Saturday, March 17, 2018

नवरात्रि में कैसे करें दुर्गा सप्तशती का पाठ

नवरात्रि में  कैसे करें दुर्गा सप्तशती का पाठ

दक्षिणा 2100 /- ज्योतिष तंत्र मंत्र यंत्र टोटका वास्तु कुंडली हस्त रेखा राशि रत्न,भूत प्रेत जिन जिन्नात बुरे गंदे सपने का आना, कोर्ट केस, लव मैरिज, डाइवोर्स, वशीकरण पितृ दोष कालसर्प दोष चंडाल दोष गृह क्लेश बिजनस विदेश यात्रा, अप्सरा परी साधना, अघोर साधनायें , समशान तांत्रिक साधनायें, सास बहु, सास ससुर, पति पत्नी, जेठ जेठानी, देवर देवरानी, नन्द नन्दोई, साला साली, सभी झगड़े विवाद का हल व वशीकरण कार्य किया जाता है      

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नवरात्रि में दुर्गा पूजा विशेष महत्व होता है। अनेक स्थानों पर पाण्डाल सजाकर देवी की प्रतिमा स्थापित कर देवी की पूजा-अर्चना की जाती है तो कहीं केवल घट स्थापन, अखण्ड ज्योत व जवारे रखकर मां भगवती की आराधना की जाती है।
दुर्गा पूजा दुर्गा सप्तशती के बिना अधूरी है। इन नौ दिनों में दुर्गासप्तशती के पाठ का बहुत महत्व है। कठिन साधना ना कर सकने वाले साधक मात्र मां दुर्गा के चित्र के सम्मुख दीप प्रज्वल्लित कर दुर्गासप्तशती का पाठ कर पुण्यफ़ल प्राप्त कर सकते हैं किन्तु दुर्गासप्तशती का पाठ एक निश्चित विधि अनुसार ही किया जाना श्रेयस्कर है। आइए जानते हैं 'दुर्गासप्तशती' के पाठ की सही विधि-

1. प्रोक्षण (अपने ऊपर नर्मदा जल का सिंचन करना)
2. आचमन
3. संकल्प
4. उत्कीलन
5. शापोद्धार
6. कवच
7. अर्गलास्त्रोत
8. कीलक
9. सप्तशती के 13 अध्यायों का पाठ (इसे विशेष विधि से भी किया जा सकता है)
10. मूर्ति रहस्य
11. सिद्ध कुंजिका स्तोत्र
12. क्षमा प्रार्थना

विशेष विधि-


दुर्गा सप्तशती के प्रथम अध्याय को प्रथम चरित्र। 2,3,4 अध्याय को मध्यम चरित्र एवं 5 से लेकर 13 अध्याय को उत्तम चरित्र कहते हैं। जो साधक पूरे पाठ (13 अध्याय) एक दिन में नहीं कर सकते हैं वे निम्न क्रम से इसे करें-
1 दिन- प्रथम अध्याय
2 दिन- 2 व 3 अध्याय
3 दिन- 4 अध्याय
4 दिन- 5,6,7,8 अध्याय
5 दिन- 9 व 10 अध्याय
6 दिन- 11 अध्याय
7 दिन- 12 व 13 अध्याय
8 दिन- मूर्ति रहस्य,हवन,बलि व क्षमा प्रार्थना
9 दिन- कन्याभोज इत्यादि।

कालसर्प दोष राशिनुसार करें नागदेव की आराधना

कालसर्प दोष राशिनुसार करें नागदेव की आराधना


दक्षिणा 2100 /- ज्योतिष तंत्र मंत्र यंत्र टोटका वास्तु कुंडली हस्त रेखा राशि रत्न,भूत प्रेत जिन जिन्नात बुरे गंदे सपने का आना, कोर्ट केस, लव मैरिज, डाइवोर्स, वशीकरण पितृ दोष कालसर्प दोष चंडाल दोष गृह क्लेश बिजनस विदेश यात्रा, अप्सरा परी साधना, अघोर साधनायें , समशान तांत्रिक साधनायें, सास बहु, सास ससुर, पति पत्नी, जेठ जेठानी, देवर देवरानी, नन्द नन्दोई, साला साली, सभी झगड़े विवाद का हल व वशीकरण कार्य किया जाता है      

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।।ॐ नवकुलाय विद्महे, विषदन्ताय धीमहि तन्नो सर्प प्रचोदयात।।

संपूर्ण पृथ्वी का भार संभालने वाले शेषनाग व भगवान शिवजी के गले में शोभायमान नाग महाराज को हमारे पूर्वज, देव, दानव व किन्नर सभी पूजते हैं। नाग महाराज का पूजन करने से  समस्त प्रकार के कष्ट खत्म हो जाते हैं।  जिस व्यक्ति को राहु-केतु की दशा या महादशा चल रही हो, कालसर्प दोष हो उस जातक को प्रसिद्ध शिवलिंग पर नाग-नागिन का चांदी अथवा पंचधातु का जोड़ा चढ़ाना चाहिए। समस्त दोषों से मुक्ति मिल जाती है। दोष-निवारण के लिए सिर्फ नागपंचमी पर ही नहीं बल्कि साल भर नाग देवता की राशि अनुसार स्तुति कर सकते हैं -

मेष-   ॐ वासुकेय नमः

वृषभ-  ॐ शुलिने नमः

मिथुन-  ॐ सर्पाय नमः

कर्क-   ॐ अनन्ताय नमः

सिंह-  ॐ कर्कोटकाय नमः

कन्या-  ॐ कम्बलाय नमः

तुला-  ॐ शंखपालय नमः

वृश्चिक- ॐ तक्षकाय नमः

धनु-  ॐ पृथ्वीधराय नमः

मकर-  ॐ नागाय नमः

कुंभ-  ॐ कुलीशाय नमः

मीन-  अश्वतराय नमः
                 
विशेष : भगवान शिव की आराधना से नागदेव प्रसन्न होकर हर मनोकामना पूर्ण करते हैं।

Wednesday, March 14, 2018

चंद्रमा के जन्म की पौराणिक कथा

चंद्रमा के जन्म की पौराणिक कथा

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सुंदर चमकीले चंद्रमा को देवताओं के सामान ही पुजनीय माना गया है। चंद्रमा के जन्म की कहानी पुराणों में अलग-अलग मिलती है। ज्योतिष और वेदों में चन्द्र को मन का कारक कहा गया है। वैदिक साहित्य में सोम का स्थान भी प्रमुख देवताओं में मिलता है। अग्नि ,इंद्र ,सूर्य आदि देवों के समान ही सोम की स्तुति के मन्त्रों की भी रचना ऋषियों द्वारा की गई है।
पुराणों के अनुसार चन्द्र की उत्पत्ति

मत्स्य एवम अग्नि पुराण के अनुसार जब ब्रह्मा जी ने सृष्टि रचने का विचार किया तो सबसे पहले अपने मानसिक संकल्प से मानस पुत्रों की रचना की। उनमें से एक मानस पुत्र ऋषि अत्रि का विवाह ऋषि कर्दम की कन्या अनुसुइया से हुआ जिस से दुर्वासा,दत्तात्रेय व सोम तीन पुत्र हुए। सोम चन्द्र का ही एक नाम है।

