जन्म तुला लग्न में हो उन्हें जलीय बीमारी, मूत्र रोग, मधुमेह, थायराइड, कफजनित रोग, हृदयरोग, राहु शनि का कुयोग होने पर कैंसर जैसी घातक तकलीफ हो सकती है।

8. वृश्चिक लग्न- जिनका जन्म वृश्चिक लग्न में हो उन्हें शस्त्राघात, चोट, ऊपर से गिरना, मूर्छा, सिर रोग आदि मंगल की दशा, अंतरदशा या रोग स्थान स्थित ग्रह की पाक दशा में होते हैं।

9. धनु लग्न- जिनका जन्म धनु लग्न में हो उन्हें कंधों में दर्द, गले में खराबी, पत्नी को कष्ट, गुप्त रोग, यौन रोग आदि प्रकट होते हैं।

10. मकर लग्न- जिनका जन्म मकर लग्न में हो उन्हें चिंता, त्वचा रोग, मानसिक परेशानी व नपुंसकता पीड़ित होने की संभावना होती है।


11. कुंभ लग्न- जिनका जन्म कुंभ लग्न में हो उनके चन्द्रमा का छठे स्थान पर स्वामित्व होने से कफ रोग, हृदय रोग, पागलपन आदि की आशंका बलवती होती है।

12. मीन लग्न- जिनका जन्म मीन लग्न में हो उन्हें सूर्य नेत्र रोग, हृदय रोग, उच्च रक्तचाप, ज्वर रोग, हड्डियों से संबंधित बीमारी आदि होती है। स्थूलता भी देता है।

अशुभ जन्म समय के उपाय

अशुभ जन्म समय के उपाय 

हम जैसा कर्म करते हैं उसी के अनुरूप हमें ईश्वर सुख दु:ख देता है। सुख दु:ख का निर्घारण ईश्वर कुण्डली में ग्रहों स्थिति के आधार पर करता है। जिस व्यक्ति का जन्म शुभ समय में होता है उसे जीवन में अच्छे फल मिलते हैं और जिनका अशुभ समय में उसे कटु फल मिलते हैं। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार यह शुभ समय क्या है और अशुभ समय किसे कहते हैं

अमावस्या में जन्म

ज्योतिष शास्त्र में अमावस्या को दर्श के नाम से भी जाना जाता है। इस तिथि में जन्म माता पिता की आर्थिक स्थिति पर बुरा प्रभाव डालता है। जो व्यक्ति अमावस्या तिथि में जन्म लेते हैं उन्हें जीवन में आर्थिक तंगी का सामना करना होता है। इन्हें यश और मान सम्मान पाने के लिए काफी प्रयास करना होता है।

अमावस्या तिथि में भी जिस व्यक्ति का जन्म पूर्ण चन्द्र रहित अमावस्या में होता है वह अधिक अशुभ माना जाता है। इस अशुभ प्रभाव को कम करने के लिए घी का छाया पात्र दान करना चाहिए, रूद्राभिषेक और सूर्य एवं चन्द्र की शांति कराने से भी इस तिथि में जन्म के अशुभ प्रभाव को कम किया जा सकता है।

संक्रान्ति में जन्म

संक्रान्ति के समय भी संतान का जन्म अशुभ माना जाता है। इस समय जिस बालक का जन्म होता है उनके लिए शुभ स्थिति नहीं रहती है। संक्रान्ति के भी कई प्रकार होते हैं जैसे रविवार के संक्रान्ति को होरा कहते हैं, सोमवार को ध्वांक्षी, मंगलवार को महोदरी, बुधवार को मन्दा, गुरूवार को मन्दाकिनी, शुक्रवार को मिश्रा व शनिवार की संक्रान्ति राक्षसी कहलाती है।

अलग अलग संक्रान्ति में जन्म का प्रभाव भी अलग होता है। जिस व्यक्ति का जन्म संक्रान्ति तिथि को हुआ है उन्हें ब्राह्मणों को गाय और स्वर्ण का दान देना चाहिए इससे अशुभ प्रभाव में कमी आती है। रूद्राभिषेक एवं छाया पात्र दान से भी संक्रान्ति काल में जन्म का अशुभ प्रभाव कम होता है।

भद्रा काल में जन्म

जिस व्यक्ति का जन्म भद्रा में होता है उनके जीवन में परेशानी और कठिनाईयां एक के बाद एक आती रहती है। जीवन में खुशहाली और परेशानी से बचने के लिए इस तिथि के जातक को सूर्य सूक्त, पुरूष सूक्त, रूद्राभिषेक करना चाहिए। पीपल वृक्ष की पूजा एवं शान्ति पाठ करने से भी इनकी स्थिति में सुधार होता है।

कृष्ण चतुर्दशी में जन्म

पराशर महोदय कृष्ण चतुर्दशी तिथि को छ: भागों में बांट कर उस काल में जन्म लेने वाले व्यक्ति के विषय में अलग अलग फल बताते हैं। इसके अनुसार प्रथम भाग में जन्म शुभ होता है परंतु दूसरे भाग में जन्म लेने पर पिता के लिए अशुभ होता है, तृतीय भाग में जन्म होने पर मां को अशुभता का परिणाम भुगतना होता है, चौथे भाग में जन्म होने पर मामा पर संकट आता है, पांचवें भाग में जन्म लेने पर वंश के लिए अशुभ होता है एवं छठे भाग में जन्म लेने पर धन एवं स्वयं के लिए अहितकारी होता है।

कृष्ण चतुर्दशी में संतान जन्म होने पर अशु प्रभाव को कम करने के लिए माता पिता और जातक का अभिषेक करना चाहिए साथ ही ब्राह्मण भोजन एवं छाया पात्र दान देना चाहिए।

समान जन्म नक्षत्र

ज्योतिषशास्त्र के नियमानुसार अगर परिवार में पिता और पुत्र का, माता और पुत्री का अथवा दो भाई और दो बहनों का जन्म नक्षत्र एक होता है तब दोनो में जिनकी कुण्डली में ग्रहों की स्थिति कमज़ोर रहती है उन्हें जीवन में अत्यंत कष्ट का सामना करना होता है।
इस स्थिति में नवग्रह पूजन, नक्षत्र देवता की पूजा, ब्राह्मणों को भोजन एवं दान देने से अशुभ प्रभाव में कमी आती है।

सूर्य और चन्द्र ग्रहण में जन्म

सूर्य और चन्द्र ग्रहण को शास्त्रों में अशुभ समय कहा गया है। इस समय जिस व्यक्ति का जन्म होता है उन्हें शारीरिक और मानसिक कष्ट का सामना करना होता है। इन्हें अर्थिक परेशानियों का सामना करना होता है।

सूर्य ग्रहण में जन्म लेने वाले के लिए मृत्यु की संभवना भी रहती है। इस दोष के निवारण के लिए नक्षत्र स्वामी की पूजा करनी चाहिए। सूर्य व चन्द्र ग्रहण में जन्म दोष की शांति के लिए सूर्य, चन्द्र और राहु की पूजा भी कल्यणकारी होती है।

सर्पशीर्ष में जन्म

अमावस्या तिथि में जब अनुराधा नक्षत्र का तृतीय व चतुर्थ चरण होता है तो सर्पशीर्ष कहलाता है। सार्पशीर्ष को अशुभ समय माना जाता है। इसमें कोई भी शुभ काम नहीं होता है। सार्पशीर्ष मे शिशु का जन्म दोष पूर्ण माना जाता है।

जो शिशु इसमें जन्म लेता है उन्हें इस योग का अशुभ प्रभाव भोगना होता है। इस योग में शिशु का जन्म होने पर रूद्राभिषेक कराना चाहिए और ब्रह्मणों को भोजन एवं दान देना चाहिए इससे दोष के प्रभाव में कमी आती है।

