Thursday, May 31, 2018

गुरु कौन है ? गुरु का महत्व क्या है

गुरु कौन है ? गुरु का महत्व क्या है


।। ओम् गुरुवे नमः।।

श्लोक : गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः । गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ॥
भावार्थ : गुरु ब्रह्मा है, गुरु विष्णु है, गुरु हि शंकर है; गुरु हि साक्षात् परब्रह्म है; उन सद्गुरु को प्रणाम ।

श्लोक : धर्मज्ञो धर्मकर्ता च सदा धर्मपरायणः । तत्त्वेभ्यः सर्वशास्त्रार्थादेशको गुरुरुच्यते ॥
भावार्थ : धर्म को जाननेवाले, धर्म मुताबिक आचरण करनेवाले, धर्मपरायण, और सब शास्त्रों में से तत्त्वों का आदेश करनेवाले गुरु कहे जाते हैं ।

श्लोक : निवर्तयत्यन्यजनं प्रमादतः स्वयं च निष्पापपथे प्रवर्तते । गुणाति तत्त्वं हितमिच्छुरंगिनाम् शिवार्थिनां यः स गुरु र्निगद्यते ॥
भावार्थ : जो दूसरों को प्रमाद करने से रोकते हैं, स्वयं निष्पाप रास्ते से चलते हैं, हित और कल्याण की कामना रखनेवाले को तत्त्वबोध करते हैं, उन्हें गुरु कहते हैं ।

श्लोक : नीचं शय्यासनं चास्य सर्वदा गुरुसंनिधौ । गुरोस्तु चक्षुर्विषये न यथेष्टासनो भवेत् ॥
भावार्थ : गुरु के पास हमेशा उनसे छोटे आसन पे बैठना चाहिए । गुरु आते हुए दिखे, तब अपनी मनमानी से नहीं बैठना चाहिए।

श्लोक : किमत्र बहुनोक्तेन शास्त्रकोटि शतेन च । दुर्लभा चित्त विश्रान्तिः विना गुरुकृपां परम् ॥
भावार्थ : बहुत कहने से क्या ? करोडों शास्त्रों से भी क्या ? चित्त की परम् शांति, गुरु के बिना मिलना दुर्लभ है ।

श्लोक : प्रेरकः सूचकश्वैव वाचको दर्शकस्तथा । शिक्षको बोधकश्चैव षडेते गुरवः स्मृताः ॥
भावार्थ : प्रेरणा देनेवाले, सूचन देनेवाले, (सच) बतानेवाले, (रास्ता) दिखानेवाले, शिक्षा देनेवाले, और बोध करानेवाले – ये सब गुरु समान है ।

श्लोक : गुकारस्त्वन्धकारस्तु रुकार स्तेज उच्यते । अन्धकार निरोधत्वात् गुरुरित्यभिधीयते ॥
भावार्थ : ‘गु’कार याने अंधकार, और ‘रु’कार याने तेज; जो अंधकार का (ज्ञान का प्रकाश देकर) निरोध करता है, वही गुरु कहा जाता है ।

श्लोक : शरीरं चैव वाचं च बुद्धिन्द्रिय मनांसि च । नियम्य प्राञ्जलिः तिष्ठेत् वीक्षमाणो गुरोर्मुखम् ॥
भावार्थ : शरीर, वाणी, बुद्धि, इंद्रिय और मन को संयम में रखकर, हाथ जोडकर गुरु के सन्मुख देखना चाहिए ।

गुरु और शिष्य का रिश्ता ऊर्जा पर आधारित होता है। वे आपको एक ऐसे आयाम में स्पर्श करते हैं, जहां आपको कोई और छू ही नहीं सकता। इसी भाव से हिन्दू धर्म ग्रन्थों में गुरु की अलौकिक महिमा गायी गयी है। संस्कृत साहित्य से भक्ति काल के हिन्दी कवियों ने अव्यक्त ब्रह्म के पद पर—और किन्हीं ने उनसे श्रेष्ठतर−आसीन कराया है। जैसे:–
ध्यानमूलं गुर्रुमूर्तिम पूजा मूलं गुरुर्पदम्। मन्त्र मूलं गुरुर्वाक्यम् मोक्ष मूलं गुरु कृपा॥

गोस्वामी तुलसीदास जी रामायण का प्रारम्भ मात्र गुरु वन्दना से करते हैं। वन्दना भी गुरुदेव का नहीं, उनके ‘पद पद्म परागा’ का। इतना साहस कहाँ कि गुरुदेव भर की पूजा करें, जब उनके चरण भी नहीं, उसके रज कण में संजीवनी बूटी की महत्ता है, बल्कि जो ‘शम्भु तनु विभूति’ के समान विमल है। ‘मानस’ में उस रज कण के अलौकिक गुणों का अवलोकन किया जा सकता है। वे गुरुजी कैसे हैं!

