Wednesday, March 29, 2023

दुर्गा पूजन DURGA PUJA

दुर्गा  पूजन DURGA  PUJA


दुर्गा षोडश पूजन DURGA SHODASH PUJAN

 

एकान्त स्थान पर जगह को साफ़ करने के बाद उसे नमक मिले पानी से साफ़ करें,और दुर्गा पूजा के लिये कलश स्थापना कर लें,फ़िर प्राण्गमुख होकर आसन पर बैठ जावें,जल से शिखा का प्रेक्षण

करे,और शिखा को बांध लें। तिलक लगाकर आचमन एवं प्राणायाम करें। हाथ में फ़ूल लेकर अंजलि बांध कर दुर्गाजी का ध्यान करे।

ध्यान का मंत्र इस प्रकार है:-

सिंहस्था शशिशेखरा मरकतप्रख्यैश्चतुर्भिभुजै:,शंखं चक्रधनु:शरांश्च दधती नेत्रैस्त्रिभि: शोभिता।

आमुक्तांगदहारकंकणरणत्कांचीरणन्नूपुरा,दुर्गा दुर्गति हारिणी भवतु नो रत्नोल्लसत्कुण्डला॥

(ध्यानार्थे अक्षतपुष्पाणि समर्पयामि ऊँ दुर्गायै नम:)

 

अर्थ:- जो सिंह की पीठ पर विराजमान है,जिनके मस्तक पर चन्द्रमा का मुकुट है,जो मरकतमणि के समान कान्तिवाली अपनी चार भुआओं में शंख चक्र धनुष और बाण धारण करती हैं,तीन नेत्रों से

सुशोभित होती है,जिनके भिन्न भिन्न अंग बांधे हुये बाजूबंद हार कंकण खनखनाती हुई करधनी और रुनझुन करते हुये नूपुरों से विभूषित है,तथा जिनके कानों में रत्न जटित कुण्डल झिलमिलाते रहते

है,वे भगवती दुर्गा हमारी दुर्गति दूर करने वाली हों। यदि प्रतिष्टित मूर्ति हो तो आवाहन की जगह पुष्पांजलि दें,नहीं तो दुर्गाजी का आवाहन करें।

 

आवाहन

आगच्छ त्वं महादेवि ! स्थाने चात्र स्थिरा भव। यावत पूजां करिष्यामि तावत त्वं संनिधौ भव॥

श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नम:। दुर्गादेवीमावाहयामि। आवाहनार्थे पुष्पांजलि समर्पयामि ॥

(दोनो हाथों में फ़ूल लेकर प्रतिमा या आवाहन करने वाले नारियल के ऊपर हाथ का पृष्ठ भाग नीचे रखकर चढायें।

आसन

अनेक रत्न संयुक्तम नाना मणि गणान्वितम। इदम हेममयम दिव्यासनम प्रति गृह्यताम॥

श्री जगदाम्बायै दुर्गा देव्यै नम:। आसनार्थे पुष्पाणि समर्पयामि।

(सजा हुआ आसन या प्रतिमा पर फूल चढाकर आसन पर स्थापित होने की प्रार्थना करें)

पाद्य

गंगादि सर्व तीर्थेभ्य आनीतम तोय मुत्तमम। पाद्यार्थम ते प्रदास्यामि ग्रहाण परमेश्वरि॥

(साफ़ बिना टोंटी के लोटे से प्रतिमा या नारियल में देवी के पैरों में जल चढायें).

 

अर्घ्य

गन्ध पुष्प अक्षतैर्युक्तम अर्घ्यम सम्पादितम मया। ग्रहाण त्वम महादेवि प्रसन्ना भव सर्वदा॥

(पानी में लाल चन्दन घिसकर मिलालें,फ़ूल डाल लें,और चावल मिलाकर देवी के हाथों में लगायें)

 

आचमन

कर्पूरेण सुगन्धेन वासितम स्वादु शीतलम। तोयम आचमनीयार्थम ग्रहाण परमेश्वरि॥

(कोरे घडे से निकाला हुआ ठंडा जल,कपूर मिलाकर देवी को प्रार्थना करके उनको आचमन के लिये चढायें)

 

स्नान

मन्दाकिन्यास्तु यद्वारि सर्वपापहरम शुभम। तदिदम कल्पितम देवि! स्नार्थम प्रतिगृह्यताम॥

(गंगाजल या पवित्र नदी का जल लेकर प्रतिमा अथवा नारियल को स्नान करवाने का क्रम करें)

 

स्नानांग-आचमन

स्नानान्ते पुनराचमनीयम जलम समर्पयामि।

(स्नान के बाद आचमन के लिये शुद्ध कपूर मिला जल दें)

 

दुग्ध स्नान

कामधेनु सम उत्पन्नम सर्व ईशाम जीवनम परम। पावनम यज्ञ हेतुश्च पय: स्नानार्थम अर्पितम॥

(गाय के दूध से स्नान करवायें)

 

दधि स्नान

पयस अस्तु समुद भूतम मधुर अम्लम शशि प्रभम। दध्यानीतम मया देवि! स्नानार्थम प्रति गृह्यताम॥

(गाय के दही से स्नान करवायें)

 

घृतस्नान

नवनीत सम उत्पन्नम सर्व संतोष कारकम। घृतम तुभ्यम प्रदस्य अमि स्नानार्थम प्रति गृह्यताम॥

(गाय के घी से स्नान करवायें)

 

 

मधु स्नान

पुष्प रेणु सम उत्पन्नम सु स्वादु मधुरम मधु। तेज: पुष्टि सम आयुक्तम स्नार्थम प्रति गृह्यताम॥

(शहद से स्नान करवायें)

 

शर्करा स्नान

इक्षु सार सम अद्भुताम शर्कराम पुष्टिदाम शुभाम।मल अपहारिकाम दिव्याम स्नानार्थम प्रति गृह्यताम॥

(शक्कर से स्नान करवायें)

 

पंचामृत स्नान

पयो दधि घृत चैव मधु च शर्करान्वितम। पंचामृतम मय आनीतम स्नानार्थम प्रति गृह्यताम॥

(किसी दूसरे बर्तन में दूध,दही,घी,शहद,शक्कर मिलाकर पंचामृत का निर्माण करें और किसी कांसे या चांदी के पात्र में इसी पंचामृत से स्नान करवायें)

 

गन्धोदक स्नान

मलयाचल सम्भूतम चन्दन अगरु मिश्रितम। सलिलम देव देवेशि शुद्ध स्नानाय गृह्यताम॥

(सफ़ेद चंदन लकडी वाला घिसकर और अगर को पानी में घिस कर एक बर्तन में मिलाकर स्नान करवायें)

 

शुद्धोदक स्नान

शुद्धम यत सलिलम दिव्यम गंगाजल समम स्मृतम। समर्पितम मया भक्त्या स्नानार्थम प्रति गृह्यताम॥

(शुद्ध जल से स्नान करवायें,और स्नान करवाने के बाद आचमन के लिये वही कपूर मिला शीतल जल दें)

 