गण्डान्त योग में जन्म

गण्डान्त योग को संतान जन्म के लिए अशुभ समय कहा गया है। इस समय संतान जन्म लेती है तो गण्डान्त शान्ति कराने के बाद ही पिता को शिशु का मुख देखना चाहिए। पराशर महोदय के अनुसार तिथि गण्ड में बैल का दान, नक्षत्र गण्ड में गाय का दान और लग्न गण्ड में स्वर्ण का दान करने से दोष मिटता है।

संतान का जन्म अगर गण्डान्त पूर्व में हुआ है तो पिता और शिशु का अभिषेक करने से और गण्डान्त के अतिम भाग में जन्म लेने पर माता एवं शिशु का अभिषेक कराने से दोष कटता है।

त्रिखल दोष में जन्म

जब तीन पुत्री के बाद पुत्र का जन्म होता है अथवा तीन पुत्र के बाद पुत्री का जन्म होता है तब त्रिखल दोष लगता है। इस दोष में माता पक्ष और पिता पक्ष दोनों को अशुभता का परिणाम भुगतना पड़ता है। इस दोष के अशुभ प्रभाव से बचने के लिए माता पिता को दोष शांति का उपाय करना चाहिए।

मूल में जन्म दोष

मूल नक्षत्र में जन्म अत्यंत अशुभ माना जाता है। मूल के प्रथम चरण में पिता को दोष लगता है, दूसरे चरण में माता को, तीसरे चरण में धन और अर्थ का नुकसान होता है। इस नक्षत्र में जन्म लेने पर 1 वर्ष के अंदर पिता की, 2 वर्ष के अंदर माता की मृत्यु हो सकती है। 3 वर्ष के अंदर धन की हानि होती है।

इस नक्षत्र में जन्म लेने पर 1वर्ष के अंदर जातक की भी मृत्यु की संभावना रहती है। इस अशुभ स्थित का उपाय यह है कि मास या वर्ष के भीतर जब भी मूल नक्षत्र पड़े मूल शान्ति करा देनी चाहिए। अपवाद स्वरूप मूल का चौथ चरण जन्म लेने वाले व्यक्ति के स्वयं के लिए शुभ होता है।

अन्य दोष

ज्योतिषशास्त्र में इन दोषों के अलावा कई अन्य योग और हैं जिनमें जन्म होने पर अशुभ माना जाता है इनमें से कुछ हैं यमघण्ट योग, वैधृति या व्यतिपात योग एव दग्धादि योग हें। इन योगों में अगर जन्म होता है तो इसकी शांति अवश्य करानी चाहिए।

अति महत्वपूर्ण जानकारी

अति महत्वपूर्ण जानकारी

एक: एक केवल ईश्वर है।यही अनेकों नाम से प्रसिद्ध है ।
एक: माया या प्रकृति।
एक देवॠषि नारद।
दो लिंग : नर और नारी ।
दो पक्ष : शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष।
दो पूजा : वैदिकी और तांत्रिकी।
दो अयन : उत्तरायन और दक्षिणायन।
दो पदार्थ :शुद्ध और अशुद्ध ।
तीन देव : ब्रह्मा, विष्णु, शंकर।
तीन देवियाँ : सरस्वती, लक्ष्मी, पार्वती।
तीन लोक : पृथ्वी, आकाश, पाताल।
तीन गुण : सत्वगुण, रजोगुण, तमोगुण।
तीन स्थिति : ठोस, द्रव, गैस।
तीन स्तर : प्रारंभ, मध्य, अंत।
तीन पड़ाव : बचपन, जवानी, बुढ़ापा।
तीन रचनाएँ : देव, दानव, मानव।
तीन अवस्था : जागृत, मृत, बेहोशी।
तीन काल : भूत, भविष्य, वर्तमान।
तीन नाड़ी : इडा, पिंगला, सुषुम्ना।
तीन संध्या : प्रात:, मध्याह्न, सायं।
तीन शक्ति : इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति।
तीनसृष्टिभेद:प्राकृत, वैकृत तथा प्राकृत वैकृत ।
चार धाम : बद्रीनाथ, जगन्नाथ पुरी, रामेश्वरम्, द्वारका।
चार मुनि : सनत, सनातन, सनंद, सनत कुमार।
चार वर्ण : ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र।
चार निति : साम, दाम, दंड, भेद।
चार वेद : सामवेद, ॠग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद।
चार स्त्री : माता, पत्नी, बहन, पुत्री।
चार युग : सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर युग, कलयुग।
चार समय : सुबह, शाम, दिन, रात।
चार अप्सरा : उर्वशी, रंभा, मेनका, तिलोत्तमा।
चार गुरु : माता, पिता, शिक्षक, आध्यात्मिक गुरु।
चार प्राणी : जलचर, थलचर, नभचर, उभयचर।
चार जीव : अण्डज, पिंडज, स्वेदज, उद्भिज।
चार वाणी : ओम्कार्, अकार्, उकार, मकार्।
चार आश्रम : ब्रह्मचर्य, ग्राहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास।
चार धर्मधर्माचरण : विद्या, दान,तप,और सत्य ।
चार ब्रह्मचर्यवृत्तियां: सावित्र,प्राजापत्य,ब्राम्ह और बृहत्।
चार गृहस्थवृत्तियां: वार्ता, संचय,शालीन् और शिलोञ्छ ।
चार वानप्रस्थवृत्तियां :वैखानस,बालखिल्य,औदुम्बर और फेनफ।
चार व्याहृतियां: भू,भुव:,स्व:,तथा मह:।
चार ॠषि: सनत् सनन्दन,सनातन, सनत्कुमार चारसंन्यासवृत्तियां :कुटीचक,बहूदक,हंस,औरनिष्क्रिय(परमहंस )
चार विद्यायें: आन्वीक्षिकी,त्रयी,वार्ता औरदण्डनीति ।
चार भोज्य : खाद्य, पेय, लेह्य, चोष्य।
चार पुरुषार्थ : धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष।
चार वाद्य : तत्, सुषिर, अवनद्व, घन।
चार अन्त:करण मन,बुद्धि, चित्त तथा अंहकार।
पाँच तत्व : पृथ्वी, आकाश, अग्नि, जल, वायु।
पाँच देवता : गणेश, दुर्गा, विष्णु, शंकर, सुर्य।
पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ : आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा।
पाँच कर्म : रस, रुप, गंध, स्पर्श, ध्वनि।
पाँच उंगलियां : अँगूठा, तर्जनी, मध्यमा, अनामिका, कनिष्ठा।
पाँच पूजा उपचार : गंध, पुष्प, धुप, दीप, नैवेद्य।
पाँच अमृत : दूध, दही, घी, शहद, शक्कर।
पाँच प्रेत : भूत, पिशाच, वैताल, कुष्मांड, ब्रह्मराक्षस।
पाँच स्वाद : मीठा, चर्खा, खट्टा, खारा, कड़वा।
पाँच वायु : प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान।
पाँच इन्द्रियाँ : आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा, मन।
पाँच वटवृक्ष : सिद्धवट (उज्जैन), अक्षयवट (Prayagraj), बोधिवट (बोधगया), वंशीवट (वृंदावन), साक्षीवट (गया)।
पाँच पत्ते : आम, पीपल, बरगद, गुलर, अशोक।
पाँच कन्या : अहिल्या, तारा, मंदोदरी, कुंती, द्रौपदी।

छ: ॠतु : शीत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, बसंत, शिशिर।
छ: ज्ञान के अंग : शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष।
छ: कर्म : देवपूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप, दान।
छ: दोष : काम, क्रोध, मद (घमंड), लोभ (लालच), मोह, आलस्य।