पद्म पुराण में चन्द्र के जन्म का अन्य वृतान्त दिया गया है। ब्रह्मा ने अपने मानस पुत्र अत्रि को सृष्टि का विस्तार करने की आज्ञा दी। महर्षि अत्रि ने अनुत्तर नाम का तप आरम्भ किया। ताप काल में एक दिन महर्षि के नेत्रों से जल की कुछ बूंदें टपक पड़ी जो बहुत प्रकाशमय थीं। दिशाओं ने स्त्री रूप में आ कर पुत्र प्राप्ति की कामना से उन बूंदों को ग्रहण कर लिया जो उनके उदर में गर्भ रूप में स्थित हो गया। परन्तु उस प्रकाशमान गर्भ को दिशाएं धारण न रख सकीं और त्याग दिया। उस त्यागे हुए गर्भ को ब्रह्मा ने पुरुष रूप दिया जो चंद्रमा के नाम से प्रख्यात हुए। देवताओं,ऋषियों व गन्धर्वों आदि ने उनकी स्तुति की। उनके ही तेज से पृथ्वी पर दिव्य औषधियां उत्पन्न हुई। ब्रह्मा जी ने चन्द्र को नक्षत्र,वनस्पतियों,ब्राह्मण व तप का स्वामी नियुक्त किया।

स्कन्द पुराण के अनुसार जब देवों तथा दैत्यों ने क्षीर सागर का मंथन किया था तो उस में से चौदह रत्न निकले थे। चंद्रमा उन्हीं चौदह रत्नों में से एक है जिसे लोक कल्याण हेतु, उसी मंथन से प्राप्त कालकूट विष को पी जाने वाले भगवान शंकर ने अपने मस्तक पर धारण कर लिया। पर ग्रह के रूप में चन्द्र की उपस्थिति मंथन से पूर्व भी सिद्ध होती है।

स्कन्द पुराण के ही माहेश्वर खंड में गर्गाचार्य ने समुद्र मंथन का मुहूर्त निकालते हुए देवों को कहा कि इस समय सभी ग्रह अनुकूल हैं। चंद्रमा से गुरु का शुभ योग है।  तुम्हारे कार्य की सिद्धि के लिए चन्द्र बल उत्तम है। यह गोमन्त मुहूर्त तुम्हें विजय देने वाला है। अतः यह संभव है कि चंद्रमा के विभिन्न अंशों का जन्म विभिन्न कालों में हुआ हो। चन्द्र का विवाह दक्ष प्रजापति की नक्षत्र रुपी 27 कन्याओं से हुआ जिनसे अनेक प्रतिभाशाली पुत्र हुए। इन्हीं 27 नक्षत्रों के भोग से एक चन्द्र मास पूर्ण होता है। 

मंगल ग्रह के जन्म की पौराणिक कथा

मंगल ग्रह के जन्म की पौराणिक कथा


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मंगल ग्रह की उत्पत्ति का एक पौराणिक वृत्तांत स्कंदपुराण के अवंतिका खण्ड में मिलता है। एक समय उज्जयिनी पुरी में अंधक नाम से प्रसिद्ध दैत्य राज्य करता था।  उसके महापराक्रमी पुत्र का नाम कनक दानव था। एक बार उस महाशक्तिशाली वीर ने युद्ध के लिए इन्द्र को ललकारा तब इन्द्र ने क्रोधपूर्वक उसके साथ युद्ध कर उसे मार गिराया। उस दानव को मारकर वे अंधकासुर के भय से भगवान शंकर को ढूंढते हुए कैलाश पर्वत पर चले गए। इन्द्र ने भगवान चंद्रशेखर के दर्शन कर अपनी अवस्था उन्हें बताई और रक्षा की प्रार्थना की, भगवन ! मुझे अंधकासुर से अभय दीजिए। इन्द्र का वचन सुनकर शरणागत वत्सल शिव ने इंद्र को अभय प्रदान किया और अंधकासुर को युद्ध के लिए ललकारा, युद्ध अत्यंत घमासान हुआ, और उस समय लड़ते-लड़ते भगवान शिव के मस्तक से पसीने की एक बूंद पृथ्वी पर गिरी, उससे अंगार के समान लाल अंग वाले भूमिपुत्र मंगल का जन्म हुआ। अंगारक, रक्ताक्ष तथा महादेव पुत्र, इन नामों से स्तुति कर ब्राह्मणों ने उन्हें ग्रहों के मध्य प्रतिष्ठित किया, तत्पश्चात उसी स्थान पर ब्रह्मा जी ने मंगलेश्वर नामक उत्तम शिवलिंग की स्थापना की। वर्तमान में यह स्थान मंगलनाथ मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है, जो उज्जैन में स्थित है।

ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार वाराह कल्प में दैत्य राज हिरण्यकश्यप का भाई हिरण्याक्ष पृथ्वी को चुरा कर सागर में ले गया। भगवान् विष्णु ने वाराह अवतार ले कर  हिरण्याक्ष का वध कर दिया तथा रसातल से पृथ्वी को निकाल कर सागर पर स्थापित कर दिया जिस पर परम पिता ब्रह्मा ने विश्व की रचना की। पृथ्वी सकाम रूप में आ कर श्री हरि की वंदना करने लगी जो वाराह रूप में थे। पृथ्वी के मनोहर आकर्षक रूप को देख कर श्री हरि ने काम के वशीभूत हो कर दिव्य वर्ष पर्यंत पृथ्वी के संग रति क्रीडा  की। इसी संयोग के कारण कालान्तर में पृथ्वी के गर्भ से एक महातेजस्वी बालक का जन्म हुआ जिसे मंगल ग्रह के नाम से जाना जाता है। देवी भागवत में भी इसी कथा का वर्णन है। 

बुध के जन्म की पौराणिक कथा

बुध के जन्म की पौराणिक कथा

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चंद्रमा के गुरु थे देवगुरु बृहस्पति। बृहस्पति की पत्नी तारा चंद्रमा की सुंंदरता पर मोहित होकर उनसे प्रेम करने लगी। तदोपरांत वह चंद्रमा के संग सहवास भी कर गई एवं बृहस्पति को छोड़ ही दिया। बृहस्पति के वापस बुलाने पर उसने वापस आने से मना कर दिया, जिससे बृहस्पति क्रोधित हो उठे तब बृहस्पति एवं उनके शिष्य चंद्र के बीच युद्ध आरंभ हो गया। इस युद्ध में दैत्य गुरु शुक्राचार्य चंद्रमा की ओर हो गए और अन्य देवता बृहस्पति के साथ हो लिए। अब युद्ध बड़े स्तर पर होने लगा। क्योंकि यह युद्ध तारा की कामना से हुआ था, अतः यह तारकाम्यम कहलाया। इस विशाल युद्ध से सृष्टिकर्त्ता ब्रह्मा को भय हुआ कि यह कहीं पूरी सृष्टि को ही लील न जाए, तो वे बीच बचाव कर इस युद्ध को रुकवाने का प्रयोजन करने लगे। उन्होंने तारा को समझा-बुझा कर चंद्र से वापस लिया और बृहस्पति को सौंपा। इस बीच तारा के एक सुंदर पुत्र जन्मा जो बुध कहलाया। चंद्र और बृहस्पति दोनों ही इसे अपना बताने लगे और स्वयं को इसका पिता बताने लगे यद्यपि तारा चुप ही रही। माता की चुप्पी से अशांत व क्रोधित होकर स्वयं बुध ने माता से सत्य बताने को कहा। तब तारा ने बुध का पिता चंद्र को बताया। इस प्रकार बुध के पिता चन्द्रमा और मां तारा हैं। इनकी बुद्धि बड़ी गम्भीर थी इसलिए ब्रह्माजी ने इनका नाम बुध रखा।