वस्त्र पहिनाना

पट्ट युगमम मया दत्तम कंचुकेन समन्वितम। परिधेहि कृपाम कृत्वा माता दुर्गति नाशिनि॥

(लाल रंग की कंचुकी पहिनायें,फ़िर लाल रंग की साडी या वेष पहिनायें और ऊपर से चुनरी ओढायें,हाथों में लाल रंग की मौली बांधे,फ़िर आचमन के लिये वही कपूर से युक्त शीतल जल आचमन के लिये दें)

 

 

 

 

सौभाग्यसूत्र

सौभाग्य सूत्रम वरदे सुवर्ण मणि संयुतम। कण्ठे बघ्नामि देवेशि सौभाग्यम देहि मे सदा॥

(मंगल सूत्र लाल धागे का पीले रंग के मोतियों से युक्त या स्वर्ण से बने मोतियों से युक्त देवी के गले में पहिनायें,माता पुत्र का मानसिक ध्यान करे)

 

चन्दन

श्रीखण्डम चन्दनम दिव्यम गन्ध आढ्यम सुमनोहरम। विलेपनम सुर श्रेष्ठे चन्दनम प्रति गृह्यताम॥

(लकडी वाला लाल चन्दन शिला पर पानी के साथ घिस कर माता के माथे पर तिलक स्थान पर,दोनो कानों की लौरियों पर दोनो हाथों के बाजुओं पर और दोनो हाथों की हथेलियों पर लगायें)

 

हरिद्राचूर्ण

हरिद्रा रंचिते देवि ! सुख सौभाग्य दायिनी। तस्मात त्वाम पूज्याम यत्र सुखम शान्तिम प्रयच्छ में॥

(हल्दी को पहले से घिसकर लेप बनाकर सुखा लें,फ़िर उसका चूर्ण पूजा के लिये सावधानी से रख ले,और माता के सभी अंगों पर लगायें,हल्दी को पीस कर या बाजार की हल्दी को पिसी हुयी लाकर कदापि नहीं चढायें)

 

कुंकुम

कुंकुमम कामदम दिव्यम कामिनी काम सम्भवम। कुंकुमेन अर्चितम देवी कुंकुमम प्रति गृह्यताम॥

(माता के पैरों में कुंकुम लगायें,दोनो हाथों में लगायें)

 

सिन्दूर

सिन्दूरमरुणाभासम जपा कुसुम संनिभम। अर्पितम ते मया भक्त्या प्रसीद परमेश्वरि॥

(माता के माथे पर सिन्दूर की बिन्दी लगायें,नाक की सीध में बालों के अन्दर सिन्दूर भरें)

 

काजल

चक्षुर्भ्याम कज्जलम रम्यम सुभगे शान्ति कारकम। कर्पूर्ज्योति समुत्पन्नम गृहाण परमेश्वरि॥

(कपूर को जलाकर उसकी लौ के ऊपर कांसे का बर्तन रखें थोडी सी देर में काले रंग का काजल बर्तन पर आजायेगा,उस काजल को माता की आंखों में नीचे की तरफ़ सावधानी से दाहिने हाथ की अनामिका उंगली से लगायें)

 

 

दूर्वांकुर

तृणकान्त मणि प्रख्य हरित अभि: सुजातिभि:। दूर्वाभिराभिर्भवतीम पूजयामि महेश्वरि॥

(किसी नदी या साफ़ स्थान से हरी और सफ़ेद दूब जिसके अन्दर ऊपर के भाग की तीन पत्तियों के अंकुर हों साफ़ करने के बाद अपने पास रखलें,रोजाना लाना सम्भव नही हो तो पहले लाकर किसी साफ़ सफ़ेद कपडे को गीला करने के बाद उसके अन्दर लपेट कर रख दें,पीली दूब या सूखी दूब कभी नही चढायें,१०८ या कम से कम १८ अंकुर रोजाना जरूर चढायें)

 

बिल्वपत्र

त्रिदलम त्रिगुणाकारम त्रिनेत्रम च त्रिधायुतम। त्रिजन्म पाप संहारम बिल्वपत्रम शिवार्पणम॥

(अर्धनारीश्वर की आभा में देवी का रूप है,शैवमत के अनुसार शिव के बिना शक्ति नही है और शक्ति के बिना शिव नही है,बिल्व पत्र की तीन पत्तियों वाली हरी कोमल शाखायें माता के तीन नेत्रों का प्रति रूप है,ध्यान रखना चाहिये कि यह नौ से अधिक कभी न चढायें,पहली तीन पत्ती की शाखा माता के आंखों के ऊपर लगायें बाद में कान नाक मुंह हाथ नाभि कटि गुहा पैरों लगाना चाहिये)

 

आभूषण

हार कंकण केयूर मेखला कुण्डलादिभि:। रत्नाढ्यम हीरकोपेतम भूषणम प्रति गृह्यताम॥

(दुर्गापूजा से पहले ही माता के लिये स्वर्ण या रजत से निर्मित हार कंगन बाजूबंद कनकती कुन्डल पाजेब बिछिया जिनके अन्दर विभिन्न रत्न लगे हों बनवाकर रख लेना चाहिये,और पूजा में पहिनाने चाहिये,तथा मूर्ति विसर्जित होने पर उनको किसी कन्या को दान कर देना चाहिये,या मूर्ति के साथ जाने देना चाहिये,भूलकर भी लोभ वश उन्हे अन्य काम के लिये नहीं रखना चाहिये)

 

पुष्पमाला

माल्यादीनि सुगन्धीनि मालत्यादीनि भक्तित:। मय आर्ह्यतानि पुष्पाणि पूजार्थम प्रति गृह्यताम॥

(अपने हाथ से लाल फ़ूलों की माला लाल रंग के धागे में अपने हाथों से पिरोना चाहिये,फ़ूल सौ से अधिक या कम नही हों,एक बार या प्रतिमा के अनुसार दो बार तीन बार माला को घुमाकर दाहिने से पहिनानी चाहिये)

 

परिमल द्रव्य

अबीरम गुलालम च हरिद्रा आदि समन्वितम। नाना परिमल द्रव्यम गृहाण परमेश्वरि॥

(सफ़ेद रंग की खडिया मिट्टी को पीसकर लाल रंग और सुगन्धित केवडा आदि मिलाकर अबीर तैयार करना चाहिये,हल्दी,चन्दन,छोटी इलायची और तेज पत्ता को पीसकर गुलाल तैयार करना चाहिये,हल्दी का पहले तैयार किया चूर्ण कपूर पीस कर मिलाकर तैयार करना चाहिये,और माता के चारों तरफ़ दाहिने से बायें चढाना चाहिये)

 

सौभाग्य पेटिका

हरिद्राम कुंकुमम चैव सिन्दूरादि समन्वितम। सौभाग्यपेटिकामेताम गृहाण परमेश्वरि॥

(हल्दी का चूर्ण कुंकुम सिन्दूर हरी चूडियां श्रंगार का अन्य सामान सहित सौभाग्य पेटी (श्रंगारदान) माता को अर्पित करें)

 

धूप

वनस्पतिरसोदभूतो गन्धाढ्यो गन्ध उत्तम:। आघ्रेय: सर्वदेवानाम धूपोअयम प्रति गृह्यताम॥

(धूप जो बनी हुई अगर तगर कपूर चन्दन के बुरादे से युक्त माता के सामने धूपें)