सात छंद : गायत्री, उष्णिक, अनुष्टुप, वृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप, जगती।
सात स्वर : सा, रे, ग, म, प, ध, नि।
सात सुर : षडज्, ॠषभ्, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत, निषाद।
सात चक्र : सहस्त्रार, आज्ञा, विशुद्ध, अनाहत, मणिपुर, स्वाधिष्ठान, मुलाधार।
सात वार : रवि, सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि।
सात मिट्टी : गौशाला, घुड़साल, हाथीसाल, राजद्वार, बाम्बी की मिट्टी, नदी संगम, तालाब।
सात महाद्वीप : जम्बुद्वीप (एशिया), प्लक्षद्वीप, शाल्मलीद्वीप, कुशद्वीप, क्रौंचद्वीप, शाकद्वीप, पुष्करद्वीप।
सात ॠषि : वशिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भारद्वाज, अत्रि, वामदेव, शौनक।
सात ॠषि : वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र, भारद्वाज।
सात धातु (शारीरिक) : रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, वीर्य।
सात रंग : बैंगनी, जामुनी, नीला, हरा, पीला, नारंगी, लाल।
सात पाताल : अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल, पाताल।
सात पुरी : मथुरा, हरिद्वार, काशी, अयोध्या, उज्जैन, द्वारका, काञ्ची।
सात धान्य : उड़द, गेहूँ, चना, चांवल, जौ, मूँग, बाजरा।

आठ मातृका : ब्राह्मी, वैष्णवी, माहेश्वरी, कौमारी, ऐन्द्री, वाराही, नारसिंही, चामुंडा।
आठ लक्ष्मी : आदिलक्ष्मी, धनलक्ष्मी, धान्यलक्ष्मी, गजलक्ष्मी, संतानलक्ष्मी, वीरलक्ष्मी, विजयलक्ष्मी, विद्यालक्ष्मी।
आठ वसु : अप (अह:/अयज), ध्रुव, सोम, धर, अनिल, अनल, प्रत्युष, प्रभास।
आठ सिद्धि : अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व।
आठ धातु : सोना, चांदी, ताम्बा, सीसा जस्ता, टिन, लोहा, पारा।

नवदुर्गा : शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघंटा, कुष्मांडा, स्कन्दमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धिदात्री।
नवग्रह : सुर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु, केतु।
नवरत्न : हीरा, पन्ना, मोती, माणिक, मूंगा, पुखराज, नीलम, गोमेद, लहसुनिया।
नवनिधि : पद्मनिधि, महापद्मनिधि, नीलनिधि, मुकुंदनिधि, नंदनिधि, मकरनिधि, कच्छपनिधि, शंखनिधि, खर्व/मिश्र निधि।

दस महाविद्या : काली, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्तिका, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी, कमला।
दस दिशाएँ : पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, आग्नेय, नैॠत्य, वायव्य, ईशान, ऊपर, नीचे।
दस दिक्पाल : इन्द्र, अग्नि, यमराज, नैॠिति, वरुण, वायुदेव, कुबेर, ईशान, ब्रह्मा, अनंत।
दस अवतार (विष्णुजी) : मत्स्य, कच्छप, वाराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध, कल्कि।
दस सति : सावित्री, अनुसुइया, मंदोदरी, तुलसी, द्रौपदी, गांधारी, सीता, दमयन्ती, सुलक्षणा, अरुंधती।

उक्त जानकारी वेदों के आधार पर.

Thursday, June 6, 2019

हनुमान जी के चमत्कारिक मंत्र भाग 2

हनुमान जी के चमत्कारिक मंत्र भाग 2

संकट से रक्षा का शाबर मन्त्र

मन्त्रः-

“हनुमान हठीला लौंग की काट, बजरंग का टीला ! लावो सुपारी । सवा सौ मन का भोगरा, उठाए बड़ा पहलवान । आस कीलूँ – पास कीलूँ, कीलूँ अपनी काया । जागता मसान कीलूँ, बैठूँ जिसकी छाया । जो मुझ पर चोट-चपट करें, तू उस पर बगरंग ! सिला चला । ना चलावे, तो अञ्जनी मा की चीर फाड़ लंगोट करें, दूध पिया हराम करें । माता सीता की दूहाई, भगवान् राम की दुहाई । मेरे गुरु की दुहाई ।”


विधिः-

हनुमान् जी के प्रति समर्पण व श्रद्धा का भाव रखते हुए शुभ मंगलवार से उक्त मन्त्र का नित्य एक माला जप ९० दिन तक करे । पञ्चोपचारों से हनुमान् जी की पूजा करे । इससे मन्त्र में वर्णित कार्यों की सिद्धि होगी एवं शत्रुओं का नाश होगा तथा परिवार की संकटों से रक्षा होगी

हनुमान जी के चमत्कारिक मंत्र भाग 4

हनुमान जी के चमत्कारिक मंत्र भाग 4

सर्वेष्टसिद्धि के लिए हनुमान जी के मन्त्र –

इन्द्रस्वर (औं) और इन्दु (अनुस्वार) इन दोनों के साथ वराह (ह्) अर्थात् (हौं), यह प्रथम बीज है । फिर झिण्टीश (ए) बिन्दु (अनुस्वार) सहित ह् स् फ् औरअग्नि (र्) अर्थात (ह्स्फ्रें), यह द्वितीय बीज कहा गया है । रुद्र (ए) एवंबिन्दु अनुस्वार सहित गदी (ख्) पान्त (फ्) तथा अग्नि (र्) अर्थात् (ख्फ्रें), यह तृतीय बीज है । मनु (औ), चन्द्र (अनुस्वार) सहित ह् स् र्अर्थात् (ह्स्त्रौं), यह चतुर्थ बीज है । शिव (ए) एवं बिन्दु (अनुस्वार)सहित ह् स् ख् फ् तथा र अर्थात (ह्ख्फ्रें), यह पञ्चम बीज है । मनु (औ)इन्दु अनुस्वार सहित ह् तथा स् अर्थात् (ह्सौं), यह षष्ठ बीज है । इसके बादचतुर्थ्यन्त हनुमान् (हनुमते) फिर अन्त में हार्द (नमः) लगाने से १२अक्षरों का मन्त्र बनता है


द्वादशाक्षर हनुमत् मन्त्र कास्वरुप इस प्रकार है – १. हौं २. ह्स्फ्रें, ३. ख्फ्रें, ४. ह्स्त्रौं ५.ह्स्ख्फ्रें ६., हनुमते नमः (१२)


इस मन्त्र के रामचन्द्र ऋषि हैं, जगती छन्द है, हनुमान् देवता है तथा षष्ठ ह्सौं बीज है, द्वितीय ह्स्फ्रें शक्ति माना गया है


विमर्श – विनियोग का स्वरुप इस प्रकार है – ‘ॐ अस्य श्रीहनुमन्मन्त्रस्यरामचन्द्र ऋषिः जगतीछन्दः हनुमान् देवता ह्स्ॐ बीजं ह्स्फ्रें शक्तिःआत्मनोऽभीष्ट सिद्धयर्थे जपे विनियोगः;


षडङ्ग एवंवर्णन्यास – ऊपर कहे गये मन्त्र के छः बीजाक्षरों से षडङ्गन्यासकरना चाहिए । फिर मन्त्र के एक एक वर्ण का क्रमशः १. शिर, २. ललाट, ३.नेत्र, ४. मुख, ५. कण्ठ, ६. दोनो हाथ, ७. हृदय, ८. दोनों कुक्षि, ९. नाभि, १०. लिङ्ग ११. दोनों जानु, एवं १२. पैरों में, इस प्रकार १२ स्थानों में १२वर्णों का न्यास करना चाहिए


विमर्श – षडङ्गन्यास का प्रकार –हौं हृदयाय नमः, ह्स्फ्रें शिरसे स्वाहा, ख्फ्रें शिखायै वषट्,ह्स्त्रौं कवचाय हुम्, ह्स्ख्फ्रें नेत्रत्रयाय वौषट, ह्स्ॐ अस्त्राय फट् ।

वर्णन्यास – हौं नमः मूर्ध्नि, ह्ख्फ्रें नमः ललाटे, ख्फ्रें नमः नेत्रयोः,हं नमः हृदि, नुं नमः कुक्ष्योः मं नमः नाभौ,ते नमः लिङ्गे नं नमः जान्वोः, मं नमः पादयोः

पदन्यास – ६ बीजों एवं दोनों पदों का क्रमशः शिर, ललाट, मुख, हृदय, नाभि, ऊरु जंघा, एवं पैरों में न्यास करना चाहिए