बृहस्पति गुरु ग्रह की उत्पत्ति की कहानी

बृहस्पति गुरु ग्रह की उत्पत्ति की कहानी

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पुराणों के अनुसार ब्रह्मा जी के मानस पुत्र अंगिरा ऋषि का विवाह स्मृति से हुआ। उनके उतथ्य व जीव नामक पुत्र हुए। जीव बचपन से ही शांत एवम जितेन्द्रिय प्रकृति के थे। वे समस्त शास्त्रों तथा नीति के ज्ञाता हुए।

अंगिरानंदन जीव ने प्रभास क्षेत्र में शिवलिंग की स्थापना की तथा शिव को प्रसन्न करने के लिए घोर तप किया। महादेव ने उनकी आराधना एवम तपस्या से प्रसन्न हो कर उन्हें साक्षात दर्शन दिए और कहा,' हे द्विज श्रेष्ठ ! तुमने बृहत तप किया है अतः तुम बृहस्पति नाम से प्रसिद्ध हो कर देवताओं के गुरु बनों और उनका धर्म व नीति के अनुसार मार्गदर्शन करो।'

इस प्रकार महादेव ने बृहस्पति को देवगुरु पद और नवग्रह मंडल में स्थान प्रदान किया। तभी से जीव, बृहस्पति और गुरु के नाम से विख्यात हुए। देवगुरु की शुभा,तारा और ममता तीन पत्नियां हैं। उनकी तीसरी पत्नी ममता से भारद्वाज एवम कच नामक दो पुत्र हुए।

शुक्र ग्रह की उत्पत्ति कथा

शुक्र ग्रह की उत्पत्ति कथा

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पुराणों के अनुसार ब्रह्मा जी के मानस पुत्र भृगु ऋषि का विवाह प्रजापति दक्ष की कन्या ख्याति से हुआ जिससे धाता,विधाता दो पुत्र व श्री नाम की कन्या का जन्म हुआ। भागवत पुराण के अनुसार भृगु ऋषि के कवि नाम के पुत्र भी हुए जो कालान्तर में शुक्राचार्य नाम से प्रसिद्ध हुए।
महर्षि अंगिरा के पुत्र जीव यानी गुरु तथा महर्षि भृगु के पुत्र कवि यानि शुक्र समकालीन थे। यज्ञोपवीत संस्कार के बाद दोनों ऋषियों की सहमति से अंगिरा ने दोनों बालकों की शिक्षा का दायित्व लिया। कवि महर्षि अंगिरा के पास ही रह कर अंगिरानंदन जीव के साथ ही विद्याध्ययन करने लगा।

आरंभ में तो सब सामान्य रहा पर बाद में अंगिरा अपने पुत्र जीव की शिक्षा की ओर विशेष ध्यान देने लगे व कवि की उपेक्षा करने लगे। कवि ने इस भेदभाव पूर्ण व्यवहार को जान कर अंगिरा से अध्ययन बीच में ही छोड़ कर जाने की अनुमति ले ली और गौतम ऋषि के पास पहुंचे। गौतम ऋषि ने कवि की सम्पूर्ण कथा सुन कर उसे महादेव कि शरण में जाने का उपदेश दिया।

महर्षि गौतम  के उपदेशानुसार कवि ने गोदावरी के तट पर शिव की कठिन आराधना की। स्तुति व आराधना से प्रसन्न हो कर महादेव ने कवि को देवों को भी दुर्लभ मृतसंजीवनी नामक विद्याप्रदान की तथा कहा कि जिस मृत व्यक्ति पर तुम इसका प्रयोग करोगे वह जीवित हो जाएगा। साथ ही ग्रहत्व प्रदान करते हुए भगवान शिव ने कहा कि आकाश में तुम्हारा तेज सब नक्षत्रों से अधिक होगा। तुम्हारे उदित होने पर ही विवाह आदि शुभ कार्य आरम्भ किए जाएंगे। अपनी विद्या से पूजित होकर भृगु नंदन शुक्र दैत्यों के गुरु पद पर नियुक्त हुए। जिन अंगिरा ऋषि ने उनके साथ उपेक्षा पूर्ण व्यवहार किया था उन्हीं के पौत्र जीव पुत्र कच को संजीवनी विद्या देने में शुक्र ने किंचित भी संकोच नहीं किया।

कवि को शुक्र नाम कैसे मिला
शुक्राचार्य कवि या भार्गव के नाम से प्रसिद्ध थे। इनको शुक्र नाम कैसे और कब मिला इस विषय में वामन पुराण में कहा गया है।

दानवराज अंधकासुर और महादेव के मध्य घोर युद्ध चल रहा था। अन्धक के प्रमुख सेनानी युद्ध में मारे गए पर भार्गव ने अपनी संजीवनी विद्या से उन्हें पुनर्जीवित कर  दिया। पुनः जीवित हो कर कुजम्भ आदि दैत्य फिर से युद्ध करने लगे। इस पर नंदी आदि गण महादेव से कहने लगे कि जिन दैत्यों को हम मार गिराते हैं उन्हें दैत्य गुरु संजीवनी विद्या से पुनः जीवित कर देते हैं, ऐसे में हमारे बल पौरुष का क्या महत्व है। यह सुन कर महादेव ने दैत्य गुरु को अपने मुख से निगल कर उदरस्थ कर लिया।  उदर में जा कर कवि ने शंकर की स्तुति आरंभ कर दी जिस से प्रसन्न हो कर शिव ने उनको बाहर निकलने की अनुमति दे दी। भार्गव श्रेष्ठ एक दिव्य वर्ष तक महादेव के उदर में ही विचरते रहे पर कोई छोर न मिलने पर पुनः शिव स्तुति करने लगे। बार-बार प्रार्थना करने पर भगवान शंकर ने हंस कर कहा कि मेरे उदर में होने के कारण तुम मेरे पुत्र हो गए हो अतः मेरे शिश्न से बाहर आ जाओ। आज से समस्त चराचर जगत में तुम शुक्र के नाम से ही जाने जाओगे। शुक्रत्व पा कर भार्गव भगवान शंकर के शिश्न से निकल आए और दैत्य सेना कि और प्रस्थान कर गए। तब से कवि शुक्राचार्य के नाम से विख्यात हुए। ज्योतिष शास्त्र में शुक्र का कारक भी शुक्र ग्रह को ही माना जाता है।