 

दीप

साज्यं च वर्ति संयुक्तम वाहिन्ना योजितम मया। दीपम गृहाण देवेशि त्रैलोक्य तिमिरापहम॥

(शुद्ध रुई की दोहरी बत्ती बनायें,और आरती वाले पात्र में जिसमे कमसे कम दो अंगुल ऊंचा शुद्ध गाय का घी भरा हो,उसके अन्दर बत्तियों को डुबोकर अगरबत्ती से दीपक को प्रज्वलित करें,दीपक के अन्दर एक चांदी का या सोने का सिक्का डालें और माता को दिखायें,दीपक दिखाकर दीपक को अपने दाहिने रखें और हाथ साफ़ पानी से धो लें)

 

नैवेद्य

शर्कराखण्ड खाद्यानि दधि क्षीर घृतानि च। आहारार्थम भक्ष्य भोज्यम नैवेद्यम प्रति गृह्यताम॥

(शक्कर और दही तथा खीर में घी मिलाकर नैवेद्य माता को आहार के रूप में अर्पित करें,नैवेद्य अर्पित करने के बाद आचमन के लिये कपूर मिला शीतल जल अर्पित करें,उसके बाद सादा पानी हाथ और मुंह धोने के लिये अर्पित करें)

 

ऋतुफ़ल

इदम फ़लम मया देवि स्थापितम पुरतस्तव। तेन मे सफ़ल अवाप्तिर भवेज जन्मनि जन्मनि॥

(जो भी फ़ल बाजार में आ रहे हों,उन्ही को बिना दाग धब्बे के लेकर आवें,और माता को प्रकार प्रकार के चढावें)

 

ताम्बूल

पूगीफ़लम महाद्दिव्यम नागवल्ली दलैर्युतम। एलालवंगसंयुक्तम ताम्बूलम प्रतिगृह्यताम॥

(इलायची लौंग सुपाडी और पान माता को अर्पित करें)

 

दक्षिणा

दक्षिणाम हेमसहिताम यथा शक्ति समर्पिताम। अनन्तफ़लदामेनाम गृहाण परमेश्वरि॥

(मुद्रा में जो वर्तमान में चल रही हो,सिक्कों के रूप में माता को चढायें,भूलकर भी कागज की मुद्रा नही चढायें,अगर नही मिले तो केवल चावल बिना टूटे चढावें)

 

आरती

कदली गर्भ सम्भूतम कर्पूरम तु प्रदीपितम। आरार्तिकमहम कुर्वे पश्य माम वरदा भव॥

(चलते हुये दीपक से पीतल के बर्तन में कपूर को जला लें और माता की दाहिने बायें सात बार आरती उतारें,और आरती के बाद पानी को तांबे के लोटे में भरकर सात बार पानी से आरती उतारें)

 

 

दुर्गा सप्तशती का मन्त्र पाठ

 

एक सौ आठ बार दुर्गा सप्तशती का मंत्र जाप करें, मंत्र के शुरु में जो "ऊँ" प्रत्यय लगा है उसे कदापि नही बोलें,मन्त्र को शुरु करने के लिये उच्चारण को साफ़ तरीके से करें, मन्त्र है:-

 

ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डाये विच्चै, ऊँ ग्लों हूँ क्लीं जूँ स:, ज्वालय ज्वालय,ज्वल जवल,प्रज्वल प्रज्वल,ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डाये विच्चै,ज्वल हँ सँ लँ क्षँ फ़ट स्वाहा।

 

तदुपरान्त दुर्गा सप्तशती के पाठ जो तीन चरित्रों में है उनको क्रम बार करें,चाहें तो तुरत परिणाम के लिये पाठ के पहले रात्रि सूक्त और इक्कीस बार कुंजिका-स्तोत्र फ़िर एक बार रात्रि सूक्त का पाठ

 

करें।

 

 

 

 

 

 

 

 

देवी कवच/दुर्गा कवच के श्लोक

॥अथ श्री देव्याः कवचम्॥

 

ॐ अस्य श्रीचण्डीकवचस्य ब्रह्मा ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः,

चामुण्डा देवता, अङ्गन्यासोक्तमातरो बीजम्, दिग्बन्धदेवतास्तत्त्वम्,

श्रीजगदम्बाप्रीत्यर्थे सप्तशतीपाठाङ्गत्वेन जपे विनियोगः।

 

ॐ नमश्‍चण्डिकायै॥

 

मार्कण्डेय उवाच

 

ॐ यद्‌गुह्यं परमं लोके सर्वरक्षाकरं नृणाम्।

यन्न कस्यचिदाख्यातं तन्मे ब्रूहि पितामह॥१॥

 

ब्रह्मोवाच

 

अस्ति गुह्यतमं विप्र सर्वभूतोपकारकम्।

देव्यास्तु कवचं पुण्यं तच्छृणुष्व महामुने॥२॥

 

प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।

तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ॥३॥

 

पञ्चमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च।

सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम्॥४॥

 

नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः।

उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना॥५॥

 

 

अग्निना दह्यमानस्तु शत्रुमध्ये गतो रणे।

विषमे दुर्गमे चैव भयार्ताः शरणं गताः॥६॥

 

न तेषां जायते किंचिदशुभं रणसंकटे।

नापदं तस्य पश्यामि शोकदुःखभयं न हि॥७॥

 

यैस्तु भक्त्या स्मृता नूनं तेषां वृद्धिः प्रजायते।

ये त्वां स्मरन्ति देवेशि रक्षसे तान्न संशयः॥८॥

 

प्रेतसंस्था तु चामुण्डा वाराही महिषासना।

ऐन्द्री गजसमारुढा वैष्णवी गरुडासना॥९॥

 

माहेश्‍वरी वृषारुढा कौमारी शिखिवाहना।

लक्ष्मीः पद्मासना देवी पद्महस्ता हरिप्रिया॥१०॥

 

श्‍वेतरुपधरा देवी ईश्‍वरी वृषवाहना।

ब्राह्मी हंससमारुढा सर्वाभरणभूषिता॥११॥

 

इत्येता मातरः सर्वाः सर्वयोगसमन्विताः।

नानाभरणशोभाढ्या नानारत्नोपशोभिताः॥१२॥

 

दृश्यन्ते रथमारुढा देव्यः क्रोधसमाकुलाः।

शङ्खं चक्रं गदां शक्तिं हलं च मुसलायुधम्॥१३॥

 

खेटकं तोमरं चैव परशुं पाशमेव च।

कुन्तायुधं त्रिशूलं च शार्ङ्गमायुधमुत्तमम्॥१४॥

 

दैत्यानां देहनाशाय भक्तानामभयाय च।

धारयन्त्यायुधानीत्थं देवानां च हिताय वै॥१५॥

नमस्तेऽस्तु महारौद्रे महाघोरपराक्रमे।

महाबले महोत्साहे महाभयविनाशिनि॥१६॥

 

त्राहि मां देवि दुष्प्रेक्ष्ये शत्रूणां भयवर्धिनि।

प्राच्यां रक्षतु मामैन्द्री आग्नेय्यामग्निदेवता॥१७॥

 