विमर्श – हौं नमः मूर्ध्नि, हस्फ्रें नमः ललाटे, ख्फ्रें नमः मुखे,ह्स्त्रौ नमः हृदि, ह्स्ख्फ्रें नमः नाभौ, ह्सौं नमः ऊर्वोः,हनुमते नमः जंघयोः, नमः नमः पादयोः


ध्यान – 

उदीयमान सूर्य के समान कान्ति से युक्त, तीनों लोको कोक्षोभित करने वाले, सुन्दर, सुग्रीव आदि समस्त वानर समुदायोम से सेव्यमानचरणों वाले, अपने भयंकर सिंहनाद से राक्षस समुदायों को भयभीत करने वाले, श्री राम के चरणारविन्दों का स्मरण करने वाले हनुमान् जी का मैं ध्यान करताहूँ ॥


इस प्रकार ध्यान कर अपने मन तथा इन्द्रियों को वश में कर साधक बारह हजार की संख्या में जप करे तथा दूध, दही, एवं घी मिश्रित व्रीहि (धान) से उसका दशांश होम करे विमला आदि शक्तियों से युक्त पीठ पर श्री हनुमान् जी का पूजन करना चाहिए विमर्श –

प्रथम वृत्ताकारकर्णिका,फिर अष्टदल एवं भूपुर सहित यन्त्र का निर्माणकरे । फिर श्लोक में वर्णित हनुमान्‍ जी के स्वरुप का ध्यान कर मानसोपचार से पूजन कर अर्घ्य स्थापित करे । फिर वर्णित विधिसे वैष्णव पीठ पर उनका पूजन करे । यथा – पीठमध्ये-ॐ आधारशक्तये नमः, ॐ प्रकृत्यै नमः, ॐ कूर्माय नमः,ॐ अनन्ताय नमः, ॐ पृथिव्यै नमः, ॐ क्षीरसमुद्राय नमः,ॐ मणिवेदिकायै नम्ह, ॐ रत्नसिंहासनाय नमः,तदनन्तर आग्नेयादि कोणों में धर्म आदि का तथा दिशाओं में अधर्म आदि का इस प्रकार पूजन करना चाहिए । यथा –ॐ धर्माय नमः, आग्नेये, ॐ ज्ञानाय नमः, नैऋत्ये,ॐ वैराग्याय नमः वायव्ये, ॐ ऐश्वर्याय नमः ऐशान्ये,ॐ अधर्माय नमः पूर्वे, ॐ अज्ञानाय नमः, दक्षिणे,ॐ अवैराग्याय नमः पश्चिमे, ॐ अनैश्वर्याय नमः, उत्तरे,पुनः पीठ के मध्य में अनन्त आदि का-ॐ अनन्ताय नमः,ॐ पद्माय नमः,ॐ अं सूर्यमण्डलाय द्वादशकलात्मने नमःॐ उं सोममण्डलाय षोडशकलात्मने नमः,ॐ रं वहिनमण्डलाय दशकलात्मने नमःॐ सं सत्त्वाय नमः,ॐ रं रजसे नमः,ॐ तं तमसे नमः,ॐ आं आत्मने नमः,ॐ अं अन्तरात्मने नमः,ॐ पं परमात्मने नमः,ॐ ह्रीं ज्ञानात्मने नमः, पूर्वेकेशरों के ८ दिशाओं में तथा मध्य में विमला आदि शक्तियों का इस प्रकार पूजन करना चाहिए –ॐ विमलायै नमः, ॐ उत्कर्षिण्यै नमः, ॐ ज्ञानायै नमः,ॐ क्रियायै नमः, ॐ योगायै नमः, ॐ प्रहव्यै नमः,ॐ सत्यायै नमः, ॐ ईशानायै नमः ॐ अनुग्रहायै नमः ।तदनन्तर ‘ॐ नमो भगवते विष्णवे सर्वभूतात्मसंयोगयोगपद्‌पीठात्मने नमः’  इस पीठ मन्त्र से पीठ को पूजित कर पीठ पर आसन ध्यान आवाहनादि उपचारों से हनुमान् जी का पूजन कर मूलमन्त्र से पुष्पाञ्जलि समर्पित करनी चाहिए । तदनन्तर उनकी अनुज्ञा ले आवरण पूजा प्रारम्भ करनी चाहिए ॥


आवरण पूजा का विधान  –

सर्वप्रथम केसरों में अङ्गपूजा तथा दलों परतत्तन्नामोम द्वारा हनुमान् जी का पूजन करना चाहिए । रामभक्त महातेजा, कपिराज, महाबल, दोणाद्रिहारक, मेरुपीठकार्चनकारक, दक्षिणाशाभास्कर तथासर्वविघ्ननिवारक ये ८ उनके नाम हैं । नामों से पूजन करने बाद दलों केअग्रभाग में सुग्रीव, अंगद, नील, जाम्बवन्त, नल, सुषेण, द्विविद और मयन्दये ८ वानर है । तदनन्तर दिक्पालोम का भी पूजन करना चाहिए ॥


विमर्श – 

आवरण पूजा विधि – प्रथम केसरों में आग्नेयादि क्रम सेअङ्ग्पूजा यथा – हौं हृदयाय नमः, ह्स्फ्रें शिरसे स्वाहा, ख्फ्रें शिखायै वषट्,ह्स्त्रौं कवचाय हुम्, हस्ख्फ्रें नेत्रत्रयाय वौषट्, ह्स्ॐ अस्त्राय फट्,फिर दलों में पूर्वादि दिशाओं के क्रम से नाम मन्त्रों से –ॐ रामभक्ताय नमः, ॐ महातेजसे नमः, ॐ कपिराजाय नमः,ॐ महाबलाय नमः, ॐ द्रोणादिहारकाय नमः, ॐ मेरुपीठकार्चनकारकाय नमः,ॐ दक्षिणाशाभास्कराय नमः, ॐ सर्वविघ्ननिवारकाय नमः ।तदनन्तर दलों के अग्रभाग पर सुग्रीवादि की पूर्वादि क्रम से यथा –ॐ सुग्रीवाय नमः, ॐ अंगदाय नमः, ॐ नीलाय नमः,ॐ जाम्बवन्ताय नमः, ॐ नलाय नमः, ॐ सुषेणाय नमः,ॐ द्विविदाय नमः, ॐ मैन्दाय नमः,फिर भूपुर में पूर्वादि क्रम से इन्द्रादि दिक्पालों की यथा –ॐ लं इन्द्राय नमः, पूर्वे, ॐ रं अग्नयेः आग्नेये,ॐ यं यमाय नमः दक्षिणे ॐ क्षं निऋत्ये नमः, नैऋत्ये,ॐ वं वरुणाय नमः, पश्चिमे, ॐ यं वायवे नमः वायव्ये,ॐ सं सोमाय नमः उत्तरे ॐ हं ईशानाय नमः ऐशान्ये,ॐ आं ब्रह्मणे नमः पूर्वैशानयोर्मध्ये,ॐ ह्रीं अनन्ताय नमः पश्चिमनैऋत्ययोर्मध्येइस प्रकार आवरण पूजा कर मूलमन्त्र से पुनः हनुमान् जी का धूप, दीपादि उपचारों से पूजन करना चाहिए