“कृपा सिन्धु नर रूप हरि।” बल्कि भक्त शिष्य के दृष्टिकोण से उनमें एक विशेषता भी है कि “महा मोह तमपुञ्ज, जासु वचन रविकर निकर।” स्वयं हरि किसी साधक में अज्ञानतम दूर करने की प्रेरणा देते हैं, परन्तु गुरुदेव तो स्वयं सूर्य के समान उसका कारण बन जाते हैं। बल्कि हरि की पहचान करवाने की शक्ति अथवा कला गुरु के पास ही है:—

वन्दे बोधमंय नित्य गुरुं शंकर रुपिणाम्। याम्यां विना न पश्यन्ति योगिनः स्वान्तस्थमीश्वरम्॥

यहाँ गुरु का एवं शंकर की एक पद मर्यादा तथा एक कार्यभार हो गया है। बिना इन दोनों की कृपा के योगी अपने हृदय में स्थित ईश्वर का भी साक्षात्कार नहीं कर सकते। वस्तुस्थिति का कैसा सच्चा वर्णन है।

गीता में भगवान श्रीकृष्ण जी ने गुरु-शिष्य परम्परा को ‘परम्पराप्राप्तम योग’ बताया है। गुरु-शिष्य परम्परा का आधार सांसारिक ज्ञान से शुरू होता है,परन्तु इसका चरमोत्कर्ष आध्यात्मिक शाश्वत आनंद की प्राप्ति है,जिसे ईश्वर -प्राप्ति व मोक्ष प्राप्ति भी कहा जाता है। बड़े भाग्य से प्राप्त मानव जीवन का यही अंतिम व सर्वोच्च लक्ष्य होना चाहिए। ”

भगवान दत्तात्रेय और उनके 24 गुरु  


जीवन में गुरु की अपनी एक विशेष जगह है। कहते है बिना गुरु के ज्ञान प्राप्त नहीं होता।  सच्चा ज्ञान प्राप्त करने के लिए आपको किसी न किसी को गुरु बनाना पड़ता है चाहे फिर वो एकलव्य की तरह मिट्टी की मूरत ही क्यों ना हों। गुरु की इसी महता को प्रमाणित करते है भगवान दत्तात्रेय जो की स्वयं भगवान विष्णु के अवतार थे फिर भी उन्होंने अपने जीवन में 24 गुरु बनाए जिसमे कीट, पक्षी और जानवर तक शामिल है। उन्होंने जिससे भी कुछ सीखा उसे अपना गुरु माना।

कौन है भगवान दत्तात्रेय
भगवान दत्तात्रेय ब्रह्माजी के मानस पुत्र ऋषि अत्रि के पुत्र हैं। इनकी माता का नाम अनुसूइया था। कई ग्रंथों यह बताया गया है कि ऋषि अत्रि और अनुसूइया के तीन पुत्र हुए। ब्रह्माजी के अंश से चंद्रमा, शिवजी के अंश से दुर्वासा ऋषि, भगवान विष्णु के अंश दत्तात्रेय का जन्म हुआ। कहीं-कहीं यह उल्लेख भी मिलता है कि भगवान दत्तात्रेय ही ब्रह्मा, विष्णु और शिव के सम्मिलित अवतार हैं।

भगवान दत्तात्रेय के 24 गुरु :

पृथ्वी- सहनशीलता व परोपकार की भावना सीख सकते हैं। पृथ्वी पर लोग कई प्रकार के आघात करते हैं, कई प्रकार के उत्पात होते हैं, कई प्रकार खनन कार्य होते हैं, लेकिन पृथ्वी हर आघात को परोपकार का भावना से सहन करती है।