दक्षिणेऽवतु वाराही नैर्ऋत्यां खड्गधारिणी।

प्रतीच्यां वारुणी रक्षेद् वायव्यां मृगवाहिनी॥१८॥

 

उदीच्यां पातु कौमारी ऐशान्यां शूलधारिणी।

ऊर्ध्वं ब्रह्माणि मे रक्षेदधस्ताद् वैष्णवी तथा॥१९॥

 

एवं दश दिशो रक्षेच्चामुण्डा शववाहना।

जया मे चाग्रतः पातु विजया पातु पृष्ठतः॥२०॥

 

अजिता वामपार्श्वे तु दक्षिणे चापराजिता।

शिखामुद्योतिनि रक्षेदुमा मूर्ध्नि व्यवस्थिता॥२१॥

 

मालाधरी ललाटे च भ्रुवौ रक्षेद् यशस्विनी।

त्रिनेत्रा च भ्रुवोर्मध्ये यमघण्टा च नासिके॥२२॥

 

शङ्खिनी चक्षुषोर्मध्ये श्रोत्रयोर्द्वारवासिनी।

कपोलौ कालिका रक्षेत्कर्णमूले तु शांकरी॥२३॥

 

नासिकायां सुगन्धा च उत्तरोष्ठे च चर्चिका।

अधरे चामृतकला जिह्वायां च सरस्वती॥२४॥

 

दन्तान् रक्षतु कौमारी कण्ठदेशे तु चण्डिका।

घण्टिकां चित्रघण्टा च महामाया च तालुके ॥२५॥

कामाक्षी चिबुकं रक्षेद् वाचं मे सर्वमङ्गला।

ग्रीवायां भद्रकाली च पृष्ठवंशे धनुर्धरी॥२६॥

 

नीलग्रीवा बहिःकण्ठे नलिकां नलकूबरी।

स्कन्धयोः खङ्‍गिनी रक्षेद् बाहू मे वज्रधारिणी॥२७॥

 

हस्तयोर्दण्डिनी रक्षेदम्बिका चाङ्गुलीषु च।

नखाञ्छूलेश्‍वरी रक्षेत्कुक्षौ रक्षेत्कुलेश्‍वरी॥२८॥

 

स्तनौ रक्षेन्महादेवी मनः शोकविनाशिनी।

हृदये ललिता देवी उदरे शूलधारिणी॥२९॥

 

नाभौ च कामिनी रक्षेद् गुह्यं गुह्येश्‍वरी तथा।

पूतना कामिका मेढ्रं गुदे महिषवाहिनी ॥३०॥

 

कट्यां भगवती रक्षेज्जानुनी विन्ध्यवासिनी।

जङ्घे महाबला रक्षेत्सर्वकामप्रदायिनी ॥३१॥

 

गुल्फयोर्नारसिंही च पादपृष्ठे तु तैजसी।

पादाङ्गुलीषु श्री रक्षेत्पादाधस्तलवासिनी॥३२॥

 

नखान् दंष्ट्राकराली च केशांश्‍चैवोर्ध्वकेशिनी।

रोमकूपेषु कौबेरी त्वचं वागीश्‍वरी तथा॥३३॥

 

रक्तमज्जावसामांसान्यस्थिमेदांसि पार्वती।

अन्त्राणि कालरात्रिश्‍च पित्तं च मुकुटेश्‍वरी॥३४॥

 

पद्मावती पद्मकोशे कफे चूडामणिस्तथा।

ज्वालामुखी नखज्वालामभेद्या सर्वसंधिषु॥३५॥

शुक्रं ब्रह्माणि मे रक्षेच्छायां छत्रेश्‍वरी तथा।

अहंकारं मनो बुद्धिं रक्षेन्मे धर्मधारिणी॥३६॥

 

प्राणापानौ तथा व्यानमुदानं च समानकम्।

वज्रहस्ता च मे रक्षेत्प्राणं कल्याणशोभना॥३७॥

 

रसे रुपे च गन्धे च शब्दे स्पर्शे च योगिनी।

सत्त्वं रजस्तमश्‍चैव रक्षेन्नारायणी सदा॥३८॥

 

आयू रक्षतु वाराही धर्मं रक्षतु वैष्णवी।

यशः कीर्तिं च लक्ष्मीं च धनं विद्यां च चक्रिणी॥३९॥

 

गोत्रमिन्द्राणि मे रक्षेत्पशून्मे रक्ष चण्डिके।

पुत्रान् रक्षेन्महालक्ष्मीर्भार्यां रक्षतु भैरवी॥४०॥

 

पन्थानं सुपथा रक्षेन्मार्गं क्षेमकरी तथा।

राजद्वारे महालक्ष्मीर्विजया सर्वतः स्थिता॥४१॥

 

रक्षाहीनं तु यत्स्थानं वर्जितं कवचेन तु।

तत्सर्वं रक्ष मे देवि जयन्ती पापनाशिनी॥४२॥

 

पदमेकं न गच्छेत्तु यदीच्छेच्छुभमात्मनः।

कवचेनावृतो नित्यं यत्र यत्रैव गच्छति॥४३॥

 

तत्र तत्रार्थलाभश्‍च विजयः सार्वकामिकः।

यं यं चिन्तयते कामं तं तं प्राप्नोति निश्‍चितम्।

परमैश्‍वर्यमतुलं प्राप्स्यते भूतले पुमान्॥४४॥

 

 

निर्भयो जायते मर्त्यः संग्रामेष्वपराजितः।

त्रैलोक्ये तु भवेत्पूज्यः कवचेनावृतः पुमान्॥४५॥

 

इदं तु देव्याः कवचं देवानामपि दुर्लभम् ।

यः पठेत्प्रयतो नित्यं त्रिसन्ध्यं श्रद्धयान्वितः॥४६॥

 

दैवी कला भवेत्तस्य त्रैलोक्येष्वपराजितः।

जीवेद् वर्षशतं साग्रमपमृत्युविवर्जितः। ४७॥

 

नश्यन्ति व्याधयः सर्वे लूताविस्फोटकादयः।

स्थावरं जङ्गमं चैव कृत्रिमं चापि यद्विषम्॥४८॥

 

अभिचाराणि सर्वाणि मन्त्रयन्त्राणि भूतले।

भूचराः खेचराश्‍चैव जलजाश्‍चोपदेशिकाः॥४९॥

 

सहजा कुलजा माला डाकिनी शाकिनी तथा।

अन्तरिक्षचरा घोरा डाकिन्यश्‍च महाबलाः॥५०॥

 

ग्रहभूतपिशाचाश्‍च यक्षगन्धर्वराक्षसाः।

ब्रह्मराक्षसवेतालाः कूष्माण्डा भैरवादयः ॥५१॥

 

नश्यन्ति दर्शनात्तस्य कवचे हृदि संस्थिते।

मानोन्नतिर्भवेद् राज्ञस्तेजोवृद्धिकरं परम्॥५२॥

 

यशसा वर्धते सोऽपि कीर्तिमण्डितभूतले।

जपेत्सप्तशतीं चण्डीं कृत्वा तु कवचं पुरा॥५३॥

 

यावद्भूमण्डलं धत्ते सशैलवनकाननम्।

तावत्तिष्ठति मेदिन्यां संततिः पुत्रपौत्रिकी॥५४॥

 