काम्य प्रयोग – 

इस प्रकार मन्त्र सिद्ध हो जाने पर साधक अपना या दूसरों का अभीष्ट कार्य करे केला, बिजौरा, आम्रफलों से एक हजार आहुतियाँ दे और २२ ब्रह्मचारी ब्राह्मणों कोभोजन करावे । ऐसा करने से महाभूत, विष, चोरों आदि के उपद्रव नष्ट हो जातेहैं । इतना ही नहीं विद्वेष करने वाले, ग्रह और दानव भी ऐसा करने नष्ट होजाते है १०८ बार मन्त्र से अभिमन्त्रित जल विष को नष्ट करदेता है । जो व्यक्ति रात्रि में १० दिन पर्यन्त ८०० की संख्या में इस मन्त्र का जप करत है उसका राजभय तथा शत्रुभय से छुटकारा हो जाता है ।अभिचार जन्य तथा भूतजन्य ज्वर में इस मन्त्र से अभिमन्त्रित जल या भस्मद्वारा क्रोधपूर्वक ज्वरग्रस्त रोगी को प्रताडित करना चाहिए । ऐसा करने सेवह तीन दिन के भीतर ज्वर मुक्त हो कर सुखी हो जाता है । इस मन्त्र सेअभिमन्त्रित औषधि खाने से निश्चित रुप से आरोग्य की प्राप्ति हो जाती है॥इस मन्त्र से अभिमन्त्रित जल पीकर तथा इस मन्त्र को जपतेहुये अपने शरीर में भस्म लगाकर जो व्यक्ति इस मन्त्र का जप करते हुये रणभूमि में जाता हैं,युद्ध में नाना प्रकार के शस्त्र समुदाय उस को कोईबाधा नहीं पहुँचा सकते चाहे शस्त्र का घाव हो अथवा अन्य प्रकारका घाव हो, शोध अथवा लूता आदि चर्मरोग एवं फोडे फुन्सियाँ इस मन्त्र से ३बार अभिमन्त्रित भस्म के लगाने से शीघ्र ही सूख जाती हैं अपनीइन्द्रियों को वश में कर साधक को सूर्यास्त से ले कर सूर्योदय पर्यन्त ७दिन कील एवं भस्म ले कर इस मन्त्र का जप करन चाहिए । फिर शत्रुओं को बिना जनाये उस भस्म को एवं कीलों को शत्रु के दरवाजे पर गाड दे तो ऐसा करने से शत्रु परस्पर झगड कर शीघ्र ही स्वयं भाग जाते हैं

अपने शरीरपर लगाये गये चन्दन के साथ इस मन्त्र से अभिमन्त्रित जल एवं भस्म को खाद्यान्न के साथ मिलाकर खिलाने से खाने वाला व्यक्ति दास हो जाता है ।इतना ही नहीं ऐसा करने से क्रूर जानवर भी वश में हो जाते हैं करञ्जवृक्ष के ईशानकोण की जड ले कर उससे हनुमान् जी की प्रतिमा निर्माण कराकरप्राणप्रतिष्ठा कर सिन्दूर से लेपकर इस मन्त्र का जप करते हुये उसे घर केदरवाजे पर गाड देनी चाहिए । ऐसा करने से उस घर में भूत, अभिचार, चोर, अग्नि, विष, रोग, तथा नृप जन्य उपद्रव कभी भी नहीं होते और घर में प्रतिदिनधन, पुत्रादि की अभिवृद्धि होती हैं


मारण प्रयोग – 

रात्रिमें श्मशान भूमि की मिट्टी या भस्म से शत्रु की प्रतिमा बनाकर हृदय स्थानमें उसक नाम लिखना चाहिए । फिर उसमें प्राण प्रतिष्ठा कर, मन्त्र के बाद शत्रु का नाम, फिर छिन्धि भिन्धि एवं मारय लगाकर उसका जप करते हुये शस्त्रद्वारा उसे टुकडे -टुकडे कर देना चाहिए । फिर होठों को दाँतों के नीचे दबाकर हथेलियों से उसे मसल देना चाहिए । तदनन्तर उसे वहीं छोडकर अपन घर आ जाना चाहिए । ७ दिन तक ऐसा लगातार करते रहने से भगवान् शिव द्वारा रक्षित भी शत्रु मर जाता है श्मशान स्थान में अपने केशों को खोलकरअर्धचन्द्राकृति वाले कुण्ड में अथवा स्थाण्डिल (वेदी) पर राई नमक मिश्रित धतूर के फल, उसके पुष्प, कौवा उल्लू एवं गीध के नाखून, रोम और पंखों से तथा विष से लिसोडा एवं बहेडा की समिधा में दक्षिणाभिमुख हो रात में एक सप्ताह पर्यन्त निरन्तर होम करने से उद्धत शत्रु भी मर जाता है


बेताल सिद्धि प्रयोग –

श्मशान में रात्रि के समय लगातार तीन दिन तक प्रतिदिन ६०० की संख्या में इस मूल मन्त्र का जप करते रहने से बेताल खडा हो कर साधक का दास बन जाता है और भविष्य में होने वाले शुभ अथवा घटनाओ को तथा अन्य प्रकार की शंकाओं की भी साफ साफ कह देता है साधक हनुमान् जी की प्रतिमा के सामने साध्य का द्वितीयान्त नाम, फिर ‘विमोचयविमोचय’ पद, तदनन्तर, मूल मन्त्र लिखे । फिर उसे बायें हाथ से मिटा देवे, यह लिखने और मिटाने की प्रक्रियाः पुनः पुनः करते रहना चाहिए । इस प्रकार एक सौ आठ बार लिखते मिटाते रहने से बन्दी शीघ्र ही हथकडी और बेडी से मुक्त हो जाता है । हनुमान् जी के पैरों के नीचे ‘अमुकं विद्वेषय विद्वेषय’ लगाकर विद्वेषण करे, ‘अमुकं उच्चाटय उच्चाटय’ लगाकर उच्चाटन करे तथा ‘मारय मारय’ लगाकर मारण का भी प्रयोग किया जा सकता है विमर्श – बिना गुरु के मारन एवं विद्वेषण आदि प्रयोगों को करने से स्वयं पर ही आघात हो जाता है विविध कामनाओं में होम का विधान  –

वश्य कर्म में सरसों से, विद्वेष में कनेर के पुष्प, लकडियों से, अथवा जीरा एवं काली मिर्च से भी होम करना चाहिए ज्वर में दूर्वा, गुडूची, दही, घृत, दूध से तथा शूल में कुवेराक्ष (षांढर) एवं रेडी की समिधाओं से अथवा तेल में डुबोई गई निर्गुण्डी की समिधाओं से प्रयत्नपूर्वक होम करना चाहिए । सौभाग्य प्राप्तिके लिए चन्दन, कपूर, गोरोचन, इलायची, और लौंग से वस्त्र प्राप्ति के लिए सुगन्धित पुष्पों से तथा धान्य वृद्धि के लिए धान्य से ही होम करना चाहिए ।शत्रु की मृत्यु के लिए उसके परि की मिट्टी राई और नमक मिलाकर होम करने से उसकी मृत्यु हो जाती है सिद्ध किया हुआ यह मन्त्र मनुष्यो को विष, व्याधि, शान्ति, मोहन, मारण, विवाद, स्तम्भन, द्यूत, भूतभय संकट, वशीकरण, युद्ध, राजद्वार, संग्राम एवं चौरादि द्वारा संकट उपस्थित होने पर निश्चित रुप से इष्टसिद्धि प्रदान करता है धारण के लिए हनुमान जी के सर्वसिद्धिदायक यन्त्र –पुच्छके आकार समान तीन वलय (घेरा) बनाना चाहिए । उसके बीच में धारण करन वाले साध्य का नाम लिखकर दूसरे घेरे में पाश बीज (आं) लिखकर उसे वेष्टित कर देना चाहिए । फिर वलय के ऊपर अष्टदल बनाकर पत्रों में वर्म बीज (हुम्) लिखना चाहिए । फिर उसके बाहर वृत्त बनाकर उसके ऊपर चौकोर चतुरस्त्र लिखना चाहिए । फिर चतुरस्त्र के चारो भुजाओं के अग्रभाग में दोनों ओर त्रिशूल का चिन्ह बनाना चाहिए । तत्पश्चात भूपुर के अष्ट वज्रों (चारों दिशाओं, चारो कोणों)में ह्सौं यह बीज लिखना चाहिए । फिर कोणों पर अंकुश बीज (क्रों) लिखकर उस चतुरस्त्र को वक्ष्यमाण मालामन्त्र से वेष्टित कर देना चाहिए । तत्पश्चात सारे मन्त्रों को तीन वलयोम (गोलाकार घेरों) से वेष्टित कर देना चाहिए