पिंगला वेश्या-  पिंगला नाम की वेश्या से दत्तात्रेय ने सबक लिया कि केवल पैसों के लिए जीना नहीं चाहिए। वह वेश्या सिर्फ पैसा पाने के लिए किसी भी पुरुष की ओर इसी नजर से देखती थी वह धनी है और उससे धन प्राप्त होगा। धन की कामना में वह सो नहीं पाती थी। जब एक दिन पिंगला वेश्या के मन में वैराग्य जागा तब उसे समझ आया कि पैसों में नहीं बल्कि परमात्मा के ध्यान में ही असली सुख है, तब उसे सुख की नींद आई।

कबूतर- कबूतर का जोड़ा जाल में फंसे बच्चों को देखकर खुद भी जाल में जा फंसता है। इनसे यह सबक लिया जा सकता है कि किसी से बहुत ज्यादा स्नेह दु:ख ही वजह होता है।

सूर्य- सूर्य से दत्तात्रेय ने सीखा कि जिस तरह एक ही होने पर भी सूर्य अलग-अलग माध्यमों से अलग-अलग दिखाई देता है। आत्मा भी एक ही है, लेकिन कई रूपों में दिखाई देती है।

वायु- जिस प्रकार अच्छी या बुरी जगह पर जाने के बाद वायु का मूल रूप स्वच्छता ही है। उसी तरह अच्छे या बुरे लोगों के साथ रहने पर भी हमें अपनी अच्छाइयों को छोडऩा नहीं चाहिए।

हिरण- हिरण उछल-कूद, संगीत, मौज-मस्ती में इतना खो जाता है कि उसे अपने आसपास शेर या अन्य किसी हिसंक जानवर के होने का आभास ही नहीं होता है और वह मारा जाता है। इससे यह सीखा जा सकता है कि हमें कभी भी मौज-मस्ती में इतना लापरवाह नहीं होना चाहिए।

समुद्र- जीवन के उतार-चढ़ाव में भी खुश और गतिशील रहना चाहिए।

पतंगा- जिस प्रकार पतंगा आग की ओर आकर्षित होकर जल जाता है। उसी प्रकार रूप-रंग के आकर्षण और झूठे मोह में उलझना नहीं चाहिए।

हाथी- हाथी हथिनी के संपर्क में आते ही उसके प्रति आसक्त हो जाता है। अत: हाथी से सीखा जा सकता है कि संयासी और तपस्वी पुरुष को स्त्री से बहुत दूर रहना चाहिए।

आकाश- दत्तात्रेय ने आकाश से सीखा कि हर देश, काल, परिस्थिति में लगाव से दूर रहना चाहिए।

जल- दत्तात्रेय ने जल से सीखा कि हमें सदैव पवित्र रहना चाहिए।

मधुमक्खी – मधुमक्खियां शहद इकट्ठा करती है और एक दिन छत्ते से शहद निकालने वाला सारा शहद ले जाता है। इस बात से ये  सीखा जा सकता है कि आवश्यकता से अधिक चीजों को एकत्र करके नहीं रखना चाहिए।

मछली- हमें स्वाद का लोभी नहीं होना चाहिए। मछली किसी कांटे में फंसे मांस के टुकड़े को खाने के लिए चली जाती है और अंत में प्राण गंवा देती है। हमें स्वाद को इतना अधिक महत्व नहीं देना चाहिए, ऐसा ही भोजन करें जो सेहत के लिए अच्छा हो।

कुरर पक्षी- कुरर पक्षी से सीखना चाहिए कि चीजों को पास में रखने की सोच छोड़ देना चाहिए। कुरर पक्षी मांस के टुकड़े को चोंच में दबाए रहता है, लेकिन उसे खाता है। जब दूसरे बलवान पक्षी उस मांस के टुकड़े को देखते हैं तो वे कुरर से उसे छिन लेते हैं। मांस का टुकड़ा छोड़ने के बाद ही कुरर को शांति मिलती है।

बालक- छोटे बच्चे से सीखा कि हमेशा चिंतामुक्त और प्रसन्न रहना चाहिए।

आग- आग से दत्तात्रेय ने सीखा कि कैसे भी हालात हों, हमें उन हालातों में ढल जाना चाहिए। जिस प्रकार आग अलग-अलग लकडिय़ों के बीच रहने के बाद भी एक जैसी ही नजर आती है।