देहान्ते परमं स्थानं यत्सुरैरपि दुर्लभम्।

प्राप्नोति पुरुषो नित्यं महामायाप्रसादतः॥५५॥

 

लभते परमं रुपं शिवेन सह मोदते॥ॐ॥५६॥

 

इति देव्याः कवचं सम्पूर्णम्।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

॥ कुञ्जिकास्तोत्रम् अथवा सिद्धकुञ्जिकास्तोत्रम् ॥

श्री गणेशाय नमः ।

 

 विनियोगः

ॐ अस्य श्रीकुञ्जिकास्तोत्रमन्त्रस्य सदाशिव ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः,

श्रीत्रिगुणात्मिका देवता, ॐ ऐं बीजं, ॐ ह्रीं शक्तिः, ॐ क्लीं कीलकम्,

मम सर्वाभीष्टसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः ।

 

शिव उवाच ।

 

शृणु देवि प्रवक्ष्यामि कुञ्जिकास्तोत्रमुत्तमम् ।

येन मन्त्रप्रभावेण चण्डीजापः शुभो भवेत् ॥ १॥

न कवचं नार्गलास्तोत्रं कीलकं न रहस्यकम् ।

न सूक्तं नापि ध्यानं च न न्यासो न च वार्चनम् ॥ २॥

कुञ्जिकापाठमात्रेण दुर्गापाठफलं लभेत् ।

अति गुह्यतरं देवि देवानामपि दुर्लभम् ॥ ३॥

गोपनीयं प्रयत्नेन स्वयोनिरिव पार्वति ।

मारणं मोहनं वश्यं स्तम्भनोच्चाटनादिकम् ।

पाठमात्रेण संसिद्ध्येत् कुञ्जिकास्तोत्रमुत्तमम् ॥ ४॥

 

अथ मन्त्रः ।

 

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ।

ॐ ग्लौं हुं क्लीं जूं सः ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल

ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा ॥ ५॥

इति मंत्रः ।

 

( श्रूँ श्रूँ श्रूँ शं फट् ऐं ह्रीं क्लीं ज्वल उज्ज्वल प्रज्वल

ह्रीं ह्रीं क्लीं स्रावय स्रावय शापं नाशय नाशय

श्रीं श्रीं श्रीं जूं सः स्रावय आदय स्वाहा ।

ॐ श्लीं हूँ क्लीं ग्लां जूं सः ज्वल उज्ज्वल मन्त्रं

प्रज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा । )

नमस्ते रुद्ररूपिण्यै नमस्ते मधुमर्दिनि ।

नमः कैटभहारिण्यै नमस्ते महिषार्दिनि ॥ ६॥

नमस्ते शुम्भहन्त्र्यै च निशुम्भासुरघातिनि ।

जाग्रतं हि महादेवि जपं सिद्धं कुरूष्व मे ॥ ७॥

ऐङ्कारी सृष्टिरूपायै ह्रीङ्कारी प्रतिपालिका ।

क्लीङ्कारी कामरूपिण्यै बीजरूपे नमोऽस्तु ते ॥ ८॥

चामुण्डा चण्डघाती च यैकारी वरदायिनी ।

विच्चे चाभयदा नित्यं नमस्ते मन्त्ररूपिणि ॥ ९॥

धां धीं धूं धूर्जटेः पत्नी वां वीं वूं वागधीश्वरी ।

क्रां क्रीं क्रूं कुञ्जिका देवि (कालिका देवि ) शां शीं शूं मे शुभं कुरु ॥ १०॥

हुं हुं हुङ्काररूपिण्यै जं जं जं जम्भनादिनी । (ज्रां ज्रीं ज्रूं भालनादिनी ।)

भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे भवान्यै ते नमो नमः ॥ ११॥

अं कं चं टं तं पं यं शं वीं दुं ऐं वीं हं क्षं ।

धिजाग्रम् धिजाग्रं त्रोटय त्रोटय दीप्तं कुरु कुरु स्वाहा ॥ १२॥

(ॐ अं कं चं टं तं पं सां विदुरां विदुरां विमर्दय विमर्दय

ह्रीं क्षां क्षीं स्रीं जीवय जीवय त्रोटय त्रोटय

जम्भय जंभय दीपय दीपय मोचय मोचय

हूं फट् ज्रां वौषट् ऐं ह्ऱीं क्लीं रञ्जय रञ्जय

सञ्जय सञ्जय गुञ्जय गुञ्जय बन्धय बन्धय

भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे सङ्कुच सङ्कुच

त्रोटय त्रोटय म्लीं स्वाहा ॥ १२॥)

पां पीं पूं पार्वती पूर्णा खां खीं खूं खेचरी तथा ।

म्लां म्लीं म्लूं मूलविस्तीर्णा कुञ्जिकास्तोत्र हेतवे ।

सां सीं सूं सप्तशती देव्या मंत्रसिद्धिं कुरूष्व मे ॥ १३॥

कुञ्जिकायै नमो नमः ।

इदं तु कुञ्जिकास्तोत्रं मन्त्रजागर्तिहेतवे ।

अभक्ते नैव दातव्यं गोपितं रक्ष पार्वति ॥ १४॥

यस्तु कुञ्जिकया देवि हीनां सप्तशतीं पठेत् ।

न तस्य जायते सिद्धिररण्ये रोदनं यथा ॥ १५॥

। इति श्रीरुद्रयामले गौरीतन्त्रे शिवपार्वतीसंवादे

कुञ्जिकास्तोत्रं सम्पूर्णम् ।

( इति श्री डामरतन्त्रे ईश्वरपार्वतीसंवादे कुञ्जिकास्तोत्रं सम्पूर्णम् । )

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

दुर्गासप्तशती लघु गुप्तसप्तशती LAGHU DURGA GUPT SAPTSHATI

मार्कण्डेय कृत 
नवरात्री में करे गुप्त सप्तशती का पाठ दुर्गा सप्तशती के पाठ से जो फल प्राप्त होता है वो फल इस गुप्तसप्तशती के पाठ से प्राप्त होता है नौ दिनों तक मातारानी के आगे या श्रीयंत्र के आगे  गाय के घी का दीपक प्रज्वलित करके मानसिक संकल्प करके ( अपनी कामना अनुसार संकल्प करे ) और मातारानी को खीर का भोग लगाकर इस लघु गुप्त सप्तशती के नौ पाठ करने से माँ दुर्गा की पूर्ण कृपा प्राप्त करे | इस स्तोत्र को पढ़ने से पहले हो सके तो तंत्रोक्त दुर्गाकवच सिद्ध कुंजिका स्तोत्र का पाठ करे और बाद में इस लघु गुप्त सप्तशती का पाठ करे | इसका कोई विनियोग न्यास आदि नहीं है ना ही यह शापित या कीलित है | 

 ब्रीं ब्रीं ब्रीं वेणुहस्ते स्तुत सुर बटुकैर्हां गणेशस्य माता | 
स्वानन्दे नन्दरूपे अनहतनिरते मुक्तिदे मुक्तिमार्गे || 
हंसः सोऽहं विशाले वलयगति हसे सिद्ध देवी समस्ता 
हीं हीं हीं सिद्धलोके कच रुचि विपुले वीरभद्रे नमस्ते ||  || 