यह यन्त्र, वस्त्र, शिला, काष्ठफलक, ताम्रपत्र, दीवार, भोजपत्र या ताडपत्र पर गोरोचन, कस्तूरी एवं कुंकुम (केशर) से लिखना चाहिए । साधक उपवास तथा ब्रह्मचर्य का पालन करते हुये मन्त्र में हनुमान्‍ जी की प्राणप्रतिष्ठा कर विधिवत् उसका पूजन करे । सभी प्रकार के दुःखों से छुटकारा पाने के लिए यह यन्त्र स्वयं भी धारण करना चाहिए उक्त लिखित यन्त्र ज्वर, शत्रु, एवं अभिचार जन्य बाधाओं को नष्ट करता है तथा सभी प्रकार के उपरद्रवों को शान्त करता है । किं बहुना स्त्रियों तथा बच्चों द्वारा धारण करने पर यह उनका भी कल्याण करता है


अब ऊपर प्रतिज्ञात माला मन्त्र का उद्धार कहते हैं – प्रथम प्रणव (ॐ), वाग्‍ (ऐं), हरिप्रिया (श्रीं), फिर दीर्घत्रय सहित माया (ह्रां ह्रीं ह्रूं), फिरपूर्वोक्त पाँच कूट (ह्स्फ्रें ख्फ्रें ह्स्त्रौं ह्स्ख्फ्रें ह्सौं) तथातार (ॐ), फिर ‘नमो हनुमते प्रकट’ के बाद ‘पराक्रम आक्रान्तदिङ्‌मण्डलयशोवि’ फिर ‘तान’ कहना चाहिए, फिर ‘ध्वलीकृत’ पद के बाद ‘जगत्त्रितय और ‘वज्र’ कहना चाहिए । फिर ‘देहज्वलदग्निसूर्यकोटि’ के बाद ‘समप्रभतनूरुहरुद्रवतार’, इतना पद कहना चाहिए । फिर ‘लंकापुरी दह’ के बाद ‘नोदधिलंघन’, फिर ‘दशग्रीवशिरः कृतान्तक सीताश्वासनवायु’, के बाद ‘सुतं’ शब्द कहना चाहिए फिर ‘अञ्जनागर्भसंभूत श्रीरामलक्ष्मणानन्दक’, फिर ‘रकपि’, ‘सैन्यप्राकार’, फिर ‘सुग्रीवसख्यका’ केबाद ‘रणबालिनिबर्हण कारण द्रोणपर्व’ के बाद ‘तोत्पाटन’ इतना कहना चाहिए ।फिर ‘अशोक वन वि’ के बाद, ‘दारणाक्षकुमारकच्छेदन’ के बाद फिर ‘वन’ शब्द, फिर ‘रक्षाकरसमूहविभञ्जन’, फिर ‘ब्रह्मारस्त्र ब्रह्मशक्ति ग्रस’ और ‘नलक्ष्मण’ के बाद ‘शक्तिभेदनिवारण’ तथा ‘विशलौषधि’ वर्ण के बाद ‘समानयनबालोदितभानु’, फिर ‘मण्डलग्रसन’ के बाद ‘मेघनाद होम’ फिर ‘विध वंसन’ यह पदबोलना चाहिए । फिर ‘इन्द्रजिद्वधकार’ के बाद, ‘णसीतारक्षक राक्षसीसंघ’, विदारण’, फिर ‘कुम्भकर्णादिवध’ शब्दो के बाद, ‘परायण’, यह पद बोलना चाहिए । फिर ‘श्री रामभक्ति’ के बाद ‘तत्पर-समुद्र-व्योम द्रुमलंघनमहासामर्घमहातेजःपुञ्जविराजमान’ स्बद, तथा ‘स्वामिवचसंपादितार्जुन’ के बाद ‘संयुगसहाय’ एवं ‘कुमार ब्रह्मचारिन्’ पद कहना चाहिए । फिर ‘गम्भीरशब्दो’ के बाद अत्रि (द), वायु(य) , फिर ‘दक्षिणाशा’, पद, तथा ‘मार्तण्डमेरु’ शब्न्द के बाद ‘पर्वत’ शब्द कहना चाहिए । फिर ‘पीठेकार्चन’ शब्द के बाद ‘सकल मन्त्रागमार्चाय मम सर्वग्रहविनाशन सर्वज्वरोच्चाटन और ‘सर्वविषविनाशनसर्वापत्ति निवारण सर्वदुष्ट’ इतना पढना चाहिए । फिर ‘निबर्हण’ पद, तथा ‘सर्वव्याघ्रादिभय’, उसके बाद ‘निवारण सर्वशत्रुच्छेदन मम परस्य च भुवनपुंस्त्रीनपुंसकात्मकं सर्वजीव’ पद के बाद ‘जातं’, फिर ‘वशय’ यह पद दोबार, फिर ‘ममाज्ञाकारक’ के बाद दो बार ‘संपादय’, फिर ‘नाना नाम’ शब्द, फिर ‘धेयान्‍ सर्वान् राज्ञः स” इतना पद कहना चाहिए । फिर ‘परिवारन्मम सेवकान्’ फिर दो बार ‘कुरु’, फिर ‘सर्वशस्त्रास्त्र वि’ के बाद ‘षाणि’, तदनन्तर दोबार ‘विध्वंसय’ फिर दीर्घत्रयान्विता माया (ह्रां ह्रीं ह्रूँ), फिर हात्रय (हा हा हा) एहि युग्म (एह्येहि), विलोमक्रम से पञ्चकूट (ह्सौं ह्स्ख्फ्रेंह्स्त्रौं ख्फ्रें ह्स्फ्रें) और फिर ‘सर्वशत्रून’, तदनन्तर दो बार हन (हनहन), फिर ‘परद’ के बाद ‘लानि परसैन्यानि’, फिर क्षोभय यह पद दो बार (क्षोभय क्षोभय), फिर ‘मम सर्वकार्यजातं’ तथा २ बार कीलय (कीलय कीलय), फिरघेत्रय (घे घे घे), फिर हात्रय (हा हा हा), वर्म त्रितय (हुं हुं हुं), फिर३ बार फट् और इसके अन्त में वह्रिप्रिया, (स्वाहा) लगाने सेसर्वाभीष्टकारक ५८८ अक्षरों का  हनुन्माला मन्त्र बनता है । मन्त्र के जप से सारे दुःख नष्ट हो जाते हैं


विमर्श – हनुमन्माला मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – ‘ॐ ऐं श्रीं ह्रां ह्रींह्रूं ह्स्फ्रें ह्स्रौं ह्स्ख्फ्रें ह्सौं ॐ नमो हनुमते प्रकटपराकरमआक्रान्त दिङ्मतण्डलयशोवितान धवलीकृतजगत्त्रितय वज्रदेह ज्वलदन्गिसूर्यकोटि समप्रभतनूरुह रुद्रावतार लंकापुरीदहनोदधिलंघनदशग्रीवशिरःकृतान्तक सीताश्वासन वायुसुत अञ्जनागर्भसंभूतश्रीरामलक्ष्मणानन्दकर कपिसैन्यप्राकार सुग्रीवसख्यकारण बालिनिबर्हण-कारणद्रोणपर्वतोत्पाटन अशोकवनविदारण अक्षकुमारकच्छेदन वनरक्षाकरसमूहविभञ्जनब्रह्यास्त्रब्रह्यशक्तिग्रसन लक्ष्मणशक्तिभेदेनिवारण विशल्यौषधिसमानयनबालोदितभानुमण्डलग्रसन मेघनादहोमविध्वंसन इन्द्राजिद्वधकाराण सीतारक्षकराक्षासंघविदारण कुम्भकर्णादि-वधपरायण श्रीरामभक्तितत्परसमुद्रव्योमद्रुमलंघन महासामर्घ्य महातेजःपुञ्जविराजमान स्वामिवचनसंपादितअर्जुअनसंयुगसहाय कुमारब्रह्मचारिन् गम्भीरशब्दोदय दक्षिणाशामार्तण्डमेरुपर्वतपीठेकार्चन सकलमन्त्रागमाचार्य मम सर्वग्रहविनाशन सर्वज्वरोच्चाटनसर्वविषविनाशन सर्वापत्तिनिवारण सर्वदुष्टनिबर्हण सर्वव्याघ्रादिभयनिवारणसर्वशत्रुच्छेदन प्रम परस्य च त्रिभुवन पुंस्त्रीनपुंसकात्मकसर्वजीवजातंवशय वशय मम आज्ञाकारक्म संपादय संपादय नानानामध्येयान् सर्वान् राज्ञःसपरिवारान् मम सेवकान् कुरु कुरु सर्वशस्त्रास्त्रविषाणि विध्वंसय विध्वंसयह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रां ह्रां एहि एहि ह्सौं ह्स्ख्फ्रें ह्स्त्रौंख्फ्रें ह्सफ्रें सर्वशत्रून हन हन परदलानि परसैन्यानि क्षोभय क्षोभय ममसर्वकार्यजातं साधय साधय सर्वदुष्टदुर्जनमुखानि कीलय कीलय घे घे घे हा हाहा हुं हुं हुं फट् फट् फट् स्वाहा – मालामन्त्रोऽयमष्टाशीत्याधिकपञ्चशतवर्णः;