शनि ग्रह उत्पत्ति कथा

शनि ग्रह उत्पत्ति कथा


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महर्षि कश्यप का विवाह प्रजापति दक्ष की कन्या अदिति से हुआ जिसके गर्भ से विवस्वान (सूर्य) का जन्म हुआ। सूर्य का विवाह त्वष्टा की पुत्री संज्ञा से हुआ। सूर्य व संज्ञा के संयोग से वैवस्वत मनु व यम दो पुत्र तथा यमुना नाम की कन्या का जन्म हुआ। संज्ञा अपने पति के अमित तेज से संतप्त रहती थी। सूर्य के तेज को अधिक समय तक सहन  न कर पाने पर उसने अपनी छाया को अपने ही समान बना कर सूर्य के पास छोड़ दिया और स्वयम पिता के घर आ गई। पिता त्वष्टा को यह व्यवहार उचित नहीं लगा और उन्होंने संज्ञा को पुनः सूर्य के पास जाने का आदेश दिया। संज्ञा ने पिता के आदेश की अवहेलना की और घोड़ी का रूप बना कर कुरु प्रदेश के वनों में जा कर रहने लगी।
इधर सूर्य संज्ञा की छाया को ही संज्ञा समझते रहे। कालान्तर में संज्ञा के गर्भ से भी सावर्णि मनु और शनि दो पुत्रों का जन्म हुआ। छाया शनि से बहुत स्नेह करती थी और संज्ञा पुत्र वैवस्वत मनु व यम से कम। एक बार बालक यम ने खेल-खेल में छाया को अपना चरण दिखाया तो उसे क्रोध आ गया और उसने यम को चरण हीन होने का शाप दे दिया। बालक यम ने डर कर पिता को इस विषय में बताया तो उन्हों ने शाप का परिहार बता दिया और छाया संज्ञा से बालकों के बीच भेदभाव पूर्ण व्यवहार करने का कारण पूछा। सूर्य के भय से छाया संज्ञा ने सम्पूर्ण सत्य प्रकट कर दिया।

संज्ञा के इस व्यवहार से क्रोधित हो कर सूर्य अपनी ससुराल में गए। ससुर त्वष्टा ने समझा बुझा कर अपने दामाद को शांत किया और कहा,' आदित्य ! आपका तेज सहन न कर सकने के कारण ही संज्ञा ने यह अपराध किया है और घोड़ी के रूप में वन में भ्रमण कर रही है। आप उसके इस अपराध को क्षमा करें और मुझे अनुमति दें कि मैं आपके तेज को काट-छांट कर सहनीय व मनोहर बना दूं। अनुमति मिलने पर त्वष्टा ने सूर्य के तेज को काट-छांट दिया और विश्वकर्मा ने उस छीलन से भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्र का निर्माण किया। मनोहर रूप हो जाने पर सूर्य संज्ञा को ले कर अपने स्थान  पर आ गए। बाद में संज्ञा ने नासत्य और दस्र नामक अश्वनी कुमारों को जन्म दिया। यम की घोर तपस्या से प्रसन्न हो कर महादेव ने उन्हें पितरों का आधिपत्य दिया और धर्म अधर्म के निर्णय करने का अधिकारी बनाया। यमुना व ताप्ती नदी के रूप में प्रवाहित हुई। शनि को नवग्रह मंडल में स्थान दिया गया। 

Saturday, March 10, 2018

भगवान काल भैरव

भगवान काल भैरव

दक्षिणा 2100 /- ज्योतिष तंत्र मंत्र यंत्र टोटका वास्तु कुंडली हस्त रेखा राशि रत्न,भूत प्रेत जिन जिन्नात बुरे गंदे सपने का आना, कोर्ट केस, लव मैरिज, डाइवोर्स, वशीकरण पितृ दोष कालसर्प दोष चंडाल दोष गृह क्लेश बिजनस विदेश यात्रा, अप्सरा परी साधना, अघोर साधनायें , समशान तांत्रिक साधनायें, सास बहु, सास ससुर, पति पत्नी, जेठ जेठानी, देवर देवरानी, नन्द नन्दोई, साला साली, सभी झगड़े विवाद का हल व वशीकरण कार्य किया जाता है      

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भगवान काल भैरव को प्रसन्न के उपाय 

1. रविवार, बुधवार या गुरुवार के दिन एक रोटी लें। इस रोटी पर अपनी तर्जनी और मध्यमा अंगुली से तेल में डुबोकर लाइन खींचें। यह रोटी किसी भी दो रंग वाले कुत्ते को खाने को दीजिए। अगर कुत्ता यह रोटी खा लें तो समझिए आपको भैरव नाथ का आशीर्वाद मिल गया। अगर कुत्ता रोटी सूंघ कर आगे बढ़ जाए तो इस क्रम को जारी रखें लेकिन सिर्फ हफ्ते के इन्हीं तीन दिनों में (रविवार, बुधवार या गुरुवार)। यही तीन दिन भैरव नाथ के माने गए हैं।
2. उड़द के पकौड़े शनिवार की रात को कड़वे तेल में बनाएं और रात भर उन्हें ढंककर रखें। सुबह जल्दी उठकर प्रात: 6 से 7 के बीच बिना किसी से कुछ बोलें घर से निकले और रास्ते में मिलने वाले पहले कुत्ते को खिलाएं। याद रखें पकौड़े डालने के बाद कुत्ते को पलट कर ना देखें। यह प्रयोग सिर्फ रविवार के लिए हैं।

3. शनिवार के दिन शहर के किसी भी ऐसे भैरव नाथ जी का मंदिर खोजें जिन्हें लोगों ने पूजना लगभग छोड़ दिया हो। रविवार की सुबह सिंदूर, तेल, नारियल, पुए और जलेबी लेकर पहुंच जाएं। मन लगाकर उनकी पूजन करें। बाद में 5 से लेकर 7 साल तक के बटुकों यानी लड़कों को चने-चिरौंजी का प्रसाद बांट दें। साथ लाए जलेबी, नारियल, पुए आदि भी उन्हें बांटे। याद रखिए कि अपूज्य भैरव की पूजा से भैरवनाथ विशेष प्रसन्न होते हैं।

4. प्रति गुरुवार कुत्ते को गुड़ खिलाएं।

5. रेलवे स्टेशन पर जाकर किसी कोढ़ी, भिखारी को मदिरा की बोतल दान करें।

6. सवा किलो जलेबी बुधवार के दिन भैरव नाथ को चढ़ाएं और कुत्तों को खिलाएं।

7. शनिवार के दिन कड़वे तेल में पापड़, पकौड़े, पुए जैसे विविध पकवान तलें और रविवार को गरीब बस्ती में जाकर बांट दें।

8. रविवार या शुक्रवार को किसी भी भैरव मं‍दिर में गुलाब, चंदन और गुगल की खुशबूदार 33 अगरबत्ती जलाएं।

9. पांच नींबू, पांच गुरुवार तक भैरव जी को चढ़ाएं।

10. सवा सौ ग्राम काले तिल, सवा सौ ग्राम काले उड़द, सवा 11 रुपए, सवा मीटर काले कपड़े में पोटली बनाकर भैरव नाथ के मंदिर में बुधवार के दिन चढ़ाएं।