 ह्रींकारोच्चारयन्ती मम हरति भयं चण्डमुण्डौ प्रचण्ड़े  
खां खां खां खड्ग पाणे ध्रक ध्रक ध्रकिते उग्ररूपे स्वरूपे | 
हुं हुं हुँकार नादे गगन भुवि तले व्यापिनी व्योमरूपे 
हं हं हँकार नादे सुरगण नमिते चण्डरुपे नमस्ते ||  || 

ऐं लोके कीर्तयन्ति मम हरतु भयं राक्षसान हन्यमाने 
घ्रां घ्रां घ्रां घोररूपे घघ घटिते घर्घरे घोर रावे | 
निर्मांसे काकजङ्घे घसित नख नखा धूम्रनेत्रे त्रिनेत्रे 
हस्ताब्जे शूलमुण्डे कुल कुल कुकुले सिद्धहस्ते नमस्ते ||  || 

 क्रीं क्रीं क्रीं ऐं कुमारी कुह कुह मखिले कोकिलेमानुरागे 
मुद्रासंज्ञं त्रिरेखा कुरु कुरु सततं सततं श्रीमहामारि गुह्ये | 
तेजोंगे सिद्धिनाथे मनुपवन चले नैव आज्ञा निधाने 
ऐंकारे रात्रिमध्ये स्वपित पशुजने तंत्रकान्ते नमस्ते ||  || 

 व्रां व्रीं व्रूं  व्रैं कवित्वे दहनपुर गते रुक्मिरूपेण चक्रे
त्रिः शक्त्या युक्तवर्णादिक करनमिते दादिवं पूर्व वर्णे |
ह्रीं स्थाने कामराजे ज्वल ज्वल ज्वलिते कोशिनि कोशपत्रे 
स्वच्छन्दे कष्टनाशे सुरवर वपुषे गुह्यमुंडे नमस्ते ||  

 घ्रां घ्रीं घ्रूं घोरतुण्डे घघ घघ घघघे घर्घरान्यांघ्रिघोषे
ह्रीं क्रीं द्रूं  द्रोंच चक्रे रर रर रमिते सर्वज्ञाने प्रधाने | 
द्रीं तीर्थेषु  ज्येष्ठे जुग जुग जुजुगे म्लीं पदे कालमुण्डे
सर्वाङ्गे रक्तधोरा मथन करवरे वज्रदण्डे नमस्ते ||  || 

 क्रां क्रीं क्रूं वामनमिते गगन गड़गड़े गुह्य योनिस्वरूपे 
वज्रांगे वज्रहस्ते सुरपति वरदे मत्त मातङ्गरूढे | 
स्वस्तेजे शुद्धदेहे लललल ललिते छेदिते पाशजाले 
कुंडल्याकाररुपे वृष वृषभ ध्वजे ऐन्द्रि मातर्नमस्ते ||  || 

 हुं हुं हुंकारनादे विषमवशकरे यक्ष वैताल नाथे
सुसिद्ध्यर्थे सुसिद्धेः ठठ ठठ ठठठः सर्वभक्षे प्रचन्डे | 
जूं सः सौं शान्ति कर्मेऽमृत मृतहरे निःसमेसं समुद्रे 
देवि त्वं साधकानां भव भव वरदे भद्रकाली नमस्ते ||  || 

ब्रह्माणी वैष्णवी त्वं त्वमसि बहुचरा त्वं वराहस्वरूपा 
त्वं ऐन्द्री त्वं कुबेरी त्वमसि  जननी त्वं कुमारी महेन्द्री | 
ऐं ह्रीं क्लींकार् भूते वितळतळ तले भूतले स्वर्गमार्गे 
पाताले शैलशृङ्गे हरिहर भुवने सिद्धचन्डी नमस्ते ||  ||       

हं लं क्षं शौण्डिरुपे शमित भव भये सर्वविघ्नान्त विघ्ने 
गां गीं गूं गैं षडङ्गे गगन गतिगते सिद्धिदे सिद्धसाध्ये | 
वं क्रं मुद्रा हिमांशोरप्रॅहसतिवदने  त्र्यक्षरे ह्सैं निनादे 
हां हूँ गां गीं गणेशी गजमुखजननी त्वां महेशीं नमामि 
|| इति श्री मार्कण्डेय कृत लघुगुप्त सप्तशती सम्पूर्णं || 


 

हर बार पाठ करने से पहले दुर्गातन्त्रोक्त कवच या सिद्ध कुंजिका स्तोत्र का पाठ नहीं करना है सिर्फ एक ही बार जब पाठ की शुरुआत करे तब यह पाठ करना है .

फिर दूसरे दिन भी वैसे ही जब पाठ की शुरुआत करे उससे पहले एक बार दुर्गा तंत्रोक्त कवच या कुंजिका स्तोत्र का पाठ करे और पश्चात गुप्तसप्तशती का आरम्भ करे 

संकल्प भी एक ही बार लेना है प्रथम दिन ( पहले नवरात्र ) में | 
नवरात्री में नौ दिनो तक नौ नौ पाठ करके गुप्त सप्तशती की साधना करनी चाहिए 

इस साधना से दुर्गा सप्तशती के पाठ का फल मिलता है इस पाठ से माँ दुर्गा की पूर्ण कृपा प्राप्त होती है 
दुर्गा माँ सभी कार्य सिद्ध करते है लक्ष्मी प्राप्ति के द्वार खुल जाते है व्यपार में वृद्धि होती है 
दुश्मनो पर विजय प्राप्त होती है सरकारी कामो में सफलता प्राप्त होती है और सभी प्रकार के लाभ मिलते है 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

श्री अर्जुन-कृत श्रीदुर्गा-स्तवन Shri Arjun Krit Shri Durga Stwan

 विनियोग –

ॐ अस्य श्रीभगवती दुर्गा स्तोत्र मन्त्रस्य श्रीकृष्णार्जुन स्वरूपी नर नारायणो ऋषिः, अनुष्टुप् छन्द, श्रीदुर्गा देवता, ह्रीं बीजं, ऐं शक्ति, श्रीं कीलकं, मम अभीष्ट सिद्धयर्थे जपे विनियोगः।

 

 ऋष्यादिन्यास- 

श्रीकृष्णार्जुन स्वरूपी नर नारायणो ऋषिभ्यो नमः शिरसि, अनुष्टुप् छन्दसे नमः मुखे, श्रीदुर्गा देवतायै नमः हृदि, ह्रीं बीजाय नमः गुह्ये, ऐं शक्त्यै नमः पादयो, श्रीं कीलकाय नमः नाभौ, मम अभीष्ट सिद्धयर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे। कर न्यास – ॐ ह्रां अंगुष्ठाभ्याम नमः, ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां स्वाहा, ॐ ह्रूं मध्यमाभ्याम वषट्, ॐ ह्रैं अनामिकाभ्यां हुं, ॐ ह्रौं कनिष्ठाभ्यां वौष्ट्, ॐ ह्रः करतल करपृष्ठाभ्यां फट्।

 