पूर्व में कहे गये द्वादशाक्षर मन्त्र के अन्तिम ६ वर्णों को (हनुमते नमः) तथा प्रारम्भ के एक वर्ण हौ को छोडकर जो पञ्च कूटात्मक मन्त्र बनता है वह साधक के सर्वाभीष्ट को पूर्णकर देता है 


विमर्श – पञ्चकूट का स्वरुप – ह्स्फ्रें ख्फ्रें ह्स्त्रौं ह्स्ख्फ्रें ह्सौं इस मन्त्र के राम ऋषि, गायत्री छन्द तथा कपीश्वर देवता हैं

विमर्श – विनियोगः – अस्य श्रीहनुमत पञ्चकूट मन्त्रस्य रामचन्द्रऋषिःगायत्रीच्छन्दः कपीश्वरो देवता आत्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः पञ्चकूटात्मकबीज तथा समस्त मन्त्रों के क्रमशः – हनुमते रामदूताय लक्ष्मण प्राणदात्रेअञ्जनासुताय सीताशोकविनाशाय, लंकाप्रासादभञ्जनाय रुप चतुर्थ्यन्त शब्दों को प्रारम्भ में लगाने से इस मन्त्र का षडङ्गन्यास मन्त्र बन जाता है । इसमन्त्र का ध्यान  तथा पूजापद्धति  पूर्ववत् है


विमर्श – षडङ्गन्यासं-

ह्स्फ्रें हनुमते हृदयाय नमः,ख्फें रामदूताय शिरसे स्वाहा, ह्स्त्रौं लक्ष्मणप्राणदात्रे शिखायै वषट्,ह्स्ख्फ्रें अञ्जनासुताय कवचाय हुम्, ह्सौं सीताशोक विनाशाय नेत्रत्रयाय वौषट्,ह्स्फ्रें ख्फ्रें ह्स्त्र्ॐ ह्स्ख्फ्रें ह्सौं लंकाप्रासादभञ्जनाय अस्त्राय फट्‍ तार (ॐ), वाक् (ऐं), कमला (श्रीं), माया दीर्घत्रयाद्या (ह्रां ह्रीं हूँ), तथा पञ्चकूट (ह्स्फ्रें ख्फ्रें ह्स्त्र्ॐ ह्सौं) लगाने से ११ अक्षरों काअभीष्ट सिद्धिदायक मन्त्र बनता है । इस मन्त्र का ध्यान तथा पूजा पद्धति पूर्ववत हैं


विमर्श – मन्त्र का स्वरुपइस प्रकार है – ‘ॐ ऐं श्रीं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्स्फ्रें ख्फ्रें ह्स्त्र्ॐह्स्ख्फ्रें ह्स्ॐ (११) अब इस मन्त्र के अतिरिक्त अन्यमन्त्र कहते हैं – नम, फिर भगवान् आञ्जनेय तथा महाबल का चतुर्थ्यन्त (भगवते, आञ्जनेयाय महाबलाय), इसके अन्त में वहिनप्रिया (स्वाहा) लगाने सेअष्टादशाक्षर अन्य मन्त्र बन जाता है अष्टादशाक्षार मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – नमो भगवते आञ्जनेयाय महाबलाय स्वाहाविनियोगएवं न्यास – उपर्युक्त अष्टादशाक्षर मन्त्र के ईश्वर ऋषि हैं, अनुष्टुप्छन्द है, और हनुमान् देवता हैम, हुं बीज तथा अग्निप्रिया (स्वाहा) शक्तिहैं आञ्जनेय, रुद्रमूर्ति, वायुपुत्र, अग्निगर्भ, रामदूततथा ब्रह्मस्त्रविनिवारन इनमें चतुर्थ्यन्त लगाकर षडङ्गन्यास कर कपीश्वर काइस प्रकार ध्यान करना चाहिए विमर्श – विनियोग- अस्यश्रीहनुमन्मन्त्रस्य ईश्वरऋषिरनुष्टुप् छन्दः हनुमान् देवता हुं बीजंस्वाहा शक्तिरात्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थं जप विनियोगः ।षडङ्गन्यास विधि – ॐ आञ्जनेयाय हृदयाय नमः,रुद्रमूर्तये शिरसे स्वाहा, ॐ आञ्जनेयाय हृदयाय नमः, अग्निगर्भाय कवचाय हुम् रामदूताय नेत्रत्रयाय वौषट् ब्रह्मास्त्रविनिवारणाय अस्त्राय फट्


उक्त मन्त्र का ध्यान – 

मैम तपाये गये सुवर्ण के समान, जगमगातेहुये, भय को दूर करने वाले, हृदय पर अञ्जलि बाँधे हुये, कानों में लटकतेकुण्डलों से शोभायमान मुख कमल वाले, अदभुत स्वरुप वाले वानरराज को प्रणामकरता हूँ

पुरश्चरण – इस मन्त्र का १० हजार जप करना चाहिए । तदनन्तर तिलों से उसका दशांश होम करना चाहिए । वैष्णव पीठ पर कपीश्वर का पूजन करना चाहिए । पीठ पूजा तथा आवरण पूजा श्लोक में द्रष्टव्यहै


काम्य प्रयोग – 

साधक इस मन्त्र के अनुष्ठानकरते समय इन्द्रियों को वश में रखे । केवल रात्रि में भोजन करे । जो साधक व्यवधान रहित मात्र तीन दिन तक उस १०९ की संख्या में इस का जप करता है वह तीन दिन मे ही क्षुद्र रोगों से छुटकारा पा जाता है । भूत, प्रेत एवं पिश्चाच आदि को दूर करने के लिए भी उक्त मन्त्र का प्रयोग करना चाहिए । किन्तु असाध्य एवं दीर्घकालीन रोगों से मुक्ति पाने के लिए प्रतिदिन एक हजार की संख्या में जप आवश्यक है नियमित एक समय हविष्यान्न भोजन करते हुये जो साधक राक्षस समूह को नष्ट करते हुये कपीश्वर का ध्यान कर प्रतिदिन १० हजार की संख्या में जप करता है वह शीघ्र ही शत्रु पर विजय प्राप्त कर लेता है सुग्रीव के साथ राम की मित्रता कराये हुये कपीश्वर का ध्यान करते हुये इस मन्त्र का १० हजार की संख्या में जप करने से शत्रुओं के साथ सन्धि करायी जा सकती है लंकादहन करते हुये कपीश्वर का ध्यान करते हुये जो साधक इस मन्त्र का दश हजार करता है, उसके शत्रुओं के घर अनायास जल जाते हैं जो साधक यात्रा के समय हनुमान् जी का ध्यान कर इस मन्त्र का जप करता हुआ यात्रा करता है वह अपना अभीष्ट कार्य पूर्ण कर शीघ्र ही घर लौट आता है जो व्यक्ति अपने घर में सदैव हनुमान् जी की पूजा करता है और इस मन्त्र का जप करता है उसकी आयु और संपत्ति नित्य बढती रहती है तथा समस्त उपद्रव अपने आप नष्ट हो जाते है इस मन्त्र के जप से साधक की व्याघ्रादि हिंसक जन्तुओं से तथा तस्करादि उपद्रवी तत्त्वों से रक्षा होती है । इतना ही नहीं सोते समय इस मन्त्र के जप से चोरों से रक्षा तो होती रहती ही है दुःस्वप्नभी दिखाई नहीं देते