चन्द्रमा- आत्मा लाभ-हानि से परे है। वैसे ही जैसे घटने-बढऩे से भी चंद्रमा की चमक और शीतलता बदलती नहीं है, हमेशा एक-जैसे रहती है। आत्मा भी किसी भी प्रकार के लाभ-हानि से बदलती नहीं है।

कुमारी कन्या- कुमारी कन्या से सीखना चाहिए कि अकेले रहकर भी काम करते रहना चाहिए और आगे बढ़ते रहना चाहिए। दत्तात्रेय ने एक कुमारी कन्या देखी जो धान कूट रही थी। धान कूटते समय उस कन्या की चूडिय़ां आवाज कर रही थी। बाहर मेहमान बैठे थे, जिन्हें चूडिय़ों की आवाज से परेशानी हो रही थी। तब उस कन्या ने चूडिय़ों आवाज बंद करने के लिए चूडिय़ां ही तोड़ दी। दोनों हाथों में बस एक-एक चूड़ी ही रहने दी। इसके बाद उस कन्या ने बिना शोर किए धान कूट लिया। अत: हमें ही एक चूड़ी की भांति अकेले ही रहना चाहिए।

शरकृत या तीर बनाने वाला-  अभ्यास और वैराग्य से मन को वश में करना चाहिए। दत्तात्रेय ने एक तीर बनाने वाला देखा जो तीर बनाने में इतना मग्न था कि उसके पास से राजा की सवारी निकल गई, पर उसका ध्यान भंग नहीं हुआ।

सांप- दत्तात्रेय ने सांप से सीखा कि किसी भी संयासी को अकेले ही जीवन व्यतीत करना चाहिए। साथ ही, कभी भी एक स्थान पर रुककर नहीं रहना चाहिए। जगह-जगह ज्ञान बांटते रहना चाहिए।

मकड़ी- मकड़ी से दत्तात्रेय ने सीखा कि भगवान भी माय जाल रचते हैं और उसे मिटा देते हैं। जिस प्रकार मकड़ी स्वयं जाल बनाती है, उसमें विचरण करती है और अंत में पूरे जाल को खुद ही निगल लेती है, ठीक इसी प्रकार भगवान भी माया से सृष्टि की रचना करते हैं और अंत में उसे समेट लेते हैं।

भृंगी कीड़ा- इस कीड़े से दत्तात्रेय ने सीखा कि अच्छी हो या बुरी, जहां जैसी सोच में मन लगाएंगे मन वैसा ही हो जाता है।

भौंरा – भौरें से दत्तात्रेय ने सीखा कि जहां भी सार्थक बात सीखने को मिले उसे ग्रहण कर लेना चाहिए। जिस प्रकार भौरें अलग-अलग फूलों से पराग ले लेती है।

अजगर- अजगर से सीखा कि हमें जीवन में संतोषी बनना चाहिए। जो मिल जाए, उसे ही खुशी-खुशी स्वीकार कर लेना चाहिए।

गुरु महिमा पर कबीर के दोहे | Guru Pe Kabir Ke Dohe |

   
गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, का के लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपणे, गोबिंद दियो मिलाय॥

गुरु कीजिए जानि के, पानी पीजै छानि ।
बिना विचारे गुरु करे, परे चौरासी खानि॥

सतगुरू की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार।
लोचन अनंत उघाडिया, अनंत दिखावणहार॥

गुरु किया है देह का, सतगुरु चीन्हा नाहिं ।
भवसागर के जाल में, फिर फिर गोता खाहि॥

शब्द गुरु का शब्द है, काया का गुरु काय।
भक्ति करै नित शब्द की, सत्गुरु यौं समुझाय॥

बलिहारी गुर आपणैं, द्यौंहाडी कै बार।
जिनि मानिष तैं देवता, करत न लागी बार।।

कबीरा ते नर अन्ध है, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रुठै नहीं ठौर ॥

जो गुरु ते भ्रम न मिटे, भ्रान्ति न जिसका जाय।
सो गुरु झूठा जानिये, त्यागत देर न लाय॥

यह तन विषय की बेलरी, गुरु अमृत की खान।
सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान॥

गुरु लोभ शिष लालची, दोनों खेले दाँव।
दोनों बूड़े बापुरे, चढ़ि पाथर की नाँव॥

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