अंग-न्यास -

ॐ ह्रां हृदयाय नमः, ॐ ह्रीं शिरसें स्वाहा, ॐ ह्रूं शिखायै वषट्, ॐ ह्रैं कवचायं हुं, ॐ ह्रौं नैत्र-त्रयाय वौष्ट्, ॐ ह्रः अस्त्राय फट्।

 

ध्यान –

सिंहस्था शशि-शेखरा मरकत-प्रख्या चतुर्भिर्भुजैः, शँख चक्र-धनुः-शरांश्च दधती नेत्रैस्त्रिभिः शोभिता। आमुक्तांगद-हार-कंकण-रणत्-कांची-क्वणन् नूपुरा, दुर्गा दुर्गति-हारिणी भवतु नो रत्नोल्लसत्-कुण्डला।।

 

मानस पूजन –

ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः लं पृथिव्यात्मकं गन्धं समर्पयामि। ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः हं आकाशात्मकं पुष्पं समर्पयामि। ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः यं वाय्वात्मकं धूपं घ्रापयामि। ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः रं वहृयात्मकं दीपं दर्शयामि। ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः वं अमृतात्मकं नैवेद्यं निवेदयामि। ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः सं सर्वात्मकं ताम्बूलं समर्पयामि।

 

श्रीअर्जुन उवाच – नमस्ते सिद्ध-सेनानि, आर्ये मन्दर-वासिनी, कुमारी कालि कापालि, कपिले कृष्ण-पिंगले।

 

।1।। भद्र-कालि! नमस्तुभ्यं, महाकालि नमोऽस्तुते। चण्डि चण्डे नमस्तुभ्यं, तारिणि वर-वर्णिनि।।

2।। कात्यायनि महा-भागे, करालि विजये जये, शिखि पिच्छ-ध्वज-धरे, नानाभरण-भूषिते।।

3।। अटूट-शूल-प्रहरणे, खड्ग-खेटक-धारिणे, गोपेन्द्रस्यानुजे ज्येष्ठे, नन्द-गोप-कुलोद्भवे।।

4।। महिषासृक्-प्रिये नित्यं, कौशिकि पीत-वासिनि, अट्टहासे कोक-मुखे, नमस्तेऽस्तु रण-प्रिये।।

5।। उमे शाकम्भरि श्वेते, कृष्णे कैटभ-नाशिनि, हिरण्याक्षि विरूपाक्षि, सुधू्राप्ति नमोऽस्तु ते।।

6।। वेद-श्रुति-महा-पुण्ये, ब्रह्मण्ये जात-वेदसि, जम्बू-कटक-चैत्येषु, नित्यं सन्निहितालये।।

7।। त्वं ब्रह्म-विद्यानां, महा-निद्रा च देहिनाम्। स्कन्ध-मातर्भगवति, दुर्गे कान्तार-वासिनि।।

8।। स्वाहाकारः स्वधा चैव, कला काष्ठा सरस्वती। सावित्री वेद-माता च, तथा वेदान्त उच्यते।।

9।। स्तुतासि त्वं महा-देवि विशुद्धेनान्तरात्मा। जयो भवतु मे नित्यं, त्वत्-प्रसादाद् रणाजिरे।।

10।। कान्तार-भय-दुर्गेषु, भक्तानां चालयेषु च। नित्यं वससि पाताले, युद्धे जयसि दानवान्।।

11।। त्वं जम्भिनी मोहिनी च, माया ह्रीः श्रीस्तथैव च। सन्ध्या प्रभावती चैव, सावित्री जननी तथा।।

12।। तुष्टिः पुष्टिर्धृतिदीप्तिश्चन्द्रादित्य-विवर्धनी। भूतिर्भूति-मतां संख्ये, वीक्ष्यसे सिद्ध-चारणैः।।

13।। ।। फल-श्रुति ।। यः इदं पठते स्तोत्रं, कल्यं उत्थाय मानवः। यक्ष-रक्षः-पिशाचेभ्यो, न भयं विद्यते सदा।।

1।। न चापि रिपवस्तेभ्यः, सर्पाद्या ये च दंष्ट्रिणः। न भयं विद्यते तस्य, सदा राज-कुलादपि।।

2।। विवादे जयमाप्नोति, बद्धो मुच्येत बन्धनात्। दुर्गं तरति चावश्यं, तथा चोरैर्विमुच्यते।।

3।। संग्रामे विजयेन्नित्यं, लक्ष्मीं प्राप्न्नोति केवलाम्। आरोग्य-बल-सम्पन्नो, जीवेद् वर्ष-शतं तथा।।

4।। प्रयोग विधि – उक्त स्तोत्र ‘महाभारत के ‘भीष्म पर्व से उद्धृत है।

 

१॰ इसकी साधना भगवती के मन्दिर अथवा घर में एकान्त में करनी चाहिये। ‘घी के दीपक में बत्ती के लिये अपनी नाप के बराबर रूई के सूत को 5 बार मोड़कर बटे तथा बटी हुई बत्ती को कुंकुम से रंगकर भगवती के सामने दीपक जलायें।

नवरात्र या सर्व सिद्धि योग से पाठ का प्रारम्भ करें कुल 9 या 21 दिन पाठ करें तथा प्रतिदिन 9 या 21 बार आवृत्ति करें।

पाठ के बाद हवन करें। लाल वस्त्र तथा आसन प्रशस्त है। साधना काल में ब्रह्मचर्य का पालन करें। इससे सभी प्रकार की बाधाएं समाप्त होती है तथा दरिद्रता का नाश होता है।

शासकीय संकट, शत्रु बाधा की समाप्ति के लिये अनुभूत सिद्ध प्रयोग है।

 

२॰ नित्य दुर्गा-पूजा (सप्तशती-पाठ) के बाद उक्त स्तव के ३१ पाठ १ महिने तक किए जाएँ। या

३॰ नवरात्र काल में १०८ पाठ नित्य किए जाएँ, तो उक्त “दुर्गा-स्तवन सिद्ध हो जाता है।

 

भगवती दुर्गा के 32 नाम

1          दुर्गा

2          दुर्गातिशमनी

3          दुर्गापद्धिनिवारिणी

4          दुर्गमच्छेदनी

5          दुर्गसाधिनी

6          दुर्गनाशिनी

7          दुर्गतोद्धारिणी

8          दुर्गनिहन्त्री

9          दुर्गमापहा

10        दुर्गमज्ञानदा

11        दुर्गदैत्यलोकदवानला

12        दुर्गमा

13        दुर्गमालोका

14        दुर्गमात्मस्वरूपिणी

15        दुर्गमार्गप्रदा

16        दुर्गमविद्या

17        दुर्गमाश्रिता

18        दुर्गमज्ञानसंस्थाना

19        दुर्गमध्यानभासिनी

20        दुर्गमोहा

21        दुर्गमगा

22        दुर्गमार्थस्वरूपिणी

23        दुर्गमासुरसंहन्त्रि

24        दुर्गमायुधधारिणी

25        दुर्गमांगी

26        दुर्गमता

27        दुर्गम्या

28        दुर्गमेश्वरी

29        दुर्गभीमा

30        दुर्गभामा

31        दुर्गभा

32        दुर्गदारिणी

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

माँ दुर्गा के 108 नाम MAA DURGA 108 NAME WITH MEANING

 