प्लीहादि उदर रोगनाशक मन्त्र का उद्धार – 

ध्रुव (ॐ), फिर सद्योजात (ओ) सहिन पवनद्वय (य) अर्थात्‍ ‘योयो’, फिर ‘हनू’ पद, फिर ‘शशांक’ (अनुस्वार) सहित महाकाल (मं), कामिका (त)तथा ‘फलक’, पद, फिर सनेत्रा क्रिया (लि), णान्त (त), मीन (ध) एवं ‘ग’ वर्ण, फिर ‘सात्वत’ (ध) तथा ‘गित आयु राष’ फिर लोहित (प) तथा रुडाह लगाने से २४अक्षरों का मन्त्र बनता है

विमर्श – मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – ‘ॐ यो यो हनूमन्तं फलफलित धग धगितायुराषपरुडाह’ (२४) प्रयोगविधि –

इस मन्त्र के ऋषि आदि पूर्वोक्त मन्त्र के समान है । प्लीहा वाले रोगी के पेट पर पान रखे । उसको उसका आठ गुना कपडा फैलाकर आच्छादित करे, फिरउसके ऊपर हनुमान् जी का ध्यान करते हुये बाँस का टुकडा रखे, फिर जंगल के पत्थर पर उत्पन्न बेर की लकडि से जलायी गई अग्नि में मूलमन्त्र का जपकरते हुये ७ बार यष्टि को तपाना चाहिए । उसी यष्टि से पेट पर रखे बाँस केटुकडे को सात बार संताडित करना चाहिए । ऐसा करने से प्लीहा रोग शीघ्र दूरहो जाता है विजयप्रद प्रयोग – पूँछ जैसीआकृति वाले वस्त्र पर कोयल के पंखे से अष्टगन्ध द्वारा हनुमान् जी की मनोहर मूर्ति निर्माण करना चाहिए । उसके मध्य में शत्रु के नाम से युक्त अष्टादशाक्षर मन्त्र लिखाना चाहिए । फिर उस वस्त्र को इसी मन्त्र सेअभिमन्त्रित कर राजा शिर पर उसे बाँधकर युद्ध भूमि में जावे, तो वह अपने शत्रुओं को देखते देखते निश्चित ही जीत लेता है विजयप्रदध्वज –

युद्ध में अपनेशत्रुओं पर विजय चाहने वाला राजा शत्रु के नाम एवं अष्टादशाक्षर मन्त्र केसाथ पूर्ववत्‍  हनुमान्‍ जी का चित्र ध्वज पर लिखे । उस ध्वज को लेकर ग्रहणके समय स्पर्शकाल से मोक्षकाल पर्यन्त मातृकाओं का जप करे, तथा तिल मिश्रित सरसों से स्पर्शकाल से मोक्ष काल पर्यन्त दशांश होम करे, फिर उस ध्वज को हाथी के ऊपर लगा देवे तो हाथी के ऊपर लगे उस ध्वज को देखते ही शत्रु दल शीघ्रभाग जात है रक्षक यन्त्र–

अष्टदल कमल बनाकर उसकी कर्णिका में साध्य नाम (जिसकी रक्षा की इच्छा हो) लिखना चाहिए ।तदनन्तर दलों में अष्टाक्षर मन्त्र लिखना चाहिए । तदनन्तर वक्ष्यमाण मालामन्त्र से उसे परिवेष्टित करना चाहिए । उसको भी महाबीज (ह्रीं) से परिवेष्टित कर इसमें प्राण प्रतिष्ठा करनी चाहिए शुभ कमलदल को भोजपत्र पर सुर्वण की लेखनी से गोरोचन और कुंकुम मिलाकर उक्त यन्त्र लिखना चाहिए । संपात साधित होम द्वारा सिद्ध इस यन्त्र को स्वर्णअदि से परिवेष्टित (सोने या चाँदी का बना हुआ गुटका में डालकर) भुजा यामस्तक पर उसे धारण करना चाहिए इसकें धारण करने से मनुष्य युद्ध व्यवहार एवं जूए में सदैव विजयी रहता है ग्रह, विघ्न, विष, शस्त्र, तथा चौरादि उसका कुछ बिगाड नहीं सकते । वह भाग्यशाली तथा नीरोग रहकर दीर्घकाल पर्यन्त जीवित रहता है अष्टाक्षर मन्त्र का उद्धार –

अग्नि (र्) सहित वियत् (ह्), इनमें दीर्घ षट्‌क (आं ईंऊं ऐं औं अः) लगाकर उसे तार से संपुटित कर देने पर अष्टाक्षर मन्त्रनिष्पन्न हो जाता है


विमर्श – मन्त्र का स्वरुप – ‘ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रूँ ह्रैं ह्रौं ह्रः औ’


मालामन्त्र का उद्धार – 

वज्रकाय वज्रतुण्ड कपिल, फिर पिङ्गलऊर्ध्वकोष महावर्णबल रक्तमुख तडिज्जिहवमहारौद्रदंष्ट्रोत्कटक, फिर दो बार ह (ह ह), फिर ‘करालिने महादृढप्रहारिन्’ ये पद, फिर ‘लंकेश्वरवधाय’ के बाद ‘महासेतु’ एवं ‘बन्ध’, फिर ‘महाशैल प्रवाह गगने चर एह्येहि भगवान्’ के बाद ‘महाबलपराक्रम भैरवाज्ञापय एह्येहि महारौद्रदीर्घपुच्छेन वेष्टय वैरिणंभञ्जय भञ्जय हुं फट्‌’, इसके प्रारम्भ में प्रणव लगाने से १५ अक्षरों कासर्वर्थदायक माला मन्त्र निष्पन्न होता है


विमर्श – इसमन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – ॐ वज्रकाय बज्रतुण्डकपिल पिङ्गल ऊर्ध्वकेशमहावर्णबल रक्तमुख तडिज्जिहव महारौद्र दंष्टो‌त्कटक ह ह करालिने महादृढप्रहारिन् लंकेश्वरवधाय महासेतुबन्ध महाशैलप्रवाह गगनेचर एह्येहिं भगवन्महाबल पराक्रम भैरवाज्ञापय एह्येहि महारौद्र दीर्घपुच्छेन वेष्टय् वैरिणंभञ्जय भञ्जय हुं फट् । रक्षायन्त्र के लिए विधि स्पष्ट है युद्ध काल में मालामन्त्र का जप विजय प्रदान करता है तथा रोग में जप करने से रागों को दूर करता है अष्टाक्षरएवं मालामन्त्र के ऋषि छन्द तथा देवता पूर्ववत् हैं पूजा तथा प्रयोग की विधि पूर्ववत् है । इनके विषय में बहुत कहने की आवश्यकता नहीं है । कपीश्वर हनुमान् जी सब कुछ अपने भक्तों को देते हैं

विशेष सुचना

( जो भी मंत्र तंत्र टोटका इत्यादि ब्लॉग में दिए गए है वे केवल सूचनार्थ ही है, अगर साधना करनी है तो वो पूर्ण जानकार गुरु के निर्देशन में ही करने से लाभदायक होंगे, किसी भी नुक्सान हानि के लिए प्रकाशक व लेखक जिम्मेदार नहीं होगा। )