श्री अष्ट भैरव : भैरव के 8 रूप 

श्री भैरव के अनेक रूप हैं जिसमें प्रमुख रूप से बटुक भैरव, महाकाल भैरव तथा स्वर्णाकर्षण भैरव प्रमुख हैं। जिस भैरव की पूजा करें उसी रूप के नाम का उच्चारण होना चाहिए। सभी भैरवों में बटुक भैरव उपासना का अधिक प्रचलन है। तांत्रिक ग्रंथों में अष्ट भैरव के नामों की प्रसिद्धि है। वे इस प्रकार हैं-
1. असितांग भैरव,
2. चंड भैरव,
3. रूरू भैरव,
4. क्रोध भैरव,
5. उन्मत्त भैरव,
6. कपाल भैरव,
7. भीषण भैरव
8. संहार भैरव।

रविवार, बुधवार या भैरव अष्टमी पर इन 8 नामों का उच्चारण करने से मनचाहा वरदान मिलता है। भैरव देवता शीघ्र प्रसन्न होते हैं और हर तरह की सिद्धि प्रदान करते हैं। क्षेत्रपाल व दण्डपाणि के नाम से भी इन्हें जाना जाता है।

काल भैरव का पूजन

भगवान भैरव अपने भक्तों के कष्टों को दूर कर बल, बुद्धि, तेज, यश, धन तथा मुक्ति प्रदान करते हैं। जो व्यक्ति भैरव जयंती को अथवा किसी भी मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को भैरव का व्रत रखता है, पूजन या उनकी उपासना करता है वह समस्त कष्टों से मुक्त हो जाता है।

मार्गशीर्ष माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी काल भैरवाष्टमी के रूप में मनाई जाती है। इस दिन भगवान महादेव ने काल भैरव के रूप में अवतार लिया था। काल भैरव भगवान महादेव का अत्यंत ही रौद्र, भयाक्रांत, वीभत्स, विकराल प्रचंड स्वरूप है। भैरवजी को काशी का कोतवाल भी माना जाता है। काल भैरव के पूजन से अनिष्ट का निवारण होता है।

* काल भैरवाष्टमी के दिन मंदिर जाकर भैरवजी के दर्शन करने से पूर्ण फल की प्राप्ति होती है।
* उनकी प्रिय वस्तुओं में काले तिल, उड़द, नींबू, नारियल, अकौआ के पुष्प, कड़वा तेल, सुगंधित धूप, पुए, मदिरा, कड़वे तेल से बने पकवान दान किए जा सकते हैं।
* उन्हें जलेबी एवं तले पापड़ या उड़द के पकौड़े का भोग लगाने से जीवन के हर संकट दूर होकर मनुष्य का सुखमय जीवन व्यतीत होता है।
* काल भैरव के पूजन-अर्चन से सभी प्रकार के अनिष्टों का निवारण होता है तथा रोग, शोक, दुखः, दरिद्रता से मुक्ति मिलती है।
* काल भैरव के पूजन में उनकी प्रिय वस्तुएं अर्पित कर आशीर्वाद प्राप्त किया जा सकता है। भैरवजी के दर्शन-पूजन से सकंट व शत्रु बाधा का निवारण होता है।
* भैरव अष्‍टमी के दिन भैरवजी के वाहन श्वान को गुड़ खिलाने का विशेष महत्व है। दसों दिशाओं के नकारात्मक प्रभावों से मुक्ति मिलती है तथा पुत्र की प्राप्ति होती है।

श्री भैरव अपने उपासक की दसों दिशाओं से रक्षा करते हैं।
रविवार एवं बुधवार को भैरव की उपासना का दिन माना गया है।
कुत्ते को इस दिन मिष्ठान खिलाकर दूध पिलाना चाहिए।
भैरव की पूजा में श्री बटुक भैरव अष्टोत्तर शत-नामावली का पाठ करना चाहिए।
भैरव की प्रसन्नता के लिए श्री बटुक भैरव मूल मंत्र का पाठ करना शुभ होता है।
भैरव को शिवजी का अंश अवतार माना गया है। रूद्राष्टाध्याय तथा भैरव तंत्र से इस तथ्य की पुष्टि होती है।
भैरव जी का रंग श्याम है। उनकी चार भुजाएं हैं, जिनमें वे त्रिशूल, खड़ग, खप्पर तथा नरमुंड धारण किए हुए हैं।
उनका वाहन श्वान यानी कुत्ता है।
भैरव श्मशानवासी हैं। ये भूत-प्रेत, योगिनियों के स्वामी हैं।
भक्तों पर कृपावान और दुष्टों का संहार करने में सदैव तत्पर रहते हैं।

भैरव आराधना के दिव्य चमत्कारिक मंत्र

जिंदगी में हर तरह के संकटों से मुक्ति के लिए भैरव आराधना का बहुत महत्व है।
 खास तौर पर काल भैरवाष्टमी के दिन भैरव के मंत्रों का प्रयोग कर व्यापार-व्यवसाय, शत्रु पक्ष से आने वाली परेशानियां, विघ्न-बाधाएं, कोर्ट-कचहरी तथा निराशा आदि से मुक्ति पाई जा सकती है।
भैरव आराधना के विशेष मंत्र
- 'ॐ कालभैरवाय नम:।'
- 'ॐ भयहरणं च भैरव:।'
- 'ॐ भ्रां कालभैरवाय फट्‍।'
- 'ॐ हं षं नं गं कं सं खं महाकाल भैरवाय नम:।'
- 'ॐ ह्रीं बटुकाय आपदुद्धारणाय कुरू कुरू बटुकाय ह्रीं।'
उक्त समस्त मंत्र चमत्कारिक रूप से सिद्धि प्रदान करते हैं। इनका प्रयोग अति शुद्धता से करना चाहिए।

Friday, March 9, 2018

विघ्ननिवारक व ऐश्वर्यदाता श्रीगणपति के ये 108 नाम (अष्टोत्तरशतनाम)

विघ्ननिवारक व ऐश्वर्यदाता श्रीगणपति के ये 108 नाम (अष्टोत्तरशतनाम)

दक्षिणा 2100 /- ज्योतिष तंत्र मंत्र यंत्र टोटका वास्तु कुंडली हस्त रेखा राशि रत्न,भूत प्रेत जिन जिन्नात बुरे गंदे सपने का आना, कोर्ट केस, लव मैरिज, डाइवोर्स, वशीकरण पितृ दोष कालसर्प दोष चंडाल दोष गृह क्लेश बिजनस विदेश यात्रा, अप्सरा परी साधना, अघोर साधनायें , समशान तांत्रिक साधनायें, सास बहु, सास ससुर, पति पत्नी, जेठ जेठानी, देवर देवरानी, नन्द नन्दोई, साला साली, सभी झगड़े विवाद का हल व वशीकरण कार्य किया जाता है      

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‘हे गणेश! तुम्हीं समस्त समस्त देवगणों में एकमात्र गणपति हो, प्रिय विषयों के अधिपति होने से प्रियपति हो, और ऋद्धि-सिद्धि एवं निधियों के अधिष्ठाता होने से निधिपति हो; अत: हम भक्तगण तुम्हारा नाम-स्मरण, नामोच्चारण और आराधन करते हैं।’ (शुक्लयजुर्वेद २३।१९)