1. सती  : अग्नि में जल कर भी जीवित होने वाली

2. साध्वी : आशावादी

3. भवप्रीता : भगवान् शिव पर प्रीति रखने वाली

4. भवानी : ब्रह्मांड की निवास

5. भवमोचनी :  संसार बंधनों से मुक्त करने वाली

6. आर्या : देवी

7. दुर्गा :  अपराजेय

8. जया : विजयी

9. आद्य : शुरूआत की वास्तविकता

10. त्रिनेत्र : तीन आँखों वाली

11. शूलधारिणी : शूल धारण करने वाली

12. पिनाकधारिणी : शिव का त्रिशूल धारण करने वाली

13. चित्रा : सुरम्यसुंदर

14. चण्डघण्टा : प्रचण्ड स्वर से घण्टा नाद करने वालीघंटे की आवाज निकालने वाली

15. महातपा : भारी तपस्या करने वाली

16. मन  : मननशक्ति

17. बुद्धि : सर्वज्ञाता

18. अहंकारा : अभिमान करने वाली

19. चित्तरूपा : वह जो सोच की अवस्था में है

20. चिता :  मृत्युशय्या

21. चिति : चेतना

22. सर्वमन्त्रमयी : सभी मंत्रों का ज्ञान रखने वाली

23. सत्ता : सत्-स्वरूपाजो सब से ऊपर है

24. सत्यानन्दस्वरूपिणी : अनन्त आनंद का रूप

25. अनन्ता :  जिनके स्वरूप का कहीं अन्त नहीं

26. भाविनी :  सबको उत्पन्न करने वालीखूबसूरत औरत

27. भाव्या :  भावना एवं ध्यान करने योग्य

28. भव्या :  कल्याणरूपाभव्यता के साथ

29. अभव्या  : जिससे बढ़कर भव्य कुछ नहीं

30. सदागति :  हमेशा गति मेंमोक्ष दान

31. शाम्भवी :  शिवप्रियाशंभू की पत्नी

32. देवमाता : देवगण की माता

33. चिन्ता : चिन्ता

34. रत्नप्रिया : गहने से प्यार

35. सर्वविद्या : ज्ञान का निवास

36. दक्षकन्या : दक्ष की बेटी

37. दक्षयज्ञविनाशिनी : दक्ष के यज्ञ को रोकने वाली

38. अपर्णा : तपस्या के समय पत्ते को भी  खाने वाली

39. अनेकवर्णा : अनेक रंगों वाली

40. पाटला : लाल रंग वाली

41. पाटलावती : गुलाब के फूल या लाल परिधान या फूल धारण करने वाली

42. पट्टाम्बरपरीधाना : रेशमी वस्त्र पहनने वाली

43. कलामंजीरारंजिनी : पायल को धारण करके प्रसन्न रहने वाली

44. अमेय : जिसकी कोई सीमा नहीं

45. विक्रमा : असीम पराक्रमी

46. क्रूरा : दैत्यों के प्रति कठोर

47. सुन्दरी : सुंदर रूप वाली

48. सुरसुन्दरी : अत्यंत सुंदर

49. वनदुर्गा : जंगलों की देवी

50. मातंगी : मतंगा की देवी

51. मातंगमुनिपूजिता : बाबा मतंगा द्वारा पूजनीय

52. ब्राह्मी : भगवान ब्रह्मा की शक्ति

53. माहेश्वरी : प्रभु शिव की शक्ति

54. इंद्री : इन्द्र की शक्ति

55. कौमारी : किशोरी

56. वैष्णवी : अजेय

57. चामुण्डा : चंड और मुंड का नाश करने वाली

58. वाराही : वराह पर सवार होने वाली

59. लक्ष्मी : सौभाग्य की देवी

60. पुरुषाकृति : वह जो पुरुष धारण कर ले

61. विमिलौत्त्कार्शिनी : आनन्द प्रदान करने वाली

62. ज्ञाना : ज्ञान से भरी हुई

63. क्रिया : हर कार्य में होने वाली

64. नित्या : अनन्त

65. बुद्धिदा : ज्ञान देने वाली

66. बहुला : विभिन्न रूपों वाली

67. बहुलप्रेमा : सर्व प्रिय

68. सर्ववाहनवाहना : सभी वाहन पर विराजमान होने वाली

69. निशुम्भशुम्भहननी : शुम्भनिशुम्भ का वध करने वाली

70. महिषासुरमर्दिनि : महिषासुर का वध करने वाली

71. मधुकैटभहंत्री : मधु  कैटभ का नाश करने वाली

72. चण्डमुण्ड विनाशिनि : चंड और मुंड का नाश करने वाली

73. सर्वासुरविनाशा : सभी राक्षसों का नाश करने वाली

74. सर्वदानवघातिनी : संहार के लिए शक्ति रखने वाली

75. सर्वशास्त्रमयी : सभी सिद्धांतों में निपुण

76. सत्या : सच्चाई

77. सर्वास्त्रधारिणी : सभी हथियारों धारण करने वाली

78. अनेकशस्त्रहस्ता : हाथों में कई हथियार धारण करने वाली

79. अनेकास्त्रधारिणी : अनेक हथियारों को धारण करने वाली

80. कुमारी : सुंदर किशोरी

81. एककन्या : कन्या

82. कैशोरी : जवान लड़की

83. युवती : नारी

84. यति : तपस्वी

85. अप्रौढा : जो कभी पुराना ना हो

86. प्रौढा : जो पुराना है

87. वृद्धमाता : शिथिल

88. बलप्रदा : शक्ति देने वाली

89. महोदरी : ब्रह्मांड को संभालने वाली

90. मुक्तकेशी : खुले बाल वाली

91. घोररूपा : एक भयंकर दृष्टिकोण वाली

92. महाबला : अपार शक्ति वाली

93. अग्निज्वाला : मार्मिक आग की तरह

94. रौद्रमुखी : विध्वंसक रुद्र की तरह भयंकर चेहरा

95. कालरात्रि : काले रंग वाली

96. तपस्विनी : तपस्या में लगे हुए

97. नारायणी : भगवान नारायण की विनाशकारी रूप

98. भद्रकाली :  काली का भयंकर रूप

99. विष्णुमाया : भगवान विष्णु का जादू

100. जलोदरी : ब्रह्मांड में निवास करने वाली

101. शिवदूती : भगवान शिव की राजदूत

102. करली   : हिंसक

103. अनन्ता : विनाश रहित

104. परमेश्वरी : प्रथम देवी

105. कात्यायनी : ऋषि कात्यायन द्वारा पूजनीय

106. सावित्री : सूर्य की बेटी

107. प्रत्यक्षा : वास्तविक

108. ब्रह्मवादिनी : वर्तमान में हर जगह वास करने वाली

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( जो भी मंत्र तंत्र टोटका इत्यादि ब्लॉग में दिए गए है वे केवल सूचनार्थ ही है, अगर साधना करनी है तो वो पूर्ण जानकार गुरु के निर्देशन में ही करने से लाभदायक होंगे, किसी भी नुक्सान हानि के लिए प्रकाशक व लेखक जिम्मेदार नहीं होगा। )