संसाररूपी दु:खालय में सभी प्राणी सुख की खोज में अनन्तकाल से भटक रहे हैं। मानव-हृदय अनन्त जन्मों की वासनाओं की कटुता से मलिन होता रहा है। उस मलिन-हृदय की स्वच्छता के लिए भगवान का नाम-स्मरण ही सर्वश्रेष्ठ साधन है। जिस प्रकार पित्त की अधिकता से कड़वी हुई जीभ की औषधि मिसरी है, उसी प्रकार पापों की दाहकता को मिटाने का अचूक उपाय भगवान के नामों का स्मरण करना है। हमारे ऋषि-मुनियों ने उपासना का सबसे सरल उपाय भगवान के नामों का जप बतलाया है।

सभी रसायन हम करी नहीं नाम सम कोय।
रंचक घट मैं संचरै, सब तन कंचन होय।।

कलियुग का एक विशेष गुण है–’कलियुग केवल नाम अधारा।’ कलिकाल में भगवान की आराधना की सारी पद्धतियों में उनके नामों का उच्चारण करना ही भगवान को प्रसन्न करने की सबसे सरल रीति है।

जिस प्रकार भगवान में अनन्त शक्तियां होती हैं, वैसे ही उनके नाम अनन्त शक्तियों से भरे जादू की पिटारी हैं। भगवान श्रीगणेश ‘विघ्नकर्ता’ और ‘विघ्नहर्ता’ दोनों ही हैं। प्रतिदिन चाहे हम गणेशजी की विधिवत् पूजा करें अथवा उनके नामों के पाठ-स्मरण से अपने दिन की शुरुआत करें; श्रीगणेश को प्रसन्नकर हम कार्यों में सफलता, विवेक-बुद्धि एवं सुख-शान्ति व समृद्धि प्राप्त कर सकते हैं।

गणेशजी के अनन्त नाम हैं। यहां श्रीगणेशपुराण के उपासनाखण्ड में वर्णित श्रीगणेश के 108 नाम दिए गए हैं। मंगलवार, बुधवार, चतुर्थी तिथि (संकष्टी) को; या हो सके तो प्रतिदिन सुबह भगवान गणपति का स्मरण करते हुए इन नामों का पाठ किया जाए तो भगवान श्रीगणेश उपासक पर प्रसन्न हो जाते हैं।

सर्वविघ्नहरण गणेश के 108 नामों के पाठ का फल

▪️ श्रीगणेश के 108 नामों का पाठ समस्त पापों का नाशक है। 
▪️ 108 नामों का पाठ करने वाले मनुष्य के यहां समस्त प्रकार की ऋद्धि-सिद्धि का भण्डार भरा रहता है। मनुष्य धन-धान्य आदि सभी अभीष्ट वस्तुएं प्राप्त कर लेता है और अंत में मोक्ष प्राप्त करता है।
▪️ गणेशजी के नाम-स्मरण से मनुष्य का शत्रु भय दूर हो जाता है।
▪️ विघ्नहर्ता गणेश प्रसन्न होकर कार्यों में आने वाली रुकावटों को दूर करते हैं। मनुष्य सभी कार्यों में सफलता व सिद्धि प्राप्त करता है।
▪️ भगवान श्रीगणेश ‘विघ्नकर्ता’ और ‘विघ्नहर्ता’ दोनों ही हैं। रुष्ट होने पर वे विघ्न उत्पन्न कर देते हैं और जहां उनका ध्यान-पूजन श्रद्धाभक्ति से होता है वहां विघ्न, व्याधि और वास्तुप्रदत्त दोष व्यक्ति को नहीं सताते हैं। विघ्न’ पर श्रीगणेश का ही शासन चलता है अत: वे ‘विघ्नेश’ कहलाते हैं।
▪️ विद्या-वारिधि तथा बुद्धि के देव गणेश की प्रसन्नता से मनुष्य का अज्ञान व अविवेक दूर होता है।
▪️ श्रीगणेश प्रसन्न होकर समस्त जगत को उपासक के वशीभूत कर देते हैं और उसे कीर्ति प्रदान करते हैं।
▪️ नाम-स्मरण से मनुष्य के समस्त दु:ख दूर हो जाते हैं, विवेक उत्पन्न होता है। लम्बे समय तक नाम-स्मरण करने से मनुष्य की वासना छूट जाती है और भगवान की शक्ति का आश्रय लेकर मनुष्य अनन्त सुख को प्राप्त करता है।


No
Name Mantra
1
गजाननाय नमः।
2
गणाध्यक्षाय नमः।
3
विघ्नराजाय नमः।
4
विनायकाय नमः।
5
द्वैमातुराय नमः।
6
द्विमुखाय नमः।
7
प्रमुखाय नमः।
8
सुमुखाय नमः।
9
कृतिने नमः।
10
सुप्रदीपाय नमः।
11
सुखनिधये नमः।
12
सुराध्यक्षाय नमः।
13
सुरारिघ्नाय नमः।
14
महागणपतये नमः।
15
मान्याय नमः।
16
महाकालाय नमः।
17
महाबलाय नमः।
18
हेरम्बाय नमः।
19
लम्बजठरायै नमः।
20
ह्रस्व ग्रीवाय नमः।
21
महोदराय नमः।
22
मदोत्कटाय नमः।
23
महावीराय नमः।
24
मन्त्रिणे नमः।
25
मङ्गल स्वराय नमः।
26
प्रमधाय नमः।
27
प्रथमाय नमः।
28
प्राज्ञाय नमः।
29
विघ्नकर्त्रे नमः।
30
विघ्नहर्त्रे नमः।
31
विश्वनेत्रे नमः।
32
विराट्पतये नमः।
33
श्रीपतये नमः।
34
वाक्पतये नमः।
35
शृङ्गारिणे नमः।
36
अश्रितवत्सलाय नमः।
37
शिवप्रियाय नमः।
38
शीघ्रकारिणे नमः।
39
शाश्वताय नमः।
40
बल नमः।
41
बलोत्थिताय नमः।
42
भवात्मजाय नमः।
43
पुराण पुरुषाय नमः।
44
पूष्णे नमः।
45
पुष्करोत्षिप्त वारिणे नमः।
46
अग्रगण्याय नमः।
47
अग्रपूज्याय नमः।
48
अग्रगामिने नमः।
49
मन्त्रकृते नमः।
50
चामीकरप्रभाय नमः।
51
सर्वाय नमः।
52
सर्वोपास्याय नमः।
53
सर्व कर्त्रे नमः।
54
सर्वनेत्रे नमः।
55
सर्वसिद्धिप्रदाय नमः।
56
सिद्धये नमः।
57
पञ्चहस्ताय नमः।
58
पार्वतीनन्दनाय नमः।
59
प्रभवे नमः।
60
कुमारगुरवे नमः।
61
अक्षोभ्याय नमः।
62
कुञ्जरासुर भञ्जनाय नमः।
63
प्रमोदाय नमः।
64
मोदकप्रियाय नमः।
65
कान्तिमते नमः।
66
धृतिमते नमः।
67
कामिने नमः।
68
कपित्थपनसप्रियाय नमः।
69
ब्रह्मचारिणे नमः।
70
ब्रह्मरूपिणे नमः।
71
ब्रह्मविद्यादि दानभुवे नमः।
72
जिष्णवे नमः।
73
विष्णुप्रियाय नमः।
74
भक्त जीविताय नमः।
75
जितमन्मधाय नमः।
76
ऐश्वर्यकारणाय नमः।
77
ज्यायसे नमः।
78
यक्षकिन्नेर सेविताय नमः।
79
गङ्गा सुताय नमः।
80
गणाधीशाय नमः।
81
गम्भीर निनदाय नमः।
82
वटवे नमः।
83
अभीष्टवरदाय नमः।
84
ज्योतिषे नमः।
85
भक्तनिधये नमः।
86
भावगम्याय नमः।
87
मङ्गलप्रदाय नमः।
88
अव्यक्ताय नमः।
89
अप्राकृत पराक्रमाय नमः।
90
सत्यधर्मिणे नमः।
91
सखये नमः।
92
सरसाम्बुनिधये नमः।
93
महेशाय नमः।
94
दिव्याङ्गाय नमः।
95
मणिकिङ्किणी मेखालाय नमः।
96
समस्त देवता मूर्तये नमः।
97
सहिष्णवे नमः।
98
सततोत्थिताय नमः।
99
विघातकारिणे नमः।
100
विश्वग्दृशे नमः।
101
विश्वरक्षाकृते नमः।
102
कल्याणगुरवे नमः।
103
उन्मत्तवेषाय नमः।
104
अपराजिते नमः।
105
समस्त जगदाधाराय नमः।
106
सर्वैश्वर्यप्रदाय नमः।
107
आक्रान्त चिद चित्प्रभवे नमः।
108
श्री विघ्नेश्वराय नमः।

॥इति श्रीगणेशाष्टोत्तरशतनामावलिः सम्पूर्णा॥


विघ्ननिवारक व ऐश्वर्यदाता श्रीगणपति के ये 108 नाम (अष्टोत्तरशतनाम)

गणेश्वर—गणों के स्वामी।
गणक्रीड—गणों के साथ क्रीडा करने वाले।
महागणपति—महागणपति।
विश्वकर्ता—सबको उत्पन्न करने वाले।
विश्वमुख—सभी ओर मुख वाले।
दुर्जय—अजेय।
धूर्जय—जीतने को उत्सुक।
जय—जय।
सुरुप—सुन्दर रूप वाले।
सर्वनेत्राधिवास—सबकी आंखों में बसने वाले।
वीरासनाश्रय—वीरासन में विराजमान।
योगाधिप—योग के अधिष्ठाता।
तारकस्थ—तारकमन्त्र में निवास करने वाले।
पुरुष—पुरुष।
गजकर्णक—हाथी के कान वाले।
चित्रांग—दीप्तिमान अंगों वाले।
श्यामदशन—श्याम आभायुक्त दांत वाले।
भालचन्द्र—मस्तक पर चन्द्रकला धारण करने वाले।
चतुर्भुज—चार भुजाओं वाले।
शम्भुतेज—शम्भु के तेज से उत्पन्न।
यज्ञकाय—यज्ञस्वरूप।
सर्वात्मा—सबके आत्मस्वरूप।
सामबृंहित—सामवेद में गाए गए।
कुलाचलांस—कुलपर्वतों के समान कन्धों वाले।
व्योमनाभि—आकाश की सी नाभि वाले।
कल्पद्रुमवनालय—कल्पवृक्ष के वन में रहने वाले।
निम्ननाभि—गहरी नाभि वाले।
स्थूलकुक्षि—मोटे पेट वाले।
पीनवक्षा—चौड़ी छाती वाले।
बृहद्भुज—लम्बी भुजाओं वाले।
पीनस्कन्ध—चौड़े कन्धों वाले।
कम्बुकण्ठ—शंख के समान कण्ठ वाले।
लम्बोष्ठ—बड़े–बड़ेओठवाले।
लम्बनासिक—लम्बी नाक वाले।
सर्वावयवसम्पूर्ण—सभी अंगों से परिपूर्ण।
सर्वलक्षणलक्षित—सभी शुभ लक्षणों से युक्त।
इक्षुचापधर—ईख के धनुष को धारण करने वाले।
शूली—शूल धारण करने वाले।
कान्तिकन्दलिताश्रय—शोभायमान गण्डस्थल वाले।
अक्षमालाधर—अक्षमाला धारण करने वाले।
ज्ञानमुद्रावान्—ज्ञानमुद्रा में स्थित।
विजयावह—विजयप्रदाता।
कामिनीकामनाकाममालिनीकेलिलालित—कामिनियों की कामनारूपी कामकला की क्रीडा से प्रसन्न होने वाले।
अमोघसिद्धि—अमोघ सिद्धिस्वरूप।
आधार—आधारस्वरूप।
आधाराधेयवर्जित—जिनका कोई आधार नहीं और जो किसी पर आश्रित नहीं।
इन्दीवरदलश्याम—नीलकमलपत्र के समान श्याम वर्णवाले।
इन्दुमण्डलनिर्मल—चन्द्रमण्डल के समान निर्मल।
कर्मसाक्षी—सभी कर्मों के साक्षी।
कर्मकर्ता—सभी कर्मों की मूलशक्ति।
कर्माकर्मफलप्रद—कर्म और अकर्म (पाप) का फल देने वाले।
कमण्डलुधर—कमण्डलु धारण करने वाले।
कल्प—नियम के स्वरूप।
कपर्दी—केशसज्जायुक्त।
कटिसूत्रभृत्—कमर में मेखला धारण किए हुए।
कारुण्यदेह—करुणामूर्ति।
कपिल—रक्त आभायुक्त।
गुह्यागमनिरुपित—रहस्यमय तन्त्रों में वर्णित।
गुहाशय—भक्तों के हृदय में विराजमान।
गुहाब्धिस्थ—हृदयसमुद्र में स्थित।
घटकुम्भ—घड़े के समान गण्डस्थल वाले।
घटोदर—घड़े के समान पेट वाले।
पूर्णानन्द—पूर्णानन्दस्वरूप।
परानन्द—आनन्द की पराकाष्ठा।
धनद—समृद्धि देने वाले।
धरणीधर—पृथ्वी को धारण करने वाले।
बृहत्तम—सबसे बड़े।
ब्रह्मपर—परब्रह्म।
ब्रह्मण्य—ब्रह्मानुवर्ती।
ब्रह्मवित्प्रिय—ब्रह्मज्ञानियों के प्रिय।
भव्य—सुन्दर।
भूतालय—भूतसमूह के आश्रय।
भोगदाता—भोग प्रदान करने वाले।
महामना—जिनका हृदय विशाल है।
वरेण्य—श्रेष्ठ।
वामदेव—सुन्दर स्वरूप वाले।
वन्द्य—वन्दन करने योग्य।
वज्रनिवारण—क्लेशों से रक्षा करने वाले।
विश्वकर्ता—सर्वस्रष्टा, सब कुछ करने वाले।
विश्वचक्षु—सब कुछ देखने वाले।
हवन—यज्ञस्वरूप।
हव्यकव्यभुक्—हव्य और कव्य के भोक्ता।
स्वतन्त्र—स्वाधीन।
सत्यसंकल्प—संकल्पवान्।
सौभाग्यवर्धन—सौभाग्य बढ़ाने वाले।
कीर्तिद—कीर्ति देने वाले।
शोकहारी—शोक मिटाने वाले।
त्रिवर्गफलदायक—धर्म–अर्थ–काम तीनों पुरुषार्थों के प्रदाता।
चतुर्बाहु—चार भुजाओं वाले।
चतुर्दन्त—चार दांतों वाले।
चतुर्थीतिथिसम्भव—चतुर्थी तिथि को अवतार ग्रहण करने वाले।
सहस्त्रशीर्षा पुरुष—अनन्तरूप में प्रकट विराट् पुरुष।
सहस्त्राक्ष—अनन्त दृष्टिसम्पन्न।
सहस्त्रपात्—अनन्त गतिसम्पन्न।
कामरूप—इच्छानुसार रूप ग्रहण करने वाले।
कामगति—इच्छानुसार गति वाले।
द्विरद—दो दांत वाले।
द्वीपरक्षक—सातों द्वीपों (धरती) के रक्षक।
क्षेत्राधिप—समस्त क्षेत्र के अधिष्ठाता।
क्षमा–भर्ता—क्षमा धारण करने वाले।
लयस्थ—गानप्रिय।
लड्डुकप्रिय—जिन्हें लड्डू प्रिय हैं।
प्रतिवादिमुखस्तम्भ—विरोधी का मुख बन्द कर देने वाले।
दुष्टचित्तप्रसादन—चित्त के दोषों को मिटा देने वाले।
भगवान्—अनन्त, छहों ऐश्वर्यसम्पन्न।
भक्तिसुलभ—भक्ति द्वारा शीघ्र प्राप्त होने वाले।
याज्ञिक—यज्ञप्रक्रिया के पूर्ण ज्ञाता।
याजकप्रिय–जिन्हें यज्ञकर्ता प्रिय हैं।


श्रीगणपति के 108 नाम

गणाध्यक्ष : सभी गणों के मालिक
गणपति : सभी गणों के मालिक
गौरीसुत : माता गौरी के पुत्र
लम्बकर्ण : बड़े कान वाले
लम्बोदर : बड़े पेट वाले
महाबल : बलशाली
महागणपति : देवो के देव
शूपकर्ण : बड़े कान वाले
शुभम : सभी शुभ कार्यों के प्रभु
सिद्धिदाता : इच्छाओं और अवसरों के स्वामी
महेश्वर : ब्रह्मांड के भगवान
मंगलमूर्त्ति : शुभ कार्य के देव
मूषकवाहन : जिसका सारथी चूहा
निदीश्वरम : धन और निधि के दाता
प्रथमेश्वर : सब के बीच प्रथम आने वाले
सिद्दिविनायक : सफलता के स्वामी
सुरेश्वरम : देवों के देव
वक्रतुण्ड : घुमावदार सूंड
अखूरथ : जिसका सारथी मूषक है
अलम्पता : अनन्त देव
अमित : अतुलनीय प्रभु
अनन्तचिदरुपम : अनंत और व्यक्ति चेतना
अवनीश : पूरे विश्व के प्रभु
अविघ्न : बाधाओं को हरने वाले
भीम : विशाल
भूपति : धरती के मालिक
भुवनपति : देवों के देव
बुद्धिप्रिय : ज्ञान के दाता
बुद्धिविधाता : बुद्धि के मालिक
चतुर्भुज : चार भुजाओं वाले
देवादेव : सभी भगवान में सर्वोपरी
देवांतकनाशकारी : बुराइयों और असुरों के विनाशक
द्वैमातुर : दो माताओं वाले
एकदंष्ट्र : एक दांत वाले
ईशानपुत्र : भगवान शिव के बेटे
गदाधर : जिसका हथियार गदा है
देवव्रत : सबकी तपस्या स्वीकार करने वाले
देवेन्द्राशिक : सभी देवताओं की रक्षा करने वाले
धार्मिक : दान देने वाला
दूर्जा : अपराजित देव
गणाध्यक्षिण : सभी पिंडों के नेता
गुणिन : जो सभी गुणों के ज्ञानी
हरिद्र : स्वर्ण के रंग वाला
हेरम्ब : माँ का प्रिय पुत्र
श्वेता : जो सफेद रंग के रूप में शुद्ध है
सिद्धिप्रिय : इच्छापूर्ति वाले
स्कन्दपूर्वज : भगवान कार्तिकेय के भाई
सुमुख : शुभ मुख वाले
स्वरुप : सौंदर्य के प्रेमी
तरुण : जिसकी कोई आयु न हो
उद्दण्ड : शरारती
उमापुत्र : पार्वती के बेटे
वरगणपति : अवसरों के स्वामी
वरप्रद : इच्छाओं और अवसरों के अनुदाता
वरदविनायक : सफलता के स्वामी
कपिल : पीले भूरे रंग वाला
कवीश : कवियों के स्वामी
कीर्त्ति : यश के स्वामी
कृपाकर : कृपा करने वाले
कृष्णपिंगाश : पीली भूरि आंख वाले
क्षेमंकरी : माफी प्रदान करने वाला
क्षिप्रा : आराधना के योग्य
विकट : अत्यंत विशाल
विनायक : सब का भगवान
विश्वमुख : ब्रह्मांड के गुरु
विश्वराजा : संसार के स्वामी
यज्ञकाय : सभी पवित्र और बलि को स्वीकार करने वाला
यशस्कर : प्रसिद्धि और भाग्य के स्वामी
यशस्विन : सबसे प्यारे और लोकप्रिय देव
योगाधिप : ध्यान के प्रभु
मनोमय : दिल जीतने वाले
मृत्युंजय : मौत को हरने वाले
मूढ़ाकरम : जिनमें खुशी का वास होता है
मुक्तिदायी : शाश्वत आनंद के दाता
नादप्रतिष्ठित : जिसे संगीत से प्यार हो
नमस्थेतु : सभी बुराइयों और पापों पर विजय प्राप्त करने वाले
नन्दन : भगवान शिव का बेटा
सिद्धांथ : सफलता और उपलब्धियों की गुरु
पीताम्बर : पीले वस्त्र धारण करने वाला
प्रमोद : आनंद
पुरुष : अद्भुत व्यक्तित्व
रक्त : लाल रंग के शरीर वाला
रुद्रप्रिय : भगवान शिव के चहेते
सर्वदेवात्मन : सभी स्वर्गीय प्रसाद के स्वीकर्ता
सर्वसिद्धांत : कौशल और बुद्धि के दाता
सर्वात्मन : ब्रह्मांड की रक्षा करने वाला
ओमकार : ओम के आकार वाला
शशिवर्णम : जिसका रंग चंद्रमा को भाता हो
शुभगुणकानन : जो सभी गुण के गुरु हैं
वीरगणपति : वीर प्रभु
विद्यावारिधि : बुद्धि की देव
विघ्नविनाशाय : सभी बाधाओं का नाश करने वाला
विघ्नेश्वर : सभी बाधाओं के हरने वाले भगवान

विशेष सुचना

( जो भी मंत्र तंत्र टोटका इत्यादि ब्लॉग में दिए गए है वे केवल सूचनार्थ ही है, अगर साधना करनी है तो वो पूर्ण जानकार गुरु के निर्देशन में ही करने से लाभदायक होंगे, किसी भी नुक्सान हानि के लिए प्रकाशक व लेखक जिम्मेदार नहीं होगा। )